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मध्य भारतीय आर्य भाषा-काल या प्राकृत-काल का समय ईस्वी पूर्व पांचवी शती से ईस्वी सन् के आरम्भ तक का माना गया है। इसमें पालि और शिलालेखी प्राकृत ली गयी हैं। जिस भाषा में भगवान बुद्ध की वाणी त्रिपिटक के रूप में अवस्थित है, जिसमें तत्परक तदुपजोवो विशाल वाङमय बौद्ध भिक्षुओं और मनीषियों द्वारा प्रणीत हुआ, वह भाषा पालि के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु, भाषा के लिए पालि शब्द का प्रयोग बहुत प्राचीन नहीं है। पिटक-साहित्य में उसकी भाषा के लिए पालि का कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ। लगभग १४ वीं शती के अनन्तर इस शब्द का प्रयोग भाषा के अर्थ में आरम्भ हुआ।
पालि शब्द का इतिहास
आचार्य बुद्धघोष ( चौथी-पांचवीं ईसवी शती ) ने विसुद्धिमग्ग और अट्ठकथाओं में पहले-पहल पालि शब्द का भगवान बुद्ध के वचन या मूल त्रिपिटक के लिए प्रयोग किया । दोघनिकाय को अट ठकथा सुमगल विलासिनी को सामअफलसुत, वणना, धम्मसंगणि की अट्ठकथा अटुसालिनी तथा पुग्गलपति अट्ठकथा में भी उन्होंने पालि शब्द का इस अभिप्राय से व्यवहार किया है। आचार्य बुद्धघोष पालि का प्रयोग त्रिपिटक के पाठ के अर्थ में भी करते हैं। मूल त्रिपिटक या त्रिपिटक-पाठ कोई भिन्न नहीं है, केवल कथन-प्रकार का अन्तर है। जहां आचार्य बुद्धवोष को त्रिपिटक के पाठान्तर को संकेतित करना अपेक्षित हुआ, वहां उन्होंने पाठ के लिए पालि शब्द का व्यवहार किया है। उदाहरणार्थ, सुमंगल विलासिनी के सामञ्जफलसुत्तवण्णना में महच्चराजानुभावेन पद आया है। आचार्य बुद्धघोष ने इसका अर्थ महता राजानुभावेन किया है। 'महच्च' के स्थान पर महच्चा पाठ भी है, ऐसा सूचित करने के लिए महच्च इति पि पालि अर्थात् महच्चा ऐसा पाठ भी है, इस प्रकार उल्लेख किया गया है। ___ चौथी शताब्दी में लंका में दीपवंश ग्रन्थ लिखा गया। यह आचार्य बुद्धघोष से कुछ ही समय पहले की रचना है । वहां पालि शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन के अर्थ में हुआ है । आचार्य बुद्धघोष के पश्चात् लंका में बौद्ध आचार्य और लेखक उपयुक्त दोनों अर्थों में, जो वस्तुत: एक ही हैं, पालि का प्रयोग करते देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ, पांचवीं-छठी शती में हुए आचार्य धर्मपाल ने खुद्दकनिकाय के कतिपय ग्रन्थों की अट ठकथा के रूप में परमत्यदीपमो की रचना की । उसमें उन्होंने मूल त्रिपिटक के अर्थ में पालि शब्द का प्रयोग किया है। तेरहवीं पाती
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