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________________ ५२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ सहस्राब्दियों के ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य धारा को अपने में संजोये हुए हैं। भाषाओं का आकृतिमूलक वर्गीकरण __ भाषाओं की अपनी-अपनी आकृति है। उनकी रचना का अपना प्रकार है। आकृति के आधार पर भाषाओं का जो वर्गीकरण किया जाता है, उसे आकृतिमूलक वर्गीकरण कहते हैं। उसके अनुसार संसार की भाषाओं के दो वर्ग होते हैं-योगात्मक भाषाए और अयोगात्मक भाषाए। योगात्मक भाषाएं जिन भाषाओं में अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-सत्त्व का योग होता है, वे योगात्मक भाषाए कहलाती हैं। पद और उनसे बने हुए वाक्य भाषा के गठक हैं । पद में मूख्यतः दो बातें होती हैं-अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-तत्त्व । शब्द जिस अर्थ का ज्ञापक है, वह अर्थ-तत्त्व कहा जाता है। जिससे वाक्यगत शब्दों का सम्बन्ध जोड़ा जाता है, उसे सम्बन्ध-तत्त्व कहा जाता है। सम्बन्ध-तत्त्व के योग के बिना वाक्य नहीं बन सकता। भिन्न-भिन्न शब्द अपने भिन्न-भिन्न अर्थ ज्ञापित करते रहेंगे। उनकी समन्विति नहीं होगी। जैसे-अस्मद्, युष्मद्, वस्त्र, दा (धातु ) ये चार शब्द हैं। चारों का अपना-अपना अर्थ है, पर, परस्पर कोई संपति नहीं है। यदि इसे वयं युष्मभ्यं वस्त्राणि अदम, ऐसा रूप दे दिया जाए, तो एक संगत तथ्य प्रकट होता है। ऐसा करने में विभक्तियों, प्रत्ययों आदि का योग हुआ है, यही सम्बन्ध-तत्त्व है। वयम्, युष्मभ्यम्, वस्त्राणि तथा अदद्म-ये अस्मद्, युष्मद्, वस्त्र और दा के रूप हैं । रूप बनाने की एक विशेष पद्धति या शैली है। योगात्मक भाषा-वर्ग में संस्कृत आदि कुछ भाषाए ऐसी हैं, जिनमें अर्थ-तत्त्व और सम्बन्धतत्त्व के योग से निष्पन्न विभक्त्यन्त और प्रत्ययान्त पदों को वाक्य में किसी एक सुनिश्चित क्रम के अनुरूप ही रखा जाए, ऐसा आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि उपयुक्त वाक्य वयं युष्मभ्यं वस्त्राणि अदद्म को वस्त्राणि अदद्म युष्मभ्यं वयम्, अदद्म वस्त्राणि युष्मभ्यं वयम् तथा युष्मभ्यं वयं वस्त्राणि अदद्म इत्यादि अनेक प्रकार से परिवर्तित कर सकते हैं। अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता। पर, बहुत-सी योगात्मक भाषाए ऐसी हैं, जिनमें इस प्रकार नहीं हो सकता। उनमें अर्थ-तत्त्व और सम्बन्ध-तत्त्व के योग के साथ-साथ कर्ता, कर्म, क्रिया भादि को पाक्य में रखने का एक विशेष क्रम है, जिसका अनुवर्तन आवश्यक है । जैसे, उक्त वाक्य को हम अंग्रेजी में We gave you the clothes इस प्रकार अनूदीत करेंगे। We, gave, you, clothes आदि वाक्य-गत पदों को हम संस्कृत की तरह आगे-पीछे यथेच्छ रूप में नहीं रख सकते । हिन्दी में भी प्रायः ऐसा ही है। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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