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प्राकृत
भाषा वैज्ञानिकों ने भारतीय आर्यभाषाओं के विकास का जो काल-क्रम निर्धारित किया है, उसके अनुसार प्राकृत का काल ई० पू० ५०० से प्रारम्भ होता है । पर, वस्तुतः यह निर्धारण भाषा के साहित्यिक रूप की अपेक्षा से है । यद्यपि वैदिक भाषा की प्राचीनता में किसी को सन्देह नहीं है, पर, वह अपने समय में जन-साधारण की बोलचाल को भाषा रही हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता । वह ऋषियों, विद्वानों तथा पुरोहितों की साहित्य भाषा थी । यह असम्भव नहीं है कि उस समय वैदिक भाषा से सामंजस्य रखनेवाली अनेक बोलियां प्रचलित रही हों । महाभाष्यकार पतंजलि ने प्रादेशिक दृष्टि से एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूपों के प्रयोग के सम्बन्ध में महाभाष्य में जो उल्लेख किया है, सम्भवतः वह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि कुछ प्रदेशों में वैदिक भाषा के कतिपय शब्द उन-उन प्रदेशों की बोलियों के संसर्ग से कुछ भिन्न रूप में अथवा किन्हीं शब्दों के कोई विशेष रूप प्रयोग में आने लगे ये । यह भी अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता कि इन्हीं बोलियों में से कोई एक बोली रही हो. जिसके पुरावर्ती रूप ने परिमार्जित होकर छन्दस् या वैदिक संस्कृत का साहित्यक स्वरूप प्राप्त कर लिया हो ।
कतिपय विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि वेदों का रचना - काल आर्यों के दूसरे दल के भारत में प्रविष्ट होने के बाद आता है । दूसरे दल के आर्य पंचनद तथा सरस्वती व दृषद्वती के तटवर्ती प्रदेश में होते हुए मध्यदेश में आये । इस क्रम के बीच वेद का कुछ भाग पंचनद में तथा सरस्वती व दृषद्वती की घाटी में बना और बहुत सा भाग मध्यदेश में प्रणीत हुआ । अथववेद का काफी भाग, जिसके विषय में पूर्व इंगित किया गया है, जो परवर्ती माना जाता है, सम्भवतः पूर्व में बना हो ।
पहले दल के आर्यों द्वारा, जिन्हें दूसरे दल के आर्यों ने मध्यदेश से खदेड़ दिया था, वेद की तरह किसी भी साहित्य के रचे जाने का उल्लेख नहीं मिलता। यही कारण है कि मध्यदेश के चारों ओर लोग जिन भाषाओं का बोलचाल में प्रयोग करते थे, उनका कोई भी साहित्य आज उपलब्ध नहीं है । इसलिए उनके प्राचीन रूप की विशेषताओं को नहीं जाना ना सकता, न अनुमान का ही कोई आधार है । वेदिक युग में पश्चिम, उत्तर, मध्यदेश और पूर्व में जन-साधारण के उपयोग में आने वाली इन बोलियों के बंदिक युग से पूर्ववर्ती भी
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