Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं वावना प्रमुख आचार्य तुलसी सम्पादक विवेचक मुनि नथमल Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती प्रकाशन Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B xe Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथं पावयणं दसवेआलियं (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक और विवेचक मुनि नथमल प्रकाशक जैन विश्व मा र ती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) आर्थिक सहायता बेगराज भंवरलाल चोरडिया चेरिटेबल ट्रस्ट प्रबन्ध-सम्पादक श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन (जै० वि० भा०) प्रथम संस्करण १९६४ द्वितीय संस्करण १६७४ प्रकाशन तिथि: विक्रम संवत् २०३१ २५०० वां निर्वाण दिवस पृष्ठांक: ६५० मूल्य: रु०८५.०० मुद्रक : उद्योगशाला प्रेस, किंग्सवे, दिल्ली Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DASAVEALIYAM (Text, Sanskrit Rendering and Hindi Version with notes) Vacana Pramukha ĀCĀRYA TULASI Editor and Commentator Muni Nathamal Publisher JAIN VISHWA BHARATI LADNUN (Raj.) Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Editor Sreechand Rampuria Director Agama and Sahitya Prakashan Jain Vishwa Bharati First Edition 1964 Second Edition 1974 Pages : 650 Price : Rs. 85.00 Printers Udyogshala Press Kingsway, Delhi-9 Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदवखो, आणा - पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस, भिक्स तरस पापुवं ॥ विलोडियं लड आगमदुद्धमेव, सुलद्ध णवणीयमच्छं सज्झाय सज्झाण- रयस्स निच्चं, जयस्स तस्स व्यणिहाणपुच्वं ॥ पवाहिया जेण सुयस्स धारा, माणसे वि। गणे समत्थे मम जो हेडभूज स्स कालुरा तस्स पवायणस्स, पणिहाण पुव्वं ॥ समर्पण ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥३॥ जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, 1 होकर भी आगम प्रधान था सत्य-योग उस भिक्षु को विमल भाव से || में प्रवरचित्त था, जिसने पाया प्रवर आगम-दोहन प्रचुर श्रुत-सदुध्यान तीन जयाचार्य को विमल कर-कर, नवनीत 1 पिर चिन्तन, भाव से ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में । में, श्रुत-सम्पादन हेतुभूत कालुगणी को विमल भाव से ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का, जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुंज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का, जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का, जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् देखता है । चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अत: मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूँ, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है: सम्पादक और विवेचक :: मुनि नथमल सहयोगी :: मुनि मीठालाल :: मुनि दुलहराज संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने। आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय दलिय ( दशवैकालिक) का यह दूसरा संस्करण जनता के हाथों में है । इसका प्रथम संस्करण सरावगी चेरिटेबल फण्ड के अनुदान से स्वर्गीय श्री महादेवलालजी सरावगी एवं उनके दिवंगत पुत्र पन्नालालजी सरावगी (एम० पी०) की स्मृति में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता की ओर से माघ महोत्सव, वि० सं० २०२० (सन् १९६४ ) में प्रकाशित हुआ था । वह संस्करण कभी का समाप्त हो गया था । उसके दूसरे संस्करण की माँग थी और वह 'जैन विश्व भारती', लाडनूं के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है । परमपूज्य श्राचार्यदेव एवं उनके इंगित और प्राकार पर सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले मुनि-वृन्द की यह समवेत कृति प्रागमिक कार्यक्षेत्र में युगान्तकारी है, इस कथन में पतिशयोक्ति नहीं, पर तथ्य है। बहुमुखी प्रवृतियों के केन्द्र प्राणपुत पाचार्य श्री तुलसी ज्ञानक्षितिज के महान तेजस्वी रवि है और उनका मंडल भी शुख-नक्षत्रों का तपोपुज्य है, यह इस धम-साध्य कृति से स्वयं फलीभूत है। श्राचार्यश्री ने ग्रागम-संपादन के कार्य के निर्णय की घोषणा सं० २०११ की चैत्र सुदी १३ को की। उसके पूर्व से ही श्रीचरणों में विनम्र निवेदन रहा- आपके तत्वावधान में आगमों का संपादन और अनुवाद हो - यह भारत के सांस्कृतिक श्रभ्युदय की एक मूल्यवान् कड़ी के रूप में अपेक्षित है । यह अत्यन्त स्थायी कार्य होगा जिसका लाभ एक, दो, तीन ही नहीं अपितु श्रचिन्त्य भावी पीढ़ियों को प्राप्त होता रहेगा । इस आगम ग्रन्थ के प्रकाशन के साथ मेरी मनोभावना अंकुरित ही नहीं, फलवती और रसवती भी हुई थी। इसका प्रकाशन अत्यन्त समादृत हुआ और माँग की पूर्ति के लिए यह अपेक्षित दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है । सुनिधी मते संघ के अप्रतिम मेधावी सन्त हैं उनका धम पग-पग पर मुखरित हुआ है। प्राचार्यश्री तुलसी की दृष्टि और मुनिश्री नथमलजी की सृष्टि का यह मणिकांचन योग है। आगम का यह प्रथम पुष्प होने के कारण मुनिश्री को इसके विवेचन में सैकड़ों ग्रंथ देखने पड़े हैं। इनके दृढ़ अध्यवसाय और पैनी दृष्टि के कारण ही यह ग्रन्थ इतना विशद और विस्तृत हो सका है। नयी दुलहराज ने पाद्योपान्त अवलोकन कर इस बिना इतना शीघ्र पुनः प्रकाशन कठिन ही नहीं असम्भव होता । इस आगम ग्रन्थ के अर्थ-व्यय की पूर्ति बेगराज भँवरलाल चेरिटेबल ट्रस्ट के अनुदान से हो रही है। इसके लिए संस्थान चोरड़िया बन्धु एवं उक्त न्यास के प्रति कृतज्ञ है। संस्करण को परिष्कृत करने में बड़ा यम किया है। उनके अथक परिश्रम के जैन विश्वभारती के अध्यक्ष श्री खेमचन्दजी सेठिया, मन्त्री श्री सम्पतरायजी भूतोड़िया प्रादि के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूं, जिनका सहृदय सहयोग मुझे निरन्तर मिलता रहा। श्री देवीप्रसाद जायसवाल (कलकत्ता) एवं श्री मन्नालालजी बोर के प्रति भी मेरी कृतमता है जिनके सहयोग से कार्य समय पर सम्पन्न हो पाया है। आशा है, इस दूसरे संस्करण का पूर्ववत् ही स्वागत होगा । दिल्ली कार्तिक कृष्णा १५, २०३१ (२५०० महावीर निर्वाण दिवस ) श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम एवं साहित्य प्रकाशन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय सम्पादन का कार्य सरल नहीं है—यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भाव-धारा आज की भाषा और भाव-धारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद - शून्य गति है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता - या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा । यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है । कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है । सत्य का केन्द्र बिन्दु यह है कि जो कृत है, वह सब परिवर्तनशील है । कृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो ? इस विश्व में जो है, वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वधा विमुक्त नहीं है। शब्द की परिधि में बंधने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है जो तीनों कालों में समान रूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है-भाषा-शास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज वही अर्थ सही है जो वर्तमान में प्रचलित है । 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिलालेखों में है, वह आज के श्रमण-साहित्य में नहीं है। आज उसका अपकर्ष हो चुका है। आगम साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं। इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का काम कितना दुरूह है। मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अतः वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है । यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की सम्भावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के सामने अनेक कठिनाइयां थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है १. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-दोष की सम्यक् गुरुपरम्परा) प्राप्त नहीं है। २. सत् उह (अर्ध की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है। ३. अनेक वाचनाएं (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां ) हैं । ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं। ५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अर्थ विषयक मतभेद भी हैं ।' इन सारी कठिनाइयों के उपरान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गए। कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं, किन्तु उनके होते हुए भी आचार्यश्री तुलसी ने आगम सम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया । उनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम-साहित्य, जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राण-संचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्यश्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है। सम्पादन कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है । श्राचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए अपना पर्याप्त समय दिया है । उनके मार्ग-दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पर हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं। प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम संस्करण का विद्वानों ने जो स्वागत किया, वह उनकी उदार भावना का परिचायक है । आगम- सम्पादन कार्य के लिए प्राचार्यची तुलसी द्वारा स्वीकृत तस्व नीति तथा सम्पादन कार्य में संलग्न साधु-साध्वियों का यम भी उसका हेतु है। द्वितीय संस्करण में सामान्य संशोधनों के सिवाय कोई मुख्य परिवर्तन नहीं किया गया है। हमें विश्वास है कि यह द्वितीय संस्करण भी पाठकों के लिए उतना ही स्मरणीय होगा । १४ हमारे सम्पादनक्रम में सबसे पहला कार्य है संशोधित पाठ का संस्करण तैयार करना, फिर उसका हिन्दी अनुवाद करना । प्रस्तुत पुस्तक दशवेकालिक सूत्र का द्वितीय संस्करण है। इसमें मूल पाठ के साथ संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और टिप्पर हैं। इसके प्रथम संस्करण में शब्द सूची थी, पर शब्द सूची मूल पाठ के संस्करण के साथ रखी गई है, इसलिए इस संस्करण में उसे नहीं रखा गया है। प्रस्तुत सूत्र के अनुवाद और संपादन कार्य में जिनका भी प्रत्यक्ष-परोक्ष योग रहा, उन सबके प्रति मैं विनम्र भाव से आभार व्यक्त करता हूँ । अत बिहार नई दिल्ली २५०० वां निर्वाण दिवस १. स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति १, २ : सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदृहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ १ ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्या मतभेदाश्व कुत्रचित् ।। २ ।। " मुनि नथमल Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आगमों का वर्गीकरण ज्ञान पांच हैं-- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल । इनमें चार ज्ञान स्थाप्य हैं-वे केवल स्वार्थ हैं । परार्थज्ञान केवल एक है, वह है श्रुत । उसी के माध्यम से सारा विचार-विनिमय और प्रतिपादन होता है !' व्यापक अर्थ में श्रुत का प्रयोग शब्दात्मक और संकेतात्मक-दोनों प्रकार की अभिव्यक्तियों के अर्थ में होता है। अतएव उसके चौदह विकल्प बनते हैं (१) अक्षर-श्रुत। (२) अनक्षर-श्रुत । (३) संज्ञी-श्रुत। (४) असंज्ञी-श्रुत । (५) सम्यक् -श्रुत। (६) मिथ्या-श्रुत। (७) सादि-श्रुत। (८) अनादि-श्रुत । (९) सपर्यवसित-श्रुत। (१०) अपर्यवसित-श्रुती (११) गमिक-श्रुत। (१२) अगमिक-श्रुत । (१३) अंगप्रविष्ट-श्रुत । (१४) अनंगप्रविष्ट-श्रुत। संक्षेप में 'श्रुत' का प्रयोग शास्त्र के अर्थ में होता है । वैदिक शास्त्रों को जैसे 'वेद' और बौद्ध शास्त्रों को जैसे 'पिटक' कहा जाता है, वैसे ही जैन-शास्त्रों को 'आगम' कहा जाता है । आगम के कर्ता विशिष्ट ज्ञानी होते हैं। इसलिए शेष साहित्य से उनका वर्गीकरण भिन्न होता है। कालक्रम के अनुसार आगमों का पहला वर्गीकरण समवायांग में मिलता है। वहां केवल द्वादशाङ्गी का निरूपण है । दूसरा वर्गीकरण अनुयोगद्वार में मिलता है। वहाँ केवल द्वादशाङ्गी का नामोल्लेख मात्र है। तीसरा वर्गीकरण नन्दी का है, वह विस्तृत है। जान पड़ता है कि समवायांग और अनुयोगद्वार का वर्गीकरण प्रासंगिक है। नन्दी का वर्गीकरण आगम की सारी शाखाओं का निरूपण करने के ध्येय से किया हुआ है । वह इस प्रकार है १-अनुयोगद्वार सूत्र २ : तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइ ठवणिज्जाई णो उद्दिसंति णो समुद्दिसति णो अणुण्णविज्जंति, सुय नाणस्स उद्देसो अणुओगो य पवत्तइ । २–नंदी सूत्र ५१ : से कि तं सुयनाणपरोक्ख । चौद्दसविहं पण्णत्तं तं जहा-अक्खरसुयं"अणंगपविठें । Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( वशर्वकालिक ) प्रविष्ट आचार सूत्रकृत स्थान 1 आवश्यक सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण अन्तकृत दशा कायोत्सर्ग अनुत्तरोपपातिकदशा प्रत्याख्यान समवाय व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञातापसंकथा उपाशकदशा प्रश्नव्याकरण विपाक दृष्टिवाद उत्तराध्ययन दशायुतस्कंप कल्प व्यवहार विशीय महानिशीय ऋषिभाषित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति दीपसारज्ञप्ति अङ्गचूलिका वर्गचूलिका विवाहचूलिका १६ आगम 1 चन्द्रप्रज्ञप्ति क्षुल्लिका विमान प्रविभक्ति महल्लिका विमान प्रविभक्ति कालिक अरुणोपपात वरुणोपपात गरुलोपपात धरणोपपात समगोपा बेलन्धरोपपान देविन्दोषपात उत्पानश्रुत समुत्थानत नागपरियापनिका निरपालिका कल्पिका कल्पावतंसिका पुष्पिका पुष्पचूलिका वृष्णिदशा दशर्वकालिक कल्पिकालिक आवश्यक व्यतिरिक्त उत्कालिक घुल्नकल्पश्रुत महाकल्पश्रुत औपपातिक राजप्रश्नीय जीवाभिगम प्रज्ञापना महाप्रज्ञापना प्रमादाप्रमाद नन्दी अनुयोगद्वार देवेन्द्रस्तव अंगबाह्य तन्दुलवैचारिक चन्द्रकवेश्यक सूर्य प्रज्ञप्ति पौरुषीमण्डल मण्डल प्रवेश विद्याचरणविनिश्चय गणिविद्या ध्यानविभक्ति मरणविभक्ति आत्मविशोधि वीतरागश्रुत संलेखना श्रुत विहारकल्प चरणविधि आतुरप्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (१) सिद्ध श्रेणिका मातृका पद एकाधिक पद अर्थ पद पृथक आकाश पद केतुभूत राशिवड एकगुण विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिप नन्दावर्त सिद्धावर्त (२) मनुष्य भेगिका मातृका पद एकाथिक पद अर्थ पद पृथक् आकाश पद केतुभूत राशिबद्ध एकगुण द्विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिग्रह नन्दावर्त मनुष्यावर्त १- नंदी सूत्र ६०-६७ । १७ (३) पृष्ट श्रेणिका पृथक् आकाश पद केतुभूत राशिबद्ध एकगुण द्विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिग्रह नन्दावर्त पृष्टवर्त परिकर्म' (४) अवगाढ़ श्रेणिका पृथक् आकाश पद केतुभूत राशिबद्ध एकगुण द्विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिग्रह नन्दाय अवगाडावर्त (५) उपसंपद श्रेणिका पृथक् आकाश पद केतुभूत रामिबद्ध एकगुण द्विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिग्रह नन्दावर्त उपसंपदावर्त Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशवेकालिक ) दृष्टिवाद T (६) विप्रहाण श्रेणिका पृथक् आकाश पद केतुभूत राशिबद्ध एमगुण द्विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिग्रह नन्दावर्त विप्रहाणावर्त (७) च्युताच्युत श्रेणिका पृथक् आकाश पद केतुभूत राशिबद्ध एकगुण द्विगुण त्रिगुण केतुभूत प्रतिग्रह संसार प्रतिग्रह नन्दाचतं स्युताच्युतावर्त सूत्र' बहुभंगिक विजय चरित मूत्र उत्पाद परिणतापरिणत अग्रायणीय वीर्य अनन्तर परस्पर समान संयूथ संभिन्न १८ वर्तमान पद समभिरु सर्वतोभद्र ! पूर्वगत पन्यास दुष्प्रतिग्रह अस्तिनास्तिप्रवाद ज्ञानप्रवाद सत्यप्रवाद मूलप्रथमानुयोग आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद यथात्याग सौवस्तिकघंट अवन्ध्य नन्दावर्त प्राणायु बहुल क्रियाविशाल पृष्टा पृष्ट लोक बिन्दुसार यावर्त एवंभूतं यावर्त प्रत्याख्यान विद्यानुप्रवाद उत्पाद पूर्व | चार निकायें अग्रायणीय 1 बारह चूलिकायें अनुयोग' वीर्य आठ गंडानुयोग' कुलकर गंडिका तीर्थंकर मंदिका चक्रवर्ती गंडिका दशार्ह गंडिका बलदेव गंडिका वासुदेव गंडिका गणधर गंडिका भइया मंडिका तप कर्म ठिका हरिवंश इंडिका अवसर्पिणी गंडिका उत्सर्पिणी गंडिका चित्रान्तर गंडिका चूलिकायें चूलिका अस्तिनास्तिप्रवाद २ १ - नंदी सूत्र ६६ । - नंदी सूत्र १०१ । ३ – नंदी सूत्र ११६ । ४ – नंदी सूत्र ११८ । ५ – चार पूर्वो के चूलिकायें हैं. शेष पूर्वी के लिहायें नहीं है नंदी सूत्र ११२ । - दस चूलिकायें Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १६ दिगम्बर परम्परा के अनुसार आगमों का वर्गीकरण दिगम्बर परम्परा के अनुसार आगमों का वर्गीकरण इस प्रकार है : आगम अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आचार सामायिक মুস चतुर्विशतिस्तव स्थान वन्दना समवाय प्रतिक्रमण व्याख्याप्रज्ञप्ति बैनयिक ज्ञात धर्मकथा कृतिकर्म दशवकालिक उपासकदशा अन्तकृतदशा उत्तराध्ययन अनुतरोपपातिकदशा कल्प व्यवहार प्रश्नव्याकरण कल्पाकल्प विपाक महाकल्प दृष्टिवाद पुंडरीक महापुंडरीक अशीतिका परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग पूर्वगत चूलिका चन्द्रप्रज्ञप्ति जलगता स्थगलता सूर्यप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति द्वीपसागरप्रज्ञप्ति मायागता आकाशगता व्याख्याप्रज्ञप्ति उत्पाद अग्रायणीय वीर्यानुप्रवाद अस्तिनास्तिप्रवाद ज्ञानप्रवाद सत्यप्रवाद आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद प्रत्याख्यानप्रवाद विद्यानुप्रवाद कल्याण प्राणावाय क्रियाविशाल लोकबिन्दुसार रूपगता १- तत्त्वार्थ सूत्र १-२० (श्रुतसागरीय वृत्ति)। Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवे आलियं ( दशर्वकालिक ) आगम-विच्छेद का क्रम आगमों के ये वर्गीकरण प्राचीन हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार आज कोई भी आगम उपलब्ध नहीं है । वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष के पश्चात् अंग साहित्य लुप्त हो गया । उसका क्रम इस प्रकार है' तिलोयपण्णत्ती जयधवला आदिपुराण केवली : १. २. श्रुतकेवली दश ५. पूर्वधारी १. २. ३. ४. १. २. ३. १. ५. ६. ७. ε. १०. ११. एकादशांगारी १. ८. ३. ४. ५. आचारांगधारी १. २. ३. ४. गौतम सुधर्मा जम्बू नन्दि नन्दिमित्र अपराजित गोवर्द्धन विशाख प्रोष्ठिल क्षत्रिय जय नाग सिद्धार्थ भूतिसेन विजय बुद्धिल गंगदेव रुधर्म नक्षत्र जयपाल पांडु ध्रुवसेन कंसार्य सुभद्र योभन यशोबाहु लोहार्य धवला ( वेदनाखंड) गौतम लोहार्य जम्बू विष्णु नन्दि अपराजित गोवन भद्रबाहु विशाख प्रोष्ठिल क्षत्रिय जय नाग सिद्धार्थ धृतिसेन विजय बुद्धिल गंगदेव धर्मसेन नक्षत्र जयपाल पांडु ध्रुवसेन कंस -जय धवला प्रस्तावना पृष्ठ ४६ । सुभद्र यशोभद्र २० यशोबाहु लोहाचार्य गौतम सुधर्मा जम्बू विष्णु नन्दिमिष अपराजित गोवर्द्धन भद्रबाहु विशाखाचार्य प्रोष्ठिल क्षत्रिय जयसेन नागसेन सिद्धार्थ मूर्तिसेन विजय बुद्धिल गंगदेव सुधमं नक्षत्र जयपाल पांडु बसेन कंसाचार्य सुभद्र यशोभद्र बाहु गौतम सुधर्मा जम्बू विष्णु नन्दिमित्र अपराजित गोवर्द्धन भद्रबाहु विशाख प्रोष्ठिल क्षत्रिय जय नाग सिद्धार्थ धतिसेन विजय बुद्धिल गंगदेव सुधर्म नक्षत्र जयपाल पांडु वसेन कंसार्य सुभद्र यशोभद श्रुतावतार गौतम सुधर्मा जम्बू विष्णु नन्दि अपराजित गोवन भद्रबाहु विशाखदत्त प्रोष्ठिल क्षत्रिय जय नाग सिद्धार्थ धृतिषेण विजयसेन बुद्धिमान् गंग धर्म नक्षत्र जयपाल पांडु इमसेन कंस सुभद्र अभयभद्र जयवाड़ भद्रबाहु लोहार्य लोहार्य काल तीन केवली ६२ वर्ष चार श्रुतकेवली १०० वर्ण ग्यारह दशपूर्वधारी वर्ष १८३ पांच एकादशांगधारी २२० वर्ष लोहा दिगम्बर कहते हैं कि अङ्गगत अर्द्धमागधी भाषा का वह मूल साहित्य प्रायः सर्व सुप्त हो गया दृष्टिवाद अन के पूर्वगतग्रन्थ का कुछ अंश ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दी में श्रीधर सेनाचार्य को ज्ञात था । उन्होंने देखा कि यदि वह शेषांश भी लिपिबद्ध नहीं किया चार आचारांगधारी ११८ ६८३ वर्ण Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जायेगा तो जिनवाणी का सर्वथा अभाव हो जायगा। अतः उन्होंने श्री पुष्पदन्त और श्री भूतवलि सदृश मेवावी ऋषियों को बुलाकर गिरिनार की चन्द्रगुफा में उसे लिपिबद्ध करा दिया। उन दोनों ऋषिवरों ने उस लिपिबद्ध श्रुतज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन सर्व संघ के समक्ष उपस्थित किया था। वह पवित्र दिन 'श्रुत पंचमी' पर्व के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन गया है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी आगमों का विच्छेद और ह्रास हुआ है फिर भी कुछ आगम आज भी उपलब्ध हैं। उनके विच्छेद और ह्रास का क्रम इस प्रकार है केवली: १ सुधर्मा चौदह पूर्वीः-- १ प्रभव २ शय्यंभव ३ यशोभद्र ४ संभूतविजय ५ भद्रबाहु -(वीर निर्वाण-१५०-१७०) ६ स्थूलभद्र' ( वीर निर्वाण १७०-२१५)} सूत्रतः चौदहपूर्वी अर्थत: दसपूर्वी दसपूर्वोः - १ महागिरी २ सुहस्ती ३ गुणसुन्दर ४ श्यामाचार्य ५ स्कंदिलाचार्य ६ रेवतीमित्र ७ श्रीधर्म ८ भद्रगुप्त ६ श्रीगुप्त १० विजयसूरि तोसलिपुत्र आचार्य के शिष्य श्री आर्यरक्षित नौ पूर्व तथा दसवें पूर्व के २४ यविक के ज्ञाता थे। आर्यरक्षित के वंशज आर्यनं दिल (वि० ५९७) भी है। पूर्वी थे ऐसा उल्लेख मिलता है। आर्यरक्षित के शिष्य दुर्ब लिका पुष्यमित्र नौ पूर्वी थे। .. धवला टीका भा० १, भूमिका पृ० १३-३२ । (क) चौदह पूर्वी की तरह १३, १२, ११, पूर्वी की परम्परा रही हो-ऐसा इतिहास नहीं मिलता। सम्भव है ये चारों पूर्व एक साथ ही पढ़ाये जाते रहे हों। आचार्य द्रोण ने ओधनियुक्ति की टीका (पत्र ३) में यह उल्लेख किया है कि १४ पूर्वी के बाद १० पूर्वी ही होते हैं। (ख) चतुःशरण गाथा ३३ की वृत्ति में ऐसा उल्लेख है कि ये चारों पूर्व (११ से १४) एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं -अन्त्यानि चत्वारि पूर्वाणि प्रायः समुदितान्येव व्युच्छिद्यन्ते इति चतुर्दशपूर्व्यन्तरं दशपूविणोऽभिहिताः । ३. प्रभावक चरित्र-'आर्यरक्षित' श्लोक ८२-८४ । ४. प्रबन्ध पर्यालोचन पृ० २२ । ५. प्रभावक चरित्र --'आर्यनन्विल'। Jain Education Intemational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दसवेआलियं (दशवकालिक) दस पूर्वी या ६-१० पूर्वी के बाद देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का एक पूर्वी के रूप में उल्लेख हुआ है। प्रश्न होता है कि क्या ६, ८,७,६ आदि पूर्वी भी हुए हैं या नहीं ? इस प्रश्न का समुचित समाधान उल्लिखित नहीं मिलता । परन्तु यत्र-तत्र के विकीर्ण उल्लेखों से यह संभाव्य है कि ८, ७, ६ आदि पूर्वो के धारक अवश्य रहे हैं । जीतकल्प सूत्र की वृत्ति में ऐसा उल्लेख है कि आचार प्रकल्प से आठ पूर्व तक के धारक को श्रुत-व्यवहारी कहा है। इससे संभव है कि आठ पूर्व तक के धारक अवश्य थे। इसके अतिरिक्त कई चूणियों के कर्ता पूर्व धर थे। ___"आर्य रक्षित, नन्दिलक्ष्मण, नागहस्ति, रेवतिनक्षत्र, सिंहमूरि-ये साढ़े नौ और उससे अल्प-अल्प पूर्व के ज्ञान वाले थे। स्कन्दिलाचार्य, श्री हिमवन्त क्षमाश्रमण, नागार्जुनसरिये सभी समकालीन पूर्ववित् थे। श्री गोविन्दवाचक, संयमविष्णु, भूतदिन्न, लोहित्य सूरि, दुष्यग णि और देववाचक--ये ११ अंग तथा १ पूर्व से अधिक के ज्ञाता थे।" भगवती (२०.८) में यह उल्लेख है कि तीर्थङ्कर सुविधिनाथ से तीर्थङ्कर शान्तिनाथ तक के आठ तीर्थङ्करों के सात अन्तरों में कालिक सूत्र का व्यवच्छेद हुआ। शेष तीर्थङ्करों के नहीं। दृष्टिवाद का विच्छेद महावीर से पूर्व-तीर्थङ्करों के समय में होता रहा है। ___ इसी प्रकरण में यह भी कहा गया है कि महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार वर्ष में पूर्वगत का विच्छेद हुआ और एक पूर्व को पूरा जानने वाला कोई नहीं बचा। यह भी माना जाता है कि देवद्धिगणी के उत्तरवर्ती आचार्यों में पूर्व-ज्ञान का कुछ अंश अवश्य था । इसकी पुष्टि स्थान-स्थान पर उल्लिखित पूर्वो की पंक्तियों तथा विषय-निरूपण से होती है।' प्रथम संहनन- वज्रऋषभनाराच, प्रथम संस्थान-समचतुरस्र और अन्तर् मुहूर्त में चौदह पूर्वो को सीखने का सामर्थ्य - ये तीनों स्थूलिभद्र के साथ-साथ व्युच्छिन्न हो गए। अर्द्धनाराच संहनन और दस पूर्वो का ज्ञान वज्रस्वामी के साथ-साथ विच्छिन्न हो गया। वज्रस्वामी के बाद तथा शीलांकसूरि से पूर्व आचारांग के 'महापरिज्ञा' अध्ययन का ह्रास हुआ। यह भी कहा जाता हैं कि इसी अध्ययन के आधार पर दूसरे श्रुतस्कंध की रचना हुई। स्थानांग में वर्णित प्रश्न व्याकरण का स्वरूप उपलब्ध प्रश्न व्याकरण से अत्यन्त भिन्न है। उस मूल स्वरूप का कब, कैसे ह्रास हुआ, यह अज्ञात है। इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा की अनेक उपाख्यायिकाओं का सर्वथा लोप हुआ है। इस प्रकार द्वादशांगी के ह्रास और विच्छेद का यह संक्षिप्त चित्र है। उपलब्ध आगम आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। उनमें तीन मुख्य हैं(१) ८४ आगम (२) ४५ आगम (३) ३२ आगम १. सिद्धचक्र, वर्ष ४, अंक १२, पृ० २८४ । २. जैन सत्य प्रकाश (वर्ष १, अंक १, पृ० १५) । ३. आव०नि० पत्र ५६६ । ४. आव. नि. द्वितीय भाग पत्र ३६५ । ५. आ०नि० द्वितीय भाग पत्र ३९६ : तम्मि य भयवं ते अद्धनारायं दस पुध्वा य वोच्छिन्ना। Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २३ आगम श्रीमज्जयाचार्य के अनुसार ८४ आगम इस प्रकार हैंउत्कालिक : (१) दश वैकालिक (२) कल्पिकाकल्पिक (३) क्षुल्लककल्प (४) महाकल्प ५) औपपातिक (६) राजप्रश्नीय (७) जीवाभिगम (८) प्रज्ञापना (8) महाप्रज्ञापनो (१०) प्रमादाप्रमाद (११) नंदी (१२) अनुयोगद्वार (१३) देवेन्द्रस्तव (१४) तन्दुल वैचारिक (१५) चन्द्रवेध्यक (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति (१७) पोरसीमंडल (१८) मंडलप्रवेश (१६) विद्याचरणविनिश्चय (२०) गणिविद्या (२१) ध्यानविभवित (२३) मरणविभक्ति (२३) आत्मविशोधि (२४) वीतरागश्रुत (२५) संलेखनाश्रुत (२६) विहारकल्प (२७) चरणविधि (२८) आतुरप्रत्याख्यान (२६) महाप्रत्याख्यान कालिक : (१) उत्तराध्ययन (२) दशाश्रुतस्कं (३) बृहत्कल्प (४) व्यवहार (५) निशीथ (६) महानिशीथ (७) ऋषिभाषित (८) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (६) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (१०) चन्द्रप्रज्ञप्ति (११) क्षुल्लिकाविमानविभक्ति (१२) महतीविमानविभक्ति (१३) अंग चूलिका (१४) बंग चुलिका (१५) विवाह चूलिका (१६) अरुणोपपात (१७) वरुणोपपात (१८) गरुडोपपात (१६) धरणोपपात (२०) वैश्रमणोपपात (२१) वेलन्धरोपपात (२२) देवेन्द्रोपपात (२३) उत्थानश्रुत (२४) समुत्थानश्रुत (२५) नागपरितापनिका (२६) कल्पिका (२७) कल्पवतंसिका (२८) पुष्पिका (२६) पुष्प चूलिका (३०) वृष्णी दशा अंग :(१) प्राचार (२) सूत्रकृत (३) स्थान (४) समवाय Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) (५) भगवती (६) ज्ञाताधर्म - कथा (७) उपासकदशा (4) अन्तत (E) अनुक्त रोपपातिकदशा (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक (१२) दृष्टिबाद (२१+२०+१९७१) ( ७२ ) आवश्यक' (७३) अन्तकृतदशा ( अन्य बाचना का ) (७४) प्रश्नव्याकरणदशा (७५) अनुत्तरोपपातिक दशा ( अन्य वाचना का) (७६) बन्धदशा अंग :― ( १ ) आचार (१) सूत (३) स्थान ( ४ ) समवाय (५) भगवती (६) धर्म-कथा (७) उपासकदशा (८) कृतदा (१) अनुत्तरोपपातिन्दशा (१०) प्रश्नव्याकरण ( ११ ) विपाक उपांग : (१) औपपातिक (२) राजप्रश्नीय २४ (७७) द्विगृद्धिदशा (७) दीर्घदशा (७६) स्वप्न भावना ( 50 ) चारण भावना (८१) तेजो निसर्ग (२) आशीविष भावना (३) दृष्टिविष भावना ( ८४ ) ५५ अध्ययन कल्याणफल विपाक । ५५ अध्ययन पापफल विपाक । (३) जीवाभिगम (४) प्रज्ञापना (५) सूर्यप्रति (५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ( ७ ) चन्द्रप्रज्ञप्ति (८) निरयावलिका (e) करपावतंसका (१०) पुष्पिका (११) पुष्प चूलिका (१२) वृष्णिदा प्रकीर्णक : १. उपरोक्त ७२ नाम नन्दी सूत्र में उपलब्ध होते है । २. ये छह ( ७३ से ७८ ) स्थानांग ( सूत्र २३४७ ) में हैं। ३. ये पाँच ( ७२ से ८३ ) व्यवहार सूत्र में हैं । ४. सामाचारी शतक आगमस्थात्वनाधिकार (३८ ) - समसुंदरमण विरचित । (१) चतुःशरण (२) चन्द्रक (३) आतुरप्रत्याख्यान (४) महाप्रत्याख्यान Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मूल :(१) ओघनियुक्ति अथवा (५) भक्तप्रत्याख्यान (६) तन्दुल वैकालिक (वैचारिक) (७) गणिविद्या (८) मरणसमाधि (६) देवेन्द्रस्तव (१०) संस्तारक छेद :(१) निशीथ (२) महानिशीथ (३) व्यवहार (४) बृहःकल्प (५) जीतकल्प (६) दशाश्रुतस्कंध आवश्यकनियुक्ति (२) पिण्डनियुक्ति ( ३ ) दशवकालिक (४) उत्तराध्ययन (५) नंदी (६) अनुयोगद्वार ३२ आगम (6) कल्पावतंसिका (१०) पुष्पिका (११) पुष्पलिका (१२) वृष्णि दशा मूल :(१) दशवकालिक (२) उत्तराध्ययन (३) नन्दी (४) अनुयोगद्वार अंग :(१) आचार (२) सूत्रकृत (३) स्थान (४) समवाय (५) भगवती (६) ज्ञाताधर्म-कथा (७) उपासक-दशा (८) अन्तकृत-दशा (९) अनुत्तरोपपातिक दशा (१६) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक उपांग :(१) औपपातिक (२) राजप्रश्नीय (३) जीवाभिगम (४) प्रज्ञापना (५) सूर्य प्रज्ञप्ति (६) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (७) चन्द्रप्रज्ञप्ति (८) निरयावलिका (१) निशीथ (२) व्यवहार (३) बृहत्कल्प (४) दशाश्रुतस्कंध ( ११+१२+४+४=३१) (३२) आवश्यक उपयुक्त विभागों में स्वत: प्रमाण केवल ग्यारह अंग ही हैं। शेष सब परतः प्रमाण हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसर्वआलियं ( वशर्वकालिक) २६ अनुयोग व्याख्याक्रम व विषयगत वर्गीकरण की दृष्टि से आर्यरक्षित सूरि ने आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया (१) चरण करणानुयोग-कालिक श्रुत । (२) धर्मानुयोग - ऋषि भाषित, उत्तराध्ययन आदि । (३) गणितानुयोग - सूर्य प्रज्ञप्ति आदि । (४) द्रव्यानुयोग दृष्टिवाद या सूत्रकृत आदि । यह वर्गीकरण विषय - सादृश्य की दृष्टि से है । व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप बनते हैं— (१) अनुयोग (२) पृथक्त्वानुयोग | आरक्षित से पूर्व अपूचक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक सूत्र की चरण-करण, धर्म, गणित और द्रव्यं की दृष्टि से व्याख्या की जाती थी । यह व्याख्या -क्रम बहुत जटिल और बहुत बुद्धि-स्मृति सापेक्ष था। आर्यरक्षित ने देखा कि दुर्बलिका पुष्यमित्र जैसा मेधावी मुनि भी इस व्याख्या - क्रम को याद रखने में श्रान्त-क्लान्त हो रहा है तो अल्प मेधा वाले मुनि इसे कैसे याद रख पायेंगे। एक प्रेरणा मिली और उन्होंने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन कर दिया। उसके अनुसार चरण-करण आदि विषयों की दृष्टि से आगमों का विभाजन हो गया । सूत्रकृत चूर्णि के अनुसार अपृथक्त्वानुयोग काल में प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण आदि चार अनुयोग तथा सात सौ नयों से की जाती थी । पृथक्त्वानुयोग काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक्-पृथक् की जाने लगी। वाचना वीर निर्वाण के ६८० या ९६३ वर्ष के मध्य में आगम साहित्य के संकलन की चार प्रमुख वाचनाएँ हुई: पहली वाचना वीर निर्माण की दूसरी शताब्दी में (बी० नि० के १६० के वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय श्रम संघ जिन-भिन्न हो गया अनेक तर काल-कति हो गए। अन्यान्य दुविधाओं के कारण यथास्थित सूत्र- परावर्तन नहीं हो सका, अतः आगम ज्ञान की श्रृंखला टूटी गई दुर्भिक्ष मिटा उस काल में विद्यमान विशिष्ट आचार्य पाटलीपुत्र में एकत्रित हुए। म्यारह अंग एकत्रित किए। उस समय बारहवें अंग के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी थे और वे नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के विशेष निवेदन पर स्थूलिभद्र मुनि को बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया । उन्होंने दस पूर्व अर्थ सहित सीख लिए। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चालू थी। बहिनों को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होने सिंह का रूप बनाया । भद्रबाहु ने इसे जान लिया। आगे वाचना वन्द कर दी। फिर विशेष आग्रह करने पर अन्तिम चार पूर्वी की वाचना दी, किन्तु अर्थ नहीं बताया । अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही थे । स्थूलभद्र शाब्दिक दृष्टि से चौदह पूर्वी थे किन्तु आर्थी दृष्टि से दस पूर्वी ही थे । १ -- आवश्यक निर्युक्ति गाथा ७७३-७७४ : अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पहताोगकरणे ते अरथा तो उना ।। देविदवं दिहि महाणुभावेहिं रविवअअज्जेहि । जुममासज्ज वित्तो अणुओगो ता कओ चउहा || २ – सूत्रकृत चूर्णि पत्र ४ : जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा विहप्पिहं वक्खाणिज्जंति पुहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एक्केक्कं सुतं एते हि चहं वि अणुयोगेहि सतह जयसतेहि वक्खाणिज्जति । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका दूसरी वाचना आगम-संकलन का दूसरा प्रयत्न वीर निर्वाण ६२७ और ८४० के मध्यकाल में हुआ । उस काल में बारह वर्ष का भीषण हुम भिक्षा मिलना अत्यन्त दुष्कर हो गया। साधु छिन्न-भिन्न हो गए। वे आहार की उचित गवेषणा में दूर-दूर देशों की ओर चल पड़े। अनेक बहुश्रुत तथा आगमधर मुनि दिवंगत हो गए । भिक्षा की प्राप्ति न होने के कारण आगम का अध्ययन-अध्यापन, धारण और प्रत्यावर्तन सभी अवरुद्ध हो गए । धीरे-धीरे श्रुत का ह्रास होने लगा । अतिशायी श्रु का नाश हुआ । अंगों और उपांगों का भी अर्थ से ह्रास हुआ । उनका बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया । बारह वर्ष के इस दुष्काल के बाद सारा श्रमण संघ स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में एकत्रित हुआ। उस समय जिन-जिन श्रमणों को जितना जितना स्मृति में था, उसका अनुसन्धान किया। इस प्रकार कालिक सूत्र और पूर्वगत के कुछ अंश का संकलन हुआ । मथुरा में होने के कारण उसे "माथुरी वाचना" कहा गया | युगप्रधान आचार्य स्कन्दिल ने उस संकलित श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि दी, अतः वह अनुयोग उनका ही कहलाया । माथुरी वाचना को "स्कन्दिली वाचना" भी कहा गया । २७ मतान्तर के अनुसार यह भी जाना जाता है कि दुर्भिक्ष के कारण किञ्चित् भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ। उस समय सारा श्रुत विद्यमान था, किन्तु आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष सभी अनुयोगधर मुनि काल-कवलित हो गए थे । दुर्भिक्ष को अन्त होने पर आचार्य स्कन्दिल ने मथुरा में पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया, इसीलिए उसे "माथुरी वाचना" भी कहा गया और वह सारा अनुयोग "स्कन्दिल सम्बन्धी गिना गया ।" तीसरी वाचना इसी समय (वीर-निर्वाण ८२७- ८४०) वल्लभी में आचार्य नागार्जुन को अध्यक्षता में संघ एकत्रित हुआ। उस समय जिन-जिन श्रमणों को जितना-जितना याद था उसका संकलन प्रारंम्भ किया किन्तु यह अनुभव हुआ कि वे बीच-बीच में बहुत कुछ भूल चुके हैं । श्रुत की सम्पूर्ण व्यवच्छित्ति न हो जाए, इसलिए जो स्मृति में था उसे संकलित किया। उसे "वल्लभी वाचना" या " नागार्जुनीय वाचना" कहा गया । चौथो वाचना G वीर- निर्वाण की दसवीं शताब्दी (१८० या ६६३ वर्ष) में देवद्विगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में पुनः श्रमण संघ एकत्रित हुआ। स्मृति- दौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, ति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि-आदि कारणों से श्रुत का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका था किन्तु एकत्रित मुनियों को अवशिष्ट श्रुत की न्यून या अधिक, त्रुटितया अटित जो कुछ स्मृति थी उसकी व्यवस्थित संकलना की गई। देवद्धिगणी ने अपनी बुद्धि से उसकी संयोजना कर उसे पुस्तकास किया। माधुरी तथा वल्लभी वाचनाओं के कंठगत आगमों को एकत्रित कर उन्हें एकरूपता देने का प्रयास हुआ। जहाँ अत्यन्त मतभेद रहा वहाँ माथुरी वाचना को मूल मानकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया गया । यही कारण है कि आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में यत्र-तत्र " नागार्जुनीयास्तु पठन्ति " ऐसा उल्लेख हुआ हैं । विद्वानों की मान्यता है कि इस संकलन से सारे आगमों को व्यवस्थित रूप मिला। भगवान् महावीर के पश्चात् एक हजार वर्षों में पटित मुख्य घटनाओं का समावेश यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहाँ-जहाँ समान आतापकों का वार-चार पुनरावर्तन होता था, उन्हें संक्षिप्त कर एक दूसरे का पूर्ति संकेत एक दूसरे आगम में किया गया। वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं वे देर्वाद्धगणी क्षमाश्रमण की वाचना के हैं। उसके पश्चात् उनमें संशोधन, परिवर्धन या परिवर्तन नहीं हुआ। यहाँ यह प्रश्न होता हैं कि यदि उपलब्ध आगम एक ही आचार्य की संकलना हैं तो अनेक स्थानों में विसंवाद क्यों ? १ – (क) नंदी गा० ३३, मलयगिरि वृत्ति पत्र २१ । (स) मंदी वृषि पत्र ८ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) इसके दो कारण हो सकते हैं-- (१) जो श्रमण उस समय जीवित थे और जिन्हें जो-जो आगम कण्ठस्थ थे, उन्हीं के अनुसार आगम संकलित किये गए। यह जानते हुए भी कि एक ही बात दो भिन्न भागमों में भिन्न प्रकार से कही गई है, देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने उनमें हस्तक्षेप करना अपना अधिकार नहीं समझा। (२) नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी तथा वल्लभी वाचना की परम्परा के अवशिष्ट श्रमणों को जैसा और जितना स्मृति में था उसे संकलित किया गया । वे श्रमण बीच-बीच में अनेक आलापक भूल भी गये हों-यह भी विसंवादों का मुख्य कारण हो सकता है।' ज्योतिष्करंड की वृत्ति में कहा गया है कि वर्तमान में उपलब्ध अनुयोगद्वार सूत्र माथुरी वाचना का है और ज्योतिष्करंड के कर्ता बल्लभी वाचना की परम्परा के आचार्य थे। यही कारण है कि अनुयोगद्वार और ज्योतिष्करण्ड के संख्या स्थानों में अन्तर प्रतीत होता है। अनुयोगद्वार के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की संख्या १६३ अंकों की है और ज्योतिष्करण्ड के अनुसार वह २५० अंकों की। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ (लगभग १७५-१८२) में उच्छिन्न अंगों के संकलन का प्रयास हुआ था । चक्रवर्ती खारवेल जैन-धर्म का अनन्य उपासक था। उसके सुप्रसिद्ध "हाथी गुम्फा" अभिलेख में यह उपलब्ध होता है कि उसने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर जैन श्रमणों का संघ बुलाया और मौर्य काल में जो अंग उच्छिन्न हो गये थे उन्हें उपस्थित किया। इस प्रकार आगम की व्यवस्थिति के लिए अनेक बार अनेक प्रयास हुए। यह भी माना जाता है कि प्रत्येक अवसर्पिणी में चरम श्रुतधर आचार्य सूत्र-पाठ की मर्यादा करते हैं और वे दशवकालिक का नवीन संस्करण प्रस्तुत करते हैं । यह अनादि संस्थिति है। इस अवसर्पिणी में अन्तिम श्रुतधर वचस्वामी थे। उन्होंने सर्वप्रथम सत्र-पाठ की मर्यादा की। प्राचीन नामों में परिवर्तन कर मेधकुमार, जमालि आदि के नामों को स्थान दिया। इस मान्यता का प्राचीनतम आधार अन्वेषणीय है । आगम-संकलन का यह संक्षिप्त इतिहास है। प्रस्तुत आगम : स्वरूप और परिचय प्रस्तुत आगम का नाम दशवकालिक है। इसके दस अध्ययन हैं और यह विकाल में रचा गया इसलिए इसका नाम दशवकालिक रखा गया। इसके कर्ता श्रुतकेवली शय्यंभव हैं। अपने पुत्र शिष्य-मनक के लिए उन्होंने इसकी रचना की। वीर संवत् ७२ के आस-पास "चम्पा" में इसकी रचना हुई। इसकी दो चूलिकाएं हैं। अध्ययनों के नाम, श्लोक संख्या और विषय इस प्रकार हैंअध्ययन श्लोक संख्या विषय (१) द्रुमपुष्पिका धर्म-प्रशंसा और माधुकरी वृत्ति। (२) थामण्यपूर्वक संयम में धृति और उसकी साधना। (३) क्षुल्लकाचार-कथा आचार और अनाचार का विवेक । (४) धर्म-प्रज्ञप्ति या षड्जीवनिका सूत्र २३ तथा श्लोक २८ जीव-संयम तथा आत्म-संयम का विचार। १-सामाचारी शतक-आगम स्थापनाधिकार.....३८ वां । २-(क) सामाचारी शतक ---आगम स्थापनाधिकार-३८ वां। (ख) गच्छाचार पत्र ३-४॥ ३-जर्नल आफ दी बिहार एण्ड ओडिसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३, पृ० २३६ ४-प्रवचन परीक्षा, विश्राम ४, गाथा ६७, पत्र ३०७-३०६ । ५-तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति (पत्र ६७) में इसका नाम "वृक्षकुसुम" दिया है। Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (५) पिंडैषणा (६) महाचार - कथा (७) वाक्यशुद्धि (5) आचार प्रणिधि (६) विनय-समाधि (१०) सभिक्ष पहली चूलिका - रतिवाक्या दूसरी भूमिका विवि २६ १५० ६८ ५७ ६३ श्लोक ६२ तथा सूत्र ७ २१ श्लोक १८ तथा सूत्र १ १६ गवेषणा महाचार का निरूपण । भाषा-विवेक । (१) चरण- व्रत आदि । (२) करण - पिंड - विशुद्धि आदि । धवला के अनुसार दशकालिक आचार और गोचर की विधि का वर्णन करने वाला सूत्र है। * आचार का प्रणिधान । विनय का निरूपण । भिक्षु के स्वरूप का वर्णन । संयम में अस्थिर होने पर पुनः स्थिरीकरण का उपदेश । विवि दशवैकालिक विभिन्न आचार्यों की दृष्टि में निर्मुक्तिकार के अनुसार दशवेकालिक का समावेश वरण करणानुयोग में होता है। इसका फलित अर्थ यह है कि इसका प्रतिपाद्य आचार है। वह दो प्रकार का होता है' पणा और भोपा की बुद्धि। गपत्ति के अनुसार इसका विषय गोचर-विधि और पिड-विशुद्धि है। तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीय वृत्ति में इसे वृक्ष-कुसुम आदि का भेद कथक और यतियों के आचार का कथक कहा है। उक्त प्रतिपादन से दशर्वकालिक का स्थूल रूप हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है, किन्तु आचार्य शय्यंभव ने आचार-गोचर की प्ररूपणा के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण विषयों का निरूपण किया है। जीव-विद्या, योग-विद्या आदि के अनेक सूक्ष्म बीज इसमें विद्यमान हैं । का उपदेश | कालिक का महत्व दशकालिक अति प्रचलित और अति व्यवहुत आगम ग्रन्थ है। अनेक व्याख्याकारों ने अपने अभिमत की पुष्टि के लिए इसे उद्धत किया है।" १ - दशवेकालिक निर्मुक्ति गाथा ४ : अपुहुत्तपुहुत्ताई' निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरण करणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुंति ॥ दसवेआलियं आचारगोयर विहिं वण्णेइ । इसके निर्माण के पश्चात् श्रुत के अध्ययन क्रम में भी परिवर्तन हुआ है। इसकी रचना के पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ा जाता था । किन्तु इसकी रचना होने पर दश त्रैकालिक के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाने लगा । यह परिवर्तन यौक्तिक था। क्योंकि साधु को २ - धवला - संत प्ररूपणा पृ० १७ : ३ - अंगपण्णत्ति चूलिका गाथा २४ : जदि गोचरस्त विहिं पिंडविसुद्धि व जं परूवेहि । दसवेआलिय सुत्तं दह काला जत्थ संवृत्ता ।। ४- तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति पृ० ६७ : वृक्षकुसुमादीनां दशानां भेदकथकं यतीनामाचारकथकञ्च दशवेकालिकम् । ५--- देखें उत्तरा० बृहद् वृत्ति, निशीथ चूर्णि आदि-आदि । ६ – व्यवहार, उद्देशक ३, भाष्य गाथा १७५ ( मलयगिरि वृत्ति) : आधारस्स उ उवर उत्तरज्झयणाउ आसि पुच्वं तु । दसवेआलिय उर्वार इयाणि कि ते न होंती उ ॥ पूर्वमुत्तराध्ययनानि आचारस्याप्याचारांगस्योपर्यासीरन् इदानों दशवेकालिकस्योपरि पठितव्यानि । किं तानि तथारूपाणि न भवन्ति ? भवन्त्येवेति भावः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशकालिक ) ३० सर्व प्रथम आचार का ज्ञान कराना आवश्यक होता है और उस समय वह आचारांग के अध्ययन-अध्यापन से कराया जाता था । परन्तु दशकालिक की रचना ने आचार बोध को सहज और सुगम बना दिया और इसीलिए आचारांग का स्थान इसने ले लिया । प्राचीन काल में आचारांग के अन्तर्गत 'शस्त्र-परिज्ञा' अध्ययन को अर्थतः जाने- पढ़े बिना साधु को महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना नहीं दी जाती थी, किन्तु बाद में सर्वकालिक मूत्र के नीचे अध्ययन 'पजीवनिका' को अर्थतः जानने-पढ़ने के पश्चात् महावतों की विभागतः उपस्थापना दी जाने लगी । ' प्राचीन परम्परा में आचारांग सूत्र के दूसरे अध्ययन 'लोक विजय' के पांचवें उद्देशक 'ब्रह्मचर्य' के 'आमगन्धं' सूत्र को जाने -पढ़े बिना कोई भी पिण्ड कल्पी (भिक्षाग्राही) नहीं हो सकता था। परन्तु बाद में दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डेषणा' को जानने-पढ़ने वाला पिण्ड - कल्पी होने लगा । दशवैकालिक को महत्व और सर्वग्राहिता को बताने वाले ये महत्वपूर्ण संकेत हैं। निर्यूहण कृति रचना दो प्रकार की होती है और निदशकालिक निकृति है, स्वतंत्र नहीं आचार्य शय्यंभव तवली थे। उन्होंने विभिन्न पूर्वो से इसका निर्यूहण किया - यह एक मान्यता है । 3 दशाक की नियुक्ति के अनुसार चौथा अध्ययन आत्म प्रवाद पूर्व से; पाँचवाँ अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से; सातवां अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष सभी अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत किए गए हैं। दूसरी मान्यता के अनुसार इसका निर्यूहण गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया। किस अध्ययन का किस अंग से उद्धरण किया गया. इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। किन्तु तीसरे अध्ययन का विषय सूत्रकृतांग १६ से प्राप्त होता है। चतुर्थ अध्ययन का विषय सूत्रकृतांग १।११।७,८, आचारांग १।१ का क्वचित् संक्षेप और क्वचित् विस्तार है। पांचवें अध्ययन का विषय आचारांग के दूसरे अध्ययन 'लोक विजय' के पाँचवें उद्देशक और आठवें 'विमोह' अध्ययन के दूसरे उद्देशक से प्राप्त होता है। छठा अध्ययन समवायांग १६ के 'वयछक्क कायक्क' इस श्लोक का विस्तार है। सातवें अध्ययन के बीज आचारांग १।६।५ में मिलते हैं। आठवें अध्ययन का आंशिक विषय स्थानांग १ - व्यवहार भाष्य उ० ३ गा० १७५: बितितंमि बंभचेरे पंचम उद्देसे आमगंधमि । सुमि पिकप इह पुण विबेसणाए ओ | मलयगिरि टोका - पूर्वमाचाराङ्गान्तर्गते लोकविजयनाम्नि द्वितीयेऽध्ययने यो ब्रह्मचर्याख्यः पञ्चम उद्ददेशकस्तस्मिन् यदामगन्धिसूत्र' सव्वामगंधं परिच्चयं इति तस्मिन् सूत्रतोऽर्थतश्चाधीते पिण्डकल्पी आसीत् । इह इदानीं पुनर्दशवेकालिकान्तर्गतायां पिण्डेषणायामपि सूत्रतोऽर्थतश्वापीतायां पिण्डकल्पिकः क्रियते सोऽपि च भवति तादृश इति । २ - व्यवहार भाष्य उ० ३ गा० १७४ : पुव्वं सत्यपरिण्णा अधीयपढियाइ होउ उवटूवणा । इच्छिज्जीवणया कि सा उ न होउ उवठवणा ॥ मलयगिरि टीका पूर्व शस्त्रपरिज्ञायामाचाङ्गतायामतो ज्ञातायां पठितायां सूत्रत उपस्थापनादिदानी पुनः सा उपस्थापना हि पदजीवनिकायासिकात पठितायां च न भवति भवत्येवेत्यर्थः । ३- दशवेकालिक नियुक्ति गा० १६-१७ : आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायव्वा पिडस्स उ एसणा तिविहा || सच्चयवायवा निज्जूदा होइ बढी उ अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ || ४१नि अआएको गणिपिङगाओ बुबालगाओ। एवं फिर निम्बूढं मणगस्स अनुष्ठाए । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३१ २०६६१५ से मिलता हैतुलना अन्यत्र भी प्राप्त होती है।' आयारचूला के पहले और चौथे अध्ययन से क्रमशः इसके पाँचवें और सातवें अध्ययन की तुलना होती है । किन्तु हमारे अभिमत में दशवैकालिक के बाद का निर्यूहण है। इसके दूसरे, नवें तथा दसवें अध्ययन का विषय उत्तराध्ययन के प्रथम और पन्द्रहवें अध्ययन से तुलित होता है, किन्तु वह अंग बाह्य आगम है । वह यह सूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है । श्वेताम्बर इसका समावेश उत्कालिक सूत्र में करते हुए चरणकरणानुयोग के विभाग में इसे स्थापित करते हैं मूलसूत्र भी माना गया है। इसके कर्तृव के विषय में भी वेताम्बर साहित्य में प्रामाणिक ऊहापोह है । श्वेताम्बर आचार्यों ने इस पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, दीपिका, अवचुरी आदि-आदि व्याख्या-ग्रन्थ लिखे हैं । दिगम्बर परम्परा में भी यह सूत्र प्रिय रहा है। धवला, जयधवला, तत्वार्थ राजवार्तिक, तत्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति आदि में इसके विषय का उल्लेख मिलता है; परन्तु इसके निश्चित कर्तृत्व तथा स्वरूप का कहीं भी विवरण प्राप्त नहीं होता। इसके कर्तृत्व का उल्लेख करते हुए “आरातीयैराचार्यै निर्यूढं" - इतना मात्र संकेत देते हैं । कब तक यह सूत्र उनको मान्य रहा और कब से यह अमान्य माना गया यह प्रश्न आज भी असमाहित है । व्याख्या- ग्रन्थ दशकालिक की प्राचीनतम व्याख्या निर्युक्ति है । उसमें इसकी रचना के प्रयोजन, नामकरण, उद्धरण-स्थल, अध्ययनों के नाम, उनके विषय आदि का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। यह ग्रन्थ उत्तरवर्ती सभी व्याख्या-ग्रन्थों का आधार रहा है। यह पद्यात्मक है। इसकी गाथाओं का परिमाण टीकाकार के अनुसार ३७१ हैं । इसके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु माने जाते हैं । इनका काल-मान विक्रम की पांच-ताब्दी है। इसकी दूसरी पद्यात्मक व्याख्या भाष्य है । चूर्णिकार ने भाष्य का उल्लेख नहीं किया है। टीकाकार भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों में प्रयोग करते हैं। टीकाकार के अनुसार भाष्य की ६३ गाथाएँ हैं । इसके कर्ता की जानकारी हमें नहीं है । टीकाकार ने भी भाष्यकार के नाम का उल्लेख नहीं किया है। 3 वे निर्मुक्तिकार के बाद और चूर्णिकार से पहले हुए हैं । हरिभद्रसूरि ने जिन गाथाओं को भाष्यगत माना है, वे चूर्ण में हैं। इससे जान पड़ता हैं कि भाष्यकार चूर्णिकार के पूर्ववर्ती हैं। भाष्य के बाद चूर्णियाँ लिखी गई हैं । अभी दो चूर्णियां प्राप्त हैं। एक के कर्त्ता अगस्त्यसिंह स्थविर हैं और दूसरी के कर्ता १ - ( क ) आयारो, ११११८ : संति तसा पाणा तंजहा अंडया पोयया जराउया रसवा संसेवया समुद्रमा उमिया ओवाया। (ख) आयारो, २।१०२ : (ग) सूत्रकृत १।२।२।१८: -- (क) दशवै० ४ ०९ : (ख) दशवं ० ५।२।२८ : (ख) दशवे० ३।३ : अंडया पोयया जराउया रसया संसद्मा सम्बुद्दिमा उभिया उववाइया । ण मे देति ण कुप्पेज्जा । सामायिक माह तस्स तं गिमितेऽसणं भवति । २ – (क) दशवे० हारिभद्रीय टीका प० ६४ : भाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इति । (ख) दशवं० ० हा० टी० प० १२० : आह् च भाष्यकार । (ग) दशवे० हा० टी० प० १२८ व्यासार्थस्तु भाव्यादवसेयः । इसी प्रकार भाष्य के प्रयोग के लिए देखें - हा० टी० प० : १२३, १२५, १२६, १२, १३३, १३४, १४०, १६१, १६२, १७८ । अतर न कुप्पेजा। ...गिहिमत्ते ३०हा० टी० प० १३२ सामेव निर्बुक्तिगाथांनी व्याख्यामुराह भाग्यकारः । एतदपि नित्यत्वादिसाधकमिति निि गाथायामनुपन्यस्तमयुक्त सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति यथार्थः । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३२ जिनदास महत्तर (वि० ७वीं शताब्दी )। मुनि श्री पुण्यविजयजी के अनुसार अगस्त्यसिंह की चूणि का रचना-काल विक्रम को तीसरी शताब्दी के आस-पास है।' - अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूणि में तत्वार्थसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, ओघ नियुक्ति, व्यवहार भाष्य, कल्प भाष्य आदि ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इनमें अन्तिम रचनाएँ भाष्य हैं। उनके रचना-काल के आधार पर अगस्त्यसिंह का समय पुनः अन्वेषणीय है। .. - अगस्त्यसिंह ने पुस्तक रखने की औत्सगिक और आपवादिक- दोनों विधियों की चर्चा की है। इस चर्चा का आरम्भ देवद्विगणी ने आगम पुस्तकारूढ़ किए तब या उनके आस-पास हुआ होगा । अगस्त्यसिंह यदि देवद्धिगणी के उत्तरवर्ती और जिनदास के पूर्ववर्ती हों तो इनका समय विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी हो जाता है । ... इन चूणियों के अतिरिक्त कोई प्राक त व्याख्या और रही है पर वह अब उपलब्ध नहीं है। उसके अवशेष हरिभद्रसूरि की टीका में मिलते हैं। . प्राक त युग समाप्त हुआ और संस्कृ त युग आया। आगम की व्याख्याएँ संस्कृत भाषा में लिखी जाने लगीं। इस पर हरिभद्रसूरि ने संस्कृत में टीका लिखी। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। यापनीय संघ के अपराजितसुरि ( या विजयाचार्य-विक्रम की आठवीं शताब्दी ) ने इस पर 'विजयोदया' नाम की टीका लिखी। इसका उल्लेख उन्होंने स्वरचित आराधना की टीका में किया है । परन्तु वह अभी उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरि की टीका को आधार मान कर तिलकाचार्य (१३-१४ वीं शताब्दी ) ने टीका, माणिक्यशेखर (१५ वीं शताब्दी) ने नियुक्ति-दीपिका तथा समयसुन्दर (विक्रम १६११) ने दीपिका, विनयहंस (विक्रम १५७३) ने वृत्ति, रामचन्द्रसूरि (विक्रम १६७८) ने वातिक और पायचन्द्रसूरि तथा धर्मसिंह मुनि (विक्रम १८ वीं शताब्दी) ने गुजराती-राजस्थानी-मिश्रित भाषा में टब्बा लिखा । किन्तु इनमें कोई उल्लेखनीय नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। वे सब सामयिक उपयोगिता की दृष्टि से रचे गए हैं। इसकी महत्वपूर्ण व्याख्याएँ तीन ही हैं . दो पूणियाँ और तीसरी हरिभद्रसूरि की वृत्ति। ___अगस्त्यसिंह स्थविर की चूणि इन सबमें प्राचीनतम है इसलिए वह सर्वाधिक मूल-स्पर्शी है । जिनदास महत्तर अगस्त्यसिंह स्थविर के आस-पास भी चलते हैं और कहीं-कहीं इनसे दूर भी चले जाते हैं। टीकाकार तो कहीं-कहीं बहुत दूर चले जाते हैं। इनका उल्लेख यथास्थान टिप्पणियों में किया गया है। .. लगता है चूणि के रचना-काल में भी दशवैका लिक की परम्परा अविच्छिन्न नहीं रही थी। अगस्त्यसिंह स्थविर ने अनेक स्थलों पर अर्थ के कई विकल्प किए हैं। उन्हें देखकर सहज ही जान पड़ता है कि वे मूल अर्थ के बारे में असंदिग्ध नहीं हैं। आर्य सुहस्ती ने इस बार जो आचारशैथिल्य की परम्परा का सूत्रपात किया वह आगे चल कर उग्र बन गया। ज्यों-ज्यों जैन आचार्य लोक-संग्रह की ओर अधिक झुक त्यों-त्यों अपवादों की बाढ़ सी आ गई। वीर निर्वाण की नवीं शताब्दी ८५० में चैत्य-वास का प्रारम्भ हुआ। इसके बाद शिथिलाचार की परम्परा बहुत ही उग्र हो गई। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी) १-बृहत्कल्प भाष्य, भाग ६, आमुख पृ०४।। २- दशवकालिक १११ अगस्त्य चूणि पृ० १२ : उवगरणसंजमो-पोत्थएसु घेप्पतेसु असंजमो महाधणमोल्लेसु वा दूसेसु, वज्जणं तु संजमो, कालं पडुच्च चरणक रण? अव्वोछितिनिमित्तं गेण्हंतस्स संजमो भवति । ३--हा० टी० ५० १६५ : तथा च वृद्धव्याख्या-वेसादिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिसा, पडुप्पायणे - अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दव्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणे ति। जिनदास चूणि (पृ० १७१) में इन आशय की जो पंक्तियां है, वे इन पंक्तियों से भिन्न हैं। जैसे- 'जइ उणिक्खमइ तो सव्ववया पोडिया भवंति, अहवि ण उण्णिक्खमइ तोवि तग्गयमाणसस्स भावओ मेहुणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो व एसणं न रक्खद, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ-कि जोएसि? ताहे अवलवइ, ताहे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहि णाणुण्णायाउत्तिकाउं अदिण्णादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति ।' - अगस्त्य चूणि पृ० १०२ को पंक्तियां इस प्रकार हैं-चागविचित्तीक तस्स सव्वमहव्वतपीला, अह उप्पवतति ततो वयच्छित्ती, अणुपव्वयतस्स पीडा वयाण, तासु गयचित्तो रियं ण सोहेत्तित्ति पाणातिवातो। पुच्छितो कि जोएसित्ति ? अवलवति मुसावातो, अदत्तादाणमणणुण्णातो तित्थकरेहि मेहुणे विगयभावो मुच्छाए परिग्गहो वि । ४–गाथा ११९७ की वृत्ति : दशवकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका के बाद चैत्यवास का प्रभुत्व बढ़ा और वह जैन परम्परा पर छा गया । अभयदेवसूरि ने इस स्थिति का चित्रण इन शब्दों में किया है - 'देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक की परम्परा को मैं भाव-परम्परा मानता हूँ। इसके बाद शिथिलावारियों ने अनेक द्रव्य-परम्पराओं का प्रवर्तन कर दिया ।" भाचार-शैथिल्य की परम्परा में जो ग्रन्थ लिखे गये, उनमें ऐसे अपवाद भी हैं जो आगम में प्राप्त नहीं हैं। प्रस्तुत आगम की चूणि और टीका तात्कालिक वातावरण से मुक्त नहीं है। इन्हें पढ़ते समय इस तथ्य को नहीं भूल जाना चाहिए। उत्सर्ग की भांति अपवाद भी मान्य होते हैं। पर उनकी भी एक निश्चित सीमा है। जिनका बनाया हुआ आगम प्रमाण होता है उन्हीं के किए हुए अपवाद मान्य हो सकते हैं। वर्तमान में जो व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, वे चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी की नहीं हैं इसलिए उन्हें आगम (अर्थागम) की कोटि में नहीं रखा जा सकता। दोनों चूणियों में पाठ और अर्थ का भेद है । टीकाकार का मार्ग तो उनसे बहुत ही भिन्न है। चैत्यवासी और संविग्न-पक्ष के आपसी खिंचाव के कारण संभव है उन्हें (टीकाकार को) अगस्त्य चणि उपलब्ध न हुई हो। उसके उपलब्ध होने पर भी यदि इतने बड़े पाठ और अर्थ के भेदों का उल्लेख न किया हो तो यह बहुत बड़े आश्चर्य की बात है। पर लगता यही है कि टीका-काल में टीकाकार के सामने अगस्त्यसिंह चूणि नहीं रही । यदि वह उनके सम्मुख होती तो टीका और चूणि में इतना अर्थ-भेद नहीं होता। टीकाकार ने 'अन्ये तु', 'तथा च वृद्धसम्प्रदाय', 'तथा च वृद्धव्याख्या' आदि के द्वारा जिनदास महत्तर का उल्लेख किया है पर उनके नाम और चूणि का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। हरिभद्रसूरि संविग्न-पाक्षिक थे । इनका समय चैत्यवास के उत्कर्ष का समय है। पुस्तकों का संग्रह अधिकांशतया चैत्यवासियों के पास था। संविग्न पक्ष एक प्रकार से नया था। चैत्यवासी इसे मिटा देना चाहते थे। इस परिस्थिति में टीकाकार को पुस्तक-प्राप्ति की दुर्लभता रही हो, यह भी आश्चर्य की बात नहीं है। आगमों की माथुरी और वल्लभी ---ये दो वाचनाएँ हुईं। देवद्धिगणी ने अपने आगमों को पुस्तकारूढ़ करते हुए उन दोनों का समन्वय किया । माथुरी में उससे भिन्न पाठ थे। उन्हें पाठ-भेद मान शेष अंश को वल्लभी में समन्वित कर दिया। यह पाठ-भेद की परम्परा मिटी नहीं। कुछ आगमों के पाठ-भेद केवल आगमों की व्याख्याओं में उपलब्ब हैं । व्याख्याकार -- "नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति" लिखकर उसका निर्देश करते रहे हैं और कुछ आगमों के पाठ-भेद मूल से ही सम्बद्ध रहे, इस कारण से उनका परम्परा-भेद चलता ही रहा । दशवकालिक सम्भवत: इसी दूसरी कोटि का आगम है। इसकी उपलब्ध व्याख्याओं में सबसे प्राचीन व्याख्या अगस्त्य चूर्णि है। उसमें अनेक स्थलों पर परम्परा-भेद का उल्लेख है। इस सारी वस्तु-सामग्री को देखते हुए लगता है कि चूर्णिकार और टीकाकार के सामने भिन्न-भिन्न परम्परा के आदर्श रहे हैं, और टीकाकार ने अपनी परम्परा के आदर्श और व्याख्या-पद्धति को महत्व दिया हो और सम्भव है कि परम्परा-भेद के कारण चू णियों की उपेक्षा की हो। कल्पना की इस भूमिका पर पहुंचने के बाद चू णि और टीका के पाठ और अर्थ के भेद की पहेली सुलझ जाती है। अनुवाद और सम्पादन हमने वि० सं० २०१२ औरंगाबाद में महावीर-जयन्ती के अवसर पर जैन-आगमों के हिन्दी अनुवाद और सम्पादन के निश्चय की घोषणा की। उसी चातुर्मास (उज्जैन) में आगमों की शब्द-सूची के निर्माण से कार्य का प्रारम्भ हुआ। साथ-साथ अनुवाद का कार्य प्रारम्भ किया गया। उसके लिए सबसे पहले दशवैकालिक को चुना गया। लगभग सभी स्थलों के अनुवाद में हमने चूणि और टीका का अवलम्बन लिया है फिर भी सूत्र का अर्थ मूल-स्पर्शी रहे, इस लिए हमने व्याख्या-ग्रन्थों की अपेक्षा मूल आगमों का आधार अधिक लिया है । हमारा प्रमुख लक्ष्य यही रहा है कि आगमों के द्वारा १-देवढिखमासपणजा, परंपरं भावओ वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दम्वेण परंपरा बहुहा । २-(क) हा० टी०प०७; जि० चू० पृ० ४ : 'अन्ये तु'। (ख) हा० टी०५० १७१, जि० चू० पृ० १८० : 'एवं च वृद्धसम्प्रदायः' । (ग) हा० टी०प० १४२, १४३ जि० चू० पृ. १४१-१४२ : 'तथा च वृद्धव्याख्या' । ३-उदाहरण स्वरूप देखें-पांचवें अध्यमन (प्रथम उद्देशक) का टि० २६ तथा ६।५४ का टिप्पण। Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ही आगमों की व्याख्या की जाए। आगम एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। एक विषय कहीं संक्षिप्त हुआ है तो कहीं विस्तृत । दशवकालिक की रचना संक्षिप्त शैली की है । कहीं-कही केवल संकेत मात्र है। उन सांकेतिक शब्दों की व्याख्या के लिए आयारचूला और निशीथ का उपयोग न किया जाये तो उनका आशय पकड़ने में बड़ी कठिनाई होती है। इस कटिनाई का सामना टीकाकार को करना पड़ा। निदर्शन के लिए देखिए ५।१।६६ की टिप्पणी । दशवकालिक की सर्वाधिक प्राचीन व्याख्याग्रन्थ चरिण है। उसमें अनेक स्थलों पर वैकल्पिक अर्थ किए हैं। वहाँ चूर्णिकार का बौद्धिक विकास प्रस्फुटित हुआ है पर वे यह बताने में सफल न हो सके कि यहाँ सूत्रकार का निश्चित प्रतिपाद्य क्या है । उदाहरण के लिए देखिए ३।६ के उत्तरार्द्ध की टिप्पणी। ____ अनुवाद को हमने यथासम्भव मूल-स्पर्शी रखने का यत्न किया है। उसका विशेष अर्थ टिप्पणियों में स्पष्ट किया है। व्याख्याकारों के अर्थ -भेद टिप्पणियों में दिए हैं। कालक्रम के अनुसार अर्थ कसे परिवर्तित हुआ है, हमें बताने की आवश्यकता नहीं हुई क्योंकि इसका इतिहास ब्याख्या की पंक्तियां स्वयं बता रही हैं। कहीं-कहीं वैदिक और बौद्ध साहित्य से तुलना भी की है। जिन सूत्रों का पाठसंशोधन करना शेष है, उनके उद्धरणों में सूत्रांक अन्य मुद्रित पुस्तकों के अनुसार दिए हैं। इस प्रकार कुछ-एक रूपों में यह कार्य सम्पन्न होता है। यह प्रयत्न क्यों ? दशवकालिक की अनेक प्राचीन व्याख्याएँ हैं और हिन्दी में भी इसके कई अनुवाद प्रकाशित हो, चुके हैं फिर नया प्रयल क्यों आवश्यक हुआ ? इसका समाधान हम शब्दों में देना नहीं चाहेंगे । वह इसके पारायण से ही मिल जाएगा। सूत्र-पाठ के निर्णय में जो परिवर्तन हुआ है ---कुछ श्लोक निकले हैं और कुछ नए आए हैं, कहीं शब्द बदले हैं और कहीं विभक्ति --- उसके पीछे एक इतिहास है । 'धूवणेत्ति वमणे य' (३६) इसका निर्धारण हो गया था। 'धूवर्ण' को अलग माना गया और 'इति' को अलग। उत्तराध्ययन (३५।४) में धूप से सुवासित घर में रहने का निषेध है। आयारचूला (१३।६) में धूपन-जात से पैरों को धूपित करने का निषेध है। इस पर से लगा कि यहाँ भी उपाश्रय, शरीर और वस्त्र आदि के धूप खेने को अनाचार कहा है। अगस्त्य चूणि में वैकल्पिक रूप में 'धूवणेत्ति' को एक शब्द माना भी गया है, पर उस ओर ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। एक दिन इसी सिलसिले में चरक का अवलोकन चल रहा था। प्रारम्भिक स्थलों में 'घूमनेत्र' शब्द पर ध्यान टिका और धूवणेत्ति' शब्द फिर आलोचनीय बन गया। उत्तराध्ययन के 'धूमणेत्त' की भी स्मृति हो आई । परामर्श चला और अन्तिम निर्णय यही हुआ कि 'घुवणे त्ति' को एक पद रखा जाए। फिर सूत्रकृतांग में ‘णो धूमणेत्तं परियापिएज्जा' जैसा स्पष्ट पाठ भी मिल गया। इस प्रकार अरेक शब्दों की खोज के पीछे घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। अर्थ-चिन्तन में भी बहुधा ऐसा हुआ है। मौलिक अर्थ को ढूंढ निकालने में तटस्थ दृष्टि से काम किया जाए, वहाँ साम्प्रदायिक आग्रह का लेश भी न आए—यह दृष्टिकोण कार्यकाल के प्रारम्भ से ही रखा गया और उसका पूर्ण सुरक्षा भी हुई है। परम्परा-भेद के स्थलों में कुछ अधिक चिन्तन हो, यह स्वाभाविक है । 'नियाग' का अर्थ करते समय हमें यह अनुभव हुआ। 'नियाग' का अर्थ हमारी परम्परा में एक घर से नित्य आहार लेना किया जाता है। प्राचीन सभी व्याख्याओं में इसका अर्थ-निमंत्रण पूर्वक एक घर से नित्य आहार लेना' मिला तो वह चिन्तन-स्थल बन गया। हमो प्रयत्न किया कि इसका समर्थन किसी दूसरे स्रोत से हो जाए तो और अच्छा हो। एक दिन भगवती में 'अनाहूत' शब्द मिला । वृत्तिकार ने उसका वही अर्थ किया है, जो दशवकालिक की व्याख्याओं में 'नियाग' का है। श्रीमज्जयाचार्य की 'भगवती की जोड़' (पद्यात्मक व्याख्या) को देखा तो उसमें भी यही अर्थ मिला। फिर 'निमंत्रणपूर्वक' इस वाक्यांश के आगम-सिद्ध होने में कोई सन्देह नहीं रहा। इस प्रकार अनेक अर्थो के साथ कुछ इतिहास जुड़ा हुआ है। हमने चाहा कि दश वैकालिक का प्रत्येक शब्द अर्थ की दृष्टि से स्पष्ट हो-अमुक शब्द वृक्ष-विशेष, फल-विशेष, आसन-विशेष, पात्र-विशेष का वाचक है, इस प्रकार अस्पष्ट न रहे। इस विषय में आज के युग की साधन-सामग्री ने हमें अपनी कल्पना को सफल बनाने का श्रेय दिया है। साधुवाद इस कार्य में तीन वर्ष लगे हैं । इसमें अनेक साधु-साध्वियों व श्रावकों का योगदान है। इसके कुछ अध्ययनों के अनुवाद व टिप्पणियाँ तैयार करने में मुनि मीठालाल ने बहुत श्रम किया है। मुनि दुलहराज ने टिप्पणियों के संकलन व समग्र ग्रन्थ के समायोजन में १. देखिए-नियाग (३२) शब्द का टिप्पण। Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३५ सर्वाधिक प्रयत्न किया है। संस्कृत-छाया में मुनि सुमेरमल (लाडनूं) का योग है। मुनि सुमन तथा कहीं-कहीं हनराज और बसंत भी प्रतिलिपि करने में मुनि नथमल के सहयोगी रहे हैं । श्रीचन्दजी रामपुरिया ने इस कार्य में अपने तीव्र अंध्यवसाय का नियोजन कर रखा है। मदनचन्दजी गोठी भी इस कार्य में सहयोगी रहे हैं। इस प्रकार अनेक साधु-साध्वियों व श्रावकों के सहयोग से प्रस्तुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ है। ____ दशवकालिक सूत्र के सर्वाङ्गीण सम्पादन का बहुत कुछ श्रेय शिष्य मुनि नथमल को ही मिलना चाहिए, क्योंकि इस कार्य में अहर्निश वे जिस मनोयोग से लगे हैं, इसीसे यह कार्य सम्पन्न हो सका है अन्यथा यह गुरुतर कार्य बड़ा दुरूह होता। इनकी दृत्ति मूलतः योगनिष्ठ होने से मन की एकाग्रता सहज बनी रहती है, साथ ही आगम का कार्य करते-करते अन्तर्रहस्प पकड़ने में इनकी मेधा काफी पैनी हो गई है । विनय-शीलता, श्रम परायणता और गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव ने इनकी प्रगति में बड़ा सहयोग दिया है । यह वृत्ति इनकी बचपन से ही है। जब से मेरे पास आए मैंने इनकी इस वृत्ति में क्रमशः वर्धमानता ही पाई है। इनको कार्या-क्षमता और कर्तव्यपरता ने मुझे बहुत संतोष दिया है। मैंने अपने संघ के ऐसे शिष्य साधु-साध्वियों के बल-बूते पर ही आगम के इस गुरुतर कार्य को उठाया है । अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे शिष्य साधु-साध्वियों के निःस्वार्थ, बिनीत एवं समर्पणात्मक सहयोग से इस बृहत् कार्य को असाधारण रूप से सम्पन्न कर सकूँगा। मुनि पुण्यविजयजी का समय-समय पर सहयोग और परामर्श मिला है उसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं । उनका यह संकेत भी मिला था कि आगम कार्य यदि अहमदाबाद में किया जाये तो साधन-सामग्री की सुविधा हो सकती है। हमारा साधु-साध्वी वर्ग और श्रावक-समाज भी चिरकाल से दशवकालिक की प्रतीक्षा में है। प्रारम्भिक कार्य होने के कारण कुछ समय अधिक लगा फिर भी हमें संतोष है कि इसे पढ़कर उसकी प्रतीक्षा संतुष्टि में परिणत होगी। आजकल जन-साधारण में ठोस साहित्य पढ़ने की अभिरुचि कम है । उसका एक कारण उपयुक्त साहित्य की दुर्लभता भी है । मुझे विश्वास है कि चिरकालीन साधना के पश्चात् पठनीय सामग्री सुलभ हो रही है, उससे भी जन-जन लाभान्वित होगा। इस कार्य-संकलन में जिनका भी प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग रहा, उन सबके प्रति मैं विनम्र भाव से आभार व्यक्त करता हूँ। भिक्षु-बोधि स्थल राजसमन्द वि. सं. २०१६ फाल्गुन शुक्ला तृतीया आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन श्लोक द्वितीय अध्ययन आपण्यपूर्वक (संयम में वृति और उसकी साधना ) लोक 11 "1 "3 21 "" 77 11 तृतीय अध्ययन शुल्लकाचार-कथा (आचार और अनाचार का विवेक) श्लोक १-१० नि के अनाचारों का निरूपण । ११ निर्ग्रन्थ का स्वरूप । १२ निर्ग्रन्थ की ऋतुचर्या । १३ महर्षि के प्रक्रम का उद्देश्य – दुःख मुक्ति । १४,१५ संयम - साधना का गौण व मुख्य फल । चतुर्थ अध्ययन षड्जीवनिका ( जीव-संयम और आत्म-संयम ) १. जीवाजीवाभिगम 37 "3 23 सूत्र 13 12 " 17 " 39 13 विषय-सूची मपुष्पिका (धर्म प्रशंसा और माधुकरी वृत्ति) १ धर्म का स्वरूप और लक्षण तथा धार्मिक पुरुष का महत्व । २, ३, ४, ५ माधुकरी वृत्ति । 17 १ श्रामण्य और मदनकाम | २,३ त्यागी कौन ? ४,५ काम - राग निवारण या मनोनिग्रह के साधन । ६ मनोनिग्रह का चिन्तन-सूत्र, अगन्धनकुल के सर्प का उदाहरण । ७, ८, ९ रथनेमि को राजीमती का उपदेश, हट का उदाहरण । १० रथनेमि का संयम में पुनः स्थिरीकरण । ११ संबुद्ध का कर्तव्य १,२३, पजीवनिकाय का उपक्रम, षड्जीवनिकाय का नाम निर्देश । ४, ५, ६, ७ पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु की चेतनता का निरूपण । ८ वनस्पति की चेतनता और उसके प्रकारों का निरूपण । ६ त्रस जीवों के प्रकार और लक्षण । १० जीव-वध न करने का उपदेश । २. चारित्र धर्म ११ प्राणातिपात विरमण १२ मृषावाद विरमण १३ अदत्तादान-विरमण १४ अब्रह्मचर्य - विरमण १५ परिध-विरमण -- अहिंसा महाव्रत का निरूपण और स्वीकार-पद्धति । - सत्य महाव्रत का निरूपण और स्वीकार -पद्धति । - अचौर्य महाव्रत का निरूपण और स्वीकार-पद्धति । ब्रह्मचर्य महाव्रत का निरूपण और स्वीकार-पद्धति । - अपरिग्रह महाव्रत का निरूपण और स्वीकार-पद्धति । पृ० ५ १६-२० ४३-४६ १०५-११८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्लोक विषय-सूची दसवेआलियं ( दशवकालिक) १६ रात्रि भोजन-विरमण - व्रत का निरूपण और स्वीकार-पद्धति । १७ पाँच महावत और रात्रि-भोजन विरमण व्रत के स्वीकार का हेतु । ३ यतना १८ पृथ्वीकाय की हिंसा के विविध साधनों से बचने का उपदेश । १६ अपकाय की हिंसा के विविध साधनों से बचने का उपदेश । २० बायु काय की हिंसा के विविध साधनों से बचने का उपदेश । २१ वनस्पतिकाय की हिंसा के विविध साधनों से बचने का उपदेश । २२ त्रसकाय की हिंसा से बचने का उपदेश । ४. उपदेश १ अयतनापूर्वक चलने से हिंसा, बन्धन और परिणाम । २ अयतनापूर्वक खड़े रहने से हिंसा, बन्धन और परिणाम । ३ अयतनापूर्वक बैठने से हिंसा, बन्धन और परिणाम । ४ अयतनापूर्वक सोने से हिंसा, बन्धन और परिणाम । ५ अयतनापूर्वक भोजन करने से हिंसा, बन्धन और परिणाम । ६ अयतनापूर्वक बोलने से हिसा, बन्धन और परिणाम । ७ प्रवृत्ति में अहिंसा की जिज्ञासा । ८ प्रवृत्ति में अहिंसा का निरूपण ६ आत्मौपम्य-बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति और अबन्ध । १० ज्ञान और दया (संयम) का पौर्वापर्य और अज्ञानी की भर्त्सना। ११ श्रुति का माहात्म्य और श्रेयस् के आचरण का उपदेश । ५. धर्म-फल , १२-२५ कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया-आत्म-शुद्धि का आरोह क्रम। संयम के ज्ञान का अधिकारी, गति-विज्ञान, बन्धन और मोक्ष का ज्ञान, आसक्ति व वस्तु-उपभोग का त्याग, संयोग का त्याग, मुनि-पद का स्वीकरण, चारित्रिक भावों की वृद्धि, पूर्वसंचित कमरजों का निर्जरण, केवलज्ञान और केवलदर्शन की संप्राप्ति, लोक-अलोक का प्रत्यक्षीकरण, योग-निरोध, शैलेशी अवस्था को प्राप्ति, कर्मों का संपूर्ण क्षय, शाश्वत सिद्धि की प्राप्ति । २६ सुगति की दुर्लभता। २७ सुगति की सुलभता। २८ यतना का उपदेश और उपसंहार। पञ्चम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) --एषणा-गवेषणा, ग्रहणैषणा और भोगैषणा की शुद्धि १८०-१९४ १. गवेषणा श्लोक १,२,३ भोजन, पानी की गवेषणा के लिए कब, कहां और कैसे जाये ? ४ विषम मार्ग से जाने का निषेध। ५ विषम मार्ग में जाने से होने वाले दोष । ६ सन्मार्ग के अभाव में विषम मार्ग से जाने की विधि । ७ अंगार आदि के अतिक्रमण का निषेध । ८ वर्षा आदि में भिक्षा के लिए जाने का निषेध । ६,१०,११ वेश्या के पाड़े में भिक्षाटन करने का निषेध और वहाँ होने वाले दोषों का निरूपण । १२ आत्म-विराधना के स्थलों में जाने का निषेध । Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक " 11 " 33 " श्लोक 33 17 11 "3 11 " 37 " 33 " " " २३, २४, २५ असंसृष्ट और संसृष्ट का निरूपण तथा पश्चाद-कर्म का वर्जन ३६ संसृष्ट हस्त आदि से आहार लेने का निषेध | ३७ उद्गम के पन्द्रहवें दोष 'अनिसृष्ट' का वर्जन । ३८ निसृष्ट भोजन लेने की विधि । ३६ गर्भवती के लिए बनाया हुआ भोजन लेने का विधि-निषेध-- एषणा के छट्ठे दोष 'दायक' का वर्जन ४०, ४१ गर्भवती के हाथ से लेने का निषेध । ४२,४३ स्तनपान कराती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने का निषेध । ४४ एषणा के पहले दोष 'शंकित' का वर्जन | "" 21 13 13 १३ गमन की विधि । १४ अविधि-गमन का निषेध । ४० १५ शंका-स्थान के अवलोकन का निषेध | १६ मंत्रणागृह के समीप जाने का निषेध । १७ प्रतिक्रुष्ट आदि कुलों से भिक्षा लेने का निषेध । १८ साणी ( चिक ) आदि को खोलने का विधि-निषेध | १६ मल-मूत्र की बाधा को रोकने का निषेध | २० अंधकारमय स्थान में भिक्षा लेने का निषेध । २१ पुष्प, बीज आदि बिखरे हुए और अधुनोपलिप्त आंगण में जाने का निषेध - एषणा के नवें दोष- 'लिप्त ' का वर्जन । २२ मेष, वत्स आदि को लांघकर जाने का निषेध | २३- २६ गृह प्रवेश के बाद अवलोकन, गमन और स्थान का विवेक I २. ग्रहणपणा भक्तपान लेने की विधि : २७ आहार ग्रहण का विधि-निषेध । २८ एषणा के दसवें दोष 'छर्दित' का वर्जन । २६ जीव - विराधना करते हुए दाता से भिक्षा लेने का निषेध । ३०,३१ एषणा के पाँचवें ( संहृत नामक ) और छट्टो ( दायक नामक ) दोष का वर्जन । ३२ पुरः कर्म दोष का वर्जन ४५,४६ उद्गम के बारहवें दोष 'उद्भिन्न' का वर्जन । ४७,४८ दानार्थ किया हुआ आहार लेने का निषेध । ४६, ५० पुण्यार्थं किया हुआ आहार लेने का निषेध । दसवेआलियं (दशवेकालिक) ५१, ५२ वनीपक के लिए किया हुआ आहार लेने का निषेध । ५३, ५४ श्रमण के लिए किया हुआ आहार लेने का निषेध । ५५ औद्दे शिक आदि दोष युक्त आहार लेने का निषेध । ५६ भोजन के उद्गम की परीक्षा-विधि और शुद्ध भोजन लेने का विधान । ५७, ५८ एषणा के सातवें दोष उन्मिश्र का वर्जन । ५९-६२ एषणा के तीसरे दोष 'निक्षिप्त' का वर्जन । ६१,६४ दायक- दोष युक्त भिक्षा का निषेध | ६५,६६ अस्थिर शिला, काष्ठ आदि पर पैर रखकर जाने का निषेध और उसका कारण । ६७,६८,६ उद्गम के तेरह दोष 'मालापद्दत' का वर्जन और उसका कारण । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची श्लोक ७० सचित्त कन्द-मूल आदि लेने का निषेध । ७१,७२ सचित्त रज-संसृष्ट' आहार आदि लेने का निषेध । , ७३,७४ जिसमें खाने का भाग थोड़ा हो और फेंकना अधिक परे, वैसी वस्तुएँ लेने का निषेध । ७५ तत्काल के धोवन को लेने का निषेध-एषणा के आठवें दोष 'अपरिणत' का वर्ज़न । , ७६.८१ परिणत धोवन लेने का विधान । धोवन की उपयोगिता में सन्देह होने पर चखकर लेने का विधान । प्यास-शमन के लिए अनुपयोगी जल लेने का निषेध । असावधानी से लब्ध अनुपयोगी जल के उपभोग का निषेध और उसके परठने की विधि । ३. भोगैषणा भोजन करने की आपवादिक विधि :, ८२,८३ भिक्षा-काल में भोजन करने की विधि । ,,८४,८५,८६ आहार में पड़े हुए तिनके आदि को परठने की विधि । भोजन करने की सामान्य विधि : , ८७ उपाश्रय में भोजन करने की विधि । स्थान-प्रतिलेखनपूर्वक भिक्षा के विशोधन का संकेत । ८८ उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि, ईर्यापथिकीपूर्वक कायोत्सर्ग करने का विधान । ,, ८६,६० गोचरी में लगने वाले अतिचारों की यथाक्रम स्मृति और उनकी आलोचना करने की विधि । ६१-६६ सम्यग् आलोचना न होने पर पुनः प्रतिक्रमण का विधान । कायोत्सर्ग काल का चिन्तन । कायोत्सर्ग पूरा करने और उसकी उत्तरकालीन विधि । विश्राम-कालीन चिन्तन, साधुओं को भोजन के लिए निमंत्रण, सह-भोजन या एकाकी भोजन, भोजन पात्र और खाने की विधि । ,,६७,६८,६९ मनोज्ञ या अमनोज्ञ भोजन में समभाव रखने का उपदेश । १०० मुधादायी और मुधाजीवी की दुर्लभता और उनकी गति । पञ्चम अध्ययन : पिण्डैषणा (दूसरा उद्देशक) २६५-२७२ , १ जूठन न छोड़ने का उपदेश । २,३ भिक्षा में पर्याप्त आहार न आने पर आहार-गवेषणा का विधान । ४ यथासमय कार्य करने का निर्देश। ५ अकाल भिक्षाचारी श्रमण को उपालम्भ । ६ भिक्षा के लाभ और अलाभ में समता का उपदेश । ७ भिक्षा की गमन-विधि, भक्तार्थ एकत्रित पशु-पक्षियों को लांघकर जाने का निषेध । ८ गोचारान में बैठने और कथा कहने का निषेध । ६ अर्गला आदि का सहारा लेकर खड़े रहने का निषेध। १०,११ ( भिखारी आदि को उल्लंघ कर भिक्षा के लिए घर में जाने का निषेध और उसके दोषों का निरूपण, उनके १२,१३ । लौट जाने पर प्रवेश का विधान । १४,१७ हरियाली को कुचल कर देने वाले से मिक्षा लेने का निषेध । १८,१६, अपक्व सजीव वनस्पति लेने का निषेध । २० एक बार भुने हुए शमी-धान्य को लेने का निषेध । , २१-२४ अपक्व, सजीव फल आदि लेने का निषेध। " २५ सामुदायिक भिक्षा का विधान। Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दसवेआलियं दशवकालिक ) श्लोक २६ अदीनभाव से भिक्षा लेने का उपदेश । , २७,२८ अदाता के प्रति कोप न करने का उपदेश । , २६.३० स्तुतिपूर्वक याचना करने व न देने पर कठोर वचन कहने का निषेध । उत्पादन के ग्यारहवें दोष 'पूर्व संस्तव' का निषेध । , ३१,३२ रस-लोलुपता और तज्जनित दुष्परिणाम । , ३३,३४ विजन में सरस आहार और मण्डली में विरस-आहार करने वाले की मनोभावना का चित्रण। ३५ पूजार्थिता और तज्जनित दोष । ३६ मद्यपान करने का निषेध। ३७-४१ स्तन्य-वृद्धि से मद्यपान करने वाले मुनि के दोषों का उपदर्शन । ,,४२,४३,४४ गुणानुप्रेक्षी की संवर-साधना और आराधना का निरूपण । ४५ प्रणीतरस और मद्यपानवर्जी तपस्वी के कल्याण का उपदर्शन । , ४६-४६ तप आदि से सम्बन्धित माया-मषा से होने वाली दुर्गति का निरूपण और उसके वर्जन का उपदेश । ५० पिण्डेषणा का उपसंहार, सामाचारी के सम्यग् पालन का उपदेश । षष्ठ अध्ययन : महाचारकथा (महाचार का निरूपण २६५-३०४ महाचार का निरूपण १,२ निग्रन्थ के आचार-गोचर की पृच्छा। ३-६ निग्रन्थों के आचार की दुश्चरता और सर्व सामान्य आचरणीयता का प्रतिपादन । ७ आचार के अठारह स्थानों का निर्देश । पहला स्थान : अहिंसा , ८,९,१० अहिंसा की परिभाषा, जीव-वध न करने का उपदेश, अहिंसा के विचार का व्यावहारिक आधार । दूसरा स्थान : सत्य , ११,१२ मृषावाद के कारण और मृण न बोलने का उपदेश । मृषावाद वर्जन के कारणों का निरूपण । तीसरा स्थान : अचौर्य , १३,१४ अदत्त ग्रहण का निषेध। ___ चौथा स्थान : ब्रह्मचर्य १५,१६ अब्रह्मचर्य सेवन का निषेध और उसके कारण। पाँचवाँ स्थान : अपरिग्रह ,, १७,१८ सन्निधि का निषेध, सन्निधि चाहने वाले श्रमण की गृहस्थ से तुलना। १६ धर्मोपकरण रखने के कारणों का निषेध । २० परिग्रह की परिभाषा। २१ निग्रन्थों के अमरत्व का निरूपण। छठा स्थान : रात्रि-भोजन का त्याग २२ एकभक्त भोजन का निर्देशन । ,,२३,२४,२५ रात्रि-भोजन का निषेध और उसके कारण। सातवां स्थान : पृथ्वीकाय की यतना , २६ श्रमण पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते। ॥ २७,२८ दोष-दर्शन पूर्वक पृथ्वीकाय की हिंसा का निषेध और उनका परिणाम । आठवां स्थान : अपकाय की यतना २६ श्रमण अपकाय की हिंसा नहीं करते। Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची श्लोक ३०,३१ दोष-दर्शन पूर्वक अप्काय की हिंसा का निषेध और उसका परिणाम । नौवां स्थान : तेजस्काय की यतना 11 " " " दोष-दर्शनपूर्वक तेजरकाय की हिंसा का निषेध और उसका निरूपण । दसवां स्थान वायुकाय की यतना ३६ श्रमण वायु का समारम्भ नहीं करते । ,,३७,३८,३६ विभिन्न साधनों से वायु उत्पन्न करने का निषेध । दोष-दर्शनपूर्वक वायुकाय की हिंसा का निषेध और उसका परिणाम | 1 " ३२ श्रमण अग्नि की हिंसा नहीं करते । ,,३३,३४,३५ तेजस्काय की भयानकता का निरूपण । 11 33 11 11 " 21 "1 ४३ ग्यारहवां स्थान ४० श्रमण वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते । ४१, ४२ दोष-दर्शनपूर्वक वनस्पतिकाय की हिंसा का निषेध और उसका परिणाम । बारहवां स्थान नसकाय की यतना ,, ६४,६५,६६ विभूषा का निषेध और उसके कारण । ,,६७,६८ उपसंहार | आचार निष्ठ श्रमण की गति सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि (भाषा - विवेक) वनस्पतिकाय की यतना ४३ श्रमण सकाय की हिंसा नहीं करते। ४४,४५ दोष-दर्शन पूर्वक त्रसकाय की हिंसा का निषेध और उसका परिणाम । तेरहवां स्थान : अकल्प्य ४६, ४७ अकल्पनीय वस्तु लेने का निषेध । ४८, ४६ नित्याय आदि लेने से उत्पन्न होने वाले दोष ओर उसका निषेध । चौदहवाँ स्थान : गृहि-भाजन ५०, ५१.५२ गृहस्थ के भाजन में भोजन करने से उत्पन्न होने वाले दोष और उसका निवेध । पन्द्रहवाँ स्थान पर्यक ५३ आसन्दी, पर्यक आदि पर बैठने, सोने का निषेध । ५४ आसन्दी आदि विषयक निषेध और अपवाद ५५ आसन्दी और पर्यंक के उपयोग के निषेध का कारण । सोलहवां स्थान : निषद्या ५६-५९ गृहस्थ के घर में बैठने से होने वाले दोष, उसका निषेध और अपवाद । सतरहवाँ स्थान : स्नान ६०,६१,६२ स्नान से उत्पन्न दोष और उसका निषेध । ६२ गान का निषेध अठारहवां स्थान विभूषावर्जन १ भाषा के चार प्रकार, दो के प्रयोग का विधान और दो के प्रयोग का निषेध । २ अवक्तव्य सत्य, सत्यासत्य, मृषा और अनाचीर्ण व्यवहार भाषा बोलने का निषेध । ३ अनवद्य आदि विशेषणयुक्त व्यवहार और सत्य भाषा बोलने का विधान । ४ सन्देह में डालने वाली भाषा या भ्रामक भाषा के प्रयोग का निषेध | ५ सत्याभास को सत्य कहने का निषेध । ६,७ जिसका होना संदिग्ध हो, उसके लिये निश्चयात्मक भाषा में बोलने का निषेध । ८ अज्ञात विषय को निश्चयात्मक भाषा में बोलने का निषेध । ३३७-३४५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 13 " " " 11 " 11 11 "3 11 " 11 31 , २६, ३३ वृक्ष और उसके अवयवों के बारे में बोलने का विवेक । ३४, ३५ औषधि (अनाज) के बारे में बोलने का विवेक । ३६-३६ संखडि ( जीमनवार), चोर और नदी के बारे में बोलने का विवेक । 12 ,, ४०, ४२, ४१ सावद्य प्रवृत्ति के सम्बन्ध में बोलने का विवेक । " 31 33 31 " 33 31 " 17 "3 37 11 12 " ४४ ६ शंकित भाषा का प्रतिषेध । १० निःशंकित भाषा बोलने का विधान । ११, १२, १३ पुरुष और हिंसात्मक सत्य भाषा का निषेध । ११४ तुच्छ और अपमानजनक सम्बोधन का निषेध | १५ पारिवारिक ममत्व-सूचक शब्दों से स्त्रियों को सम्बोधित करने का निषेध । १६ गौरव वाचक या चाटुता सूचक शब्दों से स्त्रियों को सम्बोधित करने का निषेध । १७ नाम और गोत्र द्वारा स्त्रियों को सम्बोधित करने का विधान । १८ पारिवारिक ममत्व-सूचक शब्दों से पुरुषों को सम्बोधित करने का निषेध । १६ गौरव - वाचक या चाटुता सूचक शब्दों से पुरुषों को सम्बोधित करने का निषेध । २० नाम और गोत्र द्वारा पुरुषों को सम्बोधित करने का विधान । २१ स्त्री या पुरुष का सन्देह होने पर तत्सम्बन्धित जातिवाचक शब्दों द्वारा निर्देश करने का विधान । २२ अप्रीतिकर और उपघातकर वचन द्वारा सम्बोधित करने का निषेध । २३ शारीरिक अवस्थाओं के निर्देशन के उपयुक्त शब्दों के प्रयोग का विधान । २४, २५ गाय और बैल के बारे में बोलने का विवेक । अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि ( आचार का प्रणिधान) श्लोक ४३ विक्रय आदि के सम्बन्ध में वस्तुओं के उत्कर्ष सूचक शब्दों के प्रयोग का निषेध । २४४ चिन्तनपूर्वक भाषा बोलने का उपदेश । ४५,४६ लेने, बेचने की परामर्शदात्री भाषा के प्रयोग का निषेध | ४७ असंयति को गमनागमन आदि प्रवृत्तियों का आदेश देने वाली भाषा के प्रयोग का निषेध । ४८ असाधु को साधु कहने का निषेध । दसवेआलियं ( दशवेकालिक) ४६ गुण सम्पन्न संयति को ही साधु कहने का विधान । ५० किसी की जय-पराजय के बारे में अभिलाषात्मक भाषा बोलने का निषेध 1 ५१ पवन आदि होने या न होने के बारे में अभिलाषात्मक भाषा बोलने का निषेध | ५२, ५३ मेघ, आकाश और राजा के बारे में बोलने का विवेक ! २४ सावयानुमोदनी आदि विशेषणयुक्त भाषा बोलने का निषेध ५५, ५६ भाषा विषयक विधि-निषेध । ५७ परीक्ष्यभाषी और उसको प्राप्त होने वाले फल का निरूपण । १ आचार - प्रणिधि के प्ररूपण की प्रतिज्ञा । २ जीव के भेदों का निरूपण । ३-१२ षड्जीवनिकाय की यतना-विधि का निरूपण । १३-१६ आठ सूक्ष्म स्थानों का निरूपण और उनकी यतना का उपदेश । १७, १८ प्रतिलेखन और प्रतिष्ठापन का विवेक । १६ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने के बाद के कर्त्तव्य का उपदेश । २०.२१ दृष्ट औरत के प्रयोग का विवेक और गृहियोग - गृहस्थ की घरेलू प्रवृत्तियों में भाग लेने का निषेध । २२ गृहस्थ को भिक्षा की सरसता, नीरसता तथा प्राप्ति और अप्राप्ति के निर्देश करने का निषेध । २३ भोजनगृद्धी और अप्रासु भोजन का निषेध ३६६ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची श्लोक 33 11 " 33 11 23 11 71 " 77 11 " 11 31 31 ני 33 11 11 " " ,, ४६, ४७,४८ वाणी का विवेक । 27 11 77 11 11 11 11 २४ खान-पान के संग्रह का निषेध | २५ रूक्षवृत्ति आदि विशेषण युक्त मुनि के लिये क्रोध न करने का उपदेश । २६ प्रिय शब्दों में राग न करने और कर्कश शब्दों को सहने का उपदेश । २७ शारीरिक कष्ट सहने का उपदेश और उसका परिणाम दर्शन | २८ रात्रि भोजन परिहार का उपदेश । २६ अल्प लाभ में शान्त रहने का उपदेश । ३० पर तिरस्कार और आत्मोत्कर्ष न करने का उपदेश । संवरण और उसकी पुनरावृत्ति न करने का उपदेश | छिपाने का उपदेश । ४५ ३१ वर्तमान पाप के ३२ अनाचार को न ३३ आचार्य वचन के प्रति शिष्य का कर्त्तव्य । २४ जीवन की क्षणभंगुरता और भोगनिवृत्ति का उपदेश । ३५ धर्माचरण की शक्यता, शक्ति और स्वास्थ्य सम्पन्न दशा में धर्माचरण का उपदेश । कषाय ३६ कपाय के प्रकार और उनके त्याग का उपदेश । ३७ कपाय का अर्थ | ३८ कषाय - विजय के उपाय । ३६ पुनर्जन्म का मूल कषाय । ४० विनय, आचार और इन्द्रिय-संयम में प्रवृत्त रहने का उपदेश । ४१ निद्रा आदि दोषों को वर्जने और स्वाध्याय में रत रहने का उपदेश । ४२ अनुत्तर अर्थ की उपलब्धि का मार्ग । ४ बहुश्रुत की पर्युपासना का उपदेश । ४४, ४५ गुरु के समीप बैठने को विधि । ४६ वाणी की रखलना होने पर उपहास करने का निषेध | ५० गृहस्थ को नक्षत्र आदि का फल बताने का निषेध । ५१ उपाश्रय की उपयुक्तता का निरूपण । ब्रह्मचर्य की साधना और उसके साधन ५२ एकान्त स्थान का विधान, स्त्री-कथा और गृहस्थ के साथ परिचय का निषेध, साधु के साथ परिचय का उपदेश । ५३ ब्रह्मचारी के लिए स्त्री की भयोत्पादकता । ५४ दृष्टि-संयम से बचने का उपदेश । ५५ स्त्री मात्र से बचने का उपदेश । ५६ आत्म- गवेषिता और उसके घातक तत्त्व । ५७ कामरागवर्धक अंगोपांग देखने का निषेध । ५८, ५१ पुद्दल परिणाम की अनित्यता दर्शनपूर्वक उसमें आसक्त न होने का उपदेश | ६० निष्क्रमण कालीन श्रद्धा के निर्वाह का उपदेश । ६१ तपस्वी, संयमी और स्वाध्यायी के सामर्थ्य का निरूपण । ६२ पुराकृत मल के विशोधन का उपाय । ६३ आचार - प्रणिधि के फल का प्रदर्शन और उपसंहार । