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________________ भूमिका वाग्-देवता के वरद्-पुत्र जिस किसी भी गूढ, गम्भीर एवं सूक्ष्म विषय को अपने चिन्तन को सूक्ष्मता एवं तीक्षणता से स्पर्श कर लेते हैं, वह विद्वानों को तो क्या, साधारण जिज्ञासुओं तक के लिए भी हस्तामलवत् स्पष्ट हो जाता है। सूर्य-किरणों से जैसे कि तमसाच्छन्न वस्तु-जगत् सहसा आलोकित हो उठता है, ठीक वैसे ही सद्सद् विवेकवती प्रतिभा के धनी सरस्वती पुत्रों की चिन्तन-प्रभा से दुरूह से दुरूह प्रतिपाद्य भी सहज-सरल एवं सुबोधता से प्रतिभासित हो जाता है । स्वनामधन्य मनीषी मुनिश्री नगराजजी ऐसे ही वाग्-देवता के एक यशस्वी वरद्-पुत्र हैं। उक्त कथन में अतिशयोक्ति जैसी कोई बात नहीं है। यह मैं अपने प्रिय स्नेही होने के नाते ही नहीं कह रहा हूँ। उनका तलस्पर्शी अध्ययन, चिन्तन एवं लेखन ही ऐसा है कि वह किसी भी सहृदय उदार मनीषी को ऐसा कहने के लिए सहज ही मुखर कर देता है। ___ मुनिश्री अपने प्रतिपाद्य विषय को केवल प्रतिपादन के लिए हो प्रतिपादित नहीं करते हैं, केवल लिखने के लिए ही नहीं लिखते हैं। वे जैसा कि उनका नाम 'नगराज' ( मेरु ) है। "यादव बुद्धि बलोदयम्' के शक्ति सूत्र के अनुसार काफी गहराई और साथ ही काफी ऊंचाई तक अपने अभीष्ट प्रतिपाद्य को प्रथम आत्मसात् करते हैं, तदनन्तर उसके मर्म को उद्घाटित करते हैं। उनका अध्ययन जैसा कि विशाल, गम्भीर एवं बहुमुखी है, वैसा ही उसको समुभासित कर देने वाला उनका चिन्तन-मनन भी है। यह मणि-कांचन योग ही है, जो अपनी पूर्ण आभा से व्यक्ति के भास्वर व्यक्तित्व को जन-मन में प्रकाशमान बनाता है ; प्रतएव मुनिश्री स्पष्ट ही महाकवि मुरारी के शब्दों में शान-सागर के आपाताल-निमग्न पीवरतनु मन्थाचल हैं, छलांग लगाकर ऊपर ही ऊपर उड़न गति से सागर को पार करने वाले रामायण युग के वीर-वानर नहीं "अब्धिलवित एव वानर भटः, वित्वस्य गम्भीरताम् । पापाताल-निमग्न-पीवरतनुर्, जानाति मन्थाचलः ॥" बहुत वर्ष पहले मुनिश्री का 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ देखने में प्राया था। ग्रन्थ मुद्रण में जितना महाकाय था, उतना ही वह अपने प्रतिपाद्य विषय में भी विराट् था। यह ग्रन्थ विद्वज्जगत् में काफी लोकप्रिय रहा है। फल-स्वरूप उन्हें Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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