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उसने चन्द्रलेखा को पटरानी बनाया । "2
"लोकपाल अपना नाम सार्थक करता हुआ अपने विशाल राज्य का पालन करने लगा । वह इतना प्रतापी था कि सब राजा उसके समक्ष नत थे । एक दिन महारानी ने, जब महाराज प्रसन्न थे, निवेदन किया - नाथ ! कान्यकुब्ज नामक नगर में हमारे गुरु रहते हैं । जगत्पूज्य । आप अनुरोधपूर्वक उन्हें यहां आमंत्रित करें । राजा ने अपनी प्रियतमा का आग्रह मान लिया । ""
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आगम और ब्रिपिटक । एक अनुशीलन
"राजा ने उन साधुओं को लाने के लिए अपने व्यक्तियों को वहां रवाना किया । वे वहां गये । वहां स्थित अर्द्ध फालक मत के साधुओं की भक्तिपूर्वक बार-बार अभ्यर्थना की। तब जिनचन्द्र प्रभृति साधु वलभी नगर में आये ।
राजा ने साधु-संघ का आगमन सुना । राजा सामन्तवृन्द, मंत्रीगण तथा नागरिक जनों से परिवृत्त हो, विविध वाद्यों की मधुर ध्वनि से दिशाओं को परिव्याप्त करता हुआ यथाशीघ्र साधुओं को वन्दन करने गया ।'
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१. प्रजापालः स्वपुत्रार्थं चन्द्रकीतिनृपात्मजाम् । प्रमोदात् प्रार्थयामास चन्द्रलेखां गुणोज्ज्वलाम् ॥ उपयभ्य कुमारोऽसौ तां कन्यां नवयौवनाम् । बोभुजीति तया भोगान् शच्येव सुरनायकः ॥ क्रमात् संप्राप्य पुण्येन प्राज्यं राज्यं पितुर्मुदा । चकार चन्द्रलेखां तां सदग्रमहिवीपदे ॥
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- भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लो० ३९-४१
२. लोकपालो नृपः सार्थं कुर्वन्नामात्मनो भृशम् । विधत्त विशदं राज्यं नताशेषमहीपतिः ॥ एकवाऽऽनन्दचित्तोऽसौ राज्ञ्या विज्ञापितो नृपः । नाथाऽस्मद्गुरवः सन्ति कान्यकुब्जाख्यपत्तने ॥ तानानायय वेगेन जगत्पूज्यानू मदाग्रहात् । प्रियाप्रियतया भूपस्तद्वचो मानयनु मुदा ॥ वही, श्लोक ४२-४४
३. तौल्ला प्रषयामास तत्रैवात्मीयसज्जनान् । पत्वा नत्वा भृशं भक्त्या गुरु स्ते तत्र संस्थितान् ॥
खंड १२
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