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भाषा और साहित्य ]
शिलालेखी - प्राकृत
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उन ( दक्षिण के ) शिलालेखों में भाषा की दृष्टि से और कुछ विशेष उल्लेखनीय नहीं है ।
सिलालेखों को भाषा तुलनात्मक विवेचन
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अशोक के शिलालेखों में चतुर्दश शिलालेख भौगोलिक दृष्टि से ऐसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित हैं, जो एक-दूसरे से बहुत दूर हैं, उदाहरणार्थ, शाहबाजगढ़ी जहां दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है, वहां घौली दूर पूर्व-दक्षिण में । इसी प्रकार कालसी जहां हिमाद्रि के अंचल में उत्तर में स्थित है, वहां जौगढ़ दूर दक्षिणापथ में ।
उत्तर-पश्चिम
चतुर्दश शिलालेखों की भाषा में स्थूलदृष्ट्या तीन रूप प्राप्त होते हैं का, पूर्व व मध्य देश का तथा पश्चिम का 1 शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेख एक विशेष भाषा-रूप को लिये हुए हैं, जो ईरान आदि पश्चिम के देशों में प्रचलित आर्यपरिवारीय भाषाओं से प्रभावित और संस्कृत के अधिक निकट है । गिरनार का शिलालेख पश्चिम भारत की भाषा से विशेष प्रभाषित है । इनके अतिरिक्त अन्य शिलालेखों की भाषा इनसे कुछ भिन्न रूप लिये हुए है, जो अशोक की राज-भाषा के निकट का रूप है ।
शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के अभिलेख जिस भू-भाग में स्थित हैं, सम्भवतः सम्राट् अशोक के साम्राज्य की वह उत्तर-पश्चिमी सीमा थी । वह प्राकृतों का युग था । इस उत्तर-पश्चिमी भू-भाग में कोई एक प्राकृत प्रचलित थी, जो पूर्व की प्राकृत से अपेक्षाकृत विशेष भिन्न थी । कहीं की भी जन-भाषा पाश्र्ववर्ती देशों या प्रदेशों की भाषा से सदा प्रभावित रहती है । क्योंकि उसे बोलने वाले लोगों का सम्बन्ध, व्यवहार पास-पड़ोस के लोगों से नित्य प्रति रहता है । इसीलिए उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में बोली जाने वाली भाषा पर पश्चिम देश की भाषा का प्रभाव स्वाभाविक था । वह चीनी तुर्किस्तान के अन्तर्गत निय नामक स्थान पर मिले अभिलेखों की प्राकृत से, जिसे निय प्राकृत कहा जाता तथा खेतान में मिले प्राकृत - धम्मपद की भाषा के अधिक निकट है ।
अशोक के अभिलेखों की भाषा के सम्बन्ध में परिपूर्ण विवरण या विश्लेषण तो नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें बहुत कुछ गवेषणीय है, पर जितना जो कहा जा सकता है, तदनुसार अभिलेखों की भाषा के सम्बन्ध में कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
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१. उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में ऋकार का विकास रि और रु के रूप में दो प्रकार से दृष्टिगोचर होता है । जैसे, शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों में मृगः का गो' तथा मानसेरा के
१. मृगो सो पि स्रुगो नो ध्रुवं ।
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