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) नवम अध्ययन : विनय-समाधि (प्रथम उददेशक): (विनय से होनेवाला मानसिक स्वास्थ्य) ४२३-४३४ श्लोक १ आचार-शिक्षा के वाधक तत्व और उनसे ग्रस्त श्रमण की दशा का निरूपण। , २,३,४ अल्प-प्रज्ञ, अल्प-वयस्य या अल्प-श्रुत की अवहेलना का फल । ,, ५-१० आचार्य की प्रसन्नता और अवहेलना का फल । उनकी अबहेलना की भय करता का उपमापूर्वक निरूपण और उनको प्रसन्न रखो का उपदेश । ११ अनन्त-ज्ञानी को भी आचार्य की उपासना करने का उपदेश । १२ धर्मपद-शिक्षक गुरु के प्रति विनय करने का उपदेश । १३ विशोधि के स्थान और अनुशासन के प्रति पूजा का भाव । १४,१५ आचार्य की गरिमा और भिक्षु-परिषद में आचार्य का स्थान । १६ आचार्य की आराधना का उपदेश । , १७ आचाय की आराधना का फल । नवम अध्ययन : विनय-समाधि (द्वितीय उद्देशक) : (अविनीत, सुविनीति की आपदा-सम्पदा) ४३५-४४८ , १,२ द्रुम के उदाहरण पूर्वक धर्म के मूल और परम का निदर्शन। , ३ अविनीत आत्मा का संसार-भ्रमण । ४ अनुशासन के प्रति कोप और तज्जनित अहित । ५-११ अविनीत और सुविनीत की आपदा और सम्पदा का तुलनात्मक निरूपण । , १२ शिक्षा-प्रवृद्धि का हेतु- आज्ञानुवर्तिता। ,१३,१४,१५ गृहस्थ के शिल्पकला सम्बन्धी अध्ययन और विनय का उदाहरण । शिल्पाचार्य कृत यातना का सहन । यातना के उपरान्त भी गुरु का सत्कार आदि करने की प्रवृत्ति का निरूपण । १६ धर्माचार्य के प्रति आज्ञानुबतिता की सहजता का निरूपण । १७ गुरु के प्रति नम्र व्यवहार की विधि । १८ अविधिपूर्वक स्पर्श होने पर क्षमा याचना की विधि । १६ अविनीत शिष्य की मनोवृत्ति का निरूपण । २० विनीत की सूक्ष्म-दृष्टि और विनय-पद्धति का निरूपण । २१ शिक्षा का अधिकारी। २२ अविनीत के लिये मोक्ष की असंभावना का निरूपण। २३ विनय-कोविद के लिए मोक्ष की सुलभता का प्रतिपादन। नवम अध्ययन : विनय-समाधि (तृतीय उद्देशक) : (पूज्य कौन ? पूज्य के लक्षण और उसकी अर्हता का उपदेश) ४४६-४६१ १ आचार्य की सेवा के प्रति जागरूकता और अभिप्राय की आराधना। २ आचार के लिए विनय का प्रयोग, आदेश का पालन और पाशातना का वर्जन। ३ रानिकों के प्रति विनय का प्रयोग । गुणाधिक्य के प्रति नम्रता, वन्दनशीलता और आज्ञानुवर्तिता। ४ भिक्षा-विशुद्धि और लाभ-अलाभ में समभाव । ५ सन्तोष-रमण। ६ वचनरूपी कांटों को सहने की क्षमता। ७ बचनरूपी कांटों की सुदुःसहता का प्रतिपादन। ८ दौर्मनस्य का हेतु मिला पर भी सौमनस्य को बनाए रखना। ६ सदोष भाषा का परित्याग । १० लोलुपता आदि का परित्याग। ११ आत्म-निरीक्षण और मध्यस्थता। १२ स्तब्धता और क्रोध का परित्याग । १३ पूज्य-पूजन, जितेन्द्रियता और सत्य-रतता। श्लोक Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १४ आचार-निष्णातता। , १५ गुरु की परिचर्या और उसका फल। नवम अध्ययन : विनय-समाधि (चतुर्थ उददेशक): (विनय-समाधि के स्थान) ४६२-४७३ सूत्र १,२,३, समाधि के प्रकार । , ४ विनय-समाधि के चार प्रकार । ५ श्रुत-समाधि के चार प्रकार । ६ तप:समाधि के चार प्रकार। ७ आचार-समाधि के चार प्रकार। श्लोक ६,७ समाधि-चतुष्टय की आराधना और उसका फल । दशम अध्ययन : सभिक्षु (भिक्षु के लक्षण और उसकी अर्हता का उपदेश) ४७५-५०० १ चित्त-समाधि, स्त्री-मुक्तता और वान्त-भोग का अनासेवन । , २,३,४ जीव-हिंसा, सचित व औद्देशिक आहार और पचन-पाचन का परित्याग । ५ श्रद्धा, आत्मौपम्यबुद्धि, महाव्रत-स्पर्श और आश्रव का संवरण । ६ कषाय-याग, ध्र व-योगिता, अकिंचनता और गृहि-योग का परिवर्जन । ७ सम्यग्दष्टि, अमूढ़ता, तपस्विता और प्रवृत्ति-शोधन । ८ सन्निधि-बजन। ६ सार्मिक-निमंत्रणपूर्वक भोजन और भोजनोत्तर स्वाध्याय-रतता। १० कलह-कारक-कथा का वर्जन, प्रशान्त भाव आदि । ११ सुख-दुख में समभाव। १२ प्रतिमा-स्वीकार, उपसर्गकाल में निर्भयता और शरीर की अनासक्ति । १३ देह-विसर्जन, सहिष्णुता और अनिदानता। १४ परीषह-विजय और श्रामण्य-रतता। १५ संयम, अध्यात्म-रतता और सूत्रार्थ-विज्ञान । १६ अमूर्छा, अज्ञात-भिक्षा, क्रय-विक्रय वर्जन और निस्संगता। १७ अलोलुपता, उंछचारिता और ऋद्धि आदि का त्याग। १८ वाणी का संयम और आत्मोत्कर्ष का त्याग । १६ मद-वर्जन । २० आर्यपद का प्रवेदन और कुशील लिंग का वर्जन। २१ भिक्षु की गति का निरूपण । प्रथम चूलिका : रतिवाक्या (संयम में अस्थिर होने पर पुनः स्थिरीकरण का उपदेश) ५०१-५१६ सूत्र १ मंयम में पुनः स्थिरीकरण के १८ स्थानों के अवलोकन का उपदेश और उनका निरूपण । श्लोक २-८ भोग के लिये संयम को छोड़ने वाले को भविष्य की अनभिज्ञता और पश्चात्तापपूर्ण मनोवृत्ति का उपमापूर्वक निरूपण। श्रमण-पर्याय की स्वर्गीयता और नारकीयता का सकारण निरूपण । १० व्यक्ति-भेद से श्रमण-पर्याय में सुख:दुख का निरूपण और श्रमण-पर्याय में रमण करने का उपदेश। ११,१२ संयम-भ्रष्ट श्रमण के होने वाले ऐहिक और पारलौकिक दोषों का निरूपण । १३ संयम-भ्रष्ट की भोगासक्ति और उसके फल का निरूपण । १४,१५ संयम में मन को स्थिर करने का चिन्तन-सत्र । , १६ इन्द्रिय द्वारा अपराजेय मानसिक संकल्प का निरूपण। , १७-१८ विषय का उपसंहार । Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या (वविक्तचर्या का उपदेश) ५१७-५३१ श्लोक १ दृलिका के प्रवचन की प्रतिज्ञा और उसका उद्देश्य । २ अनुस्रोत-गमन को बहुजनाभिमत दिखाकर मुमुक्षु के लिये प्रतिस्रोत-गमन का उपदेश । ३ अनुस्रोत और प्रतिस्रोत के अधिकारी, संसार और मुक्ति की परिभाषा। ४ साधु के लिये चर्या, गुण और नियमों को जानकारी की आवश्यकता का निरूपण । ५ अनिकेतवास आदि चर्या के अंगों का निरूपण । ६ आकीणं और अवमान संखडि-वजन आदि मिक्षा-विशुद्धि के अंगों का निरूपण व उपदेश । ७ श्रमण के लिये आहार-विशुद्धि और कायोत्सर्ग आदि का उपदेश । ८ स्थान आदि के प्रतिवन्ध व गांव आदि में ममत्व न करने का उपदेश। ६ गृहस्थ की वयावृत्य आदि करने का निषेध और असंक्लिष्ट मुनिगण के साथ रहने का विधान । १० विशिष्ट संहनन-युक्त और श्रुत-सम्पन्न मुनि के लिए एकाकी विहार का विधान। ११ चातुर्मास और मासकल्प के बाद पुनः चातुर्मास और माराकल्प करने का व्यवधान-काल। सूत्र और उसके अर्थ के चर्या करने का विधान । १२,१३ आत्म-निरीक्षण का समय, चिन्तन-सूत्र और परिणाम । १४ दुष्प्रवृत्ति होते ही सम्हल जाने का उपदेश । १५ प्रतिबुद्धजीवी, जागरूकभाव से जीने वाले की परिभाषा। १६ आत्म-रक्षा का उपदेश और अरक्षित तथा सुरक्षित आत्मा की गति का निरूपण। 卐 Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं दुमपुफिया प्रथम अध्ययन द्रुमपुष्पिका Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख भारतीय चिन्तन का निचोड़ है – 'ग्रस्तिवाद' । 'आत्मा है' - यह उसका अमर घोष है । उसकी अन्तिम परिणति है - 'मोक्षवाद' | 'आत्मा की मुक्ति संभव हैं यह उसकी चरम ग्रनुभूति है। मोक्ष साव्य है । उसकी साधना है 'धर्म' । धर्म क्या है? क्या सभी धर्म मंगत है ? पनेक धर्मो में से मोल-धर्म सत्य-धर्म की पहचान कैसे हो ? ये चिर-नित्य प्रश्न रहे हैं। व्यामोह उत्पन्न करनेवाले इन प्रश्नों का समुचित समाधान प्रथम श्लोक के दो चरणों में किया गया है। जो आत्मा का उत्कृष्ट हित साधता हो वह धर्म है । जिनसे यह हित नहीं सधता वे धर्म नहीं, धर्माभास हैं । 'धर्म' का अर्थ है - धारण करनेवाला । मोक्ष का साधन वह धर्म है जो आत्मा के स्वभाव को धारण करे। जो विजातीय तत्त्व को धारण करे वह धर्म मोक्ष का साधन नहीं है । ग्रात्मा का स्वभाव अहिंसा, संयम और तप है । साधना काल में ये यात्मा की उपलब्धि के साधन रहते हैं और सिद्धि-काल में ये आत्मा के गुरण - स्वभाव । साधना काल में ये धर्म कहलाते हैं और सिद्धि-काल में श्रात्मा के गुरग । पहले ये साधे जाते हैं फिर ये स्वयं सध जाते हैं। मोक्ष परम मंगल है, इसलिए इसकी उपलब्धि के साधन को भी परम मंगल कहा गया है। वही धर्म परम मंगल है जो मोक्ष की उपलब्धि करा सके । 'धर्म' शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग होता है और मोक्ष-धर्म की भी अनेक व्याख्याएँ हैं । इसलिए उसे कसौटी पर कसते हुए बताया गया है कि मोक्ष-धर्म वही है जिसके लक्षण अहिंसा, संयम और तप हों । प्रश्न है - क्या ऐसे धर्म का पालन सम्भव है ? समाधान के शब्दों में कहा गया है जिसका मन सदा धर्म में होता है उसके लिए उसका पालन भी सदा सम्भव है। जो इस लोक में निस्पृह होता है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं । सिद्धि-काल में शरीर नहीं होता, वारणी और मन नहीं होते, इसलिए आत्मा स्वयं अहिंसा बन जाती है । साधना काल में शरीर, वाणी और मन ये तीनों होते हैं। शरीर बाहार बिना नहीं टिकता । ग्रहार हिंसा के बिना निष्पन्न नहीं होता। यह जटिल स्थिति है । अब भला कोई कैसे पूरा हिंसक बने ? जो अहिंसक नहीं, वह धार्मिक नहीं । धार्मिक के बिना धर्म कोरी कल्पना की वस्तु रह जाती है । साधना का पहला चरण इस उलझन से भरा है। शेष चार श्लोकों में इसी समस्या का समाधान दिया गया है । समाधान का स्वरूप माधुकरी वृत्ति है । तात्पर्य की भाषा में इसका अर्थ है : (१) मधुकर धोवी होता है। वह अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी प्रकार का समारम्भ, उपमर्दन या हत नहीं करता। वैसे ही श्रम-साधक भी अवधजीवी हो किसी तरह का पचन - पाचन और उपमर्दन न करे । (२) मधुकर पुष्पों से स्वभाव-सिद्ध रस ग्रहण करता है। वैसे ही श्रमण-साधक गृहस्थों के घरों से, जहाँ आहार-जल यादि स्वाभाविक रूप से बनते हैं, प्रासुक ग्राहार ले । (३) मधुकर फूलों को म्लान किये बिना थोड़ा-थोड़ा रस पीता है। वैसे ही श्रमरण अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे । (४) मधुकर उतना ही रस ग्रहण करता है जितना कि उदरपूर्ति के लिए आवश्यक होता है। यह दूसरे दिन के लिए कुछ संग्रह कर नहीं रखता। वैसे ही श्रमण संयम- निर्वाह के लिए श्रावश्यक हो उतना ग्रहण करे - संचय न करे । (५) मधुकर किसी एक वृक्ष या फूल से ही रस ग्रहण नहीं करता परन्तु विविध वृक्षों और फूलों से रस ग्रहरण करता है । वैसे ही श्रमण भी किसी एक गाँव, घर या व्यक्ति पर आश्रित न होकर सामुदानिक रूप से भिक्षा करे । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशर्वकालिक ) अध्ययन १ आमुख इस अध्ययन में दुम-पुष्प और मधुकर उपमान हैं तथा यथाकृत आहार और श्रमण उपमेय । यह देश उपमा है'। नियुक्ति के अनुसार मधुकर की उपमा के दो हेतु हैं - ( १ ) अनियत-वृत्ति और (२) अहिंसा-पालन' । अनियत वृत्ति का सूचन- 'जे भवंति प्ररिस्सिया'३ (१.५) और अहिंसा पालन का सूचन न य पुफ्फं किलामेइ, सो य पीरणेइ अप्पयं' ( १.२ ) से होता है। दुम- पुष्प की उपमा का हेतु है— सहज निष्पन्नता । इसका सूचक 'ग्रहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा ' (१.४) यह श्लोकाई है। 1 हिंसा - पालन में श्रमण क्या ले और कैसे ले इन दोनों प्रश्नों पर विचार हुआ है और अनियत वृत्ति में केवल कैसे ले, इसका विचार है । कैसे ले - यह दूसरा प्रश्न है। पहला प्रश्न है- क्या ले ? इससे मधुकर की अपेक्षा द्रुम-पुष्प का सम्बन्ध निकटतम है । भ्रमर के लिए सहजरूप से भोजन प्राप्ति का आधार द्रुम-पुष्प ही होता है। माधुकरी वृत्ति का मूल केन्द्र द्रुम-पुष्प है। उसके बिना यह नहीं सती मपुप्प की इस अनिवार्यता के कारण 'हम पुष्पिका' शब्द समूची माधुकरी-वृत्ति का योग्यतम प्रतिनिधित्व करता है। इस अध्ययन में श्रमण को भ्रामरी-वृत्ति से प्राजीविका प्राप्त करने का बोध दिया गया है। इस वृत्ति का सूचन दुम- पुष्पिका शब्द से अच्छी तरह होता है, अतः इसका नाम द्रुम-पुप्पिका है। यहाँ यह स्मरणीय है कि सूत्रकार का प्रधान प्रतिपाद्य है-धर्म के आचरण की सम्भवता । निःसन्देह यह अध्ययन अहिंसा और उसके प्रयोग का निर्देशन है। महिसा धर्म की पूर्ण धाराधना करनेवाला चमरण पने जीवननिर्वाह के लिए भी हिंसा न करे, यथाकृत ग्राहार ले तथा जीवन को संयम और तपोमय बना कर धर्म और धार्मिक की एकता स्थापित करे । धार्मिक का महत्व धर्म होता है। धर्म की है वह धार्मिक की प्रशंसा है और धार्मिक की प्रशंसा है वह धर्म की प्रशंसा है। धार्मिक और धर्म के इस यभेद को लक्षित कर ही नियुक्तिकार भद्रबाहु ने कहा है- धम्मपा" (नि० गा० २०) पहले अध्ययन में धर्म की प्रशंसा - महिमा है । १ (क) नि० वा० २१ भमरोति य एवं विट्ट तो होह आहरणदेसे । (ख) नि० गा० ६७ : एवं भमराहरणे अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहणं ... २- नि० गा० १२६ : उवमा खलु एस कया पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया । अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसअणुपालणट्ठाए || २० टी० [१०] ७२ 'अनिधिताः कुलाविषु अप्रतिबद्धाः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं : प्रथम अध्ययन दुमपुफिया : द्रुमपुष्पिका मूल धर्मः अहिंसा देवा यस्य संस्कृत छाया मङ्गलमुत्कृष्टम् सयमः तपः । अपि तं नमस्यन्ति धर्म सदा मनः ॥ १॥ हिन्दी अनुवाद धर्म' उत्कृष्ट मंगल है । अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। यथा द्रुमस्य पुष्पेषु भ्रमर आपिबति रसम् । न च पुष्पं क्लामयति स च प्रीणाति आत्मकम ॥२॥ जिस प्रकार भ्रमर द्रुम-पुष्पों से थोड़ाथोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को म्लान नहीं करता" और आने को भी तृप्त कर लेता है-- १-'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥ २-जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ॥ ३–एमेए२ समणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो५ । विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रया ।। ४-वयं च वित्ति लब्भामो न य कोइ उवहम्मई । अहागडेसु रीयंति पुप्फेसु भमरा जहा ॥ ५---महुकारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता तेण वुच्चंति साहुणो । त्ति बेमि एवमेते श्रमणा ये लोके सन्ति विहङ्गमा इव दानभक्तषणे मुक्ताः साधवः । पुष्पेषु रताः ।। ३॥ उसी प्रकार लोक में जो मुक्त (अपरिग्रही)श्रमण१४ साधु हैं वे दानभक्त१७ (दाता द्वारा दिये जानेवाले निर्दोष आहार) का एपणा म रत रहत ह, जस-भ्रमर पुष्पों में। हम इस तरह से वृत्ति-भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो। क्योंकि श्रमण यथाकृत (सहज रूप से बना) आहार लेते हैं, जैसे --भ्रमर पुष्पों से रस । वयं च वृत्ति लप्स्यामहे न च कोप्युपहन्यते । यथाकृतेषु रीयन्ते पुष्पेषु भ्रमरा यथा ॥ ४ ॥ मधुकरसमा बुद्धाः ये भवन्त्यनिश्रिताः । नानापिण्डरता दान्ताः तेन उच्यन्ते साधवः ॥ ५॥ इति ब्रवीमि जो बुद्ध पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित हैं२१-किसी एक पर आश्रित नहीं, नाना पिंड में रत हैं२२ और जो दान्त हैं२३ वे अपने इन्हीं गुणों से साधु कहलाते हैं २४ । ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन १ श्लोक १ १. तुलना : 'धम्मपद' (धम्मढवग्गो १६.६) के निम्नलिखित श्लोक की इससे आंशिक तुलना होती है : यम्हि सच्चं च धम्मो च अहिंसा संयमो दमो । स वे वन्तमलो धीरो सो थेरो ति पवुच्चति ॥ इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है : जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और दम होता है। उस मल रहित धीर भिक्षु को स्थविर कहा जाता है ।। २. धर्म ( धम्मो %): धू' धातु का अर्थ है -धारण करना । उसके अन्त में 'मन्' या 'म' प्रत्यय लगने से 'धर्म' शब्द बनता है। उत्पाद, व्यय और स्थिति—ये अवस्थाएँ जो द्रव्यों को धारण कर रखती हैं उनके अस्तित्व को टिकाए रखती हैं-'द्रव्य-धर्म' कहलाती हैं। गति में सहायक होना, स्थिति में सहायक होना, स्थान देने में सहायक होना, मिलने और बिछुड़ने की शक्ति से सम्पन्न होना, जानने-देखने की क्षमता का होना, धर्म आदि पाँच अस्तिकायों के ये स्वभाव या लक्षण -जो उनके पृथक्त्व को सिद्ध करते हैं और उनके स्वरूप को स्थिर करते हैं –'अस्तिकाय-धर्म' कहे जाते हैं। इसी तरह सुनना. देखना, सूंघना, स्वाद लेना और स्पर्श करना जो जिस इन्द्रिय का प्रचार-विषय-होता है वह उसका 'इन्द्रिय-धर्म' कहलाता है। विवाह्या विवाह्य, भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेयादि के नियम जो किसी स्थान की विवाह तथा खान-पान विषयक परम्परा के निर्णायक होते हैं 'गम्य-धर्म' कहलाते हैं। वस्त्राभूषणादि के रीति-रिवाज जो किसी देश की रहन-सहन विषयक प्रथा के आधारभूत होते हैं देश-धर्म' कहलाते हैं। करादि के विधान जो राज्य की आर्थिक स्थिति को संतुलित रखते हैं 'राज्य-धर्म' कहलाते हैं। गणों की पारस्परिक व्यवस्था जो गणों को संगठित रखती है 'गण-धर्म' कहलाती है। दण्डादि की विधि जो राजसत्ता को सुरक्षित रखती है 'राज-धर्म' कहलाती है । इस तरह द्रव्यों के पर्याय और गुण, इन्द्रियों के विषय तथा लौकिक रीति-रिवाज, देशाचार, व्यवस्था, विधान, दण्डनीति आदि सभी धर्म कहलाते हैं, पर यहाँ उपर्युक्त द्रव्य आदि धर्मों, गम्य आदि सावद्य लौकिक धर्मों और कुप्रावच निक धर्मों को उत्कृष्ट नहीं कहा है। जो दुर्गति में नहीं पड़ने देता वह धर्म यहाँ अभीष्ट है । ऐसा धर्म संयम में प्रवृत्ति और असंयम से निवृत्ति रूप है तथा अहिंसा, संयम और तप लक्षणवाला है । उसे ही यहाँ उत्कृष्ट मंगल कहा है। १-(क) जि० चू० पृ० १४ : 'धृज धारणे' अस्य धातोर्मन्प्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । (ख) हा० टी० प०२० : 'धृञ् धारणे' इत्यस्य धातोर्मप्रत्ययान्तस्येवं रूपं धर्म इति । २–नि० गा० ४० : दध्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स। ३-जि० चू० पृ० १६ : अत्थि वेज्जति काया य अस्थिकाया, ते इमे पंच, तेसि पंचण्हवि धम्मो णाम सब्भावो लक्खणंति एगट्ठा.....। ४.-जि० चू० पृ० १६ : पयारधम्मा णाम सोयाईण इन्दियाण जो जस्स विसयो सो पयारधम्मो भवइ । ५–(क) नि० गा० ४०-४२ : दव्वं च अस्थिकायप्पयारधम्मो अभावधम्मो अ। दव्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स ॥ धम्मत्यिकायधम्मो पयारधम्मो य विषयधम्मो य । लोइयकुप्पावणिअ लोगुतर लोगऽणेगविहो । गम्मपसुदेसरज्जे पुरवरगामगणगोटिराईणं । सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्थो । (ख) नि० गा० ४२, हा० टी० प० २२: कुप्रावनिक उच्यते-असावपि सावधप्रायो लौकिककल्प एव । (ग) जि० चू० पृ०१७: वज्जो णाम गरहिओ, सह वज्जेण सावज्जो भवड । (घ) नि० गा०४२, हा० टी०प०२२ : अवयं-पापं, सह अवद्य न सावद्यम् । ६-जि० चू० पृ० १५ : यस्मात् जीवं नरकतिर्यग्योनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतंतं धारयतीति धर्मः । उक्तं च "दुर्गति-प्रसृतान् जीवान्, यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्थितः ॥" ७–जि० चू० पृ० १७ : असंजम्माउ नियत्ती संजमंमि य पवित्ती। 4-(क) नि० गा० ८६ : धम्मो गुणा अहिंसाइया उ ते परममंगल पइन्ना। (ख) जि० चू० पृ० १५ : अहिंसातवसंजमलक्खणे धम्मे ठिओ तस्स एस णिद्देसोत्ति । Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुमपुफिया ( द्रुमपुष्पिका ) अध्ययन १ :श्लोक १ टि० ३-५ ३. उत्कृष्ट मंगल ( मंगल मुक्किट्ठ क ) : जिससे हित हो, कल्याण सधता हो, उसे मंगल कहते हैं। मंगल के दो भेद हैं :-(१) द्रव्य-मंगल-औपचारिक या नाममात्र के मंगल और (२) भाव-मंगल-वास्तविक मंगल । संसार में पूर्ण-कलश, स्वस्तिक, दही, अक्षत, शंख-ध्वनि, गीत, ग्रह आदि मंगल माने जाते हैं। इनसे धन-प्राप्ति, कार्य-सिद्धि आदि मानी जाती है। ये लौकिक मंगल हैं-लोक-दृष्टि में मंगल हैं, पर ज्ञानी इन्हें मंगल नहीं कहते, क्योंकि इनसे आत्मा का कोई हित नहीं सधता । आत्मा के उत्कर्ष के साथ सम्बन्ध रखनेवाला मंगल भाव-मंगल' कहलाता है। धर्म आत्मा की शुद्धि या सिद्धि से सम्बन्धित है, अत: वह भाव-मंगल है । धर्म ऐकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल है। वह ऐसा मंगल है जो सुख ही सुख रूप है। साथ ही वह दुःख का आत्यन्तिक क्षय करता है, जिससे उसके अंकुर नहीं रह पाते। द्रव्य मंगलों में ऐकान्तिक सुख व आत्यन्तिक दुःख-विनाश नहीं होता। धर्म आत्मा की सिद्धि करने वाला, उसे मोक्ष प्राप्त कराने वाला होता है (सिद्धि त्ति काउणं-नि० ४४) । वह भव-जन्म-मरण के बन्धनों को गलाने वाला-काटने वाला होता है (भवगालनादिति--नि० ४४; हा० टी० प० २४) । संसार-बंधन से बड़ा कोई दुःख नहीं। संसारमुक्ति से बड़ा कोई सुख नहीं। मुक्ति प्रदान करने के कारण धर्म उत्कृष्ट मंगल अनुत्तर मंगल है। ४. अहिंसा ( अहिंसा ख ) : हिंसा का अर्थ है दुष्प्रयुक्त मन, वचन या काया के योगों से प्राण-व्यपरोपण करना । अहिंसा हिंसा का प्रतिपक्ष है । जीवों का अतिपात न करना अहिंसा है अथवा प्राणातिपात-विरति अहिंसा है । "जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सब जीवों को है। जैसे मैं जीने की कामना करता हूँ वैसे ही सब जीव जीने की इच्छा करते हैं, कोई मरने की नहीं । अतः मुझे किसी भी जीव को अल्प से अल्प पीड़ा भी नहीं पहुँचानी चाहिए"-ऐसी भावना को समता या आत्मौपम्य कहते हैं । 'सूत्रकृताङ्ग' में कहा है-"जैसे कोई बेंत, हड्डी, मुष्टि, कंबर, ठिकरी आदि से मारे, पीटे, ताड़े, तर्जन करे, दुःख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राग-हरण करे तो मुझे दु.ख होता है; जैसे मृत्यु से लगाकर रोम उखाड़ने तक से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को होता है-यह सोच कर किसी भी प्राणी भूत, जीव और सत्त्व को नहीं मारना चाहिए, उस पर अनुशासन नहीं करना चाहिए, उसे उद्विग्न नहीं करना चाहिए। यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है।" यहाँ 'अहिंसा' शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत है। इसलिए मृषावाद-विरति, अदत्तादान-विरति, मैथुन-विरति, परिग्रह-विरति भी इसमें समाविष्ट हैं। ५. संयम ( संजमो ख ) : जिनदास महत्तर के अनुसार 'संयम' का अर्थ है "उपरम'। राग-द्वेष से रहित हो एकी भाव-समभाव में स्थित होना संयम है | हरिभद्र सूरि ने संयम का अर्थ किया है-"आश्रवद्वारोपरमः"- अर्थात् कर्म आने के हिंसा, मृषा, अदत्त, मैथुन और परिग्रह ये जो पाँच १- हा० टी० ५०३ : मंग्यले हितमनेनेति मंगलं, मंग्यतेऽधिगम्यते साध्यते इति । २(क) नि० गा० ४४ : दवे भावेऽवि अ मंगलाई दवम्मि पुण्णकलसाई। धम्मो उ भावमंगलमेत्तो सिद्धित्ति काऊण ॥ (ख) जि० चू० पृ० १६ : जाणि दव्वाणि चेव लोगे मंगलबुद्धीए घेप्पंति जहा सिद्धत्थगदहिसालिअक्खयादीणि ताणि दव्वमंगल, भावमंगलं पुण एसेव लोगुत्तरो धम्मो, जम्हा एत्थ ठियाण जीवाणं सिद्धी भवइ। ३- (क) जि० चू० पृ० १६ : दव्वमंगलं अणेगंतिगं अणच्चन्तियं च भवति, भावमंगलं पुण एगतियं अच्चंतियं च भवइ । (ख) नि० गा० ४४, हा० टी० प० २४ : अयमेव चोत्कृष्टं प्रधान मंगलम्, ऐकान्तिकत्वात् आत्यन्तिकत्वाच्च, न पूर्णकलशादि, तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च । ४-जि० चू० पृ० १५ : उक्किट्ठणाम अणुत्तरं, ण तओ अण्णं उक्किट्ठयरंति । ५--जि० चू० पृ० २० : मणवयणकाएहि जोएहिं दुप्पउत्तेहिं जं पाणववरोवणं कज्जइ सा हिंसा। ६--नि० गा० ४५ : हिंसाए पडिवक्खो होइ"अहिंसऽजीवाइवाओत्ति । ७-(क) जि० चू० पृ० १५ : अहिंसा नाम पाणातिवायविरती। (ख) दो० टीका पृ० १: न हिंसा अहिंसा जीवदया प्राणातिपातविरतिः । ८--सू०२.१.१५। ६-जि० चू० पृ० १५ : संजमो नाम उवरमो, रागद्दोसविरहियस्स एगिभावे भवइति । Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन १ : श्लोक १०६-७ द्वार हैं उनसे उपरमता --उनसे विरति । पर यहाँ 'संयम' शब्द का अर्थ अधिक व्यापक प्रतीत होता है । हिंसा आदि पाँच अविरतियों का त्याग, कषायों पर विजय, इन्द्रियों का निग्रह, समितियों (आवश्यक प्रवृत्तियों को करते समय विहित नियमों) का पालन तथा मन, वचन, काया की गुप्ति—ये सब अर्थ 'संयम' शब्द में अन्तनिहित हैं। अहिंसा की परिभाषा है-सब जीवों के प्रति संयम । संयम का अर्थ है ---हिसा आदि आश्रवों की विरति । इस तरह जो अहिंसा है वही संयम है । अत: प्रश्न उठता है-जब अहिंसा ही तत्त्वत: संयम है तब संयम का अलग उल्लेख क्या अयुक्त नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि संयम के बिना अहिंसा टिक नहीं सकती। अहिंसा का अर्थ है सर्व प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच महाव्रत। संयम का अर्थ है उनकी रक्षा के लिए आवश्यक नियमों का पालन । इस प्रकार संयम का अहिंसा पर उपग्रहकारित्व है। दूसरी बात यह है ...अहिंसा से केवल निवृत्ति का भाव परिलक्षित होता है। संयम में संयत प्रवृत्ति भी अन्तनिहित है। संयमी के ही भावतः सम्पूर्ण अहिंसा हो सकती है। अतः धर्म के अवयव रूप में अहिंसा के साथ संयम का उल्लेख आवश्यक है और किंचित् भी अयुक्त नहीं। ६. तप ( तवो ख ): जो आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थियों को तपाता है-उनका नाश करता है, उसे तप कहते हैं । तप बारह प्रकार का कहा गया है :---(१) अनशन -आहार-जल आदि का एक दिन, अधिक दिन वा जीवनपर्यन्त के लिए त्याग करना अर्थात् उपवास आदि करना; (२) ऊनोदरता...-आहार की मात्रा में कमी करना, पेट को कुछ भूखा रखना, क्रोधादि को न्यून करना, उपकरणों को न्यून करना; (३) भिक्षाचर्या-अभिग्रहपूर्वक भिक्षा का संकोच करना; (४) रस-परित्याग-दूध, मक्खन आदि रसों का त्याग तथा प्रणीत पानभोजन का वर्जन; (५) कायक्लेश-वीरासन आदि उग्र आसनों में शरीर को स्थित करना; (६) प्रतिसंलीनता --इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में राग-द्वेष न करना; अनुदीर्ण क्रोध आदि का निरोध तथा उदय में आए क्रोध आदि को विफल करना, अकुशल मन आदि का निरोध और कुशल मन आदि की प्रवृत्ति तथा स्त्री-पशु-नपुंसक-रहित एकान्त स्थान में वास; (७) प्रायश्चित्त-चित्त की विशुद्धि के लिए दोषों की आलोचना, प्रतिक्रमण आदि करना; (८) विनय-देव, गुरु और धर्म का विनय- उनमें श्रद्धा और उनका सम्यक् आदर, सम्मान आदि करना; (६) वयावृत्त्य-संयमी साधु की शुद्ध आहार आदि से निरवद्य सेवा करना; (१०) स्वाध्याय-अध्यापन, प्रश्न, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा--चिंतन और धर्मकथा; (११) ध्यान—आर्त्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान का त्याग कर धर्म्य-ध्यान या शुक्ल-ध्यान में आत्मा की स्थिरता और (१२) व्युत्सर्ग--काया की हलन-चलन आदि प्रवृत्तियों को छोड़ धर्म के लिए शरीर तथा उपधि आदि का व्युत्सर्ग करना। ७. लक्षरण हैं : प्रश्न होता है कि अहिंसा, संयम और तप से भिन्न कोई धर्म नहीं है और धर्म से भिन्न अहिंसा, संयम और तप नहीं हैं, फिर धर्म और अहिंसा आदि का पृथक् उल्लेख क्यों ? इसका समाधान यह है कि 'धर्म' शब्द अनेक अर्थों में व्यवहुत होता है। गम्य-धर्म आदि लौकिक-धर्म अहिंसात्मक नहीं होते। उन धर्मों से मोक्ष-धर्म को पृथक् करने के लिए इसके अहिंसा, संयम और तप-ये लक्षण बतलाए गए हैं। तात्पर्य यह है कि जो धर्म अहिंसा, संयम और तपोमय है वही उत्कृष्ट मंगल है, शेष धर्म उत्कृष्ट मंगल नहीं हैं। दूसरी बात -धर्म और अहिंसा आदि में कार्य-कारण भाव है। अहिंसा, संयम और तप धर्म के कारण हैं। धर्म उनका कार्य है। कार्य कथञ्चित् भिन्न होता है, इसलिए धर्म और उसके कारण-अहिंसा, संयम और तप का पृथक् उल्लेख किया गया है। घट और मिट्टी को अलग-अलग नहीं किया जा सकता, इस दृष्टि से वे दोनों अभिन्न हैं, किन्तु घट मिट्टी से पूर्व नहीं होता, इस दष्टि से दोनों भिन्न भी हैं। धर्म और अहिंसा को अलग-अलग नहीं किया जा सकता इसलिए ये अभिन्न हैं और अहिंसा के पूर्व धर्म नहीं होता इसलिये ये भिन्न भी हैं । धर्म और अहिंसा के इस भेदात्मक सम्बन्ध को समझाने और अहिंसात्मक-धर्मों से हिंसात्मक-धर्मों का पृथककरण करने के लिए १-(क) जि० चू० पृ० २०: सिस्सो आह—णणु जा चेव अहिंसा सो चेव संयमोऽवि । आयरियो आह --अहिंसागहणे पंच मह __ व्वयाणि गहियाणि भवंति । संयमो पुण तोसे चेव अहिंसाए उवग्गहे वट्टइ। संपुण्णाय अहिंसाय संयमोवि तस्स भवइ । (ख) नि० गा० ४६, हा० टी० ५० २६ : आह-अहिंसव तत्त्वतः संयम इतिकृत्वा तद्भेदेनास्याभिधानमयुक्तम्, न, संयमस्या हिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्, संयमिन एव भावत: खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसंगेन । २-जि० चू० पृ० १५ : तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं, नासेतित्ति वुत्तं भवइ । ३-नि० गा० ८६ : धम्मो गुणा अहिंसाइया उ ते परममंगल पइन्ना। Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुमपुफिया ( मपुष्पिका ) धर्म और अहिंसा आदि लक्षणों को अलग-अलग कहा गया है' । ८. देव भी ( देवा विग ) । जैन-धर्म में चारमति के जीव माने गये हैं-नरक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव इनमें देव सबसे अधिक ऐवशाली और प्रमुख ऐश्वर्यशाली वाले होते हैं। साधारण लोग उनके अनुग्रह को पाने के लिए उनकी पूजा करते हैं। यहाँ कहा गया है कि जिसकी आत्मा धर्म में लीन रहती है उस धर्मात्मा की महिमा देवों से भी अधिक होती है, क्योंकि मनुष्य की तो बात ही क्या लोकपूज्य देव भी उसे नमस्कार करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि नरपति आदि तो धर्मी की पूजा करते ही हैं, महाऋद्धि-सम्पन्न देव भी उसकी पूजा करते हैं । यह धर्म -पालन का आनुषंगिक फल है। यहाँ यह बतलाया गया है कि धर्म से धर्मी की आत्मा के उत्कर्ष के साथ-साथ उसे असाधारण सांसारिक पूजा- मान-सम्मान आदि भी स्वयं प्राप्त होते हैं। पर धर्म से आनुषंगिक रूप में सांसारिक ऋद्धियाँ प्राप्त होने पर भी धर्म का पालन ऐसे सावद्य हेतु के लिए नहीं करना चाहिए। 'नम्नत्व निज्जरवाएं निर्जश के अतिरिक्त अन्य किसी हेतु से धर्म की आराधना न की जाय, यह भगवान् की आज्ञा है । श्लोक २ : ह अध्ययन १ श्लोक २-३ टि० ६-१२ ६. थोड़ा-थोड़ा पीता है ( आवियइ ख ) : 'आदि' का अर्थ है घोड़ा-थोड़ा पीना अर्थात् मर्यादापूर्वक पीना तात्पर्य है जिस प्रकार फूलों से रसग्रहण करने में अमर मर्यादा से काम लेता है उसी प्रकार गृहस्थों से आहार की गवेषणा करते समय भिक्षु मर्यादा से काम ले – थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे । १०. किसी भी पुष्प को ( पुप्फंग ) : - द्वितीय श्लोक के प्रथम पाद में 'पुप्फेसु' बहुवचन में है। तीसरे पाद में 'पुष्क' एकवचन में है। 'न य पुप्फ' का अर्थ है – एक भी पुष्प को नहीं – किसी भी पुष्प को नहीं । ११. म्लान नहीं करता ( न य किलामेइ ग ) : यह मधुकर की वृत्ति है कि वह फूल के रूप व या गन्ध को हानि नहीं पहुंचाता। इसी प्रकार भ्रमण भी किसी को वेदन्नि किये बिना, जो जितना प्रसन्न मन से दे उतना ले। 'धम्मपद' (पुप्फवग्गो ४.६ ) में कहा है : यथापि भमरो पुप्फं वण्णगन्धं अहेव्यं । पलेति रसमादाय एवं गाने सुनी चरे ॥ - जिस प्रकार फूल या फूल के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुँचाये भ्रमर रस को लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गाँव में विचरण करे । श्लोक ३ : १२. ( एमेए क ) : 'अगस्त्य - चूर्णि' में 'एमेए' ( एवम् एते) के ' एवं ' के 'व' का लोप माना है । प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'एवमेव' का रूप 'एमेव' बनता है'। 'एमेव' पाठ अधिक उपयुक्त है। किन्तु सभी आदर्शों और व्याख्याओं में 'एमेए' पाठ मिलता है, इसलिए मूलपाठ उसी को माना है । १- (क) जि० चू० पृ० ३७-३८ : सीसो आह- धम्मग्गहणेण चेव अहिंसासंजमतवा घेप्यंति, कम्हा ? जम्हा अहिंसा संजमे तव चैव धम्मो भवइ, तम्हा अहिंसासंजमतवग्गहणं पुनरुत्तं काऊण ण भणियध्वं । आचार्याह- अनैकान्तिकमेतत्, अहिंसासंजमतवा हि धर्मस्य कारणानि, धर्मः कार्य, कारणाच्च कार्यं स्याद् भिन्नं कथमिति ? अत्रोच्यते, अन्यत्कार्यं कारणात् अभियानप्रयोजनमेवदर्शनात् पटपडवत्अहवा अहिंसासंजमतवगह सीसस्स संदेहो नय पम्मबहु कतरो एसि सम्मपदेसादीनं धम्माणं मंगल मूषिक भव ? अहिंसासंगमतवाले पुण नजर जो अहिंसाम मंगल भवइ । (ख) नि० ० ४८, हा० टी० १० १२ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपत्र हणमयुक्तं तस्य अहिंसासंयमतपोपत्वाव्यभिचारादिति, उच्यते, न अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाद्धर्म्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कथञ्चिद्भेदात् कथञ्चिद्भेदश्च तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात् उक्तं च- ' णत्थि पुढवीविसिट्ठो घडोत्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो । जं पुण घडुत्ति पुव्वं नासी पुढवी तो अम्मी' गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन सरस्वरूपज्ञापनार्थ वाऽहिंसादिग्रहणमदृष्टं इति । २- अ० चू० पृ० ३२ : वकारलोपो सिलोगपायाणुलोमेणं । ३-०८-१-२०१ मालाजीवितावर्तमानावटप्रावारक देवकुमेवेयः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेप्रालियं ( दशवकालिक ) अध्ययन १ : श्लोक ३ टि. १३-१४ १३. मुक्त ( मुत्ता क ) : पुरुष चार प्रकार के होते हैं (१) बाह्य परिग्रह से मुक्त और आसक्ति से भी मुक्त । (२) बाह्य परिग्रह से मुक्त किन्तु आसक्ति से मुक्त नहीं । (३) बाह्य परिग्रह से मुक्त नहीं किन्तु आसक्ति से मुक्त । (४) बाह्य परिग्रह से मुक्त नहीं और आसक्ति से भी मुक्त नहीं । यहाँ 'मुक्त' का अर्थ है-ऐसे उत्तम श्रमण जो बाह्य-परिग्रह और आसक्ति दोनों से मुक्त होते हैं । १४. श्रमण ( समणा क ) : 'समण' के संस्कृत रूप-...समण, समनस्, श्रमण और शमन-ये चार हो सकते हैं। व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ_ 'समण' का अर्थ है सब जीवों को आत्म-तुला की दृष्टि से देखनेवाला समता-सेवी । 'समनस्' का अर्थ है राग-द्वेष रहित मनवालामध्यस्थवृत्ति वाला । ये दोनों आगम और नियुक्तिकालीन निरुक्त हैं। इनका सम्बन्ध 'सम' (सममणति और सममनस्) शब्द से ही रहा है। स्थानाङ्ग-वृत्ति में 'समन' का अर्थ पवित्र मनवाला भी किया गया है । टीका-साहित्य में 'समण' को 'श्रम' धातु से जोड़ा गया और उसका संस्कृत रूप बना 'श्रमण' । उसका अर्थ किया गया है.----तपस्या से श्रान्त या तपस्वी । 'शमन' की व्याख्या हमें अभी उपलब्ध नहीं है। ___'समण' को कैसा होना चाहिए या 'समण' कौन हो सकता है-यह नियुक्ति में उपमा द्वारा समझाया गया है। प्रवृत्तिलभ्य अर्थ समण' की व्यापक परिभाषा 'सूत्रकृताङ्ग' में मिलती है। “जो अनिश्रित, अनिदान ----फलाशंसा से रहित, आदानरहित, प्राणातिपात, मृषावाद, बहिस्तात् अदत्त, मैथुन और परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष और सभी आस्रवों से विरत, दान्त, द्रव्य - मुक्त होने के योग्य और व्युत्सृष्ट-काय-- शरीर के प्रति अनासक्त है, वह समण कहलाता है । पर्यायवाची नाम 'समण' भिक्षु का पर्याय शब्द है । भिक्षु चौदह नामों से वचनीय है। उनमें पहला नाम 'समण' है। सब नाम इस प्रकार हैं -- समण, माहन (ब्रह्मचारी या ब्राह्मण), क्षान्त, दान्त, गुप्त, मुक्त, ऋषि, मुनि, कृती (परमार्थ पंडित), विद्वान्, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी और चरण-करण पारविद् । - नियुक्ति के अनुसार प्रवजित, अन गार, पाखण्डी, चरक, तापस, परिव्राजक, समण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्राता, द्रव्य, मुनि, १-ठा० ४.६१२:चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं० मुत्ते णाममेगे मुत्ते, मुत्ते णाममेगे अमुत्ते, अमुत्ते णाममेगे मुत्ते, अमुत्ते णाममेगे अमुत्ते। २ हा० टी० प०६८ : 'मुक्ता' बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन। ३-नि० गा० १५४ : जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो॥ ४-नि० गा० १५५-१५६ : नत्थि य सि कोई वेसो पिओ व सब्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ। तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु॥ ५- स्था० टीका पृ० २६८ : सह मनसा शोभनेन निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसः । ६- सू० १.१६.१ टी०प० २६३ । श्राम्यति --तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः ॥ ७-हा० टी०प०६८ : श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः । ८-नि० गा० १५७ : उरग-गिरि-जलण-सागर-नहयल-तरुगण समो य जो होइ । भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो जओ समणो॥ ६-सू० १.१६.२ : एत्थवि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च, अतिवायं च, मुसावायं च, बहिद्धच, कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पिज्जं च, दोसं च, इच्चेव जओ जओ आदाणं अप्पणो पद्दोसहेऊ तओ तओ आदाणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाया सिआदते दविए वोसट्टकाए समणेत्ति वच्चे। १०–सू० २.१.१५ : उपसंहारात्मक अंश : से भिक्खू परिण्णायकम्मे परिण्णायसंगे परिण्णायगेहवासे उवसते समिए सहिए सया जए, सेवं वयणिज्जे, तजहा-समणेति वा, माहणेति वा, खंतेति वा, दंतेति वा, गुत्तेति वा, मुत्तेति वा, इसीति वा, मुणीति वा, कतीति वा, विऊति वा, भिक्खूति वा, लूहेति वा, तोरट्ठीति वा, चरण-करण-पारविउति बेमि । Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुमपुष्किया ( मपुष्पिका ) ११ । क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरार्थी ( तीरस्थ) ये 'समण' के पर्यायवाची नाम हैं प्रकार -'समण' के पांच प्रकार हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवक' । १५. संति साहो ( ख ) : 'संति' के संस्कृत रूप 'संति' और 'शान्ति' दो बनते हैं । 'सन्ति' अस् धातु का बहुवचन है । 'सन्ति साहुणो' अर्थात् साधु हैं । 'शान्ति' के कई अर्थ उपलब्ध होते हैं- सिद्धि, उपशम, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, अकुतोभय और निर्वाण इस व्याख्या के अनुसार 'सन्ति साहो' का अर्थ होता है --सिद्धि आदि की साधना करनेवाला । चूर्णि और टीका में इसकी उक्त दोनों व्याख्याएँ मिलती हैं। आगम में 'सन्ति' हिंसा विरति अथवा शान्ति के अर्थ में भी व्यवहृत हुआ है । उसके अनुसार इसका अर्थ होता है-अहिंसा की साधना करनेवाला अथवा शान्ति की साधना करनेवाला । प्रस्तुत प्रकरण में 'समण' शब्द निर्ग्रन्थ श्रमण का द्योतक है । ख ) अध्ययन १ श्लोक ३ टि० १५-१७ : १६. साधु हैं (सायो 'साधु' शब्द का अर्थ है- सम्यक् ज्ञान-दर्शन- चारित्र के योग से अपवर्ग-मोक्ष की साधना करने वाला। जो छह जीवनिकाय का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर उनकी हिसा करने कराने और अनुमोदन करने से सर्वथा विरत होते हैं तथा अहिंसा, सत्य, अनीयं ब्रह्म और अपरिग्रह इन पाँचों में सकल दुःख क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं, वे साधु कहलाते हैं । . घ १७. दान भक्त ( दाणभत्त ): श्रमण साधु सर्वथा अपरिग्रही होता है । उसके पास रुपये पैसे नहीं होते । शिष्य पूछता है- 'तब तो जैसे भ्रमर फूलों से रस पीता है। वैसे ही साधु क्या वृक्षों के फल और कन्द-मूल आदि तोड़कर ग्रहण करें ?' ज्ञानी कहते हैं- 'श्रमण फल-फूल, कन्द-मूल कैसे ग्रहण करेगा ? ये जीव हैं और वह सम्पूर्ण अहिंसा का व्रत ले चुका है। वृक्षों के फल आदि को ग्रहण करना वृक्ष सन्तान की चोरी है ।' शिष्य पूछता है- 'तब क्या श्रमण आटा-दाल आदि माँग कर आहार पकाएं ?' ज्ञानी कहते हैं- 'अग्नि जीव है। पचन-पाचन आदि क्रियाओं-आरम्भों में अग्नि, जल आदि जीवों का हनन होगा । अहिंसक श्रमण ऐसा नहीं कर सकता। शिष्य पूछता है 'तब श्रमण उदरपूर्ति कैसे करें ?" ज्ञानी कहते हैं वह दानभवत - दत्तभक्त की गवेषणा करे। चोरी से बचने के लिये वह दाता द्वारा दिया हुआ ले। बिना दी हुई कोई चीज कहीं से न ले और दत्त ले- अर्थात् दाता के घर स्व प्रयोजन के लिए बना प्रासुक- निर्जीव ग्रहण योग्य जो आहार पानी हो वह ले" । ऐसा करने से वह अहिंसा-व्रत की अक्षुण्ण रक्षा कर सकेगा ।' शिष्य ने पूछा- 'भ्रमर बिना दिया हुआ कुसुम-रस पीते हैं और श्रमण दत्त ही ले सकता है, तब श्रमरण को भ्रमर की उपमा क्यों दी गई है ?' आचार्य कहते हैं- 'उपमा एकदेशीय होती है। इस उपमा में अनियतवत्तिता १ - नि० गा० १५८, १५६ : पन्वइए अणगारे पासंडे चरग तावसे भिक्खू । परिवाइये य समणे निग्गंथे संजए मुते ॥ तिने ताई दविए मुणीय खंते य दंत विरए य । लूहे तोरट्ठेऽविय हवंति समणस्स नामाइ ॥ २- हा० टी० प० ६८ : निग्गंथसक्कताव सगेरुयआजीव पंचहा समणा । ३- (क) हा० टी० प० ६८ : सन्ति-विद्यन्ते शान्ति :- सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्तिसाधवः । (ख) अ० चू० पृ० ३२, ३३: सन्ति विज्जंति खेत्तंतरेसुवि एवं धम्मताकहणत्थं । अहह्वा सन्ति - सिद्धि साधेंति संतिसाधवः । उवसमो वासन्ती तं सार्हेति सन्तिसाहवो । नेव्वाण - साहणेण साधवः । (ग) जि० ० पृ० ६६ शान्तिनाम ज्ञानदर्शनचारित्राणि अभिधीयन्ते तामेव गुणविशिष्ट शान्ति साधयन्तीति सामयः, अहवा संति अकुतोभयं भण्णइ । ४ – (क) सू० १.११.११ उड्ढ अहे य तिरियं जे केइ तस्थावरा । सम्वत्थ विरति विज्जा, सन्ति निव्वाणमाहियं । 1 (ख) उत्त० १२.४४ : कम्मेहा संजमजोगसंती । उत्त० १८.३८ : संती संतिकरे लोए । ५ - नि० ० गा० १४६, हा० टी० प० ७६: साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगं रपवर्गमिति साधवः । ६- ( क ) नि० गा० ६३, हा० टी० प० ६३ : प्रव्रजिताः षड्जीव निकायपरिज्ञानेन कृतकारितादिपरिवर्जनेन च । (ख) भा०गा० १, हा० टी० प० ६३ : एस पइन्नासुद्धी, हेऊ अहिंसाइएस पंचसुवि। सब्भावेण जयंती, हेउविसुद्धी इमा तत्थ ॥ ७--- (क) लि० गा० १२३ सि दत्तगिष्ण भले भज सेव फागेणया एसगतिगंमि निरया उपसंहारस्स सुद्धि हमा।। दन्तिनादसम्भवत तदपि भक्तं प्रामुकं न पुनराधकर्मादि । दानभक्तैषणे - दात्रा दानाय आनीतस्य भक्तस्य एषणे । (ख) हा० टी० प० ६ (ग) तिलकाचार्य वृत्ति Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेनालियं ( दशवैकालिक ) अध्ययन १: श्लोक ३-४ टि०१८-२० आद धर्मों से श्रमण की भ्रमर के साथ तुलना होती है, किन्तु सभी धर्मों से नहीं । भ्रमर अदत्त रस भले ही पीता हो किन्तु श्रमण अदत्त लेने की इच्छा भी नहीं करते। १८. एषणा में रत ( एसणे रया घ): साधु को आहारादि की खोज, प्राप्ति और भोजन के विषय में उपयोग- सावधानी रखनी होती है, उसे एषणा-समिति कहते हैं । एषणा तीन प्रकार की होती हैं : (१) गोचर्या के लिये निकलने पर साधु आहार के कल्प्याकल्प्य के निर्णय के लिये जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है, उसे गो । एषणा गवेषणा कहते हैं । (२) आहार आदि को ग्रहण करते समय साधु जिन-जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है, उसे ग्रहणपणा कहते हैं। (३) मिले हुए आहार का भोजन करते समय साधु जिन नियमो का पालन अथवा दोषों का निवारण करता है, उन्हें परिभोगेषणा कहते हैं।' नियुक्तिकार ने यहाँ प्रयुक्त 'एषणा' शब्द में तीनों एषणाओं को ग्रहण किया है । अगस्त्यसिह चूणि और हारिभद्रीय टीका में भी ऐसा ही अर्थ है । जिनदास महत्तर 'एषणा' शब्द का अर्थ केवल गवेषणा करते हैं । एषणा में रत होने का अर्थ है—एषणा-समिति के नियमों में तन्मय होना —पूर्ण उपयोग के साथ समस्त दोषों को टालकर गवेषणा आदि करना। श्लोक ४: १६. हम ( वयं क ) : गुरु शिष्य को उपदेश देते हैं कि यह हमारी प्रतिज्ञा है-"हम इस तरह से वृत्ति—भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो।" यहाँ प्रथम पुरुष के प्रकरण में जो उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ है उसके आधार पर अन्य कल्पना भी की जा सकती है । ५।२।५ और ८।२० के श्लोक के साथ जैसे एक-एक घटना जुड़ी हुई है, वैसे यहाँ भी कोई घटना जुड़ी हुई हो, यह सम्भव है । वहाँ (जि. चू० पृ० १९५, २८०) वर्णिकार ने उसका उल्लेख किया है, यहाँ न किया हो । जैसे कोई श्रमण भिक्षा के लिए किसी नवागन्तुक भक्त के घर पहुँचे । गृहस्वामी ने वन्दना की और भोजन लेने के लिए प्रार्थना की। श्रमण ने पूछा--- "भोजन हमारे लिए तो नहीं बनाया ?" गृहस्वामी सकुचाता हुआ बोला...."इससे आपको क्या ? आप भोजन लीजिये।" श्रमण ने कहा- "ऐसा नहीं हो सकता । हम उद्दिष्ट-अपने लिए बना भोजन नहीं ले सकते ।" गृहस्वामी---"उद्दिष्ट भोजन लेने से क्या होता है ?" श्रमण_"उद्दिष्ट भोजन लेनेवाला श्रमण बस-स्थावर जीवों की हिंसा के पाप से लिप्त होता है।" गृहस्वामी--"तो आप जीवन कैसे चलायेंगे ?" श्रमण --"हम यथाकृत भोजन लेगे।" २०. यथाकृत ( अहागडेसु " ) : __गृहस्थों के घर आहार, जल आदि उनके स्वयं के उपयोग के लिए उत्पन्न होते रहते हैं । अग्नि तथा अन्य शस्त्र आदि से परिणत अनेक प्रासुक निर्जीव वस्तुएँ उनके घर रहती हैं। इन्हें 'यथाकृत' कहा जाता है। इनमें से जो पदार्थ सेव्य हैं, उन्हें श्रमण लेते हैं। १- (क) नि० गा० १२६ : उवमा खलु एस कया पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया। अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसअणुपालणट्ठाए । (ख) नि० गा० १२४ : अवि भमरमहुयरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवंतो नादिन्नं भोत्तुमिच्छति ॥ २ ---उत्त० २४ : २ : इरियाभासेसणादाणे उच्चारे समिई इय । ३ -(क) उत्त० २४ : ११ : गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणाय य । आहारोवहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए। (ख) उत्त० २४ : १२ : उग्गमुप्पायण पढमे बीए सोहेज्ज एसण । परिभोयम्मि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई॥ ४-नि० गा० १२३ : एसणतिगंमि निरया॥ ५--(क) अ० चू० : एसगे इति गवेषण-गहण-घासेसणा सूइता । (ख) हा० टी० प०६८ : एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रहः । ६- जि० चू० पृ० ६७ : एसणागहणेण दसएसणादोसपरिसुद्ध गेण्हंति, ते य इमे तंजहा :-- ___संकियमक्खियनिक्खित्तपिहियसाहरियदायगुम्मोसे । अपरिणयलित्तछड्डिय एसणदोसा दस हवंति ॥ ७-भा. गा० ३, हा० टी० ५० ६४ : अप्फासुयकयकारियअणुमय उद्दिट्ठभोइणो हंदि । तसथावरहिसाए जणा अकुसला उ लिप्पति । ८-हा० टी०प०७२ : 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिर्वतितेष्वाहारादिषु । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुमपुफिया ( द्रुमपुष्पिका) अध्ययन १: श्लोक ५ टि०२१-२३ उपमा की भाषा में -जैसे द्रुम स्वभावतः पुष्प और फल उत्पन्न करते हैं वैसे ही नागरिकों के गृहों में स्वभावत: आहार आदि निष्पन्न होते रहते हैं। जैसे भ्रमर अदत्त नहीं लेते वैसे मुनि भी अदत्त नहीं लेते । जैसे भ्रमर स्वभाव-प्रफुल्ल, प्रकृति-विकसित कुसुम से रस लेते हैं, वैसे ही श्रमण यथाकृत आहार लेते हैं । तृण के लिए वर्षा नहीं होती, हरिण के लिए तृण नहीं बढ़ते, मधुकर के लिए पेड़-पौधे पुष्पित नहीं होते। बहुत से ऐसे भी उद्यान हैं जहाँ मधुकर नहीं हैं, वहाँ भी पेड़-पौधे पुष्पित होते हैं। पुष्पित होना उनकी प्रकृति है। गृहस्थ श्रमणों के लिए भोजन नहीं पकाता । बहुत सारे गाँव और नगर ऐसे हैं जहाँ श्रमण नहीं जाते । भोजन वहाँ भी पकता है। भोजन पकाना गृहस्थ की प्रकृति है। थमण ऐसे यथाकृत- सहज-सिद्ध भोजन की गवेषणा करते हैं, इसलिए वे हिंसा से लिप्त नहीं होते। श्लोक ५: २१. अनिश्रित हैं ( अपिस्सिया ख ) : मधुकर किसी एक फूल पर आश्रित नहीं होता । वह भिन्न-भिन्न फूलों से रस पीता है, कभी किसी पर जाता है और कभी किसी पर । उसकी वृत्ति अनियत होती है । श्रमण भी इसी तरह अनिश्रित हो । वह किसी एक पर निर्भर न हो । वह अप्रतिबद्ध हो । २२. नाना पिंड में रत हैं ( नाणापिण्डरयाग ) : इसका अर्थ है, साधु-- (१) अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे । (२) कहाँ, किमसे, किस प्रकार से अथवा कैसा भोजन मिले तो ले, इस तरह के अनेक अभिग्रहपूर्वक अथवा भिक्षाटन की नाना विधियों से भ्रमण करता हुआ ले । (३) विविध प्रकार का नीरस आहार ले। जो भिक्षु इस तरह किसी एक मनुष्य या घर पर आश्रित नहीं होता तथा आहार की गवेषणा में नाना प्रकार के वृत्तिसंक्षेप से काम लेता है वह हिंसा से सम्पूर्णतः बच जाता है और सच्चे अर्थ में साधुत्व को सिद्ध करता है। २३. दान्त हैं (दंता" ): साधु के गुणों का उल्लेख करते हुए 'दान्त' शब्द का प्रयोग सूत्रों में अनेक स्थलों पर हुआ है । 'उत्तराध्ययन' में आठ 'सूत्रकृतांग' में नौ और प्रस्तुत सूत्र में यह शब्द सात बार व्यवहृत हुआ है । साधु दान्त हो, यह भगवान् को अत्यन्त अभीष्ट था। शीलांकाचार्य ने 'दान्त' शब्द का अर्थ किया है-इन्द्रियों को दमन करनेवाला । पूणिकार भी यही अर्थ करते हैं। सूत्र के अनुसार 'दान्त' शब्द का अर्थ है-संयम और तप से आत्मा को दमन करनेवाला। जो दूसरों के द्वारा वध और बन्धन से दमित किया जाता है, वह द्रव्य-दान्त होता है, भाव-दान्त नहीं । भाव-दान्त वह साधु है जो आत्मा से आत्मा का दमन करता है। 9 १--नि० गा० १२७ : जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा। जह भमरा तह मुणिणो नवरि अदत्तं न भुति । २-नि० गा० १२८ : कुसुमे सहावफुल्ले आहारन्ति भमरा जह तहा उ.। भत्तं सहावसिद्ध समणसुविहिया गवेसंति ॥ ३ - नि० गा० ६६ : वासइ न तणस्स कए न तण वडढइ कए मयकुलाण । न य रूक्खा सयसाला फुल्लति कए महुयराण ॥ ४--नि० गा० १०६ : अस्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ न उति न वसति। तत्थावि पुष्फंति दुमा पगई एसा दुमगणाण ॥ ५-नि० गा० ११३ : अत्थि बहुगामनगरा समणा जत्थ न उति न वसंति। तत्थवि रंधति गिही पगई एसा गिहत्थाणं ॥ ६-नि० गा० १२६ : उवसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजीवित्ति । ७-जि०चू० पृ०६८: अणिस्सिया नाम अपडिबद्धा। --सू० २.२.२४ । —(क) जि० चू० पृ०६६ : णाणापिण्डरया णाम उक्खित्तचरगादी पिंडस्स अभिग्गहविसेसेण णाणाविधेसु रता, अहवा अंतपंता ईसु नाणाविहेसु भोयणेसु रता, ण तेस् अरइ करति । भणितं च - जं व तं च आसिय जत्थ व तत्थ व सुहोवगतनिद्दा । जेण व तेण संतुट्ठ धीर ! मुणिओ तुमे अप्पा॥ (ख) नि० गा० १२६; हा० टी०प० ७३: नाना - अनेकप्रकारोऽभिग्रह विशेषात्प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच्च पिंड --आहारपिण्डः, नाना चासो पिडश्व नानापिण्ड :, अन्तप्रान्तादिर्वा, तस्मिन् रता-अनुढेगवन्तः । १०-सू०१६.१ टी० पृ० ५५५ : दान्त इन्द्रियदमनेन । ११-उत्त०१:१६ : वरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य । माहं परेहि दम्मतो बंधणेहि वहेहि य॥ . Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) * अध्ययन १ श्लोक ५ टि० २४ यह शब्द लक्ष्य के बिना जो नानापिण्ड रत जीव हैं उनसे साधु को पृथक् करता है। नानापिण्ड रत दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य से और भाव से अश्य, गज आदि प्राणी लक्ष्यपूर्वक नानापिष्ट-रत नहीं होते, इसलिये वे भाव से दान्त नहीं बनते साधु नानाविण्ड-रत होने के कारण भावतः दान्त होते हैं' । पूर्वक २४. वे अपने इन्हीं गुणों से साधु कहलाते हैं ( तेण युच्वंति साहूणो ) : घ इस अध्ययन में अप्रत्यक्ष रूप से साधु के कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण गुणों का उल्लेख है जिनसे साधु साधु संयम और तपमय धर्म में रमा हुआ होना चाहिए। वह वाह्य आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त, शान्ति की साधना चाहिए। वह अपनी आजीविका के लिए किसी प्रकार का आरम्भ समारम्भ न करे। वह अदत्त न ले । अपने लिए वह भिक्षावृत्ति पर निर्भर हो । वह माधुकरी वृत्ति से भिक्षाचर्या करे । यथाकृत में से प्रासुक ले । वह किसी एक पर आश्रित न हो । यहाँ कहा गया है कि ये ही ऐसे गुण हैं जिनसे साधु साधु कहलाता है । अगस्त्य सिंह पूणि के अनुसार वेग पुष्यति साहो' का भावार्य है वे नानापिटर हैं, इसलिए साधु हैं । जिनदास लिखते हैं-- श्रमण अपने हित के लिए त्रस स्थावर जीवों की यतना रखते हैं इसलिए वे साधु हैं । एक प्रश्न उठता है कि जो अन्यतीर्थी हैं वे भी त्रस स्थावर जीवों की यतना करते हैं - अतः वे भी साधु क्यों नहीं होंगे ? उसका उत्तर नियुक्तिकार इस प्रकार देते हैं— 'जो सद्भावपूर्वक त्रस स्थावर जीवों के हित के लिए यत्नवान् होता है, वही साधु होता है । अन्यतीर्थी सद्भावपूर्वक यतनायुक्त नहीं होते । वे छहकाय की यतना को नहीं जानते। वे उद्गम, उत्पात आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते । वे मधुकर की तरह अवधजीवी नहीं होते और न तीन गुप्तियों से युक्त होते हैं। उदाहरणस्वरूप कई श्रमण औद्देशिक आहार में, जिसमें कि जीवों की प्रत्यक्ष घात होती है, कर्मबन्ध नहीं मानते। कई श्रमणों का जीवन सूत्र ही है- "भोगों की प्राप्ति होने पर उनका उपभोग करना चाहिए ।" ऐसे श्रमण अज्ञानरूपी महासमुद्र में डूबे हुए होते हैं । अत: उन्हें साधु कैसे कहा जाय ? साधु होते हैं- जो मन, वचन, काया और पाँचों इन्द्रियों का दमन करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, कषायों को संयमित करते हैं तथा तप से युक्त होते हैं। ये साधु के सम्पूर्ण लक्षण हैं । इन्हीं से कोई साधु कहलाता है। जिसमें ये गुण नहीं, वह साधु नहीं हो सकता । जो जिनवचन में अनुरक्त हैं, वे ही साधु हैं क्योंकि वे निकृति-रहित और चरण-गुण से युक्त हैं" । वे उपसंहार में अगत्स्यसिंह कहते हैं "अहिंसा, संयम, तप आदि साधनों से युक्त, मधुकरवत् अवध-आहारी साधु के द्वारा साहित धर्म ही उत्कृष्ट मंगल होता है । १- जि० ० ५० ६२ णाणापिण्डरता दुविधा भवति, तंजहादग्यजी भावओ य दव आसहत्यिमादि ते गोता भावज ( साहवो पुणो ) इंदिएसु दन्ता । कहलाता है । साधु अहिंसा, करनेवाला और दान्त होना संयमी जीवन के निर्वाह के २ - अ० चू० पृ० ३४ : जेण मधुकारसमा नाणापिंडरता य तेण कारणेण । ३- जि० चू० पृ० ७० : जेण कारणेण तस्थावराण जीवाणं अप्पणो य हियत्थं च भवइ तहा जयंति अतो य ते साहुणो भण्णंति । ४नि० गा० १३० तलावर जयंति सम्भावि साहू || अ० ० पृ० ३४ जति कति तितरिया व अहिंसादिना इति सि पि धम्मो नविस्तति तत्थ समत्यमिगुत्तरं ते वाजत जागति ण या उग्यमउप्पाणामुद्ध मधुकर वदवरोह भुजति ण वा तिहि गुतीहि गुला ६- जि० चू० पृ० ७० : जहा जइ कोई भणेज्जा परिव्वायगरत्तपडादिणो तस्थावरभूत हितत्थमप्पहितत्थं च जयंता साहुणो भविसंति, तं च व भवइ, जेण ते सब्भावओ ण जयंति, कहं न जयंति ?, तत्थ सक्काणं जं उद्दिस्स सत्तोवघातो भवइ ण तत्थ तेसि कम्मबंधो भवइ, परिव्वायगा नाम जइ किर तेसि सद्दाइजो विसया इंदिघगोयरं हव्वमागच्छंति, भणियं तसि 'इंदियविसयपत्ताणं उपयोगी काव्यों एवं ते अण्णाणमहासममोपाहा पटुप्पण्णमारिया जीवा तापि आलंबणाणि काऊ तमेव परि किसा गिहवासं अवलंबयंति । ७- नि० गा० १३५, १३६ : कार्य वायं च मणं च इंदियाई च पंच दमयंति । धारेति बंभचेर संजयंति कसाए य ॥ जं च तवे उज्जुत्ता तेणेंस साहुलक्खणं पुण्णं । तो साहुणो ति भण्णति साहवो निगमणं चेयं ॥ तु सक्कादीगं णिपहिला लम्हा गियपणरया साहो भवति । [वि० ० ० ७० ८--- ६-३०० पृ० ३४ (क) तर अहिंसा-संयम-तसाहयतमकरवयण जाहारसासाहितो धम्मो मंगलम भवति । पृ० ३४ ( ख ) तेहि समत्तसाधुलक्खणल विखतेहि साधुहि साधितो संसारनित्थरणहेऊ सव्वदुक्खविमोक्ख मोक्खगमणसफल मो मंगल भवति ति मुनिट्टि । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं अज्झयणं सामव्वयं द्वितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो संयम में श्रम करे उसे श्रमरण कहते हैं। श्रमरण के भाव को श्रमरणत्व या श्रामण्य कहते हैं । योज बिना वृक्ष नहीं होता वृक्ष के पूर्व बीज होता है। दूध बिना ही नहीं होता यही के पूर्व दूध होता है। समय विना ग्रावलिका नहीं होती आवलिका के पूर्व समय होता है; दिवस बिना शत नहीं होती रात के पूर्व दिन होता है। पूर्व दिशा के बिना अन्य दिशाएँ नहीं बनतीं— अन्य दिशाओं के पूर्व पूर्व दिशा होती है। प्रश्न है श्रामण्य के पूर्व क्या होता है ? वह कौन सी बात है जिसके बिना श्रामण्य नहीं होता, नहीं टिकता । अध्ययन में जिस बात के बिना श्रामण्य नहीं होता, उसकी चर्चा होने से इसका नाम 'श्रामण्यपूर्वक' रखा इस गया है । आमुख टीकाकार कहते हैं: "पहले अध्ययन में धर्म का वर्णन है। वह धृति बिना नहीं टिक सकता । अतः इस अध्ययन में धृति का प्रतिपादन है । कहा है : जस्स धिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलभा । जे अधिइमत पुरिसा तयोऽपि खलु बुस्तहो तेसि ॥ -"जिसकी धृति होती है, उसके तप होता है। जिसके तप होता है, उसको सुगति सुलभ है । जो प्रवृतिवान् पुरुष हैं, उनके लिए तप भी निश्चय ही दुर्लभ है ।" इसका अर्थ होता है : धृति, अहिंसा, संयम, तप और इनका समुदाय श्रामण्य की जड़ है । श्रामण्य का मूल बीज धृति है । अध्ययन के पहले ही श्लोक में कहा है जो काम - राग का निवारण नहीं करता, वह श्रामण्य का पालन कैसे कर सकेगा ? इस तरह काम - राग का निवारण करते रहना श्रामण्य का मूलाधार है, उसकी रक्षा का मूल कारण है । साधु स्वनेमि साध्वी राजीमती मे विषय-वन की प्रार्थना करते हैं। उस समय सानी राजीमती उन्हें संग में दृढ़ करने के लिए जो उपदेश देती है प्रथवा इस कायरता के लिए उनकी जो भर्त्सना करती है, वही बिना घटना-निर्देश के यहाँ अंकित है। पूरा और टीकाकार सातसाठयां और न श्लोक ही राजीमती के मुंह से कहलाते हैं किन्तु लगता ऐसा है कि १ से १ तक के लोक राजमती द्वारा रथनेमि को कहे गए उपदेशात्मक तथ्यों के संकलन हैं। रथनेमि राजीमती से भोग की प्रार्थना करते हैं। वह उन्हें धिक्कारती है और संयम में फिर से स्थिर करने के लिए उन्हें ( १ ) काम और श्रामण्य का विरोध ( श्लोक १), (२) त्यागी का स्वरूप ( श्लोक २-३ ) और (३) राग-विनयन का उपाय ( श्लोक ४-५ ) बतलाती है। फिर संवेग भावना को जागृत करने के लिए उद्बोधक उपदेश देती है ( श्लोक ६-९ ) । इसके बाद राजीमती के इस सारे कथन का जो असर हुआ उसका उल्लेख है ( श्लोक १० ) । अन्त में संकलनकर्ता का उपसंहारात्मक उपदेश है ( श्लोक ११) । चूर्णिकार अगस्त्य सिंह फ्लोक ६ और ७ की व्याख्या में रचनेमि और राजीमती के बीच पटी पटना का उल्लेख निम्न रूप में करते हैं: १- अ० चू० पृ० ४६ : अरिट्ठमिसामिणो भाया रहनेमी भट्टारे पव्वद्दतं रायमति आराहेति 'जति इच्छेज्ज' । सा निव्विण्णकामभोगा तस्स विदिताभिप्पाया कल्लं मधु-घयसंजुत्तं पेज्जं पिबति आगते कुमारे मदणफलं मुहे पक्खिप्प पानीए छड्डे तुमुवणिमंतेति पिसि ? तेण पडिवणे वंतमुवणयति तेन किमिदं ? इति भणिते भगति ददमवि एवंप्रकारमेव भावतो भगवता परिच्चत्त त्ति वंता, अतो तुज्झ मामभिल संतस्स.. 1 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १८ अध्ययन २ : आमुख _ "(जब अरिष्टनेमि प्रव्रजित हो गये । तब उनके ज्येष्ठ-भ्राता रथनेमि राजीमती को प्रसन्न करने लगे, जिससे कि वह उन्हें चाहने लगे। भगवती राजीमती का मन काम-भोगों से निविण्ण-उदासीन हो चुका था। उसे रथनेमि का अभिप्राय ज्ञात हो गया । एक बार उसने मधु-घृत संयुक्त पेय पिया और जब रथनेमि आये तो मदनफल मुख में ले उसने उल्टी की और रथनेमि से बोली- 'इस पेय को पीयो।' रथनेमि बोले- 'वमन किये हुए को कैसे पीऊँ ?' राजीमती बोली-...'यदि वमन किया हुया नहीं पीते तो मैं भी अरिष्टनेमि स्वामी द्वारा वमन की हुई हूं। मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो? धिक्कार है तुम्हें जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करते हो । इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है ?' इसके बाद राजीमती ने धर्म कहा। रथनेमि समझ गए और प्रव्रज्या ली। राजीमती भी उन्हें बोध दे प्रवजित हुई। ___ "बाद में किसी समय रथनेमि द्वारिका में भिक्षाटन कर वापस अरिष्टनेमि के पास पा रहे थे।) रास्ते में वर्षा से घिर जाने से एक गुफा में प्रविष्ट हुए । राजीमती अरिष्टनेमि के वंदन के लिए गई थी। वन्दन कर वह वापस पा रही थी। रास्ते में वर्षा शुरू हो गई। भीग कर वह भी उसी गुफा में प्रविष्ट हुई, जहाँ रथनेमि थे । वहाँ उसने भीगे वस्त्रों को फैला दिया। उसके अंग-प्रत्यंगों को देख रथनेमि का भाव कलुषित हो गया । राजीमती ने अब उन्हें देखा । उनके अशुभ भाव को जानकर उसने उन्हें उपदेश दिया।" इस अध्ययन की सामग्री प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में से ली गई है, ऐसी पारम्परिक धारणा है। इस अध्ययन के पांच श्लोक [७ से ११] 'उत्तराध्ययन' सूत्र के २२ वें अध्ययन के श्लोक ४२, ४३, ४४, ४६, ४६ से अक्षरशः मिलते हैं। धिरत्थु ते जसोकामी जो तं जीवित कारणा । वंतं इच्छसि आवेउं सेगं ते मरणं भवे ।। ७ ।। ...कयाति रहणेमी बारवतीतो भिक्खं हिडिऊण सामिसगासमागच्छतो वद्दलाहतो एग गहमणुपविट्ठो। रातीमती य भगवतमभिवन्दिऊण तं लपणं गच्छंती 'वासमुवगत' ति तामेव गुहामुवगत। तं पृथ्वपविठ्ठमपेक्खमाणी उदओल्लनुपरिवत्थं णिप्पिलेऊ बिसारेती विवसणोपरिसरीरा दिठ्ठा कुमारेण, वियलियधितो जातो। सा हु भगवती सनिव्वलसत्ता तं दटुं तस्स बसकित्तिकित्तणेण संजमे धीतिसमुप्पायणत्थमाह : अहं च भोगरातिस्स तं च सि अंधगवहिणो। मा कुले गंधणा होमो संजमं णिहुओ नर ।। ८ ।। जाति तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि णारीतो। वाताइद्धो ब्व हढो अतिप्पा. भविस्ससि ॥ ६ ॥ अगस्त्यसिंह स्थविर ने रथनेमि को अरिष्टनेमि का भाई बतलाया है। किन्तु जिनदास महत्तर ने रथनेमि को अरिष्टनेमि का ज्येष्ठ भ्राता बतलाया है-- ___ --जि० चू० पृ० ८७ : यदा किल अरिटुणेमी पब्वइओ तथा रहणेमो तस्स जेट्ठो भाउओ राइमई उवयरइ। १-चूर्णिकार और टीकाकार के अनुसार ७ वा श्लोक कहा। देखिए पाद-टिप्पणी १।। २- उत्तराध्ययन सूत्र के २२ वें अध्ययन में अर्हत् अरिष्टनेमि को प्रव्रज्या का मार्मिक और विस्तृत वर्णन है। प्रसंगवश रथनेमि और राजीमती के बीच घटी घटना का उल्लेख भी आया है। कोष्ठक के अन्दर का चूणि लिखित वर्णन उत्तराध्ययन में नहीं मिलता। ३-चूणिकार और टीकाकार के अनुसार ८ वां और हवाँ इलोक कहा । देखिए पाद-टिप्पणी १ । ४... नि० गा० १७ : सच्चप्पवायपुवा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ। Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं अज्झयणं : द्वितीय अध्ययन सामण्णपुवयं : श्रामण्यपूर्वक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १-'कहनु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए । पए पए विसीयंतो संकप्पस्स वसं गयो । कथं नु कुर्याच्छामण्य, यः कामान्न निवारयेत् । पदे पदे विषीदन्, सङ्कल्पस्य वशं गतः ॥१॥ वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पगपग पर विषादग्रस्त होता है५ ? २-वत्थगन्धमलंकारं इत्थीयो सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजन्ति न से चाइ ति बुच्चइ ॥ वस्त्रं गन्धं अलङ्कार, स्त्रियः शयनानि च । अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति, न ते त्यागिन इत्युच्यते ॥२॥ जो परवश (या अभावग्रस्त) होने के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन-आसनों का उपभोग नहीं करता बह त्यागी नहीं कहलाता। ३-जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिट्टिकुबई । साहीणे चयइ भोए से हु चाइ ति वुच्चइ ॥ यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धान् विपृष्ठीकरोति । स्वाधीनः त्यजति भोगान्, स एव त्यागीत्युच्यते ॥३॥ त्यागी वही कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग" उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है१२ और स्वाधीनता पूर्वक भोगों का त्याग करता है । ४-समाए पेहाए परिव्वयंतो सिया मरणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नोवि अहं पि तीसे इच्चेव तायो विणएज्ज रागं॥ समया प्रेक्षया परिव्रजन् (तस्य), स्यान्मनो निःसरति बहिस्तात् । न सा मम नापि अहमपि तस्याः , इत्येवं तस्या विनयेद् रागम् ॥ ४ ॥ समदृष्टि पूर्वक१४ विचरते हुए भी५ यदि कदाचित्६ मन (संयम से) बाहर निकल जाय तो यह विचार कर कि वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ।८ मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे। ५-"आयावयाही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं एवं सुही होहिसि संपराए ॥ आतापय त्यज सौकुमार्य, कामान् काम क्रान्तं खलु दुःखम् । छिन्धि दोषं विनयेद् राग, एवं सुखी भविष्यसि सम्पराये ॥५॥ __ अपने को तपा२२ । सुकुमारता२३ का त्याग कर । काम-विषय-वासना का अंतिक्रम कर। इससे दुःख अपने-आप अतिक्रांत होगा। द्वेष-भाव को छिन्न कर । रागभाव२५ को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार (इहलोक और परलोक) में सुखी होगा। Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेधालियं ( दशवेकालिक ) जलियं जोई 25 धूमके दुरासयं । नेच्छन्ति वन्तयं बन्तयं भोतुं कुले जाया अगन्धणे ॥ ६ - पक्खन्दे जसोकामी जो तं जीविकाररणा । वन्तं इच्छसि सेयं ७- घिरते आवेजं ते मरणं भवे ॥ पग्रहं तं चsसि भोयरायस्स च अन्धवहो । मा कुले गन्धणा होमो संजमं निओ चर ॥ तं काहिसि भावं ६ - जइ जा जा दच्छसि नारिओ बाबाइढो स्व हडो श्रयिप्पा भविस्ससि ॥ १०- तीसे सो वयणं सोप्या संजयाए अंकुसेग जहा नागो सुभाषियं । धम्मे संपडिवाइस | ११ एवं पण्डिया करेन्ति संबुद्धा विरिणयन्ति जहा से पवित्रणा | भोगे पुरिसोत्तमो ॥ त्ति बेमि २० प्रस्कन्दन्ति प्रचलित ज्योतिषं धूमकेतुं नेच्छन्ति कुले यह धिगस्तु त्वां यशस्काम, जीवितकारणात् । यस्त्वं त्वं वान्तमिवा श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥ ७ ॥ मा संयम वान्तकं जाता यथा यदि या या वाताविव अस्थितात्मा तस्या: स वचनं संयतायाः अंकुशेन धम च चाऽसि कुले गन्थनी भूव, एवं पण्डिताः विनिवर्तन्ते दुरासदम् । भोक्तु, अगन्धने ॥ ६ ॥ 1 त्वं करिष्यसि भावं, द्रक्ष्यसि नारीः । हटः, इव भविष्यसि ॥ ६ ॥ कुर्वन्ति स भोजराजस्य, अग्यवृष्येः । यथा निभृतश्च ॥ ८ ॥ श्रुत्वा, सुभाषितम् । नागो, सम्प्रतिपादितः ॥ १० ॥ सम्बुद्धा:, प्रविचक्षणाः । भोगेभ्यः, पुरुषोत्तमः ।। ११ ।। इति ब्रवीमि । अध्ययन २ श्लोक ६-११ अगंधन में उत्पन्न सर्प ज्वलित, कुल विकराल, धूमकेतु ६ - अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु जीने के लिए) वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते" । ! हे यशःकाधिकार है तुझे ! जो तू क्षणभंगुर जीवन के लिए भी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है । मैं भोजराज की पुत्री (राजीमती) १५ और तू अंधकवृष्णि का पुत्र ( रथनेमि ) है । हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों । तू निभृत हो— स्थिर मन हो - संयम का पालन कर । यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो वायु से आहत (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थितात्मा हो जायेगा । 35 संयमिनी (राजीमती) के इन सुभा पिवचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गये, जैसे अंकुश से नागहावी होता है। और प्रविचक्षण ४० 1 सम्बुद्ध, पण्डित पुरुष ऐसा ही करते हैं वे भोगों से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम" रथनेमि हुए। मैं ऐसा कहता हूँ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन २ श्लोक १: १. तुलना यह श्लोक 'संयुक्तनिकाय' के निम्न श्लोक के साथ अद्भुत सामञ्जस्य रखता है। दुक्करं दुत्तितिक्खञ्च अन्यत्तेन हि सामनं । बहूहि तत्थ सम्बाधा यत्थ बालो विसीदतीति । कतिहं चरेय्य सामनं चित चे न निवारये । पदे पदे विसीदेय्य संकप्पानं वसानुगोति ॥ इस श्लोक का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है : कितने दिनों तक श्रमण भाव को पालेगा, यदि अपने चित्त को वश में नहीं ला सकता। पद्र-पद में फिसल जायगा, इच्छाओं के अधीन रहने वाला। संयुक्तनिकाय १।२७ पृ०८ २. कैसे श्रामण्य का पालन करेगा ? ( कहं नु कुज्जा सामण्णं क ) : 'अगस्त्य चूणि' में 'कह' शब्द को प्रकार बाचक माना है और बताया है कि उसका प्रयोग प्रश्न करने में किया जाता है। वहा 'नु' को 'वितर्क' वाचक माना है' । 'कहं नु' का अर्थ होता है-किस प्रकार-कैसे ? जिनदास के अनुसार 'कहं नु' (सं० कथं नु) का प्रयोग दो तरह से होता है। एक क्षेपार्थ में और दूसरा प्रश्न पूछने में। 'कथं नु स राजा, यो न रक्षति' -वह कैसा राजा, जो रक्षा न करे ! 'कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् प्रयुङ्क्ते'- वह कैसा वैयाकरण जो अपशब्दों का प्रयोग करे ! 'कहं नु' का यह प्रयोग क्षेपार्थक है । कथ नु भगवन् ! जीवाः सुखवेदनीय कर्म बध्नति,'भगवान् ! जीव सुखवेदनीय कर्म का बधन कैसे करते हैं। यहां 'कथं नु' का प्रयोग प्रश्नवाचक है। 'कहं नु कुज्जा सामण्णं' में इसका प्रयोग क्षेप – आक्षेप रूप में हुआ है। आक्षेपपूर्ण शब्दों में कहा गया है-बह श्रामण्य को कैसे निभाएगा जो काम का निवारण नहीं करता ! काम-राग का निवारण श्रामण्य-पालन की योग्यता की पहली कसौटी है । जो ऐसे अपराध-पदों के सम्मुख खिन्न होता है, वह श्रामण्य का पालन नहीं कर सकता। शीलांगों की रक्षा के लिए आवश्यक है कि संयमी अपराध-पदों के अवसर पर ग्लानि, खेद, मोह आदि की भावना न होने दे। हरिभद्र सूरी ने नु' को केवल क्षेपार्थक माना है। जिनदास ने इस चरण के दो विकल्प पाठ दिये हैं : (१) कइ ऽहं कुज्जा सामण्णं (२) कयाऽहं कुज्जा सामण्णं । 'वह कितने दिनों तक श्रामण्य का पालन करेगा ?' 'मैं श्रामण्य का पालन कब करता हूं'-ये दोनों अर्थ क्रमशः उपरोक्त पाठान्तरों के हैं। तीसरा विकल्प 'कह ण कुज्जा सामण्णं' मिलता है । अगस्त्य चूणि में भी ऐसे विकल्प पाठ हैं तथा चौथा विकल्प 'कहं स कूज्जा सामण्णं' दिया है । १- अ० चू० पृ० ३८ किसद्दोक्खेवे पुच्छाए य व? ति, खेवो जिंदा हसद्दो प्रकारवाचीति नियमेण पुच्छाए बट्टति । णु-सद्दो वितक्के प्रकार वियकेति, केण णु प्रकारेण सो सामण्णं कुज्जा। २--जि० चू० पृ० ७५ : कहणुत्ति-कि-केन प्रकारेण । ... कथं नु शब्दः क्षेपे प्रश्ने च वर्तते । ३ --हा० टी० पृ० ८५ : 'क' केन प्रकारेण, नु क्षेपे, यथा कथं नु स राजा यो न रक्षति !, कथं नु स वैयाकरणो योऽप शब्दान् प्रयुङ्क्ते ! Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ दसवेप्रालि ( दशव कानिक) अध्ययन २ : श्लोक १ टि० ३ ३. काम ( कामे ख): काम दो प्रकार के हैं : द्रव्य-काम और भाव-काम ।' विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य-ईष्ट शब्द, रूप, गन्ध, रस तथा स्पर्श को काम कहते हैं। जो मोह के उदय के हेतु भूत द्रव्य हैं जिनके सेवन से शब्दादि विषय उत्पन्न होते हैं, वे द्रव्य-काम हैं। भाव-काम दो तरह के हैं- इच्छा-काम और मदन-काम । इच्छा अर्थात् एपणा---चित्त की अभिलाषा । अभिलाषा रूप काम को इच्छा-काम कहते हैं । इच्छा प्रशस्त और अप्रशस्तदो तरह की होती है। धर्म और मोक्ष की इच्छा प्रशस्त इच्छा है। युद्ध की इच्छा, राज्य की इच्छा अप्रशस्त है। वेदोपयोग को मदन-काम कहते हैं। स्त्री-वेदोदय से स्त्री का पुरुष की अभिलाषा करना अथवा पुरुष-वेदोदय से पुरुष का स्त्री की अभिलाषा करना तथा विषय-भोग में प्रवृत्ति करना मदन-काम है । नियुक्तिकार के अनुसार इस प्रकरण में काम शब्द मदन-काम का द्योतक है। नियुक्ति कार का यह कथन -"विषय-सुख में आसक्त और काम-राग में प्रतिबद्ध जीव को काम धर्म से गिराते हैं। पण्डित काम को रोग कहते हैं। जो कामों की प्रार्थना करते हैं वे प्राणी निश्चय ही रोगों की प्रार्थना करते हैं"-मदन-काम से सम्बन्धित है। पर वास्तव में कहा जाय तो श्रमणत्व-पालन करने की शर्त के रूप में अप्रशस्त इच्छा-काम और मदन-काम – दोनों के समान रूप से निवारण करने की आवश्यकता है। १-नि० गा० १६१ : नाम ठवणा कामा दव्वकामा य भावकामा य। २--(क) जि० चू० पृ०७५ : ते इट्ठा सहरसरूवगंधफासा कामिज्जमाणा विसयपसत्तेहि कामा भवति । (ख) हा० टी० पृ० ८५ : शब्दरसरूपगन्धस्पर्शा: मोहोदयाभिभूतैः सत्वैः काम्यन्त इति कामाः । ३-(क) नि० गा० १६२ : सद्दरसरूवगंधाफासा उदयंकरा य जे दवा। (ख) जि० चू० पृ०७५ : जाणि य मोहोदयकारणाणि वियडमादीणि दव्वाणि तेहि अब्भवहरिएहि सहादिणो विसया उदिज्जति एते दव्वकामा। (ग) हा०टी० पृ०८५ : मोहोदयकारीणि च यानि द्रव्याणि संघाटक विकटमांसादीनि तान्यपि मदनकामाख्यभावकाम हेतुत्वात् द्रव्यकामा इति । ४-नि० गा० १६२ : दुविहा य भावकामा इच्छाकामा मयणकामा ॥ ५.-नि० गा० १६२ : हा० टी० पृ० ८५ : तत्रैषणमिच्छा सैव चित्ताभिलाषरूपत्वात्कामा इतीच्छाकामा । ६.नि. गा० १६३ : इच्छा पसत्थमपसत्थिगा य............. | ७---जि० चू० पृ० ७६ : तत्थ पसत्था इच्छा जहा धम्म कामयति मोक्खं कामयति, अपसत्था इच्छा रज्जं वा कामयति जुद्धं वा कामयति एवमादि इच्छाकामा । ८—नि० गा० १६३ : .........."मयणमि वेय उवओगो। है-(क) जि० चू० पृ० ७६ : जहा इत्थी इत्थिवेदेण पुरिसं पत्थेइ, पुरिसोवि इत्थी, एवमादी। (ख) नि० गा० १६२ : १६३ हा० टी०प० ८५-८६ : मदयतीति तथा मदन:-चित्रो मोहोदयः स एव कामप्रवृत्ति हेतुत्वाकामा मदनकामा वेद्यत इति वेदः-स्त्रीवेदादिस्तदुपयोगः- तद्विपाकानुभवनम्, तद्व्यापार इत्यन्ये, यथा स्त्रीवेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयत इत्यादि। १०-नि० गा० १६३........... ....... मयणमि वेयउवओगो। तेणहिगारो तस्स उ वयंति धीरा निरुत्तमिणं ॥ ११....नि. गा० १६४-१६५ : विसयसुहेसु पसतं अबुहजणं कामरागपडिबद्ध । उक्कामयंति जीवं धम्माओ तेण ते कामा । अन्नपि य से नाम कामा रोगत्ति पंडिया बिति ॥ कामे पत्थेमाणो रोगे पत्थेइ खलु जन्तू ।। Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णव्वयं ( श्रमण्णयपूर्वक ) २३ घ ४. संकल्प के वशीभूत होकर ( संकप्पस्स वसं गओ ) : यहाँ संकल्प का अर्थ काम अध्यवसाय है' । काम का मूल संकल्प है। संकल्प से काम और काम से विषाद यह इनके होने का कम है । सूक्त के रूप में ऐसे कहा जा सकता है- "संकल्पाज्जायते कामो, विषादो जायते ततः ।" संकल्प और काम का सम्बन्ध बताने के लिए 'अगस्त्य - चूर्णि' में एक श्लोक उद्धृत किया गया है "काम ! जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात् किल जायसे । न त्वां सङ्कल्पयिष्यामि ततो मे न भविष्यसि ।। " -काम ! मैं तुझे जानता हूँ | तू संकल्प से पैदा होता है । मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा 1 तू मेरे मन में उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। ग ५. पग-पग पर विवादग्रस्त होता हैं ( पए पए विसीयंतो " ) : स्पर्शन आदि इन्द्रिय, स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषय, क्रोधादि कवाय, क्षुधा आदि परीषद्, वेदना ( असुखानुभूति) और पशु आदि द्वारा कृत उपसर्ग अपराध पद कहे गये हैं । अपराध-पद अर्थात् ऐसे विकार-स्थल जहाँ हर समय मनुष्य के विचलित होने की सम्भावना रहती है । क्षुधा, सुपा, सर्दी, गर्मी, बारा मछर की कमी, अलाभ- आहारादि का न मिलना, शय्या का अभाव ऐसे पह (कष्ट) साधु को होते ही रहते हैं। वधमारे जाने, आकोशोर बचन कहे जाने आदि के उपसर्ग ( यातनाएं उसके सामने आती ही रहती हैं। रोग, तृण-स्पर्श की वेदना, उस बिहार और मैल की असह्यता, एकान्त वास के भय, एकान्त में स्त्रियों द्वारा अनुराग किया जाना, सत्कार - पुरस्कार की भावना, प्रज्ञा और ज्ञान के न होने हीन भावना से उत्पन्न हुई ग्लानि आदि अनेक स्थल हैं जहाँ मनुष्य विचलित हो जाता है । परीषह, उपसर्ग और वेदना के समय आचार का भंग कर देना, खेद - खिन्न हो जाना, 'इससे तो पुनः गृहवास में चला जाना अच्छा' - ऐसा सोचना, अनुताप करना, इंद्रियों के विषयों में फँस जाना, कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) कर बैठना- इसे विषादग्रस्त होना कहते हैं। संयम और धर्म के प्रति अरुचि की भावना को उत्पन्न होने देना विषाद है । से पग-पग पर विषाद ग्रस्त होने की बात को समझाने के लिए एक कहानी मिलती है, जिसके पूर्वार्द्ध का सार इस प्रकार है एक वृद्ध पुरुष पुत्र सहित प्रव्रजित हुआ । चेला वृद्ध साधु को अतीव इष्ट था। एक बार दुःख प्रकट करते हुए वह कहने लगा : "बिना जूते के चला नहीं जाता।" अनुकम्पावन वृद्ध ने उसे जूतों की छूट दी । तब चेला बोला : “ऊपर का तला ठण्ड से फटता है।" वृद्ध ने मोजे करा दिये । तब कहने लगा- "सिर अत्यन्त जलने लगता है ।" दृद्ध ने सिर ढँकने के वस्त्र की आज्ञा दी । तब बोला- “भिक्षा के लिये नहीं घूमा जाता।" वृद्ध ने वहीं उसे भोजन ला कर देना शुरू किया। फिर बोला "भूमि पर नहीं सोया जाता ।" वृद्ध ने बिछौने की आज्ञा दी। फिर बोला - "लोच करना नहीं बनता ।" वृद्ध ने क्षुर को काम में लेने की आज्ञा दी । फिर बोला- "बिना स्नान नहीं रहा जाता ।" वृद्ध ने प्रासुक पानी से स्नान करने की आज्ञा दी। इस तरह वृद्ध साधु स्नेहवश बालक साधु की इच्छानुसार करता जाता था । काल बीतने पर बालक साधु बोला- "मैं बिना स्त्री के नहीं रह सकता ।" वृद्ध ने यह जानकर कि यह शठ है और अयोग्य है, उसे अपने आश्रय से दूर कर दिया । इच्छाओं के वश होने वाला व्यक्ति इसी तरह बात-बात में शिथिल हो, कायरता दिखा अपना विनाश कर लेता है । १- जि० चू० पृ० ७८ : संकप्पोत्ति वा छंदोत्ति वा कामावसायो । २- नि० गा० १७५ : इंदियविसयकसाया परीसहा वेयणा य उवसग्गा । एए अवराहपया जत्थ विसीयंती दुम्मेहा ॥ अध्ययन २ श्लोक १ टि० ४-५ : ३– (क) अ० चू० पृ० ४१ । (ख) जि० चू० पृ० ७८ (ग) हा० टी० प० : ८६ । ४- हरिभद्रसूरि के अनुसार वह कोंकण देश का वा (हा० टी० पृ० ८९ ) । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेनालियं (दशवैकालिक) २४ अध्ययन २ : श्लोक २ टि० ६-८ श्लोक २: ६. जो परवश ( या अभावग्रस्त ) होने के कारण ( अच्छन्दा" ) : _ 'अच्छन्दा' शब्द के बाद मूल चरण में जो 'जे' शब्द है वह साधु का द्योतक है। 'अच्छन्दा' शब्द साधु की विशेषता बतलाने वाला है। इसी कारण हरिभद्र सूरी ने इसका अर्थ 'अस्ववशाः' किया है अर्थात् जो साधु स्वाधीन न होने से-परवश होने से भोगों को नहीं भोगता। _ 'अच्छन्दा' का प्रयोग कर्तृवाचक बहुवचन में हुआ है । पर उमे कर्मवाचक बहुवचन में भी माना जा सकता है। उस अवस्था में वह वस्त्र आदि वस्तुओं का विशेषण होगा और अर्थ होगा अस्ववश पदार्थ-जो पदार्थ पास में नहीं या जिन पर वश नहीं। अनुबाद में इन दोनों अर्थों को समाविष्ट किया गया है। इसका भावार्थ समझने के लिये चूणि-द्वय' और टीका में एक कथा मिलती है। उसका सार इस प्रकार है चन्द्रगुप्त ने नन्द को बाहर निकाल दिया था। नन्द का अमात्य सुबन्धु था। वह चन्द्रगुप्त के अमात्य चाणक्य के प्रति द्वेष करता था। एक दिन अवसर देखकर सुबन्धु ने चन्द्र गुप्त से कहा -- “आप मुझे धन नहीं देते तो भी आपका हित किसमें है ---यह बताना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं-'आपकी माँ को चाणक्य ने मार डाला है'।" धाय से पूछने पर उसने भी राजा से ऐसा ही कहा। जब चाणक्य राजा के पास आया तो राजा ने उसे स्नेह-रष्टि से नहीं देखा । चाणक्य नाराजगी की बात समझ गया । उसने यह समझ कर कि मौत आ गई, अपनी सारी सम्पत्ति पुत्र-पौत्रों में बांट दी। फिर गंधचूर्ण इकट्ठा कर एक पत्र लिखा। पत्र को गंध के साथ डिब्बे में रखा। फिर एक के बाद एक, इस तरह चार मंजूषाओं के अन्दर उसे रखा। फिर मंजूषा को सुगन्धित कोठे में रख उसे कीलों से जड़ दिया। फिर जंगल के गोकुल में जा इंगिनी-मरण अनशन ग्रहण किया। राजा को धाय से यह बात मालूम हुई। वह पछताने लगा- 'मैंने बुरा किया।" वह रानियों सहित चाणक्य से क्षमा मांगने के लिए गया और क्षमा मांग उससे वापस आने का निवेदन किया। चाणक्य बोले - "मैं सब कुछ त्याग चुका । अब नहीं जाता।" मौका देख कर सुबन्धु बोला"आप आज्ञा दें तो मैं इनकी पूजा करूँ।" राजा ने आज्ञा दी। सुबन्धु ने धूप जला वहां एकत्रित छानों पर अंगार फेंक दिया। भयानक अग्नि में चाणक्य जल गया। राजा और सुबन्धु वापस आये। राजा को प्रसन्न कर मौका पा सुबन्धु ने चाणक्य का घर तथा घर की सारी सामग्री माँग ली। फिर घर सम्भाला। कोठा देखा। पेटी देखी। अन्त में डिब्बा देखा । मुगन्धित पत्र देखा। उसे पढ़ने लगा। उसमें लिखा था—जो सुगन्धित चूर्ण सूंघने के बाद स्नान करेगा, अलंकार धारण करेगा, ठण्डा जल पीयेगा, महती शय्या पर शयन करेगा, यान पर चढ़ेगा, गन्धर्व-गान सुनेगा और इसी तरह अन्य इष्ट विषयों का भोग करेगा, साधु की तरह नहीं रहेगा, वह मृत्यु को प्राप्त होगा । और इनसे विरत हो साधु की तरह रहेगा, वह मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा। सुबन्धु ने दूसरे मनुष्य को गन्ध संघा, भोग पदार्थों का सेवन करा, परीक्षा की। वह मर गया। जीवनार्थी सुबन्धु साधु की तरह रहने लगा। ___मृत्यु के भय से अकाम रहने पर भी जैसे वह सुबन्धु साधु नहीं कहा जा सकता, वैसे ही विवशता के कारण भोगों को न भोगने से कोई त्यागी नहीं कहा जा सकता। ७. उपभोग नहीं करता ( न भुजन्ति ग ): ' जन्ति' बहुवचन है । इसलिए इसका अर्थ 'उपभोग नहीं करते' ऐसा होना चाहिए था, पर श्लोक का अन्तिम चरण एकवचनान्त है. इसलिए एकवचन का अर्थ किया है । धुणि और टीका में जैसे एकवचन के प्रयोग को बहुवचन के स्थान में माना है, वैसे ही बहुवचन के प्रयोग को एकवचन के स्थान में माना जा सकता है । टीकाकार बहुवचन-एकवचन की असंगति देख कर उसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं—सूत्र की गति (रचना) विचित्र प्रकार की होने से तथा मागवी का संस्कृत में विपर्यय भी होता है इससे ऐसा है-अत्र सूत्रगतेविचित्रत्वात् बहुवचने अपि एकवचननिर्देशः, विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवति एव इति कृत्वा । ८. त्यागी नहीं कहलाता ( न से चाइ त्ति वुच्चइ घ ) प्रश्न है-जो पदार्थों का सेवन नहीं करता वह त्यागी क्यों नहीं? इसका उत्तर यह है-त्यागी वह होता है जो परित्याग करता १-अ० चू०, जि० चू० पृ० ८१ २-हा० टी० पृ० ६१ Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) अध्ययन २: श्लोक ३ टि०६-१० है । जो अपनी वस्तु का परित्याग नहीं करता केवल अपनी अस्ववशता के कारण उसका सेवन नहीं करता, वह त्यागी कैसे कहा जायेगा? इस तरह वस्तुओं का सेवन न करने पर भी जो काम के संकल्पों से संक्लिप्ट होता है वह त्यागी नहीं होता। ६. से चाइप : __'से'-वह पुमा'। यहां बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग हुआ है -यह व्याख्याकारों का अभिमत है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने बहुवचन के स्थान में एकवचन का आदेश माना है। जिनदास महत्तर ने एकवचन के प्रयोग का हेतु आगम की रचना-शैली का वैचित्र्य, सुखोच्चारण और ग्रन्थलाधव माना है । हरिभद्र सूरि ने ववन-परिवर्तन का कारण रचना-शैली की विचित्रता के अतिरिक्त विपर्यय और माना है। प्राकृत में विभक्ति और वचन का विपर्यय होता है। स्थानांग में शुद्ध वाणी के दश अनुयोग बतलाए हैं। उनमें 'संक्रामित' नाम का एक अनुयोग है। उसका अर्थ है--विभक्ति और बचन का संक्रमण - एक विभक्ति का दूसरी विभक्ति और एकवचन का दुसरे वचन में बदल जाना । टीकाकार अभयदेव सुरि ने 'मंकामिय' अनुयोग के उदाहरण के लिए इसी श्लोक का उपयोग किया है । श्लोक ३: १०. कांत और प्रिय ( कंते पिए क): अगस्त्यसिंह मुनि के अनुसार 'कान्त' सहज सुन्दर और 'प्रिय' अभिप्रायकृत सुन्दर होता है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र के अनुसार 'कान्त' का अर्थ है रमणीय और 'प्रिय' का अर्थ है इष्ट । शिष्य ने पूछा- "भगवन् ! जो कान्त होते हैं वे ही प्रिय होते हैं, फिर एक साथ दो विशेषण क्यों?" आचार्य ने कहा---'"शिष्य ! (१) एक वस्तु कान्त होती है पर प्रिय नहीं होती। (२) एक वस्तु प्रिय होती है पर कान्त नहीं होती। (३) एक वस्तु प्रिय भी होती है और कान्त भी । (४) एक वस्तु न प्रिय होती है और न कान्त ।" शिष्य ने पूछा ..."भगवन् ! इसका क्या कारण है ?" आचार्य ने कहा - "शिष्य ! किसी व्यक्ति को कान्त-वस्तु में कान्त-बुद्धि उत्पन्न होती है और किसी को अकान्त-वस्तु में भी कान्तबुद्धि उत्पन्न होती है । एक वस्तु किसी एक के लिए कान्त होती है, वही दूसरे के लिए अकान्त होती हैं । क्रोध, असहिष्णुता, अकृतज्ञता और मिथ्यात्वाभिनिवेश (बोध-विपर्यास)-इन कारणों से व्यक्ति विद्यमान गुणों को नहीं देख पाता किन्तु अविद्यमान दोष देखने लग जाता है, कान्त में अकान्त की बुद्धि बन जाती है । जो कान्त होता है, वह प्रिय होता है, ऐसा नियम नहीं है । इसलिए 'कान्त' और 'प्रिय'-ये दोनों विशेषण सार्थक हैं। १-(क) जि० चू० पृ० ८१ : एते वस्त्रादयः परिभोगा: केचिदच्छंदा न भुजते नासौ परित्यागः । (ख) जि० चू० पृ०८२ : अच्छंदा अभुजमाणा य जीवा णो परिचत्तभोगिणो भवंति ।............एवं अभुजमाणो कामे संकप्प संकिलित्ताए चागी न भण्णइ। २-से : अत एत सौ पुसि मागध्याम् --- हैमश० : ८।४।२८७ । ३–अ० चू० पृ० ४२ : से इति बहुवयणस्स स्थाणे एगवयणमादि। ४ -जि० चू० पृ० ८२ : विचित्तो सुत्तनिबंधो भवति, सुहमुहोच्चारणत्थं गंथलाघवत्थं च । ५-हा० टी० पृ० ६१ : कि बहुवचनोद्देशेऽपि एकवचन निर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वा । ६-ठा० १०६६ । वृ० पत्र ४७० । ७ -अ० चू० पृ० ४३ : कंत इति सामन्नं,........प्रिय इति अभिप्रायकतं किंचि अकंतमवि कस्सति साभिप्रायतोप्रियम् । ८-(क) जि० चू० पृ०८२ : कमनीयाः कान्ताः शोभना इत्यर्थः, पिया नाम इठ्ठा । (ख) हा० टी०प०६२ : ‘कान्तान्' कमनीयान् शोभनानित्यर्थः 'प्रियान्' इष्टान् । k—जि० चू० पृ० ८२ : एत्थ सीसो पुण चोएति णणु जे कंता ते चेव पिय । भवंति ? आचार्यः प्रत्युवाचकता णामेगे णो पिया (१), पिया णामेगे णो कंता (२), एगे पियावि कंतावि (३), एगे णो पिया णो कंता (४)। कि 'कारणं' ? कस्सवि कंतेसु कंतबुद्धी उप्पज्जइ, कस्सइ पुण अकतेसुवि कंतबुद्धी उप्पज्जइ, अहवा जे चेव अण्णस्स कता ते चेव अण्णस्स अकता। १०–ठा० ४।६२१ : चहि ठाणेहि संते गुणे णासेज्जा, तंजहा-कोहेणं, पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं । Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) २६ अध्ययन २ : श्लोक ३ टि० ११-१३ ११. भोग ( भोए क ): इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का आसेवन भोग कहलाता है। भोग काम का उत्तरवर्ती है-- पहले कामना होती है, फिर भोग होता है। इसलिए काम और भोग दोनों एकार्थक जैसे बने हुए हैं । आगमों में रूप और शब्द को काम तथा स्पर्श, रस और गन्ध को भोग कहा है। शब्द श्रोत्र के साथ स्पृष्ट-मात्र होता है, रूप चक्षु के साथ स्पृष्ट नहीं होता और स्पर्श, रस तथा गंध अपनी ग्राहक इंद्रियों के साथ गहरा संबंध स्थापित करते हैं। इसलिए थोत्र और चक्षु इन्द्रिय की अपेक्षा जीव 'कामी' तथा स्पर्शन, रसन और घ्राण इंद्रिय की अपेक्षा जीव 'भोगी' कहलाता है' । यह सूक्ष्मदृष्टि है। यहां व्यवहारस्पर्शी स्थूलदृष्टि से सभी विषयों के आसेवन को भोग कहा है। १२. पीठ फेर लेता है ( विपिदिकुम्वई ख ) : इसका भावार्थ है-- भोगों का परित्याग करता है; उन्हें दूर से ही वर्जता है; उनकी ओर पीट कर लेता है; उनके सम्मुख नहीं ताकता; उनसे मुंह मोड़ लेता है। हरिभद्र सूरि ने यहां विपिट्टि कुब्बई' का अर्थ किया है --विविध-अनेक प्रकार की शुभ-भावना आदि से भोगों को पीट पीछे करता है- उनका परित्याग करता है । _ 'लद्धेवि पिट्टिकुब्वई' (सं० लब्धानपि पृष्ठीकुर्यात् )---'वि' पद का 'पिट्टिकुब्वई' के साथ योग न माना जाए तो इसकी 'अवि' (सं० अपि) के रूप में व्याख्या की जा सकती है-भोग उपलब्ध होने पर भी। प्रस्तुत अर्थ में यह संगत भी है। १३. स्वाधीनता पूर्वक भोगों का त्याग करता है ( साहीणे चयइ भोए ग ) : प्रश्न है-जब 'लब्ध' शब्द है ही तब पुन: 'स्वाधीन' शब्द का प्रयोग क्यों किया गया ? क्या दोनों एकार्थक नहीं हैं ? धुणिकार के अनुसार 'लब्ध' शब्द का सम्बन्ध पदार्थों से है और स्वाधीन का सम्बन्ध भोक्ता से । स्वाधीन अर्थात् स्वस्थ और भोगसमर्थ । उन्मत्त, रोगी और प्रोषित पराधीन हैं। वे अपनी परवशता के कारण भोगों का सेवन नहीं कर पाते । यह उनका त्याग नहीं है। हरिभद्र सूरि ने व्याख्या में कहा है-किसी बन्धन में बंधे होने से नहीं, वियोगी होने से नहीं, परवश होने से नहीं, पर स्वाधीन होते हुए भी जो लब्ध भोगों का त्याग करता है, वह त्यागी है। जो विविध प्रकार के भोगों से सम्पन्न है, जो उन्हें भोगने में भी स्वाधीन है वह यदि अनेक प्रकार की शुभ-भावना आदि से उनका परित्याग करता है तो वह त्यागी है। व्याख्याकारों ने स्वाधीन भोगों को त्यागने वाले व्यक्तियों के उदाहरण में भरत चक्रवर्ती आदि का नामोल्लेख किया है। यहां प्रश्न उटता है कि यदि भरत और जम्बू जैसे स्वाधीन भोगों को परित्याग करनेवाले ही त्यागी हैं, तो क्या निर्धनावस्था में प्रव्रज्या लेकर अहिंसा आदि से युक्त हो श्रामण्य का सम्यक् रूप से पालन करनेवाले त्यागी नहीं हैं ? आचार्य उत्तर देते हैं - ऐसे प्रव्रजित व्यक्ति भी दीन नहीं हैं । वे भी तीन रत्न कोटि का परित्याग कर प्रव्रज्या लेते हैं। लोक में अग्नि, जल और महिला--- ये तीन सार-रत्न हैं। इन्हें छोड़ कर वे प्रवजित होते हैं, अत: वे त्यागी हैं। शिष्य पूछता है-ये रत्न कैसे हैं ? आचार्य दृष्टान्त देते हुए कहते हैं : एक लकड़हारा ने सुधर्मस्वामी के समीप प्रव्रज्या ली। जब वह भिक्षा के लिए घूमता तब लोग व्यंग में कहते- 'यह लकड़हारा है जो प्रव्रजित हुआ है।' १-जि० चू० पृ० ८२ : भोगा-सद्दादयो विसया। २-- नं० सू०३७ : गा० ७८ : पुट्ठसुणेइ सरूवं पुण पासई अपुढे तु। गंधं रसं च फासं च बद्धपुट्ठ वियागरे ॥ ३- भग० ७ । ७ : सोइंदियचविखंदियाई पडुच्च कामी घार्णािदयजिभिंदियफासिदियाई पडुच्च भोगी। ४--जि० चू० पृ०८३ : तओ भोगाओ विविहेहि संपण्णा विपट्ठीओ उ कुव्वइ, परिचयइत्ति वुत्तं भवइ, अहवा विप्पट्टि कुव्वंतित्ति दूरओ विवज्जयंती, अहवा विप्पट्ठिन्ति पच्छओ कुब्वइ, ण मग्गओ। ५-हा० टी०प० ६२ : विविधम्-अनकैः प्रकारः शुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति, परित्यजति । ६--जि० चू० पू० ८३ : साहिणो णाम कल्लसरीरो, भोगसमत्थोत्ति वुत्तं भवइ, न उम्मत्तो रोगिओ पवसिओ वा। ७-हा० टी०प०६२ : स च न बन्धनबद्धः प्रोषितो वा किन्तु 'स्वाधीनः' अपरायत्तः, स्वाधीनानेव त्यजति भोगान् स एव त्यागीत्युच्यते। Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) अध्ययन २ : श्लोक ४ टि०१४-१७ साधु बालक बुद्धि से आचार्य से बोला—'मुझे अन्यत्र ले चलें, मैं ताने नहीं सह सकता।' आचार्य ने अभयकुमार से कहा-...'हम विहार करेंगे।' अभय कुमार बोला...'क्या यह क्षेत्र मासकल्प के योग्य नहीं कि उसके पहले ही आप विहार करने का विचार करते हैं ?' आचार्य ने सारी बातें कही । अभय कुमार बोला 'आप बिराजें । मैं लोगों को युक्ति से निवारित करूगा ।' आचार्य वहीं विराजे । दूसरे दिन अभयकुमार ने तीन रत्नकोटि के ढिग स्थापित किये। नगर में उद्घोषणा कराई --'अभयकुमार दान देते हैं।' लोग आये । अभयकुमार बोले-... 'ये तीन रत्नकोटि के ढिग हैं। जो अग्नि, पानी और स्त्री-इन तीन को छोड़ेगा उसे मैं ये तीन रत्नकोटि दूंगा।' लोग बोले'इनके विना रत्नकोटियों से क्या प्रयोजन ?' अभयकुमार बोले - 'तब क्यों व्यंग करते हो कि दीन लकड़हारा प्रवजित हुआ है ? उसके पास धन भले ही न हो, उसने तीन रत्नकोटि का परित्याग किया है। लोग बोले- 'स्वामिन् ! सत्य है। आचार्य कहते हैं— इस तरह तीन सार पदार्थ अग्नि, उदक और महिला को छोड़ कर प्रव्रज्या लेनेवाला धनहीन व्यक्ति भी संयम में स्थित होने पर त्यागी कहलायेगा। श्लोक ४: १४. समदृष्टि पूर्वक ( समाए पेहाए क ): चूणि और टीका के अनुसार 'समाए' का अर्थ है —अपने और दूसरे को समान देखते हुए, अपने और दूसरे में अन्तर न करते हुए । 'पेहाए' का अर्थ है प्रेक्षा, चिन्ता, भावना, ध्यान या दृष्टिपूर्वक । ___पर यहाँ 'समाए पेहाए' का अर्थ – 'रूप-कुरूप में समभाव रखते हुए-राग-द्वेष की भावना न करते हुए'—अधिक संगत लगता है। समदृष्टि पूर्वक अर्थात् प्रशस्त ध्यानपूर्वक । ___अगस्त्य 'चूणि में इसका वैकल्पिक पाठ 'समाय' माना है। उसका अर्थ होगा- “संयम के लिए प्रेक्षापूर्वक विचरते हुए।" १५. ( परिव्वयंतो के): अगस्त्य चूणि में परिव्ययंतो' के अनुस्वार को अलाक्षणिक माना है । वैकल्पिक रूप में इसे मन के साथ जोड़ा है। इसका अनुवाद इन शब्दों में होगा --साम्य-चितन में रमता हुआ मन । जिनदास महत्तर 'परिव्वयंतो' को प्रथमा का एकवचन मानते हैं और अगले चरण से उसका सम्बन्ध जोड़ने के लिए 'तस्स' का अध्याहार करते हैं। १६. यदि कदाचित् ( सिया ): अगस्त्य चूणि में 'सिया' शब्द का अर्थ 'यदि' किया गया है । इसका अर्थ- स्यात्, कदाचित् भी मिलता है । भावार्थ है प्रशस्तध्यान-स्थान में वर्तते हुए भी यदि हठात् मोहनीय कर्म के उदय से । १७. मन (संयम से) बाहर निकल जाये ( मणो निस्सरई बहिद्धा ख ) : 'बहिद्धा' का अर्थ है बहिस्तात् --बाहर । भावार्थ है जैसे घर मनुष्य के रहने का स्थान होता है वैसे ही श्रमण - साधु के मन के १-अ० चू० पृ० ४३, जि० चू० पृ० ८४; हा० टी०प०६३। २-(क) जि० चू० पृ०८४ : समा णाम परमप्पाणं च समं पासइ, णो विसमं, पेहा णाम चिन्ता भण्णइ । (ख) हा० टी० प० ६३ : 'समया' आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया-दृष्ट्या । ३.---.अ० चू० पृ० ४४ : अहवा 'समाय' समो—संजमो तदत्थं पेहा--प्रेक्षा। ४.-अ० चू० पृ० ४४ : वृत्तभंगभयात् अलक्खणो अणुस्सारो। ५... अ० चू० पृ० ४४ : अहवा तदेव मणोऽभिसंबज्झति । ६-जि० चू० पृ०८४ : परिव्वयंतो णाम गामणगरादीणि उवदेसेणं विचरतोत्ति वुत्तं भवइ तस्स । ७ ---अ० चू० पृ० ४४ : सिय सद्दो आसंकावादी 'जति' एतम्मि अत्थे वट्टति । ८--हा० टी०प०६४ : 'स्यात्' कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगतेः । &-जि० चू० पृ० ८४ : पसत्थेहि झाणठाणेहि वर्ल्ड तस्स मोहणीयस्स कम्मस्स उदएणं । Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २८ अध्ययन २ : श्लोक ४ टि० १८-२० रहने का स्थान संयम होता है । कदाचित् कर्मोदय से भुक्तभोगी होने पर पूर्व-क्रीड़ा के अनुस्मरण से अथवा अभुक्तभोगी होने पर कौतूहलवश मन काबू में न रहे---संयमरूपी घर से बाहर निकल जाये। स्थानाङ्ग-टीका में 'बहिद्धा' का अर्थ “मैथुन" मिलता है । यह अर्थ लेने से अर्थ होगा – मन मैथुन में प्रवृत्त हो जाये । _ 'कदाचित् शब्द के भाव को समझाने तथा ऐसे समय में क्या कर्तव्य है इसको बताने के लिये चूणि और टीकाकार एक दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। उसका भावार्थ इस प्रकार है : "एक राजपुत्र बाहर उपस्थानशाला में खेल रहा था। एक दासी उसके पास से जल का भरा घड़ा लेकर निकली। राजपुत्र ने कंकड फेंक कर उसके धड़े में छेद कर दिया । दासी रोने लगी । उसे रोती देख राजपुत्र ने फिर गोली चलाई। दासी सोचने लगी : यदि रक्षक ही भक्षक हो जाये तो पुकार कहाँ की जाये ? जल से उत्पन्न अग्नि कैसे बुझायी जाये ? यह सोच कर दासी ने कर्दम की गोली से तत्क्षण ही उस घट-छिद्र को स्थगित कर दिया-ढंक दिया। इसी तरह संयम में रमण करते हुए भी यदि संयमी का मन योगवश बाहर निकल जाये-भटकने लगे तो वह प्रशस्त परिणाम से उस अशुभ संकल्प रूपी छिद्र को चरित्र-जल के रक्षण के लिए शीघ्र ही स्थगित करे।" १८. वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ ( न सा महं नोवि अहं पि तीसे ग ) : यह भेद-चिन्तन का सूत्र है। लगभग सभी अध्यात्म-चिन्तकों ने भेद-चिन्तन को मोह-त्याग का बहुत बड़ा साधन माना है । इसका प्रारम्भ बाहरी वस्तुओं से होता है और अन्त में यह 'अन्यच्छरीरमन्योऽहम्', यह मेरा शरीर मुझसे भिन्न है और मैं इससे भिन्न हूं--- यहाँ तक पहुंच जाता है। चूर्णिकार ने भेद को समझाने के लिए रोचक उदाहरण प्रस्तुत किया है । उसका सार इस प्रकार है : एक वणिक-पुत्र था। उसने स्त्री छोड़ प्रव्रज्या ग्रहण की। वह इस प्रकार घोष करता-“वह मेरी नहीं है और न मैं भी उसका हूं।" ऐसा रटते-रटते वह सोचने लगा.. “वह मेरी है, मैं भी उसका हूं। वह मुझ में अनुरक्त है। मैंने उसका त्याग क्यों किया?" ऐसा विचार कर वह अपने उपकरणों को ले उस ग्राम में पहुँचा जहाँ उसकी पूर्व स्त्री थी। उसने अपने पूर्व पति को पहचान लिया पर वह उसे न पहचान सका । वणिका-पुत्र ने पूछा- 'अमुक की पत्नी मर चुकी या जीवित है ?" उसका विचार था यदि वह जीबित होगी तो प्रव्रज्या छोड़ दंगा, नहीं तो नहीं । स्त्री ने सोचा-यदि इसने प्रवज्या छोड़ दी तो दोनों संसार में भ्रमण करेंगे । यह सोच वह बोली.....“बह दूसरे के साथ चली गई। वह सोचने लगा....."जो पाठ मुझे सिखलाया गया वह ठीक है...'बह मेरी नहीं है और न मैं भी उराका हूं'।" इस तरह उसे पुनः परम संवेग उत्पन्न हुआ। वह वोला— "मैं वापस जाता हूँ।" चौथे श्लोक में कहा गया है कि यदि कभी काम-राग जागृत हो जाये, तो इस तरह विचार कर संयमी संयम में स्थिर हो जाये । संयम में विषाद-प्राप्त आत्मा को ऐसे ही चिन्तन-मंत्र से पुनः संयम में सुप्रतिष्टित करे । १६. विषय-राग को दूर करे ( विणएज्ज रागं घ) _ 'राग' का अर्थ है रंजित होना । चरित्र में भेद डालने वाले प्रसंग के उपस्थित होने पर विषय-राग का विनयन करे, उसका दमन करे अर्थात् मन का निग्रह करे । २०. ( इच्चेवघ): मांसादेवा-हैमश० ८।१।२६ अनेन एवं शब्दस्य अनुस्वारलोप:-इस सूत्र से ‘एवं' शब्द के अनुस्वार का लोप हुआ है। --(क) जि० चू०८४ : बहिद्धा नाम संजमाओ बाहि गच्छइ, कहं ? पुन्दरयानुसरणेणं था भुत्तभोइणो अभुतभोगिणो वा कोऊहलवत्तियाए। (ख) हा० टी०प०६४ : 'बहिर्धा' बहिः भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मनः-अंतः करणं निःसरति-निर्गच्छति बहिर्धा-संयमगेहाबहिरित्यर्थः । २–ठा० ४-१३६; टी० ५० १६० : बहिद्धा-मैथुनम् । ३-० चू० पृ० ४४; जि० ५० पृ० ८४; हा० टी० १०६४ । ४-- मोहत्यागाष्टकम् : अयं ममेति मन्त्रोऽय, मोहस्य जगदाध्यकृत् । अयमेव हि नजपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोह जित् ।। Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) २६ अध्ययन २ : श्लोक ५ टि० २१-२५ श्लोक ५: २१. श्लोक ५: इस श्लोक में विषयों को जीतने और भाव-समाधि प्राप्त करने के उपायों का संक्षिप्त विवरण है। इसमें निम्न उपाय बताये हैं--- (१) आतापना, (२) सौकुमार्य का त्याग, (३) द्वेष का उच्छेद और (४) राग का बिनयन । मथुन की उत्पत्ति चार कारणों से मानी गयी है'---(१) मांस-शोणित का उपचय-उसकी अधिकता, (२) मोहनीय कर्म का उदय, (३) मति-तद्विषयक बुद्धि और (४) तद्विषयक उपयोग । यहाँ इन सबसे बचने के उपाय बतलाये हैं। २२. अपने को तरा ( आयावयाही क ): मन का निग्रह उपचित शरीर से संभव नहीं होता । अतः सर्वप्रथम कायवल-निग्रह का उपाय बताया गया है।---मांस और शोणित के उगचा को घटाने का मार्ग दिखाया गया है। सर्दी-गर्मी में तितिक्षा रखना, शीत-काल में आवरण रहित होकर शीत सहना, ग्रीष्म-काल में सूर्याभिमुख होकर गर्मी सहना- यह सब आतापना तप है। उपलक्षण रूप से अन्य तप करने का भाव भी उस में समाया हुआ है । इसीलिए 'आयावयाही' का अर्थ है.....'अपने को तपा' अर्थात् तप कर। २३. सुकुमारता ( सोउमल्ल * ) : प्राकृा में सोउमल्ल, सोअमल्ल, सोगगल्ल, सोगुमल्ल—ये चारों रूप मिलते हैं। जो सुकुमार होता है उसे काम-विषयेच्छा सताने लगती है तथा वह स्त्रियों का काम्य हो जाता है। अत: सौकुमार्य को छोड़ने की आवश्यकता बतलाई है। २४. द्वेष-भाव ( दोसंग): संयम के प्रति अरुचिभाव-घृणा -अरति को द्वेष कहते हैं । अनिष्ट विषयों के प्रति घृणा को भी द्वेष कहा जाता है । अनिष्ट विषयों में द्वेष का छेदन करना चाहिए और इष्ट विषयों के प्रति मन का नियमन करना चाहिए । राग और द्वेष—ये दोनों कर्म-बंध के हेतु हैं। अत: इन पर विजय पाने के लिए पूर्ण प्रयत्न आवश्यक है । २५. राग-भाव ( राग ): इष्ट शब्दादि विषयों के प्रति प्रेम-भाव ... अनुराग को राग कहते हैं। १–ठा० ४१५८१: चहि ठाणेहिं मेहुणरूण्णा समुप्पज्जति, तं० चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्त कम्मस्स उदएण, मतीए, तट्ठोवओगेणं। २ –जि० चू. पृ० ८५ : सोय न सक्कइ उवचियसरीरेण णिग्गहे। ३ -जि० चू० पृ० ८५ : तम्हा कायबलनिग्गहे इमं सुत्तं भण्णइ । ४ --(क) जि० चू० पृ० १६ : एगग्गहमे तज्जाइयाण गहणंति न केवलं आयावयाहि,-उणोदरियमवि करेहि । (ख) हा० टी०प०६५ : 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मितिन्यायाधथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः । ५. .....(क) जि० ० ० ८६ : सुरुमालभाबो सोकमल्ल, सुकुमालस्स य कामेहि इच्छा भवइ, कमणिज्जो व स्त्रीणां भवति सूकूमालः, ____ तम्हा एवं सुकुमारभाव छड्डेहित्ति । (ख) हा० टी० प० ६५ : सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयो भवति । ६-जि० चू० पृ० ८६ : ते य कामा सहादयो विसया तेसु अणिसु दोसो छिदियको, इठेसु वट्टतो अस्सो इव अप्पा विण थियो । रागो दोसो य कम्मबंधस्स हे उणो भवंति, सवपयत्तेण ते वज्जणिज्जत्ति। Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन २ : श्लोक ६ टि० २६-२७ दुःख का मूल कामना है। राग-द्वेष कामना की उत्पत्ति के आन्तरिक हेतु हैं। पदार्थ-समूह, देश, काल और सौकुमार्य ये उसकी उत्पत्ति के बाहरी हेतु हैं। काम-विजय ही सुख है । इसी दृष्टि से कहा है --- 'कामना को क्रांत कर, दुःख अपने आप क्रांत होगा।' २६. संसार (इहलोक और परलोक) में सुखी होगा ( सुही होहिसि संपराए) 'संपराय' शब्द के तीन अर्थ हैं -संसार, परलोक, उत्तरकाल ... भविष्य' । 'संसार में सुखी होगा'... - इसका अर्थ है : संसार दुःख-बहुल है। पर यदि तू चित्त-समाधि प्राप्त करने के उपर्युक्त उपायों को करता रहेगा तो मुक्ति पाने के पूर्व यहाँ सुखी रहेगा। भावार्थ है --जब तक मुक्ति प्राप्त नहीं होती तब तक प्राणी को संसार में जन्म-जन्मान्तर करते रहना पड़ता है। इन जन्म-जन्मान्तरों में तू देव और मनुष्य योनि को प्राप्त करता हुआ उनमें सुखी रहेगा। चूर्णिकारों के अनुसार 'संपराय' शब्द का दूसरा अर्थ 'संग्राम' होता है। टीकाकार हरिभद्र सूरि ने मतान्तर के रूप में इसका उल्लेख किया है। यह अर्थ ग्रहण करने से तात्पर्य होगा-परीपह और उपसर्ग रूपी संग्राम में सुखी होगा—प्रसन्न-मन रह सकेगा। अगर तु इन उपायों को करता रहेगा, राग-द्वेष में मध्यस्थभाव प्राप्त करेगा तो जब कभी विकट संकट उपस्थित होगा तब तू उसमें विजयी हो सुखी रह सकेगा। मोहोदय से मनुष्य विचलित हो जाता है। उस समय वह आत्मा की ओर ध्यान न दे विषय-सुख की ओर दौड़ने लगता है । ऐसे संकट के समय संयम में पुनः स्थिर होने के जो उपाय हैं उन्हीं का निर्देश इस श्लोक में है। जो इन उपायों को अपनाता है वह आत्म-संग्राम में विजयी हो सुखी होता है। श्लोक ६: २७. अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प ( कले जाया अगन्धणे घ): सर्प दो प्रकार के होते हैं-गन्धन और अगन्धन । गन्धन जाति के सर्प वे हैं जो डसने के बाद मन्त्र से आकृष्ट किये जाने पर व्रण से मुंह लगाकर विप को वापस पी लेते हैं। अगन्धन जाति के सर्प प्राण गवां देना पसन्द करते हैं पर छोड़े हए विष को वापस नहीं पाते । अगन्धन सर्प की कथा 'विसवन्त जातक' ( क्रमांक ६६ ) में मिलती है । उसका सार इस प्रकार है : १- (क) अ० चू० पृ० ४५ : संपराओ संसारो। (ख) जि. चू० पृ० ६८ : संपरातो-संसारो भण्णइ। (ग) कठोपनिषद् शांकरभाष्य : १.२.६ : सम्पर ईयत इति सम्पराय: परलोकस्तत्प्राप्तिप्रयोजनः साधनविशेषः शास्त्रीयः साम्परायः । (घ) हलायुध कोष। २.---(क) अ० चू० पृ० ४५ : संपरायेवि दुषखबहुले देवमणुस्सेसु सुही भविस्ससि । (ख) जि० चू० पृ० ८६ : जाव ण परिणवाहिसि ताव दुक्खाउले संसारे सुही देभमणुएसु भविस्ससि । (ग) हा० टी० प० ६५ : यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी भविष्यसि । ३--(क) अ० चू० पृ० ४५ : जुद्धं वा संपराओ वावीसपरीसहोवसग्गजुद्धलद्धविजतो परमसुही भविस्ससि । (ख) जि० चू० पृ० ८६ : जुतं भण्णइ, जवा रागदोसेतु मज्झत्यो भविस्ससि तओ (जिय) परीसहसंपराओ सुही भविस्ससित्ति। (ग) हा० टी० ५० ६५ : संपराये' परीसहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये । ४ – (क) अ० चू० पृ० ४५ : गंधणा अगंधणा प सप्पा, गंधगा होणा, अगंधणा उत्तमा, ते डंकातो विसं न पिबंति मरता वि । (ख) जि. चू० पृ०८७: तस्य नागाणं दो जातीयो-गंधणा य अगंधणा य, तत्थ गंधणा नाम जे डसिऊण गया मतेहि आगच्छिया तमेव विसं वणमुहट्ठिया पुगो आवियंति ते, अगंधणा णाम मरणं ववसति ण य वंतयं आवियंति । (ग) हा० टी०प०६५। Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) अध्ययन २ : श्लोक ६ टि०२८-२६ ___खाजा खाने के दिनों में, मनुष्य संघ के लिए बहुत-सा खाजा लेकर आये। बहुत-सा (खाजा) बाकी बच गया। स्थविर से लोग कहने लगे,--"भन्ते ! जो भिक्षु गांव में गये हैं, उनका (हिस्सा) भी ले लें।" उस समय स्थविर का (एक) बालक-शिष्य गांव में गया था। (लोगों ने उसका हिस्सा स्थविर को दे दिया। स्थविर ने जब उसे खा लिया, तो वह लड़का आया। स्थविर ने उससे कहा--"आयुष्मान् ! मैंने तेरे लिए रखा हुआ खाद्य खा लिया।" वह बोला...." भन्ते ! मधुर चीज किसे अप्रिय लगती है ?" महास्थविर को खेद हुआ। उन्होंने निश्चय किया ..."अब इसके बाद (कभी) खाजा न खायेंगे।" यह बात भिक्षु संघ में प्रकट हो गई। इसकी चर्चा हो रही थी। शास्ता ने पूछा--"भिक्षुओ! क्या बात कर रहे हो ?' भिओं के कहने पर शास्ता ने कहा-"भिक्षुओ ! एक बार छोड़ी हुई चीज को सारिपुत्र प्राण छोड़ने पर भी ग्रहण नहीं करता।" ऐसा कह कर शास्ता ने पूर्व-जन्म की कथा कही--- पूर्व समय में वाराणसी में (राजा) ब्रह्मदत्त के राज्य करने के समय बोधिसत्त्व एक विप-वैद्य कुल में उत्पन्न हो, वैद्यक से जीविका चलाते थे। एक बार एक देहाती को सांप ने डस लिया। उसके रिश्तेदार देर न कर, जल्दी से वैद्य को बुला लाये । वैद्य ने पूछा --- 'दवा के जोर से विष को दूर करूं ? अथवा जिस साँप ने डसा है, उसे बुला कर, उसी के उसे हुए स्थान से विष निकलवाऊँ ?' लोगों ने कहा- 'सर्प को बुला कर विष निकलवाओ।' वैद्य ने सांप को खुला कर पूछा ...'इसे तुने डसा है ?' 'हां ! मैंने ही' सांग ने उत्तर दिया। 'अपने इसे हुए स्थान से तू ही विष को निकाल ।' सांग ने उत्तर दिया- 'मैंने एक बार छोड़े हुए विष को फिर कभी ग्रहण नहीं किया; सो मैं अपने छोड़े हुए विष को नहीं निकालूंगा।' वैद्य ने लकड़ियाँ मंगवा कर आग बना कर कहा 'यदि ! अपने विप को नहीं निकालता तो इस आग में प्रवेश कर।' सर्प बोला : 'आग में प्रविष्ट हो जाऊँगा, लेकिन एक बार छोड़े हुए अपने विष को फिर नहीं चाहँगा।' यह कह कर उसने यह गाथा कही : धिरत्थु तं विसं दन्तं, यमहं जीवितकारणा । वन्तं पच्चावमिस्सामि, मतम्मे जीविता वरं ॥' धिक्कार है उस जीवन को, जिस जीवन की रक्षा के लिए एक बार उगल कर मैं फिर निगलू। ऐसे जीवन से मरना अच्छा है' यह कहकर सर्प अग्नि में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हुआ। वैद्य ने उसे रोक, रोगी को औषधि से निरोग कर दिया। फिर सर्प को सदाचारी बना, 'अब से किसी को दुःख न देना' यह कह कर छोड़ दिया। "पूर्व जन्म का सर्प अब का सारिपुत्र है। एक बार छोड़ी हुई चीज को सारिपुत्र किसी प्रकार, प्राण छोड़ने पर भी, ग्रहण नहीं करता'--इस सम्बन्ध में यह उसके पूर्व जन्म की कथा है।" २८. विकराल ( दुरासयं ख): चणिकार ने 'दुरासयं' शब्द का अर्थ 'दहन-समर्थ' किया है। इसके अनुसार जिसका संयोग सहन करना दुष्कर हो वह दुरासद है। टीकाकार ने इसका अर्थ 'दुर्गम' किया है। जिसके समीप जाना कठिन हो उसे दुरासद कहा है। विकराल' शब्द दोनों अर्थों की भावना को अभिव्यक्त करता है। २६. धूमकेतु (धूमकेउं ख ): खुणि के अनुसार यह 'जोई'-ज्योति-अग्नि का ही दूसरा नाम है । धूम ही जिसका केतु -चिन्ह हो उसको धूमकेतु कहते हैं और वह अग्नि ही होती है। टीका के अनुसार यह 'ज्योति' शब्द के विशेषण के रूा में प्रयुक्त है और इसका अर्थ है : जो ज्योति, उल्कादि रूप नहीं पर धूमकेतु, धूमचिन्ह, धूमध्वज वाली है अर्थात् जिससे धुआँ निकल रहा है वह अग्नि । १-जातक प्र० खं० प० ४०४ । २-जातक प्र० खं० पृ० ४०२ से संक्षिप्त । ३ - जि० चू० पृ० ८७ : दुरासयो नाम डहणसमत्थत्तणं, दुक्खं तस्स संजोगो सहिज्जइ दुरासओ तेण । ४-हा० टी० ५० ६५ : 'दुरासदं' दुखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदस्तं, दुरभिभवमित्यर्थः । ५-जि० चू० पृ० ८७ : जोती अग्गी भण्णइ, धूमो तस्सेव परियायो, केऊ उस्सओ विधं वा, सो धूमे केतू जस्स भवइ धूमकेऊ । ६-हा० टी०प० ६५ : अग्नि 'धूमकेतुं' धूमचिह्न धूमध्वजं नोल्कादिरूपम् । Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ andआलियं ( दशवेकालिक ) ३२ ३०. वापस पीने की नहीं करते ( नेच्छति वन्यं भोत ) प्राण भले ही चले जांय पर अगन्धन कुल में उत्पन्न सर्व विष को वापस नहीं पीता । इस बात का सहारा ले राजीमती कहती है : साधु को सोचना चाहिए- अविरत होने पर तथा धर्म को नहीं जानने पर भी केवल कुछ का अवलम्बन ले तिर्वञ्च अगरधन सर्प अपने प्राण देने को तैयार हो जाता है पर वमन पीने जैसा घृणित काम नहीं करता। हम तो मनुष्य हैं, जिन धर्म को जानते हैं फिर भला क्या हमें जाति-कुल के स्वाभिमान को त्याग, परित्यक्त भोगों का पुनः कायरतापूर्वक आसेवन करना चाहिए? हम दारुण दुःख के हेतुत्यक्तभोगों का फिर से सेवन कैसे कर सकते हैं ? ३१. श्लोक ७ से ११ : इनकी तुलना के लिए देखिए - 'उत्तराध्ययन' २२ । ४२, ४३, ४४, ४६, ४६ । इलोक ७: ३२. हे यशःकामिन्! ( जसोकामी ) : क 'णि के अनुसार 'जसो कामी' शब्द का अर्थ है हे क्षत्रिय ! हरिभद्र सूरि ने इस शब्द को रोप में क्षत्रिय के आमंत्रण का सूचक कहा है। डा० याँकोवी ने इसी कारण इसका अर्थ famous knight' किया है। अकार का प्रश्लेष मानने पर 'धिरत्थु तेऽजसो कामी' ऐसा पाठ बनता है । उस हालत में हे अयशः कामिन् ! ऐसा सम्बोधन बनेगा। 'यश' शब्द का अर्थ संयम भी होता है । अतः अर्थ होगा है असंयम के कामी ! धिक्कार है तुझे । इस श्लोक के पहले चरण का अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है है कामी ! तेरे यश को धिवकार है । अध्ययन २ श्लोक ७ टि० ३०-३४ : ३३. क्षणभंगुर जीवन के लिए ( जो जीविकारभा): जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ 'कुशाग्र पर स्थित जल-बिन्दु के समान चंचल जीवन के लिए और हरिभद्रसूरि ने 'असंयमी जीवन के लिए ऐसा किया है। ३४. इससे तो तेरा मरना श्रेय है ! (सेयं ते मरणं भवे घ ) : जैसे जीने के लिए वमन की हुई वस्तु का पुनः भोजन करने से गरना अधिक गौरवपूर्ण होता है वैसे ही परित्यक्त भोगों को भांगने की अपेक्षा मरना ही श्रेयस्कर है । १ - जि० चू० पृ० ८७ : साहुणावि चितेयत्वं जड़ णामाविरएण होऊण धम्मं अयाणमाणेण कुलमवलंबतेण व जीवियं परिच्चत्तं ण य वन्तमावतं, किमंगपुण मणुस्सेण जिणववण जाणमाणेण जातिकुलमत्तणो अणुगणिते ? तहा करणीयं जेण सद्दण दौसेण भइ अवि-मरण अव सोहि कुन्छा २- हा० टी० प० ६५ यदि तावत्तिर्यञ्चोऽप्यभिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति न च वान्तं भुञ्जते तत्कथमहं जिनवचनामिलो विपाकान् विषयान् वान्तान् भी? ३-जि० ० चु० पृ० ८८: जसोकामिणो खत्तिया भण्णंति । ४ -- हा० टी० प० ६६ : हे यशस्कामिन्निति सासूयं क्षत्रियामन्त्रणम् । The Uttaradhyayana Sutra P. 118 ६-- (क) जि० चू० पृ० ८८ : अहवा धिरत्थु ते अयसोकामी, गंधलाघवत्थं अकारस्स लोवं काऊण एवं पढिज्जइ 'धिरत्थु तेजसो कामी' । ७ (ख) हा० टी० प० ६६ : अथवा अकारप्रश्लेषादयशस्कामिन् ! (क) हा० टी० प० १८८: जसं सारखखमध्पणो (द० ५.२.३६ ) - यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते । (ख) भगवती श० ४१ उ० १ : तेण भंते जीवा ! कि आयजसेण उववज्जंति ?.. • आत्मनः सम्बन्धि यशो यशो हेतुत्वाद् यश: -संयमः आत्मयशस्तेन । 5-foto ० चू० पृ० ८८ : जो तुमं इमस्स कुसग्गजलबदुचंचलस्स जीवियस्स अट्ठाए । - हा० डी० प० १६ जीवितकारणात् ततः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णपुव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) अध्ययन २: श्लोक ८ टि० ३५-३६ भूखा मनुष्य कष्ट भले ही पाये पर धिक्कारा नहीं जा सकता; पर वमन को खाने वाला जीते-जी धिक्कारा जाता है। जो शील-मंग करने की अपेक्षा मृत्यु को वरण करता है वह एक बार ही मृत्यु का कष्ट अनुभव करता है, पर अपने गौरव और धर्म की रक्षा कर लेता है । जो परित्यक्त भोगों का पुन: आसेवन करता है वह अनेक बार धिक्कारा जा कर बार-बार मृत्यु का अनुभव करता है। इतना ही नहीं वह अनादि और दीर्घ संसार-अटवी में नाना योनियों में जन्म-मरण करता हुआ बार बार कष्ट पाता है। अत: मर्यादा का उल्लंघन करने की अपेक्षा तो मरना थेयस्कर होता है। श्लोक ८ : ३५. मैं भोजराज की पुत्री ( राजीमती ) हूँ ( अह च भोयरायस्य... क ): राजीमती ने रथने मि से कहा....मैं भोजराज की संतान हैं और तुम अन्धक-वृष्णि की सन्तान हो। यहाँ ‘भोज' और 'अन्धकवृष्णि' शब्द कुल के वाचक हैं। हरिभद्र सुरि ने 'भोय' का संस्कृत रूप 'भोग' किया है। शान्त्याचार्य ने इसका रूप 'भोज' दिया है । महाभारत और कौटिलीय अर्थशास्त्र में भोज' शब्द का प्रयोग मिलता है। महाभारत और विष्णुपुराण के अनुसार 'भोज' यादवों का एक विभाग है। कृष्ण जिस संघ-राज्य का नेतृत्व करते थे, उसमें यादव, कुकुर, भोज और अन्धक-वृष्णि सम्मिलित थे । जैनागमों के अनुसार कृष्ण उग्रसेन आदि सोलह हजार राजन्यों का आधिपत्य करते थे । अन्धक-वृष्णियों के संघ-राज्य का उल्लेख पाणिनि ने भी किया है। वह वैध-राज्य था। अन्धक और वृष्णि ये दो राजनैतिक दल यहाँ का शासन चलाते थे। इस प्रकार की शासन-प्रणाली को विरुद्ध-राज्य कहा जाता रहा। ___ अन्धकों के नेता अवर थे। उनके दल के सदस्यों को 'अक्रूरवर्दी' और 'अक्रूरवर्गीण' कहा गया है । वृष्णियों के नेता वासुदेव थे । उनके दल के सदस्यों को 'वासुदेववर्म्य' और 'वासुदेववर्गीण' कहा गया है। भोजों के नेता उग्रसेन थे। ३६. कुल में गन्धन सर्प न हों ( मा कुले गंधणा होमो ग ) : राजीमती कहती है - हम दोनों ही महाकुल में उत्पन्न हैं। जिस तरह गंधन सर्प छोड़े हुए विष को वापस पी लेते हैं, उस तरह से हम परित्यक्त भोगों को पुन: सेवन करनेवाले न हों। जिनदास महत्तर ने ‘मा कुले गंधणा होमो' के स्थान में 'मा कुलगंधिणो होमो' ऐसा विकल्प पाठ बतला कर 'कुलगंधिणो' का अर्थ कुल-पूतना किया है अर्थात् कुल में पूतना की तरह कलंक लगानेवाले न हों । १- जि० चू० पृ० ८७ : अणाईए अणवदग्गे दोहमद्धे संसारकतारे तासु तासु जाईसु बहूणि जम्मणमरणाणि पावंति। २-हा० टी०प० ६६ : उत्क्रान्तमर्यादस्य 'श्रेयस्ते मरणं भवेत् शोभनतरं तव मरणं, न पुनरिदमकार्यासेवनमिति । ३-जि० चू० पु०८८ : भोगा खत्तियाण जातिविसेसो भण्णइ। "तुमं च तस्स तारिसस्स · अंधयवण्हिणो कुले पसूओ समुद्दविजयस्स पुत्तो। ४-हा० टी०प०६७; उत्त० : २२.४३ वृ० । ५.-म० भा० शान्तिपर्व : ५१.१४ : अक्रूरभोजप्रभवाः । ६--कौ० अ० १.६.६ : यथा दाण्डक्यो नाम भोज: कामाद् ब्राह्मणकन्यामभिगम्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश । ७-म० भा० सभापर्व : १४.३२। ८- विष्णुपुराण : ४.१३.७ । 8-म० भा० शान्तिपर्व : ८१.२६ : यादवाः कुकुरा भोजाः, सर्वे चान्धकवृष्णपः । त्वय्यायत्ता महाबाहो, लोका लोकेश्वराश्च ये॥ १०--अंत० १.१ : तत्थ णं बारवई णयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ ।'बलदेव-पामोक्खाण पंचण्हं महावीराण, पज्जुण्ण. पामोक्खाण अधुट्ठाण कुमारकोडीण "छप्पण्णाए बलवयसाहस्सीणां,उग्गसेण-पामोक्खाणं सोलसण्हं रायसाहस्सीण.... आहेवच्च जाव पालेमाणे विहरइ । ११- अष्टाध्यायी (पाणिनि) : ६.२.३४ १२-आ० चू० ३.११ १३-कात्यायनकृत पाणिनि का वार्तिक : ४.२.१०४ १४-जि० चू०पृ०८६ : अहवा कुलगंधिणो कुलपूयणा मा भवामो । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ३४ अध्ययन २: श्लोक : टि० ३७ श्लोक: ३७. हट ( हडोग) 'सूत्रकृताङ्ग' में 'हड' को 'उदक-योनिक', 'उदक-संभव' वनस्पति कहा गया है । वहाँ उसका उल्लेख उदक, अवग, पणग, सेवाल, कलम्बुग के साथ किया गया है । 'प्रज्ञापना' सूत्र में जलरुह वनस्पति के भेदों को बताते हुए उदक आदि के साथ 'हढ' का उल्लेख मिलता है । इसी सूत्र में साधारण-शरीरी बादर-वनस्पतिकाय के प्रकारों को बताते हुए 'हड' बनस्पति का नाम आया है । आचाराङ्ग नियुक्ति में अनन्त-जीव बनस्पति के उदाहरण देते हुए सेवाल, कत्थ, भाणिका, अबक, पणक, किण्ण व आदि के साथ 'हढ' का नामोल्लेख है । इन समान उल्लेखों से मालूम होता है कि 'हड' वनस्पति 'हढ' नाम से भी जानी जाती थी। हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ एक प्रकार की अबद्धमूल वनस्पति किया है। जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ द्रह, तालाब आदि में होनेवाली एक प्रकार की छिन्नमूल वनस्पति किया है । इससे पता चलता है कि 'हड' विना मूल की जलीय वनस्पति है। _ 'सुश्रुत' में सेवाल के साथ हट, तृण, पद्मपत्र आदि का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि संस्कृत में 'हड' का नाम 'हट' प्रचलित रहा है । यहीं हट से आच्छादित जल को दूषित माना है। इससे यह निष्कर्ष सहज ही निकलता है कि 'हड' वनस्पति जल को आच्छादित कर रहती है। 'हढ' को संस्कृत में 'हट' भी कहा गया है। 'ह' वनस्पति का अर्थ कई अनुवादों में घास अथवा वृक्ष किया गया है। पर उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि ये दोनों अर्थ अशुद्ध हैं। 'हट' का अर्थ जलकुम्भी किया गया है । इसकी पत्तियां बहुत बड़ी, कड़ी और मोटी होती हैं । ऊपर की सतह मोम जैसी चिकनी होती है । इसलिए पानी में डूबने की अपेक्षा यह आसानी से तैरती रहती है । जलकुम्भी के आठ पर्यायवाची जाम उपलब्ध हैं। १--सू० २.३.५४ : अहावर पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुक्कमा णाणाविह जोणिएसु उदएसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालताए कलंबुगत्ताए हडताए कसेरुगताए । विउदृन्ति । २–प्रज्ञा० १.४३ : से कि तं जलरुहा ?, जलरुहा अगोगविहा पन्नत्ता, तंजहा... उदए, अवए, पणए, सेवाले, कलंबुया, हढे य। ३-प्रज्ञा० १.४५ : से कि तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया ? साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पन्नत्ता। तंजहा किमिरासि भद्दमुत्था णंगलई पेलुगा इय। किण्हे पउले य हढे हरतणुया चेव लोयाणी ॥६॥ ४---आचा०नि० गा० १४१: सेवालकत्थभाणियअवए पणए य किनए य हढे। एए अणन्तजीवा भणिया अण्णे अणेगविहा ।। ५--हा० टी० ५० ६७ : हडो"अबद्धमूलो बनस्पतिविशेषः । ६-जि० चू० ८६ : हढो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिषु छिण्णमूलो भवति । ७-सुश्रुत (सूत्रस्थान ) ४५.७ : तत्र यत् पङ्कशैवालहटतृणपद्मपत्रप्रभृतिभिरवच्छन्नं शशिसूर्यकिरणानिल भिजुष्टं गन्धवर्णरसोप सृष्टञ्च तद्व्यापन्नमिति विद्यात् । -आचा० नि० गा० १४१ की टीका : सेवालकत्थभाणिकाऽवकपनककिण्वहठादयोऽनन्तजीवा गदिता । k--(क) Das. (का० वा० अभ्यधुर) नोट्स पृ० १३ : The writer of the Vritti explains it as a kind of grass which leans before every breeze that comes from any direction. (ख) समी सांजनो उपदेश (गो० जी० पटेल) पृ० १६ : ऊंडां मूल न होवाने कारणे वायुथी आम तेम फेंकाता 'हड' नामना घास। १०--दश० (जी. घेलाभाई) पत्र ६ : हड नामा वृक्ष समुद्र ने कीनारे होय छे । तेनु मूल बराबर होतूं नथी, अने माथे भार घणो होय छे अने समुद्रने किनारे पवननु जोर घणु होवाथी ते वृक्ष उखडीने समुद्रमा पडे अने त्यां हेराफेरा कर्या करे। ११–सुश्रुत० (सूत्रस्थान)४५.७ : पाद-टिप्पणी न०१ में उद्धत अंश का अर्थ :- हटः जलकुम्भिका, अभूमिलग्नमूलस्तृणविशेषः इत्येके। १२-शा० नि० पृ० १२३० : कुम्भिका वारिपर्णी च, बारिमूली खमूलिका। आकाशमूली कुतणं, कुमुदा जलवल्कलम् ॥ Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णव्वयं ( श्रामण्यपूर्वक ) ३८. अस्थितात्मा हो जायेगा ( अट्ठियप्पा भविस्ससि ): राजीमती इस श्लोक में जो कहती है उसका सार इस प्रकार है : हड वनस्पति के भूल नहीं होता । वायु के एक हल्के से स्पर्श से ही यह वनस्पति जल में इधर-उधर बहने लगती है । इसी तरह यदि तू दृष्ट-नारी के प्रति अनुराग करने लगेगा तो संयम में श्रबद्धमूल होने से तुझे संसार-समुद्र में प्रमाद- पवन से प्रेरित हो इधर-उधर भव-भ्रमण करते रहना पड़ेगा । पृथ्वी अनन्त स्त्री-रत्नों से परिपूर्ण है । जहाँ-तहाँ स्त्रियां दृष्टिगोचर होंगी। उन्हें देख कर यदि तू उनके प्रति ऐसा भाव ( अभिलाषा, अभिप्राय) करने लगेगा जैसा कि तू मेरे प्रति कर रहा है तो संयम में अवढमूल हो, श्रमण-गुणों से रिक्त हो, केवल तिगवारी हो जायेगा । श्लोक १० : ३९. सुभाषित ( सुभातिषं व ) इसका अर्थ है अच्छे कहे हुए। राजीमती के वचन संसार भय से उद्विग्न करनेवाले', संवेग - वैराग्य उत्पन्न करनेवाले हैं' अतः सुभाषित कहे गये हैं । यह वचन (वय) का विशेषण है। ३५ अध्ययन २ श्लोक १०-११ टि० ३८-४१ : श्लोक ११ ४०. संबुद्ध, पण्डित र प्रविण ( संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा कख ): प्रायः प्रतियों में 'संबुद्धा' पाठ मिलता है । 'उत्तराध्ययन' सूत्र में भी 'संबुद्धा' पाठ ही है। पर घूर्णिकार ने 'संपण्णा' पाठ स्वीकार कर व्याख्या की है । वर्णिकार के अनुसार 'संप्राज्ञ' का अर्थ है प्रज्ञा - बुद्धि से सम्पन्न । 'पण्डित' का अर्थ है- परित्यक्त भोगों के प्रत्याचरण में दोषों को जाननेवाला" प्रविण' का अर्थ है पापभीरु जो संसार भय से उद्विग्न हो चोड़ा भी पाप करना नहीं चाहता। हरिभद्रसूरि के सम्मुख 'संबुद्धा' पाठ वाली प्रतियाँ ही रहीं। उन्होंने निम्न रूप से व्याख्या की है : 'संबुद्ध' – 'बुद्ध' बुद्धिमान् को कहते हैं । जो बुद्धिमान् सम्यक् दर्शन सहित होता है, वह संबुद्ध कहलाता है । विषयों के स्वभाव को जाननेवाला सम्यक् दृष्टि-- 'संबुद्ध ' है 'पण्डित' सम्य-ज्ञान से सम्पन्न हो 'अविक्षण' जो सभ्य चारित्र से युक्त हो । । हरिभद्रसूरि के सम्मुख पुर्णिकार से प्रायः मिलती हुई व्याख्या भी थी, जिसका उल्लेख उन्होंने मतान्तर के रूप में किया है"। ४१. पुरुषोत्तम ( पुरिसोत्तमो ) : प्रश्न है— प्रव्रजित होने पर भी रथनेमि विषय की अभिलाषा करने लगे फिर उन्हें पुरुषोत्तम क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर १- हा० टी० प० ६७ : सकलदुः खक्षयनिबन्धनेषु संयमगुगेष्व (प्रति) बद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवन प्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसीति । ३-० ० १० ११ संसारभउब्वेगकरेहि पहि ४० टी० प० १७ 'सुभाषितं संवेगि २ --- जि० चू० पृ० ८६ : हढो वातेण य आइद्धो इओ इओ य निज्जइ, तहा तुमपि एवं करेंतो संजमे अबद्धमूलो समणगुणपरिहीणो केवलं दवलिंगधारी भविस्ससि : ५- उत्त० २२.४६ । ६- जि० ० १० १२ ७- जि० संपण्णा नाम पण्णा बुद्धी मण, ती बुद्धीव उपनेता संपण्या भण्यंति। ० चू० पृ० ६२ : पंडिया णाम चत्ताण भोगाणं पडियाइने जे दोसा परिजाणती पंडिया । १०- हा० टी०प० εE: अन्ये 5-जि० ० चू० पृ० ६२ : पविक्खणा णामावज्जभीरू भण्णंति, वज्जभीरुणो णाम संसारभउब्विग्गा योवमवि पावं च्छति । ६ - हा० टी० प० ६६ : 'संबुद्धा' बुद्धिमन्तो बुद्धा; सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनेकीभावेन वा बुद्धाः संबुद्धा विदितविषयस्वभावाः, सम्यग्दृष्टयः पण्डिताः - सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाः- चरणपरिणामवन्तः । 'तु व्याचक्षते - संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः पण्डिता वान्तभोगासेवनदोषज्ञाः प्रविचक्षणा अवद्य भीरवः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ३६ अध्ययन २: श्लोक ११ टि०४१ इस प्रकार है : मन में अभिलाषा होने पर कापुरुष अभिलाषा के अनुरूप ही चेष्टा करता है पर पुरुषार्थी पुरुष मोहोदय के वश ऐसा संकल्प उपस्थित होने पर भी आत्मा को जीत लेता है उसे पाप से वापस मोड़ लेता है । गिरती हुई आत्मा को पुन: स्थिर कर रथने मि ने जो प्रवल पुरुषार्थ दिखाया उसी कारण उन्हें पुरुषोत्तम कहा है। राजीमती के उपदेश को सुन कर धर्म में पुनः स्थिर होने के बाद उनकी अवस्था का चित्रण करते हुए लिखा गया है : "मनगुप्त, वचनगुप्त, कायगुप्त तथा जितेन्द्रिय हो उन दृढव्रती रथनेमि ने निश्चलता से जीवन-पर्यन्त श्रमण-धर्म का पालन किया। उग्र तप का आचरण कर वे केवलज्ञानी हुए और सर्व कर्मों का क्षय कर अनुत्तर सिद्ध-गति को प्राप्त हुए।" इस कारण से भी वे पुरुषोत्तम थे । १-उत्त० २२.४७,४८ : मणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दिओ। सामण्णं निच्चलं फासे, जावज्जीवं दढव्वओ॥ उग्गं तवं चरिताणं, जाया दोणि वि केवली। सव्वं कम्म खवित्ताण, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ।। Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं खुड्डियायारकहा तृतीय अध्ययन क्षल्लिकाचारकथा Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख समूचे ज्ञान का सार याचार है । धर्म में जिसकी धृति नहीं होती उसके लिए प्रचार और अनाचार का भेद महत्त्व नहीं रखता । जो धर्म में धृतिमान् है वह श्राचार को निभाता है और अनाचार से बचता है' । निष्कर्ष की भाषा में अहिंसा आचार और हिंसा अनाचार है। शास्त्र की भाषा में जो अनुष्ठान मोक्ष के लिए हो या जो व्यवहार शास्त्र-विहित हो वह ग्राचार है और शेष अनाचार । श्राचरणीय वस्तु पांच हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य । इसलिए ग्राचार पाँच बनते हैं- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तप-ग्राचार और वीर्याचार' । प्राचार से ग्रात्मा संयत होती है या जिसकी श्रात्मा संयम से सुस्थित होती है वही श्राचार का पालन करता है । संयम की स्थिरता और चार का गहरा सम्बन्ध है । अनाचार श्राचार का प्रतिपक्ष है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य का शास्त्र - विवि के प्रतिकूल जो ग्रनुष्ठान है वह अनाचार है। मूल संख्या में ये भी पाँच हैं। विवक्षा भेद से प्राचार और अनाचार - इन दोनों के अनेक भेद हैं। 'अनाचार' का अर्थ है प्रतिषिद्धि-कर्म, परिज्ञातव्य - प्रत्याख्यातव्य-कर्म या अनाचीर्ण-कर्म । आचार धर्म या कर्तव्य है और अनाचार धर्म या प्रकर्तव्य । इस अध्ययन में अनाचीणों का निषेध कर आचार या चर्या का प्रतिपादन किया है, इसलिए इसका नाम 'श्राचार - कथा' है । इसी सूत्र के छठे अध्ययन (महाचार-कथा) की अपेक्षा इस अध्ययन में प्राचार का संक्षिप्त प्रतिपादन है, इसलिए इसका नाम 'क्षुल्लिकाचार कथा' है। सूत्रकार ने संख्या निर्देश के बिना बनायारों का उल्लेख किया है। चूरिय तथा वृत्ति में भी संख्या का निर्देश नहीं है। दीपिकाकार चौवन की संख्या का उल्लेख करते हैं । इस परम्परा के अनुसार निर्ग्रन्थ के चौवन अनाचारों की तालिका इस प्रकार बनती है : १ - औदेशिक (साधु के निमित्त बनाये गये जहारादि का लेना ) २ श्रीकृत साधु के निमिती वस्तु का सेना) ३- नित्याय (निमन्त्रित होकर नित्य आहार लेना) : : १ (क) अ० ० ० ४१ (ख) अ० चू० पृ० ४६ (ग) वि० ० ० १२ (घ) हा० डी० प० १०० ४ - अभिहृत (दूर से लाये गये आहार आदि ग्रहण करना) ५- रात्रि भोजन ६- स्नान ७ ५ गन्ध - विलेपन - माल्य ( माला आदि धारण करना) E -वीजन ( पंखादि से हवा लेना ) १० - सन्निधि ( खाद्य, पेय आदि वस्तुओं का संग्रह कर रखना) ११ अमत्र (गृहस्थ के पात्र में भोजन १२ -- राज- पिण्ड ( राजा के घर का आहार ग्रहण) पम्मे पितिमतो आधारमुतिस्स फलोरिसोवसंहारे। इदाणि तु विसेसो नियमिज्जति धिती आयारे करणीय त्ति । वाणि यतियस्स आवारो नागियो अहवा सा धितो कहि करेस्या ? आधारे । इह तु सा धृतिराबारे कार्या नयनाचारे, अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते उक्त "तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धुतिमान् धर्मस्तस्यैव च विनोदितः ॥" २ – ( क ) ठा० ५.१४७ पंचविधे आयारे पं० तं० णाणायारे दंसणायारे चरितायारे तवायारे वीरियायारे । (ख) नि० गा० १८१ : दंसणनाणचरितं तवआयारे य वीरियायारे । एसो भावायारो पञ्चविहो होइ नायवी । ३- नि० गा० १७८ एएस महंताणं पडिवरले सुडा होति ॥ ४- ० ० ७ सर्वमेतत् पूर्वोक्तुबमिन्नमद्देशिकादिकं यदनन्तरमुक्तं तत् सर्वमनाचरितं शातव्यम् । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दसवेआलियं (दशवकालिक) अध्ययन ३ : आमुख १३ किमिच्छक (क्या चाहिए ? ऐसा २७ - गहि-निषद्या (गृही के घर बैठना) ३६---सचित्त बीज पूछ कर दिया हुआ आहार आदि) २८-- गात्र-उद्वर्तन (शरीर मालिश) ४०... सचित्त सौवर्चल लवण १४ - संबाधन (शरीर-मर्दन) २६-गहि-वयात्त्य (गृहस्थ की सेवा) ४१-- सचित्त संघव लवण १५- दंत-प्रधावन (दांतों को धोना) ३०-आजीववृत्तिता (शिल्प आदि से ४२-- सचित्त लवण १६-संपृच्छन (गृहस्थों से सावध प्रश्न) आजीविका) ४३ - सचित्त रुमा लवण १७ --देह-प्रलोकन (आईने आदि में शरीर ३१- तप्तानि तभोजित्व (अनित खान- ४४ . सचित्त सामुद्र लवण देखना) पान) ४५.. सचित्त पशु-क्षार लवण १८-अष्टापद (शतरंज खेलना) ३२.--आतुर-स्मरण अथवा आत-शरण ४६ सचित्त कृष्ण लवण १६...-नालिका (द्यूत विशेष) (पूर्व भोगों का स्मरण अथवा ४७.--धूमनेत्र (धूम्रपान) २०-छत्र-धारण चिकित्सालय में शरण लेना) ४८-- वमन २१---चिकित्सा ३३--- सचित्त मूलक ४६--- वस्तिकर्म २२ उपानह पहनना ३४. सचित्त शृगबेर (अदरक) ५०. विरेचन २३. अग्नि-समारम्भ २४-शय्यातर-पिण्ड (वसति दाता का ३५ - सचित्त इक्षु-खण्ड ५१. अंजन आहार लेना) ३६- सचित्त कन्द ५२--दन्तवन २५-.आसंदी का व्यवहार ३७. सचित्त मूल ५३--- गात्राभ्यङ्ग २६–पर्यङ्क (पलंग का व्यवहार) ३८-सचित्त फल ५४ --- विभूपा। अनाचारों की संख्या बावन अथवा तिरपन होने की परम्पराएं भी प्रचलित हैं। बावन और तिरपन की संख्या का उल्लेख पहले-पहल किसने किया, यह अभी शोध का विषय है । तिरपन की परम्परावाले 'राज पिण्ड' और 'किमिच्छक' को एक मानते हैं। बावन की एक परम्परा में 'अासन्दी' और 'पर्यङ्क' तथा 'गावाभ्यङ्ग' और 'विभूषण' को एक-एक माना गया है । इसकी दूसरी परम्परा 'गात्राभ्यङ्ग' और 'विभूषण' को एक मानने के स्थान में लवरण को 'संधव' का विशेषण मान कर दोनों को एक अनाचार मानती है। इस प्रकार उक्त चार परम्पराएँ हमारे सामने हैं। इनमें संख्या का भेद होने पर भी तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। परन्तु प्रागम के छठे अध्ययन में प्रथम चार अनाचारों का संकेत 'अकल्प्य' शब्द द्वारा किया गया है। वहीं केवल 'पलियंक' शब्द के द्वारा यासंदी, पर्यङ्क, मंच, अाशाल कादि को संगृहीत किया गया है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि उपर्युक्त अनाचारों में कुछ स्वतन्त्र हैं और कुछ उदाहरणस्वरूप। सौवर्चल, सैधव आदि नमक के प्रकार स्वतन्त्र अनाचार नहीं किन्तु सचित्त लवण अनाचार के ही उदाहरण हैं।। इसी तरह सचित्त मूलक, शृगबेर, क्षु-खण्ड, कन्द, मूल, फल, बीज आदि सचित्त वनस्पति नामक एक अनाचार के ही उदाहरण १–अगस्त्यसिंह चूणि के अनुसार अनाचारों की संख्या ५२ बनती है, क्योंकि इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को तथा संधव और लवण को अलग-अलग न मानकर एक-एक माना है । जिनदास चुणि के अनुसार भी अनाचारों की संख्या ५२ ही है। इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग अलग माना है तथा सैंधव और लवण को एवं गात्राभ्यङ्ग और विभूषण को एक-एक माना है। हरिभद्रसूरि एवं सुमतिसाधु सूरि के अनुसार अनाचारों की संख्या ५३ बनती है। इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक तथा संधव और लवण को अलग-अलग माना है। आचार्य आत्मारामजी के अनुसार अनाचारों की संख्या ५३ हैं। इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को अलग-अलग मान सैधव और लवण को एक माना है । २-दश० ६.८,४८-५० । ३-दश० ६.८,५४-५६ । Jain Education Interational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा) ४१ अध्ययन ३: आमुख कहे जा सकते हैं। सूत्र का प्रतिपाद्य है--सजीव नमक न लेना, सजीव फल, बीज और शाक न लेना । जिनका अधिक व्यवहार होता था उनका नामोल्लेख कर दिया गया है। सामान्यतः सभी सचित्त वस्तुओं का ग्रहण करना अनाचार है । ऐसी दृष्टि से वर्गीकरण करने पर अनाचारों की संख्या कम भी हो सकती है। सूत्रकृताङ्ग' में धोयण (वस्त्र प्रादि धोना), रयण (वस्त्रादि रंगना), पामिच्च (साधु को देने के लिए उधार लिया गया लेना), पूय (अाधाकर्मी अाहार से मिला हुया लेना), कयकिरिए (असंयम अनुष्ठान की प्रशंसा), पसिणायतरणारिण (ज्योतिष के प्रश्नों का उत्तर), हत्थकम्म (हस्तकर्म), विवाय (विवाद), परकिरियं (परस्पर की क्रिया), परवत्थ (गृहस्थ के वस्त्र का व्यवहार) तथा गामकुमारियं किड (ग्राम के लड़कों का खेल) आदि निर्ग्रन्थ के लिए वर्त्य हैं । वास्तव में ये सब अनाचार हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अनाचारों की जो तालिका प्रस्तुत आगम में उपलब्ध है वह अन्तिम नहीं, उदाहरणस्वरूप ही है। ऐसे अन्य अनाचार भी हैं जिनका यहाँ उल्लेख नहीं पाया जाता किन्तु जो अन्यत्र उल्लिखित और वजित हैं । विवेकपूर्वक सोचने पर ऐसी बातें सहज ही समझ में आ सकती हैं, जिनका अनाचार नाम से उल्लेख भले ही न हो पर जो स्पष्टतः ही अनाचार हैं। ___ अगस्त्यसिंह स्थविर ने औद्देशिक से लेकर विभुषा तक की प्रवृत्तियों को अनाचार मानने के कारणों का निर्देश किया है। वे इस प्रकार हैं कारण अनाचार औद्देशिक क्रीतकृत नित्यान आहुत रात्रिभक्त स्नान गंधमाल्य वीजन सन्निधि गृहस्थ का भाजन जीववध। अधिकरण । मुनि के लिए भोजन का समारंभ। षट्जीवनिकाय का वध । जीववध । विभूषा और उत्प्लावन । सूक्ष्म जीवों की घात और लोकापवाद । संपातिम वायु का वध। पिपीलिका आदि जीवों का वध । अप्कायिक जीवों का वध, कोई हरण कर ले या नष्ट हो जाए तो दूसरा दिलाना होता है। भीड़ के कारण विराधना, उत्कृष्ट भोजन के प्राप्त होने से एषणा का घात । सूत्र और अर्थ की हानि । विभूषा। पाप का अनुमोदन। ब्रह्मचर्य का घात। ग्रहण का अदत्त, लोकापवाद । राजपिड मर्दन दंतधावन संप्रश्न संलोकन द्यूत १-सू० १.६.१२ : धावणं रयणं चेव, वमणं च विरेयणं । " " १४ : उद्देसियं कोयगडं, पामिच्चं चेव आहडं । पूति अणेसणिज्ज च, तं विज्ज! परिजाणिया ॥ " १६ : संपसारी कयकिरिए, पसिणायतणाणि य । " १७ : हत्थकम्मं विवायं च, तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ " "१८:परकिरियं अन्तमन्नं च, तं विज्ज! परिजाणिया ॥ " २० : परवत्थं अचेलोऽवि, तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ "२६ : गामकुमारियं किड्डं, णाइवेलं हसे मुणी ॥ Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) नालिकाद्यूत छत्र चिकित्सा उपानत अग्निसमारंभ शय्यातरपिंड आसन्दी ओर प १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. गृहान्तरनिपया गात्र उद्वर्तन हास्य आजीववृत्तिता तप्तानि तभोजित्व ४२ ग्रहण का अदत्त, लोकापवाद, अहंकार । सूत्र और अर्थ की हानि । गर्व आदि । जीववध | एषणा दोष । शुषिर में रहे जीवों की विराधना की संभावना | ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, शंका आदि दोष । विभुपा अधिकरण । आसक्ति । जीववध | दीक्षा त्याग | वनस्पति का घात । पृथ्वीकाय का विघात । विभुषा लोकापवाद । आतुरस्मरण मूल आदि का ग्रहण सौवर्चल आदि नमक का ग्रहण धूपन आदि उत्सर्ग विधि से - सामान्य निरूपण की पद्धति से यहाँ जितने भी प्रग्राह्य, प्रभोग्य, प्रकररणीय कार्य बताये गये हैं वे सारे अनाचार हैं। अपवाद-विधि के अनुसार विशेष परिस्थिति में कुछेक अनाची अनाचीर्ण नहीं रह जाते । जो कार्य मूलतः सावद्य हैं या जिनका हिंसा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, वे हर परिस्थिति में अनाचीर्ण हैं, जैसे- सचित्त-भोजन, रात्रि भोजन आदि। जिनका निषेध विशेष विशुद्धि या संयम की उम्र साधना की दृष्टि से हुआ है वे विशेष परिस्थिति में नाचो नहीं रहते, जैसे गुहान्तरनिया ह्मपर्व को दृष्टि से तथा दूसरों के मन में शङ्का न पड़े इस दृष्टि से अनाचार है । रुग्णावस्था, वृद्धावस्था आदि में ब्रह्मचर्य भङ्ग अथवा दूसरे के शंका की संभावना न रहने से स्थविर के लिए यह अनाचार नहीं है। अंजन-विभूषा शृङ्गार की दृष्टि से हर समय अनाचार है पर नेत्र रोग की अवस्था में यह अनाचार नहीं है । सौन्दर्य के लिए वमन, वस्तिकर्म, विरेचन अनाचार हैं, रुग्णावस्था में यह अनाचार नहीं है। शोभा या गौरव के लिए छत्र-धारण अनाचार है । प्रातप आदि के निवारण के लिए भी इसका व्यवहार अनाचार है, पर स्थविर के लिए नहीं । नियुक्तिकार के अनुसार यह अध्ययन नवें पूर्व की तीसरी आजार वस्तु से उबूत है। - १२००० ६२ ६३ उषितं जणावरणकारणाणि उद्देसिले सत्तबो कीलकडे गवादि अहिकरणं, गोताए दुखणं एक्कावह रातिमले सत्तविरोहना, सिणा विभुलाउलावादि गंध मल्ले सुमपाय उड्डाहा, बीपणे संपादिमवायुवहो, समिहीए पिपीलादिवो गिमितं वह हिमपट्ट व दावणं, रामपिण्डे बाहेण विराणा उनकोस य एवणाघातो, संवाहणे सुरा अश्वपतिबंध (अ) भाव (तपोवणे) दंत-विभूसा, सम्पुगे पावाणुमोद, संतोपण बंपीड़ा अट्ठावयमाया गातो उडाहो से उड़ाहो यो तिमिच्छेत्त-अत्पलमंत्र उपाहणाहि गया जोतिसमारम्भे काही सेनातर पिटे एसा दोसा आसिरसा, हिंतरणिजाए अगुती बंगचेरस्त संकावतो व (गाउबचाए गाविभूसा) मिहिन येताडिए अहिकरणं, आजीवविती विसंगता, तत्तानियुभोदयसे सत्तवहो, आउरसर उपादमूलादिग्वस्तात सोच्वनादीर्ण निकायही धूणादिविभूसा एते दोसा इति । -प ४ - भिक्षु ग्रन्थ० ( प्र० ख० ) पृ० ३१३ जिनाग्या री चौपई ५.१५ : २ दश० ६.५ तमन्नरागस मिसेज्जा जस्पद जराए अभिभूयस वाहियस्स तबस्सियो । - ३ - भिक्षु ग्रन्थ० ( प्र० ख० ), पृ० ३४१; निन्ह्वरास १.६२ : अध्ययन ३ : आमुख कारण विनां साधव्यां, काजल घाले आंख्यां रे मांहि कें । अणाचारणी त्यांनें कहो, बसवीकालक तीजा अन रे महि ॥ ५--- नि० गा० १७ : अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ । छत्तं वा कह्यो छें ते तो छत्तरडो रे, ते कंबलादिक नों कर राखे तांम रे । ते राखे छे सीतापादिक टालवा रे, और मूतलब रो नहीं छे कांम रे ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं : तृतीय अध्ययन खुड्डियायारकहा : क्षुल्लिकाचार-कथा मूल संस्कृत छाया १-संजमे सुटिअप्पाणं विप्पमुक्काण ताइणं । तेसिमयमणाइण्णं निग्गंथाण महेसिणं ॥ संयमे सुस्थितात्मनां विप्रमुक्तानां त्रायिणाम् । तेषामेतदनाचीर्ण निग्रन्थानां महर्षीणाम् ॥१॥ हिन्दी अनुवाद जो संयम में सुस्थितात्मा हैं, जो विप्रमुक्त है२, त्राता हैं,--उन निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ये (निम्नलिखित) अनाचीर्ण हैं' (अग्राह्य हैं, असेव्य हैं, अकरणीय हैं)--- २–उद्देसियं कीयगडं नियागमभिहडाणि य । राइभत्ते सिणाणे य गंधमल्ले य वीयणे ॥ औद्देशिक क्रीतकृतं नित्याग्रमभिहतानि च। रात्रिभक्त स्नानं च गन्धमाल्ये च वीजनम् ॥२॥ औद्देशिक --निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया। क्रोतकृत ...निर्ग्रन्थ के निमित्त खरीदा गया ॥ नित्याग्र-आदरपूर्वक निमन्त्रित कर प्रतिदिन दिया जाने वाला । अभिहत”- निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया गया आहार आदि लेना। रात्रिभक्त१२-रात्रि-भोजन करना। स्नाननहाना। गंध-गंध सूंघना या गन्ध द्रव्य का विलेपन करना । माल्य"--माला पहनना । वीजन .....पंखा झलना। ३-सन्निही गिहिमत्ते य रायपिंडे किमिच्छए । संबाहणा दंतपहोयणा य संपुच्छणा देहपलोयणा य ॥ संनिधिगृह्यमत्रं राजपिण्डः किमिच्छकः। सम्बाधनं दन्तप्रधावनं च संप्रच्छनं देहप्रलोकनं च ॥३॥ सन्निधि-खाद्य-वस्तु का संग्रह करना...- रात-बासी रखना । गृहि-अमत्र"--- गृहस्थ के पात्र में भोजन करना। राजपिण्डमूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना। किमिच्छक - 'कौन क्या चाहता है ?' यों पूछ कर दिया जानेवाला राजकीय-भोजन आदि लेना । संबाधन - अंग-मर्दन करना। दंत-प्रधावन२० - दांत पखारना । संप्रच्छन२१ ---गृहस्थ को कुशल पूछना (संप्रोञ्छन -. शरीर के अवयवों को पोंछना)। देहप्रलोकन२२– दर्पण आदि में शरीर देखना । Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४४ अध्ययन ३: श्लोक ४-५ ४-अट्ठावए ___य नालीय छत्तस्स य धारणट्टाए । तेगिच्छं पाणहा पाए समारंभं च जोइणो ॥ अष्टापदश्च नालिका छत्रस्य च धारणमनर्थाय। चैकित्स्यमुपानही पादयोः समारम्भश्च ज्योतिषः ॥४॥ अष्टापद२३-शतरंज खेलना । नालिका२४ –नलिका से पासा डाल कर जुआ खेलना । छत्र५. विशेष प्रयोजन के बिना छत्र धारण करना । चैकित्स्य २६...-रोग का प्रतिकार करना, चिकित्सा करना । उपानत्२७ --पैरों में जूते पहनना । ज्योतिः समारम्भ८- अग्नि जलाना। । ५-सेज्जायरपिंडं आसंदीपलियंकए गिहतरनिसेज्जा गायस्सुन्वट्टणाणि शय्यातरपिण्डश्च आसन्दी-पर्य (ल्य)ङ्ककः गृहान्सरनिषद्या गात्रस्योद्वर्तनानि शय्यातरपिण्ड९ स्थान-दाता के घर से भिक्षा लेना । आसंदी-मञ्चिका। पर्य -पलंग पर बैठना । गृहान्तरनिषद्या..भिक्षा करते समय गृहस्थ के घर बैठना । गात्र-उद्वर्तन33. उबटन करना। च ॥५॥ ६-गिहिणो वेयावडियं जा य आजीववित्तिया । तत्तानिवुडभोइत्तं आउरस्सरणाणि य ॥ गृहिणो वैयापृत्यं या च आजीववृत्तिता। तप्ताऽनिवृतभोजित्वं आतुरस्मरणानि गृहि-वैयापृत्य-गृहस्थ को भोजन का संविभाग देना, गृहस्थ की सेवा करना । आजीववृत्तिता, जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म का अवलम्बन ले भिक्षा प्राप्त करना । तप्तानिर्वृतभोजित्व-अर्द्ध-पक्व सजीव वस्तु का उपभोग करना। आतुरस्मरण-आतुर-दशा में भुक्त भोगों का स्मरण करना। ___ अनिवृत मूलक-सजीव मूली, अनित शृंगबेर-सजीव अदरक, अनित इक्षुखण्ड६ --सजीव इक्षु-खंड, सचित्त कंद --सजीव कंद, सचित्त मूल सजीव मूल, आमक फल-अपक्व फल और आमक बीज-अपक्व बीज - लेना व खाना। ७-मूलए सिंगबेरे य अनिव्वुडे । कंदे मले य सच्चित्ते फले बीए य आमए ॥ मूलकं शृगबेरं इक्षुखण्डमनिर्वृतम् कन्दो मूलं च फलं बीजं सचित्तं चामकम् ॥७॥ ८-सोवच्चले सिंधवे लोणे रोमालोणे य आमए । सामुद्दे पंसुखारे य कालालोणे य आमए॥ सौवर्चलं रुमालवणं सामुद्रं काललवणं सैन्धवं लवणं चामकम् । पांशुक्षारश्च चामकम् ॥८॥ आमक सौवर्चल४२–अपक्व सौवर्चल नमक, सैन्धव-पक्व सैन्धव नमक, रुमा लवण --अपक्व रुमा नमक, सामुद्र-अपक्व समुद्र का नमक, पांशु-क्षार---अपक्व ऊषरभूमि का नमक और काल लवण --- अपक्व कृष्ण-नमक-लेना व खाना । Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुलिकाचार-कथा ) ४५ अध्ययन ३ : श्लोक ६-१३ 8-धूव-णेत्ति वमणे य वत्थीकम्म विरेयणे । अंजणे दंतवणे य गायाभंगविभूसणे धूम-नेत्रं वमनञ्च वस्तिकर्म विरेचनम् । अंजन दन्तवर्ण गात्राभ्यङ्गविभूषणे ॥६॥ धूम-नेत्र*3-धूम्र-पान की नलिका रखना । बमन-रोग की संभावना से बचने के लिए, रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना, वस्तिकर्म-अपान-मार्ग से तैल आदि चढ़ाना) और विरेचन४४ करना । अंजन...-आँखों में अंजन आँजना । दंतवण५. दांतों को दतौन से घिसना, गात्रअभ्यङ्ग.. शरीर में तैल-मर्दन करना। विभूषण.... शरीर को अंलकृत करना। १०-सव्वमेयमणाइण्णं निग्गंथाण संजमम्मि य लहुभूयविहारिणं महेसिणं । जुत्ताणं सर्वमेतदनाचीर्ण निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् । संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् ॥१०॥ जो संयम में लीन ८ और वायु की तरह मुक्त विहारी महर्षि निर्ग्रन्थ हैं उनके लिए ये सब अनाचीर्ण हैं। ११-पंचासवपरिन्नाया तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥ परिज्ञातपञ्चाश्रवाः त्रिगुप्ताः षट्सु संयताः। पञ्चनिग्रहणा धीराः निर्ग्रन्था ऋजुदर्शिनः ॥११॥ पांच आश्रवों का निरोध करनेवाले,५० तीन गुप्तियों से गुप्त,५१ छह प्रकार के जीवों के प्रति संयत,५२ पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले, धीर५४ निर्ग्रन्थ ऋजुदर्शी५५ होते हैं। १२-आयावयंति हेमतेसु वासासु संजया गिम्हेसु अवाउडा । पडिसंलीणा सुसमाहिया ॥ आतापयन्ति हेमन्तेष्वावृताः वर्षासु संयताः ग्रीष्मेषु सुसमाहित निर्ग्रन्थ ग्रीष्म में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्त में खुले बदन रहते प्रतिसलीनाः हैं और वर्षा में प्रतिसंलीन होते हैं५६—एक सुसमाहिताः ॥१२॥ स्थान में रहते हैं । १३-परीसहरिऊदंता धुयमोहा जिइ दिया । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्वमंति महेसिणो ॥ दान्तपरिषहरिपवः धुतमोहा जितेन्द्रियाः। सर्वदुःखप्रहाणार्थ प्रक्रामन्ति महर्षयः ॥१३॥ परीषहरूपी रिपुओं का दमन करने वाले, धुत-मोह५८ (अज्ञान को प्रकंपित करने वाले), जितेन्द्रिय महर्षि सर्व दुःखों के प्रहाण -नाश के लिए पराक्रम करते हैं । Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) १४- दुक्कराइ करेत्ताणं दुस्सहाइ सहेतु य । केइत्थ देवलोएस केई सिज्झंति नीरया ॥ १५ खवित्ता संजमेण सिद्धिमगमपुष्पत्ता ताइणो पृथ्वकम्माई तवेण य । परिनिब्बुडा ॥ त्ति बेमि । दुष्कराणि दुस्सहानि केचिदत्र ४६ क्षपयित्वा संयमेन सहित्वा देवलोकेषु केचित् सिध्यन्ति नीरजसः ॥ १४ ॥ कृत्वा तपसा सिद्धिमामनुप्राप्ता त्रायिणः च । पूर्वकर्माणि च । परिनिर्वृताः ||१५|| इति ब्रवीमि । अध्ययन ३ : श्लोक १४-१५ दुष्कर" को करते हुए और दु:सह को सहते हुए उन निर्ग्रन्थों में से कई देवलोक जाते हैं और कई नीरज" कर्म-रहित हो सिद्ध होते हैं । स्व और पर के त्राता निर्ग्रन्थ संयम और तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर४, सिद्धि मार्ग को प्राप्त कर६५ परिनिर्वृत६६ मुक्त होते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ३ श्लोक १: १. सुस्थितात्मा हैं ( सुट्ठिअप्पाणं क ) : ___ इसका अर्थ है अच्छी तरह स्थित आत्मावाले । संयम में सुस्थितात्मा अर्थात् जिनकी आत्मा संयम में भली-भांति-आगम की रीति के अनुसार-स्थित--टिकी हुई-रमी हुई है। अध्ययन २ श्लोक ६ में 'अट्ठिअप्पा' शब्द व्यवहृत है । 'सुट्ठिअप्पा' शब्द ठीक उसका विपर्ययवाची है। २. विप्रमुक्त हैं ( विप्पमुक्काण ख ) : वि-विविध प्रकार से प्र—प्रकर्ष से मुक्त-रहित हैं अर्थात् जो विविध प्रकार से-तीन करण और तीन योग के सर्व भङ्गों से, तथा तीव्र भाव के साथ बाह्याभ्यन्तर ग्रंथ परिग्रह को छोड़ चुके हैं, उन्हें विप्रमुक्त कहते हैं । 'विप्रमुक्त' शब्द अन्य आगमों में भी अनेक स्थलों पर व्यवहृत हुआ है । उन स्थलों को देखने से इस शब्द का अर्थ सब संयोगों से मुक्त, सर्व संग से मुक्त होता है। कई स्थलों पर 'सव्वओ विप्पमुक्के' शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ है--सर्वत: मुक्त। ३. जाता हैं ( ताइणं ख ) : 'ताई', 'तायी' शब्द आगमों में अनेक स्थलों पर मिलते हैं । 'तायिणं' के संस्कृत रूप त्रायिणाम्' और 'तायिनाम्'-दो होते हैं। १-(क) अ० चू०प०५६ : तम्मि संजमे सोभणं ठितो अप्पा जेसि ते संजमे सुटिठतप्पाणो । (ख) जि० चू० पृ० ११० । (ग) हा० टी०प० ११६ : शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानः । २–देखें-अध्ययन २, टिप्पण ४० । ३-(क) अ० चू० पृ० ५६ : विप्पमुक्काण–अभिंतर-बाहिरगंथबंधणविविहप्पगारमुक्काणं विष्पमुक्काणं । (ख) जि. चू०प०११०-११। (ग) हा० टी०प० ११६ : विविधम् –अनेक प्रकार:--प्रकर्षेण-भावसारं मुक्ता:--परित्यक्ताः बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्ताः । ४– (क) उत्त० १.१ : संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो । ___विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्वि सुणेह मे ॥ (ख) वही ६.१६ : बहुं खु मुणिणो भदं, अणगारस्स भिक्खुणो। सब्वओ विप्पमुक्कस्स, एगन्तमणुपस्सओ॥ (ग) वही ११.१ : संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो। आयारं पाउकरिस्सामि, आणुपुचि सुणेह मे ॥ (घ) वही १५.१६ : असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए सव्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी, चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खु ॥ (क) वही १८.५३ : कहिं धीरे अहेऊहि, अत्ताणं परियावसे । सव्वसंगविनिम्मुक्के, सिद्ध हवइ नीरए॥ ५–(क) दश० ३.१५, ६.३६,६६ । (ख) उत्त० ११.३१, २३.१०, ८.६ । (ग) सू० १।२.२.१७; ११२.२.२४; १।१४.२६; २।६.२०, २६.२४, २।६.५५ । Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० ३-४ ___ 'बायी' का शाब्दिक अर्थ रक्षक है । जो शत्रु से रक्षा करे उसे 'बायी' कहते हैं । लौकिक-पक्ष में इस शब्द का यही अर्थ है । आत्मिकक्षेत्र में इसकी निम्नलिखित व्याख्याएँ मिलती हैं : (१) आत्मा का त्राण-रक्षा करनेवाला—अपनी आत्मा को दुर्गति से बचानेवाला । (२) सदुपदेश-दान से दूसरों की आत्मा की रक्षा करनेवाला--उन्हें दुर्गति से बचानेवाला। (३) स्व और पर दोनों की आत्मा की रक्षा करनेवाला-दोनों को दुर्गति से बचानेवाला। (४) जो जीवों को आत्मतुल्य मानता हुआ उनके अतिपात से विरत है वह । (५) सुसाधु । 'तायी' शब्द की निम्नलिखित व्याख्याएँ मिलती हैं : (१) सुदृष्ट मार्ग की देशना के द्वारा शिष्यों का संरक्षण करनेवाला । (२) मोक्ष के प्रति गमनशील'। प्रस्तुत प्रसंग में दोनों चूर्णियों तथा टीका में इसका अर्थ स्व, पर और उभय तीनों का त्राता किया है । पर यहां 'वायी' का उपर्युक्त चौथा अर्थ लेना ही संगत है। जो बातें अनाचीर्ण-परिहार्य कही गयी हैं, वे हिंसा-बहुल हैं। निर्ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि वह त्रायी होता है—वह मन, वचन, काया तथा कृत, कारित, अनुमति से सर्व प्रकार के जीवों की सर्व हिंसा से विरत होता है । वह छोटे-बड़े सब जीवों को अपनी आत्मा के तुल्य मानता हुआ उनकी रक्षा करता है ---उनके अतिपात-विनाश से सर्वथा दूर रहता है। निर्ग्रन्थ को उसकी इस विशेषता की स्मृति 'ताइणं'-वायी शब्द द्वारा कराते हुए कहा है निम्न हिसापूर्ण कार्य उनके लिए अनाचीर्ण हैं । अत: इस शब्द का यहाँ 'सर्वभूतसंयत' अर्थ करना ही समीचीन है । यह अर्थ आगमिक भी है। ताइणं' शब्द 'उत्तराध्ययन' अ० २३ के १० वें श्लोक में केशी और गौतम के शिष्य-संघों के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है। वहाँ टीकाकार इसका अर्थ करते हैं : 'त्रायिणाम्'– षड्जीवरक्षाकारिणाम् । अत: षड्जीवनिकाय के अतिपात से विरत -- सर्वतः अहिंसक यही अर्थ संगत है। ४. निर्ग्रन्थ (निग्गंथाण घ): जैन मुनि का आगमिक और प्राचीनतम नाम है निम्रन्थ ? १-(क) अ० चू० पृ० ५६ : त्रायन्तीति त्रातारः । (ख) जि० चू० पृ० १११ : शत्रोः परमात्मानं च त्रायंत इति त्रातारः। २-(क) सू० १४.१६; टी० प० २४७ : आत्मानं त्रातुं शोलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा तस्य स्वपरत्रायिणः । (ख) उत्त० ८.४ : टी० पृ० २६१: तायते त्रायते वा रक्षति दुर्गतेरात्मानम् एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽऽवश्यमिति तायी वायी वेति । ३-(क) दश० ६.३७ : अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नंति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥ (ख) उत्त० ८.६ : पाणे य नाइवाएज्जा से समीए त्ति वुच्चई ताई । ४-वश० ६.३७ : हा० टी०५० २०१ : 'ताईहि'--'त्रातृभिः' सुसाधुभिः । ५-हा० टी०प० २६२ : तायोऽस्यास्तीति तायी, तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । ६-सू० २१६.२४ : टी०५० ३६६ : 'तायी अयवयपयमयचयतयणय गता' वित्यस्य दण्डकधातोणिनिप्रत्यये रूपं, मोक्षं प्रति गमनशील इत्यर्थः । ७-(क) अ० चू० पृ० ५६ : ते तिविहा-आवतातिणो परतातिणो उभयतातिणो। (ख) जि० चू० पृ०१११ : आयपरोभयतातीणं। (ग) हा० टी० ५० ११६ : त्रायन्ते आत्मानं परमुभयं चेति त्रातारः। ८--(क) उत्त० १२.१६ : अवि एवं विणस्सउ अण्णपाणं, न य णं दहामु तुमं णियंठा ॥ (ख) उत्त० २१.२ : निग्गंथे पावयणे, सावए से वि कोविए। (ग) उत्त० १७.१ : जे के इमे पव्वइए नियंठे। . (घ) जि० चू० पृ० १११: निग्गंथग्गहणेण साहूण णिद्देसो कओ। (ड).हा० टी० ५० ११६ .'निर्ग्रन्थानां' साधूनाम् । Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) ४६ अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० ५-६ 'ग्रंथ' का अर्थ है बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह । जो उससे --ग्रंथ से -सर्वथा मुक्त होता है, उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। आगम में 'निर्ग्रन्थ' शब्द की व्याख्या इस प्रकार है : “जो राग-द्वेष रहित होने के कारण अकेला है, बुद्ध है, निराथव है, संयत है, समितियों से युक्त है, सुसमाहित है, आत्मवाद को जानने वाला है, विद्वान् है, बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों प्रकार से जिसके स्रोत छिन्न हो गए है, जो पूजा, सत्कार और लाभ का अर्थी नहीं है, केवल धर्मार्थी है, धर्मविद् है, मोक्ष-मार्ग की ओर चल पड़ा है, साम्य का आचरण करता है, दान्त है, बन्धनमुक्त होने योग्य है और निर्मम है—वह निर्ग्रन्थ कहलाता है।" उमास्वाती ने कर्म-ग्रंथि की विजय के लिए यत्न करने वाले को निर्ग्रन्थ कहा है। ५. महषियों ( महेसिणं ): 'महेसी' के संस्कृत रूप 'महर्षि' या 'महैपी'-दो हो सकते हैं। महर्षि अर्थात् महान् ऋषि और महैषी अर्थात् महान्—मोक्ष की एषणा करने वाला । अगस्त्यसिंह स्थविर और टीकाकार को दोनों अर्थ अभिमत हैं। जिनदास महत्तर ने केवल दूसरा अर्थ किया है । हरिभद्र सूरि लिखते हैं : "सुस्थितात्मा, विप्रमुक्त, वायी, निर्ग्रन्थ और महर्षि में हेतुहेतुमद्भाव है । वे सुस्थितात्मा हैं, इसीलिए विप्रमुक्त हैं । विप्रमुक्त हैं इसीलिए वायी हैं, वायी हैं इसीलिए निर्ग्रन्थ हैं और निर्ग्रन्थ हैं इसीलिए महर्षि हैं। कई आचार्य इनका सम्बन्ध व्युत्क्रम--- पश्चानुपूर्वी से बताते हैं --- वे महर्षि हैं इसीलिए निर्ग्रन्थ हैं, निर्ग्रन्थ हैं इसीलिए वायी हैं, वायी हैं इसीलिए विप्रमुक्त हैं और विप्रमुक्त हैं इसीलिए सुस्थितात्मा हैं।" ६. उन के लिए ( तेसि क ): श्लोक २ से ६ में अनेक कार्यों को अनाचीर्ण कहा है । प्रथम श्लोक में बताया है कि ये कार्य निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए अनाचीर्ण हैं। प्रश्न हो सकता है ये कार्य निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ही अनाचीर्ण क्यों कहे गए? इसका उत्तर निर्ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त महर्षि, संयम में सुस्थित, विप्रमुक्त, वायी आदि विशेषणों में है । निर्ग्रन्थ महान् की एषणा में रत होता है। वह महाव्रती होता है—संयम में अच्छी तरह स्थित होता है। वह विप्रमुक्त होता है। वह त्रायी---अहिंसक होता है । बाद के श्लोकों में बताए गये कार्य सावध, आरम्भ और हिंसा-बहल हैं, निर्ग्रन्थ संयमी के जीवन से विपरीत हैं, गृहस्थों द्वारा आचरित हैं । अतीत में निर्ग्रन्थ महर्षियों ने उनका कभी आचरण नहीं किया । इन सब कारणों से मुक्ति की कामना से उत्कट साधना में प्रवृत्त निर्ग्रन्थों के लिए ये अनाचीर्ण हैं। १-अ० चू० पृ०५६ : निग्गंथाणं ति विष्पमुक्कत्ता निरूविज्जति। २-सू० १.१६.६ : एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविदू बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजए सुसमिए सुसामाइए आतप्पवादपत्ते विऊ दुहओवि सोयप लिच्छिन्ने णो पूयासक्कारलाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे समियं चरे दंते दंविए वोसटकाए निग्गंथेत्ति वच्चे। ३–प्रशम० श्लोक १४२ : ग्रन्थः कर्माष्टविध, मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठं, संयतते यः स निग्रन्थः ॥ ४-अ० चू० पृ० ५६ : महेसिणं ति इसी-रिसी, महरिसी-परमरिसिणो संबज्झंति, अहवा महानिति मोक्षो तं एसंति महेसिणो। ५-हा० टी० ५० ११६ : महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः, अथवा महान्तं एषितुं शील येषां ते महैषिणः । ६-जि. चू० पृ० १११ : महान्मोक्षीऽभिधीयते ..."महांत एषितुं शील येषां ..... .. 'ते महैषिणो । ७-हा० टी० ५० ११६ : इह च पूर्वपूर्वभाव एव उत्तरोत्तरभावो नियमितो हेतु हेतुमद्भावेन वेदितव्यः, यत एव संयमे सुस्थि तात्मानोऽत एव विप्रमुक्ताः, संयमसुस्थितात्मनिबन्धनत्वाद्विप्रमुक्तेः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, अन्ये तु पश्चानुपूा हेतुहेतुमद्भाव मित्थं वर्णयन्ति—यत एव महर्षयोऽत एव निर्ग्रन्थाः, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यम् । ८-(क) अ० चू० पृ० ५६ : तेसि पुव्वभणिताणं बाहिर-अन्भंतरगंथबन्धन-विप्पमुक्काणं आयपरोभयतातिणं एतं जं उरि एतम्मि अज्झयणे भणिहिति तं पच्चक्खं वरिसेति । (ख) जि० चू० पृ० १११ : तेसि पुवनिद्दिवाणं बाहिन्भंतरगंथविमुक्काणं आयपरोभयतातीणं एवं नाम जं उवरि एयमि अझयणे भणिहिति एवं जेसिमणाइण्णं । (ग) हा० टी०प० ११६ : तेषामिदं-वक्ष्यमाणलक्षणम् । Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) अध्ययन ३ : श्लोक १-२ टि० ७-८ श्रमण अनेक प्रकार के होते हैं । श्रमण निर्ग्रन्थ को कैसे पहचाना जाय-यह एक प्रश्न है जो नवागन्तुक उपस्थित करता है । आचार्य बतलाते हैं -निम्न लिखित बातें ऐसी हैं जो निर्ग्रन्थ द्वारा अनाचरित हैं। जिनके जीवन में उनका सेवन पाया जाता हो वे श्रमण निर्ग्रन्थ नहीं हैं । जिनके जीवन में वे आचरित नहीं हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थ हैं। इन चिह्नों से तुम श्रमण निर्ग्रन्थ को पहचानो। निम्न वर्णित अनाचीों के द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थ का लिङ्ग निर्धारित करते हुए उसकी विशेषताएँ प्रतिपादित कर दी गई हैं। ७ अनाचीर्ण हैं ( अगाइण्णं ग ) : 'अनाचरित' का शब्दार्थ होता है—आचरण नहीं किया गया, पर भावार्थ है--आचरण नहीं करने योग्य-अकल्प्य । जो वस्तुएँ, बातें या क्रियाएँ इस अध्ययन में बताई गई हैं वे अकल्प्य, अग्राह्य, असेब्य, अभोग्य और अकरणीय हैं । अतीत में निर्ग्रन्थों द्वारा ये कार्य अनाचरित रहे अत: वर्तमान में भी ये अनाचीर्ण हैं । श्लोक २ से ६ तक में उल्लिखित कार्यों के लिए अकल्प्य, अग्राह्य, असेव्य, अभोग्य, अकरणीय आदि भावों में से जहाँ जो लागू हो उस भाव का अध्याहार समझना चाहिए। श्लोक २: ८. औद्देशिक ( उद्देसियं क ): इसकी परिभाषा दो प्रकार से मिलती है :- (१) निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से अथवा (२) परिवाजक, श्रमण, निम्रन्थ आदि सभी को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्तु अथवा मकान आदि औद्देशिक कहलाता है । ऐसी वस्तु या भोजन निर्ग्रन्थश्रमण के लिए अनाचीर्ण है- अग्राह्य और असेव्य है। इसी आगम (५.१.४७-५४) में कहा गया है.--."जिस आहार, जल, खाद्य, स्वाद्य के विषय में साधु इस प्रकार जान ले कि वह दान के लिए, पुण्य के लिए, याचकों के लिए तथा श्रमणों --भिलुओं के लिए बनाया गया है तो वह भक्त-पान उसके लिए अग्राह्य होता है । अतः साधु दाता से कहे- 'इस तरह का आहार मुझे नहीं कल्पता' ।" इसी तरह औद्देशिक ग्रहण का वर्जन अनेक स्थानों पर आया है। औद्देशिक का गम्भीर विवेचन आचार्य भिक्षु ने अपनी साधु-आचार की ढालों में अनेक स्थलों पर किया है। इस विषय के अनेक सूत्र-संदर्भ वहाँ संगृहीत हैं । भगवान् महावीर का अभिमत था— 'जो भिक्षु औद्देशिक-आहार की गवेषणा करता है वह उद्दिष्ट-आहार बनाने में होने वाली त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा की अनुमोदना करता है--वहं ते समणुजाणन्ति'५। उन्होंने उद्दिष्ट-आहार को हिंसा और सावध से युक्त होने के कारण साधु के लिए अग्राह्य बताया। १-(क) अ० चू० पृ० ५६ : अणाचिणं अकप्पं । अणाचिण्णमिति ज अतीतकालनिद्देस करेति तं आयपरोभयतातिणिदरिसणत्थ, जं पुरिसोहि अणातिण्णं तं कहमायरितव्वं ? (ख) जि० चू० १० १११ : अणाइण्ण णाम अकप्पणिज्जंति वुत्तं भवइ, अणाइण्णग्गहणेण जमेतं अतीतकालग्गहणं करेइ तं आयपरोभयतातीणं कोरइ, कि कारणं ?, जइ ताव अम्ह पुब्धपुरिसेहि अणातिण्णं तं कहमम्हे आयरिस्सामोत्ति? (ग) हा० टी० १० ११६ : अनाचरितम्-अकल्प्यम् । २-(क) जि० चू० पृ० १११ : उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं आरंभोत्ति वुत्तं भवति । (ख) अ० चू० पृ० ६० : उद्देसितं जं उहिस्स कज्जति । (ग) हा० टी० ५० ११६ : 'उद्देसियं ति उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः तत्र भवमौद्देशिकम् । ३-(क) दश० ५.१.५५, ६.४८-४६; ८.२३; १०.४ । (ख) प्रश्न० (संवर-द्वार) १,५। (ग) सू० १.६.१४ । (घ) उत्त० २०.४७ । ४-भिक्षु-ग्रन्थ० (प्र० ख०) पृ० ८८८-८६ आ० चौ० : १६.१-२२ । ५-दश० ६.४८ । ६-प्रश्न० (संवर-द्वार) २.५ Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) ५१ अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० -१० बौद्ध भिक्षु उद्दिष्ट खाते थे । इस सम्बन्ध में अनेक घटनाएँ प्राप्त हैं। उनमें से एक यह है : बुद्ध वाराणसी से बिहार कर साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के महान् भिक्षु-संघ के साथ अंधविंद की ओर चारिका के लिए चले। उस समय जनपद के लोग बहुत-सा नमक, तेल, तन्दुल और खाने की चीजें गाड़ियों पर रख 'जब हमारी बारी आएगी तब भोजन करायेंगे' ---सोच बुद्ध सहित भिक्षु-संघ के पीछे-पीछे चलते थे । बुद्ध अंधविंद पहुँचे। एक ब्राह्मण को बारी न मिलने से ऐसा हुआ'पीछे-पीछे चलते हुए दो महीने से अधिक हो गए बारी नहीं मिल रही है । मैं अकेला हूँ, मेरे घर के बहुत से काम की हानि हो रही है। क्यों न मैं भोजन परसने को देखू ? जो परसने में न हो उसको मैं दूं।' ब्राह्मण ने भोजन में यवागू और लड्डू को न देखा । तब ब्राह्मण आनन्द के पास गया और बोला : --'तो आनन्द ! भोजन में यवागू और लड्डू मैंने नहीं देखा। यदि मैं यवागू और लड्डू को तैयार कराऊँ तो क्या आप गौतम उसे स्वीकार करेंगे?' 'ब्राह्मण ! मैं इसे भगवान से पूछेगा।' आनन्द ने सभी बातें बुद्ध से कहीं। बुद्ध ने कहा 'तो आनन्द ! वह ब्राह्मण तैयार करे ।' आनन्द ने कहा --- 'तो ब्राह्मण तैयार करो।' ब्राह्मण दूसरे दिन बहुत-सा यवागू और लड्डू तैयार करा बुद्ध के पास लाया । बुद्ध और सारे संघ ने उन्हें ग्रहण किया । इस घटना से स्पष्ट है कि बौद्ध साधु अपने उद्देश्य से बनाया खाते थे और अपने लिए बनवा भी लेते थे। ६. क्रीतकृत (कीयगडं क ) : चुणि के अनुसार जो दूसरे से खरीदकर दी जाय वह वस्तु 'क्रीतकृत' कहलाती है । टीका के अनुसार जो साधु के लिए क्रय की गई हो-खरीदी गई हो वह क्रीत और जो उससे निर्वतित है—कृत है-बनी हुई है-बहू क्रोतकृत है। इस शब्द के अर्थ--- साधु के निमित्त खरीद की हुई वस्तु अथवा साधु के निमित्त खरीद की हुई वस्तु से बनाई हुई वस्तु-दोनों होते हैं। क्रीतकृत का वर्जन भी हिंसा-परिहार की दृष्टि से ही है। इस अनाचीर्ण का विस्तृत वर्णन आचार्य भिक्षु कृत साधु-आचार की ढालों में मिलता है । आगमों में जहाँ-जहाँ औद्देशिक का वर्जन है वहाँ-वहाँ प्रायः सर्वत्र ही क्रीतकृत का वर्जन जुड़ा हुआ है। बौद्ध भिक्षु क्रीतकृत लेते थे। उसकी अनेक घटनाएँ मिलती हैं। १०. नित्यान ( नियागं ख ) : जहाँ-जहाँ औद्द शिक का वजन है वहाँ-वहाँ 'नियाग' का भी वर्जन है। आगमों में 'नियाग' शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है। 'नियागट्ठी' और 'नियाग-पडिवण्ण' ये भिक्षु के विशेषण हैं। 'उत्तराध्ययन', 'आचाराङ्ग' और 'सूत्रकृताङ्ग' में व्याख्याकारों ने 'नियाग' का अर्थ मोक्ष, संयम या मोक्ष-मार्ग किया है। अनाचार के प्रकरण में नियाग' तीसरा अनाचार है। छठे अध्याय के ४६ वें श्लोक में भी इसका उल्लेख हुआ है। दोनों चूणिकार छठे अध्ययन में प्रयुक्त नियाग' शब्द के अर्थ की जानकारी के लिए तीसरे अध्ययन की ओर संकेत करते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में उन्होंने नियाग' का अर्थ इस प्रकार किया है - आदर पूर्वक निमन्त्रित होकर किसी एक घर से प्रतिदिन भिक्षा लेना नियाग', 'नियतता' या 'निबन्ध' नाम का अनाचार है। सहज भाव से, निमन्त्रण के बिना प्रतिदिन किसी घर की भिक्षा लेना 'नियाग' नहीं है । टीकाकार ने दोनों स्थलों पर नियाग' का जो अर्थ किया है वह चूर्णिकारों के अभिमत से भिन्न नहीं है । १-विनयपिटक महावग्ग ६.४.३ पृ० २३४ से संक्षिप्त । २-(क) अ० चू० : कोतकडं जं किणिऊण दिज्जति । (ख) जि० चू० पृ० १११ : अन्यसत्कं यत्तुं दीयते क्रीतकृतम् । ३-हा० टी० १० ११६ : क्रयण -क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृत–निर्वतित क्रीतकृतम् । ४-भिक्षु-ग्रन्थ (प्र० ख०) पृ० ८८६.६० आचार री चौपाई : २६.२४-३१ । ५-- (क) अ० चू० पृ०६० : नियागं—प्रतिणियतं जं निब्बंधकरणं, ण तु जं अहासमावतीए दिणे दिणे भिक्खागहणं । (ख) जि० चू० पृ० १११,११२: नियागं नाम निययत्ति वुत्तं भवति, तं तु यदा आयरेण आमंतिओ भवइ जहा 'भगवं ! तुभेहिं मम दिणे दिणे अणुग्गहो कायब्बो' तदा तस्स अब्भुवगच्छंतस्स नियागं भवति, ण तु जत्थ अहाभावेण दिणे दिणे भिक्खा लब्भइ। ६-(क) हा० टी० ५० ११६ : 'नियाग' मित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न तु अनामन्त्रितस्य । (ख) दश० ६.४८ हा० टी० ५० २०३ : 'नियागं' ति–नित्यमामन्त्रितं पिण्डम् । Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ५२ अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० १० आचार्य भिक्षु ने 'नियाग' का अर्थ नित्यपिंड - प्रतिदिन एक घर का आहार लेना किया है' । घूर्णिकार और टीकाकार के समय तक 'नियाग' शब्द का अर्थ यह नहीं हुआ । अववरिकार ने टीकाकार का ही अनुसरण किया है। दीपिकाकार इसका अर्थ 'आमन्त्रितपिंड का ग्रहण करते हैं, नित्य, शब्द का प्रयोग नहीं करते' स्तबकों (वों में भी यही अर्थ रहा है की यह परम्परा छूटकर 'एक घर का आहार सदा नहीं लेना' यह परम्परा कब चली, इसका मूल 'नित्य - पिंड' शब्द है । स्थानकवासी संप्रदाय में सम्भवतः 'नित्य - पिंड' का उक्त अर्थ ही प्रचलित था । निशीथ भाष्यकार ने एक प्रश्न खड़ा किया— जो भोजन प्रतिदिन गृहस्थ अपने लिए बनाता है, उसके लिए यदि निमन्त्रण दिया जाय तो उसमें कौन-सा दोष है ? इसका समाधान उन्होंने इन शब्दों में किया-निमन्त्रण में अवश्य देने की बात होती है इसलिए वहाँ स्थापना, आधाकर्म, क्रीत, प्रामित्य आदि दोषों की सम्भावना है। इसलिए स्वाभाविक भोजन भी निमन्त्रणपूर्वक नहीं लेना चाहिए । आचार्य भिक्षु को भी प्रतिदिन एक घर का आहार लेने में कोई मौलिक दोष प्रतीत नहीं हुआ । उन्होंने कहा इसका निषेध शिथिलतानिवारण के लिए किया गया है। 'दशवेकालिक' में जो अनाचार गिनाये हैं उनका प्रायश्चित्त निशीथ सूत्र में बतलाया गया है। वहां 'नियाग' के स्थान में 'णितियं अग्गपिंड' ऐसा पाठ है। वर्णिकार ने 'णितिय' का अर्थ शाश्वत और 'अग्र' का अर्थ प्रधान किया है तथा वैकल्पिक रूप में 'अग्रपिण्ड' का अर्थ प्रथम बार दिये जाने वाला भोजन किया है" । 1 भाव्यकार ने 'णितिय - अग्गपिंड' के कल्पाकल्प के लिए चार विकल्प उपस्थित किये हैं--निमन्त्रण, प्रेरणा, परिमाण और स्वाभाविक । गृहस्थ साधु को निमन्त्रण देता है-भगवन् ! आप मेरे घर आएँ और भोजन लें - यह निमन्त्रण है । साधु कहता है - मैं अनुपहतो मुझे क्या देगा ? गृहस्थ कहता है-जो आपको चाहिए वही दूंगा साधु कहता है-घर पर चले जाने पर तू देगा या नहीं ? गृहस्थ कहता है – दूंगा । यह प्रेरणा या उत्पीड़न है । इसके बाद साधु कहता है तू कितना देगा और कितने समय तक देगा ? यह परिमाण है । ये तीनों विकल्प जहाँ किए जायें वह 'णितिय - पिंड' साधु के लिए अग्राह्य है । और जहाँ ये तीनों विकल्प न हों, गृहस्थ के अपने लिए बना हुआ सहज-भोजन हो और साधु सहज भाव से भिक्षा के लिए चला जाये, वैसी स्थिति में 'जितिया नहीं है इसके अगले चार सूत्रों में क्रमशः नित्य-पिंड, नित्य अपार्ध, नित्य-भाग और नित्य - अपार्ध भाग का भोग करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है"। इनका निषेध भी निमन्त्रण आदि पूर्वक नित्य भिक्षा ग्रहण के प्रसंग में किया गया है। निशीथ का यह अर्थ 'दशवेकालिक' के अर्थ से भिन्न नहीं है । शब्द-भेद अवश्य है। 'दशवेकालिक' में इस अर्थ का वाचक 'नियाग' १ (क) भिक्षु प्रन्य० (प्र० ब०) पृ० ७८२ आरी चौ० १.११ नितको बहरे एकण घर को, व्यारां में एक आहार जी। दसवेकालक तीजा में कह्यो, साधु ने अणाचार जी ।। (ख) भिक्षु ग्रन्थ० ( प्र० ख० ) पृ० ८६०-६१ : २६.३२ – ४५ । २ - दश० ३.२ अव० : नित्यं निमन्त्रितस्य पिण्डम् – नित्य पिण्डकम् । ३ - दी० ३.२ : आमन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणम् । ४- नि० भा० १००३ । ५- नि० भा० १००४-६ । ६-आधाकर्मी ने मोल लोपो ओतो निश्चय उचा पण निपंड तो ढीला पडता जाणने वरज्यो आ तो तीर्थकरा री बुद्ध ॥ ७- नि० २.३१ : जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुंजइ भुंजतं वा सातिज्जति । ८- नि० २.३१ : काभाष्य णितियं— धुवं सासयमित्यर्थः, अग्रं वरं प्रधानं अहवा जं पढमं दिज्जति सो पुण भत्तट्ठो वा -- --- भिक्खाए वा होज्जा । ६- नि० भा० १०००-१००२ १० नि० २.३२-३५ नितियपि भुजति भुतं वा सातिम्मति । जे भिक्खू नितियं अवड्ढ भुंजति, भुजतं वा सातिज्ञ्जति । विभाग जति भूत वा सातिजति । जे भिक्खू नितिय अवड्ढभागं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३: श्लोक २ टि० १० शब्द है । जबकि निशीथ में इसके लिए 'णितिय-अग्गपिंड' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । निशीथ-भाष्य (१००७) की चुणि में 'णितियअम्गपिंड' के स्थान में 'णीयग्ग' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'णीयग्ग' शब्द विशेष मननीय है। इसका संस्कृत-रूप होगा 'नित्याग्र' । 'नित्याग्र' का प्राकृत-रूप 'णितिय-अन्ग' और 'णीयग्ग' दोनों हो सकते हैं । सम्भवत: नियाग' शब्द 'णीयग्ग' का ही परिवर्तित रूप है। इस प्रकार 'णियग्ग' और 'णितिय-अग्ग' के रूप में 'दशवैकालिक' और 'निशीथ' का शाब्दिक-भेद भी मिट जाता है। कुछ आचार्य 'नियाग' का संस्कृत-रूप 'नित्याक' या 'नित्य' करते हैं, किन्तु उक्त प्रमाणों के आधार पर इसका संस्कृत-रूप 'नित्याग्र' होना चाहिए। निशीथ चूर्णिकार ने 'नित्याग्र पिंड' के अर्थ में निमन्त्रणादि-पिंड और निकाचना-पिंड का प्रयोग किया है । इनके अनुसार 'नित्याग्र' का अर्थ नियमित रूप से ग्राह्य भोजन या निमन्त्रण-पूर्वक ग्राह्य भोजन होता है। __ 'नियाग' नित्याग्रपिण्ड का संक्षिप्त रूप है। 'पिंड' का अर्थ अग्र में ही अन्तर्निहित किया गया है । यहाँ 'अग्र' का अर्थ अपरिभुक्त, प्रधान अथवा प्रथम हो सकता है। ‘णितिय-अग्ग' का नियाग' के रूप में परिवर्तन इस क्रम से हुआ होगा—णितिय-अग्ग=णि इय-अग्ग=णीय-अग्ग=णीयग्ग= णियग्ग=णियाग। इसका दूसरा विकल्प यह है कि नियाग' का संस्कृत-रूप नियाग' ही माना जाए । 'यज्' का एक अर्थ दान है। जहाँ दान निश्चित हो वह घर 'नियाग' है। बौद्ध-साहित्य में 'अग्ग' शब्द का घर के अर्थ में प्रयोग हुआ है। इस दृष्टि से 'नित्याग्र' का अर्थ 'नित्य-गृह' (नियत घर से भिक्षा लेना) भी किया जा सकता है । 'अग्र' का अर्थ प्रथम मानकर इसका अर्थ किया जाए तो जहाँ नित्य (नियमतः) अग्र-पिण्ड दिया जाए वहाँ भिक्षा लेना अनाचार है-यह भी हो सकता है। 'आचाराङ्ग' में कहा है-जिन कुलों में नित्य-पिण्ड, नित्य अग्र-पिण्ड, नित्य-भाग, नित्य-अपार्ध-भाग दिया जाए वहाँ मुनि भिक्षा के लिए न जाए। इससे जान पड़ता है कि उस समय अनेक कुलों में प्रतिदिन नियत-रूप से भोजन देने का प्रचलन था जो नित्य-पिण्ड कहलाता था और कुछ कुलों में प्रति दिन के भोजन का कुछ अंश ब्राह्मण या पुरोहित के लिए अलग रखा जाता था, वह अग्र-पिण्ड, अग्रासन, अग्र-कूर और अनाहार कहलाता था । नित्य-दान वाले कुलों में प्रतिदिन बहुत याचक नियत-भोजन पाने के लिए आते रहते थे। उन्हें पूर्ण-पोष, अर्ध-पोष या चतुर्थांश-पोष दिया जाता था । नित्यान-पिण्ड और नित्य-पिण्ड से वस्तु के अंतर की सूचना मिलती है। जो श्रेष्ठ आहार निमन्त्रण पूर्वक नित्य दिया जाता था उसके लिए 'नित्याग्र-पिण्ड' और जो साधारण भोजन नित्य दिया जाता था उसके लिए 'नित्य-पिण्ड' का प्रयोग हआ होगा । पाणिनि ने प्रतिदिन नियमित-रूप से दिए जाने वाले भोजन को नियुक्त-भोजन' कहा है । इसके अनुसार जिस व्यक्ति को पहले नियमित रूप से भोजन दिया जाए वह 'आग्रभोजनिक' कहलाता है। इस सूत्र में पाणिनि ने 'अग्र-पिण्ड' की सामाजिक परम्परा के अनुसार व्यक्तियों के नामकरण का निर्देश किया है । साधारण याचक स्वयं नियत भोजन लेने चले जाते थे । ब्राह्मण, पुरोहित और श्रमणों को १-नि० भा० १००७ : ताहे णीयग्गापडं गेहति । २---उत्तराध्ययन २०.४७ को बृहद्वृत्ति । ३-नि० भा० १००५ चू० : तस्मान्निमन्त्रणादि-पिण्डो वय: । नि० भा० १००६ चू० : कारणे पुण णिकायणा-पिडं गेण्हेज्ज । ४-जी० ००। ५--नि० चू० २.३२ : 'अग्रं' वरं प्रधान। ६-निश्चितो नियतो यागो दानं यत्र तन्नियागम् । ७-खुग्ग-क्षौर-गृह । ८- आ० चू० १.१६ : इमेसु खलु कुलेसु णितिए पिंडे दिज्जइ, णितिए अग्गपिंडे दिज्जइ, णितिए भाए दिज्जइ, णितिए अवड्ढभाए दिज्जइ-तहप्पगाराई कुलाई णितियाई णिति उमाणाई णो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा। ६-आ० चू० १.१६ वृ : शाल्योदनादे : प्रथममुद्धृत्य भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते सोऽग्रपिण्डः । १०-आ० चू० १.१६ : तहप्पगाराई कुलाई णितियाई णितिउमाणाई । ११-आ० चू० १.१६ । १२-पाणिनि अष्टाध्यायी ४.४.४६ : तदस्मै दीयते नियुक्तम् । Jain Education Intemational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ५४ अध्ययन ३ श्लोक २ टि० ११ आमन्त्रण या निमन्त्रण दिया जाता था। पुरोहितों के लिए निमन्त्रण को अस्वीकार करना दोष माना जाता था। बौद्ध श्रमण निमन्त्रण पाकर भोजन करने जाते थे । भगवान् महावीर ने निमन्त्रणपूर्वक भिक्षा लेने का निषेध किया । भाव्य, चूर्णि और टीकाकार ने 'नियाग' का अर्थ आमन्त्रण-पूर्वक दिया जानेवाला भोजन किया। उसका आधार 'भगवती' में मिलता है। वहाँ विशुद्ध भोजन का एक विशेषण 'अना'है' तिकार ने इसके तीन अर्थ किये है अनित्य-पिण्ड अनाहूत और अपर्यादित श्रीमद् जयाचार्य का अभिप्राय भी वृतिकार से भिन्न नहीं है । 