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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार का ब्राह्मण धर्म के प्रति श्रद्धावान होना प्रकट होता है।
अशोक के लिए ऐसा सम्भव हो सकता हैं कि वह पहले जेन रहा हो। बाद में उसने धर्म परिवर्तन कर लिया हो । हिमवत् थेरावली में उल्लेख है कि अशोक राज्य-प्राप्ति के चार पष पश्चात् बौद्ध हो गया था। उसके शिलालेखों में घोषणाओं के अन्तर्गत निग्रन्थों को दान देने का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म स्वीकार करने पर भी सम्राट का निर्गमथों के प्रति आदर तथा श्रद्धा-भाव था। अनुमान किया जा सकता है, उसका मुख्य कारण सम्राट का कभो निनन्थ-मतानुयायी रहना है । डा. ल्यूमैन, हानले, स्मिथ, राइस डेबिड्स, जायसवाल प्रभृति इतिहासकारों का अभिमत है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौय जैन था। वे यह भी मानते हैं कि सम्राट आचार्य भद्रबाहु का शिष्य था। भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध
आचाय' भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के गुरु-शिष्यात्मक सम्बन्ध के विषय में कोई बहुत पुष्ट प्रमाण अब तक प्राप्त नहीं हो सके हैं। यह विषय गवेषणा और विवेचना-सापेक्ष है। प्रमुख इतिहास-अध्येता मुनि कल्याणविजयजी का भी इसी प्रकार का मत है। उनके अनुसार अभी तक कोई भी उस प्रकार का ठोस प्रमाण प्राप्त नहीं हो सका है, जिससे यह सिद्ध किया जा सके। उनका कथन है कि चन्द्रगुप्त के समय में जब उसके राज्य में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा, तब पाटलिपुत्र में सुट्ठिम-सुस्थित नामक वृद्ध पाचाय थे, इस प्रकार के पुराने लेख तो प्राप्त होते हैं, पर, दशम शती से पूर्व का कोई भी ऐसा लेख या ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिससे यह प्रमाणित हो सके। हिमवत् थेरावली में जो उल्लेख है, उसके अनुसार आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास १७० वीर-निर्वाणान्द में तथा चन्द्रगुप्त का देहावसान १८४ पीरनिर्वाणाब्द में सूचित होता है। इस प्रकार आचार्य भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त के देह त्याग में चौदह वर्ष का अन्तर है, जो उनको समसामयिकता के सूचन के लिए पर्याप्त है। इन सब स्थितियों के होते हुए भी आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर परवर्ती ही सही, जैन साहित्य व जैन अनुश्रुतियों में जो इतनी चर्चा है, उस पर और गहराई से सोचना कम आवश्यक नहीं है। आगमों को प्रथम वाचना
भनेक लोतों से यह विदित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य में बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा । जनता अन्नादि खाद्य पदार्थों के अभाव में त्राहि-त्राहि करने लगी। भिक्षोपजीवी श्रमणों को भी तब भिक्षा कहां से प्राप्त होती। स्थपियावली में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : "वह दुष्काल काल-शनि के समान काल था। साधु-संघ (भिक्षापूर्वक)
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