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________________ ४ j मागम और ब्रिfपटक : एक अनुशीलन [२ इन सभी ग्रन्थों की सुरक्षा तथा तस्व-जिज्ञासुनों के उपयोग के उद्देश्य से अनेक प्रतिलिपियां हों तथा उन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों में रखा जाए। मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंच इससे सहमत नहीं हुए। इतना भर हुआ कि सिद्धान्त - वसदि में रखे जाने के लिए महाधवल की कनाड़ी में प्रतिलिपि कराये जाने की स्वीकृति हो गई । पं० नेमिराज सेठी इस कार्य में लगा दिये गये, जिन्होंने सन् १९१८ से पहले इसे सम्पन्न कर दिया। इस प्रकार महाघवल की कमाड़ी प्रतिलिपि तो हो गई, पर, सेठ हीराचन्द चाहते थे, उसकी देवनागरी में भी प्रतिलिपि हो । प्रस्ताव स्वीकृत होने पर पं० लोकनाथ शास्त्री नामक विद्वान् को इस कार्य में लगाया गया, जिन्होंने चार वर्ष की का कार्य सन् १८९६ में चालू हुआ तथा समय इसमें व्यतीत हुआ । अवधि में इसे सम्पन्न कर लिया । इस प्रतिलिपि सन् १९२२ में समाप्त हुआ । कुल २६ वर्षों का पं० गजपति शास्त्री द्वारा अतिरिक्त प्रतिलिपि जैसा कि कहा गया है, धवल और जयधवल की देवनागरी प्रतिलिपि का कार्य १५०० श्लोक - प्रमाण सामग्री के अतिरिक्त सारा का सारा पं० गजपति शास्त्री ने अकेले किया । वे जानते थे, यह प्रतिलिपि जो हो रही है, मूडबिद्री के मन्दिर में ही रहेगी, कहीं बाहर नहीं जा सकेगी। उनमें विचारोद्व ेलन हुआ। उनकी पत्नी लक्ष्मी बाई एक विदुषी महिला थी । उसने भी इस स्थिति का अंकन एवं पर्यालोचन किया । दोनों सोचने लगे - क्यों न हम लोग गुप्त रूप से इसकी एक कनाड़ी लिपि कर लें । लक्ष्मी बाई ने अपने पति को इसके लिए विशेष रूप से प्रेरित किया । अन्तत: पति-पत्नी ने निश्चय किया कि वे गुप्त रूप से कनाड़ी प्रतिलिपि करेंगे । कनाड़ी में प्रतिलिपि करने का निर्णय शायद इसलिए किया गया हो कि वैसा होने से वह कार्य अपेक्षाकृत अधिक शीघ्रता से होगा । क्योंकि ये कन्नड़ भाषी थे, कनाड़ी उनकी लिपि थी, जिसमें लिखने का उनका अभ्यास देवनागरी की अपेक्षा द्रुततर रहा हो । दूसरा कारण यह भी हो सकता है, लक्ष्मीबाई को देवनागरी लिपि का विशेष अभ्यास न रहा हो, जिससे देवनागरी में प्रतिलिपि करने में वह अपने पति की सहयोगिनी नहीं हो सकती थी, जबकि कनाड़ी में प्रतिलिपि किये जाने में वह अपने पति को पूरा सहयोग कर सकती थी । प्रस्तु, उधर दिन में मन्दिर में देवनागरी में प्रतिलिपि किये हुए पत्र पं० गजपति शास्त्री वहां से लौटते समय गुप्त रूप से अपने घर लेते आते । रात्रि में वे तथा उनकी पत्नी कनाड़ी में प्रतिलिपि करते जाते । उधर देवनागरी प्रतिलिपि समाप्त हुई, इधर Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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