'प्रश्नव्याकरण' ( संवर द्वार १ ) में भी इसी अर्थ में 'अणाहूय' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार 'नियाग' और 'आहूत' का अर्थ एक ही है। नियाग का संस्कृत रूप 'निकाच' (निमंत्रण) भी हो सकता है । 1 बौद्ध विनयपिटक में एक प्रसंग है जिससे 'नियाग' - नित्य आमन्त्रित का अर्थ स्पष्ट हो जाता है : "शाक्य महानाम के पास प्रचुर दवाइयाँ थीं। उसने बुद्धका अभिवादन कर कहा 'भन्ते ! मैं भिक्षु संघ को चार महीने के लिए दवाइयाँ ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करना चाहता हूँ ।' बुद्ध ने निमन्त्रण की आज्ञा दी। पर भिक्षुओं ने उसके निमन्त्रण से दवाइयाँ नहीं लीं । बुद्ध ने कहा भिक्षुओ ! अनुमति देता हूं चार महीने तक दवाइयाँ ग्रहण करने के निमन्त्रण को स्वीकार करने की दवाइयाँ काफी बच गई। महानाम ने पुनः चार महीने के लिए दवा लेने का निमन्त्रण किया। बुद्ध ने कहा- 'भिक्षुओं! अनुमति देता है पुनः चार महीने के लिए निमन्त्रण को स्वीकार करने की दवाइयां फिर भी बच गई । महानाम ने जीवन भर दवाइयां लेने का निमन्त्रण स्वीकार करने की विनती की। बुद्ध ने कहा- 'भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ जीवन-भर दवाइयाँ ग्रहण करने के निमन्त्रण को स्वीकार करने की ।' इससे स्पष्ट है कि बौद्ध भिक्षु स्थायी निमंत्रण पर एक ही घर से रोज-रोज दवाइयां ला सकते थे। भगवान् महावीर ने अपने भिक्षुओं के लिए ऐसा करना अनाचीर्णं बतलाया है । ११. अभिहृत (अभिहाणि ष) आगमों में जहाँ-जहाँ औद्देशिक, क्रीतकृत आदि का वर्णन है वहाँ अभिहृत का भी वर्णन है । | अभिहृत का शाब्दिक अर्थ है- सम्मुख लाया हुआ । अनाचीर्ण के रूप में लिए गृहस्थ द्वारा अपने ग्राम, घर आदि से उसके अभिमुख लाई हुई वस्तु इसका बताया है कि कोई गृहस्थ भिक्षु के निमित्त तीन घरों के आगे से आहार लाये तो उसे लेने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है । तीन घरों की सीमा भी वही मान्य है जहाँ से दाता को देने की प्रवृत्ति देखी जा सकती हो। पिण्ड नियंक्ति में सौ हाथ या उससे कम हाथ की दूरी से लाया हुआ आहार आचीर्ण माना है । वह भी उस स्थिति में जबकि उस सीमा में तीन घरों से अधिक घर न हों । 'अभिहडाण' शब्द बहुवचन में है। वृणि और टीकाकार के अभिमत से अभिहृत के प्रकारों की सूचना देने के लिए ही बहुवचन १०७.१.२०० कपमकारियमसंकयियमणायमकी दि २ उक्त सूत्र की टीका पृ०२९३ : न च विद्यते आहूतमाह्वानमामंत्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रमन्नं ग्राह्यमित्येवं रूपं कर्म्मकराद्याकारणं वा साध्यर्थं स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सोनाहूतः अनित्यपिण्डोऽनभ्याहृतो वेत्यर्थः, स्पर्धा वा आहूतं तन्निषेधादनाहूतो दायकेनाsस्पर्धया दीयमानमित्यर्थः । ड ३ – भग० जो० ढाल ११४ गाथा ४३ : गृही कहै नित्य प्रति मुज घर वहिरोयं रे, ते नित्य पिंड न लेवं मुनिराय रे । अथवा साहमो आण्यो लेवें नहीं रे, ए अणाहूयं नो अर्थ कहाय रे ॥ 4- Sacred Books of the Buddhists Vol XI. Book of the Discipline Part II pp. 368-373. ५ (क) अ० चू० पृ० ६०: अभिहडं जं अभिमुहामाणीतं उवस्सए आऊण दिण्णं । (ख) जि० (ग) हा० डी० प० ११६ स्वप्रमादेः साधुनिमितमभिमुखमानीतमध्याहृतम् । १० चू० पृ० ११२ । इसका अर्थ है - साधु के निमित्त उसको देने के प्रवृत्ति लभ्य अर्थ निशीथ में मिलता है । वहाँ ६ - नि ३.१५ : जे भिक्खु गाहावइ- कुलं पिण्डवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे परं ति घरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं साइमं वा अभिहडं आहट्टु दिज्जमाणं पडिग्गाहेति पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति । ७ -- पि० नि० ३.४४ : आइन्नमि ( ३ ) तिगिहा ते चिय उवओगपुव्वागा । ८ - पि० नि० ३.४४ : हत्थसय खलु देसो आरेणं होई देसदेसोय । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुडियावारका (क्षुल्लिकाचार-कथा) ५५ का प्रयोग किया है' । पिण्ड-निर्युक्ति और निशीथ भाष्य में इसके अनेक प्रकार बतलाये हैं । इसकी अनेक घटनाएं मिलती है। एक घटना इस प्रकार है बौद्ध भिक्षु अभिहृत लेते थे ' एक बार एक ब्राह्मण ने नये तिलों और नये मधु को बुद्ध सहित भिक्षु संघ को प्रदान करने के विचार से बुद्ध को भोजन के लिए निमन्त्रित किया । वह इन चीजों को देना भुल गया। बुद्ध और भिक्षु संघ वापस चले गए। जाने के थोड़ी ही देर बाद ब्राह्मण को अपनी भूल याद आई । उसको विचार आया 'क्यों न मैं नये तिलों और नये मधु को कुण्डों और घड़ों में भर आराम में ले चलूं ।' ऐसा ही कर उसने बुद्ध से कहा- 'भो गौतम ! जिनके लिए मैंने बुद्ध-सहित भिक्षु संघ को निमंत्रित किया था उन्हीं नये तिलों और नये मधु को देना में भूल गया। आप गौतम उन नये तिलों और मधु को स्वीकार करें।' बुद्ध ने कहा ''भिक्षुओं ! अनुमति देता है वहाँ से (गृहपति के घर से ) लाए हुए भोजन की पूर्ति हो जाने पर भी अतिरिक्त न हो तो उसका भोजन करने की ।" यह अभिहृत का अच्छा उदाहरण है। भगवान् महावीर ऐसे अभिहृत को हिंसायुक्त मानते थे और इसका लेना साधु के लिए अकल्प्य घोषित किया था । 'अगस्त्य पूर्णि' में 'णियागाऽभिहडाणि य' 'णियागं अभिहडाणि य' ये पाठान्तर मिलते हैं । यहाँ समास के कारण प्राकृत में बहुवचन के व्यवहार में कोई दोष नहीं है । औद्देशिक यावत् अभिहृत: औद्देशिक, क्रीतकृत, नियाग और अभिहृत का निषेध अनेक स्थलों पर आया है। इसी आगम में देखिए -- ५०१.५५; ६.४७-५०; ६.२३ । उत्तराध्ययन ( २०.४८) में भी इसका वर्जन है । 'सूत्रकृताङ्ग' में अनेक स्थलों पर इनका उल्लेख है । इस विषय में महावीर के समकालीन बुद्ध का अभिप्राय भी सम्पूर्णतः जान लेना आवश्यक है । हम यहाँ ऐसी घटना का उल्लेख करते हैं जो बड़ी ही मनोरंजक है और जिससे बौद्ध और जैन नियमों के विषय में एक तुलनात्मक प्रकाश पड़ता है । घटना इस प्रकार है : "निगंठ सिंह सेनापति बुद्ध के दर्शन के लिए गया । समझ कर उपासक बना। शास्ता के शासन में स्वतन्त्र हो तथागत से बोला : १ (क) ० ००११२ अभिदात बहु अभिनेता दरिसिता भवन्ति । (ख) हा० टी० १० ११६ बहुवचनं स्वग्रामवर ग्रामनिशीवादिभेदस्थापनार्थम् । (ग) अ० ० अहवा अभिसंपत्थं । २- पि०नि० ३२६-४६; नि० भा० १४८३.८८ : अभिहृत आचीर्ण निशीचाभ्याहृत अनाचीर्ण स्वग्राम नोनिशीथाभ्याहत I नोगृहान्तर जलपथ द्वारा परग्राम स्वदेश स्थलपथ द्वारा अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० ११ नाव द्वारा ३ - विनय पिटक : महावग्ग ६.३.११ पु० २२८ से संक्षिप्त । ४ - दश० ६.४८ । I उडुप द्वारा जङ्घा द्वारा पाद द्वारा नाव द्वारा विदेश जलपथ द्वारा 1 स्थलपथ द्वारा उडुप द्वारा जङ्घा द्वारा पाद द्वारा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० ११ 'भन्ते ! भिक्षु-संघ के साथ मेरा कल का भोजन स्वीकार करें।' तथागत ने मौन से स्वीकार किया। सिंह सेनापति स्वीकृति जान तथागत को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर चला गया । तब सिंह सेनापति ने एक आदमी से कहा- 'जा तू तैयार मांस को देख तो।' तब सिंह सेनापति ने उस रात के बीतने पर अपने घर में उत्तम खाद्य-भोज्य तयार करा, तथागत को काल की सूचना दी। तथागत वहाँ जा भिक्षु-संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे । उस समय बहुत से निगंठ वैशाली में एक सड़क से दूसरी सड़क पर, एक चौरास्ते से दूसरे चौरास्ते पर, बाँह उठाकर चिल्लाते थे-- 'आज सिंह सेनापति ने मोटे पशु को मारकर, श्रमण गौतम के लिए भोजन पकाया; श्रमण गौतम जान-बूझकर (अपने ही) उद्देश्य से किये, उस मांस को खाता है ।' तब किसी पुरुष ने सिंह सेनापति के कान में यह बात डाली। सिंह बोला : 'जाने दो आर्यो ! चिरकाल से आयुष्मान् (निगंठ) बुद्ध, धर्म, संघ की निन्दा चाहने वाले हैं । यह असत्, तुच्छ, मिथ्या=अ-भूत निंदा करते नहीं शरमाते । हम तो (अपने) प्राण के लिए भी जान-बूझकर प्राण न मारेंगे।' सिंह सेनापति ने बुद्ध सहित भिक्षु-संघ को अपने हाथ से उत्तम खाद्य-भोज्य से संतर्पित कर, परिपूर्ण किया। तब तथागत ने इसी सम्बन्ध में इसी प्रकरण में धार्मिक कथा कह भिक्षओं को सम्बोधित किया-'भिक्षुओ ! जान-बूझ कर (आने) उद्देश्य से बने मांस को नहीं खाना चाहिए। जो खाये उसे दुक्कट का दोष हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ (अपने लिए मारे को) देखे, सुने, संदेहयुक्त- इन तीन बातों से शुद्ध मछली और मांस (के खाने) की।" इस घटना से निम्नलिखित बातें फलित होती हैं : (१) सिंह ने किसी प्राणी को नहीं मारा था (२) उसने बाजार से सीधा मांस मँगवाकर उसका भोजन बनाया था, (३) सीधा मांस लाकर बौद्ध भिक्षुओं के लिए भोजन बना खिलाना बुद्ध की दृष्टि में औद्देशिक नहीं था; (४) पशु को मार कर मांस तैयार करना ही बुद्ध-दृष्टि में औद्दे शिक था और (५) अशुद्ध मांस टालने के लिए बुद्ध ने जो तीन नियम दिये वे जैनों की आलोचना के परिणाम थे। उससे पहले ऐसा कोई नियम नहीं था। उपयुक्त घटना इस बात का प्रमाण है कि बुद्ध और बौद्ध भिक्षु निमन्त्रण स्वीकार कर आमन्त्रित भोजन ग्रहण करते थे। त्रिपिटक में इसके प्रचुर प्रमाण मिलते हैं । संघ-भेद की दृष्टि से देवदत्त ने श्रमण गौतम बुद्ध से जो पाँच बातें मांगी थी उनमें एक यह भी थी कि भिक्षु जिन्दगी-भर पिण्डपातिक (भिक्षा मांग कर खाने वाले) रहें। जो निमन्त्रण खाये उसे दोष हो । बुद्ध ने इसे स्वीकार नहीं किया। इससे यह स्पष्ट ही है कि निमन्त्रण स्वीकार करने का रिवाज बौद्ध-संघ में शुरू से ही था। बुद्ध स्वयं पहले दिन निमन्त्रण स्वीकार करते और दूसरे दिन सैकड़ों भिक्षुओं के साथ भोजन करते। बौद्ध श्रमणोपासक भोजन के लिए बाजार से वस्तुएं खरीदते, उससे खाद्य वस्तुएं बनाते। यह सब भिक्षु-संघ को उद्देश्य कर होता था और बुद्ध अथवा बौद्ध-भिक्षुओं की जानकारी के बाहर भी नहीं हो सकता था। इसे वे खाते थे। इस तरह निमन्त्रण स्वीकार करने से बौद्ध भिक्षु औद्दे शिक, क्रीतकृत नियाग और अभिहत चारों प्रकार के आहार का सेवन करते थे, यह भी स्पष्ट ही है। देवदत्त ने दूसरी बात यह रखी थी कि भिक्ष जिन्दगी-भर मछली-मांस न खायें, जो खाये उसे दोष हो। बुद्ध ने इसे भी स्वीकार न किया और बोले : "अदृष्ट, अश्रुत, अपरिशंकित इन तीन कोटि से परिशुद्ध मांस की मैंने अनुज्ञा दी है।” इसका अर्थ भी इतना ही था कि उपासक द्वारा पशु नहीं मारा जाना चाहिए। उपासक ने भिक्षुओं के लिए पशु मारा है- यदि भिक्षु यह देख ले, सुन ले अथवा उसे इसकी शंका हो जाय तो वह ग्रहण न करे अन्यथा वह ग्रहण कर सकता है। बौद्ध-भिक्षुओं को खिलाने के लिए सीधा मांस खरीद कर उसे पकाया जा सकता था—यह सिंह सेनापति की घटना से स्वयं ही सिद्ध है। ऐसा करनेवाले के पाप नहीं माना जाता था किन्तु पुण्य माना जाता था; यह भी निम्नलिखित घटना से प्रकट होगा: १--विनर्यापटक : महावग्ग : ६.४.८ पु० २४४ से संक्षिप्त । R--Sacred Books of The Buddhists Vol. XI : Book of the Discipline Part II & III : Indexes pp. ___421 & 430. See "Invitation." ३-विनयपिटक : चुल्लवग्ग ७.२.७ पृ०४८८ । Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुडियापारकाध (सुल्लिकाचार- कहा ) ५७ अध्ययन ३ श्लोक २ टि० १२ "एक श्रद्धालु तरुण महामात्य ने दूसरे दिन के लिए बुद्ध सहित भिक्षु संघ को निमन्त्रित किया। उसे हुआ कि साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के लिए साढ़े बारह सौ थालियाँ तैयार कराऊँ और एक-एक भिक्षु के लिए एक-एक मांस की थाली प्रदान करूँ । रात बीत जाने पर ऐसा ही कर उसनेत थागत को सूचना दी - 'भन्ते ! भोजन का काल है, भात तैयार है ।' तथागत भिक्षु संघ सहित बिछे आसन पर जा बैठे। महामात्य चौके में भिक्षुओं को परोसने लगा । भिक्षु बोले : 'आबुस ! थोड़ा दो । आबुस ! थोड़ा दो ।' 'भन्ते ! यह श्रद्धालु महामात्य तरुण है - यह सोच थोड़ा-थोड़ा मत लीजिए। मैंने बहुत खाद्य-भोज्य तैयार किया है । साढ़े बारह सौ मांस की थालियां तैयार की हैं जिससे कि एक-एक भिक्षु को एक-एक मांस की थाली प्रदान करूँ । भन्ते ! खूब इच्छापूर्वक ग्रहण कीजिए ।' 'आस ! हमने सबेरे ही भोज्य यवागू और मधुगोलक खा लिया है, इसलिए थोड़ा-थोड़ा ले रहे हैं ।' महामात्य असन्तुष्ट हो भिक्षुओं के पात्रों को भरता चला गया 'खाओ या ले जाओ। खाओ या ले जाओ ।' "तथागत संतर्पित हो वापस लौटे । महामात्य को पछतावा हुआ कि उसने भिक्षुओं के पात्रों को भर उन्हें यह कहा कि खाओ या ले जाओ। वह तथागत के पास आया और अपने पछतावे की बात बता पूछने लगा- 'मैंने पुण्य अधिक कमाया या अपुण्य ?" तथागत बोले 'आस! जो कि तूने दूसरे दिन के लिए बुद्ध-सहित भिक्षु संघको मत किया इससे तूने बहुत उपार्जित किया । जो कि तेरे यहाँ एक-एक भिक्षु ने एक-एक दान ग्रहण किया इस बात से तूने बहुत पुण्य कमाया। स्वर्ग का आराधन किया ।' ' लाभ हुआ मुझे, सुलाभ हुआ मुझे, मैंने बहुत पुण्य कमाया, स्वर्ग का आराधन किया- सोच हर्षित हो तथागत को अभिवादन कर महामात्य प्रदक्षिणा कर चला गया ।" यह घटना इस बात पर सुन्दर प्रकाश डालती है कि औद्देशिक, क्रीतकृत और नियाग आहार बौद्ध भिक्षुओं के लिए वर्जनीय नहीं थे । बुद्ध और महावीर के भिक्षा नियमों का अन्तर उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है । महावीर औद्दे शिक आदि चारों प्रकार के आहार ग्रहण में ही नहीं, अन्य वस्तुओं के ग्रहण में भी स्पष्ट हिंसा मानते जब कि बुद्ध ऐसा कोई दोष नहीं देखते थे और आहार की तरह ही अन्य ऐसी वस्तुएँ ग्रहण करते थे। बौद्ध संघ के के लिए विहार आदि बनाये जाते थे और बुद्ध तथा बौद्ध भिक्षु उनमें रहते थे जबकि महावीर ओद्दशिक मकान में नहीं ठहरते थे । महावीर के इन नियमों में अहिंसा का सूक्ष्म दर्शन और गम्भीर विवेक है। जहाँ सूक्ष्म हिंसा भी उन्हें मालूम दी वहाँ उससे बचने का मार्ग उन्होंने ढूंढ़ बताया सूक्ष्म हिंसा से बचाने के लिए ही उन्होंने भिक्षुओं से कहा था "गृहस्थों द्वारा अनेक प्रकार के शस्त्रों से लोक-प्रयोजन के लिए कर्म-समारम्भ किये जाते हैं। गृहस्व अपने लिए पुत्रों के लिए, पुत्रवधुओं के लिए ज्ञातियों के लिए यात्रियों के लिए, दासों के लिए दासियों के लिए, कर्मकरों के लिए, कर्मकरियों के लिए अतिथियों के लिए विभिन्न उपहारों या उत्पयों के लिए, शाम के भोजन के लिए, प्रातःराश कलेवे के लिए, संसार के किसी-न-किसी मानव के भोजन के लिए, सन्निधि-संचय करते हैं । भिक्षा के लिए उठा हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी अनगार सर्व प्रकार के आमगंध-औद्दे शिक आदि आहार को जान उसे ग्रहण न करे, न कराए, न उसके ग्रहण का अनुमोदन करे निरामय होकर विचरण करे।" 1 १२. रात्रि-भक्त ( राइभत्ते ग ) रात्रि-भक्त के चार विकल्प होते हैं (३) रात में लाकर दिन में खाना और ( ४ ) (१) दिन में लाकर दूसरे दिन दिन में खाना ( २ ) दिन में लाकर रात्रि में खाना रात में लाकर रात में खाना । इन चारों का ही निषेध है । १- विनयपिटक : महावग्ग ६.७५ पृ० २-- विनयपिटक: चुल्लवग्ग ६.३.१ पृ० ३ - आ० ११२११०४-१०८ । " ४ – (क) प्र० धू० पृ० ६० तं रातिमत्तं चतु तं जहा दिवा घेतुं वितियदिवसे दिवा जति दिवा घे राति जति २ राति घेत्तु दिवा भुजति ३ राति घेतुं राति भुजति ४ । २३५-३६ से संक्षिप्त । ६४१-६२ । (ख) जि० ० पृ० ११२ । (ग) हा० टी० प० ११६ रात्रिभक्त" रात्रिभोजनं दिवसगृहीतदिवसमुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणम् । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३: श्लोक २ टि०१३ रात्रि-भोजन वर्जन को श्रामण्य का अविभाज्य अङ्ग माना है। रात में चारों आहारों में से किसी एक को भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। १३. स्नान ( सिणाणे ग ) : स्नान दो तरह के होते हैं -देश-स्नान और सर्व-स्नान । शौच स्थानों के अतिरिक्त आँखों के भौं तक का भी धोना देश-स्नान है। सारे शरीर का स्नान सर्व-स्नान कहलाता है । दोनों प्रकार के स्नान अनाचीणं हैं। ___स्नान-वर्जन में भी अहिंसा की दृष्टि ही प्रधान है। इसी सूत्र (६.६१-६३) में यह दृष्टि बड़े सुन्दर रूप में प्रकट होती है । वहाँ कहा गया है-"रोगी अथवा निरोग जो भी साधु स्नान की इच्छा करता है वह आचार से गिर जाता है और उसका जीवन संयम-हीन हो जाता है । अत: उष्ण अथवा शीत किसी जल से निर्ग्रन्थ स्नान नहीं करते। यह घोर अस्नान-व्रत यावज्जीवन के लिए है।" जैनआगमों में स्नान का वर्जन अनेक स्थलों पर आया है। स्नान के विषय में बुद्ध ने जो नियम दिया वह भी यहाँ जान लेना आवश्यक है। प्रारम्भ में स्नान के विषय में कोई निषेधात्मक नियम बौद्ध-संघ में था, ऐसा प्रतीत नहीं होता । बौद्ध-साधु नदियों तक में स्नान करते थे, ऐसा उल्लेख है । स्नान-विषयक नियम की रचना का इतिहास इस प्रकार है ...उस समय भिक्षु तपोदा में स्नान किया करते थे। एक बार मगध के राजा सेणिय-बिम्बिसार तपोदा में स्नान करने के लिए गए । बौद्ध साधुओं को स्नान करते देख वे एक ओर प्रतीक्षा करते रहे। साधु रात्रि तक स्नान करते रहे । उनके स्नान कर चुकने पर सेणिय-बिम्बिसार ने स्नान किया। नगर का द्वार बन्द हो चुका था। देर हो जाने से राजा को नगर के बाहर ही रात बितानी पड़ी। सुबह होते ही गन्ध-बिलेपन किए वे तथागत के पास पहुँचे और अभिनन्दन कर एक ओर बैठ गए। बुद्ध ने पूछा'आवुस ! इतने सुबह गन्ध-विलेपन किए कैसे आए ?' सेणिय-बिम्बिसार ने सारी बात कही। बुद्ध ने धार्मिक कथा कह सेणिय-बिम्बिसार को प्रसन्न किया । उनके चले जाने के बाद बुद्ध ने भिक्षु-संघ को बुलाकर पूछा- क्या यह सत्य है कि राजा को देख चुकने के बाद भी तुम लोग स्नान करते रहे ?' 'सत्य है भन्ते !' भिक्षुओं ने जवाब दिया । बुद्ध ने नियम दिया : 'जो भिक्षु १५ दिन के अन्तर से पहले स्नान करेगा उसे पाचित्तिय का दोष लगेगा।' इस नियम के बन जाने पर गर्मी के दिनों में भिक्षु स्नान नहीं करते थे । गात्र पसीने से भर जाता । इससे सोने के कपड़े गन्दे हो जाते थे। यह बात बुद्ध के सामने लाई गई। बुद्ध ने अपवाद किया-गर्मी के दिनों में १५ दिन से कम अन्तर पर भी स्नान किया जा सकता है। इसी तरह रोगी के लिए यह लूट दी। मरम्मत में लगे साधुओं के लिए यह छूट दी। वर्षा और आंधी के समय में यह छूट दी । महावीर का नियम था-"गर्मी से पीड़ित होने पर भी साधु स्नान करने की इच्छा न करे।" उनकी अहिंसा उनसे स्नान के विषय में कोई अपवाद नहीं करा सकी । बुद्ध की मध्यम प्रतिपदा-बुद्धि सुविधा-असुविधा का बि वार करती हुई अपवाद गढ़ती गई । भगवान् के समय में शीतोदक-सेवन से मोक्ष पाना माना जाता था। इसके विरुद्ध उन्होंने कहा ---"प्रातः स्नान आदि से मोक्ष नहीं है । सायंकाल और प्रात:काल जल का स्पर्श करते हुए जल-स्पर्श से जो मोक्ष की प्राप्ति कहते हैं वे मिथ्यात्वी हैं। यदि जल-स्पर्श से मुक्ति १-उत्त० १६.३० : चउविहे वि आहारे, राईभोयणवज्जणा। २-(क) अ० चू० पृ०६० : सिणाणं दुविहं देसतो सव्वतो वा । देससिणाणं लेवाडं मोत्तणं जं णेव त्ति, सव्वसिणाणं जं ससीसोण्हाति। (ख) जि० चू० पृ० ११२ : सिणाणं दुविहं भवित, त० देससिणाणं सम्वसिणाणं च, तत्थ देससिणाणं लेवाडयं मोत्तण सेस अच्छि पम्ह पक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ, सव्वसिणाणं जो ससीसतो हाइ। (ग) हा० टी० ५० ११६-१७ : 'स्नानं च'– देशसर्वभेदभिन्नं, देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिपदमप्रक्षालनमपि सर्व स्नानं तु प्रतीतम् । ३-उत्त० २.६% १५.८%; आ० चू० २.२.२.१, २.१३; सू० १.७.२१.२२, १.६.१३ । ४-Sacred Book of The Buddhists Vol. XI. Part II. LVII pp. 400-405. ५.-उत्त० २.६ : उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं वि नो पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ॥ ६-सू० १.७.१३ : पाओसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो। Jain Education Intemational ducation Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड़ियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) ५६ अध्ययन ३ : श्लोक २ टि० १४-१५ हो तो जल में रहने वाले अनेक जीव मुक्त हो जाएँ ! जो जल-स्नान में मुक्ति कहते हैं वे अस्थान में कुशल हैं । जल यदि कर्म-मल को हरेगा तो सुख-पुण्य को भी हर लेगा। इसलिए स्नान से मोक्ष कहना मनोरथ मात्र है। मंद पुरुष अन्धे नेताओं का अनुसरण कर केवल प्राणियों की हिंसा करते हैं । पाप-कर्म करने वाले पापी के उस पाप को अगर शीतोदक हर सकता तब तो जल के जीवों की घात करने वाले जल-जन्तु भी मुक्ति प्राप्त कर लेते । जल से सिद्धि बतलाने वाले मृषा बोलते हैं । अज्ञान को दूर कर देख कि त्रस और स्थावर सब प्राणी सुखाभिलाषी हैं । तू त्रस और स्थावर जीवों की घात को क्रिया न कर । जो अचित्त जल से भी स्नान करता है वह नाग्न्य सेश्रमणभाव से दूर है।" १४. गंध, माल्य ( गन्धमल्ले घ) : ___ गन्ध ---इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ । माल्य—फूलों की माला। इन दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग अनेक स्थलों पर मिलता है । गन्ध-माल्य साधु के लिए अनाचीर्ण है, यह उल्लेख भी अनेक स्थलों पर मिलता है। 'प्रश्नव्याकरण' में पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा कैसे होती है यह बताया गया है। वहाँ उल्लेख है कि गन्ध-माल्य के लिए मूढ़, दारुण-मति लोग वनस्पतिकाय के प्राणियों का घात करते हैं । गन्ध बनाने में फूल या वनस्पति विशेष का मर्दन, घर्षण करना पड़ता है। माला में बनस्पतिकाय के जीवों का विनाश प्रत्यक्ष है। गन्ध-माल्य का निषेध वनस्पतिकाय और तदाश्रित अन्य वस-स्थावर जीवों की हिंसा से बचने की दृष्टि से भी किया गया है । विभूषा-त्याग और अपरिग्रह-महाव्रत की रक्षा की दृष्टि भी इसमें है । साधु को नाना पदार्थों की मनोज्ञ और भद्र सुगन्ध में आसक्त नहीं होना चाहिए ऐसा कहा है। धूणि और टीका में मालाएँ चार प्रकार की बताई गई हैंग्रथित, वेष्टित, पूरिम और संघातिम । बौद्ध-आगम विनयपिटक में अनेक प्रकार की मालाओं का उल्लेख है। १५. वीजन ( वीयणे घ) : तालवृन्तादि द्वारा शरीर अथवा ओदनादि को हवा डालना वीजन है।। जैन-दर्शन में 'षड्जीवनिकायबाद' एक विशेष वाद है । इसके अनुसार वायु भी जीव है। तालवन्त, पंखा, व्यजन, मयूरपंख आदि पंखों से उत्पन्न वायु के द्वारा सजीव वायु का हनन होता है तथा संपातिम जीव मारे जाते हैं।२ । इसीलिए व्यजन का व्यवहार साधु १-सू० १.७.१२-२२। २-(क) अ० चू० पृ०६० : गंधा कोढपुडादतो। (ख) जि० चू० पृ० ११२ : गंधग्गहणेण कोटपुडाइणो गंधा गहिया । (ग) हा० टी०प० ११७ : गन्धग्रहणात्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः । ३-(क) अ० चू० पृ०६० : मल्लं गंथिम-पूरिम-संघातिमं । (ख) जि० चू० १० ११२ : मल्लग्गहणेण गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमं चउविहंपि मल्लं गहितं । (ग) हा० टी०प०११७ : माल्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य । ४-सू० १.६.१३। ५–प्रश्न० १.१ : गंध-मल्ल अणुलेवणं एवमादिएहि बहुहि कारणसतेहिं हिंसंति ते तरुगणे, भणिता एवमादी सत्ते सत्तपरिवज्जिया उवहणंति, दढमूढ़ा दारुणमती। ६-प्रश्न० २.५। ७-देखिए ऊपर पाद-टि०३। -विनयपिटक : चुल्लवग्ग १.३.१ पृ० ३४६ । 8-(क) अ० चू० पृ० ६० : बीयणं सरीरस्स भत्तातिणो वा उक्खेवादीहि । (ख) जि० चू० पृ० ११२ : वीयणं णाम घम्मत्तो अत्ताणं ओदणादि वा तालवेंटाबीहिं वीयेति । (ग) हा० टी०प० ११७ : वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव । १०-दश०४; आ० १.१ । ११-दश० ४ : वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । १२-(क) प्रश्न १.१ : सुप्प वियण तालयंट पेहुण मुह करयल सागपत्त वत्थमाइएहि अणिलं हिंसति । (ख) अ०० पृ०६० : वीयणे संपादिमवायुवहो। Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ६० के लिए अनाचीर्ण कहा है। इसी आगम में अन्य स्थलों तथा अन्य आनमों में भी स्थान-स्थान पर इसका निषेध किया गया है। भीषण गर्मी में भी निर्ग्रन्थ साधु पंखा आदि झलकर हवा नहीं ले सकता । इलोक ३ : १६. सन्निधि (सन्निही क ) सन्निधि का वर्जन अनेक स्थलों पर मिलता है । सन्निधि संचय का त्याग श्रामण्य का एक प्रमुख अंग माना गया है। कहा है - "संयमी मुनि लेशमात्र भी संग्रह न करे।" "संग्रह करना लोभ का अनुस्पर्श है। जो लवण, तेल, घी, गुड़ अथवा अन्य किसी वस्तु के संग्रह की कामना करता है वह गृहस्थ है साधु नहीं - ऐसा मैं मानता हूं।" सन्निधि शब्द बौद्ध त्रिपिटकों में भी मिलता है। बौद्ध साधु आरम्भ में सन्निधि करते थे। संग्रह न करने के विषय में कोई विशेष नियम नहीं था । सर्वप्रथम नियम बनाया गया उसका इतिहास इस प्रकार है-उस समय भ्रमण वेलथसीस, आनन्द के गुरु, जंगल में ठहरे हुए थे । वे भिक्षा के लिए निकले और पक्के चावल लेकर आराम में वापस आए । चावलों को सुखा दिया। जब जरूरत होती पानी से भिगो कर खाते । अनेक दिनों के बाद फिर वे ग्राम में भिक्षा के लिए निकले। साधुओं ने पूछा - ' इतने दिनों के बाद आप भिक्षा के लिए कैसे आए ?' उन्होंने सारी बातें कहीं साधुओं ने पूछा- क्या आप सन्निधिकारक भोजन करते हैं?' 'हाँ, भन्ते ।' यह बात बुद्ध के कानों तक पहुँची । बुद्ध ने नियम बनाया जो भी सन्निधिकारक भोजन खाएगा उसे पाचित्तिय दोष होगा।' रोगी साधु को छूट थी : 'भिक्षु को घी, मक्खन, तेल, मधु, खांड () आदि रोगी भिक्षुओं के सेवन करने लायक पथ्य ( भैषज्य ) को ग्रहण कर अधिक-से-अधिक सप्ताह भर रखकर भोग कर लेना चाहिए। इसका अतिक्रमण करने से उसे निस्सग्गियाचित्तीय है ।' रोगी साधु के लिए भी भगवान् महावीर का नियम था - " साधु को अनेक प्रकार के प्रकोप हो, सन्निपात हो, तनिक भी शान्ति न हो, यहाँ तक कि जीवन का अन्त कर देने वाले लिए या अन्य के लिए औषध, भैषज्य, आहार- पानी का संचय करना नहीं कल्पता" । " १ - दश० ४.१०; ६.३८-४० ; ८.६ । २-आ० १.१.७ ; सू० १.६.८, ६, १८ । ३ – उत्त० २.६ । १७. गृहि अमत्र (मिमिले ) अमत्र या मात्र का अर्थ है भाजन, बरतन । गृहि अमंत्र का अर्थ है गृहस्थ का भाजन" । सूत्रकृताङ्ग में कहा है- "दूसरे के ( गृहस्थ ४ उत्त० १६.३० : सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करं । ५ (क) श० ८.२४ सचिन कुथ्येज्जा अणुमाचि संजए । (ख) उत्त० ६.१५ : सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए । ६- दश० ६.१८ । अध्ययन ३ श्लोक ३ टि०१६-१७ : ७ ये हजार जटिल साधुओं के स्थविर नेता थे । ८—Sacred Books of the Buddhists Vol. VI: Book of Disclpline Part II. pp. 338-440. E--विनयपिटक भिक्षु पातिमोक्ष ४.२३ । ११- (क) अ० चू० पृ० ६०: अत्र निमित्तं गिहिभावणं कंसपत्तादि । (ख) जि० पू० पृ० ११२ विहित विभिाषत। (ग) हा० टी० प० ११७ : 'गृहिमात्र' गृहस्थभाजनम् । रोग आतंक उत्पन्न हों, वात-पित्त-कफ का रोग उपस्थित हो जाएं तो भी उसको अपने १० - प्रश्न० २.५ पृ० २७७-२७८ : जंपिय समस्त सुविहियस्स उ रोगायंके बहुत्यकारंमि समुप्पन्ने वाताहिक पित्त- सिंभ-अतिरिक्त कुविय तह सन्निवातजाते व उदयपत्ते उज्जल-बल- विउल-तिउल-कक्खड-पगाढ दुक्खे असुभ कडुय फरुसे चंडफल- विवागे महम्भये जीवित करणे सव्वसरीर-परितावणकरे न कप्पति तारिसे वि तह अप्पणो परस्स वा ओसह भेसज्ज, भत्त-पाणं च तंपि सन्निहिकयं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) अध्ययन ३ : श्लोक ३ टि० १८ के) बरतन में साधु अन्न या जल कभी न भोगे'।' इस नियम का मूलाधार अहिंसा की दृष्टि है। दशकालिक अ० ६ गा० ५०-५१ में कहा है : “ऐसा करनेवाला आचार से भ्रष्ट होता है । गृहस्थ बरतनों को धोते हैं, जिनमें सचित्त जल का आरम्भ होता है। बरतनों के धोवन के जल को यत्र-तत्र गिराने से जीवों की हिंसा होती है। इसमें असंयम है।" साधु के निमित्त गृहस्थ को पहले या बाद में कोई सावध क्रिया-हलन-चलन न करनी पड़े—यह भी इसका लक्ष्य है । निर्ग्रन्थ-साधु ग्लान साधुओं के लिए आहार आदि लाते और उन्हें देते। अन्य दर्शनी आलोचना करते : 'तुम लोग एक दूसरे में मूच्छित हो और गृहस्थ के समान व्यवहार करते हो जो रोगी को इस प्रकार पिण्डपात लाकर देते हो। तुम लोग सरागी हो -एक दूसरे के वश में रहते हो, सत्पथ और सद्भाव से हीन हो । अत: तुम इस संसार का पार नहीं पा सकते ।" संघजीवी और मोक्ष-विशारद भिक्षु को इसका किस प्रकार उत्तर देना चाहिए यह बताते हुए भगवान महावीर ने कहा - "भिक्षुओ ! ऐसा आक्षेप करने वालों को तुम कहना'तुम लोग दो पक्षों का सेवन करते हो । तुम लोग गृहस्थ के पात्रों में भोजन करते हो तथा रोगी साधु के लिए गृहस्थ द्वारा लाया हुआ भोजन ग्रहण करते हो। इस तरह बीज और कच्चे जल तथा उस साधु के लिए जो उद्दिष्ट किया है उसका उपभोग करते हो । तुम लोग सद्विवेक से रहित और असमाहित हो, तीव्र अभिताप से अभितप्त हो। व्रण को अत्यन्त खुजलाना अच्छा नहीं क्योंकि उससे उसमें विकार उत्पन्न होता है। अपने को अपरिग्रही मान तुम भिक्षा-पात्र नहीं रखते, उससे तुम्हें अशुद्ध आहार का परिभोग करना पड़ रहा है । यह तर्क कि गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेय है और भिक्षु के द्वारा लाया हुआ नहीं, उतना ही दुर्वल है जितना कि बाँस का अग्रभाग । 'साधु को दान देकर उसका उपकार करना चाहिए'यह जो धर्म-देशना है वह सारंभों--गृहस्थों को शुद्ध करने वाली है, साधुओं को नहीं-तुम्हारी यह दृष्टि भी उचित नहीं है । भगवान् के द्वारा पहले कभी भी इस दृष्टि से देशना नहीं की गई थी कि एषणा में अनुपयुक्त गृहस्थ ग्लान साधु का वैयावृत्त्य करे, एषणा में उपयुक्त साधु न करे।" इस प्रसंग में जहाँ औद्देशिक और अभिहत का खण्डन है वहाँ गृहस्थ के पात्र में भोजन करने पर भी आक्षेप है । इस प्रसंग से यह भी स्पष्ट है कि अन्य श्रमण गृहि-पात्र में भोजन करते थे। १८. राजपिण्ड, किमिच्छक (रायपिंडे किमिच्छए ख ) : अगस्त्यसिंह स्थविर और जिनदास महत्तर ने किमिच्छक' को राजपिण्ड' का विशेषण माना है और हरिभद्र सूरि किमिच्छक' को 'राजपिण्ड' का विशेषण भी मानते हैं और विकल्प के रूप में स्वतन्त्र भी। दोनों चूर्णिकारों के अभिमत से 'किमिच्छक-राजपिण्ड'–यह एक अनाचार है। इसका अर्थ है-राजा याचक को, वह जो चाहे वही दे, उस पिण्ड ---आहार का नाम है 'किमिच्छक-राजपिण्ड' । टीकाकार के अनुसार - कौन क्या चाहता है ? यों पूछकर दिया जाने वाला भोजन आदि 'किमिच्छक' कहलाता है। 'निशीथ' में राजपिण्ड के ग्रहण और भोग का चातुर्मासिक-प्रायश्चित्त बतलाया है। यहाँ किमिच्छिक' शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। इस प्रसंग में राजा का अर्थ 'मूर्धाभिषिक्त राजा' किया है। निशीथ-घूणि के अनुसार सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह सहित जो राजा राज्य भोग करता है, उसका पिण्ड १-सू० १.६.२० : परमत्त अन्नपाणं, ण भुजेज्ज कयाइ वि । २-- दश० ६.५२ । ३-सू० १.३.३.-१६ का सार । ४- (क) अ० चू० पृ०६० : मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो। रायपिंडे-किमिच्छए- राया जो जं इच्छति तस्स तं देति - ____एस रायपिंडो किमिच्छतो। 'तेहि णियत्तणत्थं'--एसणा रक्खणाय एतेसि अणातिण्णो। (ख) जि० चू० पृ० ११२-१३ : मुद्धाभिसित्तरण्णो पिड- राजपिडः, सो य किमिच्छतो जति भवति,-किमिच्छओ नाम राया किर पिंडं देतो गेण्हतस्स इच्छियं दलेइ, अतो सो रायपिडो गेहिपडिसेहणत्यं एसणारक्खणत्थं च न कप्पइ । ५.--हा० टी० प० ११७ : राजपिण्डो–नपाहारः, कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः, राजपिण्डोऽन्यो वा सामान्येन । ६...--नि० ६.१-२ : जे भिक्खू रायपिण्डं गेहति गेण्हतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू रायपिण्डं भुंजति भुंजतं वा सातिज्जति । Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक ३ टि० १६-२१ नहीं लेना चाहिए । अन्य राजाओं के लिए विकल्प है-दोष की सम्भावना हो तो न लिया जाये और सम्भावना न हो तो ले लिया जाए। राजघर का सरस भोजन खाते रहने से रस-लोलुपता न बढ़ जाये और 'ऐसा आहार अन्यत्र मिलना कठिन है' यों सोच मुनि अनेषणीय आहार लेने न लग जाये--इन सम्भावनाओं को ध्यान में रख कर 'राज पिण्ड' लेने का निषेध किया है। यह विधान एषणाशुद्धि की रक्षा के लिए है। ये दोनों कारण उक्त दोनों सूत्रों की चूणियों में समान हैं। इनके द्वारा 'किमिच्छक' और 'राजपिण्ड' के पृथक् या अपृथक् होने का निर्णय नहीं किया जा सकता। निशीथ-णिकार ने आकीर्ण दोष को प्रमुख बतलाया है। राज-प्रासाद में सेनापति आदि आते-जाते रहते हैं। वहाँ मुनि के पात्र आदि फूटने की तथा चोट लगने की संभावना रहती है इसलिए 'राजपिण्ड' नहीं लेना चाहिए आदि-आदि। ___ निशीथ' के आठवें उद्दे शक में 'राजपिण्ड' से सम्बन्ध रखने वाले छः सूत्र हैं और नवें उद्देशक में बाईस सूत्र हैं५ ।'दशवकालिक' में इन सबका निषेध 'राजपिण्ड' और 'किमिच्छक' इन दो शब्दों में मिलता है। मुख्यतया 'राजपिण्ड' शब्द राजकीय भोजन का अर्थ देता है और 'किमिच्छक' शब्द 'अनाथपिण्ड', 'कृपणपिंड' और 'वनीपपिंड' (निशीथ ८.१६) का अर्थ देता है। किन्तु सामान्यतः 'राजपिंड' शब्द में राजा के अपने निजी भोजन और राजसत्क' भोजन ---राजा के द्वारा दिये जाने वाले सभी प्रकार के भोजन, जिनका उल्लेख निशीथ के उक्त सूत्रों में हुआ है --का संग्रह होता है। व्याख्या-काल में 'राजपिंड' का दुहरा प्रयोग हो सकता है --स्वतन्त्र रूप में और 'किमिच्छक' के विशेष्य के रूप में। इसलिए हमने 'राजपिंड' और 'किमिच्छक' को केवल विशेष्य-विशेषण न मानकर दो पृथक अनाचार माना है और 'किमिच्छक' की व्याख्या के समय दोनों को विशेष्य-विशेषण के रूप में संयुक्त भी माना है। १६. संबाधन ( संवाहणा ग ) : इसका अर्थ है-मर्दन । संबाधन चार प्रकार के होते हैं : (१) अस्थि-सुख-हड्डियों को आराम देने वाला । (२) मांस-सुख-मांस को आराम देने वाला। (३) त्वक्-सुख-चमड़ी को आराम देने वाला। (४) रोम-सुख--- रोओं को आराम देने वाला। २०. दंत-प्रधावन (दंतपहोयणा ग ) : देखिए ‘दंतवण' शब्द का टिप्पण संख्या ४५ । २१. संप्रच्छन ( संपुच्छरणा घ ) : ____ 'संपुच्छगो' पाठान्तर है । 'संपुच्छणा' का संस्कृत रूप 'संप्रश्न' और संपूछगो' का संस्कृत 'संप्रोञ्छक' होता है। इन अनाचीर्ण के कई अर्थ मिलते हैं : (१) अपने अंग-अयवयों के बारे में दूसरे से पूछना। जो अङ्ग-अवयव स्वयं न दीख पड़ते हों, जैसे आँख, सिर, पीठ आदि उनके बारे में दूसरे से पूछना-ये सुन्दर लगते हैं या नहीं ? मैं कैसा दिखाई दे रहा हूँ ? आदि, आदि । (२) गृहस्थों से सावध आरम्भ सम्बन्धी प्रश्न करना । १-नि० भा० गा० २४९७० : २-सू०१.३.३.८-१६ । ३-नि०भा० गा० २५०३-२५१० । ४-नि० ८.१४-१६। ५.-नि० ६.१,२,६,८,१०,११,१३-१६,२१-२६ । ६-(क) अ० चू० पृ० ६० : संवाधणा अट्ठिसुहा मंससुहा तयासुहा (रोमसुहा)। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : संवाहणा नाम चउन्विहा भवति, तजहा-अट्ठिसुहा मंससुद्दा तयासुहा रोमसुहा । (ग) हा० टी० ५० ११७ । Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३ : श्लोक ३ टि० २१ (३) शरीर पर गिरी हुई रज को पोंछना, लुहना । (४) अमुक ने यह कार्य किया या नहीं, यह दूसरे व्यक्ति (गृहस्थ) के द्वारा पुछवाना। (५) रोगी (गृहस्थ) से पूछना - तुम कैसे हो, कैसे नहीं हो अर्थात् (गृहस्थ ) रोगी से कुशल-प्रश्न करना । 'अगस्त्य चणि' में प्रथम तीनों अर्थ दिये हैं । तीसरा अर्थ 'संपुछगो' पाठान्तर मानकर किया है। जिनदास महत्तर ने केवल पहला अर्थ किया है । हरिभद्र सूरि ने पहले दो अर्थ किये हैं । 'सूत्रकृताङ्ग चूणि' में पाँचों अर्थ मिलते हैं । शीलाङ्क सूरि ने प्रथम तीन अर्थ दिये हैं। चणिकार और टीकाकार इस शब्द के बारे में संदिग्ध हैं। अत: इसके निर्णय का कोई निश्चित आधार नहीं मिलता कि यह अनाचार 'संपुच्छण' है या 'संपुंछगो'। इसके विकल्प से भी कई अर्थ मिलते हैं। इसलिए सूत्रकार का प्रतिपाद्य क्या है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि छेद सूत्रों में 'संपुच्छण' के प्रायश्चित्त की कोई चर्चा नहीं मिलती किंतु शरीर को संवारने और मैल आदि उतारने पर प्रायश्चित्त का विधान किया है। 'संपुछग' का सम्बन्ध जल्ल-परीसह से होना चाहिए । पंक, रज, मैल आदि को सहना जल्ल-परीषह है । संबाधन, दंत-प्रधावन और देह-प्रलोकन-ये सारे शरीर से सम्बन्धित हैं और संपुच्छ (पुंछ) ण इनके साथ में है इसलिए यह भी शरीर से सम्बन्धित होना चाहिए। निशीथ के छ: सूत्रों से इस विचार की पुष्टि होती है। वहाँ क्रमश: शरीर के प्रमार्जन, संबाधन, अभ्यङ्ग, उद्वर्तन, प्रक्षालन और रंगने का प्रायश्चित्त कहा गया है। १--(क) अ० चू० पृ० ६० : संपुच्छणं --जे अंगावयवा सयं न पेच्छति अच्छि सिर-पिट्ठमादि ते परं पुच्छति – 'सोभत्ति वा ण व त्ति'-अहवा गिहीण सावज्जारंभा कता पुच्छति । (ख) अ० चू० पृ० ६० : अहवा एवं पाढो “संपुछगो" कहंचि अंगे रयं पडित पुंछति --लूहेति । २---जि० चू० पृ० ११३ : संपुच्छणा णाम अप्पणो अंगावयवाणि आपुच्छमाणो परं पुच्छइ। ३-हा० टी० ५० ११७ : 'संप्रश्नः' - सावधो गृहस्थविषयः, राढाथ कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः । ४ सू० १.६.२१ चू० : संपुच्छण णाम किं तत्कृतं न कृतं वा पुच्छावेति अण्णे ... ग्लानं पुच्छति–कि ते वट्टति ? ण वट्टइ वा ? ५- सू० १.६.२१ टी० पृ० १८२ : तत्र गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं आत्मीयशरीरावयवप्रच्छ (पुच्छ) नं वा । ६-(क) नि० ३.२२ : जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा पमजेज्ज वा। (ख) नि० ३.६८ : जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा, जल्लं वा, पंकं वा, मलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा। ७-उत्त० २.३६-३७ : किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । घिसु वा परितावेण, सायं नो परिदेवए । वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मणुत्तरं । जाव शरीरभेउ त्ति, जल्लं काएण धारए । ८–नि० ३.२२-२७ : जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू अप्पणो कार्य संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंतं वा पलिम तं वा सातिज्जति ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य तेल्लेण वा, घएण वा वसाए वा, णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अब्भेगेतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति ॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उवटेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उबटेंत वा सातिज्जति । जे भिक्खू अप्पणो कायं सीयोदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू अप्पणो कार्य फूमेज्ज वा रएज्ज वा, फूतं वा रएतं वा सातिज्जति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) २२. देह प्रलोकन ( देहपलोषणा ) : जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ किया है-दर्पण में रूप निरखना । हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ किया है 'दर्पण आदि में शरीर देखन!' । शरीर पात्र, दर्पण, तलवार, मणि, जल, तेल, मधु, घी, फाणित -राब, मद्य और चर्बी में देखा जा सकता है । इनमें शरीर देखना अनाचार है और निर्ग्रन्थ के ऐसा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है । श्लोक ४ : २३. अष्टापद ( अट्ठावए ) : दशकालिक के व्याख्याकारों ने इसके तीन अर्थ किये हैं । (१) । (२) एक प्रकार का द्यूत । (२) अर्थ-पद-अर्थ-नीति । और अष्टापद शीलाङ्क सूरि ने सूत्रकृत में प्रयुक्त 'अट्ठावय' का मुख्य अर्थ - अर्थ शास्त्र और गौण अर्थ द्यूत-क्रीड़ाविशेष किया है५ । बहत्तर कलाओं में 'जुयं'– द्यूत दसवीं कला है और 'अट्ठावय' - अष्टापद तेरहवीं कला है । इसके अनुसार द्यूत एक नहीं है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि ने 'अष्टापद' का अर्थ द्यूत किया है तथा अगस्त्यसिंह स्थविर और शीलाङ्क सूरि ने उसका अर्थ एक प्रकार का द्यूत किया है । इसे आज की भाषा में शतरंज कहा जा सकता है । द्यूत के साथ द्रव्य की हार-जीत का लगाव होता है अतः वह निर्ग्रन्थ के लिए सम्भव नहीं है । शतरंज का खेल प्रधानतया आमोद-प्रमोद के लिए होता है। यह छूत की अपेक्षा अधिक सम्भव है इसलिए इसका निषेध किया है—ऐसा प्रतीत होता है । निशी भूमिकार ने 'बाप' का अर्थ संक्षेप में छूत या उरंग यूत किया है और वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ-अगद किया है। किसी ने पूछा - भगवन् ! क्या सुभिक्ष होगा ? श्रमण बोला- मैं निमित्त नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि इस वर्ष प्रभात १- जि० ० चू० पृ० ११३ : पलोयणा नाम अद्दागे रूवनिरिक्खणं । हा० टी० प० ११७ 'लोक' भावनावरितम्। २- नि० १३.३१-३८ : जे भिक्खू मत्तए अप्पाणं बेहति, देहंतं वा सातिज्जति । " " 11 11 17 " अद्दाए असीए मणीए उड्डुपाणे, तेल्ले फाणिए 1) " " 11 31 73 11 " ६४ " 13 "1 " 31 31 " 33 "1 11 11 "1 12 " 11 17 " अध्ययन ३ इलोक ४ टि० २२-२३ 11 17 11 "वसाए 11 ३ - जि० चू० पृ० ११३ : अट्ठावयं जूयं भण्णइ | ४ (क) अ० ० ० ६० वा रावा त्यागं वा अट्ठावयं देति फेरियो कालो ? लि पुति भगति ण पाणामि, आगमेस पुण गुणका वि सालिकू ण भुजति । (ख) हा० डी० प० ११७ अर्थदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविययम् । ५०] १.२.१७ १० १८१ अाला अर्धते इत्यर्थो धनधान्यहिरण्यादिकः पद्यते गम्यते येनार्थस्तत्पदं शास्त्र अथर्वपदमपदं चाणावादिकमर्थशास्त्र तन्न शिक्षेत्' नाभ्यस्येत् नाप्यपरं प्राभ्युपमदंकारि शास्त्र शिक्षपेत् परिया'अष्टापदं यूतक्रीडाविशेषस्तं न शिक्षेत नापि पूर्वशिलितमनुशीलयेदिति । 11 ६- नया० १.२० । ७- नि० १३.१२ चू० २१ : अट्ठावदं जूतं । नि० भा० ४२७६ चू० अट्ठापदं चउरंगेहि जूतं । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३: श्लोक ४ टि० २४ काल में कुत्ते भी दध्यन्न खाना नहीं चाहेंगे। यह अर्थ-पद है । इसकी ध्वनि यह है कि सुभिक्ष होगा। अगस्त्यसिंह भी यही अर्थ करते हैं। दुसरे अर्थ की अपेक्षा पहला अर्थ ही वास्तविक लगता है और चउरंग शब्द का प्रयोग भी महत्वपूर्ण है । वावदेर लिन्हे ने इस चउरंग (चतुरंग) शब्द को ही शतरंज का मूल माना है । मनमथ राय ने अष्टपद को शतरंज या उसका पूर्वज खेल माना है। वे लिखते हैं"उन दिनों शतरंज का आविष्कार हुआ था या नहीं, इस विषय में कुछ संदेह है, तथापि प्राचीन पाली और प्राकृत-साहित्य में 'अठ्ठपद' और 'दस-पद' शब्दों का बारम्बार उल्लेख हुआ है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जी ने इनको एक प्रकार का जुआ' कहकर अपना पिंड छुड़ाया है । सुमंगल विलासीनि से पता चलता है कि पटरी पर आठ या दस छोटे-छोटे चौकोर खाने बने रहते थे, तथा प्रत्येक खाने में एक एक गोटी होती थी। ऐसी दशा में यह समझना गलत नहीं होगा। कि यह एक प्रकार का शतरंज का खेल रहा होगा। कम से कम हम लोग इसे शतरंज का पूर्वज मान सकते हैं। इसका अंग्रेजी नाम 'ड्राफ्ट' है। प्राचीन मिस्र में यह खेल प्रचलित था।" अन्यतीथिक, परिव्राजक व गृहस्थ को अष्टापद सिखाने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। २४. नालिका ( नालीय ) : ___ यह द्यूत का ही एक विशेष प्रकार है । 'चतुर खिलाड़ी अपनी इच्छा के अनुकूल पासे न डाल दे'- इसलिए पासों को नालिका द्वारा डालकर जो जुआ खेला जाये उसे नालिका कहा जाता है । यह अगस्त्य 'णि की त्याख्या है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सुरि के अभिमत इससे भिन्न नहीं है। सूत्रकृताङ्ग में 'अट्ठावय' का उल्लेख श्रु० १ अ०६ के १७ वें श्लोक में और 'णालिय' का उल्लेख १८ वें श्लोक में हुआ है और उसका पूर्ववर्ती शब्द 'छत्र' है। । दशवकालिक में 'णालिय' शब्द 'अट्ठावय' और 'छत्त' के मध्य में है । सम्भव है 'अट्ठावय' की सन्निधि के कारण व्याख्याकारों ने नालिका का अर्थ द्यूतविशेष किया हो किन्तु 'छत्तस्स' के आगे 'धारणट्ठाए' का प्रयोग है। उसकी ओर ध्यान दिया जाए तो 'नालिका' का सम्बन्ध छत्र के साथ जुड़ता है। जिसका अर्थ होगा कि छत्र को धारण करने के लिये नालिका रखना अनाचार है। भगवान् महावीर साधना-काल में वज्रभूमि में गए थे। वहां उन्हें ऐसे श्रमण मिले जो कुत्तों से बचाव करने के लिए यष्टि और नालिका रखते थे । वृत्तिकार ने यष्टि को देह-प्रमाण और नालिका को देह से चार अंगुल अधिक लंबा कहा है । भगवान् ने दूसरों को डराने का निषेध किया है। इसलिये संभव है स्वतन्त्ररूप से या छत्र-धारण करने के लिये नालिका रखने का निषेध किया हो। १-नि० भा० गा० ४२८० चू० : अहवा -- इमं अट्ठापदं -अम्मे ण वि जाणामो पुट्ठो अट्ठापयं इमं बेंति । सुणगा वि सालिकूर, णेच्छन्ति परं पभातम्मि । पुच्छितो अपुच्छितो .... एतियं पुण जाणामो परम पभायकाले दधिकरं सुणगा वि खातिउं णेच्छिहिति । अर्थपदेन ज्ञायने सुभिक्खं । २- प्राचीन भारतीय मनोरंजन पृ० ५८ । ३-नि० १३.१२ : जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारस्थियं वा.... 'अट्ठावयं......."सिक्खावेति, सिक्खावेत वा सातिज्जति । ४-अ० चू० पृ० ६१: णालिया जूयविसेसो, जत्थ 'मा इच्छितं पाहिति' त्ति णालियाए पासका दिज्जंति । ५- (क) जि० चू० पृ० ११३ : पासाओ छोढूण पाणिज्जति, मा किर सिक्खागुणेण इच्छंतिए कोई पाडेहिति । (ख) हा० टी० प० ११७ : 'नालिका चे' ति द्यूतविशेषलक्षणा, यत्र मा भूत्कलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नलिकया पात्यन्त इति । ६-सू० १.६.१८ : पाणहाओ य छत्तं च, णालीयं बालवीयणं । ७-आ० ६.३.५,६ : एलिक्खए जणा भुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरसासी। लट्ठि गहाय णालियं, समणा तत्थ एव विहरिसु॥ एवंपि तत्थ विहरता पुटपुटवा अहेसि सुणएहि । संलुंचमाणा सुणएहि दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं ।। ८--आ० ६.३.५,६ टीका : ततस्तत्रान्ये श्रमणाः शाक्यादयो यष्टि-देहप्रमाणां चतुरंगुलाधिक प्रमाणां वा नालिकां गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय विजह रिति । ९-नि० ११.६५ : जे भिख्खू परं बोभावेति, बीभावतं वा सातिज्जति। Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ६६ अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २५ नालिका का अर्थ छोटी या बड़ी डंडी भी हो सकता है । जहाँ नालिका का उल्लेख है, वहां छत्र धारण, उपानत् आदि का भी उल्लेख है । चरक में भी पद धारण, छत्र-धारण, दण्ड-धारण आदि का पास-पास में विधान मिलता है । नालिका नाम घड़ी का भी है। प्राचीन काल में समय की जानकारी के लिए नली वाली रेत की घड़ी रखी जाती थी । ज्योतिष्करण्ड में नालिका का प्रमाण बतलाया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में नालिका के द्वारा दिन और रात को आठ-आठ भागों में विभक्त करने का निरूपण मिलता है' । नालिका का एक अर्थ मुरली भी है। बांस के मध्य में पर्व होते हैं । जिस बांस के मध्य में पर्व नहीं होते, उसे 'नालिका', लोकभाषा में मुरली कहा जाता है । प्रयोग हुआ है इसलिये कल्पनाएँ हो सकती हैं। जैन साहित्य में नालिका का अनेक अर्थों में जम्बूदीप प्रज्ञप्ति ( २ ) में बहत्तर कलाओं के नाम है वहाँ त (य) दसवीं अष्टापद (वय) तेरहवीं और नालिका खेल ( नालिया खेड ) छियासठवीं कला है । वृत्तिकार ने द्यूत का अर्थ साधारण जुआ, अष्टापद का अर्थ सारी फलक से खेला जाने वाला जुआ और नालिका खेल का अर्थ इच्छानुकुल पासा डालने के लिए नालिका का प्रयोग किया जाये वैसा द्यूत किया है । इससे लगता है कि अनाचार के प्रकरण में नालिका का अर्थ द्यूत विशेष ही है । २५. छत्र धारण करना ( छत्तस्स य धारणट्ठाए ख ) : वर्षा तथा आतप निवारण के लिए जिसका प्रयोग किया जाय, उसे 'छत्र' कहते हैं । सूत्रकृताङ्ग में कहा है- "छत्र को कर्मोत्पादन का कारण समझ विज्ञ उसका त्याग करे ।" प्रश्नव्याकरण में छत्ता रखना साधु के लिए अकल्य कहा है । यहाँ छत्र धारण को अनाचरित कहा है। इससे प्रकट है कि साधु के लिए छत्र का धारण करना निषिद्ध रहा है । १- अधिकरण १ प्रकरण १६ : नालिकाभिरह रष्टधा रात्रिश्च विभजेत् । २ – (क) नि० भा० गा० २३६ : सुप्पे य तालवेटे, हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य । अच्छि मे पव्वए, णालिया चैव पत्ते य ॥ (ख) नि० भा० गा० २३६ चू० पृ० ८४ : पव्वए त्ति वंसो भण्णति, तस्स मज्झे पव्वं भवति, णालियत्ति अपव्वा भवति, सा पुण लोए 'मुरली' भण्णति । १३ दशवेकालिक के व्याख्याकार और जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति के व्याख्याकार नालिका के अर्थ में एकमत नहीं हैं। ये उनके व्याख्या शब्दों से (जो यहाँ उद्धृत हैं) जाना जा सकता है। (क) जम्बू० वृति पत्र० १३० १३९ यूतं सामान्यतः प्रतीतम् अष्टापदंसारिक : तद्विषयकका मालिका द्यूतविशेषं मा भूदिष्टदायविपरीतपाशक निपातनमितिनासिकया यत्र पाशकः पात्यते तचणे सत्यपि अभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिका खेलं आधान्यज्ञापनार्थं भेदेन ग्रहः । (स) हा० टी० प० ११७ अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतपणे सत्यप्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नासिकायाः प्राधान्यख्यापनायें देन उपादानम् अर्थपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये अभिदधति, अस्मिन् पक्षे सकलद्यूतोपलक्षणार्थं नालिकाग्रहणम्, अष्टापदद्यूतविशेषपक्षे चोभयोरिति । ४- ( क ) अ० चू० पृ० ६१ छत्तं आतववारणं । (ख) जि० ५- सू० १.२.१० पाहाओ ० चू० पृ० ११३ : छत्तं नाम वासायवनिवारणं । च X X X । तं विज्जं परिजाणिया || "तदेतत्सर्वं 'विद्वान् पण्डितः कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान -- X Xx हो० आतपादिनिवारणाय द परिया परिहरेदिति । ६ - प्रश्न ० सं० ५ : न जाण-जुग्ग-सयणाइ ण छत्तंक "कष्णइ मणसावि परिघेत्तुं । X X, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ६७ अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २५ आचाराङ्ग में कहा है-श्रमण जिनके साथ रहे उनकी अनुमति लिए बिना उनके छत्र यावत् चर्म-छेदनक को न ले। इससे प्रकट होता है कि साधु छत्र रखते और धारण करते थे। आगमों के इन विरोधी विधानों की परस्पर संगति क्या है, यह एक प्रश्न है। कोई समाधान दिया जाय उसके पहले निम्न विवेचनों पर ध्यान देना आवश्यक है : (१) चणियों में कहा है .....'अकारण में छत्र-धारण करना नहीं कल्पता, कारण में कल्पता है ।" कारण क्या समझना चाहिए । इस विषय में चणियों में कोई स्पष्टीकरण नहीं है। यदि वर्षा और आतप को ही कारण माना जाय और इनके निवारण के लिए छत्र-धारण कल्पित हो तो यह अनाचार ही नहीं टिकता क्योंकि इन परिस्थितियों के अतिरिक्त ऐसी कोई दूसरी परिस्थिति साधारणत: कल्पित नहीं की जा सकती जब छाता लगाया जाता हो। ऐसी परिस्थिति में चूणियों द्वारा प्रयुक्त 'कारण' शब्द किसी विशेष परिस्थिति का द्योतक होना चाहिए, वर्षा या आतप जैसी परिस्थितियों का नहीं । इस बात की पुष्टि स्वयं पाठ से ही हो जाती है। यहाँ पाठ में 'छत्तस्स य' के बाद में 'धारणाए' शब्द और है। 'अढाए' का तात्पर्य—अर्थ या प्रयोजन है । भावार्थ हुआ-अर्थ या प्रयोजन से छत्ते का धारण करना अर्थात् धूप या वर्षा से बचने के लिए छत्र का धारण करना अनाचार है । (२) टीकाकार लिखते हैं-अनर्थ-बिना मतलब अपने या दूसरे पर छत्र का धारण करना अनाचार है=आगाढ़ रोगी आदि के द्वारा छत्र-धारण अनाचार नहीं है । प्रश्न हो सकता है टीकाकार अनर्थ छत्र धारण करने का अर्थ कहाँ से लाए? इसका स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार ने ही कर दिया है। उनके मत से सूत्र-पाठ अर्थ की दृष्टि से "छत्तस्स य धारणमणट्ठाए' है। किन्तु पद-रचना की दृष्टि से प्राकृत शैली के अनुसार अनुस्वार, अकार और नकार का लोप करने से “छत्तस्स य धारगट्ठाए" ऐसा पद शेष रहा है। साथ ही वे कहते हैं ---परम्परा से ऐसा ही पाठ मान कर अर्थ किया जाता रहा है। अतः श्रुति-प्रमाण भी इसके पक्ष में है। इस तरह टीकाकार ने 'अट्ठाए' के स्थान में 'अणट्ठाए' शब्द ग्रहण कर अर्थ किया है। उनके अनुसार गाढ़ रोगादि अवस्था में छत्र धारण किया जा सकता है और वह अनाचार नहीं है। (३) आगमों में इस सम्बन्ध में अन्यत्र प्रकाश नहीं मिलता। केवल व्यवहार सूत्र में कहा है : "स्थविरों को छत्र रखना कल्पता हैं। उपर्युक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष निकलते हैं : (१) वर्षा और आतप निवारण के लिए साधु के द्वारा छत्र-धारण करना अनाचार है। (२) शोभा महिमा के लिए छत्र-धारण करना अनाचार है। (३) गाढ़ रोगादि की अवस्था में छत्र धारण-करना अनाचार नहीं। (४) स्थविर के लिए भी छत्र-धारण करना अनाचार नहीं। ये नियम स्थविर-कल्पी साधु को लक्ष्य कर किए गये है। जिन-कल्पी के लिए हर हालत में छत्र-धारण करना अनाचार है। छत्ता धारण करने के विषय में बौद्ध-भिक्षुओं के नियम इस प्रकार हैं। नीरोग अवस्था में छत्ता धारण करना भिक्षुणी के लिए १–आ० चू० ७.३ : जेहिवि सद्धि संपवइए तेसिपि जाइ भिक्ख छत्तग वा, मत्तयं वा, दंडगं वा, लट्ठियं वा, भिसियं वा, नालियं वा, चेल वा, चिलमिलि वा, चम्मयं वा, चम्मकोसयं वा, चम्छेयणगं वा-- तेसिं पुवामेय ओग्गहं अण णुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय णो गिण्हेज्ज वा पगिण्हेज्ज वा .... .... .... ..." । २-(क) अ० चू० पृ० ६१ : तस्स धारणकारणे ण कम्पति । (ख) जि० चू० पृ० ११३ : छत्तं ...." अकारणे धरिउ न कप्पइ, कारणेण पुण कप्पति । ३-मिलाएँ : Dasavcaliya sutta (K. V. Abhyankar) 1938 : Notes chap. III p. 11 : "The writer of the vritti translates the word as EITT AFA, and explains it as 'holding the umbrella for a purpose'." ४ हा० टी० ५० ११७ : 'छत्रस्य च' लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति, आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वा ऽनाचरितम्। ५-हा० टी० ५० ११७ : प्राकृतशेल्या चात्रानुस्वारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति । ६– व्यव० ८.५ : थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा । Jain Education Intemational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ६८ 1 अध्ययन ३ श्लोक ४ टि० २६ दोषकारक था' । भिक्षु पहले छत्ता धारण नहीं करते थे। एक बार संघ को छत्ता मिला । बुद्ध ने छत्ते की अनुमति दी । षड्वर्गीय भिक्षु छत्ता लेकर टहलते थे | उस समय एक बौद्ध उपासक बहुत से यात्री आजीवकों के अनुयायियों के साथ बाग में गया था। उन आजीवकअनुवादियों ने षड्वर्गीय भिक्षुओं को छत्ता धारण किये आते देखा देखकर वे उस उपासक से बोले "आसो ! यह तुम्हारे भदन्त हैं, छत्ता धारण करके आ रहे हैं, जैसे कि गणक महामात्य ।" उपासक बोला: आर्यो ! ये भिक्षु नहीं हैं, ये परिव्राजक हैं ।" पर पास में आने पर वे बौद्ध भिक्षु ही निकले। उपासक हैरान हुआ-- 'कैसे भदन्त छत्ता धारण कर टहलते हैं !" भिक्षुओं ने उपासक के हैरान होने बात बुद्ध से कही। बुद्ध ने नियम किया "भिक्षुओ ! छत्ता न धारण करना चाहिए। यह दुक्कट का दोष है ।" बाद में रोगी को छत्ते के धारण की अनुमति दी। बाद में अरोगी को आराम में और आराम के पास छत्ता धारण की अनुमति दी । २६. चैकस्य ( गि" ) पुर्णिकार और टीकाकार ने बैंक का अर्थ 'रोगप्रतिकर्म' अथवा 'व्याधिप्रतिक्रिया किया है अर्थात् रोग का प्रतिकार करना---उपचार करना चकित्स्य है । उत्तराध्ययन में कहा है : रोग उत्पन्न होने पर वेदना से पीड़ित साधु दीनतारहित होकर अपनी बुद्धि को स्थिर करे और उत्पन्न रोग को समभाव से सहन करे । आत्मशोधक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे । चिकित्सा न करना और न कराना -यही निश्चय से उसका श्रामण्य है ।" निर्ग्रन्थों के लिए निष्प्रतिकर्मता - चिकित्सा न करने का विधान रहा है। यह महाराज बलभद्र, महारानी मृगा और राजकुमार मृगापुत्र के संवाद से स्पष्ट है । माता-पिता ने कहा : "पुत्र ! श्रामण्य में निष्प्रतिकर्मता बहुत बड़ा दुःख है । तुम उसे कैसे सह सकोगे ? " मृगापुत्र बोला: "अरण्य में पशु-पक्षियों के रोग उत्पन्न होने पर उनका प्रतिकर्म कौन करता है ? कौन उन्हें औषध देता है ? कौन उनसे सुख पूछता है ? कौन उन्हें भोजन - पानी लाकर देता है ? जब वे सहज भाव से स्वस्थ होते हैं, तब भोजन पाने के लिए निकल पड़ते हैं । माता ! पिता ! मैं भी इस मृगचर्या को स्वीकार करना चाहता हूँ ।" १- विनयपिटक भिक्खुनी पातिमोक्ख : छत्त वग्ग ss ४.८४ १० ५७ ॥ २- विनयपिटक चुल्लवग्ग ५६३.३ पृ० ४.३८ - ३६ ३ - ( क ) अ० चू० पृ० ६१ : तेगिच्छं रोगपडिकम्मं । (ख) जि० चू० पृ० ११३ : तिगिच्छा णाम रोगपडिकम्म करेइ । (ग) हा० टी० प० ११७ : चिकित्साया भावश्चकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् । ४- उत्त० २.३२-३३ : नच्या उप्पइयं दुम बेवाए दुहट्टिए । अदोषो धावए पानं तत्हा ।। तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा, संचिक्खत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ॥ ५. -उत्त० १६.७५, ७६, ७८, ७६ : 2 तं सम्मापिय पदे पुस ! पव्वया । नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ सोबत म्मापियरो !, एवमेयं जहाफुडं । पडिकम्मं को कुणई, अरण्णं मियपक्खिणं ? | जया मिगस्स आपको, महारष्णम्मि जापाई अन्तं मूलम्मि को ताहे तिमच्छिई ? ॥ कोया से ओहद को वा से पुच्छई सुहं ? | को से भत्तं च पाणं च आहरित पणामए ॥ 1 । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियावारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २६ ६६ भगवान् महावीर ने अपने दीर्घ साधना काल में कभी चैकित्स्य का सहारा नहीं लिया । आचाराङ्ग में कहा है : " रोग से स्पृष्ट होने पर भी वे चिकित्सा की इच्छा तक नहीं करते थे।" उत्तराध्ययन के अनुसार जो किस्ताका परियाग करता है वही भन्नु है। सूत्र में कहा है- साधु 'आणि' को छोड़े यहाँ 'आग' का अर्थ तादि के आहार अथवा रसायन क्रिया द्वारा शरीर को बलवान बनाना किया गया है। उक्त संदर्भों के आधार पर जान पड़ता है कि निर्ग्रन्थों के लिए निष्प्रतिकर्मता का विधान रहा है । पर साथ ही यह भी सत्य है। कि साधु रोगोपचार करते थे । द्रव्य औषध के सेवन द्वारा रोग-शमन करते थे । आगमों में यत्र-तत्र निर्ग्रथों के औषधोपचार की चर्चा मिलती है । भगवान् महावीर पर जब गोशालक ने तेजो लेश्या का प्रयोग किया तब भगवान् ने स्वयं औषध मंगाकर उत्पन्न रोग का प्रतिकार किया था । श्रावक के बारहवें व्रत - अतिथि संविभाग व्रत का जो स्वरूप है उसमें साधु को आहार आदि की तरह ही श्रावक औषध - भैषज्य से भी प्रतिलाभित करता रहे ऐसा विधान है । ऐसी परिस्थिति में सहज ही प्रश्न होता है-जब चिकित्सा एक अनाचार है तो साधु अपना उपचार कैसे करते रहे ? सिद्धान्त और आचार में यह असंगति कैसे ? हमारे विचार में चिकित्सा अनाचार का प्रारंभिक अर्थ चिकित्सा न करना रहा, किन्तु जिनकल्प मुनि चिकित्सा नहीं कराते और स्थविरकल्प मुनि विधिपूर्वक चिकित्सा करा सकते हैं इस स्थापना के बाद चिकित्सा अनाचार का अर्थ यह हो गया - अपनी सावध चिकित्सा करना या दूसरे से अपनी सावद्य चिकित्सा करवाना। इसका समर्थन आगमों से भी होता है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में पुष्प, फल, कन्द-मूल तथा सब प्रकार के बीज साधु को औषध, भैषज्य, भोजन आदि के लिए अग्राह्य बतलाये हैं। क्योंकि ये जीवों की योनियां हैं। उनका उच्छेद करना साधु के लिए अकल्पनीय है। ऐसा उल्लेख है कि कोई गृहस्थ मंत्रबल अथवा कन्द-मूल, छाल या वनस्पति को खोद या पकाकर मुनि की चिकित्सा करना चाहे तो मुनि को उसकी इच्छा नहीं करनी चाहिए और न ऐसी चिकित्सा करानी चाहिए । १ - ( क ) आ० ६.४.१ पुट्ठे वा से अपुठ्ठे वा णो से सातिज्जति तेइच्छं । (ख) आ० ६.४.१ टीका प० २८४ : स च भगवान् स्पृष्टो वा अस्पृष्टो वा कासश्वासादिभिर्नासौ चिकित्साम भिलवति, न द्रव्यौषधाद्युपयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीति । २ – उत्त० १५.८ : आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खु । ३- सू० ९.१५ आणि प तं विज्जं ! परिजाणिया || 3 ४ - सू० १.६.१५ की टीका : येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रिया वा अशूनः सन् आ - समन्तात् शूनीभवति - तवामुपजायते तदानीत्युच्यते । ००१५ पृ० ३३-४ तं गच्हणं तुमं सौहा मेंढयामं नगरं रेवतीए गाहाबलिगीए मिहे, तस्य णं रेवतीए गाहाबतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरी उपखडिया तेहि नो अट्ठो अस्थि से अग्ने पारिया सिए मजाक कुक्कुट तमाहरा हि एवं अट्ठो तए सम भगवं महावीरे अइए जाव अगोवएवं अपागं समाहारं सरीरको गंसि पविवति । तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायके खिप्पामेव उस पत हो जाए, आरोग्यसरीरे । ६ - उपा० १.५८ : कप्पड़ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एस णिज्जेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं ओसह-भेसज्जेणं च पडिला भेमाणस्स हिरिए। ७ - प्रश्न० सं० ५ ण यावि पुप्फफल कंदमूला दियाई सणसत्तरसाई सम्वधन्नाई तिहिवि जोगेहि परिघेत्तुं ओसह - भेसज्ज भोयणट्टाए संजयेणं । प्रश्न० [सं० ५कार ह -आ० ० १३.७८ (से से परो) से अग्गमण्णं) सुणं वा वद-वलेणं तेइ जाउ एस जो जंगम दिट्ठा कप जोगिसमुन्ति सा । ( से से परो ) ( से अण्णमण्णं) असुद्धेणं वा वइ-बलेणं तेइच्छं आउट्ट, (से से परो ) ( से अण्णमण्णं) गिलाणस्स सचित्ताणि कंदाणि वा, मूलाणि वा, तयाणि वा, हरियाणि वा, खणित्तु वा, कड्देत्त वा, कढावेत्तु वा, इच्छं आउट्टज्जा - णो तं साइए, णो तं नियमे । 7 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २७ यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि बौद्ध-भिशु चिकित्सा में सावद्य-निरवद्य का भेद नहीं रखते थे । बौद्ध-भिक्षुओं को रीछ, मछली, सोस, सुअर आदि की चर्बी काल से ले, काल से पका, काल से मिला सेवन करने से दोष नहीं होता था। हल्दी, अदरक, बच तथा अन्य भी जड़ वाली दवाइयाँ ले बौद्ध भिक्षु जीवन-भर उन्हें रख सकते थे और प्रयोजन होने पर उनका सेवन कर सकते थे। इसी तरह नीम, कुटज, तुलसी, कपास आदि के पत्तों तथा विडंग, पिप्पली आदि फलों को रखने और सेवन करने की छूट थी। अ-मनुष्य वाले रोग में कच्चे मांस और कच्चे खून खाने-पीने की अनुमति थी' । निम्रन्थ-श्रमण ऐसी चिकित्सा कभी नहीं कर सकते थे। चिकित्सा का एक अन्य अर्थ वैद्यकवृत्ति -गृहस्थों की चिकित्सा करना भी है । उत्तराध्ययन में कहा है...''जो मंत्र, मूल --जड़ी-बूटी और विविध वैद्यचिन्ता वैद्यक-उपचार नहीं करता वह भिक्षु है।" सोलह उत्पादन दोषों में एक दोष चिकित्सा भी है । उसका अर्थ है-औषधादि बताकर आहार प्राप्त करना । साधु के लिए इस प्रकार आहार की गवेषणा करना वर्जित है । आगम में स्पष्ट कहा है-भिक्षु चिकित्सा, मन्त्र, मूल, भैषज्य के हेतु से भिक्षा प्राप्त न करें । चिकित्सा शास्त्र को श्रमण के लिए पापश्रुत कहा है। २७. उपानव ( पाणहा ग ) : पाठान्तर रूप में 'पाहणा' शब्द मिलता है। इसका पर्यायवाची शब्द 'वाहणा' का प्रयोग भी आगमों में है । सूत्रकृताङ्ग में 'पाणहा' शब्द है । 'पाहणा' शब्द प्राकृत ‘उवाहणा' का संक्षिप्त रूप है। 'पाहणा' और 'पाणहा' में 'ण' और 'ह' का व्यत्यय है । इसका अर्थ है --पादुका, पाद-रक्षिका अथवा पाद-त्राण" । साधु के लिए काष्ठ और चमड़े के जूते धारण करना अनाचार है। व्यवहार सूत्र में स्थविर को चर्म-व्यवहार की अनुमति है। स्थविर के लिए जैसे छत्र धारण करना अनाचार नहीं है, वैसे ही चर्म रखना भी अनाचार नहीं है । अगस्त्य मुनि के अनुसार स्वस्थ के लिए 'उपानह' का निषेध है। जिनदास के मत से शरीर की अस्वस्थ अवस्था में पैरों के या चक्षुओं के दुर्बल होने पर 'उपानह' पहनने में कोई दोष नहीं। असमर्थ अवस्था में प्रयोजन उपस्थित होने पर पैरों में जूते धारण किये जा सकते हैं अन्य काल में नहीं । हरिभद्र सूरि के अनुसार 'आपत् काल' में जूता पहनने का कल्प है। १-विनयपिटक : महावग्ग : ६ १.२-१० पृ०२१६-१८ । २-उत्त० १५.८ : मन्तं मूलं विविह वेज्जचिन्तं, . . . . . . . . . . . . . . . . . । . ... ... ... ..', तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू॥ ३-पि०नि० : धाई दूई निमित्त आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । ४--नि० १३.६६ : जे भिक्खू ति गच्छापिडं भुंजइ भुजंतं वा सातिज्जति । ५-प्रश्न० सं० १: न तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकज्जहे. भिक्खं गवेसियव्वं । ६–ठा० ६.२७ : नवविध पावसुयपसंगे पं० तं० उप्पाते, णिमित्त, मंते, आइक्खिए, तिगिच्छए । कला आवरणे अण्णाणे मिच्छापावयणेति य॥ ७--(क) दश० सूत्रम् (जिनयशः सूरिजी ग्रन्थरत्नमालायाः प्रथमं (१) सूत्रम्) (ख) श्रीवशवकालिक सूत्रम् (मनसुखलाल द्वारा प्रकाशित); आदि ८-(क) नाया० अ० १५ : अणुवाहणस्स ओवाहणाओ दलयइ । (ख) भग० २.१ : वाहणाउ य पाउयाउ य। &-सू० १.६.१८ : पाणहाओ य..।... तं विज्जं परिजाणिया। १०-(क) सू० १.६.१८ टी०प०१८१ : उपानहौ-काष्ठपादुके। (ख) भग० २.१ टी०: पादरक्षिकाम्। (ग) अ० चू० पृ० ६१ : उवाहणा पाद-त्राणम् । ११-- व्यव० ८.५ : थेराणं थेर-भूमि-पत्ताणं कप्पइ चम्मे वा ...। १२—(क) अ० चू० पृ०६१: पद्यते येन गम्यते यदुक्तं नीरोगस्स नीरोगो वा पादो। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : उवाहणाओ लोगसिद्धाओ चेव,... पायग्गहणेण अकल्लसरीरस्स गहणं कयं भवइ, दुब्बलपाओ चक्खदुब्बलो वा उवाहणाओ आविधेज्जा ण दोसो भवइत्ति, किंचपादग्गहणणं एतं दंसेति – परिग्गहिया उवाहणाओ असमत्थेण पओयणे उप्पण्णे पाएसु कायवा, ण उण सेसकालं । १३-हा० टी० ५० ११७ : तथोपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायक, न त्वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन । Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ७१ अध्ययन ३: श्लोक ४ टि०२८ 'पाणहा' के बाद 'पाए 'शब्द है। प्रश्न उठता है जूते पैरों में ही पहने जाते हैं। हाथ में या गले आदि में नहीं। फिर 'पाणहा पाए''पैरों में उपानत्' ऐसा क्यों लिखा? इसका उत्तर यह है कि गमन निरोग के पैरों से ही हो सकता है । 'पाद' शब्द निरोग शरीर का सूचक है। भाव यह है कि निरोग थमण द्वारा 'उपानत्' धारण करना अनाचार है'। बौद्ध-भिक्षुओं के जूता पहनने के नियम के विषय में बौद्ध-आगम "विनयपिटक' में निम्नलिखित उल्लेख मिलते हैं सोण कोटीबिंश को अर्हत्व की प्राप्ति हुई उसके बाद बुद्ध बोले- "सोण ! तू सुकुमार है । तेरे लिए एक तल्ले के जूते की अनुमति देता हूं।" सोण बोला - "यदि भगवान् भिक्षु-संघ के लिए अनुमति दें तो मैं भी इस्तेमाल करूँगा, अन्यथा नहीं।" बुद्ध ने भिक्षु-संघ को एक तल्ले वाले जूते की अनुमति दी और एक से अधिक तल्ले वाले जूते के धारण करने में दुक्कट दोष घोषित किया । बाद में बुद्ध ने पहन कर छोड़े हुए बहुत तल्ले के जूते की भी अनुमति दी। नये बहुत तल्लेवाले जूते पहनना दुक्कट दोष था। आराम में जूते पहनने की मनाही थी। बाद में विशेष अवस्था में आराम में जूते पहनने की अनुमति दी। पहले बौद्ध-भिक्षु जूते पहनकर गाँव में प्रवेश करते थे । बाद में बुद्ध ने ऐसा न करने का नियम किया। बाद में रोगियों के लिए छूट दी। बौद्ध-भिक्षु नीले-पीले आदि रंग तथा नीली-पीली आदि पत्तीवाले जूते पहनते। बुद्ध ने दुक्कट का दोष बता उन्हें रोक दिया। इसी तरह ऍड़ी ढंकनेवाले पुट-बद्ध, पलि गुंठिम, रुईदार, तीतर के पंखों जैसे, मेड़े के सींग से बंधे, बकरे के सींग से बँधे, विच्छू के डंक की तरह नोकवाले, मोर-पंख सिये, चित्र जूते के धारण में भी बुद्ध ने दुक्कट दोष ठहराया। उन्होंने सिंह-चर्म, व्याघ्र-चर्म, चीते के चर्म, हरिण के चर्म, उबिलाव के चर्म, बिल्ली के चर्म, कालक-चर्म, उल्लू के चर्म से परिष्कृत जूतों को पहनने की मनाही की । खट-खट आवाज करनेवाले काठ के खड़ाऊधारण करने में दुक्कट दोष माना जाता था। भिक्षु ताड़ के पौधों को कटवा, ताड़ के पत्तों की पादुका बनवा कर धारण करते थे । पत्तों के काटने से ताड़ के पौधे सूख जाते । लोग चर्चा करते-शाक्य-पुत्रीय घमण एकेन्द्रिय जीव की हिंसा करते हैं । बुद्ध के पास यह बात पहुँची। बुद्ध बोले- "भिक्षुओ ! (कितने ही) मनुष्य वृक्षों में जीव का ख्याल रखते हैं। ताल के पत्र की पादुका नहीं धारण करनी चाहिए । जो धारण करे उसे दुक्कट का दोष हो।" भिक्षु बाँस के पौधों को कटवाकर उनकी पादुका बनवा धारण करने लगे । बुद्ध ने उपर्युक्त कारण से रुकावट की। इसी तरह तृण, भूज, बल्बज, हिताल, कमल, कम्बल की पादुका के मण्डन में लगे रहनेवाले भिक्षुओं को इनके धारण की मनाही की । स्वर्णमयी, रौप्यमयी, मणिमयी, वैडूर्यमयी, स्फटिकमयी, काँसमयी, काँचमयी, राँगे की, शीशे की, ताँबे की पादुकाओं और काँची तक पहुँचनेवाली पादुका की भी मनाही हुई। नित्य रहने की जगह पर तीन प्रकार की पादुकाओं के-चलने की, पेशाब-पाखाने की और आचमन की-इस्तेमाल की अनुमति थी। २८. ज्योति-समारम्भ ( समारंभं च जोइणोघ) : ज्योति अग्नि को कहते हैं । अग्नि का समारम्भ करना अनाचार है। इसी आगम में आगे कहा है ... “साधु अग्नि को सुलगाने की कभी इच्छा नहीं करता। यह बड़ा ही पापकारी शस्त्र है। यह लोहे के अस्त्र-शस्त्रों की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण और सब ओर से दुराश्रय है । यह सब दिशा-अनुदिशा में दहन करता है । यह प्राणियों के लिए बड़ा आघात है, इसमें जरा भी संदेह नहीं । इसलिए संयमी मुनि प्रकाश व शीत-निवारण आदि के लिए किंचित् मात्र भी अग्नि का आरम्भ न करे और इसे दुर्गति को बढ़ानेवाला दोष जानकर इसका यावज्जीवन के लिए त्याग करे।" उत्तराध्ययन सूत्र में भी ऐसा ही कहा है। 'अग्नि-समारम्भ' शब्द में अग्नि के अन्तर्गत उसके सब रूप १-- (क) अ० चू० पृ०६१ : उवाहणा पादत्राणं पाए । एतं किं भण्णति ? सामण्णे विसेसं ण (? बिसेसणं) जुत्त निस्सामण्णं ___पाद एव उवाहणा भवति ण हत्थादौ, भण्णति--पद्यते येन गम्यते यदुक्तं नीरोगस्स नीरोगो वा पादो। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : सीसो आह-पाहणागहणेण चेव नज्जइ-जातो पाहणाओ ताओ पाएसु भवंति, ण पुण ताओ गलए आविधिज्जंति, ता किमत्थं पायग्गहणंति, आयरिओ भणइ-पायग्गहणेणसेसकालं। २-विनयपिटक : महावग्ग : ५७७१.३-११ पृ० २०४ से २०८ तथा महावग्ग : ५७३२.८ पृ० २११ । ३-(क) अ० चू० पृ० ६१ : जोती अग्गी तस्स जं समारंभणं । (ख) जि० चू० पृ० ११३ : जोई अग्गी भण्णइ, तस्स अग्गिणो जं समारम्भणं । ४-दश० ६.३२-३३। ५-उत्त० ३५.१२ : विसप्पे सव्वओ धारे, बहू पाणविणासणे। नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोईन दीवए। Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ७२ अध्ययन ३ श्लोक ४ टि०२८ अङ्गार, मुर्मुर, अर्चि, ज्वाला, अलात, शुद्ध-अग्नि और उल्का आ जाते हैं । 'समारम्भ' शब्द में सींचना, संघट्ट करना, भेदन करना, उज्ज्वलित करना, प्रज्वलित करना, बुझाना आदि सब भाव समाते हैं। अग्नि समारम्भ करने में कराना और अनुमोदन करना ये भाव भी सन्निहित हैं । भगवान् महावीर का कहना था – “पकाना, पकवाना, जलाना, जलवाना, उजाला करना या बुझाना आदि कारणों से तेजस्काय की हिंसा होती है। ऐसे सब कारण साधु-जीवन में न रहें ।" आचारांग सूत्र में इन विषय पर बड़ा गंभीर विवेचन है । वहाँ कहा गया है : "जो पुरुष अग्निकाय के जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है, वह अपनी आत्मा का अपलाप करता है । जो अपनी आत्मा का अपलाप करता है वह अग्निकाय के जीवों का अपलाप करता है । जो अग्नि के स्वरूप को जानता है वह असंयम के स्वरूप को जानता है और जो असंयम के स्वरूप को जानता है वह अग्नि के स्वरूप को जानता है । जो प्रमादी है, वह प्राणियों को दण्ड देनेवाला है। अग्निकाय का आरम्भ करनेवाले के लिए अहित का कारण है, अबोधि का कारण है। यह ग्रन्थ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है ।" महात्मा बुद्ध ने अग्नि ताप का निषेध विशेष परिस्थिति में किया था। एक बार बौद्ध भिक्षु थोथे बड़े ठूंठ को जलाकर सर्दी के दिनों में अपने को तपा रहे थे । उसके अन्दर रहा हुआ काला नाग अग्नि से झुलस गया । वह बाहर निकल भिक्षुओं के पीछे दौड़ने लगा । भिक्षु इधर-उधर दौड़ने लगे । यह बात बुद्ध तक पहुँची । बुद्ध ने नियम दिया – “जो भिक्षु तापने की इच्छा से अग्नि जलायेगा, अथवा जलवायेगा, उसे पाचित्तिय का दोष होगा ।" इस नियम से रोगी भिक्षुओं को कष्ट होने लगा । बुद्ध ने उनके लिए अपवाद कर दिया। उक्त नियम के कारण भिक्षु आताप घर और स्नान घर में दीपक नहीं जलाते थे । बुद्ध ने समुचित कारण से अग्नि जलाने और जलवाने की अनुमति दी । आरामों में दीपक जलाये जाते थे* । महावीर का नियम था "शीत निवारण के लिए पास में वस्त्र आदि नहीं हैं और न घर ही है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूँ - भिक्षु ऐसा विचार भी न करे ५।" "भिक्षु स्पर्शनेन्द्रिय को मनोज्ञ एवं सुखकारक स्पर्श से संहृत करे। उसे शीतकाल में अग्नि सेवन - शीत ऋतु के अनुकूल सुमदायी स्पर्श में आसक्त नहीं होना चाहिए।" उन्होंने कहा--"जो पुरुष माता और पिता को छोड़कर धमण व्रत धारण करके भी अनिकाय का समारंभ करते हैं और जो अपने लिए भूतों की हिंसा करते हैं, वे कुलधर्मी है।" "अग्नि को उत करने वाला प्राणियों की घात करता है और आग बुझाने वाला मुख्यतया अग्निकाय के जीवों की घात करता है। धर्म को सीख मेधावी पण्डित अग्नि का समारम्भ न करे। अग्नि का समारंभ करने वाला पृथ्वी, तृण और काठ में रहनेवाले जीवों का दहन करता है"।" १ दश० ४.२० तथा ८.८ । २ - प्रश्न० ( आलव द्वार) १.३ पृ० १३ : पयण-पयावण जलावण-विद्ध स हि अर्गाणि । ३- आ० १.६५, ६६,६८,७६,७८ : जे लोयं अभाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अभाइक्लइ से लोयं अब्भाइक्खइ । जे दोलोगसत्यस्स वेयन्ने से असत्यस्स खेयन्ने, जे असत्यस्स खेयन्ने से दीहलोगसत्यस्स खेयन्ने । जे पम गुणडीए से हु दंडे पयुच्चति । तं से अहियाए, तं से अबोहियाए । एस एस म एस लमारे, एस तु परए। ४— Sacred Books of the Buddhists vol. XI. Book of the Discipline part II. LVI. P.P. ५- उत्त० २.७ : न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई । अहं तु सेवामि दद भवन चिन्ताए ॥ ६ - प्रश्न ० ( संवर-द्वार ) ५ : सिसिरकाले अंगारपतावणा य आयवनिद्वमउयसीयउ सिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्वुइकरा ते अन्नेसु य एवमादितेसु फासेसु मणुन्नभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिज्भियव्वं न मुज्झिपव्वं । ७ - सू० १.७.५ : जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणव्वए अर्गाणि समारभिज्जा । अहाहु से लोए कुसीलधम्मे, भूयाइ जे हिंसति आतसाते || ८- सू० १.७.६-७ : उज्जालओ पाण तिवातएज्जा, निव्वावओ अर्गाणि इतिवात एज्जा । तम्हा उ मेहावि समिक्ल धम्मं ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ।। पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति 1 संसदया कडुसमरिसता य एते दहे अगणि समारभते ॥ 398-400 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ७३ अध्ययन ३ : श्लोक ५ टि० २६ भगवान महावीर के समय में बड़े-बड़े यज्ञ होते थे । उनसे मोक्ष माना जाता था। उनमें महान् अग्नि-समारंभ होता था। महावीर ने उनका तीव्र विरोध किया था। उन्होंने कहा-"कई मूढ़ हुत-अग्नि-होम से मोक्ष कहते हैं। प्रात:काल और सायंकाल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो हुत-होम से मुक्ति बतलाते हैं वे मिथ्यात्वी हैं। यदि इस प्रकार सिद्धि हो तो अग्नि का स्पर्श करने वाले कुम्हार, लुहार आदि की सिद्धि सहज हो जाए ! अग्नि-होम से सिद्धि माननेवाले बिना परीक्षा किये ही ऐसा कहते हैं। इस तरह सिद्धि नहीं होती । ज्ञान प्राप्त कर देखो-वस, स्थावर सब प्राणी सुखाभिलाषी हैं.....।" श्लोक ५: २६. शय्यातरपिण्ड ( सेज्जायरपिंडं क): 'सेज्जायर' शब्द के संस्कृत रूप तीन बनते हैं-- शय्याकर, शय्याधर और शय्यातर । शय्या को बनाने वाला, शय्या को धारण करने वाला और श्रमण को शय्या देकर भव-समुद्र को तैरने वाला—ये क्रमशः इन तीनों के अर्थ हैं । यहाँ ‘शय्यातर' रूप अभिप्रेत है। शय्यातर का प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ है-वह गृह-स्वामी जिसके घर में श्रमण ठहरे हुए हों। शय्यातर कौन होता है ? कब होता है ? उसकी कितनी वस्तुएँ अग्राह्य होती हैं ? आदि प्रश्नों की चर्चा भाष्य ग्रंथों में विस्तारपूर्वक है । निशीथ-भाष्य के अनुसार उपाश्रय का स्वामी अथवा उसके द्वारा संदिष्ट कोई दूसरा व्यक्ति शय्यातर होता है। शय्यातर कब होता है ? इस विषय में अनेक मत हैं । निशीथ-भाष्यकार ने उन सबका संकलन किया है-- १-सू० १.७.१२ : ...."हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥ २- सू० १.७.१८ : हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं अणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तेसि, अणि फुसंताण कुकम्मिणंपि ॥ ३-सू० १.७.१६ : अपरिच्छ दिढेि ण हु एव सिद्धी, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा । भूएहि जाण पडिलेह सातं, विज्जं गहाय तसथावरेहिं ।। ४-नि० भा० गा० २.४५-४६ : सेज्जाकर-दातारा तिण्णि वि जुगवं वक्खाणेति - __ अगमकरणादगारं, तस्स हु जोगेण होति सागारी। सेज्जा करणा सेज्जाकरो उ दाता तु तद्दाणा ॥ "अगमा" रुक्खा, तेहिं कतं "अगारं" घरं तेण सह जस्स जोगो सा सागरिउ ति भण्णति । जम्हा सो सिज्ज करेति तम्हा सो सिज्जाकरो भग्णति । जम्हा सो साहूणं सेज्जं ददाति तेण भण्णति सेज्जादाता। जम्हा सेज्जं पडमाणि छज्ज-लेप्पमादोहि धरेति तम्हा सेज्जाधरो अहवा-सेज्जादाणपाहण्णतो अप्पाणं णरकादिसु पडतं धरेति ति तम्हा सेज्जाधरो । सेज्जाए संरक्खणं संगोवणं, जेण तरति काउं तेण सेज्जातरो । अहवा–तत्थ वसहीए साहुणो ठिता ते वि सारक्खिउं तरति, तेण सेज्जा दाणेण भवसमुद्र तरति ति सिज्जातरो। ५.--(क) अ० चू० पृ० ६१ : सेज्जा वसती, स पुण सेज्जादाणेण संसारं तरति सेज्जातरो, तस्स भिक्खा सेज्जातरपिंडो। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : शय्या-आश्रयोऽभिधीयते, तेण उ तस्स य दाणेण साहणं संसार तरतीति सेज्जातरो तस्स पिंडो, भिक्खत्ति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी०प० ११७ : शय्या-वसतिस्तया तरति संसारं इति शय्यातरः-साधुवसतिदाता, तत्पिण्डः । ६-हा० टी० ५० ११७ । ७-नि० भा० गा० ११४४ : सेज्जातरो पभू वा, पभुसंदिठ्ठो व होति कातन्वो। ८...नि. भा० गा० ११४६-४७ चू० : एत्थ णेगमणय-पक्खासिता आहु । एक्को भणति-अणुण्णविए उवस्सए सागारिओ भवति । अण्णो भणति -जता सागारियस्स उग्गहं पविठ्ठा । अण्णो भणति -जता अंगणं पविट्ठा । अण्णो भणति ---जता पाउग्गं तणडगलादि अणुणयवितं । अण्णो भणति-जता वसहिं पविठ्ठा । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ७४ अध्ययन ३ : श्लोक ५टि० २६ १. आज्ञा लेने पर...... २. मकान के अवग्रह में प्रविष्ट होने पर ...... ३. आंगन में प्रवेश करने पर..... ४. प्रायोग्य तृण, ढेला आदि की आज्ञा लेने पर ...... ५. वसति (मकान) में प्रवेश करने पर.... ६. पात्र विदोष के लेने और कुल-स्थापना करने पर.... ७. स्वाध्याय आरंभ करने पर....... ८. उपयोग सहित भिक्षा के लिए उठ जाने पर...... ६. भोजन प्रारम्भ करने पर..... १०. पात्र आदि वसति में रखने पर...... ११. देवसिक आवश्यक प्रारम्भ करने पर..... १२. रात्री का प्रथम प्रहर बीतने पर...... १३. रात्री का दूसरा प्रहर बीतने पर....... १४. रात्री का तीसरा प्रहर बीतने पर..... १५. रात्री का चौथा प्रहर बीतने पर...... --शय्यातर होता है। भाष्यकार का अपना मत यह है कि श्रमण रात में जिस उपाश्रय में रहे, सोए और चरम आवश्यक कार्य करे उसका स्वामी शय्यातर होता है। शय्यातर के अशन, पान, खाद्य, वस्त्र, पात्र आदि अग्राह्य होते हैं । तिनका, राख, पाट-बाजोट आदि ग्राह्य होते हैं। अण्णो भणति-जदा दोद्धियादिभंडयं दाणाति कुलठ्ठवणाए व ठवियाए। अण्णो भणति-जता सज्झायं आढत्ता काउं । अण्णो भणति - जता उवओगं काउंभिक्खाए गता। अण्णो भणति - जता भुंजिउमारहा। अण्णो भणति--भायणेसु निक्खित्तेसु । अण्णो भणति ...जता देवसियं आवर सयं कतं । अण्णो भणति - रातीए पढमे जामे गते । अण्णो अणति--बितिए। अण्णो भणति-ततिए। अण्णो भणति-चउत्थे। १-नि० भा० ११४८ चू० : जत्थ राउ द्विता तत्थेव सुत्ता तत्थेव चरिमावस्सयं कयं तो सेज्जातरो भवति । २-नि० भा० गा० ११५१-५४ चू० : दुविह चउविवह छउविह, अढविहो होति बारसविधो वा। सेज्जातरस्स पिंडो, तव्वतिरित्तो अपिंडो उ॥ दुविहं चउम्विहं छन्विहं च एगगाहाए वक्खाणेति आधारोवधि दुविधो, विदु अण्ण पाण ओहुबग्गहिओ। असणादि चउरो ओहे, उवग्गहे छव्विधो एसो ॥ आहारो उवकरणं च एस दुविहो । बे दुया चउरो ति, सो इमो-- अण्णं पाणं ओहियं उवग्गहियं च । असणादि चउरो ओहिए उवग्गहिए य, एसो छव्विहो । इमो अविहो असणे पाणे वत्थे, पाते सूयादिगा य चउरट्ठा। असणादी वत्थादी, सूयादि चक्कगा तिणि ॥ Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) अध्ययन ३ : श्लोक ५ टि० ३० शय्यातर का पिण्ड लेने का निषेध उद्गम-शुद्धि आदि कई दृष्टियों से किया गया है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने यहाँ एक वैकल्पिक पाठ माना है. पाट विसेसो-'सेज्जातर पिडं च, आसण्ण परिवज्जए'।" इसके अनुसार "शय्यातर-पिण्ड लेना जैसे अनाचार है, वैसे ही उसके घर से लगे हुए सात घरों का पिण्ड लेना भी अनाचार है । इसलिए श्रमण को शय्यातर का तथा उसके समीपवर्ती सात घरों का पिंड नहीं लेना चाहिए।" जिनदास महत्तर ने भी इस पाठान्तर व इसकी व्याख्या का उल्लेख किया है । किन्तु टीका में इसका उल्लेख नहीं है । सुत्रकृताङ्ग में शय्यातर' के स्थान में 'सागारियपिण्ड' का उल्लेख है। टीकाकार ने इसका एक अर्थ-सागारिक पिण्ड-अर्थात् शय्यातर का पिण्ड किया है। ३०. आसंदी ( आसंदी ): आसंदी एक प्रकार का बैठने का आसन है । शीलाङ्क सूरि ने आसन्दी का अर्थ वर्दी, मुंज, पाट या सन के सूत से गुंथी हुई खटिया किया है। निशीथ-भाष्य-चूणि में काष्ठमय आसंदक का उल्लेख मिलता है । जायसवालजी ने भी हिन्दू राज्य-तन्त्र' में इसकी चर्चा की है-"आविद् या घोषणा के उपरांत राजा काठ के सिंहासन (आसंदी) पर आरूढ़ होता है, जिसपर साधारणत: शेर की खाल बिछी रहती है। आगे चलकर हाथी दांत और सोने के सिंहासन बनने लगे थे, तब भी काठ के सिंहासन का व्यवहार किया जाता था (देखो महाभारत (कुंभ) शान्ति पर्व ३६, २. ४. १३. १४) । यद्यपि वह (खदिर की) लकड़ी का बनता था, परन्तु जैसा कि ब्राह्मणों के विवरण से जान पड़ता है, विस्तृत और विशाल हुआ करता था।" असणे पाणे वत्थे पादे, सुती आदि जेसि ते सूतीयादिगा--सूती पिप्पलगो नखरदनी कण्णसोहणयं । इमो बारस विहोअसणाइया चत्तारि, वत्थाइया चत्तारि, सूतियादिया चत्तारि, एते तिण्णि चउक्का बारस भवति । इमो पुणो अपिंडो---तण-डगल-छार-मल्लग, सेज्जा-संथार-पीढ-लेवादी। सेज्जातरपिंडेसो, ण होति सेहोव सोवधि उ॥ लेवादी, आदिसहातो, कुडमुहादि, एसो सम्वो सेज्जातरपिडो ण भवति । जति सेज्जाय रस्स पुत्तो धूया वा वत्थपायसहिता पव्वएज्जा सो सेज्जातरपिंडो ण भवति । १.--नि० भा० गा० ११५६, ११६८ : तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा-अण्णाय-उग्गमो ण सुज्झे। अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो । थल-देउलियट्ठाणं, सति कालं दटु दह्र तहिं गमणं । णिग्गते बसही भुंजण, अण्णे उभामगा उट्टा ॥ २-अ० चू० पृ०६१ : एतम्मि पाढे सेज्जातरपिंड इति भणिते कि पुणो भण्णति-"आसणं परिवज्जए ?" विसेसो दरिसिज्जति -जाणि वि तदासण्णाणि सेज्जातरतुल्लाणि ताणि सत्त वज्जेतवाणि । ३-जि० चु० पृ० ११३-४ : अहवा एतं सुत्त एवं पढिज्जइ 'सिज्जातरपिंडं च आसन्न परिवज्जए । सेज्जातरपिंडं च, एतेण चेव सिद्ध जं पुणो आसन्नग्गहणं करेइ तं जाणिवि तस्स गिहाणि सत्त अणंतरासण्णाणि ताणिवि। सेज्जातरतुल्लाणि दट्टव्वाणि, तेहितोवि परओ अन्नाणि सत्तवज्जेयवाणि । ४---सू० १.६.१६ : सागारियं च पिडं च, तं विज्जं परिजाणिया। ५.-सू० १.६.१६ टीका प० १८१ : 'सागारिकः' शय्यातरस्तस्य पिण्डम् --आहारं । ६-(क) अ० चू० ३.५ : आसंदी-उपविसणं; अ० चू० ६.५३ : आसंदी -आसणं । (ख) सू० १.६.२१ टीका प० १८२ : 'आसन्दी' त्यासन विशेषः । ७-सू० १.४.२. १५ टी० ५० ११८ : 'आसंदियं च नवसुत्त'-आसंदिकामुपवेशनयोग्यां मञ्चिकाम् ‘नवं-प्रत्यग्र' सूत्रं वल्कव लितं यस्यां सा नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थत्वावध चर्मावनद्धां वा। ८-नि० भा० गा० १७२३ चू० : आसंदगो कठ्ठमओ अझुसिरो लम्भति । E-हिन्दू राज्य-तंत्र (दूसरा खण्ड) पृष्ठ ४८ । १०-हिन्दू राज्य-तंत्र (दूसरा खण्ड) पृष्ठ ४८ का पाद-टिप्पण । Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ७६ कोशकार वेत्रासन को आसंदी मानते हैं' । अथर्ववेद में आसंदी का सावयव वर्णन मिलता हैसंवत्सरमुष्ठितं देवा अब प्रात्यकिं नु तिष्ठतीति ॥ १२.३.१ वह संवत्सर (या संवत्सर भर से ऊपर) खड़ा रहा । उससे देवों ने पूछा : व्रात्य, तू क्यों खड़ा है ? १५.३.२ : सोऽब्रवीदासन्दीं मे सं भरन्त्विति ।। वह बोला मेरे लिए आसन्दी ( बिनी हुई चौकी) लाओ । १५.३.२ : तस्मै ब्रात्यायासन्दीं समभरन् । उस ब्रात्य के लिए ( वह देव गण ) आसन्दी लाए । १५.३.४ : तस्या ग्रीष्मश्च वसन्तश्च द्वौ पादावास्तां शरच्च वर्षाश्च द्वौ || उसके (आसंदी के ) ग्रीष्म और वसन्त दो पाये थे, शरद् और वर्षा दो पाये थे । ऐसा मानना चाहिए कि शिशिर और हेमन्त ऋतु की गणना शरद् में कर ली गई है। १५.३.५ : बृहच्च रथन्तरं वानूच्ये आस्तां यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च तिरश्च्ये ॥ और रथन्तर, अनूच्य और यज्ञायज्ञिय तथा वामदेव तिरश्च्य थे । बृहत् (दाहिने बायें की लकड़ियों को अनुष्य तथा सिरहानेताने की लकड़ियों को तिरवच्य कहते हैं।) १५.३.६ : ऋचः प्राञ्चस्तन्तवो यजूंषि तिर्यञ्चः ॥ ऋक्, प्राञ्च और यजु तिर्यञ्च हुए I (ऋग्वेद के मंत्र सीधे सूत ( ताना) और यजुर्वेद के मंत्र तिरछे सूत ( बाना) हुए । ) १५.३.७ वेद आस्तरणं ब्रह्मम् ।। । वेद आस्तरण (बिछोना) और ब्रह्म उपबर्हण ( सिरहाना, तकिया) हुआ (ब्रह्म से अथवा मंत्रों से तात्पर्य है । १५.३.८ : सामासाद उद्गीथोऽपश्रयः ।। साम आसाद और उद्गीथ अपश्रय था । (आसाद बैठने की जगह और ग्रपश्रय टेकने के हत्थों को कहते हैं । उद्गीथ प्रणव (ॐकार ) का नाम है ।) १५. ३.६ : तामासन्दी ब्रात्य आरोहत् ।। उस आसन्दी के ऊपर व्रात्य चढ़ा | इसके लिए वैदिक पाठवली पृष्ठ १०५ और ३३६ भी देखिए । ३१. पर्यङ्क ( पलियंकए ख ) : जो सोने के काम में आए, उसे पर्यङ्क कहते हैं । इसी सूत्र (६.