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भाषा और साहित्य ]
पाली भाषा और पिटक वाङमय
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कहते हैं।
विस्तृत अर्थ को संक्षेप में कहने के अभिप्राय से वैदिक परम्परा में सूत्रात्मक शैली का प्रवर्तन रहा। पालि-वाङ्मय में जो सुत्त-सूत्र शब्द चलता है, वह इस अर्थ में नहीं है। वहां बहुत विस्तार है, जो सूत्र शब्द के उपर्युक्त अयं के प्रतिरूप है।
सुप्त-पिटक : वर्णित विषय
__ सुत्त-पिटक में भगवान बुद्ध के उपदेश-वचन हैं। बुद्ध के कुछ मुख्य शिष्यों के उपदेश भी उसमें संकलित हैं, जो बुद्ध-वचनों पर आधारित थे। बुद्ध-उपदेश के अतिरिक्त वहां ई०पू० पांचवीं-छठी शताब्दी के भारत के समाज एवं लोक-जीवन का जीता-जागता चित्र भी प्राप्त होता है। बुद्ध के समसामयिक धर्म - प्रवर्तकों, श्रमणों, परिवाजकों और उनके सिद्धान्तों के विषय में प्रासंगिक रूप में इसमें विशद प्रकाश डाला गया है। तत्कालीन जन-समुदाय की रुचि, व्यवसाय, विद्या, कला, विज्ञान, राजनीति, ग्राम, नगर, जनपद, लोगों का रहन-सहन, खेती, व्यापार, सामाजिक रीतियां, समाज में स्त्रियों का स्थानं, दास-दासियों और नौकरों की अवस्था प्रभृति अनेक उपयोगी विषय चचिंत हुए हैं। रचना गद्य-पद्य-मिश्रित है। __सुत्त-पिटक के पांच बड़े-बड़े विभाग हैं, जो निकाय कहलाते हैं। वे हैं : (१) दीघनिकाय, (२) मज्झिम-निकाय, (३) संयुक्त-निकाय (४) अंगुत्तर-निकाय (५) खुद्दक-निकाय ।
दोघ-निकाय : लम्बे-लम्बे उपदेशों का संग्रह है। तीन वर्गों के अन्तर्गत निम्नांकित चौतीस सुत ( सूत्र ) हैं जो इस प्रकार हैं :
(क) सीलक्खन्ध-वग्ग १. ब्रह्मजाल-सुत्त
८. कस्स्पसोहनाद-सुत्त २. सामञफल-सुत्त
६. सोट्ठपाद-सूत्त ३ अम्बट्ठ-सुत्त
१०. सुभ-सुत्त ४. सोणदण्ड-सुत्त
११. केवड्ड ( केवट्ट )-सुत्त ५. कूटदन्त-सुत्त
१२. लोहिच्च-सुत्त ६. महालि-सुत्त
१३. तेविज्ज-सुत्त ७. जालिय-सुत्त स्वल्पाक्षरमसन्दिग्धं, सारवद्विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्य च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः ।
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