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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्रत और उसका नाममय 1 ॥ तथा मूडबिद्री के भट्टारक व पंचों के बीच एक बात को लेकर विचार-भेद हो गया। सेठ सोनी वह प्रतिलिपि अजमेर के लिए चाहते थे। मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंचों को यह स्वीकार नहीं था । प्रतिलिपि हो, इसमें वे सहमत थे, पर उसका मूडबिद्री से बाहर जाना उन्हें मान्य नहीं था । कार्य ज्यों-का-त्यों रह गया।
প্লনধি : নবাবzস • প্রসাধন
बम्बई के सेठ माणिकचन्द और सोलापुर के सेठ हीराचन्द के मन में भावना तो थी ही, व्यस्ततावश वे क्रियान्वित नहीं कर पाये थे। उन्होंने अपना पूर्वतन प्रयास पुनः चालू किया। प्रार्थिक-व्यवस्था भी कर ली। पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री को उस कार्य के हेतु नियुक्त कर लिया। कार्य बड़ा विशाल था; अतः मिरज निवासी पं० गजपति शास्त्री को भी उनके साथ नियुक्ति कर दी। दोनों शास्त्री मूडबिद्री प्राये। इस प्रकार सन् १८९६ में प्रतिलिपि का कार्य चालू हुआ । जयधवल में पन्द्रह पत्र-१५०० श्लोक-प्रमाण सामग्री की ही प्रतिलिपि हो पायी थी कि कुछ कालान्तर से पं० ब्रह्मसूरि शास्त्री स्वर्गवासी हो गये । अब अकेले गजपति शास्त्री ही प्रतिलिपिकार रह गये। वे लगन तथा निष्ठापूर्वक अपने कार्य में जुटे रहे । सोलह वर्ष के अनवरत श्रम से वह कार्य पूरा हुआ अर्थात् धवल तथा जयधवल की मूल कनाड़ी लिपि से देवनागरी में प्रतिलिपि कर ली गई । सन् १८९६ में शुरू हुआ यह कार्य सन् १९१२ में सम्पन्न हुआ।
कनाड़ी में भी प्रतिलिपि
देवनागरी में प्रतिलिपि का कार्य चल ही रहा था, इस बीच कनाड़ी लिपि में भी प्रतिलिपि का कार्य चालू किया गया। मूडबिद्री के पं० देवराज सेठी, शांतप्पा उपाध्याय, ब्रह्मय्या इन्दु इस कार्य में लगे थे । इस प्रकार, देवनागरी लिपि के साथ-साथ कनाड़ी लिपि में भी धवल और जयधवल की प्रतिलिपि कर ली गई । पर, यह सब हुआ सिद्धान्त-वसदि में रखने के लिए।
মাথল ধ্বী নানাবি
सोलापुर के सेठ हीराचन्द, जो इस कार्य के संचालक थे तथा जो इन ग्रन्थों को बाहर लाने की तीव्र उत्कण्ठा लिए हुए थे, मूडबिद्री आये । धवल और जयधवल की प्रतिलिपि हो ही चुकी थी, उन्होंने अपनी भावना व्यक्त की कि यदि तृतीय सिद्धान्त-ग्रन्थ महाधर ल की प्रतिलिपि और हो जाय तो बहुत अच्छा हो । साथ-ही-साथ सेठ की यह भी भावना थी कि
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