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भाषा और साहित्य शिलालेखी • प्राकृत
[ २३५ प्रयुक्त हुआ है। . उत्तर-पश्चिमी शिलालेखों में तालव्य श मूर्धन्य व तथा दन्त्य स प्रायः पथावत् रूप में प्राप्त होते हैं। जैसे, दोषं, समजस, प्रिय-द्रशि, अनुदिवस, प्रणशतसहस्रनि, अरमियिसु, पशोपकानि, नस्ति, सनत्र आदि। ___शाहबाजगढ़ी के अभिलेख में इसका अपवाद भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ, द्वितीय शिलालेख में मनुष्य-चिकित्सा के लिए मनुशधिकिस तथा मनुष्योपगानि के लिए मनुशोपकानि रूप प्राप्त होते हैं ।
शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेखों में र के स्थान परिवर्तन के सम्बन्ध में एक धिमेश क्रम दिखाई देता है। रेफ अपने से पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती वर्ण में मिल जाता है । १. गिरनार - अतिकांतं अंतर बहूनि वाससतानि वढितो एवं प्राणारंभो....।
कालसी-अतिकतं अंतलं बहुनि वाससतानि बढिते व पानालमे....... । धौली–अतिकतं अंतलं बहूनि वाससतानि बढिते व पानालंभे........। जोगढ़-अतिकतं अंतलं बहूनि वाससतानि वढिते व पानाल मे........ । शाहबाजगढ़ो-अतिक्रतं अंतरं बहनि वषशतानि वढितोब प्रणरंभो..॥ मानसेरा-अतिक्रतं अंतर महुनि वष-शनि वढिते व प्रणरंभे........।
(अतिक्रान्तमन्तरं बहूनि वर्षशतानि वर्धित एवं प्राणालामः... ।) २. बहुकहि बोषं समजस देवन प्रियो प्रियदशि रप दखति । - (बहुकान् हि दोषान् समाजस्य देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा पश्यति।)
-प्रथम शिलालेख ३. ... अनुविवसो बहुनि प्रणशतसहस्रनि अरमियिसु... । (.."अनुविवसं बहूनि प्राणशतसहस्राणि आलप्सत्..)
-प्रथम शिलालेख ४. ... पशोपकानि च यत्र-पत्र नस्ति सवन हरोपित च.... । (..."पशुपगानि च यत्र यत्र न सन्ति सर्वत्र हारितानि च.... ।)
-द्वितीय शिलालेख ५. ..."प्रियदशिस रजो दुवि चिकिस किट मनुशचिकिंस पशुचिकिस च ।
औषुढानि मनुशोपकानि । ( प्रियदर्शिनः राज्ञः चिकित्से कृते मनुष्यचिकित्सा च पशुचिकित्सा च । मौषधानि मनुष्योपगानि....... ।)
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