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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका बारमय [५८३ पं० सुखलालजी के विचार पं० सुखलालजी संघवी उमास्वाति को यापनीय नहीं मानते। उन द्वारा लिखे गये विवेचना सहित प्रकाशित तत्त्वार्थ सूत्र में 'भारतीय विद्या' शीर्षक में जो प्राक्कथन है, यहां उन्होंने इस प्रसंग की चर्चा की है, जो इस प्रकार है : "प्रेमीजी का 'भारतीय विद्या'-सिंघी स्मारक अंक में 'वाचक उमास्वाति का समाष्य तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय' नामक लेख प्रसिद्ध हुअा है । उन्होंने दीधं ऊहापोह के बाद यह बतलाया है कि वाचक उमास्वाति यापनीय संघ के प्राचार्य थे । उनकी अनेक दलीलें ऐसी हैं, जो उनके मन्तव्य को मानने के लिए आकृष्ट करती हैं । इसलिए उनके मन्तध्य की विशेष परीक्षा करने के लिए सटीक भगवती आराधना का खास परिशीलन पं० श्री दलसुख मालवणिया ने किया। उस परिशीलन के फलस्वरूप जो नोंधे उन्होंने तैयार की, उन पर उनके साथ मिलकर मैंने भी विचार किया। विचार करते समय भगवती आराधना, उसकी टीकाएं और वृहत्कल्प-भाष्य आदि ग्रन्थों का आवश्यक अवलोकन भी किया। जहां तक संभव था, इस प्रश्न पर मुक्त मन से विचार किया। आखिर में हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि वाचक उमास्वाति यापनीय न थे, वे सचेल परम्परा के थे, जैसा कि हमने परिचय में दरसाया है। हमारे अवलोकन और विचार का निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार है : १. भगवती आराधना और उसके टीकाकार अपराजित-दोनों यदि यापनीय हैं तो उनके ग्रन्थ से यापनीय संघ के आचार विषयक निम्न लक्षण फलित होते है : (क) यापनीय प्राचार का औत्सर्गिक अग अचेलत्व अर्थात् नग्नत्व है। , (ख) यापनीय संघ में मुनि की तरह आर्याओं का भी मोक्ष-लक्षी स्थान है और अवस्था-विशेष में उनके लिए भी निवसनभाव का उपदेश है। (ग) यापनीय मत में पाणितल-भोजन का विधान है और कमण्डलु-पिच्छ के सिवाय और किसी उपकरण का औत्सर्गिक विधान नहीं है । उक्त लक्षण उमास्वाति के भाष्य और प्रशमरति जैसे ग्रन्थों के वर्णन के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाते; क्योंकि उनमें स्पष्ट रूप से मुनि के वस्त्र-पात्र का वर्णन है और कहीं भी नग्नत्व का औत्सर्गिक विधान नहीं है, कमण्डलु-पिच्छ जैसे उपकरण का तो नाम भी नहीं। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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