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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३८७ है : अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर, श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया, जो महामात्य शकटाल के पुत्र थे । इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण के एक सौ सत्तर वर्ष पश्चात् उन्होंने चतुर्विध आहार का त्याग करते हुए आमरण अनशन ( सन्थारा ) किया। पन्द्रह दिन के अनशन में उनका कलिंग प्रदेश के कुमार नामक पर्वत पर विशिष्ट ध्यानावस्था में स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की अंचलगच्छ की पट्टावली में भो इसी तरह का उल्लेख है। आचार्य स्थूलभद्र कहा जाता है, मगध के शासक नव नन्दों में प्रथम नन्द का कल्पक महामात्य था। वह ब्राह्मण था। जैन धर्म में उसकी दृढ़ आस्था थी। नवम मन्द का महामात्य शकटाल कल्पक का घंशज था। आवश्यक चूर्णि तथा परिशिष् पर्व आदि में उल्लेख है कि शकटाल दृढ़ आस्थावान् जैन था। इसी कारण ब्राह्मणों का वह द्वेष-भाजन बना। स्थूलभद्र महामात्य शकटाल के पुत्र थे। इनके सात बहिनें थीं। स्थूलभद्र ने तथा उनकी सातों बहिनों ने श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर ली। ___ कल्पसूत्र स्थविरावली की विस्तृत वाचना या वर्णन के अनुसार स्थूलभद्र ने आर्य सम्भूतिविजय के पास दीक्षा ग्रहण की। वहां लिखा है : माढर गोत्रीय आर्य सम्भूतिविजय के अपत्यवत् के बारह अन्तेवासी थे : १. नन्दनभद्र, २. उपनन्दन भद्र, ३. तिष्यभद्र, ४. यशोभद्र, ५. सुमनभद्र, ( स्वप्नभद्र ), ६. मणिभद्र, ७. पुण्यभद्र (पूर्णभद्र ), ८. स्थूलभद्र, ६. ऋजुमति, १०. जम्बू, ११. दीघ भद्र तथा १२. पाण्डुभद्र । आठवें स्थान पर स्थूलभद्र का उल्लेख है। स्थूलभद्र की बहिनें भी आर्य सम्भूतिविजय से दीक्षित हुई। कल्पसूत्र की विस्तृत स्थघिरावली में लिखा है : माढर गोत्रीय आर्य सम्भूतिविजय के अपत्यवत् सात अन्तेवासिनियां थीं : १. यक्ष, २. यक्षदत्ता, ३. भूता, ४. भूतदत्ता, ५, सेणा, ६. वेणा तथा ७.रेणा। ___आयं जम्बू के पश्चात् तीसरे संघपति-आचार्य भायं यशोभद्र ने अपने दो उत्तराधिकारी मनोनीत किये। आर्य यशोभद्र के दिवंगमन के बाद ज्येष्ठता के कारण आय सम्भूतिविजय पट्टाधिकारी हुए, उनके अनन्तर आचार्य भद्रबाहु । स्थूलभद्र तथा उनकी सात बहिनें आर्य सम्भूतिविजय के आचार्य-काल में उन्हीं से दीक्षित हुई थीं। देहावसान आचार्य धर्मघोषसूरि कृत दुःषमाकाल श्री श्रमण संघ स्तोत्र के अनुसार आचार्य स्थूलभद्र का संघाधिपत्य-काल पैंतालीस वर्ष' का है। तदनुसार वीर-निर्वाणाब्द दो सौ पन्द्रह में उनका स्वगंधास हुआ। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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