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भाषा और साहित्य । आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३७५ पर चढ़ाई की। उसे ध्वस्त-विध्वस्त कर दिया। साथ-ही-साथ उसने मगध सम्राट् श्रेणिक द्वारा कुमार गिरि पर निर्मापित ऋषभ-प्रासाद का भी ध्वंस किया और भगवान् ऋषभ की स्वर्णमयी प्रतिमा को मगध ले आया । आचार्य-काल
आर्य यशोभद्र का संघाधिपत्यकाल पचास वर्ष का माना जाता है। हिमवत् थेरापली में १४८ पीर निर्वाणान्द में उनके स्वर्गगामी होने का उल्लेख है। उनका पचास वर्ष का भाचार्य-काल इससे समर्थित है। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार जम्बू के अनन्तर तीसरे आचार्य अर्थात् आर्य नन्दिमित्र के उत्तराधिकारी अपराजित हैं। उनका आचार्य-काल बाईस वर्ष का माना जाता है । आर्य यशोमन के पश्चात् ___ कल्पसूत्र के अनुसार आर्य यशोभद्र के अनन्तर स्थघिरावली के दो रूप हैं-संक्षिप्त और विस्तृत । वहां उल्लेख है : “संक्षिप्त वाचना के अनुसार आर्य यशोभद्र से आगे स्थविरावली इस प्रकार है-तुगियायम गोत्रीय, स्थविर आर्य यशोभद्र के दो रुथपिय अन्तेवासी थेमाडर गोत्रीय, स्थविर आर्य सम्भूतिविजय तथा प्राचीन गोत्रीय स्थविर आर्य भद्रबाहु ।" 2 १. इस सन्दर्भ में कुछ पहलू विचारणीय हैं । यदि नन्दवंशीय राजा जैन धर्मानुयायी थे, तो
कलिंग के जैन राजा पर कैसे चढ़ाई करते, ऋषभ-प्रासाद को कैसे ध्वस्त किया जाता, भगवान् ऋषभ को स्वर्णमयी प्रतिमा को कुमारगिरि से उठा कर मगध क्यों लाया जाता?
विद्वानों के इस सम्बन्ध में कई प्रकार के अभिमत हैं। कुछ का कहना है कि नन्द राजा की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा न होती, तो ऋषभ की प्रतिमा को कलिंग से मगध क्यों ले जाया जाता, उसे नष्ट भी किया जा सकता था। वस्तुतः उस काल की राज-मनोवृत्ति के अनुसार अपने किसी धार्मिक राजा पर आक्रमण करना एक बात थी और धर्म की आराधना व विराधना का प्रश्न उससे पृथक् था। जैन मान्यतानुसार मगध-नरेश कुणिक - अजातशत्रु जैन था और लिच्छवि गणाध्यक्ष चेटक भी जैन था, पर, उनमें परस्पर भीषण संग्राम हुआ। फलतः जनतन्त्रात्मक शासन का उन दिनों का
एक उत्कृष्ट प्रतीक लिच्छवि-गणराज्य सदा के लिए नष्ट हो गया। २.. संखित्तवायणाए अज्ज जसभद्दाओ अग्गओ एवं शेरावली भणिया, तं जहा-थेरस्सणे
अज्जजसमद्दस्स टुंगियायणगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्ज संभूयविजए माढरसगोत्ते, थेरे अज्ज भद्दबाहू पाईणसगोत्ते ।
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