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भाषा और साहित्य विश्व भाषा-प्रवाह
[ ५५ स्पष्ट है कि यहां अर्थ-तत्व तथा सम्बन्ध-तत्व अत्यन्त धुल-मिल गये हैं। तात्पर्य यह है कि प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थ-तत्व के भीतर ही सम्बन्ध-त:व-गर्भित परिवर्तन, परिवद्धन आदि होते हैं। इसलिए भर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का पार्थक्य पिलुप्त हो जाता है। अश्लिष्ट योगात्मक भाषाएं
भाषाओं में प्रयुज्यमान पदों में अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व का योग तो होता है, पर, दोनों तिल-तण्डुलवत् पृथक्-पृथक् बने रहते हैं, अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं के वर्ग में आती हैं। तिल और चावल अच्छी तरह मिला दिये जाने पर भी एकात्मक नहीं होते। अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व की परस्पर ऐसी ही स्थिति है। द्रविड़ परिवार की भाषाए अश्लिष्ट योगात्मक वर्ग के अन्तर्गत हैं। अश्लिष्ट योगात्मकता को स्पष्ट करने के लिए कन्नड़ और तमिल का एक-एक उदाहरण पर्याप्त होगा।
___ अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व के पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होते रहने का जो उल्लेख किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि वचन, कारक आदि को व्यक्त करने के लिए इस भाषा-धर्ग में शब्द के आगे जो विभक्ति, प्रत्यय आदि जोड़ा जाता है, वह ज्यों-का-त्यों बना रहता है, तत्संयुक्त शब्द ( अर्थ-तत्व ) तो अपरिवर्तित रहता ही है। उदाहरणार्थ, कन्नड़ भाषा के सेवक शब्द के रूप उद्धत किये जा रहे हैं :
एकवचन
बहुवचन
कर्ता
सेषक-रु
कर्म
सेषक - रन्नु
करण
सेवक - नु सेवक - नन्नु सेवक - निंद सेषक - निगे सेवक - न
सेवक-रिंद
सम्प्रदान
सेवक -रिगे
सम्बन्ध
सेवक - र
अधिकरण
सेवक - नल्लि
सेधक - रल्लि
कन्नड़ भाषा में कर्ता एक वचन का नु, बहुवचन का रु, कम एक वचन का नन्नु, बहुवचन का रन्नु, करण एक वचन का निन्द, बहुवचन का रिन्द, सम्प्रदान एक वचन का निगे, बहुवचन का रिगे, सम्बन्ध एक वचन का न, बहुवचन का र तथा अधिकरण एक वचन का नल्लि, बहुषचन का गल्लि चिह्न था धिभक्ति है ।
अर्थ-तत्व और सम्बन्ध-तत्व इन रूपों में ज्यों-के-त्यों स्थित हैं; अतः स्पष्टतः प्रतीत होते हैं।
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