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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २
भाषाओं का निकटता-पूर्ण सम्बन्ध है। ज्ञात होता है कि विश्व के विभिन्न मानव-समुदायों में अत्यन्त प्राचीन काल से कोई पारस्परिक साम्य चला आ रहा है। भाषाओं के स्वरूप और विकास का वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक रूप में अध्ययन करने से ये तथ्य विशद रूप में प्रकट होते हैं। इसी विचार-सरणि के सन्दर्भ में भाषाओं का जो सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन-क्रम चला, वही भाषा-विज्ञान या भाषा-शास्त्र बन गया है।
भाषा-विज्ञान की शाखाएं भाषा-विज्ञान में भाषा-तत्त्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण और विवेचन किया जाता रहा है, आज भी किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान, अर्थ-विज्ञान, वाक्यविज्ञान, व्युत्पत्ति-विज्ञान; आदि उसकी मुख्य शाखाएं या विभाग होते हैं ।
वनि-विज्ञान ( Phonology ) __ भाषा का मूल आधार ध्वनि है। ध्वनि का ही व्यवस्थित रूप शब्द है। शब्दों का साकांक्ष्य या परस्पर-सम्बद्ध समवाय वाक्य है। वाक्यों से भाषा निष्पन्न होती है; अतएव ध्वनि-विज्ञान भाषा-शास्त्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उसके अन्तर्गत ध्वनि-यन्त्र, स्वर-तन्त्री तथा ध्वनि को व्यक्त रूप में प्रस्फुटित करने वाले वागिन्द्रिय के मुख-विवर, नासिका-विवर, तालु, कण्ठ, ओष्ठ, दन्त, मूर्दा, जिह्वा आदि अवयव, उनसे ध्वनि उत्पन्न होने की प्रक्रिया, ध्वनि-तरंग, श्रोत्रेन्द्रिय से संस्पर्शन या संघर्षण, श्रोता द्वारा स्पष्ट शब्द के रूप में ग्रहण या श्रवण आदि के साथ-साथ ध्वनि-परिवर्तन, ध्वनि-विकास, उसके कारण तथा दिशाए आदि विषयों का समावेश है। रूप-विज्ञान ( Morphology )
शब्द का वह आकार, जो वाक्य में प्रयुक्त किये जाने योग्य होता है, रूप कहा जाता है। 'पद' का भी उसी के लिए प्रयोग होता है। सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने सुप्तिङन्तं पदम् कहा है। अर्थात् शब्दों के अन्त में सु, औ, जस आदि तथा ति, अस् , अन्ति आदि विभक्तियों के लगने पर जो विशेष्य, विशेषण, सर्वनाम तथा क्रियाओं के रूप निष्पन्न होते हैं, वे पद हैं। न्यायसूत्र के रचयिता गौतम ने ते विभक्त्यन्ताः पदम् कहा है ।
विभक्ति-शून्य शब्द (प्रातिपादिक ) और धातुओं का यथावस्थित रूप में प्रयोग नहीं होता। विभिन्न सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए उनके साथ भिन्न-भिन्न विभक्तियां जोड़ी जाती हैं। विभक्ति-युक्त प्रातिपादिक या धातु प्रयोग-योग्य होते हैं। संस्कृत के सुप्रसिद्ध काम्य-तत्व-वेत्ता कविराज विश्वनाथ ने पद की व्याख्या करते हुए लिखा है : "वे वर्ण या वर्ण-समुच्चय, जो प्रयोग के योग्य हैं तथा अनान्वित रूप में किसी एक अर्थ के बोधक हैं, पद
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