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________________ ३४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ शब्दों से ही समग्र भाषा की निष्पत्ति मानते हैं, वह तथ्यपूर्ण नहीं है। ध्वनि-निष्पन्न शब्दों के अतिरिक्त अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका ध्वनि से कोई सम्बन्ध नहीं है। ध्वनिनिष्पन्न शब्दों से वे कई गुने अधिक हैं। साथ-ही-साथ यह भी ज्ञातव्य है कि कुछ भाषाए ऐसी भी हैं, जिनमें ध्वनि-निष्पन्न शब्दों का सर्वथा अभाव है, जैसे उत्तरी अमेरिका की अथवस्कन भाषा। अनुकरणन-सिद्धान्त . 'अनुकरण-सिद्धान्त' के समकक्ष 'अनुरणन-सिद्धान्त' के नाम से एक अन्य विचारधारा की चर्चा भाषा-विज्ञान में और आती है। पानी, धातु, काठ, पेड़ के पत्ते आदि वनस्पतिजगत्, धातु-जगत् और निर्जीव पदार्थों के संस्पर्श, संघर्ष, टक्कर, पतन आदि से जो ध्वनि निकलती है, उसके अनुकरण पर जो शब्द बनते हैं, उन्हें अनुरणन-निष्पन्न शब्द कहा जाता है। अनुकरण के स्थान पर यहां अनुरणन शब्द का उपयोग हुआ है। अर्थ की सूक्ष्मता की दृष्टि से अनुकरण और अनुरणन में परस्पर अन्तर है। पशु-पक्षी जैसा बोलते हैं, मानव अपने मुह से उसी प्रकार बोलने का जो प्रयत्न करता है, वह अनुकरण है। जल-प्रवाह बहता है, 'नद्-नद्' नाद होता है। वह अनुरणन है। इस सिद्धान्त के आधार पर नद् (धातु ) से नद या नदी शब्द बनते हैं । वृक्ष से पत्ता गिरता है ( पतति ), तब पत्-पत् के रूप में जो आवाज निकलती है, पत् धातु और पत्र शब्द का निर्माण उसी से होता है। कुत्ते के भौंकने के अर्थ में बुक् धातु का स्वीकार इसी कोटि का उदाहरण है। कल-कल, छल-छल, झन-झन, खटपट आदि हिन्दी शब्द तथा Mur-Mer आदि अंग्रेजी शब्द इसी प्रकार के हैं। ऐसे शब्द संसार की प्राय: सभी भाषाओं में प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि अनुकरण और अनुरणन में वास्तव में कोई मौलिक भेद नहीं है। केवल वस्तु-भेद मूलक स्थूल अन्तर है, जो नगण्य है। अनुकरण के कुछ और भी रूप हैं, जो इसी में आ जाते हैं। उदाहरणार्थ, दीपक जलने और तारे चमकने के दृश्यों के अनुकरण पर जगमगाहट, चमचमाहट आदि शब्द निर्मित हुए। इन सबका उपयुक्त सिद्धान्त में समावेश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि भाषा में शब्दों का एक ऐसा वर्ग है, जिसका आधार पशुओं व पक्षियों की ध्वनियों का अनुकरण, वस्तुओं का अनुरणन तथा दृश्यों का परिदर्शन है। वस्तुतः सभी अनुकरण के ही रूप हैं। भाषा के निर्मातृ-तत्वों में अंशतः इस सिद्धान्त का भी स्थान है। मनोभावाभिव्यंजकतावाद मनोभावाभिव्यंजकतावाद के अनुसार ऐसा माना जाता है कि आदिकाल या प्रारम्भ में मानष बुद्धि-प्रधान नहीं था, भाव-प्रधान था। पशु भी लगभग इसी कोटि के होते हैं । उनमें विचार-क्षमता नहीं होती, भावना होती है। आदि मानव विवेक या प्रज्ञा की दृष्टि से पशुओं से विशेष ऊँचा नहीं था। विवेक और वितर्क की क्षमता भले ही न हो, प्राणिमात्र ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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