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________________ प्रस्तावना 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का विषय था-इतिहास और परम्परा। प्रस्तुत द्वितीय खण्ड का विषय है- भाषा और साहित्य। प्रागमों की भाषा प्राकृत और त्रिपिटकों की भाषा पालि का वर्तमान भाषा-विज्ञान में क्या स्थान है, वे किस भाषा-परिवार से सम्बद्ध हैं, यह ग्रन्थ की प्रादि चर्चा का विषय है। वर्तमान भाषा-विज्ञान बहुत विकसित हो चला है व हो रहा है। उसे समझे बिना हम प्राकृत व पालि के सही स्वरूप को समझ पा रहे हैं, यह हमारा भ्रम ही हो सकता है। इसी हेतु से वर्तमान भाषा-विज्ञान को भी पर्याप्त विस्तार से यहां लिख देना पड़ा है जो कि जैनसाहित्य में सम्भवतः प्रथम बार ही प्रस्तुत हुआ होगा। आज प्रत्येक बात व प्रत्येक वस्तु अन्तर्राष्ट्रीय महत्व पा सकती है वश कि उसे विश्वजनीन मान-दण्डों के सन्दर्भ से प्रस्तुत किया जा सके। प्राकृत व पालि भाषाएं केवल धर्म-शास्त्रों के प्रायाम तक ही सीमित रखी जाती हैं तो उनका दायरा बहुत छोटा रह जाता है, केवल जैनों व बौद्धों तक । भाषा शास्त्रीय सन्दर्भ पाकर वे विश्वमान्य भाषा परिवारों से सम्बद्ध हो जाती हैं अर्थात् वे सम्प्रदाय के पिंजरे से निकल कर अपने अस्तित्व बोध का मुक्त-गगन पा लेती हैं। आर्य भाषाओं का विवरण लिखते संस्कृत भी अविनाभावि रूप से प्रस्तुत हो जाती है। उस पर भी मैंने भाषा शास्त्रीय विचार कर दिया है। आगम व त्रिपिटक साहित्य की तरह वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि का भी दिग्दर्शन करा दिया है। प्रागम अभिधा से मैंने समग्र पैतालीस प्रागम ही विवेचित किये हैं। बत्तीस व पैतालीस के साम्प्रदायिक भेद को नगण्य मानकर उपेक्षित ही किया है। दिगम्बर-शास्त्र पागम नहीं कहलाते हैं, पर उनका सम्बन्ध शौरसेनी प्राकृत से ही है तथा आगमवत् ही उनकी गुरुता सम्बन्धित परम्परा में मानी गई है; अत: उन्हें भी मैंने अपने विवेचन में समग्रतः ले लिया है। जैन व बौद्ध, दिगम्बर व श्वेताम्बर उक्त भेद-प्रभेदों की सतह से ऊपर रहकर ही मीमांसा करने का मेरा लक्ष्य रहा है। मैं अपने अभिप्रेत में कहां तक सफल रहा है, यह तो विज्ञ पाठकों की अनुभूति का विषय ही हो सकता है। जैन या बौद्ध, श्वेताम्बर या दिगम्बर सभी प्रणेता प्राचार्यों के प्रति मेरे मन में समान ही श्रद्धा-भाव रहा है। अतः तथ्य ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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