५४-५६) में इसके पीछे रही हुई भावना का बड़ा सुन्दर उद्घाटन हुआ है । वहाँ कहा गया है : "आसन, पलंग, खाट और आशालक आदि का प्रतिलेखन होना बड़ा कठिन है। इनमें गंभीर छिद्र होते हैं, इससे प्राणियों की प्रतिलेखना करना कठिन होता है । अतः सर्वज्ञों के वचनों को माननेवाला न इन पर बैठे, न सोए ।" सूत्रकृताङ्ग में भी आसंदी - पर्यङ्क को त्याज्य कहा है । मंच, आशालक, निषद्या, पीठ को भी आसंदी पर्यङ्क के अन्तर्गत समझना चाहिए । बौद्ध - विनयपिटक में आसंदी, पलंग को उच्चशयन कहा है और दुक्कट का दोष बता उनके धारण का निषेध किया है। पर चमड़े से बंधी हुई गृहस्थों की बारपाइयों या चौकियों पर बैठने की भिक्षुओं को अनुमति थी, लेटने की नहीं'। ग ३२. गृहान्तर-निषा ( गिहंतरनिसेज्जा ) : इसका अर्थ है- भिक्षाटन करते समय गृहस्थ के घर में बैठना । अध्ययन ३ श्लोक ५ टि० ३१ ३२ १- अ० चि ३.३४८ : स्याद् वेत्रासनमासन्दी । २ – (क) अ० चू० पृ० ६१ : पलियंको सयणिज्जं । (ख) सू० १.६.२१ टीका प० १८२ - 'पकः' शयनविशेषः । ३- सू० १.६.२१ : आसंदी पलियंके य ...... ... | , तं विज्जं परिजाणिया || .... ४ - दश० ६.५४, ५५ । ५ - विनयपिटक: महावग्ग ५६२.४ पृ० २०६ । ६ - विनयपिटक : महावग्ग ५२.८ पृ० २१०-११ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुडियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३: श्लोक५ टि० ३२ जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ किया है -घर में अथवा दो घरों के अंतर में बैठना' । शीलांकाचार्य ने भी ऐसा ही अर्थ किया है । बृहत्कल्प-भाष्य में गृहान्तर के दो प्रकार बतलाए हैं -सद्भाव गृह-अन्तर और असद्भाव गृह-अन्तर । दो घरों के मध्य को सद्भाव-गृह-अन्तर और एक ही घर के मध्य को असद्भाव गृह-अन्तर माना है। प्रस्तुत सूत्र (५.२.८) में कहा है : "गोचरान में प्रविष्ट मुनि कहीं न बैठे"- (गोयरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज्ज कत्थई) । 'कहीं' शब्द का अर्थ जिनदास महत्तर ने घर, देवकुल, सभा, प्रपा आदि-आदि किया है । हरिभद्र सूरि ने भी 'कहीं' का ऐसा ही अर्थ किया है। दशवकालिक सूत्र ( ६.५७,५६ ) में कहा है : “गोचराप्र में प्रविष्ट होने पर जो मुनि घर में बैठता है, वह अनाचार को प्राप्त होता है, अत: उसका वर्जन करना चाहिए।" अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'गृहान्तर' शब्द का अर्थ उपाश्रय से भिन्न घर किया है। सूत्रकृताङ्ग (१.९.२६) में कहा है : "साधू पर-गृह में न बैठे (परगेहे ण णिसीयए) । यहाँ गृहान्तर के स्थान में 'पर-वृह' शब्द प्रयुक्त हुआ है । शीलाङ्क सूरि ने 'पर-गृह' का अर्थ गृहस्थ का घर किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में जहाँ श्रमण ठहरा हुआ हो उस स्थान के लिए 'स्व-गृह' और उसके अतिरिक्त घरों के लिए 'पर-गृह' शब्द का प्रयोग किया गया है । दशवकालिक में भी 'परागार' शब्द का प्रयोग हुआ है । उक्त सन्दर्भो के आधार पर 'गृहान्तर' का अर्थ 'पर-गृह-उपाश्रय से भिन्न गृह होता है । यहाँ 'अन्तर' शब्द बीच के अर्थ में नहीं है किन्तु 'दूसरे के' अर्थ में प्रयुक्त है--जैसे—रूपान्तर, अवस्थान्तर आदि । अतः "दो घरों के अन्तर में बैठना" यह अर्थ यहाँ नहीं घटता। 'गृहान्त र-निषद्या' का निषेध 'गोचरान-प्रविष्ट' श्रमण के लिए है, या साधारण स्थिति में, इसकी चर्चा अगस्त्यसिंह स्थविर ने नहीं की है और आगम में गोचराग्र-प्रविष्ट मुनि के लिए यह अनाचार है, यह स्पष्ट है। १---(क) जि० चू० १० ११४ : गिहं चेव गिहतरं तंमि गिहे निसेज्जा न कप्पइ, निसेज्जा णाम जंमि निसत्थो अच्छइ, अहवा दोण्हं अंतरे, एत्थ गोचरग्गगतस्स णिसेज्जा ण कप्पइ, चकारगहणेण निवेसणवाडगादि सूइया, गोयरग्गगतेण न णिसियव्वंति । (ख) हा० टी० ५० ११७ : तथा गृहान्तरनिषद्या अनाचरिता, गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्, च शब्दा त्पाटकादिपरिग्रहः । २--सू० १.६.२१ टीका प० १२८ : णिसिज्जं च गिहतरे-गृहस्यान्तर्मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनं वा संयमविराधना भयात्परिहरेत् । ३--बृहत् भा० गा० २६३१ : सम्भावमतभावं, मझम सम्भावतो उ पासेणं । निव्वाहिमनिव्वाहि, ओकमइंतेसु सम्भावं ॥ मध्यं द्विधा- सद्भावमध्यमसद्भावमध्यं च । तत्र सद्भावमध्यं नाम- यत्र गृहपतिगृहस्य पान गम्यते आगम्यते वा छिण्डिकयेत्यर्थः, "ओकमइ तेसु" ति गृहस्थानाम् ओकः-गृहं संयताः संयतानां च गृहस्था मध्येन यत्र 'अतियन्ति' प्रविशन्ति उपलक्षण त्वाद् निर्गच्छन्ति वा तदेतदुभयमपि सद्भावतः-परमार्थतो मध्यं सद्भावमध्यम् । ४ –जि० चू० पृ० १६५ : गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियव्वं कत्थाइ घरे वा देवकुले वा सभाए वा पवाए वा एवमादि । ५.... हा० टी०प०१८४ : भिक्षार्थ प्रविष्ट...'नोपविशेत् 'क्वचिद्" गृहदेवकुलादौ । ६-अ० चू० पृ० ६१ : गिहंतरं पडिस्सयातो बाहिं जं गिहं, गेण्हतीति गिह, गिहं अंतरं च गिहंतरं, गिहतरनिसेज्जा जं उवविट्रो अच्छति, चसद्देण वाडगसाहिनिवेसणादीसु। ७- सू० १.६.२६ टीका प०१८४ : साधुभिक्षादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो-गृहस्थस्तस्य गृहं परगहं तत्र 'न निषोदेत्' नोपविशेत् । ८- उत्त० १७.१८ : सयं गेहं परिच्चज्ज, परगेहं सि वावरे। .......... पावसमणि त्ति वुच्चई॥ ६-(क) दश० ८.१६ : पविसित परागारं, पाणट्ठा भोयणस्स वा । (ख) जि० चू० पृ० २७६ : अगारं गिह भण्णइ, परस्स अगारं परागारं । (ग) हा० टी०प०२३१ : 'पविसित्तु' सूत्र, प्रविश्य 'परागारं' परगृहं । Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ७८ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ३३-३४ इन सब आधारों पर ही यहां 'गृहान्तरनिपता' का अर्थ भिक्षा करते समय गृहस्य के पर बैठना केवल इतना ही किया है। जयाचार्य ने शयनगृह, रसोई पर पानी पर स्नानगृह आदि ऐसे स्थानों को, जहाँ बैठना श्रमण के लिए उचित न हो, बृहन्तर या अन्तर-घर माना है' | निशीथ और उत्तराध्ययन' में "गिहि-निसेज्जा' (गृही- निषद्या) शब्द मिलता है। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ पलंग आदि शय्या किया है। इसलिए यह गृहान्तर से भिन्न अनाचार है । उपस्थी के लिए 'गृहान्तर निपया' अनाचार नहीं है। प्रस्तुत आगम (६.६० ) और यहां यह समझ लेना जरूरी है कि रोगी सूत्रकृताङ्ग" के उल्लेख इसके प्रमाण हैं । 'गृहान्तर-निया' को अनाचार क्यों कहा इस विषय में दशकालिक (६.५७-५९) में अच्छा प्रकाश डाला है। यहाँ कहा है : "इससे ब्रह्मचर्य को विपत्ति होती है। प्राणियों का अवध-काल में बध होता है। दीन भिक्षाधियों को बाधा पहुंचती है। गृहस्थों को कोष उत्पन्न होता है कुशील की वृद्धि होती है।" इन सब कारणों से 'गृहान्तरनिया का वर्जन है। ३२. गात्र उद्वर्तन ( गायस्वट्टणाणि ध ) : शरीर में पीठी (उबटन) आदि का मलना गात्र उद्वर्तन कहलाता है। इसी आगम में ( ६.६४-६७ ) में विभूपा शरीर-शोभाको वर्जनीय बताकर उसके अन्तर्गत गात्र उद्वर्तन का निषेध किया गया है । वहाँ कहा गया है : "संयमी पुरुष स्नान चूर्ण, कल्क, लोध्र आदि सुगन्धित पदार्थों का अपने शरीर के उबटन के लिए कदापि सेवन नहीं करते । शरीर-विभूषा सावद्य-बहुल है । इससे गाढ़ कर्मबन्धन होता है।" इस अनाची का उल्लेख षता में भी हुआ है। श्लोक ६ : ३४. गृहियापृत्य ( गिहिणो वेपावडियं क ) ‘वेयावडियं’ शब्द का संस्कृत रूप ' वैयावृत्य' होता है" । गृहि वैयावृत्य को यहाँ अनाचरित कहा है । इसी सूत्र की दूसरी धूलिका के 8 वें श्लोक में स्पष्ट निषेध है - "गिहीणो वेयावडियं न कुज्जा" मुनि गृहस्थों का व्यापृत्य न करे । उपर्युक्त दोनों ही स्थलों पर चूर्णिकार और टीकाकार की व्याख्याएँ प्राप्त हैं। उनका सार नीचे दिया जाता है : १ - अगस्त्य सिंह स्थविर ने पहले स्थल पर अर्थ किया है- गृहस्थ का उपकार करने में प्रवृत्त होना। दूसरे स्थल पर अर्थ किया - गृहि व्यापारकरण- गृहस्थ का व्यापार करना अथवा उसका असंयम की अनुमोदना करनेवाला प्रीतिजनक उपकार करना । १- सन्देहविषयी पत्र ३८ २० १२.१२ जे वाहेद वाह वा सान्निति । ३ - उ० १७.१६ : गिहिनिसेज्जं च वाहेइ पावसमणिति वच्चई || ४तिगृहिणां विद्या पर्यादि या। ५०] १.८.२९ नन्नत्य अंतराएवं परगेण भितीय ६ (क) ५० ० ० ६१ गातं सरीरं तस्य उबट्टणं मंगलगाई। (ख) जि० ० पू० ११४ ॥ fo (ग) हा० टी० प० ११७ : गात्रस्य - कायस्योद्वर्तनानि । ७ - सू० १.६.१५ : आसूणिमक्खिरागं च, fra aarai | उच्छोलणं च कक्कं च तं विज्जं ! परिजाणिया || - हा० टी० ए० ११० गृहस्वस्य वैधास्यम्' E -- (क) अ० चू० पृ० ६१: गिहीणं वेयावडितं जं तेसि उबकारे वट्टति । (ख) यही गिट्टीणो वैवावहियं नाम तव्यावारकरणं तेसी प्रीतिजगणं उपकार अजमाणुमोदन कुज्जा । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ७६ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि०३४ २ -- जिनदास महत्तर ने पहले स्थल पर अर्थ किया है-गृहस्थों के साथ अन्नपानादि का संविभाग करना। दूसरे स्थल पर अर्थ किया है --गृहस्थों का आदर करना, उनका प्रीतिजनक असंयम की अनुमोदना करने वाला उपकार करना । हरिभद्र सूरि ने पहले स्थल पर अर्थ किया है--गृहस्थ को अन्नादि देना। दूसरे स्थल पर अर्थ किया है-गृहस्थों के उपकार के लिए उनके कर्म को स्वयं करना । अगस्त्यसिंह स्थविर की व्याख्या के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन में 'वैयापृत्य' का प्रयोग उपकार करने की व्यापक प्रवृत्ति में हआ है-ऐसा लगता है और जिनदास महतर तथा हरिभद्र सूरि की व्याख्या से ऐसा लगता है कि इसका यहाँ प्रयोग ---अन्नपान के संविभाग के अर्थ में हुआ है। सूत्रकृताङ्ग (१.६) में इस अनाचार का नामोल्लेख नहीं मिलता, पर लक्षण रूप से इसका वर्णन वहाँ आया है। वहीं श्लोक २३ में कहा है - "भिक्षु अपनी संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए अन्नपान ग्रहण करता है उसे दूसरों को-गृहस्थों को-देना अनाचार है। उत्तराध्ययन सूत्र के बारहवें अध्ययन में 'वेयावडिय' शब्द दो जगह व्यवहृत है। वहाँ इसका अर्थ अनिष्ट निवारण के लिए अर्थात् परिचर्या के लिए व्यापृत होना है। अध्यापक की बात सुनकर बहुत से कुमार दौड़ आये और भिक्षा के लिए ब्रह्माबारे में आये हुए ऋषि हरिकेशी को दण्ड, बेत और चाबुक से मारने लगे। ऋषि हरिकेशी का 'वैयापृत्य' करने के लिए यक्ष कुमारों को रोकने लगा । यक्ष ने कुमारों को बुरी तरह पीटा। पुरोहित ने मुनि से माफी मांगी। उसने कहा - "ऋषि महाकृपाल होते हैं। ये कोप नहीं करते।" ऋषि बोले- "मेरे मन में न तो पहले द्वेष था न अब है और न आगे होगा, किन्तु यक्ष मेरा 'वैयाप्रत्य' करता है, उसी ने इन कुमारों को पीटा है।" आगमों में 'वेयावच्च' शब्द भी मिलता है । इसका संस्कृत रूप 'वैयावृत्य है। इसका अर्थ १- (क) जि० चू० पृ० ११४ : गिहिवेयावडीयं जं गिहीण अण्णपाणादीहिं विसूरंताण विसंविभागकरणं, एवं वेयावडियं भण्णइ । (ख) वही पृ० ३७३ : गिह-पुत्तदारं तं जस्स अस्थि सो गिही, एगवयगं जातीअस्थमवदिस्सति, तस्स गिहिणो"वेयावडिय न कुज्जा" वेयावडियं नाम तथाऽऽदरकरणं, तेसि वा पीतिजणणं, उपकारकं असंजमाणुमोदणं ण कुज्जा । २-(क) हा० टी० ५० ११७ : व्यावृत्तभावो-वैयावृत्त्यं, गृहस्थं प्रति अन्नादिसंपादनम् । (ख) डा० टी०प०२८१: गहिणो' गृहस्थस्य 'वैयावृत्त्यं' गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात, स्वपरोभयाश्रेयः समायोजनदोषात् । .-... सू० १.६.२३ : जेणेहं णिव्वहे भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं । अगुप्ता अणुप्पदाणमन्नेसि, तं विज्ज ! परिजाणिया । ४--उत्त०१२.२४.३२ : एयाई तीसे वयणाइ सोच्चा, पत्तीइ भद्दाइ सुहासियाई। इसिस्स वेयावडियट्टयाए, जक्खा फुमारे विणिवाडयन्ति । पवि च इण्हि च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ। जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, तम्हा हु एए निहया कुमारा॥ ५-उत्त० १२.२४ बृ० १०३६५ : वैयावृत्त्यार्थमेतत् प्रत्यनीकनिवारणलक्षणे प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमर्थम् । ६- उत्त० १२.३२ ६० प० ३६७ : वयावृत्त्यं प्रत्यनीकप्रतिघातरूपम् । ७ .---(क) उत्त० २६.४३ : वेयावच्चेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबन्धइ । (ख) उत्त० ३०.३० : पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो एसो अन्भिन्तरो तवो ॥ (ग) ठा० ६.६६ । (घ) भग० २५.७॥ (ङ) औप० सू० ३०। Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ३५ उसका है - साधु को शुद्ध आहारादि से सहारा पहुंचाना' । दिगम्बर साहित्य में अतिथि संविभाग व्रत का नाम वैयावृत्य है । अर्थं दान है २ । कौटिलीय अर्थशास्त्र में वैयावृत्त्य और वैयावृत्य दोनों शब्द मिलते है । वैयावृत्त्य का अर्थ परिचर्या और वैयावृत्य का अर्थ फुटकर विकी है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गृहस्थ को आहारादि का विभाग देना तथा गृहस्थों की रोवा करना ये दोनों भाव 'गिहिरो वेयावडियं' अनाचार में समाए हुए हैं। ३५. आजीववृत्तिता ( आजीववित्तिया 'जीव' शब्द का अर्थ है आजीविका के उपाय या साधन ये पांच आशीय पिण्ड नियुक्ति निपीय-आय आदि ग्रन्थों में 'लिङ्ग के में तप और श्रुत इन दो को भी 'आजीव' कहा है। इनसे - जाति आदि से ख ८० ) हैं । आजीविका के साधन जाति आदि भेदों के आधार से आजीववृत्तिता के निम्न आठ प्रकार होते हैं--- १ - जाति का अर्थ ब्राह्मण आदि जाति अथवा मातृपक्ष होता है। अपनी जाति का आश्रय लेकर अर्थात् अपनी जाति बताकर आहारादि प्राप्त करना जात्याजीववृत्तिता हैं" । -6 स्थानास सूप के अनुसार जाति, कुल, कर्म, शिल्प और विज्ञ स्थान पर गण का उल्लेख मिलता है। व्यवहार-भाष्य जीवन निर्वाह करने की वृत्ति को 'आजीववृत्तिता' कहते १ - ( क ) भग० २५.७ । (ख) ठा० ६.६६ टी० प० ३४६ : व्यावृत्तभावो वैयावृत्यं धर्मसाधनार्थं अन्नादिदानमित्यर्थः । (ग) ठा० ३.४१२ टी० प० १४५ : व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं भवतादिभिरुपष्टम्भः । (घ) औष० टी० पृ० १'जावा' यात्वं भक्तपानादिभिष्टम्भः । (४) उ० २०.३३ ० ० ६० व्यावृराभावो वैयावृत्यम् उचित आहारादि सम्पादनम् । २- रत्नकरण्ड श्रावकाचार १११ । दानं वैयावृत्त्यं, धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । ३. कटिलीय अर्थशास्त्र अधिकरण २ प्रकरण २३.२० यास्काराणामर्थदण्ड व्याख्या तयारयकाराणां तस्यावृत्यकाराः विशेषेण आसमन्ताद् वर्तन्त इति । व्यावृत्तः परिचारकः तस्य कर्म वैयावृत्त्यं परिचर्या तत् कुर्वन्तः परिचारिकाः तेषां अर्धदण्डः । वैयावृत्त्यं शब्द का प्रयोग कौ० अ० चतुर्थ अधिकरण प्रकरण ८३.११ में भी मिलता है । ४. वही अधिकरण ३ प्रकरण ६४.२० इति व शब्द पाठे यथा कर्मकरार्थता तथा व्याख्यातमधस्तात् । ५ — (क) सू० १.१३.१२ टी० १० २३६ : आजीवम् - आजीविकाम् आत्मवर्तनोपायम् : (ख) सू० १.१३.१५ टी० प० २३७ आसमन्ताज्जीवन्त्यनेन इति आजीवः । ६- ठा० ५.७१ : पंचविधे आजीविते पं० तं० जातिआजीवे कुलाजीवे कम्माजीवे सिप्पाजीवे लिंगाजीवे । विषयस्तु व्याख्या व्याप्तो व्याप्रियमाणस्तस्य कर्म यात्वं व्यापृत्करा (क) पिं० नि० ४३७ : जाई कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । (ख) नि० भा० ० ४४११ जाती कुल-गण-कम्मे, सिग्वे आजीवणा पंचविहा (ग) ठा० ५.७१ टी० प० २८६ : लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते । (घ) अ० चू० पृ० ६१; जि० चू० पृ० ११४ : 'जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा ।' ८- व्य० भा० २५३ जाति कुले गणे वा, कम्मे सिप्पे तवे सूए चेव । सत्तविहं आजीवं, उवजीवइ जो कुसीलो उ ॥ ६ -- हा० टी० प० ११७ : जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनम् आजीवः तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः इयं चानाचरिता । १०- (क) पिं० नि० ४३० टी० जाति: ब्राह्मणादिका.... : 'अथवा मातुः समुत्था जातिः । (ख) ठा० ५.७१ टी० प० २८६ : जाति ब्राह्मणादिकाम् आजीवति उपजीवति तज्जातीयमात्मानं सूचादिनोपदर्य ततो भक्तादिकं गृह्णातीति जात्याजीवकः एवं सर्वत्र । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ८१ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ३५ २- कुल का अर्थ उग्रादिकुल अथवा पितृपक्ष है' । कुल का आश्रय लेकर अर्थात् कुल बतलाकर आजीविका करना कुलाजीव. वृत्तिता है । ३-कर्म का अर्थ कृषि आदि कर्म हैं । आचार्य आदि से शिक्षण पाए बिना किये जानेवाले कार्य कर्म कहे जाते हैं। जो कृषि आदि में कुशल हैं, उन्हें अपनी कर्म-कुशलता की बात कह आहारादि प्राप्त करना कर्माजीववृत्तिता है । ४-बुनना, सिलाई करना आदि शिल्प हैं । शिक्षण द्वारा प्राप्त कौशल शिल्प कहा जाता है। जो शिल्प में कुशल हैं, उन्हें अपने शिल्प-कौशल की बात कह आहारादि प्राप्त करना शिल्पाजीववृत्तिता है। ५-- लिङ्ग वेष को कहते हैं । अपने लिङ्ग का सहारा ले आजीविका करना लिङ्गाजीववृत्तिता है। ६-गण का अर्थ मल्लादि गण (गण-राज्य) है । अपनी गणविद्याकुशलता को बतलाकर आजीविका करना गणाजीवत्तिता है। ७-अपने तप के सहारे अर्थात् अपने तप का वर्णन कर, आजीविका प्राप्त करना तप-आजीववृत्तिता है। ८-श्रुत का अर्थ है शास्त्रज्ञान । श्रुत के सहारे अर्थात् अपने श्रुत ज्ञान का बखान कर आजीविका प्राप्त करना श्रुताजीव वृत्तिता है। जाति आदि का कथन दो तरह से हो सकता है : (१) स्पष्ट शब्दों में अथवा (२) प्रकारान्तर से सूचित कर । दोनों ही प्रकार से जात्यादि का कथन कर आजीविका प्राप्त करना आजीववृत्तिता है। साधु के लिए आजीववृत्तिता अनाचार है । मैं अमुक जाति, कुल, गण का रहा हूँ । अथवा अमुक कर्म या शिल्प करता था अथवा मैं बड़ा तपस्वी अथवा बहुश्रुत है-यह स्पष्ट शब्दों में कहकर या अन्य तरह से जताकर यदि भिक्षु आहार आदि प्राप्त करता है तो आजीववृत्तिता अनाचार का सेवन करता है। सूत्रकृताङ्ग में कहा है--"जो भिक्षु निष्किचन और सुरूक्षवृत्ति होने पर भी मान-प्रिय और स्तुति की कामना करनेवाला है उसका संन्यास आजीव है । ऐसा भिक्षु मूल-तत्व को न समझता हुआ भव-भ्रमण करता है।" १--(क) पि०नि० ४३८ टी० : कुलम् - उग्रादिः अथवा .... पितृसमुत्थं कुलम् । (ख) व्य० भा० २५३ टी० : एवं सप्तविधम् आजीवं य उपजीवति-जीवनार्थमाश्रयति, तद्यथा--जाति कुलं चात्मीयं लोकेभ्यः कथयति। २--पि०नि० ४३८ टी० : कर्म-कृष्यादि:..... अन्ये त्वाहुः-अनाचार्योपदिष्टं कर्म । ३-(क) पि०नि० ४३८ टी० : शिल्पं तूर्णादि-तूर्णनसीवनप्रभृति । आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति । (ख) व्य० भा० २५३ टी० : कर्मशिल्पकुशलेभ्यः कर्मशिल्पकौशलं कथयति । (ग) नि० भा० गा० ४४१२ चू० : कम्मसिप्पाणं इमो विसेसो-विणा आयरिओवदेसेण जं कज्जति तणहारगादि तं कम्म, इतरं पुण जं आयरिओवदेसेण कज्जति तं सिप्पं । ४.-.-ठा० ५.७१ टी० प० २८६ : लिङ्ग-साधुलिङ्ग तदाजीवति, ज्ञानादिशून्यस्तेन जीविकां कल्पयतीत्यर्थः । ५-(क) पि० नि० ४३८ टी० : गणः --मल्लादिवृन्दम् । (ख) व्य० भा० २५३ टो० : मल्लगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं कथयति । ६...व्य. भा० २५३ टी० : तपस: उपजीवना तपः कृत्वा क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति । ७- व्य० भा० २५३ टी० : श्रुतोपजीवना बहुश्रुतोऽहमिति । ८-(क) पि०नि० ४३७ : सूयाए असूयाए व अप्पाण कहेहि एक्कक्के । (ख) इसी सूत्र को टीका-सा चाऽऽजीवना एककस्मिन् भेदे द्विधा, तद्यथा--सूचया आत्मानं कथयति, असूचया च, तत्र 'सूचा' वचनं भङ्गिविशेषेण कथनम्, 'असूचा' स्फुटवचनेन । (ग) ठा० ५.७० टी० प० २८६ : सूचया--व्याजेनासूचया–साक्षात् । है--सू० १.१३.१२ : णिक्किचणे भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सिलोगगामी। आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुवेति ॥ Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ८२ अध्ययन३: श्लोक ६ टि०३६ उत्तराध्ययन में कहा गया है-जो शिल्प-जीवी नहीं होता, वह भिक्षु' । इसी तरह कृषि आदि कर्म करने का भी वर्जन है। जब गृहस्थावस्था के कर्म, शिल्प आदि का उल्लेख कर या परिचय दे भिक्षा प्राप्त करना अनाचार है, तब कृषि आदि कर्म व सूचि आदि शिल्पों द्वारा आजीविका न करना साधु का सहज धर्म हो जाता है। व्यवहार भाष्य में जो आजीव से उपजीवन करता है उसे कुशील कहा है। आजीववृत्ति ता उत्पादन दोषों में से एक है। निशीथ सूत्र में आजीवपिण्ड-आजीववृत्तिता से प्राप्त आहार --खानेवाले श्रमण के लिए प्रायश्चित्त का विधान है । भाष्य में कहा है -जो ऐसे आहार का सेवन करता है वह आज्ञा-भंग, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना का भागी होता है। जाति आदि के आश्रय से न जीनेवाला साधु 'मुधाजीवा' कहा गया है। जो 'मुधाजीवी' होता है वह सद्-गति को प्राप्त करता है । जो श्रमण 'मुधाजीवी' नहीं होता वह जिह्ना-लोलुप बन श्रामण्य को नष्ट कर डालता है। इसलिए आजीबवृत्तिता अनाचार है। साधु सदा याचित ग्रहण करता है कभी भी अयाचित नहीं । अतः उसे गृहस्थ के यहाँ गवेषणा के लिए जाना होता है। संभव है गृहस्थ के घर में देने के योग्य अनेक वस्तुओं के होने पर भी वह साधु को न दे अथवा अल्प दे अथवा हल्की वस्तु दे । यह अलाभ परीषह है । जो भिक्षु गृहस्थावस्था के कुल आदि का उल्लेख कर या परिचय दे उनके सहारे भिक्षा प्राप्त करता है, वह एक तरह की दीनवृत्ति का परिचय देता है। इसलिए भी आजीववृत्तिता अनाचार है। ३६. तप्तानिवृतभोजित्व ( तत्तानिव्वुडभोइत्तंग): तप्त और अनित इन दो शब्दों का समास मिथ (सचित्त-अचित्त) वस्तु का अर्थ जताने के लिए हुआ है । जितनी दृश्य बस्तुएँ हैं वे पहले सचित्त होती हैं। उनमें से जब जीव च्युत हो जाते हैं, केवल शरीर रह जाते हैं, तब वे वस्तुएँ अचित्त बन जाती हैं। जीवों का च्यवन काल-मर्यादा के अनुसार स्वयं होता है और विरोधी पदार्थ के संयोग से काल-मर्यादा से पहले भी हो सकता है। जीवों की सत्य के कारण-भूत विरोधी पदार्थ शस्त्र कहलाते हैं । अग्नि मिट्टी, जल, वनस्पति और त्रस जीवों का शस्त्र है। जल और वनस्पति सचिन बोले हैं। अग्नि से उबालने पर ये अचित्त हो जाते हैं। किन्तु ये पूर्ण-मात्रा में उबाले हुए न हों उस स्थिति में मिश्र बन जाते हैं . कछ जीव मरते हैं कछ नहीं मरते इसलिए वे सचित्त-अचित्त बन जाते हैं । इस प्रकार के पदार्थ को तप्तानि त कहा जाता है। प्रस्तत सूत्र ५.२.२२ में तप्तानिवृत्त जल लेने का निषेध मिलता है तथा ८.६ में 'तत्तफासुय' जल लेने की आज्ञा दी है। इससे स्पष्ट होता है कि केवल गर्म होने मात्र से जल अचित्त नहीं होता । किन्तु वह पूर्णमात्रा में गर्म होने से अचित्त होता है। मात्रा की पूर्णता के बारे में चणिकार और टीकाकार का आशय यह है कि त्रिदण्डोवृत्त-तीन बार उबलने पर ही जल अचित्त होता है, अन्यथा नहीं । १-उत्त० १५.१६ : असिप्पजीवी.......स भिक्खू । २-व्यवहार भाष्य २५३ । ३-श्रमण सू० पृ० ४३२ : धाई दूई निमित्ते आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । ___ कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए । ४-नि० १३.६७ : जे भिक्खू आजीविपिंडं भुजति भुजंतं वा सातिज्जति । ५ --नि० भा० गा० ४४१० : जे भिक्खाऽऽजीवपिंड, गिण्हेज्ज सयं तु अहव सातिज्जे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥ ६ हा० टी० ५० १८१ । 'मुधाजीवी' सर्वथा अनिदानजीवी, जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये । ७- दश० ५.१.१०० : मुहादाई मुहाजीवो, दो वि गच्छन्ति सोग्गई। ८- उत्त० २.२८ : सव्वं से जाइयं होइ, नस्थि किंचि अजाइयं । &-अ० चू० पृ० ६१ : जाव णातीवअगणिपरिणतं तं तत्तअपरिणिव्वुडं । १० (क) अ० चू० पृ० ६१ : अहवा तत्तम व तिनि बारे अणुव्वत्तं अणिव्वुडं। (ख) जि० चू० पृ० ११४ : अहवा तत्तमवि जाहे तिण्णि वाराणि न उव्वत्तं भवइ ताहे तं अनिव्वुडं, सचित्तति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी० ५० ११७ : 'तप्तानिवृतभोजित्वम्'–तप्तं च तदनिवृतं च-अत्रिदण्डोवृत्त चेति विग्रहः, उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते, तद्भोजित्वं-मिश्रसचित्तोदकभोजित्वम् इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा) ८३ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि०३६ ___दश० ५२.२२ में 'वियडं वा तत्तनिव्वुडं' और ८.६ में 'उसिणोदगं तत्तफासुयं' – इन दोनों स्थलों में क्रमशः तप्तानिवृत जल का निषेध और तप्तप्रासुक जल का विधान है। किन्तु प्रस्तुत स्थल में तप्तानित के साथ भोजित्व शब्द का प्रयोग हुआ है। इसलिए इसका सम्बन्ध भक्त और पान दोनों से है। इसलिए एक बार भुने हुए शमी-धान्य को लेने का निषेध किया गया है। गर्म होने के बाद ठंडा हुआ पानी कुछ समय में फिर सचित्त हो जाता है उसे भी 'तप्तानिवृत' कहा गया है । अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार ग्रीष्म-काल में एक दिन-रात के बाद गर्म पानी फिर सचित्त हो जाता है। तथा हेमन्त और वर्षाऋतु में पूर्वाह्न में गर्म किया हुआ जल अपराह्न में सचित्त हो जाता है। जिनदास महत्तर का भी यही अभिमत रहा है । टीकाकार ने इसके बारे में कोई चर्चा नहीं की है। ओधनियुक्ति आदि ग्रंथों में अचित्त वस्तु के फिर से सचित्त होने का वर्णन मिलता है। जल की योनि अचित्त भी होती है। सूत्रकृताङ्ग (२.३.५६) के अनुसार जल के जीव दो प्रकार के होते हैं-वात-योनिक और उदक-योनिक। उदक-योनिक जल के जीव उदक में ही पैदा होते हैं । वे सचित्त उदक में ही पैदा हों, अचित्त में नहीं हों ऐसे विभाग का आधार नहीं मिलता क्योंकि वह अचित्त-योनिक भी है। इसलिए यह सूक्ष्म दृष्टि से विमर्शनीय है। प्राणी-विज्ञान की दृष्टि से यह बहुत ही महत्व का है। भगवान् महावीर ने कहा है - "साधु के सामने ऐसे अवसर, ऐसे तर्क उपस्थित किए जा सकते हैं --'अन्य दर्शनियों द्वारा मोक्ष का सम्बन्ध खाने-पीने के साथ नहीं जोड़ा गया है और न सचित्त-अचित्त के साथ । पूर्व में तप तपने वाले तपोधन कच्चे जल का सेवन कर ही मोक्ष प्राप्त हुए। वैसे ही नमि आहार न कर सिद्ध हुए और रामगुप्त ने आहार कर सिद्धि प्राप्त की। बाहुक कच्चा जल पीकर सिद्ध हुए और तारागण ऋषि ने परिणत जल पीकर सिद्धि प्राप्त की। प्रासिल ऋषि, देविल ऋषि तथा द्वैपायन और पराशर जैसे जगत् विख्यात और सर्व सम्मत महापुरुष कच्चे जल, बीज और हरी वनस्पति का भोजन कर सिद्ध हो चुके हैं'।" उन्होंने पुनः कहा है-"यह सुनकर मन्द बुद्धि साधु उसी प्रकार विषादादि को प्राप्त हो जाता है जिस प्रकार कि बोझ आदि से लदा हुआ गधा, अथवा आग्न आदि उपद्रवों के अवसर पर लकड़ी के सहारे चलने वाला लूला पुरुष ।" महावीर के उपदेश का सार है कि अन्य दर्शनियों के द्वारा सिद्धान्तों की ऐसी आलोचना होने पर घबराना नहीं चाहिए । उत्तराध्ययन में कहा है -“अनाचार से घृणा करने वाला लज्जावान् संयमी प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त जल का सेवन न करे किन्तु प्रासुक पानी की गवेषणा करे। निर्जन मार्ग से जाता हुआ मुनि तीव्र प्यास से व्याकुल हो जाय तथा मुंह सूखने लगे तो भी दीनतारहित होकर कष्ट सहन करे।" १-दश० ५.२.२० । २--(क) अ०० पू०६१ : अहवा तत्तं पाणित पुणो सीतलीभूतं आउक्कायपरिणाम जाति तं अपरिणय अणिवुडं, गिम्हे अहो रत्तेणं सच्चित्ती भवति, हेमन्त-वासासु पुब्वण्हे कतं अवरण्हे । (ख) जि० चू० पृ० ११४ : तत पाणीयं तं पुणो सीतलीभूतमनिव्वुडं भण्णइ, तं च न गिण्हे, रत्ति पज्जुसियं सचित्तीभवइ, हेमन्तवासासु पुब्वण्हे कयं अवरण्हे सचित्ती भवति, एवं सचित्तं जो भुंजइ सो तत्तानिब्वुडभोई भवइ । ३ --ठा० ३.१०१ : तिविहा जोणी पग्णत्ता तं जहा सचित्ता अचित्ता मोसिया। एवं एगिदियाणं विलिदियाणं समुच्छिमपंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं समुच्छिममणुस्साण य । ४-सूत्र०१.३.४.१-५ : आहंसु महापुरिसा, पुवि तत्सतवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना, तत्थ मंदो विसीयइ ॥ अभुंजिया नमी विदेही, रामगुते य भुंजिआ । बाहुए उदगं भोच्चा, तम्हा नारायणे रिसी ॥ आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा, बीयाणि हरियाणि य ॥ एए पुवं महापु रिसा, आहिया इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा, इइ मेयमणुस्सुअं ॥ तत्थ मंदा विसीयंति, वाहच्छिन्ना व गद्दभा । पिटुओ परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥ ५-उत्त० २.४,५ : तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लज्जसजए । सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे । छिन्नावाएसु पन्थेसु, आउरे सुपिवासिए । परिसुक्खमुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं ॥ Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि०३७ ३७. आतुर-स्मरण ( आउरस्सरणाणि घ): सूत्रकृताङ्ग में केवल सरण' शब्द का प्रयोग मिलता है। पर वहाँ चचित विषय की समानता से यह स्पष्ट है कि 'सरण' शब्द से 'आ उरस्सरण' ही अभिप्रेत है। उत्तराध्ययन में 'आउरे सरणं' पाठ मिलता है। 'सरण' शब्द के संस्कृत रूप 'स्मरण' और 'शरण' --ये दो बनते हैं । स्मरण का अर्थ है-याद करना और शरण के अर्थ हैं(१) त्राण और (२) घर---आश्रय- स्थान' । इन दो रूपों के आधार से पाँच अर्थ निकलते हैं : (१) केवल 'सरण' शब्द का प्रयोग होने से सूत्रकृताङ्ग की चूणि में इसका अर्थ पूर्व-भुक्त काम-क्रीड़ा का स्मरण किया है। शीला कसूरि को भी यह अर्थ अभिप्रेत है । (२) दशवकालिक के चूर्णिकार अगस्त्यसिंह ने आउर' शब्द जुड़ा होने से इसका अर्थ क्षुधा आदि से पीड़ित होने पर पूर्व-भुक्त वस्तुओं का स्मरण करना किया है । जिनदास और हरिभद्र सूरि को भी यही अर्थ अभिप्रेत है। (३) उत्तराध्ययन के वृत्तिकार नेमिचन्द्र सूरि ने इसका अर्थ-रोगातुर होने पर माता-पिता आदि का स्मरण करना किया है। (४) दशवकालिक की चूणियों में 'शरण' का भयातुर को शरण देना ऐसा अर्थ है। हरिभद्र सूरि ने दोषातुरों को आश्रय देना अर्थ किया है। (५) रुग्ण होने पर आतुरालय या आरोग्यशाला में भर्ती होना यह अर्थ भी प्राप्त है १२ ।। इस प्रकार 'आउस्सरण' के पाँच अर्थ हो जाते हैं । तीन ‘स्मरण' रूप के आधार पर और दो 'शरण' रूप के आधार पर। 'आतुर' शब्द का अर्थ है-'पीडित' । काम, क्षुधा, भय आदि से मनुष्य आतुर होता है और आतुर दशा में वह उक्त प्रकार की सावद्य चेष्टाएँ करता है । किन्तु निर्ग्रन्थ के लिए ऐसा करना अनाचार है। प्रश्न उठता है— शत्रुओं से अभिभूत को शरण देना अनाचार क्यों है ? इसके उत्तर में चूर्णिकार कहते हैं- "जो साधु स्थान-- आश्रय देता है, उसे अधिकरण दोष होता है । यह एक बात है । दूसरी बात यह है कि उसके शत्रु को प्रद्वेष होता है ।" इसी तरह आरोग्यशाला में प्रवेश करना साधु को न कल्पने से अनाचार है" । १----सूत्र० १.६.२१ : प्रासंदी पलियंके य, णिसिज्जं च गिहतरे । संपुच्छणं सरणं वा, त विज्ज! परिजाणिया ॥ २-सूत्र० १.६.१२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, २० । ३-उत्त० १५.८ : मन्तं मूलं वि विहं वेज्जचिन्तं, वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ ४-हा० टी० ५० ११७-१८ : आतुरस्मरणानि ......"आतुरशरणानि वा। ५-अ० चि०४ : ५७ । ६-सू० चू० पृ० २२३ : सरणं पुन्वरतपुवकोलियाणं । ७–सू० १.६.२१ टीका ५० १८२ : पूर्वक्रीडितस्मरणम् । ८-अ० चू० पृ० ६१ : छुहादीहि परीसहेहि आउरेणं सितोदकादिपु ब्वभुत्तसरणं । ६ -- (क) जि० चू० पृ० ११४ : आउरीभूतस्त पुब्वभुत्ताणुसरणं । (ख) हा० टी०प० ११७ : क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणानि । १०-उत्त० १५.८ ने० टी०प० २१७ : सुबव्यत्ययाद् 'आतुरस्य' रोगपीडितस्य स्मरणं हा तात ! हा मातः !' इत्यादिरूपम्। ११- (क) अ० चू० पृ० ६१ : सहि वा अभिभूतस्स सरणं भवति वारेत्ति तोवासं वा देति । (ख) जि० चू० पू० ११४ : अहवा सत्तूहि अभिभूतस्स सरणं देइ, सरणं णाम उवस्सए ठाणंति वुत्तं भवइ..। (ग) हा० टी०प०१८ : आतुरशरणानि वा--दोषातुराश्रयदानानि । १२- (क) अ० चू० पृ०६१ : अहवा सरणं आरोग्गसाला तत्थ पवेसो गिलाणस्स । (ख) जि० चू० पृ० ११४ : अहवा आउरस्सरणाणि त्ति आरोग्गसालाओ भण्णंति । १३ -(क) अ० चू• पृ०६१ : तत्य अधिकरण दोसा, पदोसं वा ते सत्तू जाएज्जा । (ख) जि०० पू० ११४ : तत्थ उवस्सए ठाणं तस्स अहिकरणदोसो भवति सो वा तस्स सत्त पओसमावज्जेज्जा। १४ --जि. चू० पृ० ११४ : तत्थ न कप्पइ गिलाणस्स पविसिउँ एतमवि तेसि अणाइण्णं । Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) ८५ अध्ययन ३ : श्लोक ७-८ टि० ३८-४२ श्लोक ७: ३८. अनिवृत, सचित्त, आमक ( अणिव्वुडे ख, सच्चित्ते ", आमए ) इन तीनों का एक ही अर्थ है । जिस वस्तु पर शस्त्रादि का व्यवहार तो हुअा है पर जो प्रासुक-जीव-रहित-नहीं हो पायी हो उसे अनित कहते हैं । निर्वत' का अर्थ है शान्त । अनित--अर्थात् जिससे प्राण अलग नहीं हुए हैं । जिस पर शस्त्र का प्रयोग नहीं हुआ, अत: जो वस्तु मूलतः ही सजीव है उसे सचित्त कहते हैं । आमक का अर्थ है-कच्चा । जो फलादि कच्चे हैं, वे भी सचित्त होते हैं। इस तरह 'अनिर्वत' और 'आमक' ये दोनों शब्द सचित्त के पर्यायवाची हैं । ये तीनों शब्द सजीवता के द्योतक हैं । ३६. इक्षु-खण्ड ( उच्छुखंडे ख ) : यहाँ सचित्त इक्षु-खण्ड के ग्रहण को अनाचार कहा है । ५.१.७३ में इक्षु-खण्ड लेने का जो निषेध है, उसका कारण इससे भिन्न है। उसमें फेंकने का अंश अधिक होने से वहाँ उसे अग्राह्य कहा है। चूर्णिकार द्वय और टीका के अनुसार जिसमें दो पोर विद्यमान हों, वह इक्षु-खण्ड सचित्त ही रहता है। ४०. कंद और मूल (कंदे मूले " ) : कंद-मूल तथा मूल-कंद ये दो भिन्न प्रयोग हैं । जहाँ मूल और कंद ऐसा प्रयोग होता है वहाँ वे वृक्ष आदि की क्रमिक अवस्था के बोधक होते हैं । वृक्ष का सबसे निचला भाग मूल और उसके ऊपर का भाग कंद कहलाता है । जहाँ कंद और मूल ऐसा प्रयोग होता है वहाँ कंद का अर्थ शकरकंद आदि कन्दिल जड़ और मूल का अर्थ सामान्य जड़ होता है । ४१. बीज ( बीए ): बीज का अर्थ गेहूँ, तिल आदि धान्य विशेष है। श्लोक ४२. सौवचल ( सोवच्चले क ) इस श्लोक में सौवर्चल, सैन्धव, रोमा लवण, सामुद्र, पांशुक्षार और काला लवण-ये छः प्रकार के लवण बतलाए गए हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार सौवर्चल नमक उत्तरापथ के एक पर्वत की खान से निकलता था। जिनदास महत्तर इसकी खानों को सेंधा नामक की खानों के बीच-बीच में बतलाते हैं । चरक के अनुसार यह कृत्रिम लवण है। १-(क) अ० चू० पृ० ६२ : अणिन्वुडं...."तं पुण जोवअविप्पजढं, निव्वुडो सांतो मतो आमगं अपरिणतं . 'आमगं सच्चित्तं । (ख) जि० चू० पृ० ११५ : निव्वुडं पुण जीवविष्पजढं भण्णइ, जहा निव्वातो जीवो, पसंतो.त्तवुत्तं भवइ....."आमगं भवति असत्थपरिणयं । (ग) हा० टी० ५० ११८ : अनिर्वृतम्-अपरिणतम् ; ..........."आमकं आमगं सचित्तं । २-(क) अ० चू० पृ० ६२ : उच्छुखंडं दोसु पोरेसु धरमाणेसु अणिध्वुडं । (ख) जि० चू० पृ० ११५ : उच्छुखंडमवि दोसु पोरेसु वट्टमाणेसु अनिव्वुडं भवइ । (ग) हा० टी०प० ११८ 'इक्षुखण्डं' चापरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते । ३ (क) अ० चू० पृ० ६२ : कंदा चमकादतो। (ख) हा० टी० प० ११८ : 'कन्दो'– वज्रकन्दादिः मूलं च' सट्टामूलादि । ४-(क) अ० चू० पृ० ६२ : बीता धण्णविसेसो। (ख) जि० चू० पृ० ११५ : बीजा गोधूमतिलादिणो। ५-अ० चू० पृ० ६२ : सोवच्चलं उत्तरावहे पब्वतस्स लवणखाणीसु संभवति । ६-जि. चू० पृ० ११५ : सोवच्चलं नाम सेंधवलोणपव्वयस्स अंतरंतरेसु लोणखाणीओ भवति । ७-चरक० (सू०) २७.२६६ पृ० २५० पाद-टि०१ : सौवर्चलं प्रसारणोकल्कभक्तलवणसंयोगात् । अग्निदाहेन निर्वृतम्। इति डल्हणः । आयुर्वेद के आचार्य सौवर्चल और बिड़ लवण को कृत्रिम मानते हैं - देखो रसतरंगिणी। Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ४३ सैन्धव नमक सिन्धु-देश (सिंध-प्रदेश) के पर्वत की खान से पैदा होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने सैन्धव को नदी-भव माना हैं। सैन्धव के बाद लोण शब्द आया है। चणि कार उसे सैन्धव का विशेष्य मानते हैं और हरिभद्र सूरि उसे सांभर के लवण का वाचक मानते हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार जो रूमा में हो वह रोमा लवण है । रोमक या रूमा-भव को कुछ कोषकार सामान्य नमक का वाचक मानते हैं और कुछ सांभर नमक का । किन्तु रूमा का अर्थ है लवण की खान । जिनदास महत्तर रूमा देश में होनेवाला नमक रूमा लवण इतना ही लिख उसे छोड़ देते हैं । किन्तु वह कहाँ था, उसकी चर्चा नहीं करते । सामुद्र-सांभर के लवण को सामुद्र कहते हैं । समुद्र के जल को क्यारियों में छोड़कर जमाया जानेवाला नमक सामुद्र है। पांशुक्षार - खारी-मिट्टी (नोनी-मिट्टी) से निकाला हुआ नमक । काला नमक --चुणिकार के अनुसार कृष्ण नमक सैन्धव-पर्वत के बीच-बीच की खानों में होता है"। कोषकारों ने कृष्ण नमक को सौवर्चल का ही एक प्रकार माना है, उसके लिए तिलक शब्द है१२ । चरक में काले नमक और सौंचल (सौवर्चल) को गुण में समान माना गया है। काले नमक में गन्ध नहीं होती। सौवर्चल से इस में यही भेद है । चक्र ने काले नमक का दक्षिण-समुद्र के समीप होना बतलाया है । श्लोकह: ४३. धूम-नेत्र ( धूव-णेति क ) : शिर-रोग से बचने के लिए धूम्रपान करना अथवा धूम्रपान की शलाका रखना अथवा शरीर व वस्त्र को धूप खेना-यह अगस्त्यसिंह स्थविर की व्याख्या है, जो क्रमश: धूम, धूम-नेत्र और धूपन शब्द के आधार पर हुई है। धुम-नेत्र का निषेध उत्तराध्ययन में भी मिलता है । यद्यपि टीकाकारों ने धूम और नेत्र को पृथक् मानकर व्याख्या की है पर वह १--(क) अ० चू० पू०६२: सेन्धवं सेन्धवलोणपन्वते संभवति । (ख) जि० चू०प०११५ सेंधवं नाम सिधवलोणपब्वए तत्थ सिंधवलोणं भवइ । २—अ० चि० ४.७ : सैंधव तु नदी भवम् । ३-हा० टी० ५० ११८ : 'लवणं च' सांभरिलवणं । ४–अ० चू० पृ० ६२ : रूमालोणं रूमाए भवति । ५-अ० चि० ४.८ को रत्नप्रभा व्याख्या। ६-अ० चि० ४.७ : रुमा लवणखानि: स्यात् । ७-जि० चू० पृ० ११५ : रुमालोणं रुमाविसए भवइ । ८ (क) अ० ० ० ६२ : सांभरीलोणं सामुई, सामुद्दपाणीयं रिणे केदारादिकतमावट्टतं लवणं भवति । (ख) जि० चू० पृ० ११५ : समुद्दलोणं समुद्दपाणीयं तं खड्डीए निग्णंतूण रिणभूमीए आरिज्जमाणं लोणं भवइ । (ग) हा० टी० ५० ११८ : सामुद्रं समुद्र लवणमेव । ६–चरक० सू० २७.३०६ टीका : पांशुज पूर्वसमुद्रजम् । १०- (क) अ० चू० पृ० ६२ : पंसुखारो ऊसो कड्डिज्जतो अदुप्पं भवति । (ख) जि. चू०पृ०११५ : पंसुखारो ऊसो भण्णइ। (ग) हा० टी० ५० ११८ : 'पांशुक्षारश्च' ऊषरलवणं । ११–(क) अ० चू० पृ० ६२ : तस्सेव सेन्धवपन्वतस्स अंतरतरेसु (कालालोण) खाणीसु संभवति । (ख) जि० चू० पृ० ११५ । तस्सेव सेन्धवपव्वयस्स अंतरंतरेसु काला लोण खाणीओ भवंति । १२–अ० चि० ४.६ : सौवर्चलेऽक्ष रुचकं दुर्गन्धं शूलनाशनम्, कृष्णे तु तत्र तिलक .....। १३—चरक० सू० २७.२६८ : न काललवगे गन्धः सौवर्चलगुणाश्च ते । १४–चरक० सू० २७.२६६ पाद-टि०१ : चक्रस्तु काललवणटीकायां काललवणं सौवर्चलमेवागन्धं दक्षिणसमुद्रसमीपे भवतीत्याह । १५–अ० चू० पृ०६२ : धूमं पिबति 'मा सिररोगातिणो भविस्संति' आरोगपडिकम्म, अहवा "धूमणे" त्ति धूमपानसलागा, धूवेति वा अप्पाणं वत्थाणि वा। १६--उत्त० १५.८ : .......... वमणविरेयणधूम गेत्तसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू । अहवालपूनम पास यूमीवर भवानी यह Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) ८७ अध्ययन ३ : श्लोकह टि०४३ अभ्रान्त नहीं है । नेत्र को पृथक् मानने के कारण उन्हें उसका अर्थ अञ्जन करना पड़ा', जो कि बलात् लाया हुआ-सा लगता है। जिनदास महत्तर के अनुसार रोग की आशंका व शोक आदि से बचने के लिए अथवा मानसिक-आह्लाद के लिए धूप का प्रयोग किया जाता था। निशीथ में अन्य तीथिक और गृहस्थ के द्वारा घर पर लगे धूम को उतरवाने वाले भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है।' भाष्यकार के अनुसार दद्रु आदि की औषध के रूप में धूम का प्रयोग होता था। इसकी पुष्टि चरक से भी होती है। यह उल्लेख गृह-धूम के लिए है किन्तु अनाचार के प्रकरण में जो धूम-नेत्र (धूम्र-पान की नली) का उल्लेख है, उसका सम्बन्ध चरकोक्त वैरेचनिक, स्नैहिक और प्रायोगिक धूम से है । प्रतिदिन धूम-पानार्थ उपयुक्त होनेवाली वर्ति को प्रायोगिकी-वति, स्नेहनार्थ उपयुक्त होनेवाली वर्ति को स्नैहिकी-वति और दोष-विरेचन के लिए उपयुक्त होनेवाली वति को वैरेचनि की-वति कहा जाता है । प्रायोगिकी-वति के पान की विधि इस प्रकार बतलाई गई है - घी आदि स्नेह से चुपड़ कर वति का एक पाश्र्व धूम-नेत्र पर लगाएँ और दूसरे पार्श्व पर आग लगाएँ। इस हितकर प्रायोगिकी-वति द्वारा धूम-पान करें। ___ उत्तराध्ययन के व्याख्याकारों ने धूम को मेनसिल आदि से सम्बन्धित माना हैं" । चरक में मेनसिल आदि के धूम को शिरोविरेचन करने वाला माना गया है। धूम-नेत्र कैसा होना चाहिए, किसका होना चाहिए और कितना बड़ा होना चाहिए तथा धूम-पान क्यों और कब करना चाहिए, इनका पूरा विवरण प्रस्तुत प्रकरण में है । सुश्रुत के चिकित्सा-स्थान के चालीसवें अध्याय में धूम का विशद वर्णन है। वहाँ धूम के पाँच प्रकार बतलाए हैं। चरकोक्त तीन प्रकारों के अतिरिक्त सघ्न' और 'वामनीय' ये दो और हैं। सूत्रकृताङ्ग में धूपन और धूम-पान दोनों का निषेध है । शीलाङ्क सूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि मुनि शरीर और वस्त्र को धूप न दे और खाँसी आदि को मिटाने के लिए योग-वति-निष्पादित धूम न पीए । सूत्रकार ने धूप के अर्थ में 'धूवण' का प्रयोग किया है और सर्वनाम के द्वारा धूम के अर्थ में उसीको ग्रहण किया है। इससे जान पड़ता है कि तात्कालिक साहित्य में धूप और धूम दोनों के लिए 'धूवण' शब्द का प्रयोग प्रचलित था। हरिभद्र सूरि ने भी इसका उल्लेख किया है। प्रस्तुत श्लोक में केवल 'धूवन' शब्द का ही प्रयोग होता तो इसके धूप और धूम ये दोनों अर्थ हो जाते, किन्तु यहाँ 'धूव-णेत्ति' १-उत्त० १५.८ नेमि० वृ० ५० २१७ : नेत्त' त्ति नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकमिह समीराजनादि गृह्यते । २-जि० चू० पृ० ११५ : धूवणेत्ति नाम आरोग्गपडिकम्म करेइ धूमंपि, इमाए सोगाइणो न भविस्सति । ३ -नि० १.५७ : जे भिक्खू गिहधूम अण्णउत्थिएण वा गारित्थएण वा परिसाडावेइ, परिसाडावेतं वा सातिज्जति । ४-नि० भा० गा० ७६८ : घरधूमोसहकज्जे, ददु किडिभेदकच्छ अगतादी। घरधूमम्मि णिबंधो, तज्जातिअ सूयणढ़ाए। ५-चरक० सू० ३.४-६ पृ० २६ : कुष्ठ, दद्रु, भगन्दर, अर्श, पामा आदि रोगों के नाश के लिए छह योग बतलाए हैं। उनमें छठे योग में और वस्तुओं के साथ गृह-धूम भी है-- मनःशिलाले गृहधूम एला, काशीसमुस्तार्जुनरोध्रसर्जाः ॥ ४ ॥ कुष्ठानि कृच्छाणि नवं किलासं, सुरेन्द्रलुप्तं किटिभं सदनु । भगन्दरास्यिपची सपामां, हन्युः प्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम् ॥ ६ ॥ ६--चरक० सू०५.२१ : शुष्कां निगरां तां वति धूमनेत्रापितां नरः । स्नेहाक्तामग्निसंप्लुष्टां पिबेत्प्रायोगिकी सुखाम् ।। ७-उत्त० १५.८ नेमि० वृ० प० २१७ : धूम-मनःशिलादिसम्बन्धि । --चरक० सूत्र० ५.२३ : श्वेता जोतिष्मती चैव हरितालं मनःशिला । गन्धाश्चागुरुपत्राद्या धूमः शीर्ष विरेचनम् ॥ E-(क) सू० २.१.१५ : णो धूवणे, णो तं परिआविएज्जा। (ख) वही २.४.६७ : णो धूवणित्तं पिआइते।। १०-सू० २.१.१५ टी०५० २६६ : तथा नो शरीरस्य स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात् नापि कासाद्यपनयनाथ तं धूम योगवति निष्पा दितमापिबेदिति। Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशर्वकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ४४ शब्द का प्रयोग है इसलिए इसका सम्बन्ध धूम-पान से ही होना चाहिए। वमन, विरेचन और वस्ति कर्म के साथ 'धूम-नेत्र' का निकट सम्बन्ध है' । इसलिए प्रकरण की दृष्टि से भी 'धूपन' की अपेक्षा 'धूम-नेत्र' अधिक उपयुक्त है । अगत्यहि स्थविर मे बति' पाठ को मूल माना है और मान कर उसका संस्कृत रूप धूपन किया है और मतान्तर का उल्लेख दृष्टि से विचार करने पर घूर्णिकारों के अनुसार मुख्य अर्थ धूम-पान है मुख्य अर्थ है और धूम-पान गौण । इस स्थिति में मूल पाठ का निश्चय करना कठिन होता है, किन्तु इसके साथ जुड़े हुए 'इति' शब्द की अर्थ-हीनता और उत्तराध्ययन में प्रयुक्त 'धूमणेत्तं" के आधार पर ऐसा लगता है कि मूल पाठ 'धूमणेत्त' या 'धूवणेत्त' रहा है। बाद में प्रतिलिपि होते-होते यह 'धुवणेत्ति' के रूप में बदल गया ऐसा सम्भव है । प्राकृत के लिङ्ग अतन्त्र होते हैं, इसलिए सम्भव है यह धूवणेत्ति' या 'धूमणेत्ति' भी रहा हो । पति को पाठान्तर हरिभद्रसूरि ने मूल पाठ 'वन्ति' करते हुए उन्होंने इसका अर्थ धूम-पान भी किया है । अर्थ की और धूप- खेना गोण अर्थ है। टीकाकार के अभिमत में धूप-खेना बौद्ध भिक्षु धूमपान करने लगे तब महात्मा बुद्ध ने उन्हें धूम-नेत्र की अनुमति दी । ५ फिर भिक्षु सुवर्ण, रौप्य आदि के धूमनेत्र रखने लगे। इससे लगता है कि भिजुओं और संन्यासियों में घूमपान करने के लिए घूमनेत्र रखने की प्रथा थी, किंतु भगवान् महावीर ने अपने निर्ग्रथों को इसे रखने की अनुमति नहीं दी । ख ४४ वमन, वस्तिकर्म, विरेचन ( वमणे य कवस्थीकम्म विरेषणे ) : वमन का अर्थ है उल्टी करना, मदनफल आदि के प्रयोग से आहार को बाहर निकालना । इसे ऊर्ध्व - विरेक कहा है" : अपान मार्ग के द्वारा स्नेह आदि के प्रक्षेप को वस्तिकर्म कहा जाता है। आयुर्वेद में विभिन्न प्रकार के वस्तिकर्मों का उल्लेख मिलता है'। अगस्त्यतिर स्थविर के अनुसार चर्म की नली को 'वस्ति' कहते हैं। उसके द्वारा स्नेह का चढ़ाना वस्तिकर्म है । जिनदास और हरिभद्र ने भी यही अर्थ किया हैं"। निशीथ चूर्णिकार के अनुसार वस्तिकर्म कटि-वात, अर्श आदि को मिटाने के लिए किया जाता था" । विरेचन का अर्थ है - जुलाब के द्वारा मल को दूर करना। इसे अबोविरेक कहा है" । इन्हें यहाँ अतिचार कहा है । इनका निषेध सूत्रकृताङ्ग में भी आया है" । १ -चरक० सू० ५.१७-३७ । २ अ० ० ६२ [३] हा० डी० प० ११० धूपनमित्यात्मवादेरनाचरितम् प्राकृत्या नवव्याधिनिवृतये धूमपानमित्यन्ये याचते । ४ उत्त० १५.८ । ८८ सिसिलोगो ५.विनयपिटकमा ६.२.७ अनुजानामि विघूमनेति । ६. विनयपिटक महावय ६.२.७ ७- (क) अ० चु० : वमणं छडणं । -- (ख) हा० टी० प० ११८ वमनम् (ग) सूत्र० १.६.१२ टी० प० १८० : वमनम् - चरक० सिद्धि० १ ९-२० जू० पृ० ६२ वत्थी भिक्खू उच्चावचानि घूमनेतानि पारेति सोवन्नमयं रूपमयं । मदनफलादिना । -- १० – (क) जि० चू० पृ० ११५ (ख) हा० टी० प० ११८ गिरोहादिदाणत्वं चम्ममयो पालियाउसो कीरति तेषं कम्म अपणानं सिनेहादिदानं ब वत्थोकम्मं नाम वत्थी दइओ भण्णइ, तेण दइएण घयाईणि अधिद्वाणे दिज्जति । वस्तिका पुट स्नेहानं 1. ११ - नि० भा० गा० ४३३० चूर्णि पृ० ३९२ : कडिवायअरिस विणास णत्थं च अपाणद्दारेण वत्थिणा तेल्ला दिप्पदाण' वत्थिकम्मं । ऊर्ध्वविरेकः । १२ (क) अ० चू० पृ० ६२ : विरेयण कसायादीहि सोधण । (ख) हा० टी० प० ११८: विरेचनं दन्त्यादिना । (ग) सू० १.२.१२ डी० १० १५० विरेचनं निरूहात्मकमधोविरेको । १३ – सू० १.६.१२ : धोयण रयण चेव, वत्थोकम्मं विरेयण' । वमण जण पलीमंथं, तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुडियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार कथा ) ८६ अध्ययन ३ : इलोक टि०.४५ निशीच भाष्यकार के अनुसार रोगप्रतिकार के लिए नहीं किन्तु मेरा वर्ष सुन्दर हो जाय, स्वर मधुर हो जाय, बल-बड़े अथवा मैं दीर्घ आयु बनूँ, मैं कृश होऊ या स्थूल होऊ – इन निमित्तों से वमन, विरेचन आदि करने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। - चूर्णिकारों ने वमन, विरेचन और वस्तिकर्म को आरोग्य प्रतिकर्म कहा है। जिनदास ने रोग न हो, इस अकल्प्य कहा है । इसी आधार पर हमने इन तीनों शब्दों के अनुवाद के साथ 'रोग की सम्भावना से बचने के को बनाए रखने के लिए जोड़ा है। निशीथ में वमन, विरेचन के प्रायश्चित्त-सूत्र के अनन्तर अरोग-प्रतिकर्म का प्रायश्चित्त सूत्र है । रोग की सम्भावना से बचने की आकांक्षा और वर्ण, बल आदि की आकांक्षा भिन्न-भिन्न हैं । मत बस्तिकर्म, विरेचन के निषेध के ये दोनों प्रयोजन रहे हैं, यह उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है। ४५. दंतवण (दंतवणे ) : लोक में विवेचन किया जा रहा है । होगा अनाचार का उल्लेख है और यहाँ 'दवणे का दोनों में समानता होने से यहाँ संयुक्त 'पोयणा' का संस्कृत रूप 'दन्तप्रचायन' होता है। इसके निम्न अर्थ मिलते हैं (१) अगस्त्यसिंह स्थविर और जिनदास महत्तर ने इस शब्द का अर्थ काष्ठ, पानी आदि से दाँतों को पखारना किया है। (२) हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ दांतों का अंगुली आदि से प्रक्षालन करना किया है। अंगुली आदि में दन्तकाष्ठ शामिल नहीं है । उसका उल्लेख उन्होंने 'दन्तवण' के अर्थ में किया है । उक्त दोनों अर्थों में यह पार्थक्य ध्यान देने जैसा है । 'दन्तवण' के निम्न अर्थ किये गये हैं : (१) अगस्त्यसिह स्थविर ने इसका अर्थ दांतों की विभूषा करना किया है। (२) जिनदास ने इसे 'लोकप्रसिद्ध' कहकर इसके अर्थ पर कोई प्रकाश नहीं डाला । सम्भवतः उनका आशय दंतवन से है। (३) हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ दंतकाष्ठ किया है । जिससे दांतों का मल घिस कर उतारा जाता है उसे दंतकाष्ठ कहते हैं । 'दंतवण' शब्द देशी प्रतीत होता है। वनस्पति, वृक्ष आदि के अर्थ में 'वन' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सम्भव है काष्ठ या लकड़ी के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता हो। यदि इसे संस्कृत-सम माना जाय तो दंत- पवन से दन्त-अवण दंतवण हो सकता है। कहा गया है । जिस काष्ठ खण्ड से दांत पवित्र किये जाते हैं उसे दन्त (पा) वन दंतवन अनाचार का अर्थ दातुन करना होता है । अगस्त्य सिंह स्थविर ने दोनों अनाचारों का अर्थ बिलकुल भिन्न किया है पर 'दंतवण' शब्द पर से 'दांतों की विभूषा' करना - यह १- नि० भा० गा० ४३३१ वण्ण-सर-रूव-मेहा, वंगवलीपलित-णासणठ्ठा वा । दीहाउ तता वा धूल-किसडा वा ।। २ (क) अ० चू० पृ० ६२ : एतानि आरोग्गपडिकम्माणि रूवबलत्थमणा तिष्ण' । (ख) जि० चू० पृ० ११५ : एयाणि आरोग्गपरिकम्मनिमितं वा ण कप्पड़ । ३- नि० १३.३६, ४०, ४२: जे भिक्खू वमण करेति, करेंतं वा सातिज्जति । निमित्त से इनका सेवन लिए, रूप, बल आदि जे भिक्खू विरेषण करेति, करेतं वा सातिज्जति । जे भिक्खु अरोगे य परिक्रम्मं करेति करतं वा सातिज्जति। - (क) अ० चू० पृ० ६०: दंतपहोवण' दंताण कट्ठोदकादीहि पक्खाण ं । (ख) जि० ० पृ० ११३ fo तपोवन नाम दंताण कट्टोदगादहि पाण ५- हा० टी० प० ११७ : 'दन्तप्रधावनं' चांगुल्यादिना क्षालनम् । ६ - अ० चू० पृ० ६२ : दंतमण दसणाणं (विभूसा ) । ७ - हा० टी० प० ११८ : दन्तकाष्ठं च प्रतीतम् । ८ उपा०] १.५ डी० पृ० ७ दन्तमलापकर्षणकाष्ठम् । ८- प्रव० ४.२१० टी० प० ५१ : दन्ताः पूयन्ते -- पवित्राः क्रियन्ते येन काष्ठखण्डेन तद्दन्तपावनम् Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ६० अध्ययन ३: श्लोकह टि०४५ अर्थ नहीं निकलता। हरिभद्र सूरि ने अंगुली और काष्ठ का भेद कर दोनों अनाचारों के अर्थों के पार्थक्य को रखा है, वह ठीक प्रतीत होता है। सूत्रकृताङ्ग में 'दंतपक्खालणं' शब्द मिलता है। जिससे दांतों का प्रक्षालन किया जाता है-दांत मल-रहित किये जाते हैं, उस काष्ठ को दंत-प्रक्षालन कहते हैं । कदम्ब काष्ठादि से दांतों को साफ करना भी दंत-प्रक्षालन है। शाब्दिक दृष्टि से विचार किया जाय तो दंतप्रधावन के अर्थ, दंत-प्रक्षालन की तरह, दतौन और दांतों को धोना दोनों हो सकते हैं जब कि दंतवन का अर्थ दतौन ही होता है। दोनों अनाचारों के अर्थ-पार्थक्य की दृष्टि से यहाँ 'दंतप्रधावन' का अर्थ दांतों को धोना और 'दंतवन' का अर्थ दातुन करना किया है। सूत्रकृताङ्ग में कहा है : 'णो दंतपक्खालणेणं दंत पक्खालेज्जा' । शीलाङ्कसूरि ने इसका अथ किया है - मुनि कदम्ब आदि के प्रक्षालन -दतौन से दांतों का प्रक्षालन न करे- उन्हें न धोए। यहाँ 'प्रक्षालन' शब्द के दोनों अर्थों का एक साथ प्रयोग है । यह दोनों अनाचारों के अर्थ को समाविष्ट करता है। अनाचारों की प्रायश्चित्त विधि निशीथ सूत्र में मिलती है। वहाँ दांतों से सम्बन्ध रखने वाले तीन सूत्र हैं - (१) जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने दांतों को एक दिन या प्रतिदिन घिसता है, वह दोष का भागी होता है । (२) जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने दांतों का एक दिन या प्रतिदिन प्रक्षालन करता है, या प्रधावन करता है, वह दोष का भागी होता है। (३) जो भिक्षु विभूषा के लिए अपने दाँतों के फूंक मारता है या रंगता है, वह दोष का भागी होता है। इससे प्रकट है कि किसी एक दिन या प्रतिदिन दंतमंजन करना, दांतों को धोना, दंतवन करना, फूंक मारना और रंगना ....ये सब साधु के लिए निषिद्ध कार्य हैं। इन कार्यों को करनेवाला साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रो. अभ्यंकर ने 'दंतमण्ण' पाठ मान उसका अर्थ दांतों को रंगना किया है। यदि ऐसा पाठ हो तो उसकी आर्थिक तुलना निशीय के दन्त-राग से हो सकती है। आचार्य व टकेर ने प्रक्षालन, घर्षण आदि सारी क्रियाओं का 'दंतमण' शब्द से संग्रह किया है.---अंगुली, नख, अवले खिनी (दतीन) काली (तृण विशेष), पैनी, कंकणी, वृक्ष की छाल (वल्कल) आदि से दांत के मैल को शुद्ध नहीं करना, यह इन्द्रिय-संयम की रक्षा करने वाला 'अदंतमन' मूल गुणव्रत है। बौद्ध-भिक्षु पहले दतवन नहीं करते थे। दतवन करने से - (१) आँखों को लाभ होता है, (२) सुख में दुर्गन्ध नहीं होती, (३) रस वाहिनी नालियाँ शुद्ध होती हैं, (४) कफ और पित्त भोजन से नहीं लिपटते, (५) भोजन में रुचि होती है ये पाँच गुण बता बुद्ध ने भिक्षुओं को दतवन की अनुमति दी। भिक्षु लम्बी दतवन करते थे और उसीसे श्रामणेरों को पीटते थे । 'दुक्कट' का दोष बता बुद्ध ने उत्कृष्ट में आठ अंगुल तक के दतवन की और जघन्य में चार अंगुल के दतवन की अनुमति दी। __वैदिक धर्म-शास्त्रों में ब्रह्मचारी के लिए दन्तधावन वर्जित है । यतियों के लिए दन्तधावन का वैसा ही विधान रहा है जैसा कि गहस्थों के लिए। वहाँ दन्तधावन को स्नान के पहले रक्खा है और उसे स्नान और सन्ध्या का अङ्ग न मान केवल मुख-शुद्धि का स्वतंत्र १-०१.६.१३ : गंधमल्लसिणाणं च, दंतपक्खालणं तहा। परिग्गहित्थिकम्मं च, त विज्ज ! परिजाणिया ॥ २-० १.४.२.११ टी०प०११८ : दन्ता प्रक्षाल्यन्ते-अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं दन्तकाष्ठम् । ३- सू० १.६.१३ टी० ५० १८० : ‘दन्तप्रक्षालनं' कदम्बकाष्ठादिना। ४--सू० २.१.१५ टी० प० २६६ : नो दन्तप्रक्षालनेन कदम्बादि काष्ठेन दन्तान् प्रक्षालयेत् । ५--नि० १५.१३०-३१ : जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज वा,"सातिज्जति । जे भिक्खू विभूसावडियाए अपणो दंते उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, सातिज्जति । जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते फूमेज्ज वा रएज्ज वा, ''सातिज्जति । ६--मूलाचार मूलगुणाधिकार ३३ : अंगुलिणहावलेहिणीकालीहि, पासाण-छल्लियादोहिं । दंतमलासोहणयं, संजमगुत्ती अदंतमणं ॥ ७-विनयपिटक : चुल्लवग्ग ५.५.२ पृ० ४४४ । ८-वशिष्ठ ७.१५ : खट्वाशयनदन्तधावनप्रक्षालनाञ्जनाभ्यञ्जनोपानच्छत्रवर्जी। E-History of Dharmasastra vol. II part II. p. 964 : Ascctics have to perform saucha, brushing the teeth, bath, just as house holders have to do. Jain Education Intemational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुडियावारका (ल्लिकाचार-कथा ) १ अध्ययन ३ : श्लोक ६ टि० ४६-४७ हेतु माना है'। दंतधावन की विधि इस प्रकार बताई गई है—अमुक वृक्ष की छाल सहित टहनी को ले। उसका आठ अंगुल लम्बा टुकड़ा करे । दाँतों से उसका अग्रभाग कूंचे और कूंचा हो जाने पर दन्तकाष्ठ के उस अग्रभाग से दांतों को मलकर उन्हें साफ करें। इस तरह दन्तधावन का अर्थ दन्तकाष्ठ से दांतों को साफ करना होता है और उसका वही अर्थ है जो अगस्त्य सिंह ने दन्तप्रधावना का किया है । वैदिक शास्त्रों में दन्तधावन और दन्तप्रक्षालन के अर्थों में अन्तर मालूम देता है। केवल जल से मुख शुद्धि करना प्रक्षालन है और दन्तकाष्ठ से दांत साफ करना दन्तधावन है। नदी में या घर पर दन्तप्रक्षालन करने पर मंत्र का उच्चारण नहीं करना पड़ता पर दन्तधावन करने पर मंत्रोच्चारण करना पड़ता है "हे वनस्पति ! मुझे लम्बी आयु, बल, यश, वर्चस्, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), प्रज्ञा और मेधा प्रदान कर ।" प्रतिपदा पर्व तिथियों (पूर्णिमा, अष्टमी, चतुर्दशी), छठ और नवमी के दिनों में दानपति कहा है। आद दिन यज्ञ दिन नियम दिन, उपवास या व्रत के दिनों में भी इसकी मनाही है । इसीसे स्पष्ट है कि दन्तप्रधावन का हिन्दू शास्त्रों में भी धार्मिक क्रिया के रूप में विधान नहीं है । शुद्धि की क्रिया के रूप में ही उसका स्थान है । ४६. गात्र प्रभ्यङ्ग ( गायाभंग प ) : इसका अर्थ है - शरीर के तेलादि की मालिश करना। निशीथ से पता चलता है कि उस समय गात्राभ्यङ्ग तैल, घृत, वसा चर्बी और नवनीत से किया जाता था । ४७. विभूषण (विभूसणे ) : सुन्दर परिधान, अलङ्कार और शरोर की साज-सज्जा, नख और केश काटना, बाल संवारना आदि विभूषा है । चरक में इसे 'संप्रसादन' कहा है। केश, श्मश्रु (दाढ़ी, मूंछ ) तथा नखों को काटने से पुष्टि, दृष्यता और आयु की वृद्धि होती है तथा पुरुष पवित्र एवं सुन्दर रूप वाला हो जाता है" । 'संप्रसाधनम्' पाठ स्वीकार करने पर केश आदि को कटवाने से तथा कंघी देने से उपर्युक्त लाभ होते हैं । १-आह्निकप्रकाश पृ० १२१ : अत्र संध्यायां स्नाने च दन्तधावनस्य नाङ्गत्वम् इति वृद्धशातातपवचनेन स्वतंत्रस्यैव शुद्धिहेतुतयाभिधानात्। २ गोल १.१३ नारयायुक्तवा पारितम् । सत्वचं दंतकाष्ठं स्यात्तदग्रेण प्रधावयेत् ॥ ३ (क) गोभिलस्मृति १.१३७ दन्तात् प्रात्य नद्यादौ गृहे चेदमन्त्रवत्। (ख) वही १.१३६ : परिजप्य च मन्त्रेण भक्षयेद्दन्तधावनम् ॥ 1 - ( क ) गोभिलस्मृति १.१३७ । (ख) वही १.१३६ । (ग) वही १.१४० : आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजां पशून् वसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ! || २ (क) लघुहारीत ११०१०३ (ख) नृसिंह पुराण ५८.५०-५२ : प्रतिपत्पर्व षष्ठीसु नवम्यां चैव सत्तमाः । दन्तानां काष्ठसंयोग हत्या सप्तमं कुलम् ॥ अभावे दन्तकाष्ठानां प्रतिषिद्धदिनेषु च । अपां द्वादशगण्डूषैर्मुखशुद्धिं समाचरेत् ॥ ६- स्मृति अर्थसार पृ० २५ । ७ - (क) अ० चू० पृ० ६२ : गायभंगो सरीरब्भंगणमहणाईणि । (ख) हा० डी० प० ११० गात्रान्यङ्गस्तैलादिना । ८. - नि० ३.२४ : जे भिक्खू अप्पणोकाए तेल्लेण वा घएण वा, बसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा अब्भंत वा मक्तं वा सातिज्जति । ६- अ० चू० पृ० ६२ विभूसणं अलंकरणं । १० - चरक० सू० ५.६६ : पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम् । hasterखादीनां कल्पनं संप्रसादनम् ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १२ अध्ययन ३ : श्लोक १० टि० ४८-४६ निशीथ ( तृतीय अ० ) में अभ्यङ्ग, उद्वर्तन, प्रक्षालन आदि के लिए मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है और भाष्य तथा परम्परा के अनुसार रोग-प्रतिकार के लिए ये विहित भी हैं। सम्भवतः इसमें सभी श्वेताम्बर एक मत हैं। विभूषा के निमित्त अभ्यङ्ग आदि करने वाले श्रमण के लिए चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इस प्रायश्चित्त-भेद और पारंपरिक-अपवाद से जान पड़ता है कि सामान्यतः अभ्यङ्ग आदि निषिद्ध हैं; रोग-प्रतिकार के लिए निषिद्ध नहीं भी हैं और विभूषा के लिए सर्वथा निषिद्ध हैं। इसलिए विभूषा को स्वतन्त्र अनाचार माना गया है। विभूषा ब्रह्मचर्य के लिए घातक है। भगवान् ने कहा है—'ब्रह्मचारी को विभूषानुपाती नहीं होना चाहिए। विभूषा करने वाला स्त्री-जन के द्वारा प्रार्थनीय होता है । स्त्रियों की प्रार्थना पाकर वह ब्रह्मचर्य में संदिग्ध हो जाता है और आखिर में फिसल जाता है । विभूषा-वर्जन ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नवी बाड़ है और महाचार-कथा का अठारहवाँ वर्ण्य स्थान है (६.६४-६६) । आत्म-गवेषी पुरुष के लिए विभूषा को तालपुट विष कहा है (८.५६) । भगवान् ने कहा है : 'नग्न, मुंडित और दीर्घ रोम, नख वाले ब्रह्मचारी श्रमण के लिए विभूषा का कोई प्रयोजन ही नहीं है ।' विभूषण जो अनाचार है उसमें संप्रसादन, सुन्दर परिधान और अलङ्कार --इन सबका समावेश हो जाता है । श्लोक १०: ४८. संयम में लीन ( संजमम्मि य जुत्ताणं " ): _ 'युक्त' शब्द के संबद्ध, उद्युक्त, सहित, समन्वित आदि अनेक अर्थ होते हैं। गीता (६.८) के शांकर-भाष्य में इसका अर्थ समाहित किया है। हमने इसका अनुवाद 'लीन' किया है। तात्पर्यार्थ में संयम में लीन और समाहित एक ही हैं। जिनदास महत्तर ने 'संजमम्मि य जुत्ताणं' के स्थान में 'संजमं अणुपालंता' ऐसा पाठ स्वीकार किया है। 'संजमं अणुपालेंति'--. ऐसा पाठ भी मिलता है । इसका अर्थ है-संयम का अनुपालन करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं। ४६. वायु की तरह मुक्त विहारी ( लहुभूयविहारिणं घ ) : अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'लघु' का अर्थ वायु और 'भूत' का अर्थ सदृश किया है। जो वायु की तरह प्रतिबन्ध रहित विचरण करता हो वह 'लघुभूतविहारी' कहलाता है । जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि भी ऐसा ही अर्थ करते हैं। ___आचाराङ्ग में 'लहुभूयगामी' शब्द मिलता है । वृत्तिकार ने 'लहुभूय' का अर्थ 'मोक्ष' या 'संयम' किया है । उसके अनुसार 'लघुभूतविहारी' का अर्थ मोक्ष के लिए विहार करने वाला या संयम में विचरण करने वाला हो सकता है । १-नि० १५.१०८ : जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य तेल्लेण वा, घएण वा, बसाए वा, णवणीएण वा, अभंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा, मक्खेंतं वा अन्भंगेंतं वा सातिज्जति । २-उत्त० १६.११ : नो विभूसाणुबाई हवइ से निग्गन्थे। तं कह मिति चे? आयरियाह-विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थिजणस्त अभिलप्तणिज्जे हवइ । तओ णं इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवाई सिया। ३-दश० ६.६५। ४-हा० टी० ५० ११८ । ५.-गीता ६.८ शां० मा० पृ० १७७ : 'युक्त इत्युच्यते योगी'-युक्तः समाहितः । ६ -जि० चू० पृ० ११५ : संजमो पुब्बभणियो, अणुपालयंति णाम तं संजमं रक्खयंति । ७- अ० चू० पृ० ६३ : लहुभूतविहारिणं । लहु जं ण गुरु, स पुण वायुः, लहुभूतो लहुसरिसो विहारो जेसि ते लहुभूतविहारिणो। ८-(क) जि० चू० पृ० ११५ : भूता णाम तुल्ला, लहुभूतो लहु वाऊ तेण तुल्लो विहारो जेसि ते लहभूतविहारिणो। (ख) हा० टी० ५० ११८ : लघुभूतो-वायुः, ततश्च वायुभूतो प्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणः । -आ० ३.४६ : छिदेज्ज सोयं लहुभूयगामी। १०-० ३.४६ : वृत्ति पृ० १४८ : 'लघुभूतो' मोक्षः, संयमो वा तं गन्तुं शीलमस्येति लघुभूतगामी। Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ३ अध्ययन ३ : श्लोक ११ टि० ५०-५१ श्लोक ११: ५०. पंचाश्रव का निरोध करनेवाले ( पंचासवपरिन्नाया क ) : जिनसे आत्मा में कर्मों का प्रवेश होता है उन्हें आश्रव कहते हैं। हिंसा, झूठ, अदत्त, मैथुन और परिग्रह-ये पांच आश्रव हैं - इनसे आत्मा में कर्मों का स्राव होता है। ___आगम में कहा है : "प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मधुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से जो विरत होता है वह अनाश्रव होता है। साथ ही जो पांच समिति और तीन गुप्तियों से गुप्त है, कषायरहित है, जितेन्द्रिय है, गौरवशुन्य है, निःशल्य है, वह अनाश्रव है।" आगमों में (१) मिथ्यात्व-मिथ्या दृष्टि, (२) अविरत ... अत्याग, (३) प्रमाद-धर्म के प्रति अरुचि --- अनुत्साह, (४) कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ और (५) योग --हिंसा, झूठ आदि प्रवृतियाँ -- इनको भी आथव कहा है। हिंसा आदि पांच योग आश्रव के भेद हैं। परिज्ञा दो हैं-ज्ञान-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिज्ञा । जो पंचाथव के विषय में दोनों परिज्ञाओं से युक्त है-वह पंचाथवपरिज्ञाता कहलाता है। किसी एक वस्तु को जानना ज्ञान-परिज्ञा है। पाप कर्मों को जानकर उन्हें नहीं करना प्रत्याख्यान-परिज्ञा है। निश्चयवक्तव्यता से जो पाप को जानकर पाप नहीं करता वही पाप-कर्म और आत्मा का परिज्ञाता है और जानते हुए भी जो पाप का आचरण करता है, वह पाप का परिज्ञाता नहीं है; क्योंकि वह बालक की तरह अज्ञानी है । बालक अहित को नहीं जानता हुआ अहित में प्रवृत्त होता हुआ एकांत अज्ञानी होता है पर वह तो पाप को जानता हुआ उससे निवृत्त नहीं होता और उसमें अभिरमण करता है, फिर वह अज्ञानी कैसे नहीं कहा जायेगा ? पंचाश्रवपरिज्ञाता- अर्थात् जो पाँच आश्रवों को अच्छी तरह जानकर उन्हें छोड़ चूका हैउनका निरोध कर चुका है। ५१. तीन गुप्तियों से गुप्त ( तिगुत्ता ख ): मन, वचन और काया---इन तीनों का अच्छी तरह निग्रह करना क्रमशः मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति है। जिसकी आत्मा इन तीन गुप्तियों से रक्षित है, वह त्रिगुप्त कहलाता है। १-(क) अ० चू०पू०६३: पंच आसवा पाणातिवातादीणि पंच आसवदाराणि । (ख) जि० चू० पृ० ११५-६ : 'पंच' त्ति संखा, आसवगहणेण हिंसाईणि पंच कम्मरसासवदाराणि गहियाणि । (ग) हा० टी०प०११८ : 'पञ्चाश्रवा' हिंसादयः । २-उत्त० ३०.२-३ : पाणवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ। राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासओ ।। पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइन्दिओ। अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो।। ३-(क) अचू०पू०६३ : परिण्णा दुविहा-जाणणापरिणापच्चक्खाणपरिणा य, जे जाणणापरिगणाए जाणिऊण पच्चक्खाण परिणाए ठिता ते पंचासवपरिण्णाता। (ख) जि० चू० पृ० ११६ : ताणि दुविहपरिण्णाए परिण्णाताणि, जाणणापरिणाए पच्चक्खाणपरिण ए य ते पंचासव परिणाया भवंति। (ग) हा० टी० ५० ११८ : 'परिज्ञाता' द्विविधया परिजया-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिजया च परि --समन्तात् ज्ञाता यैस्ते पंचाश्रवपरिज्ञाताः। ४--जि० चू० पृ० ११६ : तत्थ जाणणापरिण्णा णाम जो जं कि च अत्थं जाणइ सा तस्स जाणणापरिण्णा भव त, जहा पडं जाणं तस्स पडपरिण्णा भवति, घडं जाणंतस्स घडपरिण्णा भवति, एसा जाणणाजरिणा, पच्चपखणपरिण्णा नाम पावं कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिण्णा भवति, किच--तेण चैवेकेण पावं कम्मं अप्पा य परिणामो भवइ जोपा नाऊण न करेइ, जो पुण जाणित्तावि पावं आयरइ तेण निच्छयवत्तव्वयाए पावं न परिण यं भवइ, कहं ? सो बालो इव अआणमो दन्वो, जहा बालो अहियं अयाणमाणो अहिए पवत्तमाणो एग तेणेव अयाणओ भवइ तहा सोवि पावं जाणिऊण ताओ पावाओ न णियत्तइ तंमि पावे अभिरमइ । ५--(क) अ० चू० पृ० ६३ : मण-वयण-कायजोगनिग्गहपरा। (ख) जि० चू० पृ. ११६ : तिविहेण मणवयणकायजोगे सम्म निग्गहपरमा । (ग) हा० टी० ५० ११८ : "त्रिगुप्ता' मनोवाक्कायगुप्तिभिः गुप्ताः । Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ३ : श्लोक १२ टि० ५२-५६ ५२. छहः प्रकार के जीवों के प्रति संयत (छस संजया ख ) : ___ पृथ्वी, अप, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रस प्राणी-ये छह प्रकार के जीव हैं। इनके प्रति मन, वचन और काया से संयत - उपरत' । ५३. पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले ( पंचनिग्गहणाग ) श्रोत्र-इन्द्रिय (कान), चक्षु-इन्द्रिय (आँख), घ्राण-इन्द्रिय (नाक), रसना-इन्द्रिय (जिह्वा) और स्पर्शन-इन्द्रिय (त्वचा)—ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । इन पाँच इन्द्रियों का दमन करने वाले-पंचनिग्रही कहलाते हैं । ५४. धीर ( धीरा "): धीर और शूर एकार्थक हैं । जो बुद्धिमान् हैं, स्थिर हैं, वे धीर कहलाते हैं । स्थविर अगस्त्यसिंह ने 'वीरा' पाठ माना है, जिसका अर्थ शूर, विक्रान्त होता है। ५५. ऋजुदर्शी ( उज्जुदंसिणो घ): __ 'उज्जु' का अर्थ संयम और सम है । जो केवल संयम को देखते हैं —संयम का ध्यान रखते हैं तथा जो स्व और पर में समभाव रखते हैं, उन्हें 'उज्जुदं सिणो' कहते हैं । यह जिनदास महत्तर की व्याख्या है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसके राग-द्वेष रहित, अविग्रहगतिदर्शी और मोक्षमार्गदर्शी अर्थ भी किये हैं। मोक्ष का सीधा रास्ता संयम है । जो संयम में ऐसा विश्वास रखते हैं उन्हें ऋजुदर्शी कहते हैं । श्लोक १२ ५६. ग्रीष्म में प्रतिसंलीन रहते हैं ( आयावयंति...पडिसंलीणा क-ग) : श्रमण की ऋतु-चर्या में तपस्या का प्राधान्य होता है । जिस ऋतु में जो परिस्थिति संयम में बाधा उत्पन्न करे उसे उसके प्रतिकूल आचरण द्वारा जीता जाए। श्रमण की ऋतुचर्या के विधान का आधार यही है । ऋतु के मुख्य विभाग तीन हैं : ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षा । ग्रीष्म ऋतु में आतापता लेने का विधान है। श्रमण को ग्रीष्म ऋतु में स्थान, मौन और वीरासन आदि अनेक प्रकार के तप करने चाहिए। यह उनके लिए है जो आतापना न ले सकें और जो आतापना ले सकते हों उन्हें सूर्य के सामने मुंह कर, एक पैर पर दूसरा १--(क) अ० चू० पृ० ६३ : छसु पुढविकायादिसु त्रिकरणएकभावेण जता संजता । (ख) जि० चू० पृ० ११६ : छसु पुढविक्कायाइस सोहणेणं पगारेणं जता संजता। (ग) हा० टी०प० ११६ : षट्स जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः । २--(क) अ० चू० पृ० ६३ : पंच सोतादी ण इंदियाणि णिगिण्हति । (ख) जि० चू० पृ० ११६ : पंचण्हं इंदियाणं निग्गहणता । (ग) हा० टी० ५० ११६ : निगृह्णन्तीति निग्रहणाः कर्तरि ल्युट पंचानां निग्रहणाः पञ्चनिग्रहणाः, पञ्चानामितीन्द्रियाणाम् । ३---जि० चू० पृ० ११६ : धीरा णाम धीरति वा सूरेत्ति वा एगट्ठा । ४--हा० टी०प०११६ : 'धीरा' बुद्धिमन्तः स्थिरा वा। ५--अ. चू० पृ० ६३ : वीरा सूरा विक्रान्ताः । ६--जि० चू० पृ.० ११६ : उज्जु-संजमो भण्णइ तमेव एगं पासंती त तेण उज्जुदं सणो, अहवा उज्जुत्ति समं भण्णइ सममप्पाणं परं च पासंतित्ति उज्जुदंसिणो।। ७--अ० चू० पृ० ६३ : उज्जु--संजमो समया वा, उज्जू--रागद्दोसपक्खविरहिता अविग्गहगती वा, उज्जू--मोक्खमग्गो तं पस्सं तीति उज्जुदंसिणो, एवं च ते भगवंतो गच्छविरहिता उज्जुदंसिणो। ८--हा० टी० ५० ११६ : 'ऋजुदशिन' इति ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात्संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुशिनः-संयम-प्रतिबद्धाः । Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा) ६५ अध्ययन ३ : श्लोक १३ टि० ५७-५८ पर टिका कर-एक पादासन कर, खड़े-खड़े आतापना लेनी चाहिए'। जिनदास महत्तर ने ऊर्वबाहु होकर ऊकडू आसन में आतापना लेने को मुख्यता दी है। जो वैसा न कर सकें वे अन्य तप करें। हेमन्त ऋतु में अप्रावृत होकर प्रतिमा-स्थित होना चाहिए। यदि अप्रावृत न हो सके तो प्रावरण सीमित करना चाहिए। वर्षा ऋतु में पवन रहित स्थान में रहना चाहिए, ग्रामानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए। स्नेह-सूक्ष्म जल के स्पर्श से बचने के लिए शिशिर में निवात-लयन का प्रसंग आ सकता है । भगवान् महावीर शिशिर में छाया में बैठकर और ग्रीष्म में ऊकडू आसन से बैठ, सूर्याभिमुख हो आतापना लेते थे। श्लोक १३: ५७. परीषह ( परीसह ): मोक्ष-मार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जिन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिए वे परीषह हैं । वे क्षुधा, तृषा आदि बाईस हैं। ५८. धुत-मोह ( धुयमोहा ): ___ अगस्त्यसिंह ने 'धुतमोह' का अर्थ विकीर्णमोह, जिनदास ने जितमोह और टीकाकार ने विक्षिप्तमोह किया है । मोह का अर्थ अज्ञान किया गया है । 'धुत' शब्द के कम्पित, त्यक्त, उच्छलित आदि अनेक अर्थ होते हैं। जैन और बौद्ध साहित्य में 'धुत' शब्द बहुत व्यवहृत है। आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कंध) के छठे अध्ययन का नाम भी 'धुय' है। नियुक्तिकार के अनुसार जो कर्मों को धुनता है, प्रकम्पित करता है, उसे भाव-धुत कहते हैं। इसी अध्ययन में 'धुतवाद' शब्द मिलता है । 'धुतवाद' का अर्थ है—कर्म को नाश करने वाला वाद । बौद्ध-साहित्य में 'धुत' 'धुतांग' 'धुतांगवादी' 'धुतगुण' 'धुतवाद' 'धुतवादी' आदि विभिन्न प्रकार से यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । क्लेशों के अपगम से भिक्षु विशुद्ध होता है । वह 'धुत' कहलाता है । ब्राह्मण-धर्म के अन्तर्गत जो तापस होते थे, उन्हें वैखानस कहते थे । बौद्ध-भिक्षुओं में भी ऐसे भिक्षु होते थे, जो वैखानसों के नियमों का पालन करते थे । इन नियमों को 'धुतांग' कहते हैं। 'धुतांग' १३ होते हैं : वृक्षमूल-निकेतन, अरण्यनिवास, श्मशानवास, अभ्यवकासवास, पांशु-कूल-धारण आदि । १--(क) अ० चू० पृ० ६३ : गिम्हासु थाणमोणबीरासणादि अणेग विधं तवं करेंति, विसेसेणं तु सूराभिमुहा एगपादट्ठिता उद्धभूता आतावति ।। (ख) हा० टी० ५० ११६ : आतापयन्ति-ऊर्ध्वस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति । २-जि० चू० प ११६ : गिम्हेसु उडबाहुउक्कुडुगासणाईहिं आयाति, जेवि न आयाति ते अण्णं तव विसेसं कुम्वन्ति । ३ – (क) अ० चू० पृ० ६३ : हेमंते अग्गिणिवातसरणविरहिता तहा तवोवीरियसंपण्णा अबंगुता पडिम ठायंति। (ख) जि० चू० पृ० ११६ : हेमंते पुण अपंगुला पडिमं ठायंति, जेवि सिसिरे णावगुडिता पडिम ठायंति तेवि विधीए पाउणंति । (ग) हा० टी०प० ११६ : 'हेमन्तेषु' शीतकालेषु 'अप्रावृता' इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति । ४--(क) अ० चू० पृ० ६३ : सदा इंदिय-नोइंदियपडिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्टपरिहरणत्थं णिवातलतणगता वासासु पडि संलोणा ण गामाणुगाम दूतिज्जति। (ख) जि० चू० पृ० ११६ : वासासु पडिसल्लीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तवविसेसेसु उज्जमंती, नो गामनगराइसु विहरति । (ग) हा० टी० ५० ११६ : वर्षाकालेषु 'संलोना' इत्ये काश्रयस्था भवन्ति । ५-(क) आ० ६.४.३ : सिसिरमि एगदा भगवं, छायाए शाइ आसीय । (ख) आ० ६.४.४ : आयावई य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभितावे ।। ६-तत्त्वा० ६.८ : मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्याः परीषहाः । ७-उत्तराध्ययन - दूसरा अध्ययन । ८-(क) अ० चू० पृ०६४ : धुतमोहा विक्किण्णमोहा । मोहो मोहणीयमण्णाणं वा। (ख) जि० चू० पृ० ११७ : 'धुयमोहा' नाम जितमोहत्ति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी० ५० ११६ : 'धुतमोहा' विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः, मोहः-अज्ञानम् । ६- आचा०नि० गा० २५१ : जो विहूणइ कम्माई भावऽयं तं वियाणाहि ॥ १०-आ० ६.२४ : आयाण भो! सुस्सूस भो! धूयवायं पवेदइस्सामि । Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ६६ अध्ययन ३ : श्लोक १३ टि० ५६-६१ ५६. सर्व दुःखों के (सव्वदुक्ख ग ): धुणियों और टीका में इसके अर्थ सर्व शारीरिक और मानसिक दुःख किया गया है। उत्तराध्ययन के अनुसार जन्म, जरा, रोग और मरण दुःख हैं। यह संसार ही दुःख है जहाँ प्राणी क्लिष्ट होते है। उत्तराध्ययन में एक जगह प्रश्न किया है : "शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान कौन-सा है ?" इसका उत्तर दिया है। "लोकाग्र पर एक ऐसा ध्रुव स्थान है जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं हैं। यही सिद्धि-स्थान या निर्वाण क्षेत्र, शिव और अनाबाध है।" उत्तराध्ययन में अन्यत्र कहा है - "कर्म ही जन्म और मरण के मूल हैं । जन्म और मरण ये ही दुःख हैं।" जितेन्द्रिय महर्षि जन्म-मरण के दुःखों के क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं अर्थात् उनके आधार-भूत कर्मों के क्षय के लिए प्रयत्न करते हैं । कर्मों के क्षय से सारे दुःख अपने-आप क्षय को प्राप्त हो जाते हैं । ६०. ( पक्कमंति महेसिणो घ): अगस्त्य पूणि में इसके स्थान पर 'ते वदंति सिर्व गति' यह पाठ है और अध्ययन की समाप्ति इसीसे होती है। उसके अनुसार कुछ आचार्य अग्रिम दो श्लोकों को वृत्तिगत मानते हैं और कुछ आचार्य उन्हें मूल-सूत्रगत मानते हैं। जो उन्हें मूल मानते हैं उनके अनुसार तेरहवें ३ लोक का चतुर्थ चरण 'पक्कमति महेसिणो५ है। 'ते वदंति सिवं गति' का अर्थ है-वे शिवगति को प्राप्त होते हैं। ६१. दुष्कर ( दुक्कराइंक): टीका के अनुसार औद्देशिकादि के त्याग आदि दुष्कर हैं । श्रामण्य में क्या-क्या दुष्कर हैं इसका गम्भीर निरूपण उत्तराध्ययन १ - (क) अ. चू० पृ० ६४ : सारीर-माणसाणि अणेगागाराणि सव्वदुक्खाणि । (ख) जि० चू० १० ११७ : सत्वदुक्खप्पहीणद्वानाम सवेसि सारीरमाणसाणं दुक्खाणं पहाणाय, खमणनिमित्तति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी०प० ११६ : 'सर्वदुःखप्रक्षयार्थ' शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्षयनिमित्तम् । २- उत्त० १६.१५ : जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो. जत्थ कोसन्ति जन्तवो ॥ ३-उत्त० २३.८०-८४ : सारीरमाणसे दुक्खे, बज्झमाणाण पाणिणं । खेमं सिवमणाबाह, ठाणं किं मन्नसी ? मुणी।। अत्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥ ठाणे य इह के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोथमो इणमब्बवी ॥ निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरन्ति महेसिणो॥ तं ठाणं सासयं वासं, लोगग्गमि दुरारुहं । ज संपत्ता न सोयन्ति, भवोहन्तकरा मुणी॥ ४-उत्त० ३२.७ : कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति । ५.--अ० चू० पृ०६४ : 'ते वदंति सिवं गति' ..... केसिंचि "सिवं गति वदंती" ति एतेण फलोवदरिसणोवसंहारेण परिसमत्तमिम मज्झतणं, इति बेमि त्ति सद्दो जं पुव्वभणितं, तेसि वृत्तिगतमिदमुक्कित्तणं सिलोकदुयं । केसिंचि सूत्रम्, जेसि सूत्र, ते पढंति सव्वदुक्खपहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो। ६-हा० टी०प० ११६ : दुष्कराणिकृत्वौद्देशिकादित्यागादीनि । ७-उत्त०१६.२४-४२। Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ६७ अध्ययन ३ : श्लोक १४-१५ टि० ६२-६५ श्लोक १४ : ६२. दुःसह ( दुस्सहाइख ) : आतापना, आक्रोश, तर्जना, ताड़ना आदि दुःसह्य हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है : “जहां अनेक दुस्सह परीषह प्राप्त होते हैं, वहाँ बहुत सारे कायर लोग खिन्न हो जाते हैं। किन्तु भिक्षु उन्हें प्राप्त होकर व्यथित न बने -जैसे संग्राम-शीर्ष (मोर्चे) पर नागराज व्यथित नहीं होता । ..... मुनि शान्त भाव से उन्हें सहन करे, पूर्वकृत रजों (कर्मों) को क्षीण करे।" ६३. नीरज ( नीरया ) : सांसारिक प्राणी की आत्मा में कर्म-पुद्गलों की रज कुंपी में काजल की तरह भरी हुई होती है। उसे सम्पूर्ण बाहर निकाल-कर्मरहित हो अर्थात् अष्टविध कर्मों का ऐकान्तिक-आत्यन्तिक क्षय कर । 'केइ सिज्झन्ति नीरया' की तुलना उत्तराध्ययन के (१८.५३ के चौथे चरण) सिद्धे हवइ नीरए' के साथ होती है। श्लोक १५: ६४. संयम और तप द्वारा कर्मों का क्षय कर ( खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण यक-ख ): जो इसी भव में मोक्ष नहीं पाते वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ से पुन: मनुष्य-भव में उत्पन्न होते हैं। मनुष्य-भव में वे संयम और तप द्वारा कर्मों का क्षय करते हैं। कर्मक्षय के दो तरीके हैं- एक नये कर्मों का प्रवेश न होने देना, दूसरा संचित कर्मों का क्षय करना। संयम संबर है। वह नये कर्मों के प्रवेश को-आश्रव को रोक देता है । तप पुराने कर्मों को झाड़ देता है । वह निर्जरा है। जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है उसी प्रकार संयमी पुरुष के पापकर्म आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं।" इस तरह संयम और तप आत्म-शुद्धि के दो मार्ग हैं। संयम और तप के साधनों से धर्माराधना करने का उल्लेख अन्यत्र भी है। भावार्थ है-मनुष्य-भव प्राप्त कर संयम और तप के द्वारा क्रमिक विकास करता हुआ मनुष्य पूर्व कमों का क्रमश: क्षय करता हुआ उत्तरोत्तर सिद्धि-मार्ग को प्राप्त करता है। ६५. सिद्धि-मार्ग को प्राप्त कर (सिद्धिमग्गमणुप्पत्ताग): अर्थात - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूपी सिद्धि-मार्ग को प्राप्त कर उसकी साधना करते हए । १-(क) अ० चू० पृ० ६४ : 'आतावयंति गिम्हासु' एवमादीणि दुस्सहादीणि [सहेत्तु य] । (ख) जि० चू० पृ० ११७ : आतापनाअकंड्यनाक्रोशतर्जनाताडनाधिसहनादीनि, दूसहाई सहिउँ । (ग) हा० टी० ५० ११६ : दुःसहानि सहित्वाऽऽतापनादीनि । २-उत्त० २१.१७-१८ : परीसहा दुन्विसहा अणेगे, सीयन्ति जत्था बहु कायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू, संगामसीसे इव नागराया ॥ अकुक्कुओ तत्थऽहियासएज्जा, रयाई खेवेज्ज पुरेकडाई॥ ३.-(क) जि० चू० पृ० ११७ : णोरया नाम अटुकम्मपगडीविमुक्का भण्णंति । (ख) हा० टी० ५० ११६ : 'नीरजस्का' इति अष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः , न तु एकेन्द्रिया इव कर्मयुक्ताः । ४-उत्त० ३०.५-६ : जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।। ५- उत्त० १६.७७, २५.४५, २८.३६ । ६-जि० चू० पृ० ११७ : सिद्धिमग्गमणुपत्ता नाम जहा ते तवनियमेहि कम्मखवणटुमन्भुज्जुत्ता अओ ते सिद्धिमग्गमणुपत्ता भण्णंति। ७-(क) अ० चू० पृ. ६४ : सिद्धिमग्गं दरिसण-नाण-चरित्तमत्तं अणुप्पत्ता। (ख) हा० टी० ५० ११६ : 'सिद्धिमार्ग' सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः । Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) 25 अध्ययन ३: श्लोक १५ टि०६६ केशी ने गौतम से पूछा : 'लोक में कुमार्ग बहुत हैं, जिन पर चलने वाले लोग भटक जाते हैं। गौतम ! मार्ग में चलते हुए तुम कैसे नहीं भटकते ?.... गौतम ने कहा --- 'मुझे मार्ग और उन्मार्ग-दोनों का ज्ञान है । ..... जो कुप्रवचन के व्रती हैं, वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। जो राग-द्वेष को जीतने वाले जिन ने कहा है, वह सन्मार्ग है, क्योंकि यह सबसे उत्तम मार्ग है। मैं इसी पर चलता हूं।" उत्तराध्ययन में 'मोक्खमग्गगई'-मोक्षमार्गगति नामक २८ वा अध्याय है । वहाँ जिनाख्यात मोक्षमार्ग---सिद्धिमार्ग को चार कारणों से संयुक्त और ज्ञानदर्शन लक्षणवाला कहा है। वहाँ कहा है : “ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप यह मोक्ष-मार्ग है, ऐसा वरदर्शी अर्हतों ने प्ररूपित किया । 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इस मार्ग को प्राप्त करने वाले जीव सुगति में जाते हैं ।'' अदर्शनी (असम्यक्त्वी) के ज्ञान (सम्यग् ज्ञान) नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र-गुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं होता।" जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है।" . ६६. परिनिर्वृत ( परिनिव्वुडा घ) : 'परिनित' का अर्थ है -- जन्म, जरा, मरण, रोग आदि से सर्वथा मुक्त'; भवधारण करने में सहायभूत घाति-कर्मों का सर्व प्रकार से क्षय कर जन्मादि से रहित होना । हरिभद्र सूरि ने मूल पाठ की टीका परिनिर्वान्ति' की है और 'परिनिम्बुड' को पाठान्तर माना है। 'परिनिर्वान्ति' का अर्थ सब प्रकार से सिद्धि को प्राप्त होते हैं-किया है । श्लोक १४ व १५ में मुक्ति के क्रम की एक निश्चित प्रक्रिया का उल्लेख है। दुष्कर को करते हुए और दुःसह को सहते हुए श्रमण वर्तमान जन्म में ही यदि सब कर्मों का क्षय कर देता है तब तो वह उमी भव में सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। यदि सब कर्मों का क्षय नहीं कर पाता तो देवलोक में उत्पन्न होता है। वहां से च्यवकर वह पुनः मनुष्य-जन्म प्राप्त करता है। सुकुल को प्राप्त करता है। धर्म के साधन उसे सुलभ होते हैं। जिन-प्ररूपित धर्म को पुनः पाता है। इस तरह संयम और तप से कर्मों का क्षय करता हुआ वह सम्पूर्ण सिद्धि-मार्ग--... ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप -...का प्राप्त हो अवशेष कर्मों का क्षय कर जरा-मरग-रोग आदि सर्व प्रकार १- उत्त० २३.६०-६३ : कुप्पहा बहवो लोए, जेहिं नासन्ति जंतवो। अद्धाणे कह वट्टन्ते, तं न नस्ससि गोयमा! ॥ कुप्पवयणपासण्डी, सत्वे उम्मग्गपट्टिया । सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।। २.-उत्त० २८.१: मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं, नाणदसणलक्खणं ॥ ३-उत्त-२८.२,३,३०,३५ : नाणं च दंसण चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गो ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ नाणं च दसणं चेव, चरित्ते च तवो तहा ।। एयंमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई ॥ जासणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । नाणेण जाणई भावे, सणेण य सद्दहे। चरित्तण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ ४-जि० चू० पृ० ११७ : परिनिव्वुडा नाम जाइजरामरणरोगादीहिं सव्वप्पगारेणवि विप्पमुक्कत्ति वुत्तं भवइ । ५-- अ० चू० पृ० ६४ : परिणिव्वुता समंता णिवुता सव्वप्पकारं घाति-भवधारणकम्मपरिक्खते । ६-हा० टी०प० ११९ : 'परिनिर्वान्ति' सर्वथा सिद्धि प्राप्नुवन्ति, अन्ये तु पठन्ति 'परिनिव्वुड' ति, तत्रापि प्राकृतशेल्या छान्दसत्वाच्चायमेव पाठो ज्यायान् । Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा) 8 अध्ययन ३ : श्लोक १५ टि० ६६ की उपाधियों से रहित हो मुक्त होता है। जघन्यतः एक भव में और उत्कृष्टतः सात-आठ भव ग्रहण कर मुक्त होता है । इस क्रम का उल्लेख आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है। इस अध्ययन के श्लोक १३ और १५ की तुलना उत्तराध्ययन के निम्नलिखित श्लोकों से होती है : खवेत्ता पुत्मकम्माई, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो ॥ खवित्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य । जयघोस विजयधोसा, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ।। १-(क) अ० चू० पृ० ६४ : कदाति अणंतरे उक्कोसेण सत्त-टुभवग्गहणेसु सुकुलपच्चायाता बोधिमुबलभित्ता। (ख) जि० चू० पृ० ११७ : केइ पुण तेण भवग्गहणेण सिझति, 'तत्थ जे तेणेव भवग्गणेण न सिझंति ते वेमाणिएसु उववज्जंति, तत्तोवि य चइऊणं धम्मचरणकाले पुवकयसाबसेसेणं सुकुलेसु पच्चायंति, तओ पुणोवि जिणपण्णत्तं धम्म पडिवज्जिऊण जहण्णेण एगेण भवग्ग हणेणं उक्कोसेणं सहिं भवग्गहणेहि 'जाणि तेसि तत्थ सावसेसाणि कम्माणि ताणि संजमतवेहि खविऊणं जहा ते तवनियमेहि कम्मखवणटुब्भुज्जुत्ता अओ ते सिद्धिमग्गमणुपत्ता " जाइजरामरण रोगादीहि सव्वप्पगारेणवि विप्पमुक्कत्ति । (ग) हा० टी०प० ११६ । २-उत्त० ३.१४-२०। ३-वही, २८.३६ । ४-वही, २५.४३ । Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं छज्जीवणिया चतुर्थ अध्ययन षड्जीवनिका Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख धामण्य का आधार है आचार । आचार का अर्थ है अहिंसा | अहिंसा अर्थात् सभी जीवों के प्रति संयम हिंसा निउ दिट्ठा, सव्व जीवेसु संजमो ॥ ( दश० ६.८ ) जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा ? जो जीवे वि न यारणाइ, अजीवे वि न यारगई । जीवाजी पारी को हम । ( ० ४.१२ ) संयम का स्वरूप जानने के लिए जीव-ग्रजीव का ज्ञान आवश्यक है । इसलिए प्राचार - निरूपण के पश्चात् जीव-निकाय का निरूपण क्रम-प्राप्त है। इस अध्ययन में अजीव का साक्षात् वर्णन नहीं है । इस अध्ययन के नाम - "छज्जीवरिणयं "- में जीव -निकाय के निरूपण की ही प्रधानता है; किन्तु जी को जानने वाला संयम को नहीं जानता (द० ४.