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________________ भाषा और साहित्य.] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए' [ १३७ से मननीय है। उन्होंने कहा है : 'प्राकृत की छाया-प्रभाव से संस्कृत-वचनों का लावण्य उद्घाटित या उद्भासित होता है । संस्कृत को संस्कारोत्कृष्ट करने में प्राकृत का बड़ा हाप है।" संस्कृत भाषा की विशेषता संस्कारोत्कृष्टता है, इस उक्ति से यह प्रकट होता है कि उत्कृष्टतापूर्वक उसका संस्कार-परिष्कार या परिमार्जन किया हुआ है। ऐसा होने का कारण प्राकृत है। दूसरे शब्दों में प्राकृत कारण है, संस्कृत कार्य है। कार्य से कारण का पूर्वभाविस्व स्वाभाविक है। रानशेखर तपा वाक्पतिराज के कथन पर गौर करना होगा। वे जैन परम्परा के नहीं थे, घेदिक परम्परा के थे। जैन लेखक प्राकृत को अपने धर्म-शास्त्रों की भाषा मानते हुए अपनी परम्परा के निर्वाह अथवा उसका बहुमान करने की दृष्टि से ऐसा कुछ कह सकते हैं, पर, जहां अजैन विद्वान ऐसा कहते हैं, वहां अवश्य कुछ महत्व होना चाहिए। दोनों का कथन निःसन्देह प्राकृत के अस्तित्व, स्वरूप आदि के यथार्थ अंकन की दृष्टि से है। आचार्य सिर्ष का अभिमत संस्कृत वाङमय के महान् कथाशिल्पी आवाय सिद्धर्षि ने 'उपमितिमवप्रपञ्चकया नामक महान् संस्कृत-कथा ग्रन्थ में भाषा के सम्बन्ध में चर्चा की है, जो प्रस्तुत विषय में बड़ी उपयोगी है। वे लिखते हैं : "संस्कृत और प्राकृत; ये दो भाषाए प्रधान हैं। उनमें संस्कृत दुर्विदग्ध जनों के हृदय में स्थित है। प्राकृत बालकों के लिए भी सद्बोधकर है तथा कर्णप्रिय है। फिर भी उन्हें ( दुर्विदग्ध जनों को) प्राकृत रुचिकर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में, जब उपाय है, (संस्कृत में अन्य रचने की मेरी क्षमता है ) तब सभी के चित्त का रंजन करना चाहिए । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए में संस्कृत में पह रचना करूंगा।" १. उम्मिलई लायणं पययच्छायाए सक्कयवयाणं । सक्कयसकारुकरिसणेण पययस्स वि पहावो ॥ -गउडवहो; ६५ ( उम्मील्यते लावण्यं प्राकृतच्छायया संस्कृतपदानाम् । __संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ॥ ) २. संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्रधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद्द विदग्धहृदि स्थिता। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते । उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ॥ -उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव, ५१-५३ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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