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________________ मावा और साहित्य i शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५३१ "राजा ने दूर से ही साधुओं को देखा । वह सोचने लगा, यह कैसा निन्दनीय मत है, जो स्वयं ही अपनी विडम्बना कर रहा है । ऐसे साधु नहीं देखे जाते, जो नग्न भी हों और वस्त्र भी रखते हों । यह तो कोई नया मत दिखाई देता है । इनके पास जाना उचित नहीं है। राजा वहां से अपने महल में लौट आया। रानी ने तत्काल राजा के मन की बात भांप ली ।"1 "रानी ने अत्यधिक भक्ति के कारण अपने गुरुओं के लिए वस्त्र भिजवाये । उन्होंने (साधुओं ने ) रानी के कथनानुसार सहर्ष वस्त्र धारण कर लिये । तब राजा ने उनका भक्तिपूर्वक सम्मान तथा पूजन किया । स्त्रियों के प्रेम में आसक्त व्यक्ति क्या अकार्य नहीं करते ? उन साधुओं ने तब जो वस्त्र धारण किये, वे श्वेत वर्ण के थे; अतः उस दिन से उनका मत अर्द्ध फालक के स्थान पर 'श्वेताम्बर' नाम से विख्यात हो गया ।" " तैः समभ्यथिता भूयो विनयाबद्ध फालकाः । जिनचन्द्रादयः प्रापुर्वलभीपुरभेदनम् ॥ आकussगमनं साधु-संघस्य धरणीश्वरः । वन्दितु निःससाराशु परानन्दाच तामितः ॥ तुर्य त्रिकवराराववधिरीकृतविङ मुखम् सामन्ताऽमात्यपरत्य परिवार 1 परिष्कृत : ॥ - भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लोक ४५-४८. १. विलोक्य दूरतः साबुन विस्मयादित्यचिन्तयत् । P किमेतद्दर्शनं निन्द्य लोकेऽत्र स्वविडम्बकम् ॥ नग्ना वस्त्रेण संविक्ता नेक्ष्यन्ते यत्र साधवः । गन्तु ं न युज्यते नोऽत्र नृत्नदर्शनदर्शनात् ॥ व्याघुट्य भूपतिस्तस्मान्निजमन्दिरमेयिवात् । ज्ञात्वा राशी नरेन्द्रस्य मानसं सहसा स्फुटम् ॥ Jain Education International 2010_05 - वही, श्लोक ४९-५१ २. गुरुणां गुरु भक्त्या सा प्राहिणोत्सिचयोच्चयम् । तैर्गृहीतानि वासांसि मुदा तानि तदुक्तितः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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