१२ ) और नियुक्तिकार के अनुसार इसका पहला अधिकार है जीवाजीवाभिगम ( दश० नि० ४.२१६ ) इसलिए अजीव का प्रतिपादन अपेक्षित है । अहिंसा या संयम के प्रकरण में अजीव के जिस प्रकार को जानना श्रावश्यक है वह है पुद्गल । पुद्गल - जगत् सूक्ष्म भी है और स्थूल भी । हमारा अधिक सम्बन्ध स्थूल पुद्गल -जगत् से है। हमारा दृश्य और उपभोग्य संसार स्थूल पुल-जम है। वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति पर इस (चर) वे जीवों के शरीर हैं। जीवच्युत होने पर ये जीव-मुक्त शरीर बन जाते हैं। “अन्नत्थ सत्थपरिणएणं" इस वाक्य के द्वारा इन दोनों दशाओं का दिशा-निर्देश किया गया है । शस्त्र - परिणति या मारक वस्तु के संयोग से पूर्व पृथ्वी, पानी यादि पदार्थ सजीव होते हैं और उनके संयोग से जीवच्युत हो जाते हैं निर्जीव बन जाते हैं। तात्पर्य की भाषा में पृथ्वी, पानी यादि को शस्त्र-परिगति की पूर्ववर्ती दशा सजोष है और उत्तरवर्ती दशा जीव इस प्रकार उक्त वाक्य इन दोनों दशाओं का निर्देश करता है। इसलिए जीव और अजीव दोनों का अभिगम स्वतः फलित हो जाता है । पहले ज्ञान होता है फिर अहिंसा - "पढमं नाणं तो दया" (दश० ४.१० ) । ज्ञान के विकास के साथ-साथ अहिंसा का विकास होता है | अहिंसा साधन है | साध्य के पहले चरण से उसका प्रारम्भ होता है और उसका पूरा विकास होता है साध्य - सिद्धि के अन्तिम चरण में । जीव और अजीव का अभिगम श्रहिंसा का आधार है और उसका फल है मुक्ति । इन दोनों के बीच में होता है उनका साधना-क्रम । इस विषय-वस्तु के आधार पर नियुक्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन को पाँच ( अजीवाभिगम को पृथक माना जाए तो छह ) अधिकारों प्रकरणों में विभक्त किया है चरिधम्मो तहेब जयरा य । जीवाजीवाहिगमो उचएस धम्मफलं छज्जीचरिणवाद अहिवारा ।। (दश० नि० ४.२१६ ) नवें सूत्र तक जीव और अजीव का अभिगम है। दसवें से सत्रहवें सूत्र तक चारित्र-धर्म के स्वीकार की पद्धति का निरूपण है । अठारहवें से तेइसवें सूत्र तक यतना का वर्णन है। पहले से ग्यारहवें श्लोक तक बन्ध और प्रबन्ध की प्रक्रिया का उपदेश है। बारहवें श्लोक तक धर्म-फल की चर्चा है मुक्ति का अधिकारी साधक ही होता है असाधक नहीं, इसलिए वह मुक्ति-मार्ग की आराधना करे, विराधना से बचे, इस उपसंहारात्मक वाणी के साथ-साथ अध्ययन , Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १०४ अध्ययन ४: आमुख समाप्त हो जाता है। जीवाजीवाभिगम, प्राचार, धर्म-प्रज्ञप्ति, चरित्र-धर्म, चरण और धर्म-ये छहों 'षड्जीवनिका' के पर्यायवाची शब्द हैं : जीवाजीवाभिगमो, अायारो चेव धम्मपन्नती। ततो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे अ एगट्ठा ॥ (दश० नि० ४.२३३) मुक्ति का आरोह-कम जानने की दृष्टि से यह अध्ययन बहुत उपयोगी है। नियुक्तिकार के मतानुसार यह आत्म-प्रवाद (सातवें) पूर्व से उद्धृत किया गया है-. पायप्पवायपुब्वा निब्बूढा होइ धम्मपन्नत्ती॥ (दश ० नि० १.१६) Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वं अशयणं चतुर्थ अध्ययन 10 छज्जीवणिया : षड्जीवनिका मूल १ - सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमवखायं - इह खलु छज्जीवणिया नामायणं समर्णणं भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइया सुताया सुपत्ता सेय मे अहिज्जिडं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती । सा २- कयरा खलु छज्जीवणिया नामज्भयणं समर्पणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पबेहया मे सुक्खाया सुपन्नत्ता । सेयं अहिज्जि अभयणं धम्मपन्नती । भगवया ३ - इमा खलु सा छज्जीवणिया नामज्भ यणं समणेण महावीरेणं कासवेण पवेइया सुक्खाया सुन्नता। सेयं मे अहिजि अपर्ण धम्मपन्नत्ती धम्मपती तं जहा पुढविकाइया आज्काइया लेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तस काइया । ४- पुढवी चित्तमंत मक्खाया अणेगजीवा पुढोसता अन्नत्व सत्यपरिणएणं । संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह खलु षड्जीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता । श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ॥१॥ कतरा खलु सा पजीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महाबीरेन वीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता श्रयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्म सुप्रज्ञप्ता । प्रज्ञप्तिः ॥ २ ॥ भगवता इयं खलु सा जीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता । श्रेष मेध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः तवचा पृथिवीकायिका अपकायिका तेजस्कापिका बाबुकापिका वनस्पति कायिका: त्रसकायिकाः ॥३॥ हिन्दी अनुवाद १ आयुष्मान'! मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार कहा-निर्ग्रन्थप्रवचन में निश्चय ही पड्जीवनिका नामक अध्ययन काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित' सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त है । इस धर्म - प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए" व है। २ - वह षड्जीवनिका नामक अध्ययन कौन सा है जो काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त है, जिस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेय है ? ३- वह पड़जीवनिका नामक अध्ययनजो काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त है, जिस धर्म-प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेय है यह है जैसे पृथ्वीकायिक अपुकायिक, तेजस्काविक, कायिक, वनस्पतिकायिक और कायिक" । १४ पृथिवी चिरावती आख्याता ४ शस्त्र १२ - परिणति पूर्व ३ अनेकजीवा पृथक्सत्त्वा अन्यत्र शस्त्र- पृथ्वी चित्तवती ४ ( सजीव ) कही गई है। वह परिणतायाः ॥४॥ अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाली है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ४: सूत्र ५-६ ५-आऊ चित्तमंतमक्खाया आपश्चित्तवत्यः आख्याता अनेकअणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थ- जीवाः पृथक्सत्वा अन्यत्र शस्त्रपरिणएणं । परिणताभ्यः ॥५॥ ५- शस्त्र-परिणति से पूर्व अप् चित्तवान (सजीव) कहा गया है। वह अनेक जीव और पृथक् सत्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व) बाला है। ६-ते चित्तमंतमक्खाया तेजश्चित्तवत आख्यातं अनेक- अणेगजीवा पढोसत्ता अन्नत्थ सत्थ- जीवम् पृथकसत्त्वम् अन्यत्र शास्त्रपरिणएणं। परिणतात् ॥६॥ ६ शस्त्र-परिणति से पूर्व तेजस् चित्त. वान् (सजीव) कहा गया है। वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाला है। ७-वाऊ चित्तमंतमक्खाया वायुश्चित्तवान् अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थ- जीवः पथकसत्त्वः परिणएणं । परिणतात् ॥७॥ आख्यातः अनेक- ७... शस्त्र परिणति से पूर्व चाय चित्त. अन्यत्र शास्त्र. बान् (मजीव) कहा गया है। वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीन के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाला है। ८ वणस्सई चियमंतमवखाया वनस्पतिश्चित्तवान् आख्यातः ८-शस्त्र-परिणति से पूर्व वनस्पति अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ अनेकजीवः पृथक्सत्वः अन्यत्र शस्त्र- चित्तवती (सजीब) कही गई है । वह अनेक सत्थपरिणएणं, तं जहा-अग्गबीया परिणतात् तद्यथा----अग्रबीजा: मूल जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाली है। उसके प्रकार मूलबीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा बोजाः पर्व बीजाः स्कन्धबीजाः बीज ये हैं - अग्र-बीज६, मुल-बीज, पर्व-बीज, सम्मुच्छिमा तणलया। रुहा सम्मुच्छिमाः तृणलताः । स्कन्ध-बीज, बीज-रुह, सम्मूछिम", तृण'८ और लता। वणस्सइकाइया सीया चित्तमंत- वनस्पतिकायिकाः सबीजाः चित्तवन्त शस्त्र-परिणति से पूर्व बीजपर्यन्त (मुल मक्खाया अणेगजीवा पढोसता अन्नत्य आख्याताः अनेकजीवाः पृथकसत्त्वाः अन्यत्र से लेकर बीज तक) वनस्पति-कायिक चित्त वान् कहे गये हैं। वे अनेक जीव और पृथक सत्यपरिणएणं । शस्त्रपरिणतेभ्यः ॥८॥ सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व) वाले हैं। ६--से जे पुण इमे अणेगे अथ ये पुनरिमे अनेके बहवः प्रसा: --और ये जो अनेक बहुत त्रस प्राणी बहवे तसा पाणा तं जहा--अंख्या प्राणिनः तद्यथा-अण्डजाः पोतजाः हैं,२१ जैसे--अण्डज,२२ पोतज,२३ जरायुज,२४ रसज,२५ संस्वेदज,२६ पोयया जराज्या रसया संसेडमा जरायुजाः रसजा: संस्वेदजाः सम्मच्छिमाः सम्मूच्छेनज,२७ उद्धिज,२८ औपपातिक सम्मुच्छिमा उब्भिया उववाइया। उद्भिदः औपपातिकाः । वे छठे जीव-निकाय में आते हैं। जेसि केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं येषां केषाञ्चित् प्राणिनाम् अभिकान्तम् पडिक्कंतं संकृचियं पसारिय' स्यं प्रतिकान्तम् संकुचितम् प्रसारितम् रुतम् भंत तसियं पलाइयं आगडगडविन्नाया- भ्रान्तम् अस्तम् पलायितम्, आगतिगति विज्ञातारः जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना--ये क्रियाएँ हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता हैं वे त्रस हैं। Jain Education Intemational ucation international Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) जे य कीडपयंगा, जाय कुंथुपिवीलिया, सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सत्ये चउररिया सच्चे पंचिदिया सध्ये तिरिक्जोगिया सच्चे या सच्चे मणयाराध्ये देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिया एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाओ पिचई । १० इन्वेसिहं जीवनिकायाणं नेयस दंड समारंभेज्जा नेवमहिदं समारंभावेना व समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जाव. जीवा तिहिं तिविहेणं मणेणं बायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करत पि अन्नं न समणजाणामि । तस्स भंते पडिस्कमामि निदामि गरिहामि अण्णा बोसिरामि । ११- परमे भंते ! पाणाइवायाओ वेरमणं । सव्व भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि - से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सगं पाणे अइबाएजा नेयमेहिं पाणे अइवायावेश्या पाणे अइवापते व अन्ने न समजणेजा जावरजीवाए तिहिं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारयेभि करत पि अन्नं न समण जाणामि । महव्यए तरस भंते! पडिस्कमामि निदासि गरिहामि अप्पा बोसिरामि । पदमे भंते! महत्यए उषड्डिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं । १०७ ये च कीटपतङ्गाः, यापिपीलिका, सर्वे द्वीन्द्रियाः सर्वे त्रीन्द्रियाः सर्वे चतुरिन्द्रियाः सर्वे पंचेन्द्रियाः सर्वे तिर्यग्योनिका सर्वे रविका सबै मनुजाः सर्वे देवाः सर्वे प्राणाः परमधार्मिकाः एष खलु षष्ठो इति प्रोच्यते ॥ ६॥ जीवनिकायस्त्रसकाय इत्येषां षण्णां ज स्वयं दण्डं समारभेत नैवान्यैर्दण्डं समारम्भयेत् दण्डं समारभमाणनव्यग्यान् न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१०॥ प्रथमे भदन्त ! महाव्रते प्राणातिपाताद्विरमणम् । सर्वं भदन्त ! प्राणातिपात प्रत्याख्यामि - अथ सूक्ष्मं वा बादरं वा त्रसं वा नव स्वयं प्राणानतिपातयामि नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि प्राणानतिपात स्थावर वा तो पासमानानावजी त्रिविधं विविधेन मनसा वाचा कान न करोमि ग कारयामि कुर्वन्ध्यन्न रामनुजानामि । अध्ययन ४ : सूत्र १०-११ जो कीट, पतंग, कुंथु, पिपीलिका सब दो इन्द्रिय वाले जीव, सब तीन इन्द्रिय वाले इन्द्रिय वाले जीव, सब तिर्यक्-योनिक, सब जीव, सब चार इन्द्रिय वाले जीव, सब पाँच नैरयिक, सब मनुष्य, सब देव और सब प्राणी सुख के क... यह छट्टा जीवनिकाय सकाय कहलाता है । ११ गते पहले" महाव्रत में प्रतिपसेविरमण होता है। ४५ भन्ते ! मैं सर्व" प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूक्ष्म या स्थूल, ४५ बस या स्थावर ४६ जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात" मैं स्वयं नहीं करूँगा तुम से नहीं कराऊँगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया से-न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं 1 भन्ते ! मैं अतीत में किए प्राणातिपात तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, ग आत्मानं गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । त्वामि । प्रथमे भक्त! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणम् ॥११॥ भन्ते ! मैं पहले महाव्रत में उपस्थित हुआ है। इसमें सर्वप्राणातिपातकी विवि होती है। १० - इन छह जीव-निकायों के प्रति स्वयं दण्ड- समारम्भर नही करना चाहिए, दूसरों से दण्ड-समारम्भ नहीं कराना चाहिए और दण्ड- समारम्भ करनेवालों का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। यावज्जीवन के लिए 3 तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा । भंते ३६ ! उप मैं अतीत में किए दण्डसमारम्भ से निवृत होता है, उसकी निदा करता हूँ, गर्हा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ" । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १०८ अध्ययन ४ : सूत्र १२-१३ १२--भन्ते ! इसके पश्चात् दूसरे महाव्रत में मृपावाद की विरति होती है। १२-अहावरे दोच्चे भंते ! महव्वए मुसावायानो वेरमणं । अथापरे द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणम् । सव्वं भंते ! मुसावायं पच्च- सर्व भदन्त ! मृषावादं प्रत्याख्यामि-- भन्ते ! मैं सर्व मृषावाद का प्रत्या ख्यान करता हूँ। क्रोध से या लोभ से,५१ भय वखामि-से कोहा वा लोहा वा भया वा अथ क्रोधाद्वा लोभादा भयादा हासाद्वा ... से या हँसी से, मैं स्वयं असत्य नहीं वोलूंगा, हासा वा, नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं नैव स्वयं मृषा वदामि नैवान्यम वा बाद- दूसरों से असत्य नहीं बुलवाऊँगा और मसं वायावेज्जा मसं वयंते वि अन्ने यामि मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि असत्य बोलने वालों का अनुमोदन भी नहीं न समणजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं यावज्जीव त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा करूँगा, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य तीन योग से---मन से, वचन से, काया से --- न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं । ____ न समनुजानामि । अनुमोदन भी नहीं करूंगा। न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि। भन्ते! मैं अतीत के मृपावाद से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, गहरे करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। दोच्चे भंते ! महव्वए उठ्ठि- द्वितीये भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि ओमि सब्वाओ मुसावायाओ वेरमणं। सर्वस्माद् मृषावादाद्विरमणम् ॥१२॥ भन्ते ! मैं दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व मृपावाद की विरति होती है। १३-अहावरे तच्चे भंते ! अथापरे तृतीये भदन्त ! महावते महब्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं । अदत्तादानाद्विरमणम । १३–भंते! इसके पश्चात् तीसरे महावत में अदत्तादान५२ की विरति होती है। सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पच्च- सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि- भंते ! मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान क्खामि से गामे वा नगरे वा रणे अथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा करता हूँ। गाँव में, नगर में या अरण्य वा अप्पं वा बहुं वा अणु वा थूलं वा बहु वा अणु वा स्थूल वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तबद्वा में५३ कहीं भी अल्प या बहुत,५४ सूक्ष्म या चित्तमंतं वा अचित्त मंतं वा, नेव सयं अचित्तवद्वा ..नव स्वयमदत्तं गलामि, स्थूल,१५ सचित्त या अचित्तथ किसी भी नवान्यरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गलतो- अदत्त-वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, अदिन्नं गेण्हेज्जा नेवन्नेहि अदिन्नं ऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं दूसरों से अदत्त-वस्तु का ग्रहण नहीं कराऊँगा गेण्हावेज्जा अदिन्नं गेण्हते वि अन्ने न त्रिविधं त्रिविधेन-मनसा वाचा और अदत्त-वस्तु ग्रहण करने वालों का समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं कायेन न करोमि न कारयामि अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावज्जीवन तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । के लिए, तीन करण तीन योग से- मन से, करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न वचन से, काया से---न करूँगा, न कराऊँगा समणुजाणामि। और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) तस्स भंते ! पडिवकमामि निदामि गरिहामि अध्यानं बोसिरामि । तच्चे भंते! महत्वए उबडिओमि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं । १४ – प्रहावरे चउत्थे भंते ! महत्वए मेहुणाओ वेरमणं । सव्यं भंते! मेहुणं पचपखामि --- से दिव्वं वा माणुस वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं सेवेज्जा नेवन्नहि मेहणं सेवावेज्जा मेहूणं सेवावेज्जा मेहुणं सेवते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिनिहि लिवणं मणेणं वायाए काएण न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समपुजाणामि । तस्स भंते ! पविकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसि रामि । चरस्थे भंते! महत्वए उबद्धिओमि सव्वा मेहुणाओ वेरमणं । १५ - अहावरे पंचमे भंते ! महत्यए परिग्गहाम्रो वेरमणं । सव्यं भंते! परिग्गहं पञ्चवखामि - से गामे या नगरे वारणे या अप्पं वा बहूं वा अनुं वा खूलं वा चिसमंतं वा अचित्तमंतं वा मेव सर्व परिग्गहं परिगेण्हेज्जा नेवन्नेहि परिग्गहं परिगेन्हा वेज्जा परियहं परिहंते वि १०६ तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि । तृतीये दन्त महाव्रते उपि सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम् ॥ ३॥ अथापरे चतुर्थ भदन्त महावते मैथुनारिमणम् । सर्व भदन्त ! मैथुनं प्रत्यास्यामि अथ दिव्यं वा मानुषं वा तिर्यग्योनिकं वा नैव स्वयं मैथुनं सेवे नैवान्ये नथुनं सेवयामि मैथुनं सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि मन मनुजानामि । तस्य भवन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि । चतुर्वे भवन्त महायते उपस्थितोऽस्थि सर्वस्माद् मैथुनाद्विरमणम् ॥ २४ ॥ अथापरे पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते परिग्रहाद्विरमणम् । सर्व भदन्त ! परिग्रह प्रत्याख्यामिअथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं का चित्तवन्तं वा अवित्तवन्तं वा नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नैवान्यः परिग्रहं परिग्राहयानि परिग्रहं अध्ययन ४ : सूत्र १४-१५ भंते ! मैं अतीत के अदत्तादान मे निवृत होता है उनकी निन्दा करता है, ग करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । भंते! मैं तीसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व अदत्तादान की विरति होती है । १४- भंते ! इसके हमें मंजून को पश्चात् चौथे होती है। भंते ! मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूँगा, दूसरों से सेवन नहीं कराऊँगा और मंजुन सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया से न करूँगा, न कराऊँगा और न करने वाले का अनुमोदन भी नहीं कहा। भंते! मैं अतीत के मैथुन सेवन से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गह करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । भते ! मैं चौथे महाव्रत में उास्थित हुआ हूँ । इसमें सर्व मैथुन की विरति होती है। १५ भंते ! इसके पश्चात् पांचवें महाव्रत में परिकीवित होती है। भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ । गाँव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी, अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्कूल, सचित्त या प्रचित्त किसी भी से परिग्रह का ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूँगा, दूसरों Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ११० अध्ययन ४ : सूत्र १६-१८ अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए परिगृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामि परिग्रह का ग्रहण करने वालों का अनुमोदन तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधन - मनसा भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, तीन काएणं न करेमि न कारवेमि करतं वाचा कायेन न करोमि न कारणामि करण तीन योग से .... मन से, वचन से, काया से ---न करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले दि अन्नं न समणुजाणामि । कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स भंते पडिक्कमामि निदामि तस्य भदन्त! प्रति कामामि निन्दामि भते ! मैं अतीत के परिग्रह से निवृत्त गरिहामि अप्पाणवोसिरामि। गहें आत्मानं व्यत्सृजामि । होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गहरे पंचमे भंते ! महन्वए उपटिओमि पञ्त्तमे भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। सव्वानो परिग्गहाओ वेरमणं । सर्वस्मात् परिग्रहाहि रमणम् ॥१५॥ ___भंते! मैं पाँचवें महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व परिग्रह की विरति होती है । १६-अहावरे घढे भंते ! वए अथापरे षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रि- १६–भते ! इसके पश्चात् छठे व्रत में राईभोयणाओ देरमणं । भोजनाहिरमणम्। रात्रि-भोजन५६ की विरति होती है । सव्वं भंते ! राईभोयणं पच्च- सर्व भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामि- भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन पखाईम-से असणं वा पाणं बा अथ अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं का प्रत्याख्यान करता हूँ । अशन, पान, खाइम वा साइमं वा, नेव सयं राई वा-नैव स्वयं रात्रौ भुजे, नंदा यान् रात्री खाद्य और स्वाद्य --किसी भी वस्तु को भोजयामि, रानौ भुजानानप्यन्यान् रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊँगा, दूसरों को मुंजेज्जा नेवन्नहि राई भुंजाषेज्जा न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं नहीं खिलाऊँगा और खाने वालों का राइ भुंजते वि अन्ने न समजागेज्जा त्रिविधेन मनसा वासा कायेन न अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावजी बन के जावज्जीवाए तिधिहं तिधिहेणं मणेणं करोमि न कारयाभि कुर्वन्तमप्यन्य न लिए तीन करण तीन योग से-मन से, वचन वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि समनुजानामि । रो, काया से न करूंगा, न कराऊँगा और करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। तस्स भंते ! पडिक्कमामि तस्य भवन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि भंते ! मैं अतीत के रात्रि-भोजन से निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । गहें आत्मानं व्युत्सृजामि । निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गहरे करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। छद्र भंते ! वए उवट्रिओमि षष्ठे भदन्त ! व्रते उपस्थितोऽस्मि भंते ! में छठे व्रत में उपस्थित हुआ सवाओ राईभोयणाओ वेरमणं । सर्वस्माद् रात्रिभोजनाद्वि रमणम् ॥१६॥ हैं। इसमें सर्व रात्रि भोजन की विरति होती है। १७-इच्चेयाई पंच महब्वयाई इत्येतानि पञ्च महावतानि रात्रि- १७- मैं इन पांच महाव्रतों और राईभोयणवेरमण हवाई अत्तहिय- भोजन विरमणषष्ठानि प्रात्महितार्थ रात्रि-भाजन-विर ति रूप छठ व्रत को ट्रयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। उपसम्पद्य विहरामि ॥१७॥ आत्महित के लिए अंगीकार कर बिहार करता हूँ६२ । १८-से भिक्खू वा भिक्खुणी स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत- १८..... संयत विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातवा संजयविरयपडिहयपच्चक्खाय विरत - प्रतिहत - प्रत्याख्यात - पापकर्मा पापकर्मा६३ भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ दिवा वा रात्री वा एकको वा रात में,४ एकान्त में या परिषद् में, सोते या परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रता-अथ जागते.---पृथ्वी,५ भित्ति, (नदी पर्वत आदि वा परिसागओ वा सुत्ते वा पथिवीं वा भित्ति वा शिलां वां लेष्ट वा की दरार), शिला, ढेले,१८ सचित्त-रज जागरमाणे वा-से पुर्वि वा भित्ति ससरक्ष वा कार्य ससरक्षं वा वस्त्रं से संसृष्ट ६६ काय अथवा सचित्त रज से संसृष्ट वा सिलं वा लेलं वा ससरवखं वा हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा वस्त्र या हाथ, पाँव, काष्ठ, खपाच, अंगुली, कायं ससरक्खं वा बत्थं हत्थेण वा कलिञ्चेन वा अंगुल्या वा शलाकया। शलाका अथवा शलाका-समुह से न पाएण वा कट्टेण वा किलिचेण वा वा शलाकाहस्तेन वा-नालिखेत् न आलेखन २ करे, न बिलेखन करे, न घट्टन७४ Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १११ अध्ययन ४: सूत्र १६ अंगुलियाए वा सलागाए वा विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात् अन्येन करे और न भेदन ५ करे, दूसरे से न आलेखन सलागहत्थेण वा, न आलिहेजा नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न कराए, न विलेखन कराए, न घट्टन कराए न विलिहेज्जा न घटेज्जा न भेदयेत् अन्यमालिखन्तं वा विलिखन्तं और न भेदन कराए, आलेखन, विलेखन, भिदेज्जा अन्नं न आलिहावेज्जा न वा घट्यन्तं वा भिन्दन्तं वा न घट्टन या भेदन करने वाले का अनुमोदन न विलिहावेज्जा न घडावेज्जा न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं करे, यावज्जीवन के लिए, नीन करण तीन योग भिदावज्जा अन्न आलिहत वा विविधेन मनसा वाचा कायेन न से मन से, वचन में, काया से न करूंगा, विलिहंत वा घट्टतं वा भिदंतं वा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं समनुजानामि । भी नहीं करूंगा। तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि भंते ! मैं अतीत के पृथ्वी-समारम्भ से गरिहामि अपाणं वोसिरामि । गहें आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१८॥ निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ गाँ करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। १६-से भिक्रव वा भिक्खुणी वास भिक्षुर्वा भिक्षुको वा संयत-विरत- १६-संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातसंजयविरयपडिहयपच्चकवायपावकम्मे प्रतिहत-प्रत्यास्यात-पापकर्मा दिवा वा पापकर्मा भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या दिया वा राओ वा एगओ वा रात्रौ वा एकको वा परिषद् गतो वा रात में, एकान्त में या परिषद में, सोते परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे सुप्तो वा जाग्रहा-अथ उदक वा 'ओस' या जागते- उदक,६ ओस,७७ हिम, ८ वा-से उदगं वा ओसं वा हिम वा वा हिम वा महिकां वा करकं वा धूं अर, ओले, भूमि को भेद कर निकले महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं हरतनुक' वा शुद्धोदक वा उदकाई वा हुए जल बिन्दु, शुद्ध उदक (आन्तरिक्ष वा उदओल्लं वा कायं उदओल्लं वा काय उदका वा वस्त्रं सस्निग्ध वा कार्य जल), जल से भीगे3 शरीर अथवा जल से वत्थं ससिणिद्धं वा कार्य ससिणिद्ध। . सस्निग्धं वा वस्त्रं-नाऽऽमृशेत् न भीगे वस्त्र, जल से स्निग्ध ४ शरीर अथवा संस्पृशेत् नाऽऽपीडयेत् न प्रपीडयेत जल से स्निग्ध वस्त्र का न आमर्श करे, न वा वत्थं, न आमुसेज्जा न संफुसेज्जा न नाऽऽस्फोट येत्न प्रस्फोटयेत् संस्पर्श५ करे, न आपीड़न करे, न प्रपीड़न आवीलेज्जा न पवीलेज्जान अवखोडेज्जा नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत् अन्येन करे, न प्रास्फोटन करे, न प्रस्फोटन करे,८७ न पक्खोडेज्जा न आयावेज्जा न नाऽऽमर्शयेत् न संस्पर्शयेत् नाऽऽपीडयेत् पयावेज्जा अन्नं न प्रामुसावेज्जा न न आतापन करे, और न प्रतापन ८ करे, न प्रपीडयेत् नाऽऽस्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् संफुसावेज्जा न प्रावीलावेज्जा न दूसरों से न आमर्श कराए, न संस्पर्श कराए, नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत् अन्यमामृशन्तं पवीलावेज्जा न अक्खोडावेज्जा न न आपीड़न कराए, न प्रपीड़न कराए, न वा संस्पृशन्तं वा आपोड्यन्तं वा पक्खोडावेज्जा न आयावेज्जा न प्रपोड्यन्त वा आस्फोटन कराए, न प्रस्फोटन कराए, न आस्फोटयन्तं वा पयावेज्जा अन्नं आमुसंतं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापन कराए, न प्रतापन कराए। आमर्श, आतापयन्त वा संफुसंतं वा प्रावोलतं वा पवीतं प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयात् संस्पर्श, आपीड़न, प्रपीड़न, आस्फोटन, ना प्रवोतं वा पखोटतं वा यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधन-मनसा प्रस्फोटन, आतापन या प्रतापन करने वाले आयावंतं वा पयावंतं वा न वाचा कायेन न करोमि न कारयामि का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए, माना जातानीमा जति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तीन करण, तीन योग से .. मन से, वचन से, तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न काया से- न करूँगा, न कराऊँगा और करने करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। न समणुजाणामि । Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) तस्स भंते! पश्मिनाम गरिहामि अप्पाणं दोसिरामि । वा वा २० - से भिक्खू वा भिक्खुणी संजयविश्यपपिचलाय पावक मे दिया वा राम्रो वा एगओ वा परिसागश्रो सुते वा जागरमाणे वा-से अर्गाणि वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चि वाजा वा अलावा सुद्वाण वा उक्कं वा न उजेज्जा न घट्ट जा न उज्जालेज्जा न निव्वावेज्जा अन्नं न जावज्जा न घट्ट वेण्या न उजालान्जा न निव्वावेज्जा अजंनंत वा घट्ट वा उज्जाल वा निव्वावतं वा न समगुजाज्जा जावकीबाए सिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेसि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते । पक्किमामि निदामि गरिहामि अवाणं दोसिरामि । २१ से भिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविरयप डिहयपच्चवखायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुसे वा जागरमाणे वा से सिएण वा वियण या तालियंटेश वा पत्लेख या साहाए वा साहाभंगेण वा पण वा पिहू गहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्येण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य बाहिर वा वि पुग्गलं न फुमेज्जा न वीएज्जा अन्नं न फुमा वेज्जा ११२ तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि आत्मानं सृजामि ॥१६॥ भिक्षु भिक्षुकी वा संयत-विरतप्रतिहत प्रत्यास्यात पापकर्मा दिया वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्तो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा अथ अग्नि वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अच्चिर्वा ज्वालां वा अलातं वा शुद्धाग्नि वा उल्का वा -नोत्सिञ्चेत् न घट्टयेत् नोज्ज्वासमेत निर्वापयेत् अन्येग गोलेचयेत् न घट्टयेत् नोज्ज्वालयेत् न निर्वापयेत् अन्यमुत्सितं घट्टयन्तं वा पतं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कान न करोमि न कारयामि कुर्वतमप्ययं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि आत्मानं सृजामि ||२०|| स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरतप्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा दिया या रात्री वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा -अथ सितेन वा विभुवनेन या तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गन वा 'पेहुणेण' वा 'पेहुण' हस्तेन वा चेलेन वा या हस्तेन वा मुन या आत्मनो वा कार्य बाह्य वाऽपि पुद्गलं न फूत्कुर्यात् न व्यजेत् अन्येन न फूत्कारयेत् न व्याजयेत् न व्यजेत् अन्येन न फूत्कारयेत् न व्याजयेत् अध्ययन ४ सूत्र २०-२१ भंते! मैं अतीत के जल-समारम्भ से नित होता है, उसकी निन्दा करता है, महाँ करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । २० संयत विरत प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते या जानते अग्नि अंगारे, ६० मुर्मुर, १ ज्वाला, ६३ अलात (अधजली ९८ अचि लकडी ) ६४, शुद्ध ( काष्ठ रहित ) अग्नि, १५ अथवा उल्का का न उत्सेचन करे, न घट्टन करे, न उज्ज्वालन करे और न निर्वाण करे न वुझाए) दूसरों से उत्सेचन कराए, न घट्टन कराए, न उज्ज्वालन कराए और न निर्वाण कराए; उत्सेचन, धट्टन, उज्ज्वालन या निर्वाण करने वाले का अनुमोदन न करे, जीवन के लिए तीन मन से, वचन से, काया करण तीन योग से से न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। भन्ते ! मैं अतीत के अग्नि समारम्भ से निवृत्त होता है, उसकी निन्दा करता है, गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । , २१ संयतविरत प्रतिस्पास्यात पापकर्मा भिक्षु अथवा भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में था परिषद् में, सोते या जागते चामर पंखे १०१ १०२ बीजन, ३ पत्र, १०४ शाखा, शाखा के टुकड़े, मोर पंख, १०५ मोर पिच्छी, १०६ वस्त्र, वस्त्र के पल्ले, १७, हाथ या मुंह से अपने शरीर अथवा बाहरी पुद्गलों को फूँक न दे, हवा न करे; दूसरों --- से दिलाए हवा न कराए फेंक देने फूंक न Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) नवीयावज्जा अन्नं फुमंतं वा वीयंत या न समजणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिथिहेणं मणेर्ण वायाए काएणं न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समणुजानामि । तस्स भंते । पडियकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । वा २२- से भिक्खू वा भिक्खुणी संजयविरयपरिपच्चक्खाय पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ श सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएस वा बीय पहिए वा रुवाए तस्स भंते! पविकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि । ११३ अन्यं वा व्यन्तं वा न समजा नीयात् यावत्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्त मध्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि आत्मानं सृजामि ||२१|| वा जाएस वा जायपइट्टिएकोप्रतिनिधितेषु वा न गच्छेत् बा हरिए वा हरियपइटिए वा छिन्ने वा हिन्नपइट्टिएस वा सच्चित्तकोलप डिनिस्सिएसु वा न गच्छेज्जा न चिट्ठेज्जा न निसीएज्जा न तुपज्जा अन्नं न गच्छावेज्जा न चिट्ठाबेज्जा न निसियावरजा न तुट्टामा अन्नं गच्छतं वा चिठ्ठतं वा निसीयंतं वा तुयट्टतं वा न समगुजारना जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारयेमि करतं पि अन्नं न समजाणामि । स भिक्षु भिक्षुको वा संयत-विरतप्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाड़ा बीनेषु वा बोजप्रतिष्ठितेषु पा युवा प्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हारेतेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्त न तित् न निवदेन त्वग्स अम्यं न गमपेत् न स्थापयेत् न निषादयेत् न त्वग्वर्तयेत् अन्यं या तिष्ठन्तं वा नियन्तं वा स्वगतं मानं वाम समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन- -मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनु जानामि । - तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि आत्मानं व्युत्सृजामि ॥२२॥ अध्ययन ४ : सूत्र २२ वाले या हा करने वाले का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया सेन करूंगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। भंते ! मैं अतीत के वायु-समारम्भ से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, ग करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । २२ -- संयत विरत प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा भिक्षु अपना भिक्षुणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते या जानते बीजों पर बीजों पर रखी हुई वस्तुओं पर, स्फुटित बीजों पर,१९ स्फुटित बीजों पर रखी हुई वस्तुओं पर पत्ते आने की अवस्था वाली वनस्पति पर, ११° पत्ते आने की अवस्था वाली वनस्पति पर स्थित वस्तुओं पर हरि पर, हरित पर रखी हुई वस्तुओं पर छिन्न वनस्पति के अंगों पर ११३ छिन्न वनस्पति के अंगों पर रखी हुई वस्तुओं पर सचित को अण्डों एवं काट-कीटसे पुक्त काण्ड आदि पर ११२ न चले न खड़ा रहे, न बैठे, न सोये; ११३ दूसरों को न चलाए, न खड़ा करे, न बैठाए, न सुलाए चलने खड़ा रहने बैठने या सोने वाले का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग सेमन से, वचन से, काया से -न करूँगा न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा । . भंते! मैं अतीत के वनस्पति-समारम्भ से निवृत होता है, उसकी निन्दा करता है, गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) २३- से भिक्खु वा भिणी वा संजयविरयडियपच्चरखायपावकम्मे दिया या रानो वा एमओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा-से कोडं वा पयंगं वा कुंथुं वा पिवलियं या नृत्यंसि या पायंसि या बाहंसिया हंसि या उदरसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा रयहरणंसि गोस उंडगंसि या इंडसि वा पी.गंसि वा फलगंसि वा सेज्जंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहपगारे संजयामेव वा वा पमज्जिय उवगरणजाए त पडिलेहिय पडिलेहिय परिजय एगतमवणेज्जा मो पं संघाय मावज्जेज्जा । पाणभूयाइ चरमाणो उ हिंसई । बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ १ - अजयं २- अजय चिद्यमाणो उ पाणभूयाइ सई बंधई पावय कम्म तं से होइ कयं फलं ॥ ११४ स भिक्षुर्वा भिक्षुको वा संयत-विरतप्रतिहत प्रत्याख्यात- पापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको का परियद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा - अथ कीटं वा पतङ्ग वा कुंथुं वा पिपीलिका वा हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरौ वा उदरे वा शीर्ष वा वस्त्रे या प्रतिग्रहे वा रजोहरणे या वाया दण्डके या पीठके वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारक वा अन्यतरश्मित् वा तथाप्रकारे उपकरणजाते ततः संयतमेव प्रतिलिस्यप्रतिलिस्य प्रमृज्य प्रमृज्य एकान्तमवनयेत् नै संघातमापादयेत् ॥२३॥ अयतं परंतु प्राणभूतानि हिनरित बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक फलम् ॥१॥ अयतं लिष्ठस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक- फलम् ॥२॥ अध्ययन ४ सूत्र २३ ११४ वस्त्र, २३ तिहत प्रत्यास्पात पापकर्मा भिक्षु अथवा भिणी, दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते या जागते कीट पतंग या विपरीतका हाथ, पैर, बाहु, ऊरु, उदर, सिर, पात्र, रजोहरण, ११५ गोच्छग ११६ उन्दक.. स्थंडिल, दण्डक १७, पीठ, फल, शय्या या संस्तारक पर तथा उसी प्रकार के कितो अन्य उपकरण पर चढ़ जाए तो सावधानी पूर्वक १२३ धीरे-धीरे प्रतिलेखन कर, प्रमार्जन कर उन्हें वहां से हटा एकान्त में रख दे कि उनका संघात ' न करे-आपस में एक दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुँचे वैसे न रखे । १२३ १२५ १ - अयतनापूर्वक चलने वाला त्रस और स्थावर २४ जीवों की हिंसा करता है। उससे का होता है। यह उसके लिए कटु फल वाला होता है १२७ 1 1 २. अयतनापूर्वक खड़ा होने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप कर्म का बंप होता है वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ अध्ययन ४: श्लोक ३-६ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) ३--अजयं आसमाणो उ पाणभूयाइं हिसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ अयतमासीनस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति। बध्नाति पापक कर्म ततस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ३॥ ३.-अयतनापूर्वक बैठने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। ४-अजयं सयमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ अयतं शयानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ४॥ ४--अयतनापूर्वक सोने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । ५-अजयं भुंजमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ अयतं भुजानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ५॥ ५-अयतनापूर्वक भोजन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। ६-अजय भासमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडय फलं ॥ अयतं भाषमाणस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति। वध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥६॥ ६---अयतनापूर्वक बोलने वाला१२८ बस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है१२६ । ७–कहं चरे कहं चिट्ठे कहमासे कहं सए। कहं भुंजतो भासंतो पावं कम न बंधई॥ कथ चरेत् कथं तिष्ठत् कथमासीत कथं शयीत । कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥ ७॥ ७.--कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए ? कैसे बोले? जिससे पाप-कर्म का बन्धन न हो । ८-13 जय चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥ यतं चरेद् यतं तिष्ठेत् यतमासीत यत शयीत। यतं भुजानो भाषमाणः पाप कर्म न बध्नाति ॥८॥ ८-यतनापूर्वक चलने,१३२ यतनापूर्वक खड़ा होने,733 यतनापूर्वक बैठने,१४ यतनापूर्वक सोने,१३५ यातनापूर्वक खाने १३६ और यतनापूर्वक बोलने वाला पाप-कर्म का बन्धन नहीं करता। 8-सव्वभूयप्पभू यस्स सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई॥ सर्बभूतात्मभूतस्य सम्यग् भूतानि पश्यतः। पिहितात्रवस्य दान्तस्य पापं कर्म न बध्यते ॥६॥ --जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक्-दृष्टि से देखता है, जो आत्रब का निरोध कर चुका है और जो दान्त है उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता १३८ । Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ४: श्लोक १०-१६ १०-१३६पढम नाणं तओ दया एवं चिट्टइ सव्वसंजए। अन्नाणी कि काही कि वा नाहिइ छेय-पावगं ॥ प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतः। अज्ञानी कि करिष्यति कि वा ज्ञास्यति छेक-पापकम् ॥१०॥ १०—पहले ज्ञान फिर दया४०- इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं१४१ । अज्ञानी क्या करेगा ? १४२ वह क्या जानेगा- क्या श्रेय है और क्या पाप ? १४३ ११-सोच्चा जाणइ कल्लारणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभय पि जाणई सोच्चा जं छेय तं समायरे ।। श्रुत्वा जानाति कल्याण श्रुत्वा जानाति पापकम्। उभयमपि जानाति श्रुत्वा यच्छेक तत्समाचरेत् ॥११॥ ११ जीव सुन कर१४४ कल्याण को १४५ जानता है और सुनकर ही पाप को१४६ जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं । वह उनमें जो श्रेय है उसीका आचरण करे। १२-जो जीवे वि नयाणाइ अजीव वि न याणई । जीवाजीवे अयाणंतो। कहं सो नाहिइ संजमं ॥ यो जीवानपि न जानाति अजीवानपि न जानाति । जीवाऽजीवानजानन् कथं स ज्ञास्यति संयमम् ॥ १२॥ १२—जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता वह जीव और अजीव को न जानने वाला संयम को कैसे जानेगा? १३-जो जोवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई। जीवाजीवे वियाणतो सो हु नाहिइ संजमं ॥ यो जीवानपि विजानाति अजीवानपि विजानाति । जोवाऽजीवान् विजानन् स हि ज्ञास्यति संयमम् ॥ १३ ॥ १३ ---जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है वही, जीव और अजीब दोनों को जानने वाला ही, संयम को जान सकेगा१४ ॥ १४–जया जीवे अजीवे य दो वि एए वियाणई। तया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणई॥ यदा जीवानजीवाश्च द्वावप्येती विजानाति। तदा गति बहुविधां सर्वजीवानां जानाति ॥ १४ ॥ १४-जब मनुष्य जीव और अजीव ---- इन दोनों को जान लेता है तब वह सब जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है १४६ । १५-जया गई बहुविहं। सव्वीजीवाण जाणई । तया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणई॥ यदा गति बहुविधां सर्वजीवानां जानाति । तदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति ॥ १५ ॥ १५.--जब मनुष्य सब जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है तब वह पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता १६-जया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणई। तया निविदए भोए जे दिवे जे य माणुसे ॥ यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति । तदा निविन्ते भोगान् यान् दिव्यान् याश्च मानुषान् ॥ १६ ॥ १६- जब मनुष्य पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को जान लेता है तब जो भी देवों और मनुष्यों के भोग हैं उनसे विरक्त हो जाता है। dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ अध्ययन ४: सूत्र १७-२३ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १७-जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं सभितरबाहिरं ॥ यदा निविन्ते भोगान् यान् दिव्यान् याँश्च मानुषान् । तदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तर-बाह्यम् ।। १७ ।। १७-~-जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है तब वह आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है१५२ । १५-जया चयइ संजोगं सभितरबाहिरं । तया मुंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं ॥ यदा त्यजति संयोग साभ्यन्तर-बाह्यम्। तदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारताम् ॥ १८॥ १८-जब मनुष्य आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों को त्याग देता है तब वह मुंड होकर अनगार-वृत्ति को स्वीकार करता है१५३ । १६-जया मंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं । तया संवरमुक्किट्ठ धम्म फासे अणुत्तरं ॥ यदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारताम् । तदा संवरमुत्कृष्टं धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ॥ १६ ॥ १६-जब मनुष्य मुंड होकर अनगारवृत्ति को स्वीकार करता है तब वह उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता २०-जया संवरमुक्किट्ठ धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरय अबोहिकलुसं कडं ॥ यदा संवरमुत्कृष्ट धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् । तदा धुनाति कर्मरजः अबोधि-कलुष-कृतम् ॥ २०॥ २० - जब मनुष्य उत्कृष्ट संवरात्मक अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोधि-रूप पाप द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर देता है१५५ । २१–जया धुणइ कम्मरय अबोहिकलुसं कड । तया सव्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई ॥ यदा धुनाति कर्मरजः अबोधि-कलुष-कृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति ॥ २१ ॥ २१-जब मनुष्य अबोधि-रूप पाप द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर देता है तब वह सर्वत्र-गामी ज्ञान और दर्शनकेवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है१५६ । २२–जया सव्यत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ॥ यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली ॥ २२॥ २२---जब मनुष्य सर्वत्र-गामी ज्ञान और दर्शन-केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता २३-जया लोगमलोग च जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता सेलेसि पडिवज्जई ॥ यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली। तदा योगान् निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते ॥ २३॥ २३-जब मनुष्य जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता है तब वह योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है१५८ । Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ११८ अध्ययन ४ : श्लोक २४-२८ २४-जया जोगे निरुभित्ता सेलेसि पडिवज्जई। तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ ॥ यदा योगान् निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते। तदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः ॥ २४ ॥ २४.- जब मनुष्य योग का निरोघ कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है तब वह कर्मों का क्षय कर रज-मुक्त बन सिद्धि को प्राप्त करता है १५६ । २५–जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छद नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ॥ यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धि गच्छति नीरजाः। तदा लोकमस्तकस्थः सिद्धो भवति शाश्वत. ॥ २५ ॥ २५–जब मनुष्य कर्मों का क्षय कर रजमुक्त बन सिद्धि को प्राप्त होता है तब वह लोक के मस्तक पर स्थित शाश्वत सिद्ध होता है १६ । २६-सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणापहोइस्स दुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ सुखस्वादकस्य श्रमणस्य साताकुलकस्य निकामशायिनः । उत्क्षालनाप्रधाविनः दुर्लभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥ २६ ॥ २६-..जो श्रमण सुख का रसिक १६१, सात के लिए आकुल १६२, अकाल में सोने वाला१६3 और हाथ, पैर आदि को बारबार धोने वाला १६४ होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है। २७-तवोगुणपहाणस्स तपोगुणप्रधानस्य उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स। ऋजुमतेः क्षान्तिसंयमरतस्य । परीसहे जिणंतस्स परोषहान् जयतः सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ सुलभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥ २७ ॥ २७ --जो श्रमण तपो-गुण से प्रधान, ऋजुमति, ६५ क्षान्ति तथा संयम में रत और परीषहाँ को १६६ जीतने वाला होता है उसके लिए सुगति सुलभ है। [१६ पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो य खन्ती य बम्भचेरं च ॥] [पश्चादपि ते प्रयाताः क्षिप्रं गच्छन्ति अमरभवनानि । येषां प्रियं तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥] [जिन्हें तप, संयम, क्षमा, और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं वे शीघ्र ही स्वर्ग को प्राप्त होते . हैं-- भले ही वे पिछली अवस्था में प्रव्रजित हुए हों ।] २८–इच्चेय छज्जीवणियं सम्मद्दिठी सया जए। दुलहं लभित्तु सामण्णं कम्मुणा न विराहेज्जासि ॥ त्ति बेमि ॥ इत्येतां षड्जीवनिका सम्यग-दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा न विराधयेत् ॥ २८ ॥ २८-दुर्लभ श्रमण-भाव को प्राप्त कर सम्यक-दृष्टि६८ और सतत सावधान श्रमण इस षड्जीवनिका की कर्मणा१६६ -- मन, वचन और काया से—विराधना१७० न करे । इति ब्रवीमि। ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ४ सूत्र : १ १. आयुष्मन् ! (आउसं ! ) : इस शब्द के द्वारा शिष्य को आमन्त्रित किया गया है। जिसके आयु हो उसे आयुष्मान् कहते हैं । उसको आमन्त्रित करने का शब्द है 'आयु मन्' !' 'आ उस' शब्द द्वारा शिष्य को सम्बोधित करने की पद्धति जैन आगमों में अनेक स्थलों पर देखी जाती है । तथागत बुद्ध भी 'आमा' शब्द द्वारा ही शिष्यों को सम्बोधित करते थे । प्रश्न हो सकता है -शिष्य को आमन्त्रित करने के लिए यह शब्द ही क्यों चुना गया । इसका उत्तर है योग्य शिष्य के सब गुणों में प्रधान गुण दीर्घ-आयु ही है। जिसके दीर्घायु होती है वही पहले ज्ञान को प्राप्त कर बाद में दूसरों को दे सकता है। इस तरह शासन-परम्परा अनवच्छिन्न बनती है। 'आयुष्मन्' शब्द देश-कुल-शीलादि समस्त गुणों का सांकेतिक शब्द है । आयुष्मन् अर्थात् उतम देश, कुल, शीलादि समस्त गुण से संयुक्त दीर्घायुवाला। हरिभद्र सूरि लिखते हैं – 'प्रधान गुण निष्पन्न आमन्त्रण वचन का आशय यह है कि गुणी शिष्य को आगम-रहस्य देना चाहिए, अगुणी को नहीं। कहा है जिस प्रकार कच्चे घड़े में भरा हुआ जल उस घड़े का ही विनाश कर देता है वैसे ही गुण रहित को दिया हुआ सिद्धान्त-रहस्य उस अल्पाधार का ही विनाश कर देता है।" 'आउसं' शब्द की एक व्याख्या उपर्युक्त है । विकल्प व्याख्याओं का इस प्रकार उल्लेख मिलता है : १ - 'आउस' के बाद के 'तेण' शब्द को साथ लेकर 'आउसंतेणं' को 'भगवया' शब्द का विशेषण मानने से दूसरा अर्थ होता है मैंने सुना चिरजीवी भगवान् ने ऐसा कहा है अथवा भगवान् ने साक्षात् ऐसा कहा है। २-- 'आवसंतेणं' पाठान्त र मानने से तीसरा अर्थ होता है -- गुरुकुल में रहते हुए मैंने सुना भगवान् ने ऐसा कहा है। ३ 'आमुसतेणं' पाठान्तर मानने से अर्थ होता है --- सिर से चरणों का स्पर्श करते हुए मैंने सुना भगवान् ने ऐसा कहा है। १ जि० चू-पृ० १३० : आयुस् प्रातिपदिकं प्रथमासुः, आयुः अस्यास्ति मतुप्प्रत्ययः, आयुष्मान्! , आयुष्मन्नित्यनेन शिष्यस्यामन्त्रणं । २ - विनयपिटक १७३.१४ पृ० १२५ । ३-- जि० चू० पृ० १३०-१ : अनेन .... गुणाश्च देशकुलशीलादिका अन्वाख्याता भवंति, दीर्घायुष्कत्वं च सर्वेषां गुणानां प्रतिविशिष्टतम, कहं ?, जम्हा दिग्घायू सीसो तं नाणं अन्नेसिपि भवियाणं दाहिति, ततो य अब्वोच्छित्ती सासणस्स कया भविस्सइत्ति, तम्हा आउसंतग्गहणं कयंति । ४.--हा० टी० ५० १३७ : प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह, तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति, उक्त च "आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्ध तरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ।" ५-(क) जि० चू० पृ० १३१ : सुयं मयाऽऽयुषि समेतेन तीर्थकरेण जीवमानेन कथितं, एष द्वितीयः विकल्पः । (ख) हा० टी० ५० १३७ : 'आउसंतेणं' ति भगवत एव विशेषणम्, आयुष्मता भगवता-चिरजीविनेत्यर्थः मङ्गलवचनं चतद, __अथवा जीवता साक्षादेव । ६. (क) जि० चू० पृ० १३१ : श्रुतं मया गुरुकुलसमीपावस्थितेन तृतीयो विकल्पः । (ख) हा० टी०प० १३७ : अथवा 'आवसंतेणं' ति गुरुमूलमावसता । ७-(क) जि० चू० पृ० १३१ : सुयं मया एयमज्झयणं आउसंतेणं भगवतः पादौ आमृषता। (ख) हा० टी० ५० १३७ : अथवा 'आमुसंतेणं' आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गन । Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १२० अध्ययन ४ : सूत्र १ टि० २-३ २. उन भगवान् ने ( तेणं भगवया ) ! 'भग' शब्द का प्रयोग ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न- इन छह अर्थों में होता है । कहा है : ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग तीगना ।। जिसके ऐश्वर्य आदि होते हैं उसे भगवान कहते हैं। 'आयुष्मन् ! मैंने सुना उन भगवान ने इस प्रकार कहा' (सुयं मे आउरां तेणं भगवया एवमक्खायं)-- इस वाक्य के 'उन भगवान्' शब्दों को टीकाकार हरिभद्र सूरि ने महावीर का द्योतक माना है । चूर्णिकार जिनदास का भी ऐसा ही आशय है। परन्तु यह ठीक नहीं लगता। ऐसा करने से बाद के संलग्न वाक्य 'इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महाबीरेणं कासवेणं पवेइया' की पूर्व वाक्य के साथ संगति नहीं बैठती। अत: पहले वाक्य के भगवान् शब्द को सूत्रकार के द्वारा अपने प्रज्ञापक आचार्य के लिए प्रयुक्त माना जाय तो व्याख्या का क्रम अधिक संगत हो सकता है। उत्तराध्ययन के सोलहवें और इस सूत्र के नवें अध्ययन में इसका आधार भी मिलता है। वहाँ अन्य प्रसंगों में क्रमशः निम्न पाठ मिलते हैं : १-- सुयं मे आउस तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नता (उत्त० १६.१) २–सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नता (दश० ९.४.१) हरिभद्र सूरि दशवकालिक सूत्र के इस स्थल की टीका में 'थे रेहि' शब्द का अर्थ स्थविर गणधर करते हैं । स्थविर की प्रज्ञप्ति को तीर्थक र के मुंह से सुनने का प्रसंग ही नहीं आता। ऐसी हालत में उक्त दोनों स्थलों में प्रयुक्त प्रथम 'भगवान्' शब्द का अर्थ महावीर अथवा तीर्थकर नहीं हो सकता । यहाँ भगवान् शब्द का प्रयोग सूत्रकार के प्रज्ञापक आचार्य के लिए हुआ है। उक्त दोनों स्थलों पर सूत्रकार ने अपने प्रज्ञापक आचार्य के लिए 'भगवान्' शब्द का एक वचनात्मक और तत्त्व-निरूपक स्थविरों के लिए उसका बहुवचनात्मक प्रयोग किया है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि भगवान् शब्द का दो बार होने वाला प्रयोग भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए है। इसी तरह प्रस्तुत प्रकरण में भी 'उन भगवान्' शब्दों का सम्बन्ध प्रज्ञापक आचार्य से बैठता है। वे भगवान् महावीर के द्योतक नहीं ठहरते । ३. काश्यप-गोत्री ( कासवेणं ) 'काश्यप' शब्द श्रमण भगवान महावीर के विशेषण रूप से अनेक स्थलों पर व्यवहृत मिलता है । अनेक स्थानों पर भगवान महावीर को केवल 'काश्यप' शब्द से संकेतित किया है। भगवान् महावीर काश्यप क्यों कहलाए ---इस विषय में दो कारण मिलते हैं : १-जि० चू० पृ० १३१ : भगशब्देन ऐश्वर्यरूपयश: श्रीधर्मप्रयत्ना अभिधीयंते, ते यस्यास्ति स भगवान्, भगो जसादी भण्णइ, सो जस्स अस्थि सो भगवं भण्णइ । २-हा० टी० प० १३६ : 'तेने' ति भुवनभ: परामर्शः तेन भगवता वर्धमानस्वामिनेत्यर्थः । ३ (क) जि० चू० पृ० १३१ : तेन भगवता-तिलोगबंधुणा । (ख) वही पृ० १३२ : 'सुयं मे आउसंतेणं' एवं णज्जति समणेणं भगवया महावीरेणं एयमज्झयणं पन्नत्तमिति किं पुण गहणं कय मिति ?, आयरिओ भणइ-xx तत्थ नामठवणादव्वाणं पडिसेहनिमित्तं भावसमणभावभगवंतमहावीरगहणनिमित्तं पुणोगहणं कयं। ४-हा० टी०प० २५५ : 'स्थविरैः' गणधरैः । ५-(क) सू० १.६.७; १.१५.२१, १.३.२.१४, १.५.१.२; १.११.५,३२ । (ख) भग० १५.८७, ८६ । (ग) उत्त० २.१, ४६; २६.१ । (घ) कल्प० १०८, १०६। Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १२१ १- भगवान् महावीर का गोत्र काश्यप था । इसलिए वे काश्यप कहलाते थे' । २- काश्य का अर्थ इक्षु-रस होता है। उसका पान करने वाले को काश्यप कहते हैं । भगवान् ऋषभ ने इक्षु-रस का पान किया था अतः वे काश्यप कहलाये । उनके गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति इसी कारण काश्यप कहलाने लगे । भगवान् महावीर २४ वें तीर्थङ्कर थे । अतः वे निश्चय ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के धर्म-वंश या विद्या-वंश में उत्पन्न कहे जा सकते हैं । इसलिए उन्हें काश्यप कहा है। धनञ्जय नाममाला में भगवान् ऋषभ का एक नाम काश्यप बतलाया है । भाव्यकार ने काश्य का अर्थ क्षत्रिय-तेज किया है और उसकी रक्षा करने वाले को काश्यप कहा है । भगवान् ऋषभ के बाद जो तीर्थङ्कर हुए वे भी सामान्य रूप से काश्यप कहलाने लगे । भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थङ्कर थे अतः उनका नाम अन्त्य काश्यप मिलता है। ४. श्रमण... महावीर द्वारा (समणेणं महावीरेणं) : आचाराङ्ग के चौबीसवें अध्ययन में चौबीसवें तीर्थंङ्कर के 'महावीर' है । सहज समभाव आदि गुण-समुदाय से सम्पन्न होने के कठोर परीषहों को सहन करने के कारण देवों ने उनका नाम महावीर रखा । 'समण' शब्द की व्याख्या के लिए देखिए अ० १ टि० १४ । यश और गुणों में महान् वीर होने से भगवान् का नाम महावीर पड़ा। जो शूर - विक्रान्त होता है उसे वीर कहते हैं । कषायादि महान् आन्तरिक शत्रुओं को जीतने से भगवान् महाविक्रान्त - महावीर कहलाए । कहा है तीन नाम बतलाए हैं। उनमें दूसरा नाम 'समण' और तीसरा नाम कारण वे 'समय' कहलाए। भयंकर भय भैरव तथा अचेलकता आदि विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥ अध्ययन ४ : सूत्र १ टि० ४-५ अर्थात् जो कर्मों को विदीर्ण करता है, तपपूर्वक रहता हैं, जो इस प्रकार तप और वीर्य से युक्त होता है, वह वीर होता है । इन गुणों में महान वीर वे महावी ५. प्रवेदित (पवेइया) : अगस्त्य घृणि के अनुसार इसका अर्थ है-अच्छी तरह विज्ञात-अच्छी तरह जाना हुआ" । हरिभद्र सूरि के अनुसार केवलज्ञान १ --- (क) जि० चू० पृ० १३२ : काश्यपं गोत्तं कुलं यस्य सोऽयं काशपगोत्तो । (ख) हा० टी० प० १३७ : 'काश्यपेने' ति काश्यपसगोत्रेण । २ (क) अ० चू० पृ० ७३ : कासं उच्छू तस्स विकारो- काश्य:- रसः, सो जस्त पाणं सो कासवो उसभसामी, तस्स जो गोत्तजाता ते कासवा, तेण वद्धमाणसामी कासवो, (ख) जि० ० चू० पृ० १३२ : काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा तं इक्खु पिवंति तेन काश्यपा अभिधीयते । ३. -धन० नाम० ११४ पृ० ५७ : वषीर्यान् वृषभो ज्यायान् पुरुराद्यः प्रजापतिः । ऐक्ष्वाकु : (क: ) काश्यपो ब्रह्मा गौतमो नाभिजोऽग्रजः ॥ ४. -धन० नाम० पु० ५७ : काश्यं क्षत्रियतेजः पातीति काश्यपः । तथा च महापुराणे - काश्य मित्युच्यते तेजः काश्यपस्तस्य पालनात् । ५-धन० नाम० ११५ ०२० : सम्मतिमतीवीरो महावीरोस्काइपपः । नाथान्वयो वर्धमानो यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ॥ ६० पू०१५.१६ सहसं समजे भीमं भयमेश्वं उरात अबेलयं परीसह सहइति देवेह से नाम कसम भगवं महाबीरे। ७- जि० चू० पृ० १३२ : महंतो यसोगुणेहिं वीरोत्ति महावीरो । हा० टी० प० १२० 'महावीरेण 'शूरवीरविकान्ता विति क्वायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः । ९-हा० डी० प० १३७ : महचासो वीरराव महावीरः । १०- २० ० ० ७३ विदज्ञाने' साधु वेदिता पवेदिता-साधुविष्णाता। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) १२२ अध्ययन ४ : सूत्र १ टि० ६-१० के आलोक द्वारा स्वयं अच्छी तरह वेदित - जाना हुआ प्रवेदित है'। जिनदास ने इस शब्द का अर्थ किया है- विविध रूप से - अनेक प्रकार से कथित' । ६ - सु-आख्यात ( सुयक्खाया ) : इसका अर्थ है - भली भांति कहा। यह बात प्रसिद्ध है कि भगवान् महावीर ने देव, मनुष्य और असुरों की सम्मिलित परिषद् में जो प्रथम प्रवचन दिया वह षड्जीवनिका अध्ययन है । ७- सुप्रशप्त ( सुपनशा ) : 'सु-प्रज्ञप्त का अर्थ है -- जिस प्रकार प्ररूपित किया गया है उसी प्रकार आचीर्ण किया गया है। जो उपदिष्ट तो है पर आचीर्ण नहीं है वह सुप्रज्ञप्त नहीं कहलाता । प्रवेदित सुआख्यात और मृतका अर्थ है भगवान् ने पजीवनिका को जाना, उसका उपदेश किया और जैसे उपदेश किया वैसे स्वयं उसका आचरण किया । ८--धर्म-प्रज्ञप्ति ( धम्मपन्नती ) : 'छज्जीवणिया ' अध्ययन का ही दूसरा नाम 'धर्म-प्रज्ञप्ति' है । जिससे धर्म जाना जाय उसे धर्म- प्रज्ञप्ति कहते हैं । E -- पठन (अहिज्जिउं ) : इसका अर्थ है १० -- मेरे लिए ( मे ) : 'मे' शब्द का अर्थ है- अपनी आत्मा के लिए स्वयं के लिए। कई व्याख्याकार 'मे' को सामान्यतः 'आत्मा' के स्थान में -अध्ययन करना | पाठ करना, सुनना, विचारना – ये सब भाव 'अहिज्जिउं' शब्द में निहित हैं । २- ० ० ० १३२ १- हा० टी० प० १३७ : स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता -- विज्ञातेत्यर्थः । प्रवेदिता नाम विविमनेकपकार कवितेत्युक्तं भवति । १३२ : सोभणेण पगारेण अक्खाता सुट्टु वा अक्खाया । ३ - (क) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प० १३७ : सदेवमनुष्यासुराणां पर्षदि सुष्ठु आख्याता, स्वाख्याता । ४- श्री महावीर कथा पू० २१६ । ५ (क) जि० ० १० १२२ जब पविया तब आइष्णायि इतरहा वह उबईसिऊन तहा आपरतो तो नो सुपण्णत्ता होंतित्ति । (ग) हा० टी० प० १३७ सुष्ठु प्रज्ञप्ता यथैव आख्याता तदुक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थ अनेकार्थत्वाद्धातूनां पिवनार्थः । ६ - हा० टी० पृ० १३८ अन्ये तु व्याचक्षते अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतयाऽनुवाद मात्रमेतदिति । ७ - ( क ) अ० चू० पृ० ७३ : धम्मो पण्णविज्जए जाए सा धम्मपण्णत्ती, अज्झयण विसेसो । (ख) जि० चू० पृ० १३२ : धम्मो पण्णविज्जमाणो विज्जति जत्थ सा धम्मपन्नत्ती । (ग) हा० टी० प० १३८ : 'धर्मप्रज्ञप्तेः' प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिः । जि० ० चू० पृ० १३२ : अहिज्जिउं नाम अज्झाइउं । ६० डी० १० १३ १०- ( क ) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प० अध्येतु' मिति पठितुं श्रोतुं भावयितुम् । १३२ : 'मे' त्ति अत्तणो निद्देसे । १३७ : ममेत्यात्मनिर्देशः । ८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १२३ अध्ययन ४ : सूत्र ३ टि० ११ प्रयुक्त मानते हैं -- ऐसा उल्लेख हरिभद्र सूरि ने किया है । यह अर्थ ग्रहण करने से अनुवाद होगा - इस धर्म - प्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन आत्मा के लिए श्रेय है ।' सूत्र ३ : ११ पृथ्वी-कायिक साविक ( पुरविकाइया तसकाइया) : जिन छह प्रकार के जीव - निकाय का उल्लेख है, उनका क्रमशः वर्णन इस प्रकार है : (१) काठिन्य आदि लक्षण से जानी जानेवाली पृथ्वी ही जिनका काय —शरीर होता है उन जीवों को पृथ्वीकाय कहते हैं । पृथ्वीका जी ही पृथ्वीकारिक कहलाते हैं। मिट्टी, बासु, लवण, सोना, चांदी, अभ्र आदि पृथ्वीका जीवों के प्रकार हैं । इनकी विस्तृत तालिका उत्तराध्ययन में मिलती है । (२) प्रवाहशील द्रव्य जल ही जिनका काय शरीर होता है उन जीवों को अकाय कहते हैं अप्काय जीव ही अकायिक कहलाते हैं। शुद्धोदक, ओस, हरतनु, महिका, हिम- ये सब अप्कायिक जीवों के प्रकार हैं। (३) उष्णलक्षण तेज ही जिनका काय- -शरीर होता है उन जीवों को तेजस्काय कहते हैं। तेजस्काय जीव ही तेजस्कायिक कहलाते हैं | अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्काग्नि, विद्युत् आदि तेजस्कायिक जीवों के प्रकार हैं । (४) चलनधर्मा वायु ही जिनका काय शरीर होता है उन जीवों को वायुकाय कहते हैं । वायुकाय जीव ही वायुकायिक कहलाते हैं । उत्कलिकावायु मण्डलिकावायु घनवायु, गुंजावायु, संवर्तकवायु आदि वायुकायिक जीव हैं । (५) लतादि रूप वनस्पति ही जिनका काय शरीर होता है उन जीवों को वनस्पतिकाय कहते हैं । वनस्पतिकाय जीव ही वनस्पतिकायिक कहलाते हैं"। वृक्ष, गुच्छ, लता, फल, तृण, आलू, मूली आदि वनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार हैं" । (६) त्रसनशील को बस कहते हैं । त्रस ही जिनका काय- -शरीर है उन जीवों को त्रसकाय कहते हैं । त्रसकाय जीव ही असकाधिक कहलाते है" । कृमि, शंख, कुंपला, माखी मच्छर आदि तथा मनुष्य, पशु-पक्षी, तिर्यञ्च देव और नैरमिक जीव सजीव 43 7 स्वार्थ में इक प्रत्यय होने पर पृथ्वीकाय आदि से पृथ्वीकायिक आदि शब्द बनते हैं"। १- हा० टी० प० १३७ छान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये । २ - हा० टी० प० १३८ : पृथिवी - काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव काय: - शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः । ३ – उत्त० ३६.७२-७७ ॥ ४ – हा० टी० ० प० १३८ : आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव कायः शरीरं येषां तेऽष्कायाः अष्काया एव अष्कायिकाः । ५उत्त० ३६.८५ । ६ हा० टी० प० १३८ : तेज-- उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजःकायाः तेजःकाया एव तेजःकायिकाः । ७- उत्त० ३६.११०-१ । ८- हा० टी प० १३८ : वायुः -- चलनधर्मा प्रतीत एव स एव कायः शरीरं येषां ते वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः । ६-- उत्त० ३६.११८.६ ॥ १० -- हा० टी० प० १३८ : वनस्पतिः - लतादिरूपः प्रतीतः स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः । ११ – उत्त० - ३६.६४-६ १२- हा०टी० प०१३८ : एवं त्रसनशीलास्त्रसाः --- प्रतीता एव, त्रसाः काया: शरीराणि येषां ते सकायाः, त्रसकाया एव त्रसकायिकाः । १३ – उत्त० ३६.१२८-१२९, १३६-१३६, १४६ १४८, १५५ । १४ १० टी० ५० ११८ स्वा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १२४ अध्ययन ४ : सूत्र ४ टि ०१२-१४ सूत्र : ४ १२. शस्त्र (सत्थ) : घातक पदार्थ को शस्त्र कहा जाता है । वे तीन प्रकार के होते हैं--स्वकाय-शस्त्र, परकाय-शस्त्र और उभयकाय-शस्त्र । एक प्रकार की मिट्टी से दूसरी प्रकार की मिट्टी के जीवों की धात होती है। वहाँ मिट्टी उन जीवो के लिए स्वकाय-शस्त्र है। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के भेद से एक काय दूसरे काय का शस्त्र हो जाता है। पानी, अग्नि आदि से मिट्टी के जीवों की घात होती है। वे उनके लिए परकाय-शस्त्र है। स्वकाय और परकाय दोनों संयुक्त रूप से घातक होते हैं तब उन्हें उभयकाय-शस्त्र कहा जाता है। जिस प्रकार काली मिट्टी जल में मिलने पर जल और धोली मिट्टी--दोनों का शस्त्र होती है । १३. शस्त्र-परिणति से पूर्व (अन्नत्थ सस्थपरिणएणं ) : पूर्व शब्द 'अन्नत्थ' का भावानुवाद है। यहाँ 'अन्नत्य'--अन्यत्र --- शब्द का प्रयोग 'वर्जन कर– छोड़कर' अर्थ में है। 'अन्नत्थ सत्थपरिणएण' का शाब्दिक अनुवाद होगा ... शस्त्र-परिणत पृथ्वी को छोड़ कर -- उसके सिवा अन्य पृथ्वी 'सजीव' होती है । 'अन्यत्र' शब्द के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे..... अन्यत्र भीष्माद् गाङ्ग याद् अन्यत्र च हनूमतः । १४. चित्तवती ( चित्तमंतं ) : चित्त का अर्थ है जीव अथवा चेतना । पृथ्वी, जल आदि सजीव होते हैं, उनमें चेतना होती है इसलिए उन्हें चित्तवत् कहा गया है। 'चित्तमंत' के स्थान में वैकल्पिक पाठ चित्तमत्तं' है । इसका संस्कृत रूप चित्तमात्र होता है। मात्र शब्द के स्तोक और परिमाण ये दो अर्थ माने हैं। प्रस्तुत विषय में 'मात्र' शब्द स्तोकवाची है । पृथ्वी काय आदि पाँच जीवनिकायों में चैतन्य स्तोक १- (क) दश० नि० २३१, हा० टी० ५० १३६ : किंचित्स्वकायशस्त्रं, यथा कृष्णा मृद् नीलादिमृदः शस्त्रम्, एवं गन्धरसस्पर्श भेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या, तथा 'किञ्चित्परकाये' ति परकायशस्त्रं, यथा पृथ्वी अप्तेजःप्रभृतीनाम् अप्तेजः प्रभृतयो वा पृथिव्याः, 'तदुभयं किञ्चि' दिति किञ्चित्तदुभयशस्त्रं भवति, यथा कृष्णा मृद् उदकस्य स्पर्शरसगन्धादिभिः पाण्डुमृदश्च, यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृद् उदकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति । (ख) जि० चू० पृ० १३७ : किंची ताव दव्वसत्थं सकायसत्थं किंचि परकायसत्यं किंचि उभयकायसत्थंति, तत्थ सकायसत्थं जहा किण्हमट्टिया नीलमट्टियाए सत्थं, एवं पंचवण्णादि परोप्परं सत्यं भवति, जहा य वण्णा तहा गंधरसफासावि भाणियब्वा, परकायसत्थं नाम पुढविकायो आउक्कायस्स सत्थं पुढविकायो ते उक्का यस्स पुढविकाओ वाउकायस्स पुढविकाओ वणस्स. इकायस्स पुढविकाओ तसकायस्स, एवं सवे परोप्परं सत्थं भवंति, उभयसत्यं णाम जाहे किण्हमट्टियाए कलुसियमुदगं भवइ जाव परिणया। २-(क) अ० चू० पृ० ७४ : अण्णत्थ सद्दो परिवज्जणे वट्टति । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : अण्णत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टइ, कि परिवज्जइयइ ? सत्थपरिणयं पुढवि मोत्तूणं जा अण्णा पुढवी सा चित्तमंता इति तं परिवज्जयति । (ग) हा० टी० प० १३८-६ : अन्यत्र शस्त्रपरिणताया.'--शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय–परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । ३-(क) जि० चू० पृ० १३५ : चित्तं जीवो भण्णइ, तं चित्तं जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता, चेयणाभावो भण्णइ, सो चेयणा भावो जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता। (ख) हा० टी० ५० १३८ : 'चित्तवती' ति चित्तं --जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती सजीवेत्यर्थः । ४- (क) जि० चू० पृ० १३५ : अहवा एवं पढिज्जइ 'पुढवि चित्तमत्तं अक्खाया। (ख) हा० टी० ५० १३८ : पाठान्तरं वा 'पुढवी चित्तमत्तमक्खाया' । ५- (क) अ० चू० पृ० ७४ : इह मत्तासद्दो थोवे । (ख) जि० चु० पृ० १३५ : चित्त चेयणाभावो चेव भण्णइ, मत्तासहो दोसु अत्थेस वइ, तं०-थोवे वा, परिमाणे वा थोवओ जहा सरिसवतीभागमत्तमणेण दतं, परिमाणे परमोही अलोगे लोगप्पमाणमेसाई खंडाई जाणइ पासइ इह पुण मत्तासहो थोवे वट्टइ। (ग) हा० टी० ५० १३८ : अत्र मात्रशब्द: स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति । Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १२५ अध्ययन ४: सूत्र ४ टि० १५ अल्प- विकसित है। उसमें उच्छवास, निमेष आदि जीव के व्यक्त चिह्न नहीं हैं। 'मत्त' का अर्थ मुच्छित भी किया है। जिस प्रकार चित्त के विघातक कारणों से अभिभूत मनुष्य का चित भूच्छित हो जाता है वैसे ही ज्ञानावरण के प्रबलतम उदय से (टीकाकार के अनुसार प्रबल मोह के उदय से) पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों का चैतन्य सदा मूच्छित रहता है । इनके चैतन्य का विकास न्यूनतम होता है। द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यच व समूच्छिम मनुष्य, गर्भज-तिर्यञ्च, गर्भज-मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, भवनवासी देव, ज्योतिष्क-देव और वैमानिक-देव (कल्पोपपन्न, कल्पातीत, ग्रंबेयक और अनुत्तर विमान के देव) इन सबके चैतन्य का विकास उत्तरोत्तर अधिक होता है । एकेन्द्रियों में चैतन्य इन सबसे जघन्य होता है। १५. अनेक जीव और पृथक सत्त्वों वाली ( अणेगजीवा पुढसत्ता ) जीव या आत्मा एक नहीं है किन्तु संख्या-दृष्टि से अनन्त है। वनस्पति के सिवाय शेष पाँच जीव-निकायों में से प्रत्येक में असंख्य-असंख्य जीव हैं और वनस्पतिकाय में अनन्त जीव हैं। यहां असंख्य और अनन्त दोनों के लिए 'अनेक' शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस प्रकार वेदों में पथिवी देवता आपो देवता' द्वारा पृथिवी आदि को एक-एक माना है उस प्रकार जैन दर्शन नहीं मानता । वहाँ पृथ्वी आदि प्रत्येक को अनेक जीव माना है । यहाँ तक कि मिट्टी के कग, जल की बूद और अग्नि की चिनगारी में असंख्य जीव होते हैं। इनका एक शरीर दृश्य नहीं बनता । इनके शरीरों का पिण्ड ही हमें दीख सकता है। ___ अनेक जीवों को मानने पर भी कई सब में एक ही भूतात्मा मानते हैं । उनका कहना है -जैसे चन्द्रमा एक होने पर भी जल में भिन्न-भिन्न दिखाई देता है इसी तरह एक ही भूतात्मा जीवों में भिन्न-भिन्न दिखाई देती है । जैन-दर्शन में प्रत्येक जीव-निकायों के १- (क) जि० चू० पृ० १३६ : चित्तमात्रमेव तेषां पृथिवी कायिनां जीवितलक्षणं, न पुनरुच्छ्वासादोनि विद्यन्ते। (ख) हा० टी० ५० १३८ : ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्तेत्यर्थः ।। २--(क) अ० चू० पृ०७४ : अहवा चित्तं मतमेतेसि ते चित्तमत्ता, जहा पुरिसस्स मज्जपाणविसोवशेग-सपावराह-हिपूरभक्षण मुच्छादीहि चेतोविघातकारणेहि जुगपदभिभूतस्स चित मत एवं पुढविक्कातियाणं । (ख) जि. चू० पृ०१३६ : जारिसा पुरिसस्स मज्जपीतविसोवभुतस्स अहिभक्खियमुन्छादोहि अभिभूतस्स चित्तमत्ता तओ पुढविक्काइयाण कम्मोदएणं पावयरी, तत्थ सव्व जहण्णय चित्तं एगिदियाणं । (ग) हा० टी० ५० १३८ : तथा च प्रबलमोहोदयात् सर्वच घन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणाम् । ३-(क) अ० चू० पृ० ७४ : सव्व जणं चित्तं एगिदियाणं, ततो विसुद्धतरं बेइन्दियाणं, ततो तेइन्दियाणं, ततो बोइन्दियाणं, ततो असन्नीपंचिदितिरिक्खजोणिताणं, समुच्छिममणूसाण य, ततो गब्भवक्कंतियतिरियाणं, ततो गम्भवक्कतिम साणं, ततो वाणमंतराणं, ततो भवणवासिणं ततो जोतिसियाणं ततो सोधम्मताणं जाव सबुक्कसं अगुत्तरोषवातियाणं देवाणं । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : तत्थ सव्वजहणणयं वित्तं एगिदियाणं, तओ विसुद्धयरं बेइंदियाण, तओ विसुद्धतराग तेइंदियाण, तओ विसुद्धयरागं चरिदियाणं, तओ असण्णोणं पंचेंदियाणं संमुच्छिममणुपाणं य, तओ सुद्धतरागं पंचिदितिरियाण, तओ गब्भवक्कंतियमणुयाणं, तओ वाणमंतराणं, तओ भवणवासीणं ततो जोइसियाण, ततो सोधम्मागंजाब सवुक्कोसं अणुत्तरोववाइयाण देवाणंति । ४-(क) जि० चू० पृ० १३६ : अणेगे जीवा नाम न जहा वैदिएहि एगो जीवो पुढवित्ति, उक्त "पृथिवी देवता आपो देवता" इत्येवमादि, इह पुण जिणसासणे अगेगे जीवा पुढवी भवति । (ख) हा० टी० ५० १३८ : इयं च 'अनेकजीवा' अनेके जीरा यस्यां साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा दैदिकानां पृथिवी देवते' त्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । ५ -(क) अ० चू० पु०७४ : ताणि पुण असंखेज्जाणि समुदिताणि चक्षुविसयमागच्छति । (ख) जि. चू० पृ० १३६ : असंखेज्जाणं पुण पुढविजीवाणं सरीराणि संहिताणि परिसयमागच्छतित्ति । ६-हा० टी० ५० १३८ : अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूतात्मापेक्षयेष्यत एव. यथाहुरेके - "एक एव ही भूतात्मा, भूते नूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥” अत आह- 'पृथक्सत्त्वा' पृथग्भूताः सत्वा ---आत्मानो यस्यां सा पृथक्तत्त्वा। Jain Education Intemational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १२६ अध्ययन ४ : सूत्र ८ टि०१६ जीवों में स्वरूप की सत्ता है। वे किसी एक ही महान् आत्मा के अवयव नहीं हैं, उनका स्वतन्त्र अस्तित्व है इसीलिए वे पृथक्सत्त्व हैं । जिनमें पृथकुभूत सत्व आत्मा हो उन्हें कहते हैं इनको अवगाहना इतनी सूक्ष्म होती है कि अंगुल के असंख्य भाग मात्र में अनेक जीव समा जाते हैं । यदि इन्हें सिलादि पर बांटा जाय तो कुछ पिसते हैं कुछ नहीं पिसते । इससे इनका पृथक् सत्त्व सिद्ध होता है ।" मुक्तिवाद और मितात्मवाद – ये दोनों आपस में टकराते हैं। आत्मा परिमित होगी तो या तो मुक्त आत्माओं को फिर से जन्म लेना होगा या संसार जीव-शून्य हो जाएगा । ये दोनों प्रमाण संगत नहीं हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने इसे काव्य की भाषा में यों गाया है "मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवं भवो वा, भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे | पजीय कार्य स्वमनन्तसंख्य माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः " ॥" १६. अप्र-बीज (अग्गबीया ) वनस्पति के भिन्न-भिन्न भेद उत्पत्ति की भिन्नता के आधार पर किये गए हैं । उनके उत्पादक भाग को बीज कहा जाता है । वे विभिन्न होते हैं। 'कोरंटक' आदि के बीज उनके अग्र भाग होते हैं इसीलिए वे अग्रबीज कहलाते हैं । उत्पल कंद आदि के मूल ही उनके बीज हैं इसलिए वे मूलबीज कहलाते हैं। इक्षु आदि के पर्व ही बीज हैं इसलिए वे 'पर्वबीज' कहलाते है । थूहर अश्वस्थ, कपित्थ (व) आदि के स्कंध ही बीज है इसलिए कंपनी का शानि गेहूं आदि मूल बीजरूप में ही हैं। वे 'बीज' कहलाते हैं। सूत्र ८ : १- (क) जि० चू० पृ० १३६ पुढो सत्ता नाम पुढविक्कमोदएण सिलेसेण वट्टिया वट्टी पिहप्पिह चडवत्थियत्ति वृत्तं भवइ । (ख) हा० डी० ए० १२८ अंगुलाये भागमात्रायाना पारमाविश्याऽनेकजीवसमाथितेति भावः । २ अन्ययोगव्याधिशिका इलो० २४ । • ३ - ( क ) अ० चू० पृ० ७५ : कोरेंटगादीणि अग्गाणि रूप्पति ते अग्गबीता । (ख) जि० चू० पृ० १३८ अग्गजीया नाम अगं बीयाणि जेसि ते अग्गबीया जहा कोरेंटगादी, तेसि अग्गाणि रूप्पंति । (ग) हा० टी० प० १३६ : अग्र बीजं येषां ते अग्रबीजा: कोरण्टकादयः । ४ – (क) अ० चू० पृ० ७५ : कंदलिकंदादि मूलबीया । (ख) जि० चू० पृ० १३८ : मूलबीया नाम उपलकंदादी । (ग) हा० टी० प० १३६ मूलं बीजं येषां ते मूलबीज- - उत्पलकंदादयः । ५ -- ( क ) अ० चू० पृ० ७५ : इक्खुमादि पोरबीया । (ख) जि०० पू० १३८ पोरबीया नाम उमादी (ग) हा० टी० प० १३६ : पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा - इक्ष्वादयः । ६ - ( क ) अ० चू० पृ० ७५ णिहूमादी खंधवीया । (ख) जि० ० ० १३८ संथवीपा नाम अस्सोत्थकविलानिमायी । (ग) हा० टी० प० १३६ : स्कंधो बीजं येषां ते स्कंधबीजाः – शल्लक्यादयः । ७ (क) अ० चू० पृ० ७५: सालिमादी बीयरुहा । (च) ० ० ० १३८ बीरा नाम सालीजीहीमादी। (ग) हा० टी० ५० १३६ : बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः - शाल्यादयः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १७. सम्मूच्छिम ( सम्मुद्धिमा) पद्मिनी, तृण आदि जो प्रसिद्ध बीज के बिना केवल पृथ्वी, पानी आदि कारणों को प्राप्त कर उत्पन्न होते हैं ये 'सम्मूण्टिम' कहलाते हैं। सम्मूमि नहीं होते हैं ऐसी बात नहीं है वे दग्य भूमि में भी उत्पन्न हो जाते हैं। १८. तृण ( तण ) : घास मात्र को तृण कहा जाता है। दूब, काश, नागरमोथा, कुश अथवा दर्भ, उशीर आदि प्रसिद्ध घास हैं । 'तृग' शब्द के द्वारा सभी प्रकार के तृणों का ग्रहण किया गया है। १२७ १६. लता ( लया ) : पृथ्वी पर या किसी बड़े वृक्ष पर लिपटकर ऊपर फैलने वाले पौधे को लता कहा जाता है। 'लता' शब्द के द्वारा सभी लताओं का ग्रहण किया गया है । २०. बीजपर्यन्त (सबीया ) , वनस्पति के दस प्रकार होते हैं मूल, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । मूल की अंतिम परिणति बीज में होती है इसलिए 'स-बीज' शब्द वनस्पति के इन दसों प्रकारों का संग्राहक है । इसी सूत्र (८.२ ) में 'सबीयग' शब्द के द्वारा वनस्पति के इन्हीं दस भेदों को ग्रहण किया गया है । शीलाङ्कसूरि ने 'सबीयग' शब्द के द्वारा केवल 'अनाज' का ग्रहण किया है । सूत्र ९ : २१. अनेक बहु प्रस प्राणी ( अगे बहवे तसा पाणा ) यस जीवों की द्वीन्द्रिय आदि अनेक जातियां होती हैं और प्रत्येक जाति में बहुत प्रकार के जीव होते हैं इसलिए उनके पीछे 'अनेक' और 'वह'- ये दो विशेष प्रयुक्त किए हैं। इनमें उच्छवासादि विद्यमान होते हैं अतः ये प्राणी कहलाते है। २- जि० अध्ययन ४ सूत्र ९ टि० १७-२१ १ (क) अ० ० ० ७५ परमिणिमादी उदगडविसिनेहसंमुच्छणा समुच्छिमा (ख) जि० पू० पृ० १३ मा नाम जे विणा वीण पुढविवरिसादीनि कारणानि पप्प उट्ठति । (ग) हा० टी० प० १४० : संमूर्च्छन्तीति संमूच्छिमाः - प्रसिद्ध बीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः, न न संभवन्ति, दग्धभूमावपि संभवात् । ० चू० पृ० १३८ : तत्थ तणग्गणेण तणभेया गहिया । जि० ० चू० पृ० १३८ : लतागहणेण लताभेदा गहिया । ४ – (क) जि० ० चू० पृ० (ख) अ० चू० पृ० ५० ० ० २७४ ७५: सबीया इति बीयावसाणा दस वनस्सतिभेदा संगहतो दरिसिता । सीय मूलकन्दादिबीयप जनसागरस पुस्वभरि सपगारस्स बफतिणो गहणं । ६-- सू० १.६.८ टी० प० १७६ : 'पुढवी उ अगणी वाऊ, तणरुषख सबीयगा' सह बीजवर्तन्त इति सबीजा:, बीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि । १३८ : सबियग्गहणेण एतस्स चेव वणस्सइकाइयस्स बीयपज्जवसाणा दस भेदा गहिया भवंति - तं जहा मूले कंदे खंधे तथा य साले तहृप्पवाले य । पत्ते पुष्के य फले बीए दसमे व नायव्वा ॥ ७ – (क) अ० ० पृ० ७७ : 'अणेगा' अनेग भेदा बेइन्दियादतो। 'बहवे' इति बहुभेदा जाति-कुलकोडि-जोणी-प मुहसत सहस्से ह पुणरवि संखेज्जा । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : अणेगे नाम एक्कंमि चेव जातिभेदे असंखेज्जा जीवा इति । (ग) हा० टी० ० १४१ धकेन्द्रियादिभेदेन बहवः एकैकस्यां जाती। ८ (क) अ० चू० पृ० ७७: 'पाणा' इति जीवाः प्राणंति वा निःश्वसंति वा । (ख) हा० टी० प० १४१: प्राणा-उच्छ्वासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १२८ 1 अध्ययन ४ : सूत्र ६ टि० २२-२७ बस दो प्रकार के होते हैं लब्धि त्रस और गति त्रस जिन जीवों में साभिप्राय गति करने की शक्ति होती है वे लब्धि- त्रस होते हैं और जिनमें अभिप्रायपूर्वक गति नहीं होती, केवल गति मात्र होती है, वे गति त्रम कहलाते हैं। अग्नि और बाउ को सूत्रों में त्रस कहा है पर वे गतिम हैं। जिन्हें उदार त्रस प्राणी कहा है ये सब्धि त्रस है । प्रस्तुत सूत्र में त्रस के जो लक्षण बतलाए हैं वे लब्धि-स के हैं। २२. अण्डज ( अंडया ) : अण्डों से उत्पन्न होने वाले मयुर आदि अण्डज कहलाते हैं । २३. पोतज ( पोयया ) : 'पोत' का अर्थ शिशु है। जो शिशुरूप में उत्पन्न होते हैं, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, वे पोतज कहलाते हैं। हाथी, चर्म- जलौका आदि पोतज प्राणी है । २४. जरायुज ( जराश्या ) जन्म के समय में जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं वे जरायुज कहलाते हैं। भैंस, गाय आदि इसी रूप में उत्पन्न होते है जरायु का अर्थ गर्भ-वेष्टन या वही है जो की आवृत किए रहती है। २५. रसज ( रसया ) : छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म शरीरी जीव रसज कहलाते हैं । २६. संस्वेदज ( संसेइमा ) : पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल युका - जूं आदि जीव संस्वेदज कहलाते हैं । २७. सम्मुन सम्मा): बाहरी वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले शलभ, चींटी, मक्खी आदि जीव सम्मूच्छेनज कहलाते हैं। सम्मूच्छिम मातृपितृहीन प्रजनन है । यह सर्दी, गर्मी आदि बाहरी कारणों का संयोग गाकर उत्पन्न होता है । सम्मूच्छेन का शाब्दिक अर्थ है - घना होने, १---ठा० ३.३२६ : तिविहा तसा प० सं० तेउकाइया वाउकाइया उराला तसा पाणा । २ (क) अ० ० पृ० ७७: अण्डजाता 'अण्डजा' मयूरादयः । (ख) जि० चू० पृ० १३६ : अंडसंभवा अंडजा जहा हंसमयूरायिणो । पक्षिगृहकोकिलादयः । (ग) हा० डी० १० १४१ ३ - - (क) अ० चू० पृ० ७७ : (ख) जि० चू० पृ० १३६ (ग) हा० टी० प० १४१ ४ पोतमिव सूयते 'पोतजा' वल्गुलीमादयः । पोतया नाम वग्गुलीमाइणो । पोता एव जायन्त इति पोतजाः - (क) अ० चू० पृ० (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० ५ (क) अ० चू० पृ० ७७ (ख) जि० चू० पृ० १४० (ग) हा० टी० प० १४१ ६ (क) अ० चू० पृ० ७७: 'संस्वेदजा' यूगादतः । (ख) जि० खू० पृ० १४०: (ग) हा० टी० १० १४१ ७- (क) ५० पू० पृ० ७७ (ख) जि० ० चू० पृ० १४० (च) हा० डॉ० पं० १४१ : ७७: जराउवेढिता जायंती 'जराउजा ' गवादयः । १३६-४० : जराउया नाम जे जरवेढिया जायंति जहा गोमहिसादि । १४१: जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजा - गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः । ते च हस्तीवल्गुलीचमंजलोकाप्रभृतयः । रसा ते भवंति रसजा, तत्रादौ सुहुमसरीरा । रसया नाम तक्कंबिलमाइसु भवंति । रसाज्जाता रसजा:- तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति । संसेयणा नाम जुयादी । संस्वेदान्ता इति संस्वेदजामत्कुणयुकाशतपदिकादयः । सम्मुखमा कसरि मच्छिकादतो भवति । समुच्छिमा नाम करीसादिसमुच्छिया । गाज्जाता संमूर्च्छनाइलन पिपीलिकामक्षिकाशाकादयः । - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका) १२६ अध्ययन ४: सूत्र ६ टि० २८-३० बढ़ने या फैलने की क्रिया। जो जीव गर्भ के बिना उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं और फैलते हैं वे 'सम्मूछेनज' या सम्मच्छिम कहलाते हैं । वनस्पति जीवों के सभी प्रकार सम्मूच्छिम' होते हैं। फिर भी उत्पादक अवयवों के विवक्षा-भेद से केवल उन्हीं को सम्मूच्छिम कहा गया है जिनका बीज प्रसिद्ध न हो और जो पृथ्वी, पानी और स्नेह के उचित योग से उत्पन्न होते हों। इसी प्रकार रसज, संस्वेदज और उद्भिज ये सभी प्राणी 'सम्मूच्छिम' हैं। फिर भी उत्पत्ति की विशेष सामग्री को ध्यान में रख कर इन्हें 'सम्भूच्छिम' से पृथक् माना गया है । चार इन्द्रिय तक के सभी जीव सम्मूच्छिम ही होते हैं और पञ्चेन्द्रिय जीव भी सम्मच्छिम होते हैं। इसकी योनि पृथक-पृथक होती है जैसे पानी की योनि पवन है, घास की यो नि पृथ्वी और पानी है। इसमें कई जीव स्वतंत्र भाव से उत्पन्न होते हैं और कई अपनी जाति के पूर्वोत्पन्न जीवों के संसर्ग से । ये संसर्ग से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज समझे जाते हैं। किन्तु वास्तव में गर्भज नहीं होते। उन में गर्भज जीव का लक्षण –मानसिक ज्ञान नहीं मिलता। सम्मूच्छिम और गर्भज जीवों में भेद करने वाला मन है। जिनके मन होता है वे गर्भज और जिनके मन नहीं होता वे सम्मूच्छिम होते हैं। २८. उद्भिज ( उभिया): पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंग, खजरीट (शरद् ऋतु से शीतकाल तक दिखाई देने वाला एक प्रसिद्ध पक्षी) आदि उद्भिज्ज या उद्भिज कहलाते हैं । छान्दोग्य उपनिषद् में पक्षी आदि भूतों के तीन बीज माने हैं -अण्डज, जीवज और उद्भिज्ज। शाङ्कर भाष्य में 'जीवज' का अर्थ जरायुज किया है। स्वेदज और संशोकज का यथासम्भव अण्डज और उद्भिज्ज में अन्तर्भाव किया है । उद्भिज्ज —जो पृथ्वी को ऊपर की ओर भेदन करता है उसे उद्भिद् यानी स्थावर कहते हैं, उससे उत्पन्न हुए का नाम उद्भिज्ज है, अथवा धाना (बीज) उद्भिद् है उससे उत्पन्न हुआ उद्भिज्ज स्थावर बीज अर्थात् स्थावरों का बीज है। ऊष्मा से उत्पन्न होने वाले बीजों को संशोकज माना गया है । जैन-दृष्टि से इसका सम्मूच्छिम में अन्तर्भाव हो सकता है। २६. औपपातिक ( उववाइया ) : उपपात का अर्थ है - अचानक घटित होने वाली घटना । देवता और नारकीय जीव एक मुहुर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं इसीलिए इन्हें औपपातिक - अकस्मात् उत्पन्न होने वाला कहा जाता है। इनके मन होता है इसलिए ये सम्मूच्छिम नहीं हैं। इनके माता-पिता नहीं होते इसलिए ये गर्भज भी नहीं हैं। इनकी औत्पत्तिक-योग्यता पूर्वोक्त सभी से भिन्न है इसलिए इनकी जन्म-पद्धति को स्वतंत्र नाम दिया गया है। ऊपर में वर्णित पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यंत जीव स्थावर कहलाते हैं। त्रस जीवों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। जन्म के प्रकार की दृष्टि से जो वर्गीकरण होता है वही अण्डज आदि रूप हैं। ३०. सब प्राणी सुख के इच्छुक हैं ( सव्वे पाणा परमाहम्मिया ) : 'परम' का अर्थ प्रधान है। जो प्रधान है वह सुख है । 