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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४०७ १. आयारंग ( आचारांग) आचारांग में श्रमण के प्राचार का वर्णन किया है। यह दो श्रुत-स्कन्धों में विभक्त है। प्रत्येक श्रुत-स्कन्ध का अध्ययनों तथा प्रत्येक अध्ययन का उद्देशों या चूलिकाओं में विभाजन है। प्रथम श्रुत-स्कन्ध में नौ अध्ययन एवं चौवालीस उद्देश हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तीन चूलिकाएं हैं, जो १६ अध्ययनों में विभाजित हैं। भाषा, रचना-शैली, विषय-निरूपण आदि को दृष्टि से यह स्पष्ट है कि प्रथम श्रुत-स्कन्ध बहुत प्राचीन है। अधिकांशतया यह गद्य में रचित है। बीच-बीच में यत्र-तत्र पद्यों का भी प्रयोग हुआ है। अद्ध -मागधी प्राकृत के भाषात्मक अध्ययन तथा उसके स्वरूप के अवबोध के लिए यह रचना बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा निर्दिष्ट किया गया है, पर, उसका पाठ प्राप्त नहीं है। इसे व्युच्छिन्न माना जाता है। कहा जाता है, इसमें कतिपय चमत्कारी विद्याओं का समावेश था। लिपि-बद्ध हो जाने से अधिकारी, अनधिकारी; सबके लिए वे सुलभ हो जाती हैं। अनधिकारी या अपात्र के पास उनका जाना ठीक न समझ श्री देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगम-लेखन के समय इस अध्ययन को छोड़ दिया। यह एक कल्पना है, वस्तुस्थिति क्या रहो, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, बाद में इस अध्ययन का विच्छेद हो गया हो। नवम उपधान अध्ययन में भगवान् महावीर की तपस्या का मार्मिक और रोमांचकारी वर्णन है । वहां उनके लाढ (बर्द्धवान जिला), वनभूमि (मानभूम और सिंहभूम जिले ) तथा शुभ्र भूमि ( कोडरमा, हजारीबाग का क्षेत्र ) में विहार-पर्यटन तथा प्रज्ञ जनों द्वारा किये गये विविध प्रकार के घोर उपसर्ग-कष्ट सहन करने का उल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के घोर तपस्वी तथा अप्रतिम कष्ट-सहिष्ण जीवन का जो लेखा-जोखा इस अध्ययन में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। भगवान महावीर की कठोर साधना : परिषह एक वर्ष और कुछ अधिक मास, भगवान् महावीर के कन्धे पर इन्द्र द्वारा प्रक्षिप्त देवदूष्य रहा। पर, उन्होंने कभी यह न सोचा कि मैं इससे हेमन्त ऋतु में अपना शरीर ढकूगा। उक्त काल के पश्चात् उस वस्त्र का त्याग कर दिया। गहस्थी के सम्पर्क में कभी उनका गृहस्थ-संश्लिष्ट प्रवास होता, तो स्त्रियां मोहित और आसक्त होकर उनसे काम-प्रार्थना करतीं, पर, वे अपने को विरक्ति के मार्ग में लगाये ध्यान-निरत रहते । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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