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________________ अभिनिष्क्रमण हो गया। कलकत्ता तक की सुदूर यात्रा हो गई। कलकत्ता में संवत् २०३५ में मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' की विद्यमानता में ही अर्हत् प्रकाशन की ओर से ग्रन्थ का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। ४ वर्ष का प्रलम्ब समय जो प्रकाशन-कार्य में लगा, उसका मुख्य हेतु तो कलकत्ता का विद्युत्-संकट ही रहा है। अस्तु, पाठकों का चिरप्रतीक्षित ग्रन्थ अब उनके हाथों में आ रहा है, यह सन्तोष का विषय है। कितना सुन्दर होता, स्व० उपाध्याय मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' की विद्यमानता में ही यह प्रकाशित होकर सामने आ पाता। विश्रु त् विद्वान् उपाध्यायप्रवर श्री अमर मुनिजी ने प्रस्तुत खण्ड पर भूमिका लिखकर तथा विख्यात भाषा शास्त्री डा. प्रभाकर माचवे ने 'एक अवलोकन' लिख कर ग्रन्थ को व मुझे गरिमा प्रदान की है, एतदर्थ मैं आभारी हूँ। मैं उन समस्त लेखकों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिनकी कृतियों को मैंने अपने लेखन में संदर्भित किया है। ____ लोक-संग्राहक प्रवृत्तियों से मैंने स्वयं को निवृत्त प्राय: कर लिया है तथा अन्यान्य अनिवार्य अपेक्षाओं को मेरे परम सहयोगी मुनि मानमलजी एवं मुनि मणिकुमारजी निभा लेते हैं; अत: 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ के पूर्व निर्धारित तृतीय खण्ड का लेखन कार्य भी शीघ्र सम्पन्न हो सकेगा, ऐसी आशा है। -सुनि नगराज लुहारीवाला भवन कलकत्ता दीपावली वि० सं० २०३९ १५ नवम्बर १९८२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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