SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ वे वैदिक परम्परा से आये थे। बौद्ध भिक्षु हो जाने पर भी उनके मन पर, कुछ-कुछ वैदिक संस्कार थे। वे देखते हैं कि नाना जातियों और गोत्रों के भिक्षु भगवान् बुद्ध के वचनों को अपनी-अपनी भाषा में रख कर दूषित कर रहे हैं। वहां चुल्लवग्ग में "सकाय निरुत्तिया बुद्ध-वचनं दूसेन्ति" इन शब्दों का प्रयोग है। तब ब्राह्मण भिक्ष भगवान बुद्ध के पास जाते हैं और उनसे निवेदन करते हैं-"भगवन् ! अच्छा हो, हम आपके वचनों को छन्दस में रूपान्तरित कर दें।' भगवान् बुद्ध ने उन्हें कहा-"नहीं। ऐसा करना अपराध होगा।" तदनन्तर उन्होंने भिक्षुओं को विध्यात्मक भाषा में आदेश देते हुए कहा-"भिक्ष ओ। मैं अपनी भाषा में बद्ध-वचन का परिज्ञान करने को अनुज्ञा देता हूं।" प्राक्तन संस्कारवश ब्राह्मण-भिक्षुओं का लोक भाषाओं के प्रति कुछ अरुचि का भाव पा। प्राचीन परम्परा और प्रवृत्तिवश जिस छन्दस् को वे परम पवित्र मानते आ रहे थे, सहसा उसके प्रति उनका आदर सर्वथा मिट जाए, यह सम्भव नहीं था। तभी तो उन्होंने भगवान् बद्ध के समक्ष उक्त प्रस्ताव रखा था। आचार्य बुद्धधोष ने “छन्दसो आरोपेमाति" का आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है : "वेदं विय सक्कटभासाय वाचनामग्गं आरोपेम' अर्थात् वेद की तरह संस्कृत भाषा में आरोपित -रूपान्तरित कर दें। आचार्य बुद्धघोष ने यहां जो 'सक्कट भासा' पद का प्रयोग किया है, उसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं-सत्कृत भाषा तथा संस्कृत भाषा । डा. विमलाचरण लॉ ने केवल संस्कृत भाषा अर्थ को स्वीकार किया है और आचार्य बुद्धघोष की आलोचना की है। डा० भरतसिंह उपाध्याय ने डाः लॉ के विचार को समीक्षा करते हुए लिखा है : 'संस्कृत शब्द पाणिनि के बाद का है और वह लौकिक संस्कृत का वाचक है। छन्दस् शब्द उस प्राचीन आर्यभाषा का द्योतक है, जिसमें संहिताए लिखी गयी हैं। भगवान् बुद्ध को यही अर्थ अभिप्रेत हो सकता था। स्वयं त्रिपिटक में "सावित्थी छन्दसो मुख" जैसे प्रयोगों में छन्दस् शब्द का प्रयोग वेद के लिए ही हुआ है; अतः यहां भी बुद्ध का तात्पर्य वेद की भाषा से ही था, जिसके विपरीत बुद्धघोष का मत भी नहीं है । 3 डा० उपाध्याय सकाय-निरुत्तिया का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं : "भगवान् बुद्ध की चारों वर्षों की शुद्धि और उसके विषय में उनकी आचार्य-मुष्टि ( रहस्य-भावना ) १. हन्द मयं भन्ते बुद्धवचमं छन्दसो आरोपेमाति । २. अनुजानामि भिक्षवे सकायनिरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितु। ३. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० २४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy