________________
भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय
[ २१७ आचार्य बुद्धघोष ने अटुसालिनी और सुमंगलविलासिनी में अभिधम्म का अर्थ 'उच्चतम धम्म या विशेष धम्म' किया है। उसके अनुसार 'अभिधम्म' शब्द में स्थित 'अभि उपसर्ग अतिरेक या विशेष का वाचक है।
महायान सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध आचार्य असंग ने अभिधम्म की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की है। उन्होंने अभि उपसर्ग का पहला अर्थ 'अभिमुखतः' करते हुए सत्य, बोधि, सुख, निर्वाण आदि के अभिमुख उपदेश करने के कारण इसे अभिधम्म बताया है । अभि का दूसरा अर्थ 'आभीक्ष्ण्यात्' करते हुए उन्होंने धर्म का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करने या भेदप्रभेद दिखलाते हुए विश्लेषण करने के कारण इसे अभिधम्म कहा है। उनके अनुसार अभि का तीसरा अर्थ 'अभिभवात्' भी हो सकता है। अन्य मतों या विरोधी सिद्धान्तों का अभिभव-खण्डन-निराकरण करने के कारण यह अभिधम्म है। अभि का चौथा अर्थ उन्होंने 'अभिगतितः' दिखलाते हुए इसे मूलत: सुत्त पिटक के हो सिद्धान्तों का अभिगमनअनुगमन करने के कारण अभिधम्म बताया है। - तथागत ने जिस धर्म का सन्देश दिया, तत्त्वतः वह एक है। अन्तर केवल निरूपण का है। सुत्त-पिटक में वह उपदेश की भाषा में है, धिनय-पिटक में अनुशासन, नियमन और संयमन के रूप में है तथा अभिधम्म पिटक में तत्व के रूप में । इसका कारण केवल अधिकारभेद है। सुत्त सब के लिए हैं; क्योंकि वह अधिचित्त शिक्षा के रूप में है, वह व्यवहारदेशना है। अभिधम्म में भी वे ही तत्व है, पर, वे प्राज्ञों की दृष्टि से हैं; अतएव वहां उनका रूप अघिप्रज्ञ शिक्षा का हो गया है। यह परमार्थ-देशना है। सुत्त सबके लिए सुज्ञेय है; क्योंकि वहां बुद्ध-वचन सीधे रूप में आकलित हैं। अभिधम्म में बुद्ध के मन्तव्यों का सूक्ष्म और तात्विक दृष्टिकोण से बहुत प्रकार से वर्गीकरण तथा विश्लेषण किया गया है; अतः वह तत्व-दर्शन के गम्भीर अध्येताओं का विषय है।
अभिधम्म : रचना
बौद्ध परम्परा में यह स्वीकृत है कि धम्म और विनय की तरह अभिधम्म का भी प्रथम संगीति में संगान हुआ था। यह भी उतना ही प्राचीन है, जितने सुत्त और विनय । आचार्य बुद्धघोष इस सम्बन्ध में आश्वस्त हैं कि बुद्ध के काल में सुत्त और विनय की तरह अभिधम्म भी विद्यमान था। ऐसा माना जाता है कि 'धम्मकथिक' शब्द अभिधम्मिक भिक्ष के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
पाटलिपुत्र में सम्पन्न तृतीय संगीति में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने उस समय प्रचलित मिथ्या
१. महायान सूत्रालङ्कार; ११. ३
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org