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भाषा और साहित्य ]
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए
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अन्य सुरक्षित स्थानों की ओर सरकते रहे । बाद में वहां भी आयं 1 पहुंच गये । संघर्ष के बाद आर्य, अनायें दोनों जातियों के लोग वहां स्थिर हो गये । साथ-साथ रहने से पारस्परिक सम्पर्क बढ़ना स्वाभाविक था । फलतः अनार्य भाषाओं के कुछ शब्द आर्यों की बोलचाल की भाषाओं ( या तत्कालीन प्राकृतों ) में समा गये 1
महाभारत का जो उद्धरण देश-भाषाओं के सम्बन्ध में पहले उपस्थित किया गया है, उसके सन्दर्भ पर गौर करने से उक्त तथ्य परिपुष्ट होता है । उन सैनिकों और पार्षदों की वेष-भूषा, चाल-ढाल, 2 आदि से प्रकट है कि वे सम्भवतः अनायं जाति के लोग थे । देवताओं के सेनापति और असुरों के विजेता के रूप में स्कन्द हिन्दू-शास्त्रों में समादृत हैं I
१. सम्भवतः ये वे आर्य थे, जो आर्यों के दूसरे दल के मध्यदेश में आ जाने पर वहां से भाग उठे थे और मध्यदेश के पाश्ववर्ती क्षेत्रों में बस गये थे । इस सम्बन्ध में यथाप्रसंग चर्चा की जा चुकी है ।
२. नानावेषधराश्चैव
नानामाल्यानुलेपनाः ।
नानावस्त्रधराश्चैव चर्मवासस एव च ॥ उष्णीषिणो मुकुटिनः सुग्रीवाश्च सुवर्चसः । किरीटिन: पंचशिखास्तथा कांचनमूर्धजाः ॥ त्रिशिखा द्विशिखाश्चैव तथा सप्तशिखा: परे । शिखण्डिनो मुकुटिनो मुण्डाश्च जटिलास्तथा ॥ चित्रमालाधराः केचित् केचित् रामाननास्तथा । विग्रे हरसा नित्यमजेयाः सुरसत्तमैः ॥ कृष्णा निर्मा सवत्राश्च दोर्धपृष्ठास्त दराः ।
प्रलम्बोदर मेहनाः ॥
स्थूलपृष्ठा ह्रस्वपृष्ठा
महाभुजा ह्रस्वभुजा हस्वगात्राश्च वामनाः । कुब्जाश्च ह्रस्वजंघाश्च हस्तिकर्ण शिरोधराः ॥ हस्तिनासा कूर्मनासा वृकनासास्तथापरे । दीर्घोच्छ्वासा दोर्धजंघा विकराला हृयधोमुखाः ॥
महादंष्ट्रा हस्वदंष्ट्राश्चतुर्वास्तथा परे ।
वारणेन्द्र निभाश्चान्ये भीमा राजन् सहस्रशः ॥ सुविभक्तशरीराश्च दीप्तिमन्तः स्वलंकृताः । पिंगाक्षा: शंकुकणाश्च रक्तनासाश्च भारत । पृथुदंष्ट्रा महादंष्ट्रा स्थूलौठा हरिमूर्धजाः । नाना पादौष्ठदंष्ट्राश्च नानाहस्तशिरोधराः ॥
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- महाभारत, शत्य पर्व, १४५. ९३-१०२
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