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भाषा और साहित्य शिलालेखी-प्राकृत
[ २५१ हो सकती। उसमें उस ( प्राचीन स्तर ) की झलक विद्यमान रहती है । अश्वघोष को मागधी जोगीमारा-रामगढ़ के अभिलेख से मेल खाती है । अश्वघोष के दुष्ट नामक पात्र द्वारा जिस मागधी का प्रयोग हुआ है, वहां दन्त्य सकार और तालव्य शकार के लिए केवल तालव्य शकार ही प्रयुक्त हुमा है । र के लिए यहां ल आया है। अकारान्त प्रथमा एक वचन के लिए वहां ए प्रत्यय का प्रयोग हुआ है। ये प्राचीन मागधी के लक्षण हैं, जो अश्वघोष की मागषी में घटित होते हैं । इतना अवश्य है, उत्तरवर्ती मागधी के लक्षणों से अश्वघोष की मागधी किसी अंश में कम मेल खाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष की मागधी प्राचीन मागधी के अनुरूप है।
आचार्य भरत ने नाटक में प्राकृतों के प्रयोग का जो विधान किया है, तदनुसार शाजाओं के अन्तःपुर में रहने वालों, सुरंग खोदने वालों-सेंथ लगाने वालों, कलालों-शराब मिकालने वालों,घोड़ों की देखभाल करने वालों को नाटक में मागधी का प्रयोग करना चाहिए। नाटक का नायक यदि संकट में पड़ जाये तो वह भी अपने को बचाये रखने के लिए मागधी का व्यवहार करे ।।
भाचार्य भरत ने जिन पात्रों के मागधी-भाषी होने का विधान किया है, स्पष्ट है, ये निम्न कोटि के पात्र हैं। नायक उच्च कुलीन होता है। आपत् में उसे अपने आपको छिपाये रखना होता है। अपनी भाषा से वह पहचाना जा सकता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि वह अधम जनों द्वारा व्यवहृत भाषा का प्रयोग करे। इससे अपने भापको बचाये रखने में उसे सहयोग मिलता है।
डा. चटर्जी के कपन का उपयुक्त तथ्य पोषण करते हैं। प्राचीन काल में मागधी के प्रति अथवा तालव्य शकार जैसे उसके किसी अंग-विशेष के प्रति ग्राम्यता, असुन्दरता या अग्राह्यता का भाव रहा हो, यह कल्पनातीत नहीं लगता । अश्वघोष द्वारा मागधी के व्यवहार और भरत द्वारा मागधी के व्यवहार के सम्बन्ध में किये गये विधान से जो झलक मिलती है, वह इसी ओर इंगित करती है।
यह भी सम्भाव्य प्रतीत होता है कि मागधी की अनुचता का विशेष सम्बन्ध तालव्य
१. मागधी तु नरेन्द्राणामन्तः पुरनिवासिनाम् ।
-नाट्यशास्त्र, १७.५० सुरंगाखनकादीनां शुण्डकारावरक्षिणाम् । व्यसने नायकानां स्यावात्मरक्षासु मागधी ॥
-नाट्यशास्त्र, १७.५६
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