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________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [३०९ लिपि का आशय है । ऐसो ही स्थिति प्रतापना सूत्र के वर्णन के साथ है। वहां भी ब्राह्मी के अनन्तर अर्थात् दूपरी संख्या पर यावनी का नाम भाया है तथा चौथी संख्या पर खरोष्ठी का । इन तालिकाओं में और भी ऐसो लिपियां उल्लिखित हैं, जो नाम से वैदेशिक प्रतीत होतो हैं। अन्य देशों को लिपियों के नामों से यह आशय स्पष्ट हो जाता है कि लिपियों की जो तालिका समवायांग सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में है, वह सारी भारतीय लिपियों से सम्बद्ध हो, यह सम्भव नहीं है । यदि ऐसा होता, तो 'यावनी' जैसा शब्द क्यों आता, जो स्पष्ट ही यवनानी लिपि के अर्थ में है ? भगवान् ऋषभ ने पुत्री ब्राह्मी को लिपि-ज्ञान दिया, उसका यथार्थ अभिप्राय यही हो सकता है कि तब तक जो-जो भारतीय और अभारतीय लिपियां प्रचलित थीं, उन सबका ज्ञान उन्होंने कराया । विशेषावश्यक टीका में उल्लिखित लिपियों के नामों में पारसी लिपि का भो समावेश है। वह पारसोक साम्राज्य की लिपि होनी चाहिए, जो उत्तरी सैमेटिक लिपियों की आर्मेइक शाखा में से कोई एक लिपि हो सकती है। कल्पसूत्र में दी गई लिपियों की सूची में दो नाम खुरासानी और परसी वेदेशिक लिपियों से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं । पयसो सम्भवतः पायसी के लिए व्यवहृत हुआ है । ललितविस्तर में ६४ लिपियां बतलाई गई हैं, उममें दरद-लिपि, खास्य-लिपि, चीन-लिपि तथा हूण-लिपि के भो नाम हैं । ये लिपियां भारत से बाहर की प्रतीत होतो हैं । खरोष्ठी लिपि का मूल उद्गम-स्रोत कोई वेदेशिक लिपि था। भारत के कुछ भाग में कुछ समय तक घेदेशिक शासन पहने के समय इस लिपि को पल्लवन और विस्तार का विशेष अवसर मिला, जो बाद में वैदेशिक शासन को समाप्ति के साथ-साथ कम होता गया । शासक वर्ग की लिपि होने से उनके शासन काल में उसका समादृत रहना और उनके द्वारा शासित प्रजा में इसका प्रचलित होना स्वाभाविक था। शासन के चले जाने पर भी उसके परिपाठ ओर प्रश्रय में प्रसत कोई वस्तु तत्काल नहीं मिट जाती। किसो भी प्रचलित परम्परा के मिटने में समय लगता है, जिसके लिए संख्यात्मक दृष्टि से शताब्दियां भी अधिक नहीं हैं; अत: पारसोक सम्राटों के शासन के उन्मूलित हो जाने पर भी कुछ समय तक खरोष्ठो का प्रचलन यहाँ अवरुद्ध नहीं हुआ । अन्तत: तो अवरुद्ध हुआ हो, जो निश्चय ही होना था । 7 ____Jain Education International 2010_05 Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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