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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
वैदिक संस्कृत में यह मूद्ध न्य व्यंजनों का वर्ग किस प्रकार आया, इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मन्तव्य है कि द्रविड़ परिवार की भाषाओं में ये ध्वनियां विद्यमान थीं । आर्यों के भारत में बसने से पूर्व द्रविड़ जाति के लोग यहां आबाद थे, इतिहास के विद्वान् ऐसा मानते हैं । नवागन्तुक आर्यों का प्राचीनवासी द्रविड़ों से सामीप्य बढ़ता गया । फलतः दोनों की भाषाओं में भी परस्पर आदान-प्रदान हुआ। दोनों ओर से कुछ शब्द एक दूसरी भाषा में गये, ध्वनियों पर भी प्रभाव पड़ा । उदाहरणार्थ, संस्कृत में प्रयुक्त मीन और नीर आदि शब्द द्रविड़ परिवार से आये हुए हैं; ऐसा माना जाता है । द्रविड़ भाषाओं में भी संस्कृत के शब्द आत्मसात् किये । उसी आदान-प्रदान के क्रम के बीच, सम्भव है, मूद्ध न्य व्यंजन ध्वनियां द्रविड़ परिवार से वैदिक संस्कृत में आ गयी हों 1
मूर्द्धन्य व्यंजनों में जो छू और छह दो आये हैं, उनका तात्पर्य यह है कि ळू अल्पप्राण है और ळूह ळका महाप्राण रूप है |
अन्तःस्थ व् और दन्तोष्ठ्य व ; ये दो भिन्न ध्वनियां हैं । अंग्रेजी में जो V ध्वनि है, दन्तोष्ठ्य उसके समकक्ष है । यह फू का घोष रूप है । वैदिक संस्कृत में दन्तोष्ठ य व का भी प्रयोग होता था ।
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ह और ह. - जो दो रूप आये हैं, उनमें पहला तो सामान्य है है हो, दूसरा ह. विसर्ग ( : ) स्थानीय है । सामान्य ह घोष है । यह ( है ) उसका अघोष रूप है 1
जिह्वामूलीय
जिह्वामूलीय और उपध्मानीय का भी वैदिक संस्कृत में प्रयोग रहा है ।
का उच्चारण ख़ की तरह था और उपध्मानीय का फ की तरह 1
वैदिक संस्कृत की ध्वनियों का यह संक्षिप्त वर्णन है । भारतीय आर्य भाषा-परिवार की भाषाओं के ध्वनि-समुदाय का ये ही मूल आधार है ।
१. ऋटुरषाणां भूर्द्धा । - अष्टाध्यायी, ११११९ वृत्ति
२. वर्गाणां प्रथमतृतीयपंचमा पणश्चाल्पप्राणाः ।
३. दर्गाणां द्वितीयचतुर्थौ शलश्च महाप्राणा।। -अष्टाध्यायी, ११११९ वृत्ति
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