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________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए । १३९ (१) तत्सम, (२) तद्भव, (३) देश्य (देशी)। तत्सम-तत् यहां संस्कृत के लिए प्रयुक्त है । जो शब्द संस्कृत और प्राकृत में एकजैसे प्रयुक्त होते हैं, वे तत्सम कहे गये हैं । जैसे—रस, वारि, भार, सार, फल, परिमल, नवल, विमल, जल, नीर, धवल, हरिण, आगम, ईहा, गण, गण, तिमिर, तोरण, तरल, सरल, हरण, भरण, करण, वरण आदि । तद्भव-वर्गों के समीकरण, लोप, भागम, परिवर्तन आदि वारा जो शब्द संस्कृत शब्दों से उत्पन्न हुए माने जाते हैं, वे तद्भव' कहे जाते हैं। जैसे-धर्म> धम्म, कर्म> कम्म, पक्ष> जक्स, बाह्मण> बम्हण, क्षत्रिय > खत्तिम, ध्यान>माण, दृष्टि> विछि, रक्षति> रक्खइ, पृच्छति> पुच्छइ, अस्ति> अस्थि, नास्ति- नत्थि; इत्यादि । देश्य (देशी)-प्राकृत में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है, जो न संस्कृत-शब्दों के सदृश है और न उनसे उद्भूत जैसा प्रतीत होता है । वैयाकरणों ने उन शब्दों को देश्य कहा है। उनके उद्गम की संगति कहीं से भा नहीं जुड़ती। जैसेउअपश्य, मुंड-सूकर, तोमरी लता, खुप्पइ-निमज्जति, हुत्त अभिमुख, फुटा=केशबन्ध, बिट्ट-पुत्र, डाल शाखा, टंका-जंघा, धयण-गृह, झडप्प-शीघ्र, चुक्कड़-भ्रश्यति, कन्वोट्ट-कुमुव, घढ-स्तूप, विच्छ-समूह । देश्य शब्दों पर कुछ विधार अपेक्षित है। इससे प्राकृत की उत्पत्ति को समझने में सहायता मिलेगी, जो एक सीमा तक अब भी विवादास्पद बनी हुई है। पदि प्राकृत संस्कृत से १. प्राकृत में जो तत्सम शब्द प्रचलित हैं, वे संस्कृत से गृहीत नहीं हैं। वे उस पुरातन लोक भाषा पा प्रथम स्तर की प्राकृत के हैं, जिससे वैदिक संस्कृत तथा द्वितीय स्तर की प्राकृतों का विकास हुआ। अतएव इन उत्तरवर्ती भाषाओं में समान रूप से वे शब्द प्रयुक्त होते रहे । वैदिक संस्कृत से वे शब्द लौकिक संस्कृत में आये। २. प्रथम स्तर की प्राकृत से उत्तरवर्ती प्राकृतों में आये हुए पूर्वोक्त शब्दों में एक बात और घटित हुई। अनेक शब्द, जो ज्यों-के-त्यों बने रहे, तत्सम कहलाये। पर, प्राकृतें तो जीवित भाषाएं थीं। कुछ शब्दों के रूप उनमें परिवर्तित होते गये। पद्यपि वे शब्द संस्कृत और प्राकृत में प्रथम स्तर की प्राकृत से समान रूप में आये थे, पर, व्याकरण से नियमित और प्रतिबद्ध होने के कारण संस्कृत में वे शब्द ज्यों-के-त्यों बने रहे। प्राकृत में वैसा रहना सम्भव नहीं था। वे ही परिवर्तित रूप वाले शब्द तद्भव कहलाये, अतः तद्भव का अभिप्राय, जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है, यह नहीं है कि वे संस्कृत शब्दों से निकले हैं। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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