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भाषा और साहित्य शिलालेखीं - प्राकृत
[२५३ घटित होती है, पर, व के साथ जुड़े स्वरों में वैभिन्य है, जो इन शिलालेखों के सन्दर्भ में असम्भाव्य नहीं है । क्योंकि इन शिलालेखों में किसी भी प्रकार की नियामकता या परम्परा में सर्वथा इत्थंभूतता प्राप्त नहीं होती।
चतुर्थ शिलालेख में द्वादशवर्षाभिषिक्तेन पद के अन्तर्वर्ती द्वादश शब्द के लिए कालसी में दुवाडस, धौली में दुवादस तथा मानसेरा में दुवदश का प्रयोग हुमा है। शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों में यह शब्द स्पष्ट नहीं है। गिरनार में द्वादस आया है। प्रथम शिलालेख में आये द्वौ के लिए भी गिरनार में द्वौ आया है । तात्पर्य यह है कि गिरनार में ऐसी प्रवृत्ति नहीं है। दो ( गिरनार में उत्कीर्ण ) रूप संस्कृत के बहुत निकट हैं या संस्कृत जैसे हैं । इसका कारण ऐसा प्रतीत होता है कि गिरनार के अभिलेख की भाषा शौरसेनी प्राकृत का विशेष रूप से अनुसरण करती हुई है। गिरनार शौरसेनी के क्षेत्र में आता है । शोरसेनो का संस्कृत से नेकट्य होने के कारण उसके कुछ रूप संस्कृत के समान ही प्राप्त होते हैं ।
नधम शिलालेख में स्वामिकेन के लिए कालसी में सुविमिकेना, धौली में सुवामिकेन तथा जोगढ़ में भी सुधामिकेन का प्रयोग हुआ है। इनमें व के उव में परिवर्तित होने की परम्परा घटित होती है । गिरनार में स्वामिकेन आया है, जो संस्कृत रूप का अनुगामी है । शाहबाजगढ़ी और मानसेरा में स्पमिकेन शब्द प्राप्त होता है । यहां सम्भवतः लिपि की अस्पष्टता भी हो सकती है।
सप्त स्तम्भ लेखों में प्रथम स्तम्भ लेख में स्वस्मिन के लिए सुवे' का प्रयोग हुआ है। टोपरा, इलाहाबाद, लोडिया अरराज तथा लौड़िया नन्दनगढ़ में यह शब्द समान रूप में प्रयुक्त हुआ है । मेरठ और रामपुरवा के अभिलेख में यह पंक्ति अस्पष्ट है ।
चतुर्थ स्तम्भ लेख में इस सम्बन्ध में भिन्न स्थिति प्राप्त होती है । वही स्वस्थाः के लिए
१. धमापेखा धमकामता चा सुवे सुवे बढिता.... ....
-टोपरा, प्रथम स्तम्भ लेख धमापेखा धमकामता च सुवे सुवे वढिता........
-इलाहाबाद, प्रथम स्तम्भ-लेख धमापेख धमकामता च सुवे सुवे वढिता.......
-लौडिया अरराज, प्रथम स्तम्भ लेख धंमापेख धमकामता च सुवे सुवे वढित.......।
-लौडिया नन्दनगढ़, प्रथम स्तम्भ लेख ......"धर्मापेक्षा धर्मकामता च स्वस्मिन् स्वस्मिन् वर्धिता".....)
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