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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन
उन्होंने वहां इसके छः खण्डों की चर्चा की है । इस प्रकार प्राचार्य वीरसेन द्वारा यह ग्रन्थ षट् खण्ड सिद्धान्त के रूप में अभिहित हुआ है ।
आगे चलकर षट् खण्ड सिद्धान्त के स्थान पर यह आगम, परमागम तथा षट्खण्डागम के नाम से विशेष रूप से विशु त हुआ।
अपभ्रशं के महाम् कवि, महापुराण के रचयिता पुष्पदन्त ने इसे आगम सिद्धान्त' कहा है । गोम्मटसार की टीका में इसे परमागम कहा गया है। इन्द्रनन्दि ने श्रु तावतार में इसकी षट्खण्डागम के नाम से चर्चा की है ।
आगम शब्द एक विशेष प्राशय लिए हुए है, उसका आधार प्राप्त-वाक्यता है । युक्ति और तर्क का स्थान वहां गौण है । सर्वथा युक्तियुक्त और प्रमाण-सम्मत तथ्य को सिद्धान्त कहा जा सकता, आगम नहीं, यदि उसका स्रोत प्राप्तवाक्यता नहीं है । जैन परम्परा में प्रागम-कोटि में वे ही ग्रन्थ पाते हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध सर्वज्ञ-भाषित से होता है, दूसरे शब्दों में सर्वज्ञ-वाणी जिनका उद्गम-स्रोत है । इस दृष्टि से दिगम्बर-विश्वास के अनुसार इस ग्रन्थ के 'आगम' अभिधान की निःसन्देह सार्थकता है।
एक अविस्मरणीय घटना
__ भगवान् महावीर का निर्वाण हुए छः शताब्दियों से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार प्रागम-विच्छेद का काल लगभग आने वाला था । अधिकांश
१. इदं पुण जीवट्ठाणं खंड-सिद्धतं पडुच्च पुवाणुपुथ्वीए द्विदं छण्हं खंडाणं पढमखंडं जीवठ्ठाणमिदि।
-षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७४ २. ण उ बुज्झिउ आयमु मद्दधाम् । सिद्धतु धवलु जयधवलु णामु ॥
--महापुराण १.९.८ ३. एवं विशतिसंख्या गुणस्थानादयः प्ररूपणा भगवदर्हद्गणधरशिष्यप्रशिष्यादिगुरुपूर्वागतया परिपाट्या अनुक्रमेण भणिताः परमागमे पूर्वाचार्य: प्रतिपादिताः।
-गोम्मटसार, जीव काण्ड, टीका २१ ४. षखंडागमरचनाभिप्रायः पुष्पदन्तगुरोः ।
-श्रु तावतार १३७
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