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भाषा और साहित्य ]
विश्व भाषा प्रवाह
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आक्षिक, उडुप से औडुपिक 2, तथा धेनु से धेनुक; इत्यादि । इन उदाहरणों में अर्थतत्व यद्यपि यथावत् नहीं रहा है, पर, उसमें सम्बन्ध-तत्व सर्वथा लुप्त नहीं हुआ, अंशत: वह उपलभ्य है ।
अरबी भाषा में मारने के अर्थ में 'कू-तू-ल' धातु है । उससे कुतल= खून, कातिल = खून करने वाला तथा किल्ल = शत्रु आदि शब्द बनते हैं । संस्कृत के पूर्वोक्त उदाहरणों की तरह इनमें भी अर्थ - तत्व और सम्बन्ध-तत्व का योग है, पर, सम्बन्ध-तत्व की यत् किंचित् पहचान बनी हुई है । यह भी श्लिष्ट योगात्मक का उदाहरण है । विश्व की भाषाओं में विकास और समृद्धि की दृष्टि से श्लिष्ट योगात्मक भाषाओं का अत्यधिक महत्व है |
आकृति के आधार पर भाषाओं के परिवार
आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर शब्द- समूह, सम्बन्ध-तत्व व ध्वनि-साम्य के अनुसार संसार की भाषाओं को अनेक भागों या परिवारों में बांटा जाता है। कौन-कौन-सी भाषाएं कौन से परिवारों से सम्बद्ध हैं, भाषाओं के व्यापक रूप में तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात् ही यह निर्णय किया जा सकता है | यह बहुत लम्बे तथा गम्भीर अध्ययन का विषय है । बहुत कम भाषा-परिवारों का इस प्रकार का अध्ययन हो पाया है; अत: संसार में सैकड़ों की संख्या में जो भाषाएं हैं, उनका स्पष्ट पारिवारिक निर्णय और अधिक गवेषणा एवं अध्ययन - सापेक्ष है । फिर भी विद्वानों ने भाषाओं और उनके परिवारों के सम्बन्ध में बहुत काम किया है 1
उन्नीसवीं शती के दो दशकों के बाद जर्मन विद्वान् विलहेल्म फान हम्बोल्डट ने प्रस्तुत विषय पर विस्तार से विचार किया और उन्होंने संसार की भाषाओं को तेरह परिवारों में बांटा | अन्यान्य विद्वानों ने अपने-अपने अध्ययन के परिणाम स्वरूप परिवारों की संख्या भिन्न-भिन्न निर्धारित की । पार्टिज़ ने दश परिवार माने । फ्रेडरिक मूलर आदि भाषावैज्ञानिकों ने इस संख्या को सौ तक पहुंचाया । कुछ विद्वानों का विचार है कि केवल अमेरिका में ही एक सौ भाषा-परिवार विद्यमान हैं 1 राइस ने कहा है कि सब भाषाओं का परिवार एक ही हैग्र के अनुसार विश्व की भाषाएं छब्बीस परिवारों में विभक्त हैं । भारतीय भाषा वैज्ञानिकों के विचार भी भाषा-परिवारों के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न हैं ।
१. अक्षैर्दीव्यति खनति जर्यात जितो वा आक्षिकः । तेन दीव्यति खनति जयति जितम् । - पाणिनीय अष्टाध्यायी, ४१४१२
२. उडुपेन तरति - औडपिकः । तरति । - वही, ४१४१५
३. हसुसुक्तान्तात्कः । बही, ७।३।५१
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