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________________ भाषा और साहित्य ] आचार्य का चिन्तन आचार्य घरसेन ने शुभ स्वप्न देखा । अगले ही दिन उसकी फल - प्रसूति भी देखी । आचार्य के सामने प्रश्न था – वे अपनी दुर्लभ विद्या समागत मुनियों को प्रदान करें या नहीं । उनका विश्वास था -‍ - सविद्या सत्पात्र में ही सन्निहित की जानी चाहिए । असत् पात्र में निहित उत्तम विद्या भी कभी सुखावह नहीं हो सकती । प्राचार्य के अन्तःकरण में विचारो लन होने लगा शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय " जो शिक्षयिता गुरु मोहवश पर्वत के मेघ, फूटे हुए घट, सांप, चालनी, भैंसे, मेंढे, जों, शुक, मिट्टी तथा मच्छर के सदृश श्रोताओं के आगे श्रुत का व्याख्यान करता है— ऐसों को श्रुत का शिक्षण देता है, वह गर्व से प्रतिबद्ध, विषय- लोलुपता के विष से मूच्छित हो भटकता हुआ, बोधि – रत्नत्रय (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) के लाभ से भ्रष्ट होकर चिरकाल तक भव-कान्तार में परिभ्रमण करता रहता है। इस वचन का आचोलन करते हुए आचार्य के मन में श्राया कि स्वच्छन्द व्यक्तियों को विद्या देना भव- भ्रमण एवं भीति बढ़ाने वाला है । यद्यपि आचार्य धरसेन ने शुभ स्वप्न द्वारा समागत मुनिद्वय का हार्द समझ लिया था, फिर भी उन्होंने उनकी परीक्षा करना प्रावश्यक समझा । वे जानते थे, सुष्ठुरीति से की हुई परीक्षा हृदय में परितोष उत्पन्न करती है । 1 [ ૬૦d कज्जेणम्हा वो वि जणा तुम्हं पादमूलमुव गया' ति । 'सट्टु भद्द" त्ति भणिऊण धरसेणभडारएण वो वि आसासिदा । १. सेल - घण - भग्ग - घड - अहि चालणि महिसा -ऽ-वि- जाहय - सुएहि । मट्टिय-मसय- समाणं -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६७-६८ Jain Education International 2010_05 वक्खाणइ जो सुदं मोहा ॥ ६२ ॥ विसयामिस-विस बसेण घुम्तो | धव- गारव - पडिबद्धो सो मट्ट-बोहि- लाहो भ्रमइ चिरं भव-वणे मूढो ॥ ६३ ॥ इति वयणावो जहाछंबाईणं विज्जादाणं संसार भयबद्धगामिदि चितिऊण सुह-सुमिणदंसणेणेव अवगय- पुरिसतरेण धरसेण-भयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढत्ता'सुपरिक्खा हियय-निम्वुइ करेति' । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६८-७० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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