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________________ भाषा और साहित्य] आवं (अद्धमागयो) प्राकृत और आगम वाङमय [३१५ तीर्थकर प्रकीर्ण रूप में जो उपदेश करते हैं, वह अर्थागम है। अर्थात् विभिन्न अर्थों-विषयवस्तुओं पर, जब-जब प्रसंग आते हैं, तोर्थकर प्ररूपणा करते रहते हैं। उनके प्रमुख शिष्य जो गगधय कहे जाते हैं, तीर्थकर द्वारा अर्थात्मक दृष्ट्या किये गये उपदेशों का सूत्ररूप में संकलन या संग्रथन करते रहते हैं । आचार्य भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति में इसी आशय को अग्रांकित शब्दावलो में कहा गया है : "अर्हत् अर्थ का भाषण या व्याख्यान करते हैं। धर्मशासन के हित के लिए गणधर उनके द्वारा व्याख्यात अर्थ का सूत्र रूप में प्रथन करते हैं। इस प्रकार सूत्र प्रवृत्त होता है।" महावीर के गणधर : मागम-संकलन भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. इन्दूभूति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त, ५. सुवर्मा, ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकम्पित, ६. अचलभ्रावा, १०. मेतार्य, ११. प्रभास । भगवान महावीर का श्रमण-संघ नो गणों में विभक्त था: १. गोदास गण, २. उत्तरबलियस्सय गण, ३. उद्देह गण, ४. चायण गण, ५. ऊवधातिक गण, ६. विश्ववादि गण, ७. कामर्षिक गण, ८. माणव गण तथा ६. कोटिक गण ।। गणधर : विशेषताएं गणवर आगम-वाङमय का प्रसिद्ध शब्द है । आगमों में मुख्यतया यह दो अर्थों में व्यवहृत हुआ है । तार्थ करों के प्रधान शिय गणवर कहे जाते हैं, जो तीथंकरों द्वारा अर्थागम के रूप में उपदिष्ट बान का द्वादश अगों के रूप में संकलन करते हैं। प्रत्येक गणवर के नियत्रण में एक गण होता है, जिसके संयम-जोवितव्य के निर्वाह का गणत्रय पूमा ध्यान रखते हैं। गणत्रय का उससे भी अधिक आवश्यक कार्य है, अपने अधीनस्थ गण को आगम-वाचना देना। तीर्थकर अयं रूप में जो आगनोपदेश करते हैं, उन्हें गणपस शब्द-बद्व करते हैं। अर्थ को दृष्टि से समस्त आगम-वाङमय एक होता है, परा, भिन्न-मिन्न गणवों द्वाया संग्रथित होने के कारण वह शाब्दिक दृष्टि से सर्वथा एक हो, ऐसा नहीं होता । शाब्दिक अन्तय १. समणस्य भगवओ महावोरस्त नव गणा होत्या। तं जहा-गोवास गणे, उत्तरबलि यस्सय गणे, उद्देह गणे, चारण गणे, उड्ढवाइय गणे, विस्सवाइ गणे, कामिदिव्य गणे, माणव गणे, कोडिय गणे। -स्थानांग, ९.२६ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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