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भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङमय विज्ञान की दृष्टि से उसमें औचित्य है। जिस प्रकार भिक्ष जगदीश काश्यप का मत ध्वनिपरिवर्तन-सम्बन्धी नियमों पर खरा उतरता है, उसी प्रकार भिक्ष, सिद्धार्थ का मत भी ध्वनि-परिवर्तन के नियमों के अनुरूप प्रतीत होता है। डा. भरतसिंह उपाध्याय ने भिक्ष, सिद्धार्थ के मत की निर्बलता बताते हुए लिखा है-"उन्होंने पाठ शब्द का विकृत रूप पाळ बताया है और फिर उससे पाळि या पालि शब्द की व्युत्पत्ति की है। इसे ऐतिहासिक रूप से ठीक होने के लिए यह आवश्यक है कि पाळ शब्द का प्रयोग पालि-साहित्य में उपलब्ध हो। तभी उसके आधार पर पाळि शब्द की व्युत्पत्ति की स्थापना की जा सकती है। ऐसा कोई उदाहरण भिक्ष सिद्धार्थ ने अपने उक्त निबन्ध में नहीं दिया। आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से जो उदाहरण उन्होंने दिये हैं, उनमें भो 'इति पि पाठो' ही बुद्धघोषोक्त वचन है।
डा० उपाध्याय ने भिक्ष सिद्धार्थ के मत की जो आलोचना की है, वह यथार्थ है। केवल व्याकरण के आधार पर किसी शब्द को सिद्ध कर देने मात्र से कोई प्रयोजन फलित नहीं होता। शब्द के एक विशेष रूप के किसी विशेष अर्थ के साथ जुड़ने के सम्बन्ध में ऐतिहासिक प्रामाण्य की नितान्त आवश्यकता होती है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पाठ शब्द से पाळि या पालि बनाने में पाळ शब्द का क्रम बोच में रहा हो, पर, हो सकता है कि वह प्रयोग में न आया हो। आया भी हो तो सम्भवत: बहुत ही कम आया हो और काल के लम्बे व्यवधान के बिना पाळ (पालि) शब्द चल पड़ा हो, वही विशेषतः प्रयुक्त होने लगा हो । पर, ये केवल सम्भावनाए ही हैं। वास्तव में भिक्ष, सिद्धार्थ का मत कम स्वाभाविक प्रतीत होता है।
डा० मैक्सवेलसेर
____ जर्मन विद्वान् डा. मैक्सवेलसेर ने लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व पालि के सम्बन्ध में अपना नया अभिमत व्यक्त किया था। उन्होंने पालि का आधार पाटलि माना । उनके अनुसार पाटलि के बदले पाडलि भी माना जा सकता है, उनका प्रतिपादन है कि पाटलिपुत्र ( पटना क्षेत्र ) की भाषा का नाम पाटलि रहा हो। संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से बीच के ट को लुप्त कर 'पालि' बना दिया गया हो। पाटलिपुत्र मगध साम्राज्य का केन्द्र था, राजगृह के पश्चात् राजधानी भी; इसलिए वहां की भाषा राजभाषा या केन्द्रीय भाषा के रूप में मान्य हो सकती थी ।
१. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ६
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