'अपरम' का अर्थ है न्यून । जो न्यून है वह दुःख है । 'धर्म' का अर्थ है १-(क) अ० चू० पृ० ७७ : 'उब्भिता' भूमि मिदिऊण निद्धावति सलभादयो। (ख) जि० चू० पृ० १४० : उब्भिया नाम भूमि भेत्तूणं पंखालया सत्ता उप्पज्जति । (ग) हा० टी० ५० १४१ : उद्भेदाज्जन्म येषां ते उभेदाः, अथवा उभेदनमुद्भित् उद्भिज्जन्म येषां ते उद्भिज्जाः- पतङ्ग ___ खञ्जरीटपारिप्लवादयः । २-छान्दो० ६.३.१ : तेषां खल्वेषां भूतानां त्रीण्येव बीजानि भवन्त्यण्डजं जीवजमुद्धिज्जमिति । ३--वही, शाङ्कर भाष्य-जीवाज्जातं जीवजं जरायुजमित्येतत्पुरुषपश्वादि । ४- वही, स्वेदजसंशोकजयोरण्डजोद्भिज्जयोरेव यथासंभवमन्तर्भावः । ५-वही, उद्भिज्जमुद्भिनत्तीत्युद्भित्स्थावरं ततो जातमुद्भिज्जधानावोद्धित्त तो जायत इत्युद्भिज्जं स्थावरबीजं स्थावराणां बीजमित्यर्थः"। ६-(क) अ० चू० पृ० ७७ : 'उववातिया' नारग-देवा। (ख) जि० चू० पृ० १४० : उववाइया नाम नारगदेवा । (ग) हा० टी०प०१४१ : उपपाताज्जाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका–देवा नारकाश्च । Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १३० अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३१ स्वभाव । परम जिनका धर्म है अर्थात् सुख जिनका स्वभाव है वे परम-धार्मिक कहलाते हैं। दोनों चूणियों में 'पर-धम्मिता' ऐसा पाठान्तर है। एक जीव से दूसरा जीव 'पर' होता है। जो एक का धर्म है वही पर का है --दूसरे का है । सुख की जो अभिलाषा एक जीव में है वही पर में है— शेष सब जीवों में है । इस दृष्टि से जीवों को 'पर-धार्मिक' कहा जाता है। धूर्णिकार 'सव्वे' शब्द के द्वारा केवल त्रस जीवों का ग्रहण करते हैं। किन्तु टीकाकार उसे त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों का संग्राहक मानते हैं। ___ सुख की अभिलाषा प्राणी का सामान्य लक्षण है। त्रस और स्थावर सभी जीव सुखाकांक्षी होते हैं। इसलिए 'परमाहम्मिया' केवल वस जीवों का ही विशेषण क्यों ? यह प्रश्न होता है । टीकाकार इसे त्रस और स्थावर दोनों का विशेषण मान उक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं । किन्तु वहाँ एक दूसरा प्रश्न और खड़ा हो जाता है। वह यह है-प्रस्तुत सूत्र में बस जीवनिकाय का निरूपण है। इसमें बस जीवों के लक्षण और प्रकार बतलाए गए हैं। इसलिए यहाँ स्थावर का संग्रहण प्रासंगिक नहीं लगता। इन दोनों बाधाओं को पार करने का एक तीसरा मार्ग है । उसके अनुसार 'पाणा परमाहम्मिया' का अर्थ वह नहीं होता, जो चूर्णिकार और टीकाकार ने किया है । यहाँ 'पाणा' शब्द का अर्थ मातंग और 'परमाहम्मिया' का अर्थ परमाधार्मिक देव होना चाहिए। जिस प्रकार तिर्यग-योनिक, नैरयिक, मनुष्य और देव ये वस जीवों के प्रकार बतलाये हैं, उसी प्रकार परमाधार्मिक भी उन्हीं का एक प्रकार है। परमाधार्मिकों का शेष सब जीवों से पृथक् उल्लेख आवश्यक' और उत्तराध्ययन आगम में मिलता है। बहुत संभव है यहां भी उनका और सब जीवों से पृथक् उल्लेख किया गया हो। 'पाणा परमाहम्मिया' का उक्त अर्थ करने पर इसका अनुवाद और पूर्वापर संगति इस प्रकार होगी-सब मनुष्य और सब मातंग स्थानीय परमाधार्मिक हैं--वे बस हैं। सूत्र १० : ३१. इन (इच्चेसि): 'इति' शब्द का व्यवहार अनेक अर्थों में होता है। प्रस्तुत व्याख्याओं में प्राप्त अर्थ ये हैं ... हेतु ... वर्षा हो रही है इसलिए दौड़ रहा है । इस प्रकार--ब्रह्मवादी इस प्रकार कहते हैं । आमंत्रण -- 'धम्मएति' हे धार्मिक, 'उबएसएति' हे उपदेशक ! परिसमाप्ति ---इति खलु समणे भगवं महावीरे। प्रकार । उप-प्रदर्शन--पूर्व वृत्तान्त या पुरावृत्त को बताने के लिए - - इच्चेये पंचविहे ववहारे-ये पाँच प्रकार के व्यवहार हैं। १...- (क) अ० चू० पृ० ७७ : सब्वेपाणा ‘परमाहम्मिया' । परमं पहाणं, तं च सुहं । अपरमं ऊणं तं पुण दुक्खं । धम्मो सभावो । परमो धम्मो जेसि ते परमधम्मिता। यदुक्तम्---सुखस्वभावाः । (ख) जि० चू० पृ १४१ : परमाहम्मिया नाम अपरमं दुक्खं परमं सुहं भण्णई, सब्वे पाणा परमाधम्मिया-सुहाभिक खिणोत्ति वुत्तं भवई। (ग) हा० टी० ५० १४२ : परमधर्माण इति—अत्र परमं - सुखं तद्धर्माणः सुखधर्माणः -- सुखाभिलाषिण इत्यर्थः । २-(क) अ० चू० पू० ७७ : पाठविसेसो परधम्मिता-परा जाति जाति पडुच्च सेसा–जो त परेसि धम्मो सो तेसिं, जहा एगस्स अभिलासप्रीतिप्पभितीणि संभवंति तहा सेसाण वि अतो परधम्मिता। (ख) जि० ० पृ० १४१ : अहवा एयं सुत्तं एवं पढिज्जइ 'सव्वे पाणा परधम्मिता' इक्किक्कस्स जीवस्स सेसा जीवसेदा परा, ते य सव्वे सुहाभिकंखिणोत्ति वुत्तं भवति, जो तेसि एक्कस्स धम्मो सो सेसाणंपित्तिकाऊण सव्वे पाणा परमाहम्मिया। ३—(क) जि० चू० पृ० १४१ : सव्वे तसा भवंति । (ख) हा० टी० प० १४२ : 'सर्वे प्राणिनः परमधर्माण' इति सर्व एते प्राणिनी ---द्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च । ४--पाइ० ना० १०५ : मायंगा तह जणंगमापाणा। ५-सम० १५ टीका प० २६ : तत्र परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्टपरिणामत्वात्परमाधामिका:-असुरविशेषाः । ६-आव० ४.६ : चउद्दसहि भूय-गामेहि, पन्नरसहि परमाहम्मिएहि । ७-उत्त० ३१.१२ : किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥ Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १३१ अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३२-३३ अगस्त्यसिंह के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण में 'इति' शब्द का प्रयोग 'प्रकार' अथवा 'हेतु' के अर्थ में हुआ है । जिनदास महत्तर के अनुसार उसका प्रयोग उप-प्रदर्शन के अर्थ में और हरिभद्र सूरि के अनुसार हेतु के अर्थ में हुआ है। 'इच्चेतेहि छहिं जीवनिकाएहि' अगस्त्यसिंह स्थविर ने यहाँ सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति मानी है। टीकाकार को 'इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं' यह पाठ अभिमत है और उनके अनुसार यहाँ सप्तमी विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। ३२. दंड-समारम्भ ( दंडं समारंभेज्जा): अगस्त्य चुणि में 'दंड' का अर्थ शरीर आदि का निग्रह--दमन करना किया है। जिनदास चुणि और टीका में इसका अर्थ संघट्टन, परितापन आदि किया है। कौटिल्य ने इसके तीन अर्थ किए हैं : वध प्राणहरण, परिक्लेश बन्धन, ताड़ना आदि से क्लेश उत्पन्न करना और अर्थ-हरण-धनापहरण । _ 'दण्ड' शब्द का अर्थ यहाँ बहुत ही व्यापक है । मन, वचन और काया की कोई भी प्रवृत्ति जो दुःख-जनक या परिताप-जनक हो वह दण्ड शब्द के अन्तर्गत है । समारम्भ का अर्थ है करना। ३३. यावज्जीवन के लिए (जावज्जीवाए) 'यावज्जीवन' अर्थात् जीवन-भर के लिए । जब तक शरीर में प्राण रहे उस समय तक के लिए। हरिभद्र सूरि के अनुसार 'इच्चेसि ......न समण जाणेज्जा' तक के शब्द आचार्य के हैं । जिनदास महत्तर के अनुसार 'इच्चेसि......तिविहं तिबिहेणं' तक के शब्द आचार्य के हैं। १-(क) अ० ५० ५० ७८ : इतिसद्दो अगत्थो अस्थि, हेतौ-वरिसतीति धावति, एवमत्थो - इति 'ब्रह्मवादिनो' वदंति, आद्यर्थे- इत्याह भगवां नास्तिकः, परिसमाप्तौ-अ अ इति, प्रकारे-इति बहुविह-मुक्खा । इह इतिसद्दो प्रकारे--- पुढविक्कातियादिसु किन्हमट्टितादिप्रकारेसु, अहवा हेतौ-जम्हा परधम्मिया सुहसाया दुःखपडिकूला। 'इच्चेतेसु', एतेसु अणंतराणुलकंतं पच्चक्खमुपदंसिज्जति । (ख) जि. चू० पृ० १४२ : इतिसद्दो अणेगेसु अत्थेसु बट्टइ, तं -आमंतणे परिसमत्तीए उबप्पदरिसणे य, आमलणे जहा धम्म एति वा उवएसएति वा एवमादी, परिसमत्तीए जहा इति खलु समणे भगवं ! महावीरे' एयमादी, उबप्पदरिसणे जहा 'इच्चेए पंचविहे बवहारे' एत्थ पुण इच्चेतेहिं एसो सद्दो उवप्पदरिसणे दढब्बो, कि उवप्पदरिसति ?, जे एते जीवाभि गमस्स छ भेया भणिया। (ग) हा० टी० ५० १४३ : 'इच्चेसि' इत्यादि, सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना । २-अ० चू० पृ० ७८ : हिंसद्दो सप्तम्यर्थतेव । ३-(क) अ० चू० पृ० ७८ : 'एतेहि हि जीवनिकाएहि । (ख) हा० टी० ५० १४३ : ‘एतेषां षण्णां जीवनिकायाना' मिति, सुपां सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी। ४-अ० चू० पृ० ७८ : दंडोसरीरादिनिग्गहो। ५--जि० चू० पृ० १४२ : दंडो संघट्टणपरितावणादि । ६-हा० टी० ५० १४३ : 'दण्ड' संघट्टनपरितापनादिलक्षणम् । ७-कौटिलीय अर्थ० २.१०.२८ : वधःपरिक्लेशोऽर्थहरणं दण्ड इति (व्याख्या)-वधो व्यापादन, परिक्लेशो बन्धनताडनादिभिर्दुःखो त्पादनम्, अर्थ-हरणं धनापहारः, इदं त्रयं दण्डः । ८-(क) अ० चू० पृ० ७८ : असमारंभकालावधारणमिदम् -- 'जावज्जीवाए' जाव पाणा धारंति । (ख) जि० चू० पृ० १४२ : सीसो भणइ-केचिरं कालं ?, आयरिओ भणइ-जावजीवाए, ण उ जहा लोइयाणं विन्नवओ होऊण पच्छा पडिसेवइ, किन्तु अम्हाणं जावजीवाए बट्टति । (ग) हा० टी० ५० १४३ : जीवनं जीवा यावज्जीवा यावज्जीवम् ---अप्राणोपरमात् । -हा० टी०प० १४३ : 'न समनुजानीयात्' नानुमोदयेदिति विधायकं भगवद्व वनम् । १०-जि० चू० १० १४२-४३ : आयरिओ भणइ-जावजीवाए......तिविहं तिविहेणं'ति सयं मणसान चितयइ....."हत्थुक्खेवं न करे। Jain Education Intemational Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) ३४. तीन करण तीन योग से ( तिविहं तिविहेणं ) : क्रिया के तीन प्रकार हैं- करना, कराना और अनुमोदन करना। इन्हें योग कहा जाता है । त्रिया के साधन भी तीन होते हैंमन, वाणी और शरीर । इन्हें करण कहा जाता है । स्थानांग में इन्हें योग, प्रयोग और करण कहा है।" हरिभद्रसूरि ने 'विविध' से कृत, कारित और अनुमति का तथा 'त्रिविधेन' से मन, वाणी और शरीर इन तीन करणों का ग्रहण किया है । यहाँ अगस्त्यसिंह मुनि की परम्परा दूसरी है । वे 'तिविहं' से मन, वाणी और शरीर का तथा 'तिविहेणं' से कृत, कारित और अनुमति का ग्रहण करते हैं । इसके अनुसार कृत, कारित और अनुमोदन को करण तथा मन, वाणी और शरीर को योग कहा जाता है । आगम की भाषा में योग का अर्थ है-मन, वाणी और शरीर का कर्म । साधारण दृष्टि से यह किया है किन्तु जितना भी किया जाता है, कराया जाता है और अनुमोदन किया जाता है उसका साधन मन, वाणी और शरीर ही है । इस दृष्टि से इन्हें करण भी कहा जा सकता है। जहाँ त्रिया और त्रिया के हेतु की अभेद-विवक्षा हो वहाँ ये क्रिया या योग कहलाते हैं और जहाँ उनकी भेद-विवक्षा हो वहाँ ये करण कहलाते हैं । इसलिए इन्हें कहीं योग और कहीं करण कहा गया है । ३५. मन से, वचन से, काया से ( मणेणं वायए काएणं ) : मन, वचन और काया –कृत, कारित और अनुमोदन - इनके योग से हिंसा के नौ विकल्प बनते हैं । अगस्त्यसिह स्थविर ने उन्हें इस प्रकार स्पष्ट किया है जो दूसरे को मारने के लिए सोचे कि मैं इसे कैसे मारूँ ? वह मन के द्वारा हिंसा करता है। वह इसे मार डाले - ऐसा सोचना मन के द्वारा हिंसा कराना है। कोई किसी को मार रहा हो - उसने सन्तुष्ट होना - राजी होना मन के द्वारा हिंसा का अनुमोदन है । वैसा बोलना जिससे कोई दूसरा मर जाए – वचन से हिंसा करना है। किसी को मारने का आदेश देना वचन से हिंसा कराना है । अच्छा मारा यह कहना वचन से हिंसा का अनुमोदन है । स्वयं किसी को मारे-यह कायिक हिंसा है। हाथ आदि से किसी को मरवाने का संकेत करना काया से हिंसा कराना है । कोई किसी को मारे उसकी शारीरिक संकेतों से प्रशंसा करना- -काय से हिंसा का अनुमोदन है । 'मणेणं... ...न समरगुजाणामि' इन शब्दों में शिष्य कहता है - मैं मन, वचन, काया से पट्-जीवनिकाय के जीवों के प्रति दंड-समारंभ नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा" और न करने वाले का अनुमोदन करूँगा । ---- १३२ १-ठा० ३.१३-१५ : तिविहे जोगे-- मणजोगे, वतिजोगे, कायजोगे । तिविहे पओगे मणपओगे, वतिपओगे, कायपओगे 1 तिविहे करणे मणकरणे, वतिकरणे, कायकरणे 1 २- हा० टी० प० १४३ : 'त्रिविधं त्रिविधेने ति तिस्रो विधा विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः, दण्ड इति गम्यते, तं त्रिविधेन करणेन, एतदुपन्यस्यति मनसा वाचा कायेन । ३- अ० ० पृ० ७८ तिविहंति मणो वयण-कातो तिविहेणं ति करण-कारावणा अणुमोपणाणि । अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३४-३५ ४ भगवती जोड़ श० १५ दु० १११-११२ : अथवा तिविहेणं तिकी, त्रिविध त्रिभेदे शुद्ध । करण करावण अनुमत, द्वितीय अर्थ अनिरुद्ध | त्रिकरण शुद्ध णं कह्यौ, मन, वच, काया जोय । ए तीनूई जोग तसूं, शुद्ध करो अवलोय ॥ ५ -- (क) अ० चू० पृ० ७८ : मणेण दंडं करेति-सयं मारणं चिन्तयति कहमद्दं मारेज्जामि, मणेण कारयति जदि एसो मारेज्जा, मणसा अणुमोदति मारेंतस्स तुस्सति वायाए पाणातिवातं करेति तं भणति जेण अद्धितीए मरति, वायाए कारेति – मारणं संदिसति वायाए अणुमोदति - सुटठु हतो; कातेण मारेति सयमाहणति काएण कारयति पाणिप्पहारादिणा कारणाणुमोदति मारते हो डकादिना पसंसति । , (ख) जि० चू० पू० १४२-१४३ : सयं मणसा न चितयइ जहा वह्यामित्ति, वायाएव न एवं भणइ जहा एस वहेज्जउ, कायण सय न परिहणति, अन्नस्सवि णेत्तादीहिं णो तारिसं भावं दरिसयइ जहा परो तस्स माणसियं पाऊण सत्तोवद्यायं करेइ, यायाव संदेस न दे जहा तं पाहिति कावि गो हत्यादिना सोई जहा एवं मारवाहि पापि अयंद मणसा तुट्टि न करेइ, बायाएवि पुच्छिओ संतो अनुमइ' न देइ, काएणावि परेण पुच्छिओ संतो हत्थुक्खेवं न करेइ । ६ - हा० टी० प० १४३ : मनसा वाचा कायेन, एतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव, अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दण्डः । - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ३६. भंते ( भंते ) : यह गुरु का सम्बोधन है। टीकाकार ने इसके संस्कृत रूप तीन दिए हैं- भदन्त भवान्त और भयान्त' । व्रत ग्रहण गुरुके साक्ष्य से होता है । इसलिए शिष्य गुरु को सम्बोधित कर अपनी भावना का निवेदन करता है । इस सम्बोधन की उत्पत्ति के विषय में घूर्णिकार कहते हैं : गणधरों ने भगवान से अर्थ सुन कर व्रत ग्रहण किये । उस समय उन्होंने 'भंते' शब्द का व्यवहार किया। तभी से इसका प्रयोग गुरु को आमन्त्रण करने के लिए होता आ रहा है । १३३ ३७. अतीत में किये ( तस्स) गत काल में दण्ड-समारम्भ किये हैं उनसे । सम्बन्ध या अवयव में षष्ठी का प्रयोग है । ३८. निवृत होता हूँ ( डिस्कमामि ) अकरणीय कार्य के परिहार की जैन प्रक्रिया इस प्रकार है- अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान का संवरण और अनागत का प्रत्याख्यान । प्रतिक्रमण का अर्थ है अतीतकालीन पाप कर्म से निवृत्त होना । अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३६-३६ ३२. निन्दा करता है, ग करता हूँ (नियामि गरिहामि ) निन्दा का अर्थ आत्मालोचन है । वह अपने-आप किया जाता है। दूसरों के समक्ष जो निन्दा की जाती है । उसे गर्दा कहा जाता है । हरिभद्रसूरि ने निन्दा तथा गर्दा में यही भेद बताया है। पहले जो अज्ञान भाव से किया हो उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप से हृदय मैं दाह का अनुभव करना जैसे मैंने बुरा किया, बुरा कराया, बुरा अनुमोदन किया वह निन्दा है ग का अर्थ है-भूत, वर्तमान और आगामी काल में न करने के लिए उद्यत होना । १ – (क) जि० चू० पृ० १४३ : 'भंते ! 'त्ति भयवं भावान्त एवमादी भगवतो आमंतणं । (ख) हा० टी० प० १४४ : भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम्, भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा श्रुतिः । (ग) अ० चू० पृ० ७८ भंते ! इति भगवतो आमंतणं । (ख) २- हा० टी० प० १४४ : एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थम् । ३ - (क) अ० चू० पृ० ७८ : गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए एवमाहु-तस्स भंते० । जहा जे वि इमम्मि काले ते पिबताई पडिवज्जमाणा एवं भणति तस्स भंते ! जि० ० चू० पृ० १४३ : गणहरा भगवओ सगासे अत्थं सोऊण वताणि पडिवज्ज माणा एवमाह । ४ - हा० टी० प० १४४ : तस्येत्यधिकृतो दण्डः सम्बध्यते, सम्बन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी । ५ ( क ) ० ० १०७८ पडिस्कमामि प्रतीचं प्रमामि जियामि । - । (ख) जि० चू० पृ० १४३ : पडिक्कमामि नाम ताओ दंडाओ नियत्तामित्ति वुतं भवइ । (ग) हा० टी० प० १४४ : योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य संबंधिनमतीतमवयवं प्रतिक्रामामि न वर्तमानमनागतं वा, प्रतिक्रामामीति भूताद्दण्डान्निवर्तेऽह अतस्यैव प्रतिक्रमणात् प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति । मित्युक्तं भवति, तस्माच्च निमिविरमणमिति । ६ हा० टी० ५० १४४ शिन्दानि गहमी ति अत्रात्मसाक्षिकी निग्या परसाक्षिकी यह जुगुप्सोव्यते । ७ -- ( क ) अ० चू० पृ० ७८ : जं पुव्वमण्णाणेण कतं तस्स णिदामि " णिदि कुत्सायाम् इति कुत्सामि । गरहामि' 'गहुँ परिभाषणे' इति पगासीकरेमि । (ख) जि० [० चू० पृ० १४३ : जं पुण पुव्विं अन्नाणभावेण कयं तं विदामिना । हा 1 कप हा ! दुकारि अणुमयपि हा दृछु । अतो-तो उस हिप पच्छातवेग 'गरिहानि' नाम तिविहं सीतानागतवट्टमागे काले अकरणयाए अभुमि । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवनिया ( षड्जीवनिका ) ४०. आत्मा का उत्सर्ग करता हूँ ( अप्पाणं योसिरामि ) : आत्मा हे या उपादेय कुछ भी नहीं है । उसकी प्रवृत्तियाँ हेय या उपादेय बनती हैं। साधना की दृष्टि से हिंसा आदि असत्प्रवृतियाँ जिनसे आत्मा का बन्धन होता है, हेय हैं और अहिंसा आदि सत्प्रतियां एवं संवर उपादेय हैं। १३४ साधक कहता है - मैं अतीत काल में असत् प्रवृत्तियों में प्रवृत्त आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ अर्थात् आत्मा की असत्प्रवृत्ति का त्याग करता हूँ' । प्रश्न किया जा सकता है कि अतीत के दण्ड का ही यहाँ प्रतिक्रमण यावत् व्युत्सर्ग किया है अतः वर्तमान दण्ड का संवर और अनागत दण्ड का प्रत्याख्यान यहाँ नहीं होता । टीकाकार इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- ऐसी बात नहीं है । 'न करोमि' आदि से वर्तमान के संवर और भविष्यत् के प्रत्याख्यान की सिद्धि होती है । अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ४० 'तस्स भंते‘''वोसिरामि' दण्ड समारंभ न करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करने के बाद शिष्य जो भावना प्रकट करता है वह उपर्युक्त शब्दों में व्यक्त है । सूत्र ४-६ में पजीवनिकायों का वर्णन है। प्रस्तुत अनुच्छेद में इन पट्-वीवनिकायों के प्रति दण्ड-समारंभ के प्रत्याख्यान का उल्लेख है। यह क्रम आकस्मिक नहीं पर सम्पूर्णतः वैज्ञानिक और अनुभव है जिसको जीवों का ज्ञान नहीं होता, उनके अस्तित्व में श्रद्धा-विश्वास नहीं होता, वह व्यक्ति जीवन व्यवहार में उनके प्रति संयमी, अहिसक अथवा चारित्रवान नहीं हो सकता । कहा है- "जो जिन प्ररूपित पृथ्वीकायादि जीवों के अस्तित्व में श्रद्धा नहीं करता वह पुण्य-पाप से अनभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य नहीं होता । जिसे जीवों में श्रद्धा होती है वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य होता है ।" व्रत ग्रहण के पूर्व जीवों के ज्ञान और उनमें विश्वास की कितनी आवश्यकता है, इसको बताने के लिए निम्नलिखित दृष्टान्त मिलते है : १ - जैसे मलिन वस्त्र पर रंग नहीं चढ़ता और स्वच्छ वस्त्र पर सुन्दर रंग चढ़ता है, उसी तरह जिसे जीवों का ज्ञान नहीं होता, जिसे उनके अस्तित्व में शंका होती है वह अहिंसा आदि महाव्रतों के योग्य नहीं होता । जिसे जीवों का ज्ञान और उनमें श्रद्धा होती है वह उपस्थापन के योग्य होता है और उसी के व्रत सुन्दर और स्थिर होते हैं । २ - जिस प्रकार प्रासाद - निर्माण के पूर्व भूमि को परिष्कृत कर देने से भवन स्थिर और सुन्दर होता है और अपरिष्कृत भूमि पर असुन्दर और अस्थिर होता है, उसी तरह मिथ्यात्व की परिशुद्धि किये बिना व्रत ग्रहण करने पर व्रत टिक नहीं पाते । ३ – जिस तरह रोगी को औषधि देने के पूर्व उसे वमन विरेचन कराने से औषधि लागू पड़ती है, उसी तरह जीवों के अस्तित्व में श्रद्धा रखते हुए जो व्रत ग्रहण करता है उसके महाव्रत स्थिर होते हैं । सारांश यह है - जो जीवों के विषय में कहा गया है, उसे जानकर, उसकी परीक्षा कर मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदित रूप से जो षटू-जीवनिकाय के प्रति दण्ड-समारम्भ का परिहार करता है वही चारित्र के योग्य होता है । कहा है-शोषित सिष्य को प्रतारोहण नहीं कराना चाहिए, शोभित को कराना चाहिए। अशोधित को कराने से १ (क) अ० चू० पृ० ७८ : अप्पाणं सव्वसत्ताणं दरिसिज्जए, वोसिरामि विविहेहि प्रकारेहिं सव्वावत्थं परिच्चयामि । दंडसमारंभपरिहरणं चरितधम्मप्पमुहमिदं । २० टी० ० १४४ (ख) हा० टी० प० १४४ 'आत्मानम्' अतीतदण्डकारणमश्लाध्यं युत्तृजाबी'ति विविधार्थी विशेषायों या विशब्दः उच्यन्दो भृशार्थः सृजामीति -त्यजामि ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । पदेषमतीतदण्डप्रतित्रमण मात्र मदश्ययं न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्यात्यानं चेति मं तदेवं न करोमीत्यादिना तदुभवसिद्ध रिति । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १३५ अध्ययन ४ : सूत्र ११ टि० ४१ गुरु को दोष लगता है। शोधित को व्रतारूढ़ कराने से अगर वह पालन नहीं करता तो उसका दोष शिष्य को लगता है, गुरु को नहीं लगता।" सूत्र ११ : इसके पूर्व अनुच्छेद में शिष्य द्वारा सार्वत्रिक रूप मे दण्ड-समारम्भ का प्रत्याख्यान किया गया है। प्राणतिपात, मृषा वाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह-ये प्राणियों के प्रति सूक्ष्म दण्ड हैं । इन वृत्तियों से दूसरे जीवों को परिताप होता है। प्रस्तुत तथा बाद के चार सूत्रों में प्राणातिपात आदि सूक्ष्म दण्डों के त्याग की शिष्य द्वारा स्वतंत्र प्रतिज्ञाएँ की गई हैं । ४१. पहले ( पढमे ) : सापेक्ष दृष्टि के अनुसार कोई वस्तु अपने आप में अमुक प्रकार की नहीं कही जा सकती। किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से ही वह उस प्रकार की कही जा सकती है। उदाहरणस्वरूप कोई वस्तु स्वयं में हल्की या भारी नहीं कही जा सकती। वह अन्य भारी वस्तु की अपेक्षा से ही हल्की और अन्य हल्की बस्तु की अपेक्षा से ही भारी कही जा सकती है। यहाँ जो 'पढमे' पहले शब्द का प्रयोग है वह १- (क) जि० चू० पृ० १४३-४४ : जो ऐसो दंडनिक्खेवो एवं महब्वयारुहणं तं किं सम्वेसि अविसेसियाणं महन्वयारुहणं कोरति उदाहो परिक्खिऊणं ?, आयरिओ भणइ -- जो इमाणि कारणाणि सद्द हइ, 'जीवे पुढविक्काए न सद्दहइ जे जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगयपुग्णपावो ण सो उवट्ठावणे जोगो ॥१॥ एवं आउक्काइए जीवे एवं जाव तसकाइए जीवे, एयारिसस्स पुण समारुभिज्जति, तं० ---'पुढविकाइए जीवे सद्दहइ जे जिणेहिं पण्णत्ते। अभिगतपुण्णपावो सो उवढावणाजोगो' ॥१॥ एवं आउक्काइए जीवे एवं जाव तप्तकाइए जीवे, अभिगतपुण्णपावो सो उवट्ठावणाजोगो, छज्जीवनिकाए पढियाए ताहे परिक्खिज्जइ, कि? - परिहरइण परिहरइत्ति, जइ परिहरइ तो उवट्ठाविज्जइ, इतरो न उवट्ठाविज्जति, कहं ?, जह मइलो पडो रंगिओ न सुंदरो भवइ सो, इयरो रंगिज्जमाणो सुंदरो भवइ, एवं जई असद्दहियाए छज्जीवणियाए उवट्ठाविज्जइ तो महवयाणि न धरेइ, सद्दहियाए छज्जीवणियाए उवद्वाविज्जमाणे थिरया भवंति सुदरो य भवइ, जहा वा पासादो कज्जमाणो जई कयवरं सोहित्ता कज्जइ तो सुदरो य थिरो य भवइ, असोहिए पुण अथिरो भवइ, एवं कयवरथाणीए मिच्छत्ते असोहिए उवढाविज्जइ तो महन्वयाणि न थिराणि भवंति, जहा आउरस्स ओसहं वियरिज्जई तं जड वमणविरेयणाणि काऊण दिज्जइ तो लग्गइ, एवं जइ सहहितादिसु उवट्ठाविज्जति ता धरेइ महत्वए असद्द हितासु अथिराणि भवति, जम्हा एते दोसा तम्हा पढियाए कहियाए सहहियाए परिक्खिते परिहरिए, अभिगते णाम जति अपव्वावणिज्जाणं णण्णतरो ण भवति ताहे विसुद्धो उबट्ठाविज्जति, तस्स य महन्वयाणि अर्भाणयाणि न णजंति तओ ताणि भषणंति । (ख) हा० टी० ५० १४५ : अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्त उपस्थापनाह इत्येतदाह, उक्तं च - पढिए य कहिय अहिगय परिहरउवठावणाइ जोगोत्ति । छवक तीहिं विसुद्ध परिहर णवएण भेदेण ॥१॥ पडपासाउरमादी दिट्ठता होंति वयसमारहणे । जह मलिणाइसु दोसा सुद्धाइसु णेव मिहईपि ॥ २ ॥ इत्यादि, एतेसि लेसुद्देसेण सोसहियट्ठयाए अत्यो भण्णइ-पढियाए सत्थपरिणाए दसकालिए छज्जीवणि काए वा, कहियाए अस्थओ, अभिगयाए संमं परिक्खिखऊण-परिहरइ छज्जीवणियाए मण वयणकाएहिं कयकारावियाणुमइभेदेण, तओ ठाविज्जइ, ण अन्नहा । इमे य इत्थ पड़ादी दिलैंता--मइलो पडो ण रंगिज्जइ सोहिओ रंगिज्जइ, असोहिए मूलपाए पासाओ ण किज्ज सोहिए किज्जइ, वमणाईहिं असोहिए आउरे ओसह न दिज्जइ सोहिए दिज्जइ, असंठविए रयणे पडिबन्धो न किज्जइ संठविए किज्जइ, एवं पढियकहियाईहि असोहिए सीसे ण वयारोवणं किज्जई, ''असोहिए य करणे गुरुणो दोसा, सोहियापालणे सिस्सस्स दोसो त्ति कयं पसंगेण। २-हा० टी० ५० १४४ : अयं चात्मप्रतिपत्त्य) दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषतः । पञ्चमहाव्रतरूपतयाऽप्यङ्गीकर्तव्य इति महावतान्याह । Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १३६ अध्ययन ४ : सूत्र ११ टि० ४२-४३ भी बाद के अन्य मृषावाद आदि की अपेक्षा से है। सूत्रक्रम के प्रमाण से पहला महाव्रत सर्व प्राणातिपातविरमण व्रत है । ४२. महाव्रत ( महत्वए): _ 'व्रत' का अर्थ है विरति । वह असत् प्रवृत्ति की होती हैं। उसके पांच प्रकार हैं--प्राणातिपात-विरति, मृषावाद-विरति, अदत्तादान-विरति, मैथुन-विरति और परिग्रह-विरति । अकरण, निवृत्ति उपरम और विरति-ये पर्यायवाची शब्द हैं । 'व्रत' शब्द का प्रयोग निवृत्ति और प्रवृत्ति- दोनों अर्थों में होता है । 'वषलान्नं व्रतयति' का अर्थ है वह शूद्र के अन्न का परिहार करता है। ‘पयो व्रतयति' -का अर्थ है कोई व्यक्ति केवल दूध पीता है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं खाता। इसी प्रकार असत्-प्रवृत्ति का परिहार और सत्प्रवृत्ति का आसेवन - इन दोनों अर्थों में व्रत शब्द का प्रयोग किया गया है । जो प्रवृत्ति निवृत्ति-पूर्वक होती है वही सत् होती है। इस प्रधानता की दृष्टि से व्रत का अर्थ उसमें अन्तहित होता है । व्रत शब्द साधारण है। यह विरति-मात्र के लिए प्रयुक्त होता है। इसके अणु और महान् --ये दो भेद विरति की अपूर्णता तथा पुर्णता के आधार पर किए गए हैं। मन, वचन और शरीर से न करना, न कराना और न अनुमोदन करना—ये नौ विकल्प हैं । जहाँ ये समग्र होते हैं वहाँ बिरति पूर्ण होती है। इनमें से कुछ एक विकल्पों द्वारा जो विरति की जाती है वह अपूर्ण होती है । अपूर्ण विरति अणुव्रत तथा पूर्ण विरति महाव्रत कहलाती है५ । साधु त्रिविध पापों का त्याग करते हैं अतः उनके व्रत महावत होते हैं। श्रावक के त्रिविधद्विविध रूप से प्रत्याख्यान होने से देशविरति होती है, अतः उनके व्रत अणु होते हैं। यहाँ प्राणातिपात-विरति आदि को महाव्रत और रात्रि-भोजन-विरति को व्रत कहा गया है । यह व्रत शब्द अणुव्रत और महाव्रत दोनों से भिन्न है। ये दोनों मूल-गुण हैं परन्तु रात्रि-भोजन मुल-गुण नहीं है । व्रत शब्द का यह प्रयोग सामान्य विरति के अर्थ में है । मूल-गुण-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह –पाँच हैं। महाव्रत इन्हीं की संज्ञा है। ४३. प्राणातिपात से विरमण होता है ( पाणाइवायाओ बेरमणं): इन्द्रिय, आयु आदि प्राण कहलाते हैं । प्राणातिपात का अर्थ है -प्राणी के प्राणों का अतिपात करना-जीव से प्राणों का विसंयोग १-(क) जि० चू० पृ० १४४ : पढमति नाम सेसाणि मुसावादादोणि पडुच्च एतं पढम भण्णइ । (ख) हा० टी०प०१४४ : सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमम् । (ग) अ० चू० पृ० ८० : पढमे इति आवेक्खिग, सेसाणि पडुच्च आदिल्लं, पढमे एसा सप्तमी, तम्मि उट्ठावणाधारविवक्खिगा। २--तत्त्वा० ७.१ : हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिवं तम् । ३-तत्त्वा० ७.१ भा० : अकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनन्तरम् । ४---तत्त्वा० ७.१ भा० सि० टी० : व्रतशब्दः शिष्टसमाचारात् निवृत्ती प्रवृत्तौ च प्रयुज्यते लोके । निवृत्ते चेद् हिंसातो विरतिः निवृत्तिव्रत, यथा-वृषलान्नं व्रतयति-परिहरति । वृषलान्नान्निवर्तत इति, ज्ञात्वा प्राणिनः प्राणातिपातादेनिवर्तते । केवलमहिसादिलक्षणं तु क्रियाकलापं नानुतिष्ठतीति तदनुष्ठानप्रवृत्त्यर्थश्च व्रतशब्दः । पयोव्रतयतीति यथा, पयोऽभ्यवहार एव प्रवर्तते नान्यत्रेति, एवं हिंसादिभ्यो निवृत्तः शास्त्रविहितक्रियानुष्ठान एव प्रवर्तते, अतो निवृत्तिप्रवृत्तिक्रियासाध्यं कर्मक्षपणमिति प्रतिपादयति । ." प्राधान्यात् तु निवृत्तिरेव साक्षात् प्राणातिपातादिभ्योदर्शिता, तत्पूविका च प्रवृत्तिर्गम्यमाना। अन्यथा तु निवृत्तिनिष्फलैव स्यादिति । ५-तत्त्वा० ७.२ भा० : एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतो बिरतिर्महाव्रतमिति । ६-(क) जि० चू० पृ० १४४ : महन्वयं नाम महंतं वत, महन्वयं कथं ? सावगवयाणि खुड्डुगाणि, ताणि पडुच्च साहूण वयाणि महंताणि भवंति। (ख) जि० चू० पृ० १४६ : जम्हा य भगवंतो साधवो तिविहं तिविहेण पच्चक्खायंति तम्हा तेसि महव्वयाणि भवंति, सावयाण पुण तिविह दुविह पच्चक्खायमाणाणं देसविरईए खुड्डलगाणि वयाणि भवंति । (ग) हा० टी० ५० १४४ : महच्च तद्वतं च महावतं, महत्त्वं चास्य श्रावकसंबंध्यणुव्रतापेक्षयेति । (घ) अ० चू० पृ०८० : सकले महति वते महन्वते । Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १३७ अध्ययन ४ : सूत्र ११ : टि० ४४-४६ करना । केवल जीवों को मारना ही अतिपात नहीं है, उनको किसी प्रकार का कष्ट देना भी प्राणातिपात है। पहले महाव्रत का स्वरूप है-प्राणातिपात-विरमण । विरमण का अर्थ है-ज्ञान और श्रद्धापूर्वक प्राणातिपात न करना-सम्यक् ज्ञान और श्रद्धापूर्वक उससे सर्वथा निवृत्त होना। ४४. सर्व ( सव्व) : __ मुनि कहता है-श्रावक व्रत ग्रहण करते समय प्राणातिपात की कुछ छूट रख लेता है उस तरह परिस्थर नहीं पर सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सर्व अर्थात् निरवशेष - अर्द्ध या त्रिभाग नहीं । जैसे ब्राह्मण को नहीं मारूँगा-यह प्राणातिपात का देश त्याग है । 'मैं किसी प्राणी को मन-वचन-काया और कृत-कारित अनुमोदन रूप से नहीं मारूंगा'----यह सर्वप्राणातिपात का त्याग है । प्रत्याख्यान में 'प्रति' शब्द निषेध अर्थ में, 'आ' अभिमुख अर्थ में और 'ख्या' धातु कहने के अर्थ में है। उसका अर्थ है- प्रतीपअभिमुख कथन करना। 'प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं' अर्थात् प्राणातिपात के प्रतीप ---अभिमुख कथन करता हूँ--प्राणातिपात न करने की प्रतिज्ञा करता हूं । अथवा मैं संवृतात्मा वर्तमान में समता रखते हुए अनागत पाप के प्रतिषेध के लिये आदरपूर्वक--भावपूर्वक अभिधान करता है। साम्प्रतकाल में संवतात्मा अनागत काल में पाप न करने के लिये प्रत्याख्यान करता है-व्रतारोपण करता है। ४५. सूक्ष्म या स्थूल ( सुहुमं वा बायरं वा ) : जिस जीव की शरीर-अवगाहना अति अल्प होती है, उसे सूक्ष्म कहा है, और जिस जीव की शरीर-अवगाहना बड़ी होती है उसे बादर कहा है । सूक्ष्म नाम कर्मोदय के कारण जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि ऐसे जीव की अवगाहना इतनी सूक्ष्म होती है कि उसकी काया द्वारा हिंसा संभव नहीं। जो स्थूल दृष्टि से सूक्ष्म या स्थूल अवगाहना वाले जीव हैं, उन्हें ही यहाँ सूक्ष्म या बादर कहा है। ४६. त्रस या स्थावर ( तसं वा थावरं वा): जो सूक्ष्म और बादर जीव कहे गये हैं उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-बस और स्थावर । त्रस जीवों की परिभाषा पहले १-(क) अ० चू० पृ० ८० : पाणातिवाता [तो] अतिवातो हिसणं ततो, एसा पंचमी अपादाणे भयहेतुलक्खणा वा, भीतार्थानां भयहेतुरिति । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : पाणाइवाओ नाम इंदिया आउप्पाणादिणो छब्बिहो पाणा य जेसि अत्यि ते पाणिणो भण्णंति, तेसि पाणाणमइवाओ, तेहिं पाणेहि सह विसंजोगकरणन्ति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी० ५० १४४ : प्राणा- इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपात:-जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव । २-(क) अ० चू० पृ० ८० : वेरमणं नियत्तणं । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : पाणाइवायवेरमणं नाम नाउं सद्दहिऊण पाणातिवायस्स अकरणं भण्णइ । (ग) हा० टी०प० १४४ : विरमणं नाम सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम् । ३- (क) अ० चू० पृ०८० : सवं ण विसेसेण, यथा लोके-न ब्राह्मणो हन्तव्यः । (ख) जि. चू०प०१४६ : सव्वं नाम तमेरिसं पाणाइवायं सव्वं–निरवसेसं पच्चक्खामि नो अद्ध तिभागं वा पच्चक्खामि । (ग) हा० टी० ५० १४४ । सर्वमिति-निरवशेषं, न तु परिस्थूरमेव। ४- (क) अ० चू० पृ०८० : पाणातिवातमिति व पच्चक्खाणं, ततो नियत्तणं । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : संपइकालं संवरियप्पणो अणागते अकरणणिमित्त' पच्चक्खाणं । (ग) हा० टी० ५० १४४-४५ : प्रत्याख्यामी त प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणाति पातस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा-प्रत्याचक्षे - संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः। ५-- (क) अ० चू. १०८१ : सुहमं अतीव अप्पसरीरं तं वा, वातं रातीति 'वातरो' महासरीरो तं वा । (ख) जि० चू०पू० १४६ : सुहुमं नाम जं सरीरावगाहणाए सुट्ठ अप्पमिति, बादरं नाम थूलं भण्णइ। (ग) हा० टी०प० १४५ : अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात्..."बादरो पि स्थूरः। Jain Education Intemational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १३८ अध्ययन ४ : सूत्र ११ टि० ४७-४६ आ चुकी है। जो त्रास का अनुभव करते हैं, उन्हें त्रस कहते हैं। जो एक ही स्थान पर अवस्थित रहते हैं, उन्हें स्थावर कहते हैं।' कुंथु आदि सूक्ष्म त्रस हैं और गाय आदि बादर त्रस हैं । साधारण वनस्पति आदि सूक्ष्म स्थावर हैं और पृथ्वी आदि बादर स्थावर है । " 'सुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा' इसके पूर्व 'से' शब्द है । 'से' शब्द का प्रयोग निर्देश में होता है । यहाँ यह शब्द पूर्वोक्त 'प्राणातिपात' की ओर निर्देश करता है । वह प्राणातिपात सूक्ष्म शरीर अथवा बादर शरीर के प्रति होता है । 3 अगस्त्य चूर्णि के अनुसार यह आत्मा का निर्देश करता है। हरिभद्र सूरि के अनुसार यह शब्द मागधी भाषा का है । इसका शब्दार्थ है अथ । इसका प्रयोग किसी बात के कहने के आरम्भ में किया जाता है । " ४७. ( अइयाएन्जा ) : हरिभद्रसूरि के अनुसार 'अवाजा' शब्द 'अतिपातयामि' के अर्थ में प्रयुक्त है। प्राकृत में आये प्रयोगों में ऐसा होता है। इस प्रकार सभी महाव्रत और व्रत में जो पाठ है उसे टीकाकार ने प्रथम पुरुष मान प्राकृत शैली के अनुसार उसका उत्तम पुरुष में परिवर्तन किया है | अगस्त्य चूर्णि में सर्वत्र उत्तम पुरुष के प्रयोग हैं, जैसे – “नेव सयं पाणे अइवाएमि' । उत्तम पुरुष का भी ' अहवाएज्जा' रूप बनता है । इसलिए पुरुष परिवर्तन की आवश्यकता भी नहीं है । उक्त स्थलों में प्रथम पुरुष की क्रिया मानी जाय तो उसकी संगति यों होगी पढमे भंते ! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं' से लेकर 'नेव सयं' के पहले का कथन शिष्य की ओर से है और 'नेव सयं' से आचार्य उपदेश देते हैं और 'न करेमि' से शिष्य आचार्य के उपदेशानुसार प्रतिज्ञा ग्रहण करता है । उपदेश की भाषा का प्रकार सूत्रकृताङ्ग (२.१.१५ ) में भी यही है । आचारला (१५।४३ ) में महाव्रत प्रत्याख्यान की भाषा इस प्रकार है- "पढमं भंते ! महव्वयं पच्चवखामि सव्वं पाणाइवायंसे सुहुमं वा बायरं वा, तसं वा थावरं वाणेवसयं पाणाइवायं कारेज्जा णेवण्णेहि पाणाइवायं कारवेज्जा, ठेवण्णं पाणाइवायं करतं समणुजाणेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।" स्वीकृत पाठ का अगस्त्य चूर्णि में पाठान्तर के रूप में उल्लेख हुआ है । पाँच महाव्रत और छट्टु व्रत में अगस्त्य घूर्णिके अनुसार जो पाठ-भेद है उनका अनुवाद इस प्रकार है : -- "भंते ! मैं प्राणातिपात विरति रूप पहले महाव्रत को ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। भंते ! मैं पहले महाव्रत में प्राणातिपात से विरत हुआ हूँ ।" यही क्रम सभी महाव्रतों और व्रत का है । ४८-४९ मैं स्वयं नहीं करूंगा अनुमोदन भी नहीं करूँगा ( नेव सर्व पाणे अइवाएमा न समभुजाणेज्जा) : इस तरह त्रिविध-त्रिविध-तीन करण और तीन योग से प्रत्याख्यान करने वाले के ४६ भङ्गों (विकल्पों) से त्याग होते हैं । इन १ – (क) अ० चू० पृ० ८१ : 'तसं वा' 'त्रसी उद्वेजने' त्रस्यतीति त्रसः तं वा, 'थावरों' जो थाणातो ण विचलति तं वा । वा सही विकल्पे सब्वे पगारा महंतव्या वेदिका पुट क्षुद्रजन्तुषु गरिब पाणातिवातो" ति एतस्य विसेसणत्वं सहमातिवयणं । जीवस्स असंखेज्जपदेसते सव्वे सुहुम-बायर विसेसा सरीरदव्वगता इति सुहुम-बायरसंसणेण एगग्गहणे समाणजातीयसूतणमिति । (ख) जि० चू० पृ० १४६-४७ : तत्थ जे ते सुहुमा बादरा य ते दुबिहा तं० तसा य थावरा वा, तत्थ तसंतीति तसा, जे एगंम ठाणे अर्वाट्टिया चिट्ठति ते थावरा भण्णं ति 1 २० टी० प० १४५ सूक्ष्मनसः कुन्थ्यादि स्थावरी बनस्पत्यादि बावरस्वसो गवादिः स्वावरः पृथिव्यादिः । ३- जि० चू० पृ० १४६ : 'से' त्ति निद्देसे बट्टइ, कि निद्दिसति ?, जो सो पाणातिवाओ तं निद्देसेइ, से य पाणाइवाए सुहमसरीरेसु वा बादरसरीरेसु वा होज्जा । ४ - अ० चू० पृ० ८१ : से इति वयणाधारेण अप्पणो निद्देसं करेति, सो अहमेव अब्भुवगम्म कत पच्चक्खाणो । 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धः अथ शब्दार्थः स चोपन्यासे । ५- हा० टी० प० १४५ ६ - हा० टी० प० १४५ शेव सपा यासि प्राकृता छान्दसत्वात् हि तिहो भवन्ती' ति न्यायात नंब स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । ७ हेमश० ३.१७७ वृ० यथा तृतीयत्रये अइवाएन्जा अयायायेज्जा न समजागामि न समजानेजा था। : Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशर्वकालिक ) भङ्गों का विस्तार इस प्रकार है' : १-करण १ योग १, प्रतीक-अङ्क ११, १ करूं २ करूँ ३ क ४ कराऊँ ५ कराऊँ ६ कराऊँ नहीं ७ अनुमोदूं नहीं ८ अनुमोदूँ नहीं ६ अनुमोदूँ नहीं २-- करण १ योग २, प्रतीक अङ्क १२, १ करूं २ करूँ ३ - करण १ योग ३, प्रतीक- अङ्क १३, १ करूँ २ कराऊँ ३ अनुमो ३ करू ४ कराऊँ ५. कराऊँ नहीं ६ कराई नहीं ४ -- -- करण २ योग १, प्रतीक -अङ्क २१, भङ्ग ६ : नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं ७ अनुमोदूँ नहीं ८ अनुमोदूँ नहीं ६ अनुमोदूँ नहीं १ करूँ २ करूँ ३ करूँ भङ्ग ९ : नहीं नहीं नहीं नहीं ५- करण २ योग २, प्रतीक अङ्क २२, १ करूँ २ करूँ भङ्ग ३ : नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं ४ करूँ नहीं ५ करूँ नहीं ६ करूं नहीं ७ कराऊँ नहीं भङ्ग ९ : नहीं ८ कराऊँ नहीं ९ कराऊँ नहीं भङ्ग ९ : नहीं नहीं १३६ मन से वचन से काया से मन से वचन से काया से मन से मन से वचन से मन से मन से वचन से मन से मन से वचन से मन से वचन से काया से मन से मन से मन से वचन से काया से काया से वचन से काया से काया से वचन से काया से कत्या से कराऊँ कराई वचन से वचन से वचन से अध्ययन ४ : सूत्र ११ टि०४८-४९ काया से काया से काया से कराऊँ कराऊँ कराऊँ अनुमोदूँ नहीं मन से अनुमोदूँ नहीं वचन से अनुमोदूँ नहीं काया से अनुमोदूँ नहीं मन से अनुमोदूँ नहीं बचन से अनुमोदूं नहीं काया से नहीं मन से नहीं वचन से नहीं काया नहीं मन से वचन से नहीं वचन से काया से १ - हा० टी० प० १५० : "तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्निक्केक्का य होंति जोएसु । तिदुएक्कं तिदुक्कं तिgएक्कं चैव करणाइ ॥" १ ५ ८ ६ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) अध्ययन ४: सूत्र ११ टि० ४८-४६ ३ करूँ नहीं कराऊँ नहीं मन से काया से ४ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ५ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से ६ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ७ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ८ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से ६ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ६-करण २ योग ३, प्रतीक-अङ्क २३, भङ्ग ३ : १ करूँ नहीं कराऊँ नहीं मन से वचन से काया से २ करूँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ३ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ७--करण ३ योग १, प्रतीक-अङ्क ३१, भङ्ग ३: । १ करूँ नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से २ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से ३ करूं नहीं कराऊँ ___ नहीं अनुमोदूं नहीं काया से ८-- करण ३ योग २, प्रतीक-अङ्क ३२, भङ्ग ३: । १ करूँ नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से २ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ४७ ३ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से ४८ &—करण ३ योग ३, प्रतीक-अङ्क ३३, भङ्ग १: । १ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ४६ इन ४६ भङ्गों को अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीन से गुणन करने पर १४७ भङ्ग होते हैं। इससे अतीत का प्रतिक्रमण, बर्तमान का संथरण और भविष्य के लिए प्रत्याख्यान होता है। कहा है--"प्रत्याख्यान सम्बन्धी १४७ भङ्ग होते हैं । जो इन भङ्गों से प्रत्याख्यान करता है वह कुशल है और अन्य सब अकुशल हैं।" १- (क) हा० टी० प० १५१ : "लद्धफलमाणमेयं भंगा उ हवंति अउणपन्नासं । तीयाणागयसंपतिगुणियं कालेण होइ इमं ॥१॥ सोयाल भंगसयं, कह ? कालतिएण होति गुणणा उ । तीतस्स पडिक्कमणं पच्चुप्पन्नस्स संवरणं ॥२॥ पच्चक्खाणं च तहा होइ य एसस्स एस गुणणा उ। कालतिएणं भणियं जिणगणधरवायएहिं च ॥ ३॥" (ख) अ० चू० पृ० ८१ : एते सव्वे वि संकलिज्जत -ति.वहं अमुयंतेहि सत्त लद्धा, दुविहं तिविहेण तिण्ण, एते संक.लता जाता दस । दुविहं दुविहेण णव लद्धा, ते दससु पक्खित्ता जाता एकूणवीसं । दुविहं एक्कविहेण णव लद्धा, ते एगणवीसाए पक्खित्ता जाता अट्ठावीसं । एक्कविहं तिविहेण तिण्णि अट्ठावीसाए पक्खिता जाता एक्कतीसा । एक्कविहं दुविहेण णव लद्धा एक्कतीसाए पक्खित्ता जाता चत्तालीसं । एक्कविहं एक्कविहेण णव चत्तालीसाए पक्खित्ता जाता एगूणपण्णा । एते पडुप्पण्णं संवरेति, एगूणपण्णा अतीतं णिदति, एतेच्चेव तहा अणागतं पच्चक्खाति, तिण्णि एगणपण्णातो सत्तयत्तालं भंगसतं । एत्थ पढमभंगो साबूण जुज्जति तेण अधिकारो, सेसा सावगाणं संभवतो उच्चारितसरूव त्ति परवणं । पाणातिवात. पच्चक्खाणं सविकल्पं भणितं । २- दश० नि० गा० २९६ : सीयालं भंगसयं पच्चक्खाणम्मि जस्स उवलद्ध। सो पच्चक्खाणकुसलो सेसा सव्वे अकुसला उ॥ Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( वशवेकालिक ) १४१ अध्ययन ४ : सूत्र १२ टि० ५०-५१ प्रश्न हो सकता है अन्य व्रतों की अपेक्षा प्राणातिपात विरमण व्रत को पहले क्यों रखा गया ? इसका उत्तर पूर्णिकारद्वय इस प्रकार देते हैं-" अहिसा मूलव्रत है। अहिंसा परम धर्म है। शेष महाव्रत उत्तरगुण हैं; उसको पुष्ट करने वाले हैं, उसी के अनुपालन के लिए प्ररूपित हैं ।" सूत्र १२ : ५०. मृषावाद का ( मुसावायाओ ) : मृषावाद चार प्रकार का होता है : १ - सद्भाव प्रतिषेध : जो है उसके विषय में कहना कि यह नहीं है। जैसे जीव आदि हैं. उनके विषय में कहना कि जीव नहीं हैं, पुण्य नहीं है, पाप नहीं है, बन्ध नहीं है, मोक्ष नहीं है, आदि । २ - असद्भाव उद्भावन जो नहीं है उसके विषय में वैसा बतलाना अथवा उसे श्यामाक तन्दुल के तुल्य कहना । ३ - अर्थान्तर : एक वस्तु को अन्य बताना । जैसे गाय को घोड़ा कहना आदि । ४ ग जैसे काने को काना कहना । : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार मिथ्या भाषण के पहले तीन भेद हैं । कहना कि यह है। जैसे आत्मा के सर्वगत, सर्वव्यापी न होने पर भी उसे ५१. क्रोध से या लोभ से ( कोहा वा लोहा वा ): यहाँ मृषावाद के चार कारण बतलाये हैं । वास्तव में मनुष्य क्रोध आदि की भावनाओं से ही झूठ बोलता है । यहाँ जो चार कारण बतलाये हैं वे उपलक्षण मात्र हैं । क्रोध के कथन द्वारा मान को भी सूचित कर दिया गया है। लोभ का कथन कर माया के ग्रहण की सूचना दी है । भय और हास्य के ग्रहण से राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान आदि का ग्रहण होता है । इस तरह मृषावाद अनेक कारणों से बोला जाता है । यही बात अन्य पापों के सम्बन्ध में लागू होती है । १ (क) अ० पू० पृ० ८२ महम्यता पाणातिवाताओ वेरमणं पहाणी मूलगुण इति, जेण 'अहिंसा परमो धम्मो सागि महत्वतानि एतस्सेव अत्थविसेसगाणीति तदणंतरं । क्रमपडिनिग्गमणत्थं पडुच्चारणमुक्तार्थस्य 'पढमे भंते ! महव्वते पाणातिवातात वेरमणं'। (ख) जि० पू० पृ० १४० सीसो आह-कि कारणं साणि वपाणि मोतून पाणाइवापयेरमणं पदमं भणिपति ?, आयरि भगइ एवं मूलव्य 'अहिंसा परमो धम्मो' सि सेसानि पुण महव्ववाणि उत्तरगुणा, एतस्स चेव अणुयात्वं पविचाणि । २ (क) अ० ० पृ० ८२ मुसावातो सिविहो सं० सभापडिसेहो १ अभूतुग्भावणं २ अत्यंतरं ३ सम्भावपडिसेहो जहा नत्थ जीवे' एवमादि १ । अभूतुम्भावणं 'अत्थि, सव्वगतो पुण' २ । अत्यंतरं गावि महिसि भणति एवमादि ३ । (ख) जि० चू० पृ० १४८ : तत्थ मुसावाओ चउव्विहो, तं० – सम्भावपडिसेहो असन्भूयुग्भावणं अत्यंतरं गरहा, तत्थ सम्भाव डिसेहो णाम जहा णत्थि जीवो नत्थि पुण्णं नत्थि पावं नत्थि बंधो णत्थि मोक्खो एवमादी, असम्भूयुग्भावणं नाम जहा अजीबो (सख्यवायी) सामागतंयुलमेशो वा एवमादी, पयत्वंतरं नाम जो गावि भणइ एसो आसोशि, गरहा जाम 'सहेब काणं काणिति' एवमादी ३– (क) अ० चू० पृ० ८२ : मुसावात वेरमणे कारणाणि इमाणिसे कोहा वा लोभा वा भता वा हासा वा, "दोसा विभागे समाणासा" इति को मानो अंतगत एवं लोने माता, भतहस्ते पेज्जकलहावतो सविसेसा 1 (ख) जि०० पृ० १४८ सोय मुसावाओ एतेहि कारणेहि भासिज्ज से कोहा या लोहा या भया वा हावा वा कोह गहण माणसवि ग्रहणं कर्म लोग माया गहिया, भवहासग्रहण पेक्जदोसकलजन्यस्वा महिया कोहा 1 इग्गहण भावओ गहणं कयं, एगग्गहणेण गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं सेसावि दव्वखेत्तकाला गहिया । (ग) हा० टी० १० १४६ 'क्रोधादा सोभाई' त्यनेनाद्यन्तयहणान्मानमायापरिग्रह 'भयादा हास्याहा' इत्यनेन तु प्रेमद्वेष कलहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः । " Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १४२ सूत्र १३ : अध्ययन ४ : सूत्र १३-१४ टि० ५२-५७ ५२. अदत्तादान का ( अदिन्नादाणाओ ) : बिना दिया हुआ लेने की बुद्धि से दूसरे के द्वारा परिगृहीत अथवा अपरिगृहीत तृण, काष्ठ आदि द्रव्य- मात्र का ग्रहण करना अदत्तादान है' । ५३. गाँव में अरण्य में ( गामे वा नगरे वा रणे वा ) : ये शब्द क्षेत्र के द्योतक हैं। इन शब्दों के प्रयोग का भावार्थ है-- किसी भी जगह, किसी भी क्षेत्र में ग्रस्त करे, उसे ग्राम कहते हैं । जहाँ कर न हो उसे नकर-नगर कहते हैं । कानन आदि को अरण्य कहते हैं । ५४. अल्प या बहुत ( अप्पं वा बहं वा ) अल्प के दो भेद होते हैं- ( १ ) मूल्य में अल्प - जैसे जिसका काष्ठ। इसी तरह 'बहुत' के भी दो भेद होते हैं- (१) मूल्य में बहुत ५५. सूक्ष्म या स्थूल ( अणुं वा थूलं वा ) : सूक्ष्म जैसे—मूलक की पत्ती अथवा काष्ठ की चिरपट आदि । स्थूल - जैसे - सुवर्ण का टुकड़ा अथवा उपकरण आदि । ५६. सचित या अचित्त ( चितमंतं वा अचित्तमंतं वा ) चेतन अथवा अचेतन । पदार्थ तीन तरह के होते हैं : चेतन, अचेतन और मिश्र । चेतन -- जैसे मनुष्यादि । अचेतन - जैसे कार्षापण आदि । मिश्र - जैसे अलङ्कारों से विभूषित मनुष्यादि । जो बुद्धि आदि गुणों को मूल्य एक कौड़ी हो । ( २ ) परिणाम में अल्प - जैसे एक एरण्डसे वैदूर्य ( २ ) परिमाण में बहुत जैसे तीन-चार वंदूयं । सूत्र १४ : ५७. देव "तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन ( मेहूणं दिव्वं वा तिरियखजोगियं वा ) ये शब्द द्रव्य के द्योतक हैं। मैथुन दो तरह का होता है (१) रूप में (२) रूपसहित द्रव्य में रूप में अर्थात् निर्जीव वस्तुओं के १ (क) अ० ० ० ८३ परेहि परिग्यहितस्स वा अपरिग्वहितस्स या अणगुष्णातस्स गहणण विष्णादाणं । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : सीसो भणइ - तं अदिण्णादाणं केरिसं भवइ ?, आयरिओ भणइ- -ज अदिण्णादाणबुद्धीए परेहि परिस्ति या अपरिगहियस्स वा तपकट्ठाइदच्चजातस्स गहणं करेइ तमदिष्यादागं भवइ । २- हा० टी० प० १४७ : प्रसति बुद्ध यादीन् गुणानिति ग्रामः । ३ - हा० टी० प० १४७: नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम् । ४- हा० टी० प० १४७ अरण्णं काननादि । ५.- (क) अ० चू० पृ० ८३ : अप्पं परिमाणतो मुल्लतो वा; परिमाणतो जहा एगा सुवण्णा गुंजा, मुल्लतो कवड्डितामुल्भं वत्युं । वहं परिमाणतो मुस्लो वा परिमाणतो सहस्तपमाणं मुल्तो एक्कं वेदतिं । (ख) जि० चू० पू० १४६ : अप्पं परिमाणओ य मुल्लओय, तत्थ परिमाणओ जहा एवं एरंडकट्ठ एवमादि, मुल्लओ जस्स एगो कब वृणी वा अप्यमुलं, यह नाम परिमाणओ मुखओ व परिमाणओ जहा तिमि बारिधि बरा लिया मुल्लओ एगमवि वेरुलियं महामोल्लं । (ग) हा० डी० १० १४७ अमूर्त एरण्डकाष्ठादि वह बच्चादि । ६ (क) ० ० ० ३ अगादि भूतं कोपरगादी। (ख) नि० ० ० १४६ अलगपत्ताही अहवाल वा एवमादि पूलं सुबखोटी बेलिया या उबगरण (ग) हा० टी० प० १४७: अणु-प्रमाणतो वज्रादि स्थूलम् - एरण्डकाष्ठादि । (क) अ० ० ० ८३ वित्तमंत गवादि अचितमंत करियावा । : । (ख) जि० चू० पृ० १४६ : सव्वंपेयं सचित्तं वा होज्जा अचित्तं वा होज्जा मिस्लयं वा, तत्थ सचित्तं मणुयादि अचित्तं काहाव नादि मीस ते चैव मणुपाद विभूसिया | अलंकिय (ग) हा० टी० प० १४७ चेतनाचेतनमित्यर्थः । : Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक) १४३ अध्ययन ४: सुत्र १५-१६ टि० ५८-५९ साथ -जैसे प्रतिमा या मृत शरीर के साथ । रूप सहित मैथुन तीन प्रकार का होता है--दिव्य, मानुषिक और तिर्यञ्च सम्बन्धी। देवी - अप्सरा सम्बन्धी मथुन को दिव्य कहते हैं । नारी से सम्बन्धित मैथुन को मानुषिक और पशु-पक्षी आदि के साथ के मैथुन को तिर्यञ्च विषयक मथुन कहते हैं । इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार है--रूप अर्थात् आभरण रहित, रूपसहित अर्थात् आभरण सहित । सूत्र १५: ५८. परिग्रह को ( परिग्गहाओ ) : चेतन-अचेतन पदार्थों में मुभिाव को परिग्रह कहते हैं । सूत्र १६ : ५६. रात्रि-भोजन की ( राईभोयणाओ) : रात में भोजन करना इसी सूत्र के तृतीय अध्ययन में अनाचीर्ण कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में रात्रि-भोजन-विरमण को साधु का छट्ठा व्रत कहा है। सर्व प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच विरमणों का स्वरूप बताते हुए उन्हें महाव्रत कहा है, जबकि सर्व रात्रिभं जन-विरमण को केवल 'व्रत' कहा है। उत्तराध्ययन २३, १२, २३ में केशी-गौतम के संबाद में श्रमण भगवान महावीर के मार्ग को पांच शिक्षा वाला' और पाश्व के मार्ग को 'चार याम-वाला' कहा है। आचार घुला (१५) में तथा प्रश्नव्याकरण सूत्र में संवरों के रूप में केवल पाँच महाव्रत और उनकी भावनाओं का ही उल्लेख है। वहाँ रात्रि भोजन-विरमण का अलग उल्लेख नहीं है । जहाँ-जहाँ प्रव्रज्याग्रहण के प्रसंग हैं, वहाँ-वहाँ प्रायः सर्वत्र पाँच महाव्रत ग्रहण करने का ही उल्लेख मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि सर्व हिंसा आदि के त्याग की तरह रावि-भोजन-विरमण व्रत को याम, शिक्षा या महाव्रत के रूप में मानने की परंपरा नहीं थी। दूसरी ओर इसी सूत्र के छ? अध्ययन में श्रमण के लिए जिन अठारह गुणों की अखण्ड साधना करने का विधान किया है, उनमें सर्व प्रथम छ: व्रतों (वयछक्क) का उल्लेख है और सर्व प्राणातिपात यावत् रात्रि-भोजन-विरमण पर समान रूप से बल दिया है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० १६) में साधु के अनेक कठोर गुणों-आचार का--उल्लेख करते हुए प्राणातिपात-विरति आदि पाँच सर्व विरतियों के साथ ही रात्रि-भोजन त्याग (सर्व प्रकार के आहार का रात्रि में वर्जन) का भी उल्लेख आया है और उसे महाव्रतों की तरह ही दुष्कर कहा है । रात्रि-भोजन का अपवाद भी कहीं नहीं मिलता। वैसी हालत में प्रथम पाँच बिरमणों को महाव्रत कहने और रात्रि-भोजन विरमण को व्रत कहने में आचरण की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं, यह स्पष्ट है। रात्रि-भोजन-विरमण सर्व हिंसा-त्याग आदि महाव्रतों की रक्षा के लिए ही है इसलिए साधु के प्रथम पाँच व्रतों को प्रधान गुणों के रूप में लेकर उन्हें महाव्रत और सर्व रात्रि-भोजन-विरमण व्रत को उत्तर (सहकारी) गुणरूप मान उसे मूलगुणों से पृथक् समझाने के लिए केवल 'व्रत' की संज्ञा दी है। हालाँकि उसका पालन एक साधु के लिए उतना ही अनिवार्य माना है जितना कि अन्य महाव्रतों का। मैथुन-सेवन करने वाले की तरह ही रात्रि-भोजन करने वाला भी अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। सर्व रात्रि-भोजन-विरमण व्रत के विषय में इसी सूत्र (६.२३.२५) में बड़ी ही सुन्दर गाथाएँ मिलती हैं। रात्रि-भोजन-विरमण व्रत में सन्निहित अहिंसा-दृष्टि स्वयं स्पष्ट है। रात को आलोकित पान-भोजन और ईर्यासमिति (देख-देख कर चलने) का पालन नहीं हो सकता तथा रात में आहार का संग्रह करना अपरिग्रह की मर्यादा का बाधक है। इन सभी कारणों से रात्रि-भोजन का निषेध किया गया हैं। आलोकित पान-भोजन और ईसिमिति अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ हैं । १- (क) अ० चू० पृ०८४: दव्वतो रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दम्वेसु, रूवं-पडिमामयसरीरादि, रूवसहगतं सजीवं । (ख) जि० चू० पृ० १५० : दव्वओ मेहुणं रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु. तत्थ रूवेत्ति णिज्जीवे भवइ, पडिमाए वा मय. सरीरे वा, रूवसहगयं तिविहं भवति, तं० - दिव्वं माणुसं तिरिक्खजोणियंति । हा० टी०प० १४८ : देवीनामिदं देवम्, अप्सरोऽमरसंबन्धीतिभावः, एतच्च रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, तत्र रूपाणि -निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीवानि । २-(क) अ० चू० पृ० ८४ : अहवा रूवं आभरणविरहितं, रूबसहगतं आभरणसहितं। (ख) जि० चू० पृ १५० : अहवा रूवं भूसणवज्जियं, सहगयं भूसणेण सह । (ग) हा० टी० ५० १४८ : भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि । ३- जि० चू० पृ० १५१ : सो य परिग्गहो चेयणायणेसु दव्वेसु मुच्छानिमित्तो भवइ । ४-(क) आ००१५.४४ । (ख) प्रश्न० सं०१। Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १४४ अध्ययन ४ सूत्र १६ टि० ६० (६.१७) में निधि को परियह माना है और उत्तराध्ययन (१२.३०) में रात्रि भोजन और सन्निधि-संचय के वर्जन को दुरकर कहा है । वहाँ इनके परिग्रह रूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है । | पांच महाव्रत मूलगु और रात्रि भोजन-विरमण उत्तरगुण है फिर भी यह मूल गुणों की रक्षा का हेतु है इसलिए इसका मूल गुणों के साथ प्रतिपादन किया गया है ऐसा अगरसिंह स्थविर मानते हैं। जिनदास महत्तर के अनुसार प्रथम तीर्थंकर के मुनिज और लद होते हैं, इसलिए वे महाव्रतों की तरह मानते हुए इसका (रात्रि भोजन-विरमण का इस दृष्टि से इसे महाव्रतों के साथ बताया गया है। मध्यवर्ती तीर्थदूरों के मुनियों के लिए उत्तरगुण कहा गया है क्योंकि वे ऋजुप्रज्ञ होते हैं इसलिए इसे सरलता से छोड़ देते हैं। टीकाकार ने इसे ऋजुजड और वजड मुनि की अपेक्षा से मूलगुण और की अपेक्षा से उत्तरनुग माना है। और परम पालन करें ६०. अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ( असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ) : १ – अशन - क्षुधा मिटाने के लिए जिस वस्तु का भोजन किया जाता है, उसे अशन कहते हैं । जैसे कूर - ओदनादि । २- पान - जो पीया जाय उसे पान कहते हैं। जैसे मृद्वीका - द्राक्षा का जल आदि । ३ – खाद्य - जो खाया जाय उसे खादिम या खाद्य कहते हैं । जैसे मोदक, खर्जूरादि । ४ - स्वाद्य - जिसका स्वाद लिया जाय उसे स्वादिम अथवा स्वाद्य कहते हैं । जैसे ताम्बूल, सोंठ आदि प्राणातिपात आदि पाँच पाप और रात्रि भोजन के द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की दृष्टि से चार विभाग होते हैं । अगस्त्य णि के अनुसार एक परम्परा इस विभाग चतुष्टयी को मूल पाठ में स्वीकृत करती है और दूसरी परम्परा उसे 'वृत्ति' का अंग वाक्य-खंड को सूत्रगत स्वीकार करते हैं उनके अनुसार सूत्र- पाठ इस प्रकार होगा तसं दव्वतो, खेत्ततो, कालतो, भावतो नेव सयं पाणे ' यह क्रम सभी महाव्रतों और मारती हैं । जो इस विभाग चतुष्टयी के प्ररूपक वा थावरं वा । जहा सेतं पाणिपाते चतुविहे, तं० छट्ठे व्रत का है । प्राणातिपात द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टिकोण से व्यवछिन्न होता है : १- द्रव्य-दृष्टि से उसका विषय छह जीवनिकाय है। हिंसा सूक्ष्म बादर छह प्रकार के जीवों की होती है । १-० ५० ५० ६ किरातीभोवणं मूलगुणः उत्तरगुणः ? उत्तरगुण एवायं तहादि सम्यमूलगुणरक्तहेतुति मूलगुणसम्भूतं पढिज्जति । , २०० पृ० १५३ पुरिम जिनकाले पुरिसा उज्जडा पस्मिजिणकाले पुरिसा पंकजडा, अतो निमितं महम्यवाण उबर वियं जेण तं महम्बयमिव मन्नता पिल्लेहिति मज्झिमाणं पुण एवं उत्तरगुणे कहिये कि कारणं ?, जेण ते उज्जुपण्णत्तणेण सुहं चैव परिहरति । ३- हा० टी० प० १५० एतच्च रात्रिभोजनं महाव्रतोपरि पठित, मध्यमतीर्थकर तीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । प्रथमरचमतीर्थकर तीर्थयोः ऋजुजडव जडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं -(क) अ० चू० पृ० ८६ : ओदणादि असणं, मुद्दितापाणगाती पाणं, मोदगावी खादिमं, पिप्पलिमादि सादिमं । (ख) जि०चू० पृ० १५२ : असिज्जइ खुहितेहि जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति, पिज्जतीति पाणं, जहा मुद्दियापाणगं एवमाइ, जतीति खादिमं जहा मोदओ एवमावि, सादिति सादिमं जहा खुंडिगुलादी । (ग) हा०टी प० १४६ : अश्यत इत्यशनम् - ओदनादि, पीयत इति पानं मृद्वीकापानादि । खाद्यत इति खाद्यं - खर्जूरादि । स्वाद्यत इति स्वाद्यं ताम्बूलादि । ५- अ० चू० पृ० ८६ : के ति सुत्त मिमं पदंति, के ति वृत्तिगतं विसेसंति । ६- जि००० १४७ इयाणि एस एव पाणाइवाओ चव्यिहो सबित्थरो भण्ण, ० दबओ खेत्तओ कालओ भावओ, दबओ सुजीवनिकाए सुमवादरेसु भवति खेसओ सम्यालोगे कि कारणं ?, जेण सम्यलोए तत्स पाणावायरस उपपत्ती अस्थि, कालओ दिया वा राओ वा ते चेव सुहुमबादरा जीवा ववरोविज्जति, भावओ रागेण वा दोसेण वा तत्थ रागेण सादी अट्ठाए, अहवा रागेण कोइ कंचि अणुमरति, दोसेण बितियं मारेइ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १४५ अध्ययन ४: सूत्र १६ टि० ६० २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय समूचा लोक है । लोक में ही हिंसा सम्भव है। ३-काल-दृष्टि से उसका विषय सर्वकाल है। रात व दिन सब समय हिंसा हो सकती है। ४-भाव-दृष्टि से उसका हेतु राग-द्वेष है। जैसे मांस के लिए राग से हिसा होती है। शत्रु का हनन द्वेषवश होता है । मृषावाद के चार विभाग इस प्रकार हैं : १-द्रव्य-दृष्टि से मृषावाद का विषय सब द्रव्य हैं, क्योंकि मपावचन चेतन तथा अचेतन सभी द्रव्यों के विषय में बोला जा सकता है। २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय लोक तथा अलोक दोनों हैं, क्योंकि मृषावाद के विषय ये दोनों बन सकते हैं। ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं। ४-भाव दृष्टि से उसके हेतु क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि हैं। अदत्तादान के चार विभाग इस प्रकार हैं: १-द्रव्य-दृष्टि से अदत्तादान का विषय पदार्थ है। २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय अरण्य, ग्राम आदि हैं । ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं। ४ --भाव-दृष्टि से अल्पमूल्य और बहुमूल्य । मैथुन के चार विभाग इस प्रकार हैं : १-द्रव्य-दृष्टि से मैथुन का विषय चेतन और अचेतन पदार्थ हैं। २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय तीनों लोक हैं । ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं। ४-भाव-दृष्टि से उसका हेतु राग-द्वेष है। परिग्रह के चार विभाग इस प्रकार हैं : १-द्रव्य-दृष्टि से परिग्रह का विषय सर्व द्रव्य हैं । २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय पूर्ण लोक है । ३-काल-दृष्टि से उसका विषय दिन और रात हैं। ४--भाव-दृष्टि से अल्पमूल्य और बहुमूल्य । रात्रि-भोजन के चार विभाग इस प्रकार होते हैं : १-द्रव्य-दृष्टि से रात्रि-भोजन का विषय अशन आदि वस्तु-समूह हैं । २-क्षेत्र-दृष्टि से उसका विषय मनुष्य लोक है। १–जि० चू० पृ० १४८ : इयाणि एस चउविहो मुसावाओ सवित्थरो भण्णइ, तं० - दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ देव्वओ सव्वदव्वेसु मुसावाओ भवइ, खेत्तओ लोगे वा अलोगे वा, णो भणेज्जा अणंतपएसिओ लोगो एवमादी, अलोगे अस्थि जीवा पोग्गला एवमादी, कालओ दिया वा राओ वा मुसावायं भणेज्जा, भावओ कोहेणं अभक्खाण देज्जा एवमादी। २-जि० चू० पृ० १४६ : चउन्विहंपि अदिण्णादाणं वित्थरओ भण्णति, तं० दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दम्वओ ताव अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा गेण्हेज्जा, - खेत्तओ जमेतं दब्बओ भणियं एवं गामे वा णगरे वा गेण्हेज्जा अरण्णे वा, कालओ दिया वा राओ वा गेण्हेज्जा, भावओ अपपधे वा। ३-जि० चू० पृ० १५० : चउम्विहंपि मेहुणं वित्थरओ भण्णइ, त० - दवओ खेत्तओ कालो भावओ य, तत्थ दवओ मेहुणं रूवेसु वा स्वसहगएसु वा दब्वेसु, खेत्तओ उड्ढमहोतिरिएसु,..... कालओ मेहुणं दिया वा राओ वा, भावओ रागेण वा दोसेण वा होज्जा। ४-जि० चू० पृ० १५१ : चउन्विहोवि परिग्गहो वित्थरओ भण्णइ–दब्वओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दवओ सव्वदव्वेहि,... खेत्तओ सव्वलोगे,..... कालओ दिया वा राओ वा, भावओ अप्पग्धं वा महग्धं वा ममाएज्जा। ५-जि० चू० पृ० १५२ : चउम्विहं पि राईभोयणं वित्थरओ भण्णइ, तं०-बम्बओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओ असणं वा,..... खेत्तओ समयखेत्ते..... कालओ राई भुजेज्जा, भावओ चउभंगो। Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) ३ -- काल दृष्टि से उसका विषय रात्रि है । ४ - भाव- दृष्टि से चतुर्भङ्ग । १४६ सूत्र १७: अध्ययन ४ सू० १७-१८ टि० ६१-६३ ६१. आत्महित के लिए ( अन्तहियद्रुयाए ) : । आत्महित का अर्थ मोक्ष है। मुनि मोक्ष के लिए या उत्कृष्ट मङ्गलमय धर्म के लिए महाव्रत और व्रत को स्वीकार करता है । अन्य हेतु से व्रत ग्रहण करने पर व्रत का अभाव होता है। आत्महित से बढ़कर कोई सुख नहीं है, इसलिए भगवान ने इहलौकिक सुखसमृद्धि के लिए आचार को प्रतिपन्न करने की अनुज्ञा नहीं दी पौगलिक अनैकान्तिक हैं उनके पीछे दुःख का संयोग होता है | पौद्गलिक सुख के जगत् में ऐश्वर्य का तरतमभाव होता है ईश्वर, ईश्वरतर और ईश्वरतम । इसी प्रकार हीन, मध्यम और उत्कृष्ट अवस्थाएँ होती हैं । मोक्ष जगत् में ये दोष नहीं होते। इसलिए समदर्शी श्रमण के लिए आत्महित- मोक्ष ही उपास्य होता है और वह उसी की सिद्धि के लिए महाव्रतों का कठोर मार्ग अङ्गीकार करता है' । ६२. अंगीकार कर विहार करता हूँ ( उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ) : उपसंपद्य का अर्थ है- उप- समीप, में संपद्य - अंगीकार कर अर्थात् गुरु के समीप ग्रहण कर सुसाधु की विधि के अनुसार विचरण करता हूँ । हरिभद्रसूरि कहते हैं ऐसा न करने पर लिए हुए व्रत अभाव को प्राप्त होते हैं । भावार्थ है – आरोपित व्रतों का अच्छी तरह अनुपालन करते हुए अप्रतिबंध विहार से ग्राम, नगर, पत्तन आदि में विहार करूँगा । वर्णिकारों ने इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार दिया है—“गणधर भगवान् से पांच महाव्रतों के अर्थ को सुनकर ऐसा कहते हैं— 'इन्हें ग्रहण कर विहार करेंगे।" सूत्र १८ : ६३. संयत विरत प्रतिहत प्रत्याख्यात- पापकर्मा ( संजय विरय-पडिय-पच्चवलाय पावकम्मे ) : सतरह प्रकार के संयम में अच्छी तरह अवस्थित साधक को संयत कहते हैं । १ (क) अ० ० पृ० ८६ असता अप्यणोहितं जो धम्मो मंगलमिति भणितो तदट्ट । (ख) जि० चू० पृ० १५३ : अत्तयिं नाम मोक्खो भण्णइ, सेसाणि देवादीणि ठाणाणि बहुदुक्खाणि अप्पसुहाणि य, कहं ?, जम्हा तत्व इसरो इस्सरतरो इस्सरतमो एवमादी होममित्तिमविसेस उपसभंति अनेगंतियाणि वखाणि मोक्ले य एते दोसा नत्थि, तम्हा तस्स अट्टयाए एयाणि पंच महाव्ययाणि राईभोयणवेरमणछट्टाई असहियट्ठाए उवसंजित्ताणं विरामि । (ग) हा० टी० प० १५० : आत्महितो- मोक्षस्तदर्थम् अनेनान्यार्थ तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात् । २ (क) अ० चू० पृ० ८६ : "उवसंपज्जित्ताणं विहरामि" "समानकर्तृ कयोः पूर्वकाले" इति 'उपसंपद्य विहरामि' महन्वताणि पडिवज्जंतस्स वयणं, गणहराणं वा सूत्रीकरेंताणं । (ख) हा० टी० प० १५० 'उपसंपद्य' सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि 'विहरामि' सुसाधुविहारेण तदभावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात् । (ग) जि० ० ० १५३ संपाविरामि नामतानि जावहिण अनुपालयतो अज्जम विहारेण अनिस्सियं गामनगरपट्टणाणि विहरिस्सा अहवा गहरा भगवती समासे पंचमहस्यवाणं अत्यं सोऊण एवं भांति उवसंप जिसागं विहरिस्साथि' । ३ (क) अ० ० ० ८७ संजतो एक्कीभावेण सारसविहे संजमे डितो। (ख) जि० पू० पृ० १५४ संजओ नाम सोभने पगारेण सत्तरसविहे जमे अद्विओ संजतो भवति । (ग) हा० टी० प० १५२ : सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १४७ अध्ययन ४ : सूत्र १८ टि०६४ अगस्त्यसिंह के अनुसार पापों से निवृत्त भिक्षु विरत कहलाता है। जिनदास और हरिभद्र सूरि के अभिमत से बारह प्रकार के तप में अनेक प्रकार से रत भिक्षु विरत कहलाता है। 'पापकर्मा' शब्द का सम्बन्ध 'प्रतिहत' और 'प्रत्याख्यात' इनमें से प्रत्येक के साथ है। जिनदास और हरिभद्र के अनुसार जिसने ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में से प्रत्येक को हत किया हो वह प्रतिहत-पापकर्मा है। जिनदास और हरिभद्र के अनुसार जो आस्रवद्वार (पाप-कर्म आने के मार्ग) को निरुद्ध कर चुका वह प्रत्याख्यात-पापकर्मा कहलाता है। जिनदास महत्तर ने आगे जाकर इन शब्दों को एकार्थक भी कहा है। अनगार या साधु के विशेषण रूप से इन चार शब्दों का प्रयोग अन्य आगमों में भी प्राप्त है । संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा अनगार के विषय में विविध प्रश्नोत्तर आगमों में मिलते हैं। अत: इन शब्दों के मर्म को समझ लेना आवश्यक है । पाँच महाव्रत और छ8 रात्रि-भोजन-विरमण व्रत को अंगीकार कर लेने के बाद व्यक्ति भिक्षु कहलाता है। यह बताया जा चुका है कि महाव्रत ग्रहण करने की प्रक्रिया में तीन बातें रहती हैं--(१) अतीत के पापों का प्रतिक्रमण (२) भविष्य के पापों का प्रत्याख्यान और (३) वर्तमान में मन-वचन-काया से पाप न करने, न कराने और न अनुमोदन करने की प्रतिज्ञा । भिक्षु-भिक्षुणी के सम्बन्ध में प्रयुक्त इन चारों शब्दों में महाव्रत ग्रहण करने के बाद व्यक्ति किस स्थिति में पहुँचता है उसका सरल, सादा चित्र है । प्रतिहत-पापकर्मा वह इस लिए है कि अतीत के पापों से प्रतिक्रमण, निंदा, गर्दा द्वारा निवृत्त हो वह अपनी आत्मा के पापों का व्युत्सर्ग कर चुका है । वह प्रत्याख्यातपापकर्मा इसलिए है कि उसने भविष्य के लिए सर्व पापों का सर्वथा परित्याग किया है। वह संयत-विरत इसलिए है कि वह वर्तमान काल में किसी प्रकार का पाप किसी प्रकार से नहीं करता-उनसे वह निवृत्त है । संयत और विरत शब्द एकार्थक हैं। इस एकार्थकता को निष्प्रयोजन समझ संभवतः विरत का अर्थ तपस्या में रत किया हो। जो ऐसा भिक्षु या भिक्षुणी है उसका व्रतारोपण के बाद छह जीवनिकाय के प्रति कैसा बर्ताव रहना चाहिए उसी का वर्णन यहाँ से आरम्भ होता है। ६४. दिन में या रात में ( दिया वा राओ वा... ) : अध्यात्मरत श्रमण के लिए दिन और रात का कोई अन्तर नहीं होता अर्थात् वह अकरणीय कर्म को जैसे दिन में नहीं करता वैसे रात में भी नहीं करता, जैसे परिषद् में नहीं करता वैसे अकेले में भी नहीं करता, जैसे जागते हुए नहीं करता वैसे शयन-काल में भी नहीं करता। जो व्यक्ति दिन में, परिषद् में या जागृत दशा में दूसरों के संकोचवश पाप से बचते हैं वे बहिष्टि हैं-आध्यात्मिक नहीं हैं। जो व्यक्ति दिन और रात, विजन और परिषद्, सुप्ति और जागरण में अपने आत्म-पतन के भय से, किसी बाहरी संकोच या भय से नहीं. पाप से बचते हैं-परम आत्मा के सान्निध्य में रहते हैं वे आध्यात्मिक हैं। ____ दिन में या रात में, एकान्त में या परिषद् में, सोते हुए या जागते हुए'.-ये शब्द हर परिस्थिति, स्थान और समय के सूचक है। साधु कहीं भी, कभी भी आगे बतलाये जाने वाले कार्य न करे। 'साधु अकेला विचरण नहीं करता'-इस नियम को दृष्टि में रखकर ही जिनदास और हरिभद्र सूरि ने 'कारणवश अकेला' ऐसा १-अ० चू० पृ० ८७ : पावेहिन्तो विरतो पडिनियत्तो। २-(क) जि० चू० पृ० १५४ : विरओ णामऽणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ। (ख) हा० टी० ५० १५२ : अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः । ३-(क) अ० चू० पृ० ८७ : पावकम्म सद्दो पत्तेयं परिसमप्पति । (ख) जि० चू० पृ० १५४ : पावकम्मसद्दो पत्तेयं पत्तेयं दोसुवि वट्टइ, तं० ---पडिहयपावकम्मे पच्चक्खायपावकम्मे य । ४- (क) जि० चू० पृ० १५४ : तत्थ पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माणि पत्तेयं पत्तेयं जेण हयाणि सो पडिय पावकम्मो। (ख) हा० टी० ५० १५२ : प्रतिहतं-स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन । ५- (क) जि० चू० पृ० १५४ : पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति । (ख) हा० टी०प०१५२ : प्रत्याख्यातं हेत्वभावत: पुनर्वद्ध यभावेन पापं कर्म-ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः । ६ -जि० चू० पृ० १५४ : अहवा सव्वाणि एताणि एगट्ठियाणि । ७-(क) अ० चू० पृ० ८७ : सव्वकालितो णियमो त्ति कालविसेसणं-दिता वा रातो वा सव्वदा । (ख) वही, पृ०८७ : चेट्टा अवत्थंतरविसेसणत्थमिदं -सुते वा जहाभणितनिद्दामोक्खत्यसुत्ते जागरमाणे वा सेसं कालं। Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १४८ अध्ययन ४ सूत्र १८ टि०६५-६६ अर्थ किया है' । यहाँ 'एगओ' शब्द का वास्तविक अर्थ अकेले में एकांत में है। कई साधु एक साथ हों और वहाँ कोई गृहस्थ आदि उपस्थित न हो तो उन साधुओं के लिए यह भी एकांत कहा जा सकता है । ६५. पृथ्वी ( पुढवि ) : पाषाण, ढेला आदि के सिवा अन्य पृथ्वी' | ६६. भित्ति ( भित्ति ) : जिनदास ने इसका अर्थ नदी किया है। हरिभद्र ने इसका अर्थ नदीतटी किया है | अगस्त्यसिंह के अनुसार इसका अर्थ नदीपर्वतादि की दरार, रेखा या राजि है । यही अर्थ उचित लगता है । ६७. शिला (सिल) : विशाल पाषाण या विच्छिन्न विशाल पाषाण को शिला कहते हैं । ६८. ढेले ( लेलुं ) : मिट्टी का लघु पिण्ड अथवा पाषाण का छोटा टुकड़ा । ६६. सचित्त रज से संसृष्ट ( ससरवखं ) : अरण्य के वे रजकण जो गमनागमन से आक्रान्त नहीं होते सजीव माने गए हैं। उनसे संदिलष्ट वस्तु को 'सरजस्क' कहा जाता है। आवश्यक ४.१ की वृद्धि में 'समर' की व्याख्या 'सहरवसेणं सरखे' की है।) हरिभद्रसूरि के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'सरजस्क' है' । अर्थ की दृष्टि से 'सरजस्क' शब्द संगत है किन्तु प्राकृत शब्द की संस्कृत छाया करने की दृष्टि से वह संगत नहीं है । व्याकरण की दृष्टि से 'सरजस्क' का प्राकृत रूप 'सरयक्ख' या 'सरवख' होता है । किन्तु यह शब्द समर है इसलिए इसका संस्कृत रूप 'सरल' होना चाहिए अगस्त्यसिह स्थविर ने इसकी जो व्याख्या की है (५.८) वह 'ससरक्ष' के अनुकूल है। राख के समान अत्यन्त सूक्ष्म रजकणों को 'सरक्ख' और 'सरवख' से संश्लिष्ट वस्तु को 'ससरक्ख' कहा जाता है" । ओघनिर्युक्ति की वृत्ति में 'सरक्ख' का अर्थ राख किया गया है" । १ (क) जि० ० १० १२४ : कारणिएण या एगेन । (ख) हा० टी० प० १५२ : कारणिक एकः । २ (क) अ० चू० पृ० ८७ : पुढवी सक्करादीविकप्पा | (ख) जि० चू० पृ० १५४ : पुढविग्गणेणं पासाणलेट्टुमाईहिं रहियाए पुढवीए गहणं । (ग) हा० टी० प० १५२ : ३ - जि० चू० पृ० १५४ : भित्ती नाम नदी भण्णइ । ४- हा० टी० प० १५२ भित्तिः नदीतटी । : ५. अ० चू० पृ० ८७ : भित्ती नदी-पव्वतादि तडी ततो वा जं अवलितं । ६ (क) अ० ० ० ७ सिला सवित्वा पाहाणविसेसो (ख) जि० ० १५४ : सिला नाम विच्छिण्णो जो पाहाणो स सिला 1 (ग) हा० टी० प० १५२ : विशाल: पाषाणः । (क) अ० चू० पृ० ८७ : लेलू मट्टियापिंडो । (ख) जि० चू० पृ० १५४ : लेलु लेट्टुओ । ८- ओ० नि० २४-२५ । ७ ६ - हा० टी० प० १५२: सह रजसा आरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कः । १०-२० ० ५० १०१ सरबतो' सुसहोछारसरिसा पुढविरतो। सहसरक्वेण ससरक्खो । ११ - ओघ नि० ३५६ वृत्ति: सरक्खो - भस्म । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १४६ अध्ययन : सूत्र १८ टि०७०-७५ जिनदास महत्तर ने प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में 'सरक्ख' का अर्थ 'पांशु' किया है और उस अरण्यपांशु सहित वस्तु को 'सस रक्ख' माना है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में अगस्त्यसिंह स्थविर के शब्द भी लगभग ऐसे ही हैं । ७०. खपाच ( किलिचेण ) : बाँस की खपची, क्षुद्र काष्ठ-खण्ड । ७१. शलाका-समूह ( सलागहत्थेण ): काष्ठ, तांबे या लोहे के गढ़े हुए या अनगढ़ टुकड़े को शलाका कहा जाता है। हस्त भूयस्त्ववाची शब्द है५ । शलाकाहस्त अर्थात् शलाका-समूह। ७२. आलेखन ( आलिहेज्जा): यह 'आलिह' (आ।-लिख) धातु का विधि-रूप है। इसका अर्थ है- कुरेदना, खोदना, विन्यास करना, चित्रित करना, रेखा करना। प्राकृत में 'आलिह' धातु स्पर्श करने के अर्थ में भी है। किन्तु यहाँ स्पर्श करने की अपेक्षा कुरेदने का अर्थ अधिक संगत लगता है । जिनदास ने इसका अर्थ -'ईसि लिहणं' किया है । हरिभद्र 'आलिखेत्' संस्कृत छाया देकर ही छोड़ देते हैं । ७३. विलेखन (विलिहेज्जा ): (वि+लिख्) आलेखन और विलेखन में 'धातु' एक ही है केवल उपसर्ग का भेद है । आलेखन का अर्थ थोड़ा या एक बार करेदना और विलेखन का अर्थ अनेक बार कुरेदना या खोदना है। ७४. घट्टन ( घट्टेज्जा ): यह 'घट्ट' ( घट्ट ) धातु का विधि-रूप है । इसका अर्थ है हिलाना, चलाना । ७५. भेदन (भिदेज्जा ): यह भिद (भिद्) धातु का विधि-रूप है। इसका अर्थ है- भेदन करता, तोड़ना, विदारण करना, दो-तीन आदि भाग करना। १-जि० चू० पृ० १५४ : सरक्खो नाम पंसू भण्णइ, तेण आरण्णपंसुणा अणुगतं ससरक्खं भण्ण । २--अ० चू० पृ० ८७ : सरक्खो पंसू, तेण अरण्यपंसुणासहगतं -- ससरक्खं । ३- (क) नि० चू० ४.१०७ : किलिचो-वंशकप्परी । (ख) जि० चू० पृ० १५४ : कलिचं-कारसोहिसादीणं खंडं । (ग) हा० टी०प० १५२ : कलिजेन वा-क्षुद्रकाष्ठरूपेण । (घ) अ० चू० १०८७ : कलिंचं तं चेव सण्हं । ४ - (क) अ० चू : सलागा कट्ठमेव घडितगं । अघडितगं कळं। (ख) नि० चू० ४.१०७ : अण्णतरकट्ठयडिया सलागा। (ग) जि० चू० पृ० १५४ : सलागा घडियाओ तंबाईणं । ५-अ० चि० : ३.२३२ । ६ - (क) जि० चू० पृ० १५४ : सलागाहत्थओ बहुरिआयो अहवा सलागातो घडिल्लियाओ तासि सलागाणं संघाओ सलागाहत्थो । (ख) हा० टी० १० १५२ : शलाकया वा--अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा--शलाकासंघातरूपेण । ७-(क) अ० चू० १०८७ : इस लिहणमालिहणं विविहं लिहणं विलिहणं । (ख) जि. चू० पृ० १५४ : आलिहणं नाम ईसि, विलिहणं विविहेहिं पगारेहिं लिहणं । (ग) हा० टी० ५० १५२ : ईषत्सकद्वाऽऽलेखन, नितरामनेकशो वा विलेखनम् । ८-(क) अ० चू० पृ० ८७ : घट्टणं संचालणं । (ख) जि० चू० पृ० १५४ : घट्टणं बहूणं । (ग) हा० टी० ५० १५२ : घट्टनं चालनम् । ६-(क) अ० चू पृ० ८७ : भिंदणं भेदकरणम् । (ख) जि० चू० पृ० १५४ : भिदणं दुहा वा तिहा बा करणंति । (ग) हा० टी०प०१५२ । भेदो विदारणम् । ज Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १५० अध्ययन ४ सूत्र १६ टि० ७६७६ न आलेखन करेन भेदन करे ( न आलिहेज्जा न भिदेज्जा) : दसवें सूत्र में छह प्रकार के जीवों के प्रति त्रिविधत्रिविध से दण्ड- समारम्भ न करने का त्याग किया गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये जीवों के प्रति दण्ड-स्वरूप होने से मुमुक्षु ने प्राणातिपात विरमण आदि महाव्रत ग्रहण किये । सूत्र १८ मे २३ में छह प्रकार के जीवों के कुछ नामों का उल्लेख करते हुए उनके प्रति हिंसक क्रियाओं से बचने का मार्मिक उपदेश है और साथ ही भिक्षु द्वारा प्रत्येक की हिंसा से बचने के लिए प्रतिज्ञा ग्रहण है । पृथ्वी भित्ति, शिला देने, सचित रजपे पृथ्वीकाय जीवों के साधारण से साधारण उदाहरण हैं। हाथ पाँव, काष्ठ, गाय आदि उपकरण भी साधारण से साधारण हैं । आलेखन, विलेखन, घट्टन और भेदन - हिंसा की ये क्रियाएं भी बड़ी साधारण हैं । इसका तात्पर्य यह है कि भिक्षु साधारण से साधारणपृथ्वीकायिक जीवों का भी साधारण से साधारण साधनों द्वारा तथा साधारण क्रियाओं द्वारा मी हनन नहीं कर सकता; फिर क्रूर साधनों द्वारा तथा स्थूल क्रियाओं द्वारा हिंसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ भिक्षु को यह विवेक दिया गया है कि वह हर समय हर स्थान में, हर अवस्था में किसी भी पृथ्वीकायिक जीव की किसी भी उपकरण से किसी प्रकार हिंसा न करे और सब तरह की हिसक क्रियाओं से बचे 7 यही बात अन्य स्थावर और त्रस जीवों के विषय में सूत्र १६ से २३ में कही गयी है और उन सूत्रों को पढ़ते समय इसे ध्यान में रखना चाहिए। सूत्र १६ : ७६. उदक ( उदगं ) : जल दो प्रकार का होता है---भौम और आन्तरिक्ष । जल को शुद्धोदक कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं(१) धारा-जल, (२) करक-जल, (३) हिम-जल और (४) तुषार-जल इनके अतिरिक्त सभी अन्तरिक्ष जल है। भूम्याधित या भूमि के स्रोतों में बहने वाला जल भौम कहलाता है । इस भौम-जल के लिए 'उदक" शब्द का प्रयोग किया गया है । उदक अर्थात् नदी, तालाबादि का जल, शिरा से निकलने वाला जल । ७७. ओस ( ओसं ) : रात में, पूर्वाह्न या अपराह्न में जो सूक्ष्म जल पड़ता है उसे ओस कहते हैं । शरद ऋतु की रात्रि में मेघोत्पन्न स्नेह विशेष को कहते हैं। ७८. हिम (हिमं ) : बरफ या पाला को हिम कहते हैं । अत्यन्त शीत ऋतु में जो जल जम जाता है उसे हिम कहते हैं । ७६. घूँअर ( महियं ) : शिशिर में जो अंधकार कारक तुषार गिरता है उसे महिका, कुहरा या धूमिका कहते हैं । १- अ० चू० पृ० ८८ : अन्तरिखखपाणितं सुद्धोदगं । २ (क) अ० ० ० नवि-सागादितिं पाणिमुदयं । (ख) जि० चू० पू० १५५ उदगग्गहणेण भोमस्त आउक्कायस्स गहणं कथं । (ग) हा० टी० प० १५३ : उदकं - शिरापानीयम् । ३ -- (क) अ० चू० पृ० ८८ : सरयादौ णिसि मेघसंभवो सिणेह विसेसो तोस्सा 1 (ख) जि० चू० पृ० १५५ : उस्सा नाम निसि पडइ, पुव्वण्हे अवरण्हे वा, सा व उस्सा तेहो भण्ण्ड । (ग) हा० टी० प० १५३ । अवश्यायः हः । ४ (क) अ० पू० पृ० ८८ अति सोतायत्वंभितमुदगमेव हिमं । (ख) हा० टी० प० १५३ : हिमं स्त्यानोदकम् । ५- (क) अ० चू० पृ० ८८ पातो सिसिरे दिसाधकारकारिणी महिता । (ख) जि० चू० पृ० १५५ : जो सिसिरे सारो पडइ सो महिया भण्ण्ई । (ग) हा० डी० पं० १५३ महिका भूमिका । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ८०. ओले (कर): आकाश से गिरने वाले उदक के कठिन ढेले ' । आन्तरिक्ष-जल को शुद्धोदक कहते हैं। ८१. भूमि को भेदकर निकले हुए जल-बिन्दु ( हरतगुगं ) जिनदास ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है- जो भूमि को भेदकर ऊपर उठता है उसे हरतनु कहते हैं । यह सीली भूमि पर स्थित पात्र के नीचे देखा जाता है । हरिभद्र ने लिखा है भूमि को उद्भेदन कर जो जल-बिन्दु तृणाग्र आदि पर होते हैं वे हरतनु है । व्यास्याओं के अनुसार बिन्दु ये के होते हैं। ८२. शुद्ध - उदक ( सुद्धोदगं ) : ८३. जल से भींगे ( उदओल्लं ) : जल के ऊपर जो भेद दिये गये हैं उनके बिंदुओं से आई – गीला है । ८४. जल से स्निग्ध ( ससिणिद्धं ) : १५१ जो निम्ता से युक्त हो उसे सस्निग्ध कहते हैं उसका अर्थ है जल-बिंदु रहित आईला उन गोली वस्तुओं को जिनसे ज बिंदु नहीं गिरते, 'सस्निग्ध' कहते हैं । ८५. आमर्श संस्पर्श ( श्रीमुसेज्जा संफुसेज्जा ) : आमुस ( आ + मृश् ) थोड़ा या एक बार स्पर्श करना आमर्श है; संफुस ( सम् + स्पृश् ) अधिक या बार-बार स्पर्श करना संस्पर्श है" । अध्ययन ४ सूत्र ११ टि०८०-८६ ६. आपीड़न प्रपीड़न ( आवीलेज्जा पवीलेन्जा ) : आवील (आ+पी ) थोड़ा या एक बार निचोड़ना, दबाना पवील [ पी] प्रपीड़न अधिक या बार-बार निचोड़ना, दबाना | ६ : १ (क) अ० चू० पृ० ८८ वरिसोदगं कढिणीभूतं करगो । (ख) हा० टी० प० १५३ : करकः कठिनोदकरूपः । 1 २० ० ० १५५ हरत भूमि भेतून उद सोय उगाइ तिताए भूभीए विएस हेडा पोति । ३० टी० ० १५२ हरणायादिषु भवति । ४ श्र० चू० पृ० ८८ : किंचि समिद्ध भूमि भेत्तूण कहिचि समस्सयति सफुसितो सिणेहविसेसो हरतणुतो । ५ (क) अ० चू० पृ८८ : अंतरिक्खपाणितं सुद्धोदगं । (ख) जि० चू० पृ० १५५ : अंत लिक्खपाणियं सुद्धोदगं भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १५३ शुद्धोदकम् अन्तरिक्षोदकम् । (क) अ० चू० पृ० ८८ तोल्लं उदओल्लं वा कातं सरीरं 1 (ख) जि० चू० पृ० १५५ : जं० एतेसि उदगभेएहिं बिंदुसहियं भवइ तं उदउल्लं भन्नई । (ग) हा० टी० प० १५३ उनका चेह मलविन्दुतुषारादि अनन्तरोदितोदकभेदसंमिश्रतः। (क) अ० चू० पृ० ८८ ससणिद्ध [म] बिन्दुगं ओल्लं ईसि । (ख) जि० चू० पृ० १५५ : ससिद्धि जं न गलति तितयं तं ससणिद्ध भइ । (ग) हा० टी० प० १५३ : अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः, सस्निग्धता चेह बिन्दुर हितानन्तरो तिरमिता । -(क) अ० चू० पृ० ८८ : ईसि मुसनमामुसणं समेच्चमुसणं सम्मुसणं । (ब) जि० ० पृ० १५५ आमुसगं नाम ईषत्स्पर्शनं आसन अवागवार फरिसणं आमुसणं पुणो पुणो संपुसणं । (ग) हा० टी० प० १५३ : सकृदोषद्वा स्पर्शनमामर्षणम् अतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । (ख) जि० चू० पृ० १५५ (ग) हा० टी० प० १५३ (क) अ० चू० पृ० ८८ : इसि पोलणमापीलणं, अधिकं पीलनं निप्पोलणं । ईसि निपोलणं आपीलणं अच्चत्थं पोलणं पवीलणं । सदोषद्वा पीडनमा पोडनमतोऽन्या पीडनम्। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशर्वकालिक ) १५२ ८७. प्रास्फोटन प्रस्फोटन ( अक्खोडेज्जा पक्खोडेज्जा ) : अक्खोड ( आ + स्फोटय् ) - थोड़ा या एक बार झटकना । पक्खोड ( प्र + स्फोटय् ) - बहुत या अनेक बार झटकना' । ८. आतापन प्रतापन ( आयाबेज्जा पयाबेज्जा ) : आयाव ( आ + तापय् ) - थोड़ा या एक बार सुखाना, तपाना। पथाव ( प्र + तापय् ) - बहुत या अनेक बार सुखाना, तपाना' । सूत्र २० ८. अग्नि ( अर्माण ) अग्नि से लगा कर उल्का तक तेजस्-काय के प्रकार बतलाये गए हैं। अग्नि की व्याख्या इस प्रकार है : लोह -पिंड में प्रविष्ट स्पर्शग्राह्य तेजस को अग्नि कहते हैं । ६०. अंगारे ( इंगालं ) : रहित कोयले को अंगार कहते है लकड़ी का जलता हुआ धूम-रहित । ६१. मुर्मुर ( मुम्मुरं ) : कंडे या करसी की आग, तुषाग्नि चोकर या भूसी की आग, क्षारादिगत अग्नि को मुर्मुर कहते हैं। भस्म के विरल अग्नि अध्ययन ४ : सूत्र २० टि० ८७-१३ कण मुर्मुर हैं। ६२. अचि ( अच्चिं ) : मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला, आकाशानुगत परिच्छिन्न अग्निशिखा, दीपशिखा के अग्रभाग को अच कहते हैं । ६३. ज्वाला ( जालं ) : प्रदीप्ताग्नि से प्रतिबद्ध अग्निशिखा को ज्वाला कहते हैं । १ – (क) अ० चू० पृ० ८८ : एक्कं खोडनं अक्खोडणं, भिसं खोडनं पक्खोडणं । एवं वारं जं अक्लोडेड (ख) जि० ० ० १५५ (ख) हा० टी० १० १५३ वा सदीदा स्फोटनमा स्फोटनमतोपत्यस्फोटनम् । ईसि तावणमातावणं, प्रगतं तावणं पतावणं । १५५: ईसिसि तावणं आतावणं, अतीव तावणं पतावणं । १५३: सकृदोषद्वा तापनमातापनं विपरीतं प्रतापनम् । १५५-५६ : अगणी नाम जो अयपिंडाणुगयो फरिसगेज्झो सो आयपिंडो भण्णइ । २ (क) अ० चू० पृ० ८८ (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० ३ (क) जि० चू० पृ० (ख) हा० टी० प० १५४ अवस्पिण्डानुगतोऽग्निः । ४ (क) अ० ० १० ८ इंगाल वा खदिरादीन पिट्टण धूमविरहितो इंगालो । (ख) जि० चू० प० १५६ : इंगालो नाम जालारहिओ । (ग) हा० टी० प० १५४ : ज्वालारहितोऽङ्गारः । ५ (क) अ० ० ० ८६ करिगामीण किचि सिद्धो अग्गी मुम्मुरो । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : मुम्मुरो नाम जो छाराणुगओ अग्गी सो मुम्मुरो । (ग) हा० टी० प० १५४ : विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः । ६ (क) अ० चू० पृ० ८६ : दीवसिहासिहरादि अच्ची । (ख) जि० चू० पृ० १५६ अनाम जगासाग परिच्छिष्णा अग्मिसिहा । (ग) हा० टी० १० १५४ मूलानिविदन्ना ज्याला अि -(क) अ० चू० पृ० ८६ : उद्दितोपरि अविच्छिष्णा जाला । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : ज्वाला पसिद्धा चैव । (ग) हा० टी० प० १५४ प्रतिबद्धा ज्वाला । