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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
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साधु उसे दोनों ही परस्पराओं से मिलते न लगे हों। राजा का यदि केवल नाग्नय के प्रति आदर एवं श्रद्धा-भाव होता तो श्वेत वस्त्र धारण कर लेने पर राजा ने जो स्वागतसत्कार किया, वैसा नहीं बनता ।
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यद्यपि रत्नमन्दी ने एक वाक्य से अपना बचाव तो किया है कि मारी-प्रेम में आसक्त व्यक्ति कौन-सा अनुचित कार्य नहीं कर सकता । अर्थात् राजा ने उन श्वेत वस्त्र धारण किये हुए साधुओं का मान-सम्मान किया, उसका कारण अपनी महारानी को प्रसन्न करना था। पर, यह बात समीचीन एवं संगत प्रतीत नहीं; क्योंकि यदि केवल महारानी को ही प्रसन्न करना होता तो पहली बार राजा उन साधुओं के श्रद्ध फालक-वेष को देखकर कतराता नहीं ।
रत्ननन्दी का भद्रबाहु चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से वैसे कोई बहुत प्रामाणिक कृति नहीं मानी जाती; अतः उसमें व्यक्त किये गये तथ्यों पर और अधिक छानवीन की उतनी अपेक्षा नहीं है । रत्ननन्दी ने भी अपने कथानक का सम्बन्ध श्रुत- केवली भद्रबाहु के साथ जोड़ा है, पर विक्रमाब्द १३६ की श्रुत - केवली भद्रबाहु के काल के साथ कैसे संगति होगी ?
एकाधिक भद्रबाहु
दिगम्बर- परम्परा में श्वेताम्बर मत के उद्भव के सम्बन्ध में जो मुख्य-मुख्य कथानक प्रचलित हैं, उनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । उनसे स्पष्ट है कि विभिन्न दिगम्बर लेखक उक्त प्रसंग में आचार्य भद्रबाहु का नाम लेते हैं, पर उनके समय को लेकर उनमें समन्वय नहीं है और न समय के सन्दर्भ में ऐतिहासिक इयत्ता की ओर उनका झुकाव ही दिखाई देता है । इससे स्पष्ट है कि उक्त प्रसंगों में ऐतिहासिक दृष्टिकोण के स्थान पर कथानक का काल्पनिक रूप अधिक सामने आता है । भद्रबाहु के समय को लेकर असमंजस में पड़ जाने का एक कारण और है । वह है, भद्रबाहु नाम के कई आचार्यों का होना । स्थिर ऐतिहासिक दृष्टिकोण लिए बिना चलने वाले लेखकों के लिए इससे भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में यह उपयोगी होगा कि भद्रबाहु नाम से दिगम्बर एवं श्वेताम्बरपरम्परा में कितने-कितने और कौन-कौन आचार्य हुए, उनकी संक्षेप में चर्चा की जाये ।
१. किमकार्य कुर्वन्ति रामारागेण रञ्जिताः ।
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