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________________ भाषा और साहित्य | प्रार्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४१९ उसके मन में वैराग्य हुआ । उसने दीक्षा स्वीकार कर ली । श्रमण-धर्म का पालन करते हुए उसके मन में कुछ दुर्बलता प्राई, वह क्षुब्ध हुआ और अनुभव करने लगा, जैसे उसने राज-वंभव छोड़ श्रमण-धर्म स्वीकार कर मानो भूल की हो । किन्तु भगवान् महावीर ने उसे उसके पूर्व भव का वृत्तान्त सुनाया, तो उसका मन संयम में स्थिर और दृढ़ हो गया । अन्य अध्ययनों में इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कथानक हैं, जिनके द्वारा तप, त्याग व संयम का उद्बोध दिया गया है । अठवें अध्ययन में विदेह राजकन्या मल्लि तथा सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के पूर्व जन्म की कथा है । दोनों कथाएँ बहुत महत्पूर्ण हैं । द्वितीय श्रुत-स्कन्ध दश वर्गों में विभक्त है । इन वर्गों में प्रायः स्वर्गी के इन्द्रों की महिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली स्त्रियों की कथाएं हैं । प्राचार्य अभयदेव सूरि की टीका है। उसे द्रोणाचार्य ने संशोधित किया था । प्राचार्य अभयदेव सूरि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में जो लिखा है, उसके अनुसार तब अनेक वाचनाएं प्रचलित रही हैं । ७. उवासग दसाओ ( उपासकदशा) नामः अर्थ उपासक का अर्थ श्रावक तथा दशा का श्रर्थं तद्गत अणुव्रत आदि क्रिया-कलाप से प्रतिबद्ध या युक्त अध्ययन (ग्रन्थ- प्रकरण ) है । विषय-वस्तु प्रस्तुत श्रतांग में दश अध्ययन हैं, जिनमें दश श्रावकों के कथानक हैं। इन कथानकों के माध्यम से जैन गृहस्थों द्वारा पालनीय धार्मिक नियम समझाये गये हैं । साथ-साथ यह भी बतलाया गया है कि धर्मोपासकों को अपने धर्म के परिपालन के सन्दर्भ में कितने ही विघ्नों तथा प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है, पर वे उनसे कभी विचलित या धर्मयुत नहीं होते । अन्त में बारह गाथानों द्वारा दशों कथानकों के मुख्य वर्ण्य विषयों का संकेत करते हुए ग्रन्थ का सार उपस्थित किया गया है। * आचारांग का पूरक इस श्रुतांग को एक प्रकार से आचारांग का पूरक कहा जा सकता है । आचारांग में जहां श्रमण-धर्म का निरूपण किया गया है, वहां इसमें श्रमणोपासक - श्रावक या गृहस्थ धर्म निरूपण किया गया है । आनन्द आदि महावैभवशाली गृहस्थों का १ उपासकाः श्रावकास्तद्गतासुव्रतादि क्रियाकलापप्रतिबद्धा दशाध्ययनानि उपासकदशा । - अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० २०९४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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