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________________ भाषा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय । ५९५ अभिप्राय तित्थोगालीपइन्ना में दिये गये वर्णन से यह सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर आचार्य भी आगमों के विच्छेद-क्रम से असहमत नहीं रहे हैं । अन्तर केवल इतना है, दिगम्बर आचार्यों ने प्रागमों को जहां सर्वथा विच्छिन्न एवं विलुप्त मान लिया, वहां श्वेताम्बर उनका आंशिक विलय तथा प्रांशिक अस्तित्व स्वीकार करते रहे । आज श्वेताम्बर एकादशांगी का जो, जितना कलेवर प्राप्त है, समग्र सामग्री का बहुत थोड़ा-सा अंश है। विज्ञ पाठकों को इसका यथावत् परिचय हो सके, एतदर्थ आगमगत सामग्री का समग्र परिमारण तथा उपलब्ध अश का तुलनात्मक उल्लेख किया जा रहा है । आगम: सम्पूशा : ४पलब्ध १. आचारांग की मूल पद-संख्या १८००० मानी जाती है। आज जितना अंश प्राप्त है, उसका कलेवर २५०० श्लोक-प्रमाण है। पहले उल्लेख हुआ ही है, आचारांग का महापरिज्ञा संज्ञक सप्तम अध्ययन अनुपलब्ध है। २. सूत्रकृतांग की मूल पद-संख्या ३६००० थी, ऐसा विश्वास किया जाता है । आज २१०० श्लोक-प्रमाण पाठ प्राप्त है। ३. स्थानांग की पद-संख्या ७२००० थी, ऐसी मान्यता है । इस समय उसमें ३७७० श्लोक-प्रमाण सामग्री उपलब्ध है। ४. समवायांग में मूल पद-संख्या १,४४००० थी, ऐसा अभिमत है। इस समय इसका कलेवर १६६७ श्लोक-प्रमाण है। ५. व्याख्या-प्रज्ञप्ति की पद-संख्या के विषय में दो प्रकार की मान्यताएं हैं। नन्दीसूत्र के अनुसार उसमें २,८८,००० तथा समवायांग के अनुसार ८४,००० पद थे। पर वर्तमान में १५७५२ पद प्राप्त हैं। यह अंग १०१ शतकों में विभक्त था, जिनमें से आज केवल ४१ शतकं उपलब्ध हैं। ६. मातृधर्मकथा में समवायांग सूत्र तथा नन्वी सूत्र के अनुसार संख्यात सहस्र पद माने जाते हैं, पर इन दोनों की वृत्तियों में उसकी पद-संख्या ५,७६,००० उल्लिखित की गई है । इस समय इसका कलेवर ५,५०० श्लोक-प्रमाण है । इसके अनेक कथानक काल-क्रम से लुप्त हो गये। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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