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भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ अभिलेखों में निगे रूप प्राप्त होता है। कहीं-कहीं ऋकार रकार में भी परिवर्तित हुआ है।
गिरनार के अभिलेख में सुगो या म्रिगे के स्थान पर मगो रूप प्राप्त होता है। इससे प्रकट है कि उस और ऋकार का विकास अकार में होने की प्रवृत्ति थी।
कालसी और जौगढ़ के अभिलेखों में मृगः के लिए मिगे' रूप प्राप्त होता है । ये अभिलेख प्रायः पूर्व की भाषा के अनुरूप हैं । पूर्व में ऋ का विकास इ में होने की प्रवृत्ति रही है।
शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों में रकार के प्रभाव से उसका अनुगामी तालव्य वर्ण मूर्धन्य वण के रूप में परिवर्तित दृष्टिगोचर होता है। जैसे, वृद्धषु के लिए वहां बुढेषु प्रयोग है, जब कि मानसेरा के अभिलेखों में वृद्धषु के लिए बुध्रषु प्रयुक्त हुआ है।
सभी शिलालेखों में तालव्य वर्गों के मूर्धन्य वर्गों में परिवर्तित होने की नियामकता नहीं दिखाई देती । उदाहरणार्थ, द्वितीय शिलालेख में औषधानि के लिए गिरनार में औसुढानि कालसी में औसुधानि, जोगढ़ में औसधानि, शाहबाजगडी में औषुढानि तथा मानसेरा में औषढिनि का प्रयोग हुआ है । चतुर्थ शिलालेख में वर्धित: के लिए सर्वत्र वढितो या वढिते
१. .."एके निगे से पि चु निगे नो ध्रुवं । (एकः मृगः सः अपि च मृगः न ध्रुवः।)
-प्रथम शिलालेख २. ..."एके मिगे से पि च मिगे नो ध्रुवे। ३. एके मिगे से पि चु मिगे नो ध्रुवं । ४. बुढेषु हित सुखये ध्रमयुतस अपलिबोधे वपट............ ५. बुध्रषु हिवं सुखये ध्रमयुत अपलियोधये वियपुट ............ ( .."वृद्धषु हितसुखाय धर्मयुक्तस्य अपरिबाधाय व्यापृता: ")
-पंचम शिलालेख
१. गिरनार-औसुढानि च यानि मनुसोपगानि च ....... ।
कालसी-औसधानि मुनिसोपगानि चा........ । जौगढ़-औसपानि आनि मुनिसोपगानि........ शाहबानगढ़ी-औषुढानि मनुशोपकानि मनुशोपकानि........। मानसेरा-औषढिनि........
(औषधानि मनुष्योपगानि च....... ।)
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