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धर्म-देशना __ तीथंडर अद्धमागधी में धर्म-देशना देते हैं। उनका अपना वैशिष्टय होता है, विषिष भाषा-भाषी श्रोतृगण अपनी-अपनी भाषा में उसे समझ लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे भावात्मक पुद्गल श्रोताओं को अपनी-अपनी भाषाओं में परिणित हो जाते हैं । जैन वाङमय में अनेक स्थलों पर ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं । समवायांग सूत्र में जहां तीर्थङ्कर के चौंतीस अतिशयों का वर्णन है, वहां उनके भाषातिशय के सम्बन्ध में कहा गया है : "तीर्थकर अद्धमागधी भाषा में धर्म का भाख्यान करते हैं। उनके द्वारा भाष्यमान पद्ध'मागधी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद चतुष्पद, मृग, पशु पक्षी तथा सरीसृप प्रभृति जीवों के हित, कल्याण और सुख के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणित हो जाती है।"
प्रज्ञाफ्ना सूत्र में आर्य की बहुमुखी व्याख्या के सन्दर्भ में सूत्रकार ने भाषा-भायं का वर्णन करते हुये कहा है : "भाषा-बाय किन्हें कहा जाता है ? अनेक प्रकार के भाषा-आर्य प्राप्त हुए हैं-कहे गए है; जैसे-"जो अद्धमागधी भाषा बोलते हैं और ब्राह्मी-लिपि का प्रयोग करते हैं ( वे भाषा-आय हैं )।" ____ोपपातिक सूत्र का प्रसंग है : “........तब भगवान् महावीर अनेकविध परिषद-परिवृत (णिक ) बिम्बिसार के पुत्र कूणिक (अजातशत्रु) के समक्ष शरद् ऋतु के नव स्तमितनूतन मेघ के गर्जन के समान मधुर तथा गम्भीर, कौंच पक्षी के घोष के समान मुखर, दुन्दुभि की ध्वनि की तरह हृद्य वाणी से, जो हृदय में विस्तार पाती हुई, कण्ठ में धतुलित होती हुई तथा मस्तक में आकोण होतो हुई व्यक्त, पृथक्-पृपक स्पष्ट अक्षरों में उच्चारित, मम्मगा१. संप आदि रेंग कर चलने वाले प्राणी। २. भगवं च णं अवमागहीए भासाए धम्ममाइक्बइ। सावि य गं असमागही भासा
मासिज्जमाणी तेसिं सोसिं आरियमणारियाणं दुष्पय-चउपय-मिष-पसु-पक्लि-सरीसिवाणं अस्पप्पणो हिय-सिव-सुहदाय भासताए परिणमइ ।
-समवायांग, ३४ ३. से किंत मासारिया ? भासारिया अगेगविहा पण्णता । तं जहा-जेणं ममागहाए भासाए मासइ जत्य वियणं बंमी लिवी पवत्तइ ।
-प्रज्ञापना, पर १.३१
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