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________________ १३६] . आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ में वे स्वयं परलोकगामी हो गये। अपने द्वारा की गई कनाड़ी प्रतिलिपि का देवनागरी रूपान्तर उनके हाथ से नहीं हो सका । নী বনামী रईस कनाडी से देवनागरी प्रतिलिपि कराने के लिए विशेष प्रयत्नशील थे। इसके लिए ऐसे विद्वानों की आवश्यकता थी, जो दोनों लिपियों के अच्छे अभ्यासी हों, संस्कृत-प्राकृतविद् भी हों। लालाजी को पं० विजयचन्द्रय्या तथा पं० सीताराम शास्त्री नामक विद्वान् मिल गये । १९१६ ईसवी से प्रतिलिपि का कार्य आरम्भ हुमा । सात वर्ष तक चला । १९२३ ईसवी में सम्पन्न हुा । लाल जम्बूप्रसाद रईस आदि ने यह आवश्यक समझा कि कनाड़ी और देवनागरी प्रतिलिपियों का बहुत ध्यान से मिलान करवाया जाए, ताकि कोई स्खलना न रहे । दोनों प्रतियां सर्वथा एकरूप हों। मूडबिद्री निवासी पं० लोकनाथ शास्त्री इस कार्य के हेतु बुलवाये गये । उन्होंने दोनों प्रतियों का मिलान कर दिया। অং সনানাবিখা - सहारनपुर में की गई देवनागरी प्रतिलिपि कनाड़ी की तरह मन्दिर में सन्निधापित कर दी गई । कार्य समाप्त हुआ। पर, वहां भी मूडबिद्री की घटना से मिलती-जुलती सी घटना पुनरावृत्त हुई। पं० सीताराम शास्त्री ने एक प्रतिलिपि और कर ली एवं उसे अपने पास रख लिया। ऐसा करने के पीछे उनके मन में दोनों प्रकार की भावनाएं रही होंइन सिद्धान्त-ग्रन्थों को अन्यत्र प्रसृत करने का अवसर हाथ में रहे और साथ-ही-साथ पुरस्कार पाने का भी। पं० सीताराम शास्त्री के पास रही प्रति के सम्बन्ध में एक और प्रकार की चर्चा भी है। पं० विजयचन्द्रय्या और पं० सीताराम शास्त्री जब प्रतिलिपि का कार्य करते थे, तब उनका विधि-क्रम यह था-पं० विजयचन्द्रय्या ग्रन्थ पढ़ते जाते थे और पं० सीताराम शास्त्री एक कच्चे खरे के रूप में लिखते जाते थे ताकि लेखन शीघ्रता से हो सके । श्री शास्त्री ने उस कच्चे खरे से सावधानीपूर्वक स्पष्ट अक्षरों में शास्त्राकार प्रतिलिपि तैयार की तथा लालाजी को सौंप दी। कच्चे खरे वाली प्रति पं० सीताराम शास्त्री ने अपने पास रख ली। षट्खण्डागम के प्रति समग्र दिगम्बर समाज में प्रत्यन्त श्रद्धा एवं पूजा के भाव रहे ही हैं, लोगों को जब यह विदित हुआ, उन्होंने पं० सीताराम शास्त्री से अपने-अपने स्थानों के लिए प्रतिलिपियां करवाई, झागे कुछ प्रतिलिपियां पं० सीताराम शास्त्री द्वारा की गई Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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