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________________ प्रस्तुत प्रकर - पिछले पृष्ठों में जिन अद्ध मागधी आगमों का विवेचन उपस्थित किया गया है, वहां ऐसा भी संकेत किया गया है कि दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में वे प्रामाणिक रूप में स्वीकृत नहीं हैं । दिगम्बरों के अनुसार भगवद्-उद्गीर्ण, गणधर-ग्रथित आगमों (द्वादशांगों) का विच्छेद हो गया। दिगम्बर-सम्प्रदाय में जो ग्रन्थ आगमवत् प्रमाणभूत माने जाते हैं, जिनकी रचना शौरसेनी प्राकृत में हुई, के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रकरण में विस्तार से चर्चा की जायेगी। क्योंकि प्राकृत वाङमय में उनका अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ में ऐसा अपेक्षित प्रतीत होता है कि जैन परम्परा दिगम्बर तथा श्वेताम्बर, दो धाराओं में किस प्रकार विभक्त हुई, इस पर भी कुछ चर्चा की जाये। निह्नववाद जैन परम्परा में कुछ एक ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने किसी एक विषय को लेकर प्रतिकूल सिद्धान्त स्थापित किये। उन्हें निह्नव कहा गया है। निह्नव का प्रयोग वहां तत्सिद्धान्त और तद्-व्यक्ति–दोनों अर्थों में होता रहा है । निह ना का अर्थ निह्नव शब्द सामान्यतः गोपन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जैन परम्परा में यह शब्द एक विशेष अर्थ लिए हुए है। आवश्यक-नियुक्ति के एक व्याख्या-प्रसंग में आचार्य मलयगिरि ने इसका विश्लेषण करते हुए लिखा है : जो अभिनिवेश- आसक्ति या अाग्रह के कारण तीर्थंकर-भाषित अर्थ का अपलपन करते हैं, वे निह्नव कहे जाते हैं; क्योंकि वे सूत्रों के अर्थ का अपलाप या प्रतिकूल प्रतिपादन करते हैं। कहा गया है-जो सूत्र में कहे गये एक भी अक्षर के प्रति अरुचिशील या निष्ठारहित हो जाता है, वह मिथ्याष्टि है । क्योंकि तीर्थंकर-प्ररूपित सूत्र ही हमारा प्रमाण है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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