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मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कुमार जम्बू ने कहा-"प्रभव ! सुनो, मैं समस्त पारिवारिकों तथा इस विपुल वैभव और सम्पत्ति का परित्याग कर कल प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा । मैंने भावात्मक दृष्ट्या सभी मारंभ-समारंभ त्यक्त कर दिये हैं। मैं एक प्रकार से अप्रमत्त बन गया हूं। मुझ पर विद्या या देवता का प्रभाव कार्यकर नहीं होता। मुझे इन सावध-अवध सहित या पापपंकिल विधाओं से कोई प्रयोजन नहीं है । इन विद्याओं का परिणाम दुर्गति है। मैंने आर्य सुधर्मा से संसार-विमोचनी विद्या प्राप्त की है।"
प्रभव ने यह सब सुना। उसके विस्मय का पार नहीं रहा । मन-ही-मन सोचने लगा, कितना आश्चर्य ! जम्बू कुमार इस विपुल सम्पदा का परित्याग करने जा रहे हैं। वास्तव में ये महान् पुरुष हैं, वन्द्य हैं। प्रभव विनयाभिनत हो गया। पर, कहने लगा-"जम्बू कुमार! भोग्य विषय इस मनुष्य-लोक में सारभूत हैं। सपत्नीक उनका परिभोग करो। पण्डितजन, जो सुख प्राप्त हैं, उनके परित्याग की प्रशंसा नहीं करते। यह आपके दीक्षा लेने का समय नहीं है। असमय में ऐसा करने की बुद्धि आप में कैसे उत्पन्न हुई ? जो परिपक्व वृद्ध या प्रौढ़ अवस्था के हैं, वे यदि इस प्रकार का धर्माचरण स्वीकार करें, तो गर्दा नहीं है।
कुमार जम्बू ने प्रभव को 'मधु-बिन्दु' आदि दृष्टान्तों द्वारा भोग की त्याज्यता और त्याग की वरेण्यता का सार हृदयङ्गम कराया। फलतः कुमार जम्बू के साथ जहां उनकी नवपरिणीता पत्नियां प्रवजित हुई, तस्करराज प्रभव भी अन्तत: उनके तितिक्षु तथा मुमुक्ष व्यक्तित्व से प्रभावित हो अपने तस्करा-साथियों सहित दीक्षित हो गया।
तस्कर-कर्म में प्रभव ने जहां एक असाधारण ख्याति अर्जित की थी, साधना के क्षेत्र में भी उसने वस्तुतः चमत्कार किया। वह आर्य जम्बू का प्रमुख अन्तेवासी हुआ तथा आर्य जम्बू के पश्चात् आचार्य प्रभव के रूप में उनका उत्तराधिकारी, धर्म-संघ का अधिनायक तथा द्वादशांगात्मक श्रुत-संपदा का सफल संवाहक भी।
दिगम्बर परम्परा में प्रभव के स्थान पर विद्युच्चर नामक तस्कर का उल्लेख है। पर, जम्बू के प्रधान विष्य या पट्टधर के रूप में उसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। दिगम्बर-परम्परानुसार जम्बू के पट्टधर विष्णु या नन्दी नामक भाचार्य हैं। आर्य जम्बू : काल-कम . आर्य जम्बू के जीवन का काल-क्रम सामान्यतः निम्नांकित रूप में माना जाता है:
जन्म : ई० पू० ५४३ दीक्षा : ई० पू० ५२७ । १६ वर्ष की आयु में, भगवान् महावीर के निर्वाण के कुछ
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