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________________ भाषा और साहित्य ! पालि भाषा और पिटक - वाङमय [ १८३ बुद्ध वचन का परिज्ञान करने हेतु किसी एक भाषा का ही अवलम्बन उपयुक्त रहा होगा । भविष्य में यह सम्भावना तो हो ही सकती है कि विभिन्न प्रदेश के भिक्षुओं द्वारा परिज्ञात या गृहीत किये गये बुद्ध वचन के पाठ में कुछ अन्तर पड़ जाए । पर, ऐसा हो पाना कम व्यवहार्यं प्रतीत होता है । यदि बुद्ध वचन को इस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं या बोलियों में सीखे जाने की स्थिति होती, तो उसमें एक रूपात्मकतापरक समन्वय कभी सम्भव नहीं था । पालि-ध्वनियों की विशेषता संस्कृत की ध्वनियों से तुलना करने पर पालि-ध्वनियों की कई विशेषताएं ज्ञात होती हैं। पालि में ऋ, ऋ, लृ, ऐ, औ, इन पांच स्वरों का प्रयोग नहीं पाया जाता । प्राकृत में भी ऐसा ही है । पालि में ऋ स्वर अ, इ, उ में से किसी एक में परिवर्तित हो जाता है । प्राकृत में भी ऐसी ही प्रवृत्ति प्राप्त है । पालि में ह्रस्व ए और ह्रस्व ओ के रूप में दो नये स्वर और प्राप्त हैं । प्राकृत में भी ऐसा ही है । पालि में विसर्ग का व्यवहार नहीं होता । प्राकृत में भी विसगं प्रयुक्त नहीं है । मूद्ध न्य ष् और तालव्य श्पालि में प्रयुक्त नहीं होते । मागधी के अतिरिक्त अन्य प्राकृतों में भो मूद्ध न्य ष् और तालव्य श्व्यवहृत नहीं होते । पालि में ळ व्यंजन का प्रयोग होता है । वैदिक संस्कृत में भी ळ का प्रयोग मिलता है, पर, लौकिक संस्कृत में यह प्रयुक्त नहीं होता । प्राकृत में इसका प्रयोग रहा है । यहां यह ज्ञातव्य है कि मिथ्या सादृश्य के कारण कहीं-कहीं ल के स्थान पर भी ळ का प्रयोग हो जाता है । पालि में ह स्वतन्त्र रूप में प्राण-ध्वनि व्यञ्जन माना गया है, किन्तु, यदि वह य्, र्, ल्, व् या अनुनासिक से संयुक्त हो, तो उसके उच्चारण में एक विशेष प्रकार का अन्तर आ जाता है । पालि-व्याकरणों में इस प्रकार के ह को ओरस ( उरस् = हृदय से उत्पन्न ) कहा गया है । ध्वनि-परिवर्तन पालि में अ, इ, उ, ए तथा ओ; ये ह्रस्व स्वर विद्यमान रहते हैं । प्रायः सभी प्राकृतों में भी ऐसा है । उदाहरणार्थ, संस्कृत के मुखम् शब्द का पालि रूप मुखं और प्राकृत रूप मुह होता है। यहां ह्रस्व दोनों जगह विद्यमान है। इसी प्रकार संस्कृत का प्रिय शब्द पालि में पिय और प्राकृत में भी पिय होता है । संस्कृत में यदि अकार संयुक्त व्यंजन पहले हो, तो पालि में कहीं-कहीं उसका ए हो जाता है । जैसे, शय्या शब्द का पालि रूप सेय्या होगा और प्राकृत रूप सेज्जा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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