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________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४३ प्रतीकात्मक शब्द भी प्राय: पारिवारिक सम्बन्धों की ज्ञापकता से बहुत दूर नहीं जाते। वे भी संख्या में सीमित ही हैं। प्रतीकात्मक आदि प्रारम्भ में प्रयुज्यमान शब्दों के सादृश्य के आधार पर अन्यान्य शब्द अस्तित्व में आते गये, भाषा विकास की ओर गतिशील रही, ऐसी कल्पना भी सार्थक नहीं लगती। जैसे, प्रतीकात्मक शब्दों के विषय को ही लें। बच्चों का एक ससीम जगत् है। उनके सम्बन्ध और आवश्यकताए' सीमित हैं। उनकी आकांक्षाओं के जगत् का सम्बन्ध मात्र खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना, सोना आदि निसगंज मूल लिप्साओं से दूर नहीं है। इस स्थिति के परिप्रेक्ष्य में जो सांयोगिक ध्वनियां या शब्द प्रादुर्भूत होते हैं, उनके द्वारा ज्ञाप्यमान अर्थ बहुत सीमित होता है। उनसे केवल अत्यन्त स्थूल पदार्थों और भावों का सूचन सम्भव है। सूक्ष्म भावों की परिधि में वे नहीं पहुंच पाते । ___ भाषा की उत्पत्ति : अवलम्बन : निराशा भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार अनेक मत आविर्भूत हुए, चर्चित हुए, परिवर्तित हुए, पर, अब तक किसी सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं जा सका। इसकी प्रतिक्रिया कुछ मूर्धन्य विद्वानों के मन पर बड़ी प्रतिकूल हुई। उन्हें लगा कि भाषा के उद्गम या मूल जैसे विषय को खोज करना ब्यर्थ है; क्योंकि अब तक की गवेषणा और अनुशीलन के उपरान्त भी किसी वास्तविक तथ्य का उद्घाटन नहीं हो सका। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एडगर स्टूपिण्ट ने लिखा है : "अत्यधिक निरर्थक तक-वितक के उपरान्त भाषा विज्ञान-वेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानवीय भाषा के उद्गम के सम्बन्ध में प्राप्त सामग्री कोई साक्ष्य उपस्थित नहीं करती।"] इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान् मोरियो-पाई का भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार का विचार है। उन्होंने लिखा है : “वह एक तथ्य, जिस पर सभी भाषा वैज्ञानिक पूर्णतया सहमत हैं, यह है कि मानवीय भाषा के उद्गम की समस्या का अभी तक समाधान हो नहीं पायर्या है।" 1. After much futile discussion linguists have reached the conclu sion that the data with which they are concerned yield little or no evidence about the origin of human speech. An Introduction to Linguistic Science, P. 40, New Haven, 1948. 2. If there is one thing on which all linguistics are fully agreed, it is that the problem of the origin of human speech is still unsolved. --The story of Language, P. 18, London, 1952. ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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