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________________ भाषा और साहित्य ] पाली भाषा और पिटक वाङमय [२०७ कहते हैं। विस्तृत अर्थ को संक्षेप में कहने के अभिप्राय से वैदिक परम्परा में सूत्रात्मक शैली का प्रवर्तन रहा। पालि-वाङ्मय में जो सुत्त-सूत्र शब्द चलता है, वह इस अर्थ में नहीं है। वहां बहुत विस्तार है, जो सूत्र शब्द के उपर्युक्त अयं के प्रतिरूप है। सुप्त-पिटक : वर्णित विषय __ सुत्त-पिटक में भगवान बुद्ध के उपदेश-वचन हैं। बुद्ध के कुछ मुख्य शिष्यों के उपदेश भी उसमें संकलित हैं, जो बुद्ध-वचनों पर आधारित थे। बुद्ध-उपदेश के अतिरिक्त वहां ई०पू० पांचवीं-छठी शताब्दी के भारत के समाज एवं लोक-जीवन का जीता-जागता चित्र भी प्राप्त होता है। बुद्ध के समसामयिक धर्म - प्रवर्तकों, श्रमणों, परिवाजकों और उनके सिद्धान्तों के विषय में प्रासंगिक रूप में इसमें विशद प्रकाश डाला गया है। तत्कालीन जन-समुदाय की रुचि, व्यवसाय, विद्या, कला, विज्ञान, राजनीति, ग्राम, नगर, जनपद, लोगों का रहन-सहन, खेती, व्यापार, सामाजिक रीतियां, समाज में स्त्रियों का स्थानं, दास-दासियों और नौकरों की अवस्था प्रभृति अनेक उपयोगी विषय चचिंत हुए हैं। रचना गद्य-पद्य-मिश्रित है। __सुत्त-पिटक के पांच बड़े-बड़े विभाग हैं, जो निकाय कहलाते हैं। वे हैं : (१) दीघनिकाय, (२) मज्झिम-निकाय, (३) संयुक्त-निकाय (४) अंगुत्तर-निकाय (५) खुद्दक-निकाय । दोघ-निकाय : लम्बे-लम्बे उपदेशों का संग्रह है। तीन वर्गों के अन्तर्गत निम्नांकित चौतीस सुत ( सूत्र ) हैं जो इस प्रकार हैं : (क) सीलक्खन्ध-वग्ग १. ब्रह्मजाल-सुत्त ८. कस्स्पसोहनाद-सुत्त २. सामञफल-सुत्त ६. सोट्ठपाद-सूत्त ३ अम्बट्ठ-सुत्त १०. सुभ-सुत्त ४. सोणदण्ड-सुत्त ११. केवड्ड ( केवट्ट )-सुत्त ५. कूटदन्त-सुत्त १२. लोहिच्च-सुत्त ६. महालि-सुत्त १३. तेविज्ज-सुत्त ७. जालिय-सुत्त स्वल्पाक्षरमसन्दिग्धं, सारवद्विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्य च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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