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भाष और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४५१ इतर सम्प्रदाय के विद्यागमी साधु के समक्ष वैसा करने का विधान किया है। उसके भी न मिलने पर सूत्रकार ने अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के विकल उपस्थित किये हैं, जिनके साक्ष्य से पालोचना, निन्दा, गर्दा द्वारा अन्त: परिष्कार कर प्रायश्चित्त किया जाए। यदि वैसा कोई भी न मिल पाए, तो सूत्रकार का निर्देश है कि ग्राम, नगरं, निगम, राजधानी खेड़, कर्पट, मडम्ब, पट्टण, द्रोणमुख आदि के पूर्व या उत्तर दिशा में स्थित हो, अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रख इस प्रकार कहते हुए आत्म-पर्यालोचन करे कि मैंने अपराध किये है, मैं साधुत्व में अपराधी-दोषी बना हूँ। मैं अर्हतों और मिद्धों के साक्ष्य से आलोचना करता हूँ। प्रात्म-प्रतिक्रान्त होता हूं, प्रात्म-निन्दा तथा गर्दा करता हूँ, प्राय-. श्चित्त स्वीकार करता हूँ।
प्रात्म-परिष्कृति या अन्तःशोधन की यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो श्रामण्य के शुद्धनिर्वहन में निःसन्देह उद्बोधक तथा उत्प्रेरक है।
व्यवहार-सूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रसंग हैं, जिनका श्रमण-जीवन एवं श्रमण-संघ के व्यवस्था-क्रम, समीचीनतया संचालन तथा पावित्र्य की दृष्टि से बड़ा महत्व है। ব্যান প্ৰথ পথে সব
पायश्चित्तों के विश्लेषण की दृष्टि से दूसरा उद्देश्य भी विशेष महत्वपूर्ण है। अनवस्थाप्य, पारंचिक आदि प्रायश्चित्तों के सन्दर्भ में इस में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का विवेचन हुमा है। एक स्थान पर वर्णन है - ''जो साधु रोगाक्रान्त है, वायु आदि के प्रकोप से जिसका चित्त विक्षिप्त है, कारण-विशेष ( कन्दर्पोद्भव आदि ) से जिसके चित्त में वैकल्प है, यक्ष आदि के प्रावेश के कारण जो ग्लान है, शैव्य आदि से अत्याक्रान्त है, जो उन्माद-प्राप्त है, जो देवकृत उपसर्ग से ग्रस्त होने के कारण अस्त-व्यस्त है, क्रोध आदि कषाय के तीव्र प्रावेश के कारण जिसका चित्त अस्थिर एवं ग्लान है, अधिक प्रायश्चित्त की प्राशंका से जिसका चित्त खिन्न है, उसको-उन सबको जब तक वे स्वस्थ न हो जाए, तब तक उन्हें गण से बहिष्कृत करना प्रकल्प्य है।" इस प्रकार के और भी अनेक प्रसंग हैं । ___ गण-धारकता के लिए अपेक्षित स्थितियां, विहार-चर्या के विधि-निषेध, पदासीनता, भिक्षा-चर्या, सम्भोग-विसम्भोग का विधिक्रम, स्वाध्याय के सम्बन्ध में सूचना आदि अनेक विवरण हैं, जो श्रमण-जीवन के सर्वागीण अध्ययन एवं अनुशीलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। ___ सातवां उद्देशक साधुओं और साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से अध्येतव्य है। वहां उल्लेख है कि तीन वर्ष के दीक्षा-पर्याय वाला अर्थात् जिसे प्रव्रजित हुए केवल तीन वर्ष हुए हैं, वैसा साधु उस साध्वी को, जिसे दीक्षा ग्रहण किये तीस वर्ष हो गये हैं, उपाध्याय के रूप में प्रादेश-उपदेश दे सकता है। इसी प्रकार केवल पांच वर्ष का दीक्षित
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