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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३४७ माता-पिता से निवेदन कुमार जम्बू रथ से नीचे उतरे । उनका मुख प्रफुल्लित था। उन्होंने माता-पिता को प्रणाम किया । उनसे कहने लगे-' मैंने आज गणधर सुधर्मा से धर्मोपदेश सुना, प्रभावित हुआ । में वह पद प्राप्त करना चाहता हूँ, जहां न वृद्धावस्था है, न मरण है और न रोग व शोक ही । मैं श्रमण-प्रनज्या स्वीकार करना चाहता हूं। मुझे आज्ञा दीजिए।" कुमार जम्बू का निश्चयात्मक भाषा में वचन सुन कर माता-पिता के मुख पर बांसू छा गये। वे कहने लगे- "तुमने धर्मोपदेश सुना, यह अच्छा है। देखो, हमारे पूर्वज भी जिनशासन में अभिरत थे, पर, हमने नहीं सुना, उनमें से किसी ने भी प्रव्रज्या स्वीकार की हो। हम लोग भी लम्बे समय से धर्म-श्रवण करते आ रहे है, परन्तु, हमारा ऐसा मनोभाध कभी नहीं बना । तुमने केवल एक दिन में ऐसी कौन सी विशेषता प्राप्त कर ली कि प्रवज्या लेने की ठान ली। कुमार जम्बू ने माता-पिता को समझाते हुए कहा- "कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं कि बहुत काल के पश्चात् भी अपने करणीय का निश्चय नहीं कर पाते हैं और कई व्यक्ति ऐसे होते हैं कि जो थोड़े ही समय में उसे विशेषतः परिक्षात कर लेते हैं। जम्बू कुमार ने इस सन्दर्भ में माता-पिता को विशेष-परिज्ञा के उदाहरण के रूप में एक श्रेष्ठि-पुत्र का दृष्टान्त देते हुए दीक्षा लेने की स्वीकृति देने के हेतु उनसे पुनः अनुसोध किया। माता-पिता ने कहा-"आर्य सुधर्मा विहार करते हुए फिर जब यहां पधारें, अच्छा होगा, तब तुम प्रव्रजित होना ।" दुर्लभ धर्म-प्रासि के सम्बन्ध में कुमार जम्बू ने कई एक मित्रों का दृष्टान्त सुनाते हुए अविलम्ब संयम-पथ अंगीकार करने को तीव उत्कण्ठा व्यक्त करते हुए कहा-"जिस प्रकार उन मित्रों ने तीर्थकर का उपदेश श्रवण कर समवारण में प्रग्या स्वोकार कर ली तथा जाम-मरण का अन्त किया, इसी प्रकार यदि में अभी ऐसा न करू, तो समय बोतने पर हो सकता है, विषयों में आसक्त हो जाने के कारण मेरा धर्म के प्रति आकर्षण हो न रहे । इसलिए मैं चाहता हूं, मुझे अभी स्वीकृति प्रदान करें। पिता ऋषभदत्त ने कहा-तुम्हारे पास विपुल सम्पदा है, जिससे सभी भोग्य पदार्थ सुलभ हैं। इसलिए अच्छा है, भोगों का पर्याप्त भोग करो, तब दीक्षा लो।" कुमार जम्बू ने इन्द्रियासक्ति के सम्बन्ध में शिलाजीत में चिपक कर मरने वाले एक मकंट का दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए कहा-"अभी बचपन के कारण मुझे केवल खाने-पीने के पदार्थों की आसक्ति रहती है। दूसरे शब्दों में केवल जिह्वा के स्वाद में बंधा हूं, जिससे मैं Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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