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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
आर्य यशोभद्र द्वारा निर्व्यूढ़ श्रुतं परम्परा तथा संघ व्यवस्था कार्य सम्भूतिविजय तथा आर्य भद्रबाहु के माध्यम से गतिशील रही ।
दो उत्तराधिकारी एक नवीन परम्परा
आयं यशोभद्र तक धर्म-संघ के अधिनायक या उत्तराधिकारी के रूप में एक ही व्यक्ति का मनोनयन किया जाता रहा। एक ही आचार्य के नेतृत्व में धर्म संघ कार्यरत रहा । आर्य यशोभद्र के अनन्तर एक नई परम्परा का सूत्रपात हुआ। आर्ययशोभद्र को सम्भवतः अपने शिष्यों में पूर्वोक्त दो बहुत ही योग्य लगे हों। दोनों की असामान्य योग्यता और पात्रता को देखते हुए सम्भवतः उन्हें निर्णय लेने में कठिनता का अनुभव हुआ हो, किसे उत्तराधिकारी मनोनीत किया जाए। दोनों में से किसी एक के पक्ष में मनोनयन सम्बन्धी निर्णय न ले सकने के कारण उन्होंने दोनों शिष्य; सम्भूतिविजय तथा भद्रबाहु को ही उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इस प्रकार एक विशेष परिपाटी का प्रचलन हुआ । पर, उसका परिणाम असुखावह नहीं हुआ । विधिक्रम इस प्रकार का रहा कि एक पट्ट पर दो संघपतियों के होने पर भी संघ व्यवस्था तथा संचालन में कोई दुविधा नहीं हुई; क्योंकि दोनों का निरपेक्ष उत्तराधिकार नहीं था । संघीय व्यवस्था, संचालन, निर्देशन आदि में प्रथम या ज्येष्ठ पट्टधर का सीधा अधिकार था । द्वितीय या कनिष्ठ पट्टधरा उनके जीवन काल में उसमें कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करते । ज्येष्ठ पट्टधरा का स्वर्गवास होने पर कनिष्ठ पट्टधरा के हाथों में वे सारे अधिकार आ गये, जो ज्येष्ठ पट्टधर के पास थे ।
केवल अन्तर इतना-सा हुआ, एक ही उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने की परम्परा में अग्रिम उत्तराधिकाची या संघनायक के मनोनयन का अधिकार वर्तमान संघपति को होता, वहां इस नई परम्परा के अनुसार पहले उत्तराधिकारी के पश्चात् दूसरे उत्तराधिकारी के पास संघ का साया दायित्व स्वयमेव आ जाता; क्योंकि उसका मनोनयन पहले से हो किया हुआ था। इस द्वि-आचार्य - परम्परा से संघीय व्यवस्था में किसी भी प्रकार की अस्वस्थता नहीं आई । दूसरे, यह स्थिति तो कादाचित्क थी, वस्तुतः अधिकांशत: एक ही आचार्य या उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने की परम्परा प्रचलित थी ।
आर्य सम्भूतिविजय
आर्य सम्भूतिविजय ज्यामान् थे; अतः आर्य यशोभद्र के पश्चात् संघनायक या आचार्य वे ही हुए । वे चतुदंश पूर्वधर थे । उनका आचार्य काल आठ वर्ष का माना जाता है । हिमवत् थेरावली के अनुसार उनका स्वर्गवास १५६ वीच निर्वाणाब्द में हुआ । दिगम्बर - आम्नाय में जम्बू के पश्चात् चतुर्थ संघनायक अपराजित के उत्तराधिकाची आचार्य पोषद्धन माने गये हैं । उनका आचार्य-काल उन्नीस वर्ष का है ।
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