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवणिया (षड्जीवनिक ) ४. अलात ( अलायं ) : जड़ी ६५. शुद्ध अग्नि ( सुद्धागण ) : ईपनरहित अग्नि । ६. उल्का ( उक्कं ) : गगनाम्नि विद्युत् आदि। ६७. उत्सेचन ( उंजेज्जा ) : उंज (सिन्) -सींचना, प्रदीप्त करना । ८. घट्टन ( घट्टेज्जा ) : सजातीय या अन्य द्रव्यों द्वारा चालन या घर्षण । २६. उज्ज्यालन (उज्जालेज्जा ) पंखे आदि से अग्नि को ज्वलित करना उसकी वृद्धि करना । १००. निर्वाण करे ( निव्वावेज्जा ) : निर्वाण का अर्थ है -बुझाना | सूत्र २१ : १०१. चामर (सिएण ) सित का अर्थ चँवर किया गया है। किन्तु संस्कृत साहित्य में सित' का चंवर अर्थ प्रसिद्ध नहीं है । 'सित' चामर के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है - सित चामर - श्वेत चामर । - - १ (क) अ० चू० पृ० ८ : अलातं उमुतं । (ख) जि० सू० पृ० १५६ : अलायं नाम उम्पुआहियं पंज (पज्ज) लियं । (ग) हा० टी० ५० १५४ : अलातमुल्मुकम् । २ (क) अ० चू० पृ० ८ एते विससे मोत्तूण सुद्धागणि । (ख) जि० ० चू० पृ० १५६ : इंधणरहिओ सुद्धागणी | (ग) हा० टी० प० १५४ निरिन्धनः शुद्धोऽग्निः । ३- (क) अ० चू० पृ० ८६ : उक्का विज्जुतादि । (ख) जि० ० ० १५६ उनकादि । (ग) हा० टी प० १५४ उल्का – गगनाग्निः । ४. १५३ (क) अ० चू० पृ० ८६ : अवसंतुयणं उंजणं । (ख) जि० चू० पू० १५६ : उंजणं णाम अवसंतुअणं । (ग) हा० टी० १० १५४ मुलेचनम्। ८- ५-- (क) अ० चू० पृ० ८ परोप्पर मुताणं अण्णेण वा आहणणं घट्टणं । (ख) जि० चू० पृ० १५६ घट्टणं परोप्परं उम्मुगाणि घट्टयति, वा अण्गेण तारिसेण दव्वजाएण घट्टयति । (ग) हा० टी० प० १५४ : घट्टनं सजातीयादिना चालनम् । (क) अ० चू० ८६ वीयणगादीहि जालाकरणमुज्जालणं । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : उज्जलणं नाम बीयणमाईहि जालाकरणं । (ग) हा० टी० प० १५४ : उज्ज्वालनं व्यजनादिभिर्वृद्ध यापादनम् । (क) अ० चू० पृ० ८६ विज्भवणं निश्वावणं । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : निव्वावणं नाम विज्झावणं । (ग) हा० टी० प० १५४ : निर्वापणं विध्यापनम् । (क) अ० चू० पृ० (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० १५४ : सितं चामरम् । ८ : चामरं सितं । १५६ : सीतं चामरं भण्णइ । अध्ययन ४ सूत्र २१ टि० ९४ १०१ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १५४ अध्ययन ४ : सूत्र २१ टि० १०२-१०५ आयार घुला (१।६६ ) में वही प्रकरण है जो कि इस सूत्र में है। वहाँ पर 'सिएण वा' के स्थान पर 'सुवेग वा' का प्रयोग हुआ है सूवेण वा विषेण वा I निशीथ भाष्य ( गा० २३६ ) में भी 'सुप्पं का प्रयोग मिलता है : :--- यह परिवर्तन विचारणीय है । १०२. पंखे ( विणेण ) : व्यजन, पंखा' । १०३. बीजन ( तालियंटे ) : जिसके बीच में पकड़ने के लिए छेद हो और जो दो पुट वाला हो उसे तालवृन्त कहा जाता है। कई-कई इसका अर्थ ताड़पत्र का पंखा भी करते हैं। सुप्पे य तालवेंटे हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य । , अच्छिफुमे पव्वए, जालिया चेव पत्ते य ॥ १०४. पत्र, शाखा, शाखा के टुकड़े ( पत्ते वा साहाए वा साहाभंगेण वा ) : 'पत्ते वा' 'साहाए वा' के मध्य में सत्तभंगेण वा' पाठ भी मिलता है । टीका-काल तक 'पत्तभंगेण वा' यह पाठ नहीं रहा । इसकी व्याख्या टीका की उत्तरवर्ती व्याख्याओं में मिलती है। आचाराङ्ग (२.१.७.२६२) में पते वा' के बाद 'साहाए वा' रहा है किन्तु उनके मध्य में पत्तभंगेण वा' नहीं है और यह आवश्यक भी नहीं लगता । पत्र पद्मिनी पत्र आदि। -वृक्ष की डाल । शाखा शाखा के टुकड़े डाल का एक अंश । १०५. मोर पंख (पिण) इसका अर्थ मोर पिच्छ अथवा वैसा ही अन्य पिच्छ होता है । अ० चू० पृ० ८६ वीयणं विहुवणं । (ख) जि०००१४६ वि दीपनं नाम । (ग) हा० टी० प० १५४ विधुवनं व्यजनम् । २– (क) अ० चू० पृ० ८६ : तालवेंटमुरखेवजाती । (ख) जि० ० सू० पृ० १५६ : तालियंटो नाम लोगपसिद्धो । (ग) हा० टी० प० १५४ तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहणान् द्विपुटम् । ३ (क) अ० चू० पृ० ८६ : पउमिणिपण्णमादी पत्तं । (ख) जि० चू० पृ०१५६ : पत्तं नाम पोमिणिपत्तादी । (ग) हा० टी० प० १५४ पत्र - पद्मिनीपत्रादि । ४ -- ( क ) अ० चू० पृ० ८ : रुखखडालं साहा, तदेगदेसो साहा भंगतो । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : साहा स्वखस्स डालं, साहाभंगओ तस्सेव एगदेसो । (ग) हा० टी० प० १५४ : शाखा - वृक्षडालं शाखाभङ्गः ---- तदेकदेशः । ५– (क) अ० चू० पृ० ८ : पेहुणं मोरंगं । (ख) जि० ० ० १५६ पेणं मोरविन्द वा अगं किंचि या तारि दिन्छ । (च) हा० टी० प० १५४ पेरादिपदम् । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) १०६ मोर - पिच्छी ( पिहुणहत्थेण ) : मोर - पिच्छों अथवा अन्य पिच्छों का समूह- -एक साथ बंधा हुआ गुच्छ' । १०७. वस्त्र के पल्ले ( चेलकण्णेण ) : वस्त्र का एक देश भाग । १०८. अपने शरीर अथवा बाहरी पुगलों को ( अप्पणी वा कार्य बाहिर वा विग्गलं ) अपने गात्र को तथा उष्ण ओदन आदि पदार्थों को । १५५ १०६. स्फुटित बीजों पर ( रुदेतु) बीज जब भूमि को फोड़ कर बाहर निकलता है तब उसे रूढ़ कहा जाता है। यह बीज और अंकुर के बीच की अवस्था है । अंकुर नहीं निकला हो ऐसे स्फुटित बीजों पर ११०. पत्ते आने की अवस्था वाली वनस्पति पर ( जाएसु ) : अगस्त्य रिंग में बद्ध - मूल वनस्पति की जात कहा है। यह भ्रूणाग्र के प्रकट होने की अवस्था है। जिनदास चूर्णि और टीका में इस दशा को स्तम्ब कहा गया है। जो वनस्पति अंकुरित हो गई हो, जिसकी पत्तियाँ भूमि पर फैल गई हों या जो घास कुछ बढ़ चली हो उसे स्तम्बीभूत कहा जाता है । १११. छिन्न वनस्पति के प्रङ्गों पर (छिन्ने ) : वायु द्वारा भग्न अथवा परशु आदि द्वारा वृक्ष से अलग किए हुए आर्द्र अपरिणत डालादि अङ्गों पर । २ (क) अ० चू० पृ० ८ः तदेकदेशी चेलको । सूत्र : २२ १ (क) अ० पू० पू० सायणस्वती (ख) जि० चू० पृ० १५६ : पिहृणात्थओ मोरिगकुच्चो गिद्धपिच्छाणि वा एगओ बद्धाणि । (ग) हा० टी० ० १५४ समूहः । ४ (क) अ० चू० पृ० ६० : उभिज्जेत रूढं । अध्ययन ४ : सूत्र २२ टि० १०६-१११ (स) ० ० ० १५६ एगदेसो (ग) हा० टी० प० १५४ : वेलकर्णः तदेकदेशः । ३ -- (क) अ० ० पृ० ८६ : अप्पनो सरीरं सरीरवज्जो बाहिरो पोग्गलो । १५६ : पोग्गलं उसिणोदगं । (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० १५४ आत्मनो वा कार्य स्वदेहमित्यर्थः, बाह्य वा जुलम् उष्णौदनादि (ख) जि० चू० पृ० १५७ : रुढं णाम बीयाणि चैव कुडियाणि ण ताब अंकुरो निष्फज्जइ । (ग) हा० डी० प० १२५ स्फुटितीजानि । अ० चू० पृ० १० : आबद्धमूलं जातं । (क) जि० चू० पृ० १५७ जायं नाम एतानि चैव थंबी । (ख) हा० टी० प० १५५ : जातानि स्तम्बीभूतानि । ७ (क) अ० चू० पृ० १० : छिष्णं पिहोकतं तं अपरिणतं । (ख) जि० सू० पृ० १५७ : हिण्णग्गहषेणं वारणा भग्गस्स अण्णेण वा परशुमाइणा छिष्णस्स अभावे वट्टमाणस्स अपरिणयस्स ग्रहणं कयमिति । (ग) हा० डी० पु० १५५ परवादिभिरं क्षात् पृथक्वापितान्यानि अपरिगतानि Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १५६ ११२. अण्डों एवं काण्ड-कोट से युक्त काण्ड आदि पर ( सचित्तकोलपडिनिस्सिए ) : सूत्र 'के इस वाक्यांश का प्रतिनिश्रित' शब्द सचित्त और कोल- दोनों से सम्बन्धित है । सचित्त का अर्थ अण्डा और कोल का अर्थ युग-काष्टकीट होता है और काकीट हो वैसे काष्ठ आदि पर । 1 ११३. सोये ( तुट्ट ज्जा ) : (ख) सीना, करवट लेगा। सूत्र २३ : ११४. सिर (सीसि ) : अगस्त्य में 'सिया के पश्चात् उदसीसिवा है अपूरी और दोषिकाकार ने 'उदरसिया' के पश्चात् 'सोसिया' माना है किन्तु टीका में वह व्याख्यात नहीं है । 'वत्थंसि वा' के पश्चात् 'पडिग्गहंसि वा' 'कंबलंसि वा' 'पात्रपुंछसि वा' ये पाठ और हैं, उनकी टीकाकार और अवचुरीकार ने व्याख्या नहीं की है। दीपिकाकार ने उनकी व्याख्या की है। अगस्त्य रिंग में 'वत्यसि वा' नहीं है, 'कंपलसिवा' है। पाय' (पाद) रहर (एमोहरण) का पुनरूरत है पावनदेन जोहरणमेव गृह्यते' (ओषनियुक्ति गाथा ७०२ वृत्ति) | पादच्छन् रजोहरणम् (स्वाङ्ग ५.७४ टी० पृ० २२० ) । इसलिए वह अनावश्यक प्रतीत होता है। अगस्त्य और पाय' दोनों पावलावर है। में ११५. रजोहरण ( श्यहरणंति ) : स्थानाङ्ग (५.१९१ ) और बृहत्कल्प (२.२९) में ऊन, ऊँट के बाल, सन, वच्चक नाम की एक प्रकार की घास और मूँज का रजोहरण करने का विवान है ओषनिति (७०६) में ऊन ऊँट के बाद और कम्बल के रजोहरण का विधान मिलता है उन आदि के धागों को तथा ऊंट आदि के बालों को बंट कर उनकी कोमल फलियाँ बनाई जाती हैं और वैसी दो सौ फलियों का एक रजोहरण होता है । रखी हुई वस्तु को लेना, किसी वस्तु को नीचे रखना, कायोत्सर्ग करना या खड़ा होना, बैठना, सोना और शरीर को सिकोड़ना सारे कार्य प्रमानपूर्वक स्थान और शरीर को किसी सामन से करा साफकर) करणीय होते हैं। है । वह मुनि का चिह्न भी है' प्रमार्जनका साधन रजोहरण अध्ययन ४ सूत्र २३ टि० ११२ ११५ इस गाथा में रात को चलते समय प्रमाण पूर्वक (भूमि को अँधेरे में दिन को भी उससे भूमि को साफ कर चला जाता है। यह भी भी कहा जाता है । आयाणे निरीये डागनिसकोए । पुवं पमज्जगट्टा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥ ओघ नियुक्ति ७१० हारते हुए) चलने का कोई संकेत नहीं है किन्तु रात को या उसका एक उपयोग है। इसे पादप्रोञ्छन धर्मध्वज और ओद्या (क) ० ० ० ० पति-पडिणिस्ते या परिणिति सो दो वि सविपरित उगादिकता पुणा तेजसेति। (ख) जि० ० चू० पृ० १५७ : सचित्तकोल पडिणिस्सियसद्दो दोसु वट्टइ, सचित्तसद्दे य कोलस य, सचित्तपडिणिस्सियाणि दारुयाणि सचित्तको पनिस्सिताणि तत्य सचित्तगहणेण अंडगउद्देहिगादीहि अणुगताणि जाणि दारुगादीनिस चित्तसियाचि नाम कोलो युगो भन्यति सो कोलो जे दाने प्रगताथिको डिनिस्वाणि । (ग) हा० टी० प० १५५ सचितानि - अण्डकादीनि कोलः - पुणः । , २ (क) अ० चू० पृ० ६०: गमनं चंकमणं, चिटुणं ठाणं णिलीदणं उपविसणं, तुयट्टणं निवज्जणं । J (ख) जि० चू० पृ० १५७ गमणं आगमणं वा चंक्रमणं भण्इ, विदुणं नाम तेति उवर ठियस्त अच्छणं, निसीयण उवद्वियस्स जं आवेसणं । (ब) हा० टी० प० १५५ स्थानम् एव नियोजन उपवेशनम्। ३- जि० १० चू० पृ० १५७: तुयट्टणं निवज्जणं । ४- हा० टी० प० १६६ : पादपुंछन' रजोहरणम् । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जोबनिका) १५७ अध्ययन ४ : सूत्र २३ टि० ११६-१२३ ११६. गोच्छग ( गोच्छगंसि ) : - इसका अर्थ है-- एक वस्त्र जो पटल (पात्र को ढांकने के वस्त्र) को साफ करने के काम आता है।' ११७. दंडक ( दंडगंसि ) : ओघनियुक्ति (७३०) में औपग्रहिक (विशेष परिस्थिति में रखे जाने वाले) उपधियों की गणना है। वहाँ दण्ड का उल्लेख है। इसकी कोटि के तीन उपधि और बतलाए गये हैं -यष्टि, वियष्टि और विदण्ड। यष्टि शरीर-प्रमाण, वियष्टि शरीर से चार अंगुल कम, दण्ड, कंधे तक और विदण्ड कुक्षि (कोख) तक लम्बा होता है। यवनिका (पर्दा) बांधने के लिए यष्टि और उपाश्रय के द्वार को हिलाने के लिए वियष्टि रखी जाती थी। दण्ड ऋतुबद्ध (चातुर्मासातिरिक्त) काल में भिक्षाटन के समय पास में रखा जाता था और वर्षाकाल में भिक्षाटन के समय विदण्ड रखा जाता था। भिक्षाटन करते समय बरसात आ जाने पर उसे भीगने से बचाने के लिए उत्तरीय के भीतर रखा जा सके इसलिए वह छोटा होता था। वृत्ति में नालिका का भी उल्लेख है। उसकी लम्बाई शरीर से चार अंगुल अधिक बतलाई गई है। उसका उपयोग नदी को पार करते समय उसका जल मापने के लिए होता था। व्यवहार सूत्र के अनुसार दण्ड रखने का अधिकारी केवल स्थविर ही है। ११८. पीठ, फलक ( पीढगंसि वा फलगंसि वा ) : पीठ-काठ आदि का बना हुआ बैठने का बाजौट । फलक-लेटने का पट्ट अथवा पीढ़ा । ११६. शय्या या संस्तारक (सेज्जसि वा संथारगंसि वा ) : शरीर-प्रमाण बिछौने को शय्या और ढाई हाथ लम्बे और एक हाथ चार अंगुल चौड़े बिछौने को संस्तारक कहा जाता है। १२०. उसी प्रकार के अन्य उपकरण पर ( अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए): ___ साधु के पास उपयोग के लिए रही हुई अन्य कल्पिक वस्तुओं पर । 'तहप्पगारे उबगरणजाए'-इतना पाठ चूणियों में नहीं है। १२१. सावधानी पूर्वक ( संजयामेव ) : कीट, पतंग आदि को पीड़ा न हो इस प्रकार । यतनापूर्वक, संयमपूर्वक । १२२. एकान्त में ( एगंतं ): ऐसे स्थान में जहाँ कीट, पतङ्गादि का उपघात न हो। १२३. संघात ( संघायं ): उपकरण आदि पर चढ़े हुए कीट, पतंग आदि का परस्पर ऐसा गात्रस्पर्श करना, जो उन प्राणियों के लिए पीड़ा रूप हो, संघात १- ओ० नि० ६६५ : होइ पमज्जणहेडं तु, गोच्छओ भाणवत्थाणं । २-ओ० नि० ७३० वृत्ति : अन्या नालिका भवति आत्मप्रमाणाच्चतुभिरंगुलैरतिरिक्ता, तत्थ नालियाए जलथाओ गिज्झइ । ३-ब्ध०८.५ पृ० २६ : थेराण थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दण्डए वा .... . . ४ --- अ० चू० पृ० ६१ : पीढगं कट्ठमतं छाणमतं वा । फलग जत्थ सुप्पति चंपगपट्टाधिपेढणं वा । ५.--- (क) अ० ०० पृ० ६१ : सेज्जा सव्वंगिका । संथारगो यऽड्ढाइज्जहत्थाततो सचतुरंगुलं हत्थं विस्थिष्णो । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : सेज्जा सब्बंगिया, संथारो अड्ढाइज्जा हत्था आयतो हत्थं सच उरंगुलं विच्छिण्णो । ६-(क) अ० चू० पृ० ६१ : अण्णतरवपणेण तोवग्गहियमणेगागारं भणितं । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : अप्णतरग्गहणेण बहुविहस्स तहप्पगारस्स संजतपायोग्गस्स उयगरणस्स गहणं कयंति । (ग) हा० टी० ५० १५६ : अन्यत रस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते। ७ -- (क) अ० चू० पृ० ६१ : संजतामेव जयणाए जहा ण परिताविज्जति । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : संजयामेवत्ति जहा तस्स पीडा ण भवति तहा घेत्तूर्ण । (ग) हा० टी०प० १५६ : संयत एव सन् प्रयत्नेन वा। ८-(क) अ० चू० पृ० ६१ : एकते जत्थ तस्स उवधातो ण भवति तहा अवणेज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १५८ : एगते नाम जत्थ तस्स उवघाओ न भवइ तत्थ । (ग) हा० टी० पृ० १५६ : तस्यानुपघातके स्थाने । Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दतवेलियं ( दशवं कालिक ) १५८ अध्ययन ४ : श्लोक १ टि० १२४-१२७ कहलाता है। यह नियम है कि एक के ग्रहण से जाति का ग्रहण होता है। अतः अवशेष परितापना, क्लामना आदि को भी संघात के साथ ग्रहण कर लेना चाहिए। संघात के बाद का आदि शब्द लुप्त समझना चाहिए। श्लोक १ : १२४ र स्वार ( पाणभूवाई "प्राणाद्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः " इस बहु प्रचलित श्लोक के अनुसार दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव प्राण तथा तरु ( या एक इन्द्रिय वाले जीव ) भूत कहलाते हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर ने प्राण और भूत को एकार्थक भी माना है तथा वैकल्पिक रूप में प्राण की त्रस और भूत को स्थावर अथवा जिनका श्वास उच्छ्वास व्यक्त हो उन्हें प्राण और शेष जीवों को भूत माना है' | ख १२५. हिंसा करता है ( हिसई ख ) : 'अयतनापूर्वक चलने, खड़ा होने आदि से साधु प्राण-भूतों की हिंसा करता है'-- इस वाक्य के दो अर्थ हैं - (१) वह वास्तव में ही जीवों का उपमर्दन करता हुआ उनकी हिंसा करता है और (२) कदाचित् कोई जीवन भी मारा जाय तो भी वह छह प्रकार के जीवों की हिंसा के पाप का भागी होता है। प्रमत्त होने से जीव-हिंसा हो या न हो वह साधु भावत: हिंसक है' । ) ग १२६. उससे पापकर्म का बंध होता है ( बंधइ पावयं कम्म ) : अयतनापूर्वक चलने वाले को हिंसक कहा गया है भले ही उसके चलने से जीव मरे या न मरे । प्रमाद के सद्भाव से उसके परिणाम अकुशल और अशुभ होते हैं। इससे उसके क्लिष्ट ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंध होता रहता है। कर्म दो तरह के होते हैं (१) पुण्य और (२) पाप । शुभ योगों से पुण्य कर्मों का बंध होता है और अशुभ से पाप कर्मों का । कर्मज्ञानावरणीय आदि बाठ हैं। उनके स्वभाव भिन्न-भिन्न है अशुभ योगों से साधु आठों ही पाप-कर्म-कृतियों का बंध करता है। आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। अशुभ क्रियाओं से राग-द्वेष के द्वारा खिंच कर पुद्गल - निर्मित कर्म इन प्रदेशों में प्रवेश पा वहाँ रहे हुए पूर्व कर्मों से संबद्ध हो जाते हैं एक-एक प्रदेश को भाठ ही कर्म आवेष्टरिवेष्टित कर लेते है यही कहलाता है । पाप कर्म का बंध अर्थात् अत्यन्त स्निग्ध कर्मों का उपचयसंग्रह इसका फल बुरा होता है । का १२७. कटु फल वाला होता है ( होइ कडुयं फलं घ ) : प्रमादी के मोहादि हेतुओं से पाप कर्मों का बंध होता है। पाप कर्मों का विपाक बड़ा दारुण होता है। प्रमत्त को कुदेव, कुमनुष्य आदि गतियों की ही प्राप्ति होती है। वह दुर्लभ बोधि होता है। १ (क) अ० चू० पृ० ६१ परिताब परोप्परं यत्तपीडनं संघात । एत्व आदिसह लोपो संगट्टण-परितावणोद्द्वणाणि सूतिज्जंति । परतो ताणं संपिडणं, एगहगहराईयातिका साथ परिता ४. (च) मि० ५० ५० १ वकिलवणादिभेदा गहिया । (ग) इ० टी० १० १५६ २ (क) ० ० ० ६१ताथि पाचाणि हवा पाणा तता भूता पावरा, कुसासनीसासा पाणा सेसा भूता । (स) ० ० ० १५० (ग) ६० टी० प० १५६ (क) अ० चू० पृ० ९१ : (ख) हा० टी० प० १५६ परस्प 1 तसा महणं सत्ताणं विविहिंपणारेह प्राणिनो द्वोन्प्रवादयः भूतानि एकेन्द्रियास्तानि । तो सारेमाणस्स । प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः तानि च हिंसन् । (क) अ० चू० पृ० ३१ : पाच कन्, बमति एक्केको जीववदेसो अटुहि कम्मपगडीहि आवेढिज्जति, पावगं कम्मं अस्साय वेयमिज्जति । अजयनादो हिसा ततो पावोवचतो । (च) ० ० ० १२ पदे यह कम्मी आवेदियपरिवेटिव करेति पावनं नाम भ (च) ० ० ० १५६ दिनारीवादि। ५ -- (क) अ० ० पृ० ६१: तरस फलं तं से होति कहुयं फलं कडुगवियागं कुगति-- अबोधिलाभनिव्वत्तगं । (ख) जि० ० पृ० १५६ : कयं फलं नाम कुदेव तकुषाणुसत्तनिव्यत्तकं पमत्तस्स भवइ । (ग) हा० डी० ० १५६ते तत्तचारिणो भवतस्वारोऽलाक्षणिक अशुभफलं भवति मोहादिया विषाकारणमित्यर्थः । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १५६ श्लोक १-६ : १२८. यतनापूर्वक चलनेवाला प्रयतनापूर्वक बोलनेवाला ( श्लोक १-६), सूत्र १८ से २३ में प्राणातिपात विरमण महाव्रत के पालन के लिए पृथ्वीकायादि जीवों के हनन की क्रियाओं का उल्लेख करते हुए उनसे बचने का उपदेश है । शिष्य उपदेश को सुन उन क्रियाओं को मन, वचन, काया से करने कराने और अनुमोदन करने का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता है । जीव हिंसा की विविध क्रियाओं के त्याग प्रत्याख्यान के साथ-साथ जीवन व्यवहार में यतना ( सावधानी ) की भी पुरो आवश्यकता है । अयतनापूर्वक चलने वाला, खड़ा होने वाला, बैठने वाला, भोजन करने वाला, सोने वाला, बोलने वाला हिंसा का भागी होता है और उसको कैसा फल मिलता है, इसी का उल्लेख श्लोक २ से ६ तक में है । अध्ययन ४ श्लोक १६ टि० १२८ : साधु के लिए चलने के नियम इस प्रकार हैं- वह धीरे-धीरे युग-प्रमाण भूमि को देखते हुए चले; बीज, घास, जल, पृथ्वी, त्रस आदि जीवों का परिवर्जन करते हुए चले; सरजस्क पैरों से अंगार, छाई, गोबर आदि पर न चले वर्षा, कुहासा गिरने के समय न चले; जोर से हवा बह रही हो अथवा कीट-पतंग आदि सम्पातिम प्राणी उड़ते हों उस समय न चले; वह न ऊपर देखता चले, न नीचे देखता चले, न बातें करता चले और न हँसते हुए चले। वह हिलते हुए तख्ते, पत्थर, ईंट पर पैर रख कर कर्दम या जल के पार न हो । चलने सम्बन्धी इन तथा ऐसे ही अन्य इर्या समिति के नियमों व शास्त्रीय आज्ञाओं का उल्लंघन तद्विषयक अयतना है'। खड़े होने के नियम इस प्रकार हैं- सचित्त भूमि पर खड़ा न हो; जहाँ खड़ा हो वहाँ से खिड़कियों आदि की ओर न झाँके; बड़े-बड़े हाथ-पैरों को असमाहित भाव से न हिलाये लाए पूर्ण संयम से खड़ा रहे हरित, उदक, उति तथा कपर हो खड़े होने सम्बन्धी इन या ऐसे ही अन्य नियमों का उल्लंघन तद्विषयक अयतना है । बैठने के नियम इस प्रकार हैं- सचित्त भूमि या आसन पर न बैठे; बिना प्रमार्जन किए न बैठे; गलीचे, दरी आदि पर न बैठे; गृहस्थ के घर न बैठे। हाथ, पैर, शरीर और इन्द्रियों को नियंत्रित कर बैठे। उपयोगपूर्वक बैठे । बैठने के इन तथा ऐसे ही नियमों का उल्लंघन तद्विषयक अथतना है। बैठे-बैठे हाथ-पैरादि को अनुपयोगपूर्वक पसारना, संकोचना आदि अयतना है । सोने के नियम इस प्रकार हैं-बिना प्रमार्जित भूमि, शय्या आदि पर न सोये; अकारण दिन में न सोये; सारी रात न सोये, प्रकाम निद्रा सेवी न हो । सोने के विषय में इन नियमों का उल्लंघन भोजन के नियम इस प्रकार हैं-सचित्त, अर्द्धपक्व न ले; नही बोड़ा खाये संग्रह करे शिकत आदि से न औद्देशिक, न में ग्रहण करे; गृहस्थ के बरतन में भोजन न करे आदि । है। सचित्त पर रखी हुई वस्तु न ले; स्वाद के लिए न खाये; प्रकामभोजी संविभाग कर खाये संतोष के साथ साथ पूठान छोड़े मित मात्रा ; १ – (क) अ० चू० पृ० ९१ : चरमाणस्स गच्छमाणस्स, रियासमितिविरहितो सत्तोपघातमातोवघातं वा करेज्जा । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : अजयं नाम अणुवएसेणं, चरमाणो नाम गच्छमाणो । (ग) हा० टी० प० १५६ अयतम् अनुपदेशेनासूत्राज्ञया इति क्रियाविशेषणमेतत् अयतमेव चरन् ईयसमितिमुल्लङ्घ्य । २ (क) अ० ० पृ० ६२ : आसमाणो उवेट्ठो सरीरकुरुकुतादि । (ख) जि० पू० पृ० १५६ ग्रासमणो नाम उसी तत्व सरीराकुणावरे हत्या विभ तो सो उवरोधे वट्टइ । (ग) हा० टी० १० १२७ अवतमासीनोनित अनुपयुक्त आ ३ (क) अ० चू० पृ० १२: आउंटण-पसारणादिसु एडिलेहणन्पमज्जणमकरितस्स पकाम णिकाणं रति दिदा य सुयन्तस्स । (ख) जि० ० चू० पृ० १५६ : अजपंति आउंटेमाणो य ण पडिलेहइ ण पमज्जइ, सव्वराई सुबइ, दिवसओवि सुयइ, पगामं निगमं वा सुवई । (ग) हा० टी० १० १५७ अयतं स्वपन् जसमाहितो दिया प्रकाशदिवा)। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलिये ( दशवेकालिक ) १६० अध्ययन ४ श्लोक ७ टि० १२६-१३० भोजन विषयक इन या ऐसे ही अन्य नियमों का उल्लंघन तदुद्विषयक अयतना है । जो बिना प्रयोजन आहार का सेवन करता है, प्रणीत आहार करता है तथा काक-शृगाल आदि की तरह खाता है वह अयतनाशील है' । बोलने के नियम इस प्रकार हैं-चुगली न खाये; मृपाभाषा न बोले; जिससे दूसरा कुपित हो वैसी भाषा न बोले, ज्योतिष, मंत्र, यंत्र आदि न बताए; कर्कश, कठोर भाषा न बोले; सावद्य अथवा सावद्यानुमोदिनी भाषा न बोले; जो बात नहीं जानता हो उसके विषय में निश्चित भाषा न बोले । बोलने के विषय में इन तथा ऐसे ही अन्य नियमों का उल्लंघन तद्विषयक अयतना है। गृहस्थ-भाषा का बोलना, वैर उत्पन्न करने वाली भाषा का बोलना आदि भाषा सम्बन्धी अयतना है । जो साधु चलने, खड़ा होने, बैठने, आदि की विधि के विषय में जो उपदेश और आज्ञा सूत्रों में हैं उनके अनुसार नहीं चलता और उन आज्ञाओं का उल्लंघन या लोप करता है वह अयतनापूर्वक चलने, खड़ा होने, बैठने, सोने, भोजन करने और बोलने वाला कहा जाता है । एक के ग्रहण से जाति का ग्रहण कर लेना चाहिए - यह नियम यहाँ भी लागू है। यहाँ केवल चलने, खड़ा होने आदि का ही उल्लेख है, पर साधु जीवन के लिए आवश्यक भिक्षा-चर्या, आहार- गवेषणा, उपकरण रखना, उठाना, मल-मूत्र विसर्जन करना आदि अन्य क्रियाओं के विषय में भी जो नियम सूत्रों में लिखित हैं उनका उल्लंघन करने वाला अयतनाशील कहा जायेगा I १२. लोक (१-६ ) : अगस्त्य चूर्णि में 'चरमाणस्स' और 'हिंसओ' पष्ठी के एकवचन तथा 'वज्झइ' - अकर्मक क्रिया के प्रयोग हैं । इसलिए इन छः श्लोकों का अनुवाद इस प्रकार होगा १ - अयतन। पूर्वक चलने वाले, त्रस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । २- अनापूर्वक खड़ा होने वाले, बस और स्थावर जीवों की पात करने वाले व्यक्ति के पापकर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । , ३पूर्वक बैठने वाले इस और स्थावर जीवों की बात करने वाले व्यक्ति के पाप-कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । ४- अपनापूर्वक सोने वाले जस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए . कटु फल वाला होता है । ५- अयतनापूर्वक भोजन करने वाले, त्रस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । ६ -- अयतनापूर्वक बोलने वाले, त्रस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । इलोक ७: १३०. श्लोक ७: जब शिष्य ने सुना कि अयतना से चलने, खड़े होने आदि से जीवों की हिंसा होती है, पाप-बंध होता है और कटु फल मिलता है, तब उसके मन में जिज्ञासा हुई - अनगार कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे बोले ? जिससे कि पाप कर्म का बंधन न हो । १ चू० (क) अ० ० ० ९२: असुरसुरादि काक- सियासत एवमादि। (ख) जि० सू० पृ० १५९ अजय काय सिगालखवाईहि मुंबई तं च स एवमादि (ग) हा० डी० प० १५७ अवतं भुञ्जानो निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकगालभवितादिना वा । २ (क) अ० चू० पृ० ६२ : तं पुण सावज्जं वा ढड्ढरमादीहि वा । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : अजयं गारत्थियभासाहि मासई ढड्डूरेण वेरतियासु एवमादिसु । (ग) हा० टी० प० १५७ : अयतं भाषमाणो गृहस्थभाषया निष्ठुरमन्तरभाषादिना वा । ३ - (क) अ० चू० पृ० ६२ : अजयं अपयतेणं । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : अजयं नाम अणुवए सेणं । (ग) हा० डी० ० १५६ बयतम् अनुपदेशेनासूत्राला इति । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १६१ अध्ययन ४ : श्लोक ८ टि०१३१-१३४ यही जिज्ञासा इस श्लोक में गुरु के सामने प्रकट हुई। इस श्लोक की तुलना गीता के उस श्लोक से होती है जिसमें समाधिस्थ स्थितप्रज्ञ के विषय में पूछा गया है- १३१. श्लोक ८ : स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत श्लोक ८: अनगार कैसे चले ? कैसे बेठे ? आदि प्रश्नों का उत्तर इस श्लोक में है । श्रमण भगवान् महावीर जब भी कोई उनके समीप प्रव्रज्या लेकर अनगार होता तो उसे स्वयं बताते इस तरह चलना, इस तरह खड़ा रहना, इस तरह बैठना, इस तरह सोना, इस तरह भोजन करना, इस तरह बोलना आदि। इन बातों को सीख लेने से जैसे अनगार जीवन की सारी कला को सीख लेता है ऐसा उन्हें लगता। अपनी उत्तरात्मक वाणी में भगवान् कहते हैं-यतना से चल, यतना से खड़ा हो, यतना से बैठ, यतना से सो, यतना से भोजन कर, यतना से बोल । इससे अनगार पाप कर्मों का बंध नहीं करता और उसे कटु फल नहीं भोगने पड़ते । श्लोक ७ और ८ के स्थान में 'मूलाचार' में निम्न श्लोक मिलते हैं : केशव । किम् ॥ कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये । कथं भुंजेज्ज भासिज्ज कथं पावं ण बज्झदि ॥ १०१२ जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये । अ० २ : ५४ जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई ।। १०१३ यतं तु परमाणस्स बास्स भिक्खुणो गवं ण वदे सम्म पौराणं च विषयदि ।। १०१४ क १३२. यतनापूर्वक चलने ( जयं चरे * ) : ): यतनापूर्वक चलने का अर्थ है - ईर्यासमिति से युक्त हो त्रसादि प्राणियों को टालते हुए चलना । पैर ऊँचा उठाकर उपयोगपूर्वक चलना । युग प्रमाण भूमि को देखते हुए शास्त्रीय विधि से चलना ? १३३. यतनापूर्वक खड़े होने ( जयं चिट्ठे ) : यतनापूर्वक खड़े होने का अर्थ है— कूर्म की तरह गुप्तेन्द्रिय रह, हाथ, पैर आदि का विक्षेप न करते हुए खड़े होना । १३४. यतनापूर्वक बैठने ( जयमासे ) : यतापूर्वक बैठने का अर्थ है- हाथ, पैर आदि को बार-बार संकुचित न करना या न फैलाना । ४ (क) अ० चू० पृ० ६२ : एवं आसेज्जा पहरमत्तं । (ख) जि० १- नाया० सू० ३१ पृ० ७६: एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं एवं चिट्ठियन्वं, एवं णिसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं एवं भुंजियब्वं, भासियत्वं । २ (क) अ० चू० पृ० ६२ : जयं चरे इरियासमितो दट्ठूण तसे पाणे "उद्धट्टु पादं रीएज्जा०" एवमादि । (ख) जि० चू० पृ० १६० जयं नाम उवउत्तो जुगतरदिट्ठी दट्ठूण तसे पाणे उद्धट्टुपाए रीएज्जा । (ग) हा० टी० प० १५७ : यतं चरेत् सूत्रोपदेशे नेर्यासमितः । ३ (क) अ० चू० पृ० १२ : जयमेव कुम्मो इव गुतिदितो चिट्ठज्जा । (ख) वि० ० ० १६०८ एवं जय कुवंती कुम्मो व बुतिदिओ चिटु वा । (ग) हा० डी० १० १७५ यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादादविक्षेपेण । ० चू० पृ० १६० : एवं आसज्जावि । (ग) हा० डी० १० १५७ यतमासीत उपयुक्त आनाद्यकरणेन । समयसाराधिकार १० Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) : १३५. यतनापूर्वक सोने ( जयं सएव ) यतनापूर्वक सोने का अर्थ है- पार्श्व आदि फेरते समय या अङ्गों को फैलाते समय निद्रा छोड़कर शय्या का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करना । रात्रि में प्रकामशायी प्रगाढ़ निद्रावाला न होना, समाहित होना' । १३६. यतनापूर्वक खाने ( जयं भुजतो ग ) : नाक खाने का १६२ अध्ययन ४ श्लोक टि० १३५-१३८ : ह हैास्त्रविहितप्रयोजन के लिए निर्दोष प्रणीत रमरहित) पान-भोजन को अगृद्ध भाव से खाना । ग १३७. यतनापूर्वक बोलने ( जयं भासतो ): यतनापूर्वक बोलने का अर्थ है इसी सूत्र के 'वाक्य शुद्धि' नामक सातवें अध्याय में वर्णित भापा सम्बन्धी नियमों का पालन करना। मुनि के योग्य मृदु, समयोचित भाषा का प्रयोग करना है । श्लोक ६ : १३८. जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है उसके बंधन नहीं होता ( श्लोक ) : जब शिष्य के सामने यह उत्तर आया कि यतना से चलने, खड़ा होने आदि से पाप कर्म का बंध नहीं होता तो उसके मन में एक जिज्ञासा हुई यह लोक छह काय के जीवों से समाकुल है । यतापूर्वक चलने, खड़ा होने, बैठने, सोने, भोजन करने और बोलने पर भी जीव-वध संभव है फिर यतनापूर्वक चलने वाले अनगार को पाप कर्म क्यों नहीं होगा ? शिष्य की इस शंका को अपने ज्ञान से समझ कर गुरु जो उत्तर देते हैं वह इस श्लोक में समाहित है । इसकी तुलना गीता के (५२६७) निम्न श्लोक से होती है : योगयुक्तो विशुद्वारमा विदितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ इस नौवें श्लोक का भावार्थ यह है : जिसके मन में यह बात अच्छी तरह जम चुकी है कि जैसा मैं हूँ वैसे ही सब जीव हैं, जैसे मुझे दु:ख अनिष्ट है वैसे ही सब जीवों को अनिष्ट है, जैसे पैर में काँटा चुभने से मुझे वेदना होती है वैसे ही सब जीवों को होती है, उसने जीवों के प्रति सम्यक् दृष्टि की उपलब्धि कर ली। वह 'सर्वभूतात्मभूत' कहलाता है । १- ( क ) अ० खू० पृ० ६२: सुवणा जयणाए सुवेज्जा । (ख) जि० पु० पू० १६० : एवं निद्दामोक्खं करेमाणो आउंटणपसारणाणि पडिलेहिय पमज्जिय करेज्जा । (ग) हा० टोप० १५७ : यतं स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण । (क) अ० चू० पृ० ६२: दोसवज्जितं भुंजेज्ज । (ख) जि० ० पृ० १६० एवं दोरावज्जियं गुंजेज्जा । (ग) हा० टी० प० १५७ : यतं भुञ्जानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षितादिना । ३ - ( क ) अ० ० पृ० ६२: जहा 'चक्कसुद्धीए' भष्णिहिति तहा भासेज्जा । (ख) हा० टी० प० १५७ : एवं यतं भाषमाणः साधुभाषया मृदुकालप्राप्तम् । ४ क अ० ८० पृ० ६३ : सव्वभूता सच्चजीवा तेसु सव्वभूतेषु अप्पभूतस्स जहा अप्पाणं तहा सब्वजीवे पासति, 'जह मम दुक्खं अ एवं सत्ताणं' ति जाणिण ण हित एवं सम्म विद्वाणि भूतानि भवति तस्य (ब) ० ० ० १६० सम्भूतापीय तु सम्बभूतेषु अप्यभूतो कहं ? जहा मम दृव अइह एवं सम्ब जीवतिकाउं पीडा णो उप्पायइ, एवं जो सव्वभूएस अप्पभूतो तेण जीवा सम्मं उवलद्धा भवंति, भणियं च "कट्ठेण कंटएण व पादे विद्वस्स वेदणा तस्स i जा होइ अगेव्वाणी पायव्वा सव्वजीवाणं ||" (ग) हा० टी० प० १५७ सर्वभूतेष्यात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतोय आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः तस्येयं सम्यग् -- बीसरा- गोक्तेन विधिना भूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १६३ अध्ययन ४ : श्लोक : टि० १३८ जो ऐसी सहज सम्यक-दृष्टि के साथ-साथ हिंसा, झूठ, अदत्त, मैथुन और परिग्रह आदि आस्रवों को प्रत्याख्यान द्वारा रोक देता है अर्थात् जो महाव्रतों को ग्रहण कर नए पाप-संचार को नहीं होने देता वह 'पिहितासव' कहलाता है। जिसने श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष को जीत लिया है, जो क्रोध, मान, माया और लोभ का निग्रह करता है अथवा उदय में आ चुकने पर उन्हें विफल करता है, इसी तरह जो अकुशल मन, वचन और काया का निरोध करता है और कुशल मन आदि का उदीरण करता है वह 'दान्त' कहलाता है। ___ इस श्लोक में कहा गया है कि जो श्रमण 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना से सम्पन्न होता है, संत होता है, दमितेन्द्रिय होता है उसके पाप कर्मों का बन्धन नहीं होता। जिसकी आत्मा 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना से ओत-प्रोत है तथा जो उपयुक्त सम्यक् -दृष्टि आदि गुणों से युक्त है वह प्राणातिपात करता ही नहीं। उसके हृदय में सहज अहिंसा-वृत्ति होती है अतः वह कभी किसी प्राणी को पीड़ा उत्पन्न नहीं करता। इसलिए वह पाप से अलिप्त रहता है । कदाचित् जीव-वध हो भी जाय तो भी वह पाप से लिप्त नहीं होता। क्योंकि सर्व प्राणातिपात से मुक्त रहने के लिए वह सर्व प्राणातिपात-विरमण महावत ग्रहण करता है। उसकी रक्षा के लिए अन्य महावत ग्रहण करता है, इन्द्रियों का निग्रह करता है, कषायों को जीतता है तथा मन, वचन और काया का संयम करता है । अहिंसा के सम्पूर्ण पालन के लिए आवश्यक सम्पूर्ण नियमों का जो इस तरह पालन करता है, उससे कदाचित् जीव-वध हो भी जाय तो वह उसका कामी नहीं कहा जा सकता। अतः वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता। जलमज्झे जहा नावा, सबओ निपरिस्सवा । गच्छंति चिट्ठमाणा वा, न जलं परिगिण्हा ॥ एवं जीवाउले लोगे, साह संवरियासवो । गच्छंतो चिठमाणो वा, पावं नो परिगेण्हइ ॥ जिस प्रकार छेद-रहित नौका में, भले ही वह जलराशि में चल रही हो या ठहरी हुई हो, जल प्रवेश नहीं पाता उसी प्रकार आसव-रहित संवृतात्मा श्रमण में, भले ही वह जीवों से परिपुर्ण लोक में चल रहा हो या ठहरा हुआ हो, पाप प्रवेश नहीं पाता। जिस प्रकार छेद-रहित नौका जल पर रहते हुए भी डूबती नहीं और यतना से चलाने पर पार पहुँचती है, वैसे ही इस जीवाकुल लोक में यतनापूर्वक गमनादि करता हुआ संवृतात्मा भिक्षु कर्म-बंधन नहीं करता और संसार-समुद्र को पार करता है। गीता के उपर्युक्त श्लोक का इसके साथ अद्भुत शब्द-साम्य होने पर भी दोनों की भावना में महान् अन्तर है। गीता का इलोक अनासक्ति की भावना देकर इसके आधार से महान् संग्राम करते हुए व्यक्ति को भी उसके पाप से अलिप्त कह देता है जबकि १-(क) अ० चू० पृ० ६३ : पिहितासवस्स-ठइताणि पाणवहादीणि आसबदाराणि जस्त तस्त पिहितासवस्स । (ख) जि० चू० पृ० १६० : पिहियाण पाणिवधादीणि आसवदाराणि जस्स सो पिहियासवदुवारो तस्स पिहियासवदुवारस्स । (ग) हा० टी०प० १२७ : पिहिताश्रवस्य' स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवस्य । २-(क) अ० चू० पृ० ६३ : दंतस्स -दतो इंदिरहि णोइंदिए हि य । इंदियदमोस्रोइंदियपयारणिरोधो वा सद्दातिरागद्दोसःणग्गहो वा, एवं सेसेसु वि । णोइदियदमो कोहोदयणि रोहो वा उदयप्पत्तस्त विकलीकरणं वा, एवं जाव लोभो। तहा अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा, एवं वाया कातोय। तस्स इंदिय-णोइंदियदंतस्स पावं कम्मं ण बज्नति, पुज्वबद्ध च तवसा खीयति । (ख) जि० दू० पृ० १६० : दंतो दुविहो - इंथिएहि नोइंदिए हि य, तत्थ इंदियदंतो सोइंदियपयारनिरोहो सोइ दियविसयपत्तेसु य सहेसु रागदोस विनिग्गहो, एवं जाव फासिदिय विसयपत्तेसु य फालेस रागदोस बनिग्गहो, नोइ दियदंतो नाम कोहोदयनिरोहो उदयपत्तस्स य कोहस्स विकलीकरणं एवं जाव लोभोत्ति, एवं अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं च, एवं वयीवि काएवि भाणियव्वं एवंविहस्त इवियनोइ दियदंतस्स पावं कम्मं न बंधइ, युव्यबद्धच बारसविहेण तवेण सो झिज्झइ । ३-जि० चू० पृ० १५६ : जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सबा नाना जलकतार बीईक्यई, न य विणासं पावइ, एवं साहू वि जीवाउले लोगे गमणादोणि कुब्वमाणो संवरियासवदुवारत्तणेण संसारजलकतार बीयीवयइ, संवरियासवदुवारस्स न कुओवि भयमत्थि । Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १६४ प्रस्तुत श्लोक हिंसा न करते हुए सम्पूर्ण विरत महात्यागी को उसके निमित्त से हुई अशक्यकोटि की जीव हिंसा के पाप से ही मुक्त घोषित करता है। जो जीव-हिंसा में रत है, वह भले ही आवश्यकतावश या परवशता से उसमें लगा हो, हिंसा के पाप से मुक्त नहीं रह सकता । अनासक्ति केवल इतना ही अन्तर ला सकती है कि उसके पाप कर्मों का बंध अधिक गाढ़ नहीं होता । इलोक १०: १३६. श्लोक १० : इसकी तुलना गीता के (४०३८) का बंधन नहीं होता ऐसा कहा गया है। इससे पूर्वक होना चाहिए। इस तरह यहाँ ज्ञान की प्रधानता है। अध्ययन में दोनों की सहचारिता पर बल है । १४०. पहले ज्ञान, फिर दया ( पढमं नाणं तओ दया * ) : क अध्ययन ४ : इलोक १० नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' के साथ होती है कि में' के पाप कर्म चारित्र की प्रधानता सामने आती है। इस श्लोक में यह कहा गया है कि चारित्र ज्ञानजैन धर्म ज्ञान और क्रिया — दोनों के युगपदुभाव से मोक्ष मानता है । इस पहले जीवों का ज्ञान होना चाहिए। दया उसके बाद आती है' । जीवों का ज्ञान जितना स्वल्प या परिमित होता है, मनुष्य में दया (अहिंसा) की भावना भी उतनी हो संकुचित होती है अतः पहले जीवों का यापक ज्ञान होना चाहिए जिससे कि सब प्रकार के जीवों के प्रति दया भाव का उद्भव और विकास हो सके और वह सर्वग्राही व्यापक जीवन - सिद्धान्त बन सके। इस अध्ययन में पहले पजीवनिकाय को बताकर बाद में हिंसा की चर्चा की है, वह इसी दृष्टि से है जीवों के व्यापक ज्ञान के विना व्यापक अहिंसा धर्म उत्पन्न नहीं हो सकता । ज्ञान से जीव-स्वरूप, संरक्षणोपाय और फल का बोध होता है । अत: उसका स्थान प्रथम है । दया संयम है । टि० १३६-१४२ सव्वसंजए ल ) : १४१- इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं ( एवं चि जो संयति हैं- सत्रह प्रकार के संयम को धारण किए हुए हैं, उनको सब जीवों का ज्ञान भी होता है। जिनका जीव-ज्ञान अपरिशेष नहीं उनका संयम भी सम्पूर्ण नहीं हो सकता और बिना सम्पूर्ण संयम के अहिंसा सम्पूर्ण नहीं होती क्योंकि सर्वभूतों के प्रति संयम ही अहिंसा है। यही कारण है कि जीवाजीव के भेद को जानने वाले निर्ग्रन्थ श्रमणों की दया जहाँ सम्पूर्ण है वहाँ जीवाजीव का विशेष भेद-ज्ञान न रखने वाले वादों की दया वैसी विशाल व सर्वग्राही नहीं। वहीं दया कहीं तो मनुष्यों तक रुक गयी है और कहीं थोड़ी आगे जाकर पशु-पक्षियों तक या कीट-पतंगों तक इसका कारण पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के ज्ञान का ही अभाव है । संयति ज्ञानपूर्वक क्रिया करने की प्रतिपत्ति में स्थित होते हैं, ज्ञानपूर्वक क्रिया (दया) का पालन करते हैं । १४२. अज्ञानी क्या करेगा ? ( अन्नाणी कि काही ग ) : जिसे मालूम ही नहीं कि यह जीव है अथवा अजीव, वह अहिंसा की बात सोचेगा ही कैसे ? उसे भान ही कैसे होगा १ – (क) अ० चू० पृ० ९३ : पढमं जीवाऽजीवाहिगमो, ततो जीवेसु दता । (ख) जि० चू० पृ० १६० : पढमं ताव जीवाभिगमो भणितो, तओ पच्छा जीवेसु दया । २ हा० टी० प० १५७ प्रथमम् आदौ ज्ञानं - जीवस्वरूपसंरक्षणोपायफलविषयं 'ततः' तथाविधज्ञानसमनन्तरं 'दया' संयमस्तवेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृतेः । ३ (क) ४० पू० पृ० १३ एवं चिट्ठति एवं सही प्रकाराभिघाती एतेण जीवादिविष्णामप्यगारेण विद्वति अवट्ठा करेति । ... सम्यगते सम्सद्दी अपरिसवादी सम्यसंजता पाणपुण्यं परिधम्मं परिवति । (ख) जि० ० ० १६०-६१ एवं सोऽवधारणे किमवधारयति ? सापूर्ण वेब संपुष्णा दया जीवाजीवविज्ञानमागणं, उसक्कादीनं जीवाजीवविसेसं अजाणमाणाणं संपूण्णा दया भवइत्ति, चिट्ठइ नाम अच्छइ सव्वसहो अपरिसेसवादी सय्यजता अपरिसाणं जीवाजीवादिसु जातेषु सतरसविध संगमो भव । (ग) हा० टी० प० १५७ 'एवम्' अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरूपेण 'तिष्ठति' आस्ते 'सर्वसंयतः ' सर्वः प्रव्रजितः । ני Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १६५ अध्ययन ४ : श्लोक ११ टि०१४३-१४४ कि उसे अमुक कार्य नहीं करना है क्योंकि उससे अमुक जीव की घात होती है। अतः जीवों का ज्ञान प्राप्त करना अहिंसावादी की पहली शर्त है । बिना इस शर्त को पूरा किये कोई सम्पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता। जिसके साध्य, उपाय और फल का ज्ञान नहीं, वह क्या करेगा? वह तो अन्धे के तुल्य है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के निमित्त का अभाव होता है। १४३. वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप (कि वां नाहिइ छेय पावगं घ): श्रेय हित को कहते हैं, पाप अहित को। संयम श्रेय है-हितकर है। असंयम-पाप है-अहितकर है। जो अज्ञानी है, जिसे जीवाजीव का ज्ञान नही, उसे किसके प्रति संयम करना है, यह भी कैसे ज्ञात होगा? इस प्रकार संयम के स्थान को नहीं जानता हुआ वह श्रेय और पाप को भी नहीं समझेगा। जिस प्रकार महानगर में दाह लगने पर नयनविहीन अन्धा नहीं जानता कि उसे किस दिशा-भाग से भाग निकलना है, उसी तरह जीवों के विशेष ज्ञान के अभाव में अज्ञानी नहीं जानता कि उसे असं यमरूपी दावानल से कैसे बच निकलना है ? जो यह नहीं जानता कि यह हितकर है --कालोचित है तथा यह उससे विपरीत है, उसका कुछ करना नहीं करने के बराबर है। जैसे कि आग लगने पर अन्धे का दौड़ना और घुन का अक्षर लिखना। श्लोक ११: १४४. सुनकर (सोच्चा ): आगम रचना-काल से लेकर वीर निर्वाण के दसवें शतक से पहले तक जैनागम प्रायः कण्ठस्थ थे। उनका अध्ययन आचार्य के मुख से सुनकर होता था। इसीलिए श्रवण या श्रुति को ज्ञान-प्राप्ति का पहला अंग माना गया है । उत्तराध्ययन (३.१) में चार परमाङ्गों को दुर्लभ कहा है। उनमें दूसरा परमाङ्ग श्रुति है । श्रद्धा और आचरण का स्थान उसके बाद का है। यही क्रम उत्तराध्ययन १- (क) अ० चू० पृ० ६३ : अण्णाणी जीवो जीवविण्णाणविरहितो सो कि काहिति ? कि सद्दो खेववाती, कि विण्णाणं विणा करिस्सति ? (ख) जि० चू० पृ० १६१ : जो पुण अण्णाणी सो कि काहिई ? (ग) हा० टी० ५० १५७ : यः पुन: 'अज्ञानी' साध्योपायफलपरिज्ञानविकलः स किं करिष्यति ? सर्वत्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्ति निवृत्तिनिमित्ताभावात् । २-(क) अ० चू० पृ.० ६३ : किं वा णाहिति, वा सद्दो समुच्चये, 'णाहिति' जाणिहिति 'छेदं' जे सुगतिगमणलक्खातो चिटुति, पावकं तविवरीतं । निदरिसणं जहा अंधो महानगरदाहे पलित्तमेव विसमं वा पविसति, एवं छेद पावगमजाणतो संसारमेवाणुपडति। (ख) जि. चू० पृ० १६१ : तत्थ छेयं नाम हितं, पावं अहियं, ते य संजमो असंजमो य, दिढतो अंधलओ, महानगरदाहे नयणविउत्तो ण याणाति केण दिसाभाएण मए गंतव्वंति, तहा सोवि अन्नाणी नाणस्स विसेसं अयाणमाणो कहं असंजम दवाउ णिग्गच्छिहि ति? ३-हा० टी० प० १५७ : 'छेक' निपुणं हितं कालोचितं 'पापकं वा' अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समन निमित्ताभावात्, अन्धप्रदीप्तपलायनघुणाक्षरकरणवत् । ४-अ० चू० पृ० ६३ : गणहरा तित्थगरातो, सेसो गुरुपरंपरेण सुणेऊणं । ५-उत्त० ३.१ : चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसतं सुई सद्धा संजमंमि य वोरियं । Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ४ : श्लोक ११ टि० १४५ के तीसरे' और दसवें अध्ययन में प्रतिपादित हुआ है। श्रमण की पर्युपासना के दस फल बतलाए हैं। उनमें पहला फल धवण है। इसके बाद ही ज्ञान, विज्ञान आदि का क्रम है। स्वाध्याय के पाँच प्रकारों में भी श्रुति का स्थान है। स्वाध्याय का पहला प्रकार वाचना है । आजकल हम बहुत कुछ आँखों से देखकर जानते हैं । इसके अर्थ में वाचन और पठन शब्द का प्रयोग भी होता है। यही कारण है कि हमारा मानस वाचन का वही अर्थ ग्रहण करता है जो आँखों से देखकर जानने का है। पर वाचन व पठन का मूल बोलने में है । इनकी उत्पत्ति 'वचंक भाषणे' और 'पठ् वक्तायां वाचि' धातु से है । इसलिए वाचन और पठन से श्रवण का गहरा सम्बन्ध है। अध्ययन के क्षेत्र में आज जैसे आँखों का प्रभूत्व है वैसे ही आगम-काल में कानों का प्रभुत्व रहा है। 'सुनकर'- इस शब्द की जिनदास ने इस प्रकार व्याख्या की है---सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ—इन तीनों को सुनकर अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र को सुनकर अथवा जीव-अजीव आदि पदार्थों को सुनकर । हरिभद्र ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-मोक्ष के साधन, तत्त्वों के स्वरूप और कर्म-विपाक के विषय में सुनकर । १४५. कल्याण को ( कल्लाणं क): जिनदास के अनुसार 'कल्ल' शब्द का अर्थ है 'नीरोगता', जो मोक्ष है । जो नीरोगता प्राप्त कराए वह है कल्याण अर्थात् ज्ञानदर्शन-चारित्र। हरिभद्र सुरि ने इसका अर्थ किया है--कल्य अर्थात् मोक्ष--उसे जो प्राप्त कराए वह कल्याण अर्थात् दया-संयम । अगस्त्य चुणि के अनुसार इसका अर्थ है-आरोग्य । जो आरोग्य को प्राप्त कराए वह है कल्याण, अर्थात् संसार से मोक्ष । संसार-मुक्ति का हेतु धर्म है, इसलिए उसे कल्याण कहा गया है। १-उत्त० ३.८-१०: माणुस्सं विग्गह ल , सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिहिसयं ।। आहच्च सवणं लक्षु, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥ सुई च लधु सद्ध च, वीरियं पुण दुल्लह । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ।। २-उत्त० १०.१८-२०: अहीणपंचेन्दियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतिस्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए । लक्षूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्त निसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए। धम्म पि हु सद्दहन्तया, दुल्लया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए । ३--ठा० ३.४१८ : सवणे णाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हते तवे चेव वोदाणे अकिरिय निव्वाणे ।। ४.. जि० चू० पृ० १६१ : सोच्चा नाम सुत्तत्थतदुभयाणि सोऊण णाणदंसणचरित्ताणि वा सोऊण जीवाजीवादी पयत्था वा सोऊण । ५ ... हा० टी० ५० १५८ : "श्रुत्वा' आकर्ण्य संसाधनस्वरूपविपाकम् । ६- जि० चू० पृ० १६१ : कल्लं नाम नीरोगया, सा य मोक्खो, तमणेइ जं तं कल्लाणं, ताणि य णाणाईणि। ७-हा० टी०प० १५८ : कल्यो- मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याण-दयाख्यं संयमस्वरूपम् । ८--अ० चू० पृ० ६३ : कल्लाणं कल्लं--आरोग्ग तं आणेइ कल्लाणं संसारातो विमोक्खणं, सो य धम्मो । dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १४६. पाप को ( पावगं ख ) : जिसके करने से पाप कर्मों का बन्ध हो उसे पापक- - पाप कहते हैं। वह असंयम है' । १४७. कल्याण और पाप (उभयंग) 'उभय' शब्द का अर्थ हरिभद्र ने है । जिनदास ने स्वयं 'कल्याण और पाप दोनों को १६७ अध्यन ४ श्लोक १२-१३ टि० १४६-१४० श्रावकोपयोगी संयमासंयम का स्वरूप' किया है । जिनदास के समय में भी ऐसा मत रहा पाप' इसी अर्थ को ग्रहण किया है। अगस्त्य सिंह ने 'उभय' का अर्थ किया है कल्याण और श्लोक १२-१३ : १४८. श्लोक १२-१३ : जो साधु को नहीं जानता वह असाधु को भी नहीं जानता । जो साधु और असाधु- दोनों को नहीं जानता वह किसकी संगत करनी चाहिए यह कैसे जानेगा ? जो साधु को जानता है वह असाधु को भी जानता है । जो साधु और प्रसाधु- दोनों को जानता है वह यह भी जानता है कि किसकी संगत करनी चाहिए । उसी तरह जो सुनकर जीव को नहीं जानता, वह उसके प्रतिपक्षी अजीव को भी नहीं जान पाता। जो दोनों का ज्ञान नहीं रखना वह संयम को भी नहीं जान सकता । जो सुनकर जीव को जानता है वह उसके प्रतिपक्षी अजीव को भी जान लेता है। जो जीव और अजीव - दोनों को जानता है वह संयम को भी जानता है । संयम दो तरह का होता है- जीव-संयम और अजीव संयम किसी जीव को नहीं मारना यह जीव-संयम है। मद्य, मांस, स्वर्ण आदि जो संयम के घातक हैं, उनका परिहार करना अजीव-संयम है। जो जीव और अजीव को जानता है वही उनके प्रति संयत हो सकता है" । जो जीव-अजीव को नहीं जानता वह संयम को भी नहीं जानता, वह उनके प्रति संयम भी नहीं कर सकता । कहा है- १ (क) अ० चू० पृ० (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० २ हा० टी० प० १५८ ३ - जि० ० चू० पृ० १६१ : केइ पुण आयरिया कल्लाणपावयं च देसविरयस्स पावयं इच्छति । ६३: पावकं अकल्लाणं । १६१: जेण य कएण कम्मं बज्झइ तं पावं सो य असंजमो । १५८ : पापकम् असंयम स्वरूपम् । 'उभयमपि संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि । ४– -अ० चू० पृ० ६३ : उभयं एतदेव कल्लाणं पावगं । ५. - ( क ) अ० ० पृ० ९४ : 'जो' इति उद्देश्वयणं । जीवंतीति 'जीवा' आउप्पाणा घरेंति, ते सरीर-संठाण-संघयण द्वितिजत्तिविसेसह जो ण जाणाति, 'अम्जीवे वि' वरसादिष्यभवपरिणामेहि 'ग' जागति 'सो' एवं जीवा जीवविसेसे 'अजाणतो कह' केण प्रकारेण णाहिति सत्तरसविहं संजमं णाहिति जाणिहिति सव्वपज्जाएहिं । कहूं ? छेदं कूडगं च जाणतो गरिहरणेण वेदस्स उपादागं करेति जीवगतमुपरोहरुतमसंजमं परिहरतो अजीवाण विमज्ज-सादी परिहरणेण संजमापाल करेति जीवे माऊण वहं परिहरमाणो ण वयति वेरं बेरविकारविरहितो पाति निरुवद्दवं थाणं । । (ख) जि० चू० पृ० १६१-६२ : एत्थ निदरिसणं जो साहूं जाणइ सो तापडिपक्खमसाधुर्भाव जाणइ, एवं जस्स जीवाजीवपरिणा अस्थि सो जीवाजीवसंजमं वियाणइ, तत्थ जीवा न हंतव्वा एसो जीवसंजमो भण्णइ, अजीवावि मंसमज्जहिरण्णादिदव्वा संजमोवधाइया ण घेत्तव्वा एसो अजीवसंजमो, तेण जीवा य अजीवा य परिण्णाया जो तेसु संजमइ । (ग) हा० डी० प० १५८ यो 'जीवन' पृथिवीकाधिकविभेदभिन्नान् न जानाति 'अजीवानपि संयोपपातिनो माहिरण्यादीन्न जानाति, जीवाजीवानजानन्कथमसौ ज्ञास्यति 'संयमं ? तद्विषयं तद्विषयाज्ञानाति भावः । ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति जीवाजीवान् विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and आलियं ( दशवैकालिक ) अध्ययन ४ श्लोक १४-१६ टि० १४-१५१ : १६८ जीवा जस्स परिन्नाया, वेरं तस्स न विज्जइ । न जीवे तो यहं रं च जाग , अर्थात् जिसने जीवों को अच्छी तरह जान लिया है उसके र नहीं होता। जो जीवों को नहीं जानता यह बम और बैर की नहीं जानता नहीं त्याग पाता । श्लोक १४ : १४. लोक १४: चौदह से पचीस तक के श्लोकों में सुनने से लेकर सिद्धि प्राप्ति तक का क्रम बड़े सुन्दर ढङ्ग से दिया गया है। जीव चार गतियों के होते हैं- मनुष्य, नरक, तिर्यञ्च और देव । इन गतियों के बाहर मोक्ष में सिद्ध जीव हैं। जो सुनकर जीवाजीव को जान लेता है वह उनकी इन गतियों को और उनके अन्तर्वेदों को भी सहज रूप से जान लेता है' । श्लोक १५: १५०. श्लोक १५: गतियों के ज्ञान के साथ ही प्रश्न उठता है - सब जीव एक ही गति के क्यों नहीं होते ? वे भिन्न-भिन्न गतियों में क्यों हैं ? मुक्त जीव अतिरिक्त क्यों हैं ? 'कारण के बिना कार्य नहीं होता', अतः गतिभेद के कारण पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को भी जान लेता है । कर्म दो तरह के होते हैं- पुण्य रूप और पाप रूप । जब पुण्य कर्मों का उदय होता है तो अच्छी गति प्राप्त होती है और जब पाप कर्मों का उदय होता है तो नीच गति प्राप्त होती है। जीव समान होने पर भी पुण्य-पाप कर्मों की विशेषता से नरक, देवादि गतियों की विशेषता होती है । क्योंकि पुण्य-पाप ही बहुविध गतियों के निबन्ध के कारण हैं । जीव कर्म का जो परस्पर बंधन है वह चार गतिरूप संसार में भ्रमण का कारण है । यह भव-भ्रमण दुःखरूप है । जीव और कर्म का जो ऐकान्तिक वियोग है, वह मोक्ष - शाश्वत सुख का हेतु है । जो जीवों की नरक आदि नाना गतियों और मुक्त जीवों की स्थिति को जान लेता है वह उनके हेतुओं और बन्धन तथा मोक्ष के अन्तर और उनके हेतुओं को भी जान लेता है । श्लोक १६: १५१ श्लोक १६: जो भोने जाते हैं उन यादि विषयों को भोग कहते हैं। सांसारिक भोग किपाक फल की तरह भोकाल में मधुर होते हैं परन्तु बाद में उनका परिणाम सुन्दर नहीं होता । जब मनुष्य पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष के स्वरूप को जान लेता है तब वह इन काम-भोगों के १ (क) अ० ० ० १४ जदा जम्मिकाले जीवा अजीवा भणिता ते जदा दो वि विसेसेण जाणति विजाणति, गति णरगादितं अणेगभेदं जाणति, अहवा गतिः (ख) जि० चू० पृ० १६२ : गति बहुविहं नाम एक्केक्का अणेगभेया जाणति, अहवा उवएसेण जाणई । (ब) हा० टी० प० १५१'' पर काले जीवनजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति विविधं जानाति तदा तस्मिन् काले 'यति' नरकादिरूपां 'बहुविधां स्वपरगत भेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति यथाऽवस्थित जीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् । २ (क) अ० चू० पृ० १४ : तेसिमेव जीवाणं आउ-बल- विभव सुखातिसूतितं पुण्णं च पावं च अट्ठविहकम्मणिगलबंधण मोक्खमवि । (ख) जि०० पृ० १६२ बहुविधग्गहण नजद जहा समाये जीवतेण विणा पुण्णपावादिणा कम्म बिसेसेण गारदेवादि विसेसा भवंति । अरोगनेदभिण्णा अवि दो रासौ एते इति, प्राप्तिः तं बहुविहं । नारगादिसु गतिसु अणेगाणि तित्थगरादि (ग) हा० टी० प० १५९ पुण्यं च पापं च - बहुविधगतिनिबन्धनं [च] तथा 'बन्धं' जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं 'मोक्षं च' तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति । --- Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १६६ वास्तविक स्वरूप को भी जान लेता है और इस तरह मोहाभाव को प्राप्त हो सम्यक् विचार से इन सुखों के समूह को दुःख स्वरूप समझ उनसे विरक्त हो जाता है । अध्ययन ४ श्लोक १७-१८ टि० १५२-१५३ : मूल में 'निव्विदए' शब्द है । इसकी उत्पत्ति दो धातुओं से हो सकती है- निव्विद ( निर् + विन्द् ) = निश्चयपूर्वक जानना, भलीभाँति विचार करना । निर् + विघृणा करना, विरक्त होना, असारता का अनुभव करना । सूत्र में दिव्य और मानुषिक दो तरह के भोगों का ही नाम है। पूर्णिकार कहते हैं समावेश होता है । 'चकार' से तिर्यञ्चयोनिक भोगों का बोध होता है । 'मानुषिक' - मनुष्यों के वास्तव में भोग दो ही तरह के हैं दिव्य और मानुषिक शेष भोग वस्तुतः भोग नहीं होते । श्लोक १७: १५२. श्लोक १७: संयोग दो तरह के होते हैं बाह्य और आभ्यंतर । संयोग का अर्थ है-ग्रन्थि अथवा सम्बन्ध । स्वर्ण आदि का संयोग बाह्य संयोग है । क्रोध, मान, माया और लोभ का संयोग आभ्यन्तर संयोग है। पहला द्रव्य-संयोग है दूसरा भाव-संयोग । जब मनुष्य दिव्य और मानुषिक भोगों से निश्त होता है तब वह वाह्य और आभ्यन्तर पदार्थों व भावों की मूर्च्छा, ग्रंथि और संयोगों को भी छोड़ता है । श्लोक १८ : दिन में दैविक और संरकि मोगों का भोग का द्योतक है । हरिभद्र कहते हैं १५३. लोक १८: जो केश-लुञ्चन करता है और जो इन्द्रियों के विषय का अपनयन करता है, उन्हें जीत लेता है, उसे मुण्ड कहा जाता है । मुण्ड होने का पहला प्रकार शारीरिक है और दूसरा मानसिक । स्थानाङ्ग (१०.१९) में दस प्रकार के मुण्ड बतलाए हैं : १- क्रोध-मुण्ड क्रोध का २- मान-मुण्डमान का ३- माया मुण्ड माया का अपनयन करने वाला । अपनयन करने वाला । अपनयन करने वाला । ४ - लोभ- मुण्ड -- लोभ का अपनयन करने वाला । ५- शिर मुण्ड - शिर के केशों का लुञ्चन करने वाला । ६- श्रोत्रेन्द्रिय-मुण्ड - कर्णेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला । ७ - चक्षु इन्द्रिय-मुण्ड - चक्षु इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला । १ – (क) अ० चू० पृ० ४, ६५ : भुज्जंतीति भोगा ते णिविंदति णिच्छितं विदति-विजानाति, जहा एते बहुकिले से हि उप्पादिया विकिपगफलमा जे दिव्या दिवि भया दिष्या मसेतु भवा माणुसा ओरालियसारिस्त्रेण मासाभियातिरिया विभणिया भवंति | अहवा जो दिव्व- माणुसे परिजानाति तस्स तिरिए कि गहणं ? जे य माणुसा इति चकारेण वा भणितमिदं । (ख) जि० ० ० १६२ जतीति भोगा शिच्यं वदतीति निम्बिदति विधिह्मणेयव्यगारं वा विद निब्बिदद, जहा एते fitपागफल माणा दुरंता भोगत्ति, ते य निव्विदमाणो दिव्वा वा निव्विदइ माणुस्सवा, सीसो आह – कि तेरिच्छा भोगा न निदिइ ? आपरिओ आह- दिव्यगण बेबनेरइया गहिया, मागुत्सवणेण मागुता, चकारेण तिरिखजोगिया गहिया । (ग) हा० टी० प० १५१ निविन्ते मोहाभावात् सम्यविचारवत्यसारदुःखरूपतया 'भोगान्' शब्दादीन् यान् दिव्यान् यांच मानुषान् वास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति । २ (क) अ० चू० पृ० ६५ : परिच्चयति 'सभितर बाहिरं' अभितरो कोहादि बाहिरो सुवण्णादि । (ख) जि० पू० पृ० १६२ बाहरं अनंत च तत्थ बाहिरं सुबन्नादी अनंतरं कोहमागमायालो भाई । . (ग) हा० टी० प० १५६ : 'संयोगं' संबन्धं द्रव्यतो भावतः 'साभ्यन्तरबाह्य" क्रोधादि हिरण्या दिसंबन्धमित्यर्थः । ३-२००० २५मुंडे' इन्दिय-विसय-केस वणवण मुंडो Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक ) १७० अध्ययन ४ : श्लोक १९-२० टि० १५४-१५५ ८-घ्राण इन्द्रिय-मुण्ड-घ्राण इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। ९-- रसन इन्द्रिय-मुण्ड-रसन इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। . १०-स्पर्शन इन्द्रिय-मुण्ड-स्पर्शन इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। जब मनुष्य भोगों से निवृत्त हो जाता है तथा बाह्याभ्यन्तर संयोगों का त्याग कर देता है तब उसके गृहवास में रहने की इच्छा भी नहीं रहती। वह द्रव्य और भाव-मुंड हो, घर छोड़, अनगारिता अर्थात् अनगार-वृत्ति को धारण करता है-प्रबजित हो जाता है। जिसके अगार—घर नहीं होता उसे अनगार कहा जाता है । अनगारिता अर्थात् गृह-रहित अवस्था---श्रमणत्व - साधुत्व । श्लोक १६: १५४. श्लोक १६: _ 'संवर' का अर्थ है --प्राणातिपात आदि आस्रवों का निरोध । यह दो तरह का है : देश संवर और सर्व संबर । देश संवर का अर्थ है-आस्रवों का एक देश त्याग-आंशिक त्याग । सर्व संबर का अर्थ है--आस्रवों का सर्व त्याग –सम्पूर्ण त्याग । देश संवर से सर्व संवर उत्कृष्ट होता है । जब सर्व भोग, बाह्याभ्यन्तर ग्रंथि और घर को छोड़कर मनुष्य द्रव्य और भाव रूप अनगारिता को ग्रहण करता है तब उसके उत्कृष्ट संवर होता है क्योंकि महाव्रतों को ग्रहण कर वह पापानवों को सम्पूर्णतः संवृत कर चुका होता है। जिसके सर्व संवर होता है उसके सम्पूर्ण चारित्र धर्म होता है । सम्पूर्ण चारित्र धर्म से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है । अतः सकल चारित्र का स्वामी अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है-उसका अच्छी तरह आसेवन करता है। अनगार के जो उत्कृष्ट संवर कहा है वह देश विरति के संवर की अपेक्षा से कहा है और उसके जो अनुत्तर धर्म कहा है वह पर-मतों की अपेक्षा से कहा है। श्लोक २० : १५५. श्लोक २०: जब अनगार उत्कृष्ट संवर और अनुत्तर धर्म का पालन करता है तब उसके फलस्वरूप अबोधि-अज्ञान या मिथ्यात्व रूपी कलुष से सञ्चित कर्म-रज को धुन डालता है-विध्वंस कर डालता है। १--(क) अ० चू० पृ० ६५ : मुंडो भवित्ताणपंचादि अणगारियं प्रव्रजति प्रपद्यते अगारं--घरं तं जस्स नत्थि सो अणगारो, तस्स भावो अणगारिता तं पवज्जति । (ख) जि० चू० १० १६२ : अणगारियं नाम अगारं-गिह भण्णइ तं जेसि नत्थि ते अणगारा, ते य साहुणो, ण उद्देसियादीणि भुजमाणा अन्नतिथिया अणणारा भवंति । (ग) हा० टी० ५० १५६ : मुण्डो भूत्वा द्रव्यतो भावतश्च 'प्रव्रजति' प्रकर्षण व्रजत्यपवर्ग प्रत्यनगारं, द्रव्यतो भावतश्चाविद्य मानागारमिति भावः । २-(क) अ० चू० पृ० ६५ : संवरं संवरो-पाणातिवातादीण आसवाण निवारणं, स एव संवरो उक्कट्ठो धम्मो तं फासे ति । सो य अणुत्तरो, ण तातो अण्णो उत्तरतरो। अथवा संवरेण उक्करिसियं धम्ममणुत्तरं 'पासे' त्ति उक्किट्ठाणंतरं विसेसो उक्किट्ठो, जं णं देसविरती अणुत्तरो कुतित्थियधम्मेहितो पहाणो। (ख) जि० चू० पृ० १६२-६३ : संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ, देससंबराओ सव्वसंवरो उक्किट्ठो, तेण सव्वसंवरेण संपुण्णं चरित्तधम्म फासेइ, अणुतरं नाम न ताओ धम्माओ अण्णो उत्तरोत्तरो अस्थि, सीसो आह, -णणु जो उक्किट्ठो सो चेव अणुत्तरो ? आयरिओ भणइ -उक्किट्ठगहणं देसविरइपडिसेहणत्थं कयं, अणुत्तरगहणं एसेव एक्को जिणप्पणीओ धम्मो अणुत्तरो ण परवादिमताणित्ति। (ग) हा० टी० प० १५६ : 'संवरमुक्किट्ठ' ति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म-सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं, चारित्रधर्म ____मित्यर्थः, स्पृशत्यानुत्तरं-सम्यगासेवत इत्यर्थः । ३-(क) अ० चू० पृ०६५ : तदा धुणति कम्मरयं -धुणति विद्धसयति कम्ममेव रतो कम्मरतो । 'अबोहिकलुसं कडं --अबोहि-अण्णाणं, अबोहिकलुसेण कडं अबोहिणा वा कलुसं कतं । (ख) हा० टी० ५० १५६ : धुनोति--अनेकार्थत्वात्पातयति 'कर्मरजः' कमैव आत्मरञ्जनाद्रज इव रजः,... अबोधिकलुषकृतम्' अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only wwwjain Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १७१ अध्ययन ४ : श्लोक २१-२४ टि० १५६-१५६ श्लोक २१: १५६. श्लोक २१: आत्मावरण कर्म-रज ही है । जब अनगार इसको धुन डालता है तब उसकी आत्मा अपने स्वाभाविक स्वरूप में प्रकट हो जाती है । उसके अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन प्रकट हो जाते हैं, जो सर्वत्रग होते हैं। सर्वत्रग का अर्थ है-सब स्थानों में जानेवाले–सर्व व्यापी । यहाँ यह ज्ञान और दर्शन का विशेषण है। इसलिए इसका अर्थ है केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन । नैयायिकों के मतानुसार आत्मा सर्व व्यापी है। जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञान सर्व व्यापी है। यह सर्वव्यापकता क्षेत्र की दृष्टि से नहीं किन्तु विषय की दृष्टि से है । केवल-ज्ञान के द्वारा सब विषय जाने जा सकते हैं इसलिए यह सर्वत्रग कहलाता है। श्लोक २२: १५७. श्लोक २२: जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल-ये छह द्रव्य होते हैं उसे 'लोक' कहते हैं । लोक के बाहर जहाँ केवल आकाश है अन्य द्रव्य नहीं, वह 'अलोक' कहलाता है । जो सर्वत्रग ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर जिनकेवली होता है वह समूचे लोकालोक को देखने-जानने लगता है । श्लोक २३: १५८. श्लोक २३: आत्मा स्वभाव से अप्रकम्प होती है। उसमें जो गति, स्पन्दन या कम्पन है वह आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न है। इसे योग कहा जाता है । योग अर्थात् मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति । इसका निरोध तद्भव-मोक्षगामी जीव के अन्तकाल में होता है । पहले मन का, फिर वचन का और उसके पश्चात् शरीर का योग निरुद्ध होता है और आत्मा सर्वथा अप्रकम्प बन जाती है । इस अवस्था का नाम है शैलेशी। शैलेश का अर्थ है मेरु । यह अवस्था मेरु की तरह अडोल होती है इसलिए इसका नाम शैलेशी है। जो लोकालोक को जानने-देखनेवाला जिन- केवली होता है वह अन्तकाल के समय योग का निरोध कर निष्कंप शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। निश्चल अवस्था को प्राप्त होने से अब उसके पुण्य कर्मों का भी बन्ध नहीं होता। श्लोक २४: १५६. श्लोक २४: __ जिन-केबली के नाम, वेदनीय, गोत्र और आयुष्य ये चार कर्म ही अवशेष होते हैं। ये केवल भवधारण के लिए होते हैं । जब वह सब सम्पूर्ण अयोगी हो शैलेशी अवस्था को धारण करता है तब उसके ये कर्म भी सम्पूर्णतः क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और वह नीरजकर्म रूपी रज से सम्पूर्ण रहित हो सिद्धि को प्राप्त करता है । सिद्धि लोकान्त क्षेत्र को कहते हैं। १- (क) अ० चू० पृ० ६५ : सव्वत्थ गच्छती सव्वत्तगं केवलनाणं केवलदसणं च । (ख) जि० चू० १० १६३: (ग) हा० टी० ५० १५६ : 'सर्वत्रगं ज्ञानम् -अशेषज्ञेयविषयं 'दर्शनं च' अशेषदृश्यविषयम् । २-हा० टी०प० १५६ : 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकम् 'अलोकं च' अनन्तं जिनो जानाति केवली, लोकालोको च सर्व नान्यतर मेवेत्यर्थः । ३-(क) अ० चू०प०६६ : 'तदा जोगे निरु'भित्ता' भवधारणिज्जकम्मविसारणत्थं सीलस्स ईसति-वसति सेलेसि । (ख) जि० चू० १० १६३ : तदा जोगे निरु भिऊण सेलेसि पडिवज्जइ, भवधारणिज्जकम्मक्खयट्ठाए। (ग) हा० टी०प०१५६ : उचितसमयेन योगाग्निरूद्धच मनोयोगादीन शैलेशी प्रतिपद्यते, भवोपनाहिकशिक्षयाय । ४... (क) अ० चू०पू०६६ : ततो सेलेसिप्पभावेण तदा कम्म' भवधारणिज्ज कम्म सेसं खवित्ताणं सिद्धि गच्छति णीरतो निक्कम्ममलो। (ख) जि० चू० १० १६३ : भवधारणिज्जाणि कम्माणि खवेउं सिद्धि गच्छद, कहं ? जेण सो नीरओ, नीरओनाम अवगत रओ नीरओ। (ग) हा० टी०प०१५९ : कर्म क्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि सिद्धि गच्छति', लोकान्तक्षेत्ररूपां 'नीरजाः सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः । Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १७२ अध्ययन ४ : श्लोक २५-२६ टि० १६०-१६२ श्लोक २५ : १६०. श्लोक २५ : मुक्त होने के पश्चात् आत्मा लोक के मस्तक पर-ऊर्ध्व लोक के छोर पर जाकर प्रति ष्ठत होती है इसलिए उसे लोकमस्तकस्थ कहा गया है । भगवान् से पूछा गया-मुवत जीव कहाँ प्रतिहत होते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित होते हैं ? कहाँ शरीर को छोड़ते हैं ? कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? उत्तर मिला-वे अलोक में प्रतिहत हैं, लोकान में प्रतिष्ठित हैं, यहाँ मनुष्य-लोक में शरीर छोड़ते हैं, और वहाँलोकान में जाकर सिद्ध होते हैं कहिं पडिहया सिद्धा ? कहि सिद्धा पइडिया ? कहिं बोन्दि चइत्ताणं ? कत्थ गन्तूण सिज्मई ? अलोए पडिहया सिद्धा, लोयागे य पइट्ठिया। इहं बोन्दि चइत्ताणं, तत्थ गन्तूण सिज्झई ।। उतराध्ययन ३६.५५,५६ लोक के मस्तक पर पहुँचने के बाद वह सिद्ध आत्मा पुन: जन्म धारण नहीं करती और न लोक में कभी आती है। अतः शाश्वत सिद्ध रूप में वहीं रहती है। श्लोक २६: १६१. सुख का रसिक ( सुहसायगस्स क ) : सुख-स्वादक के अर्थ इस प्रकार किये गये हैं : (१) अगस्त्य सिंह के अनुसार जो सुख को चखता है वह सुखस्वादक है । (२) जिनदास के अनुसार जो सुख की प्रार्थना--कामना करता है वह सुखस्वादक कहलाता है । (३) हरिभद्र के अनुसार जो प्राप्त सुख को भोगने में आसक्त होता है उसे सुखस्वादक-सुख का रसिक कहा जाता है। १६२. सात के लिए आकुल ( सायाउलगस्स ख ): साताकुल के अर्थ इस प्रकार मिलते हैं : (१) अगस्त्यसिंह के अनुसार सुख के लिए आकुल को साताकुल कहते हैं । (२) जिनदास के अनुसार 'मैं कब सुखी होऊँगा'---ऐसी भावना रखनेवाले को साताकुल कहते हैं। (३) हरिभद्र के अनुसार जो भावी सुख के लिए व्याक्षिप्त हो उसे साताकुल कहते हैं । अगस्त्य चूणि में 'सुहासायगस्स' के स्थान में 'सुहसीलगस्स' पाठ उपलब्ध है। सुखशीलक, सुख-स्वादक और साताकुल में आचार्यों ने निम्नलिखित अन्तर बतलाया है : गा १- (क) अ० चू० पृ० ९६ : लोगमत्थगे लोगसिरसि ठितो सिद्धो कतत्थो [सासतो] सव्वकालं तहा भवति । (ख) जि० चू० पृ० १९३ : सिद्धो भवति सासयोत्ति, जाव य ण परिणेब्वाति ताव अकुच्छियं देवलोगफलं सुकुलुप्पत्ति च पावतित्ति। (ग) हा० टी० ५० १५६ : लोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति 'शाश्वतः' कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्म इति भावः । २ --अ० चू० पृ० ६६ : 'सुहसातगस्स' तदा सुखं स्वादयति चक्खति । ३–जि० चू० पृ० १६३ : सुहं सायतीति सुहसाययो, सायति णाम पत्थयतित्ति, जो समणो होऊण सुहं कामयति सो सुहसायतो भण्णइ। ४-हा० टी० ५० १६० : सुखास्वादकस्य-अभिष्वङ्गण प्राप्तसुखभोक्तुः । ५- अ० चू० पृ० ६६ : साताकुलगस्स-तेणेव सुहेण आउलस्स, आउलो --- अणेक्कग्गो। ६-जि० चू० पृ० १६३ : सायाउलो नाम तेण सातेण आकुलीकओ, कहं सहीहोज्जामित्ति ? सायाउलो। ७ हा० टी० ५० १६० : 'साताकुलस्य' भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य । Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १७३ (१) अगस्त्य मुनि के अनुसार जो कभी-कभी सुख का अनुशीलन करता है उसे सुखशीलक कहा जाता है और जिसे सुख का सतत ध्यान रहता है उसे साताकुल कहा जाता है' | (२) जिनदास के अनुसार अप्राप्त सुख की जो प्रार्थना-कामना है वह सुख-स्वादकता है। प्राप्त-सात में जो प्रतिबंध होता है यह कुता है। (३) हरिभद्र के अनुसार सुखास्वादकता का सम्बन्ध प्राप्त सुख के साथ है और साताकुल का सम्बन्ध अप्राप्त-भावी सुख के साथ । आचायों में इन शब्दों के अर्थ के विषय में जो मतभेद है, वह स्पष्ट है। अगस्त्य मुनि के अनुसार सुख और सात एकार्थक हैं। जिनदास के अनुसार सुख का अर्थ है-अप्राप्त भोग और सात का अर्थ हैप्राप्त भोग। हरिभद्र का अर्थ ठीक इसके विपरीत है प्राप्त सुख सुख है और अप्राप्त सुख सात । १६३. अकाल में सोने वाला ( निगामसाइस्स ख ) : जिनदास ने निकामी को प्रकामशायी' का पर्यायवाची माना है। हरिभद्र के अनुसार सूत्र में जो सोने की बेला बताई गई है उसे उलंघन करनेवाला निकामशायी है। भावार्थ है-अतिशय सोनेवाला अत्यन्त निद्राशी अगरस्यसिंह के अनुसार कोमल बिस्तर बिछाकर सोने की इच्छा रखने वाला निकामशायी है । १६४. हाथ, पैर आदि को बार-बार धोने वाला ( उच्च्ड्रोलणापहोइस्स ग ) : घोड़े जल से हाथ पैर आदि को धोने वाला 'उत्सोलनाप्रभावी' नहीं होता जो प्रभूत जल से बार-बार आदि को घोता है वह 'उत्सनाभावी' कहलाता है जिनदास ने विकल्प से प्रभूत जल से भाजनादि का धोना श्लोक २७ : अध्ययन ४ श्लोक २७ टि० १६३-१६५ : ख १६५. ऋजुमतो ( उज्जुमइ ) : जिसकी मति ऋजु - सरल हो उसे ऋजुमती कहते हैं अथवा जिसकी बुद्धि मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त हो वह ऋजुमती कहलाता है। १०० १० १६ जदा सुहसीलगरस तदा सातालए विसेसो एगो सुहं कयाति अणुसीले ति साताकुलो पुर्ण सदा तदभि ज्भाणो । ८ २- जि० ० चू० पृ० १६३ : सीसो आह- सुहसायगसायाउलाण को पतिविसेसो ? आयरिओ आह- सुहसायगहणेण अप्पत्तस्स सुहस्स जा पत्थणा सा गहिया, सायाउ लग्गहण पत्ते य साते जो पडिबंधो तस्स गहणं कयं । ३ - हा० टी० प० १६० : सुखास्वादकस्य - अभिष्वङ्ग ेण प्राप्तसुखभोक्तुः ४–जि० ० चू० पृ० १६४ : निगामं नाम पगामं भण्णइ, निगामं सुयतीति निगामसायी । ५- हा० टी० प० १६० : निकामशायिनः' सूत्रार्थवेलामप्युल्लङ्घ्य शयानस्य । ६ - अ० ० पू० १६ : निकामसाइस्स सुपच्छष्णे मउए सुइतुं सीलमस्स निकामसाती । ७ – (क) अ० चू० पृ० ६६ : उच्छोलणापहोती पभूतेण अजयणाए धोवति । (ख) जि०० पृ० १६४ उन्हापहावी जाम जो पभूओरगेण नृत्यपावादी अभिवणं पक्लालपर, धोवेण कुस्कुवियसं यमाणो (ण) उच्छोलणापहोबी लभ या भायणाणि वभूतेण पाणिएण पत्रालयमाणो उच्छोलणापहोव 7 - (क) अ० चू० पृ० ६७ उज्जुया मती उज्जुमती- अमाती । (a) fas ० चू० पृ० १६४ अज्जवा मती जस्स सो उज्जुमती । (ग) हा० टी० प० १६० : 'ऋजुमतेः' मार्गप्रवृत्तबुद्ध ेः । हाथ, पैर भी किया है। (ग) हा० टी० प० १६० : 'उत्सोलनाप्रधाविनः' उत्सोलनया- उदकायतनया प्रकर्षेण धावति - पादादिशुद्ध करोति यः स तथा तस्य । "साताकुलस्य' भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसवेआलियं ( दशवकालिक ) १७४ अध्ययन ४ : श्लोक २८ टि० १६६-१७० १६६. परीषहों को ( परीसहे ग ) : क्षुधा, प्यास आदि बाईस प्रकार के कष्टों को' । इसकी व्याख्या के लिए देखिए अ०३ : टिप्पणी नं० ५७ पृ० १०३ । १६७. कई ग्रादर्शों में २७ वें श्लोक के पश्चात् यह श्लोक है । दोनों चूणियों और टीका में इसकी व्याख्या नहीं है । इसलिए यह बाद में प्रक्षिप्त हुआ जान पड़ता है । श्लोक २८: . १६८. सम्यग्-दृष्टि ( सम्मदिट्ठी ख ): जिसे जीव आदि तत्त्वों में श्रद्धा है वह । १६६. कर्मणा (कम्मुणा घ) : हरिभद्र सूरि के अनुसार इसका अर्थ है—मन, बचन और काया की क्रिया। ऐसा काम जिससे षट्-जीवनिकाय जीवों की किसी प्रकार की हिसा हो। १७०. विराधना ( विराहेज्जासि घ ) : विराधना का अर्थ है-दु:ख पहुँचाने से लेकर प्राण-हरण तक की क्रिया । अप्रमत्त साधु के द्वारा भी जीवों की कथञ्चित् द्रव्य विराधना हो जाती है, पर यह अविराधना ही है। १--(क) अ० चू० पृ० ६७ : परीसहे बावीसं जिणंतस्स । (ख) जि० चू० पृ० १६४ : परीसहा--दिगिच्छादि बावीसं ते अहियासंतस्स । (ग) हा० टी० ५० १६० : 'परीषहान्' क्षुत्पिपासादीन् । २-हा० टी० ५० १६० : 'सम्यग्दृष्टिः' जीवस्तत्त्वश्रद्धावान् । ३–(क) अ० चू० पृ० ६७ : कम्मुणा छज्जीवणियजीवोवरोहकारकेण । (ख) जि० चू० पृ० १६४ : कम्मुणा णाम जहोवएसो भण्णइ तं छज्जीवणियं जहोवदिट्ठ तेण णो विराहेज्जा । (ग) हा० टी० ५० १६० : 'कर्मणा'--मनोवाक्कायक्रियया । ४– (क) अ० चू० पृ० ६७ : ण विराहेज्जासि मज्झिमपुरिसेण वपदेसो एवं सोम्म ! ण विगणीया छक्कातो। (ख) हा० टी० ५० १६० : 'न विराधयेत्' न खण्डयेत्, अप्रमत्तस्य तु द्रव्यविराधना यद्यपि कथञ्चिद् भवति तथाऽप्यादविरा धनैवेत्यर्थः। Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं पिंडेसणा (मोसो) पंचम अध्ययन पिण्डषणा ( प्रथम उद्देशक ) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख नाम चार प्रकार के होते हैं- गौण, सामयिक, उभयज और अनुभयज' । गुरण, क्रिया और सम्बन्ध के योग से जो नाम बनता है वह गौरण कहलाता है। सामयिक नाम वह होता है जो अन्वर्थ न हो, केवल समय या सिद्धान्त में ही उसका प्रयोग हुअा हो। जन-समय में भात को प्राभृतिका कहा जाता है, यह सामयिक नाम है । 'रजोहरण' शब्द अन्वर्थ भी है और सामयिक भी। रज को हरने वाला 'रजोहररण' यह अन्वर्थ है। सामयिक-संज्ञा के अनुसार वह कर्म-रूपी रजों को हरने का साधन है इसलिए वह उभयज है। पिण्ड शब्द 'पिडि संघाते' धातु से बना है। सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं के एकत्रित होने को पिण्ड कहा जाता है। यह अन्वर्थ है इसलिए गौण है । सामयिक परिभाषा के अनुसार तरल वस्तु को भी पिण्ड कहा जाता है। प्राचाराङ्ग के सातवें उद्देशक में पानी की एषणा के लिए भी 'पिण्डषणा' का प्रयोग किया है। पानी के लिए प्रयुक्त होने वाला 'पिण्ड' शब्द अन्वर्थ नहीं है इसलिए यह सामयिक है। जैन-समय की परिभाषा में यह अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन सभी के लिए प्रयुक्त होता है। एषसा शब्द गवेषणषणा, ग्रहणषणा और परिभोगषणा का संक्षिप्त रूप है। इस अध्ययन में पिण्ड की गवेषणा-शुद्धाशुद्ध होने, ग्रहण (लेने) और परिभोग (खाने) की एषरणा का वर्णन है इसलिए इसका नाम है 'पिण्डषणा। आयारचूला के पहले अध्ययन का इसके साथ बहुत बड़ा साम्य है। वह इसका विस्तार है या यह उसका संक्षेप यह निश्चय करना सहज नहीं है। ये दोनों अध्ययन 'पूर्व' से उद्धृत किए गए हैं। भिक्षा तीन प्रकार की बतलाई गई है-दोन-वृत्ति, पौरुषध्नी और सर्व-संपत्करी । अनाथ और अपङ्ग व्यक्ति मांग कर खाते हैं, वह दोन-वृत्ति भिक्षा है। श्रम करने में समर्थ व्यक्ति मांग कर खाते हैं, वह पौरुषघ्नी भिक्षा है । संयमी माधुकरी वृत्ति द्वारा सहज सिद्ध आहार लेते हैं, वह सर्व-संपत्करी भिक्षा है। दीन-वृत्ति का हेतु असमर्थता, पौरुषघ्नी का हेतु निष्कर्मण्यता और सर्व-संपत्करी का हेतु अहिंसा है। भगवान् ने कहा मुनि की भिक्षा नवकोटि-परिशुद्ध होनी चाहिए-वह भोजन के लिए जीव-वध न करे, न करवाए और न करने वाले का अनुमोदन करे; न मोल ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे; तथा न पकाए, न पकवाए और न पकाने वाले का अनुमोदन करे। इस अध्ययन में सर्व-संपत्करी-भिक्षा के विधि-निषेधों का वर्णन है। नियुक्तिकार के अनुसार यह अध्ययन 'कर्म प्रवाद' नामक पाठवें 'पूर्व' से उद्धृत किया गया है । १-पि० नि० गा० ६ : गोण्णं समयकयं वा, जं वावि हवेज्ज तदुभएण कयं । तं बिति नामपिंड, ठवणापिडं अओ वोच्छं । २- पि० नि० गा०६। ३–अ० प्र० ५.१ : सर्वसम्पत्करी चैका, पौरुषघ्नी तथापरा। वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता । ४-ठा० ६.३० : समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्ध भिक्खे पं० तं-ण हणइ, ण हणावइ, हणंतं ___णाणुजाणइ, ण पयइ, ण पयावेति, पयंत णाणुजाणति, ण किणति, ण किणावेति, किर्णत णाणुजाणति । ५–दश० नि० १.१६ : कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा । Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १७८ निर्दोष भिक्षा भिक्षु को जो कुछ मिलता है वह भिक्षा द्वारा मिलता है इसलिए कहा गया है - " सव्वं से जाईयं होई गत्थि किंचि अजाईयं " ( उत्त० २.२८) भिक्षु को सब कुछ माँगा हुआ मिलता है। उसके पास प्रयाचित कुछ भी नहीं होता। माँगना परीषह - कष्ट है ( देखिए उत्त० २ गद्य भाग) दूसरों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं होता" पाणी नो सुप्पसारए" (उत्त०२.२२) । किन्तु पहिया की मर्यादा का ध्यान रखते हुए भिक्षु को वंसा करना होता है। भिक्षा जितनी कठोर चर्या है उससे भी कहीं कठोर चर्चा है उसके दोषों को टालना उसके बयालीस दोष हैं। उनमें उद्गम चौर उत्पादन के सोलह-सोलह पर एपला के दस सब मिलकर बयालीस होते हैं धीर पांच रोप परिभोगंपरा के है (उ० २४. ११. १२) (क) गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष 'उद्गम' के दोष कहलाते हैं। ये आहार की उत्पत्ति के दोष हैं। ये इस प्रकार हैं १ प्राधाक २ ३ ४. ५. ६. ७. 5. ε. १०. ११. १२ १३. १४. १५. १६. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. "गवेसरणाए गहणे य परिभोगेसरणाय य । आहारो वहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए । उभ्गमुप्पायरणं पढमे बीए सोहेज्ज ए सरणं । परिभोमि चवर्क विसोज्ज जयं जई ॥ ८. ε. १०. ११. आहाकम्म उद्देसिय पूइकम्म मीसजाय ठवरणा पाहुया पानोयर कीग्र पामिन्य (ख) साधु के द्वारा लगने वाले दोष उत्पादन के दोष कहलाते हैं। ये आहार की याचना के दोष हैं धाई धात्री अध्ययन ५ आमुख परियट्टि अभि उब्भिन्न मालोहड पछि अरिसि प्रभोयरय दुई निमित्त आजीव वणीमग तिमिच्छा कोह मारण माया सोह पुव्वि-पच्छा-संथव प्रशिक पूतिकर्म मिश्रजात स्थापना प्राभूतिका प्रादुष्कररण क्रीत प्रामित्य परिवर्त अभिहत उभिन्न मालापहृत प्राच्य अनिसृष्ट अध्यवतरक दूती निमित्त आजीव वनीपक चिकित्सा कोय मान माया लोभ पूर्व-पश्चात् संस्तव Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) १२. १३. १४. १५ १६. मूलकम्म (ग) साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा लगने वाले दोष एपणा' के दोष कहलाते हैं ये आहार विधिपूर्वक न लेने-देने और शुद्धाद्ध की छानबीन न करने से पैदा होते हैं। वे ये हैं १. संकिय २. ३. ५. ६. ७. विज्जा मंत चुण्ण जोग मस्य निक्ति पिहिय साहरिय १७६ विद्या मन्त्र चूर्ण योग मूल कर्म " शत प्रक्षित निक्षिप्त दायग ਕਸਰ अपरिणय ८. ε. लित १०. छड्डिय भोजन सम्बन्धी दोष पाँच हैं। ये भोजन की सराहना व निन्दा प्रादि करने से उत्पन्न होते हैं। वे इस प्रकार हैं (१) अङ्गार, (२) धूम, (३) संयोजन, (४) प्रमाणातिरेक और (५) कारणातिक्रांत । ये संतालिस दोष आगम साहित्य में एकत्र कहीं भी वरिंगत नहीं हैं किन्तु प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं। श्री जयाचार्य ने उनका अपुनरुक्त संकलन किया है। पिहित संहृत दायक उन्मिश्र अपरिलत अध्ययन ५ आमुख लिप्त कर्म, पौशिक, मिश्रजात अध्ययतर पूर्ति-कर्म, कोत-कृत प्रामिष यान्च्छेद, पतिसृष्ट और अभ्याहत से स्थानाङ्ग (१.६२) में बतलाए गए हैं । धात्री-पिण्ड, दूती-पिण्ड, निमित्त -पिण्ड, प्राजीव-पिण्ड, वनीपकपिण्ड, चिकित्सा-पिण्ड, कोप-पिण्ड, मान-पिण्ड, माया-पिण्ड, लोम-पिण्ड, विद्या-पिण्ड मन्य-पिण्ड, चूर्ण-पिण्ड, योग-पिण्ड और पूर्व-पश्चात् संस्तव विशीष (उ०१२ ) में बतलाए गए हैं। परिवर्त का उल्लेख आयारचूला (१.२१) में मिलता है । अङ्गार, धूम, संयोजना, प्राभृतिका - ये भगवती ( ७.१ ) में मिलते हैं। मूलकर्म प्रश्नव्याकरण ( संवर १.१५ ) में है । उद्भिन्न, मालापहृत, अध्यवतर, शङ्कित, ग्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, श्रपरिगत, लिप्त और छर्दित---ये दशवकालिक के पिण्डषरणा अध्ययन में मिलते हैं । कारणातिक्रान्त उत्तराध्ययन (२६.३२ ) और प्रमाणातिरेक भगवती (७.१) में मिलते हैं । हमने टिप्पणियों में यथास्थान इनका निर्देश किया है। छादित Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : पञ्चम अध्ययन पिंडेसणा : पिण्डैषणा पढोमोसो : प्रथम उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १-संपत्ते भिक्खकालम्मि असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण भत्तपाणं वेसए ॥ संप्राप्ते भिक्षाकाले, असंभ्रान्तोऽमूच्छितः । अनेन क्रमयोगेन, भक्तपानं गवेषयेत् ॥१॥ १–भिक्षा का काल प्राप्त होने पर मुनि असंभ्रांत और अमूच्छित रहता हुआ इस—आगे कहे जाने वाले, क्रम-योग से भक्त-पान की गवेषणा करे। २- से गामे वा नगरे वा गोयरग्गगओ मणी । चरे मंदमणुव्विग्गो अव्वक्खित्तेण चेयसा ॥ स ग्रामे वा नगरे वा, गोचराग्रगतो मुनिः। चरेन्मन्दमनुद्विग्नः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥२॥ २- गाँव या नगर में गोचराग्र के लिए निकला हुआ वह मुनि धीमे-धीमे,० अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त चित्त से१२ चले। ३- पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महि चरे । वज्जतो बीयहरियाई पाणे य दगमट्रियं ॥ पुरतो युगमात्रया, प्रेक्षमाणो महीं चरेत् । वर्जयन् बीजहरितानि. प्राणांश्च दक-मृत्तिकाम् ॥३॥ ___३-आगे युग-प्रमाण भूमि को५ देखता हुआ और बीज, हरियाली,१३ प्राणी, जल तथा सजीव-मिट्टी को टालता हुआ चले। ४- ओवायं विसमं खाj विज्जलं परिवज्जए । संकमेण न गच्छेज्जा विज्जमाणे परवकमे५ ॥ अवपातं विषम स्थाणु, 'विज्जल' परिवर्जयेत् । संक्रमेण न गच्छेत्, विद्यमाने परक्रमे ॥४॥ ५- पवडते व से तत्थ पक्खलंते व संजए । हिंसेज्ज पाणभूयाई तसे अदुव थावरे ॥ प्रपतन् वा स तत्र, प्रस्खलन् वा संयतः । हिस्यात् प्राणभूतानि, त्रसानथवा स्थावरान ॥५॥ ४-दूसरे मार्ग के होते हुए गड्ढे, उबड़ खाबड़ भू-भाग, कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल २३ और पंकिल मार्ग को टाले तथा संक्रम (जल या गड्ढे को पार करने के लिए काष्ठ या पाषाण-रचित पुल) के ऊपर से२४ न जाये। ५-६-वहाँ गिरने या लड़खड़ा जाने से वह संयमी प्राणी-भूतों - त्रस अथवा स्थावर जीवों की हिंसा करता है, इसलिए सुसमाहित संयमी दूसरे मार्ग के होते हुए२७ उस मार्ग से न जाये । यदि दूसरा मार्ग न हो तो यतनापूर्वक जाये। ६-तम्हा तेण न गच्छेज्जा संजए सुसमाहिए । सइ अन्नेण मग्गेण जयमेव परक्कमे ॥ तस्मात्तेन न गच्छेत्, संयतः सुसमाहितः। सत्यन्यस्मिन् मार्गे, यतमेव पराक्रमेत् ॥६॥ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेषणा ( पिण्डेषणा ) ७-३ इंगालं छारियं रासि तुसरासि च गोमयं । सस रोहि पाहि संजओ तं न अफ्फमे || ८- न चरेज्ज वासे वासंते महियाए व पडंतीए । महावाए व वायंते तिरिच्छपाइमेसु ६- न चरेज्ज पेससामंते वंभरवसाणुए बंभयारिस्स दंतस्स होन्जा तस्थ विसोत्तिया ॥ १० - अणावणे चरंतरस संसग्गीए अभिवणं । होज्ज वयाणं बयाणं पीला सामण्णम्मि य संसओ ॥ वा ॥ ११- तम्हा एवं विद्याचिता दोसं चजए मुणी १२ - ४ साणं सूइयं गावि दित्तं गोणं हयं गयं । संडिन्भं कलहं जुद्धं दूरओ दुग्गणं । बेससामंत एगतमस्सिए || परिवज्जए । १३ – अणुन्नए नावणए अप्पहि अणाउले । इंदियाणि जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे ॥ १८१ आङ्गारं क्षारिक राशि राशि च गोमयम् । सतरक्षाभ्यां पादाभ्याम्, संयतस्तं नाक्रामेत् ॥७॥ न चरेद्वर्षे वर्षति महिकायां वा पतन्त्याम् । महावाते या तिसंपातेषु बाति, वा ॥ ५ ॥ न चरेद् बेशसामन्ते, ब्रह्मचर्यवशानुगः ब्रह्मचारिणो दान्तस्य, भवेत्तत्र विस्रोतसिका ॥६॥ अनायतने संसर्गेणाऽभीक्ष्णम् भवेद् व्रतानां पीडा, 1 श्रामण्ये च संशयः ॥ १०॥ चरतः, तस्मादेतद् विज्ञाप दोषं दुर्गंति-वर्द्धनम् । वर्जयेद्वेश सामन्तं, मुनिरेकान्तमाश्रितः ॥११॥ इवानं सूतिकां गां दृप्त गां हयं गजम् । 'डि' कलहं युद्ध, दूरतः परिवर्जयेत् ।।१२।। अनुन्नतो अग्रहृष्टोऽनाकुलः इन्द्रियाणि यथाभागं, दमविश्वा मुनिश्चरेत् ।।१३।। नावनतः, अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : इलोक ७-१३ ७- संयमीमुनि राति जसे भरे हुए पैरों से" कोयलेर, राख, भूसे और गोबर के ढेर के ऊपर होकर न जाये । ८ - वर्षा बरस रही हो, ३५ कुहरा गिर 38 रहा हो, ६ महावात चल रहा हो और मार्ग में तिर्यक् संपातिम जीव छा रहे हों तो भिक्षा के लिए न जाये । ६- ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि" वेश्याबाड़े के समीप " न जाये । वहाँ दमितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के भी विस्रोतसिका ४२ हो सकती है- साधना का स्रोत मुड़ सकता है । १० - अस्थान में बार-बार जाने वाले के (याओं का संसर्ग होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और बामण्य में सन्देह हो सकता है । ४५ ११ इसलिए बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त (मोक्ष- मार्ग ) ४७ का अनुगमन करने वाला मुनि वेश्या बाड़े के समीप न जाये 1 १२- श्वान, ब्याई हुई गाय, ६ उन्मत्त बैल, अश्व और हाथी, बच्चों के कीड़ास्थल, कलह" और युद्ध ( के स्थान ) को५२ दूर से टाल कर जाये । १३ – मुनि न ऊंचा मुहकर १५, न झुककर५६, न हृष्ट होकर न आकुल होकर 25, (किन्तु ) इन्द्रियों को अपने-अपने विषय के अनुसार दमन कर ले। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १८२ अध्ययन ५ (प्र० उ० ) : श्लोक १४-२० १४-दवदवस्स न गच्छेज्जा भासमाणो य गोयरे । हसंतो नाभिगच्छेज्जा कुलं उच्चावयं सया ॥ द्रवं द्रवं न गच्छेत्, भाषमाणश्व गोचरे। हसन् नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥ १४ --उच्च-नीच कुल में गोचरी गया हुआ मुनि दौड़ता हुआ न चले,१३ बोलता और हँसता हुआ न चले। १५-६ आलोयं थिग्गलं दारं संधि दगभवणाणि य । चरंतो न विणिज्झाए संकटाणं विवज्जए ॥ आलोक 'थिग्गलं' द्वारं, सन्धि दकभवनानि च। चरन् न विनिध्यायेत्, शङ्कास्थानं विवर्जयेत् ॥१५॥ १५.- मुनि चलते समय आलोक,६५ थिग्गल, द्वार, संधि तथा पानी-घर को न देखे। शंका उत्पन्न करने वाले स्थानों से६९ बचता रहे। १६-रन्नो गिहवईणं च । रहस्सारक्खियाण य। संकिलेसकरं ठाणं परिवज्जए॥ राज्ञो गृहपतीनां च, रहस्यारक्षिकाणाञ्च । संक्लेशकरं स्थानं, १६--राजा, गृहपप्ति,७१ अन्तःपुर और आरक्षिकों के उस स्थान का मुनि दूर से ही वर्जन करे, जहां जाने से उन्हें संक्लेश उत्पन्न हो। दूरओ दूरतः पारवजयत् ॥१६॥ १७-पडिकुटकुलं न पविसे मामगं परिवज्जए। अचियत्त कुलं न पविसे चियत्तं पविसे कुलं ।। प्रतिक्रुष्ट-कुलं न प्रविशेत, मामकं परिवर्जयेत् । 'अचियत्त'-कुलं न प्रविशेत्, 'चियत्तं' प्रविशेत् कुलम् ॥१७॥ १७—मुनि निदित कुल में°५ प्रवेश न करे । मामक (गृह-स्वामी द्वारा प्रवेश निषिद्ध हो उस) का परिवर्जन करे। अप्रीतिकर कुल में प्रवेश न करे। प्रीतिकर ८ कुल में प्रवेश करे । १८-मुनि गृहपति की आशा लिए बिना सन और मृग-रोम के बने वस्त्र से८२ का द्वार स्वयं न खोले,८३ किवाड़ न खोले८४ । १८-साणोपावारपिहियं अप्पणा नावपंगरे। कवाडं नो पणोल्लेज्जा ओग्गहं से अजाइया ॥ शाणी-प्रावार-पिहित, आत्मना नापवृणुयात् । कपाटं न प्रणोदयेत्, अवग्रहं तस्य अयाचित्वा ॥१८॥ -१६गोयरग्गपविट्ठो उ वच्चमुत्तं न धारए। ओगासं फासुयं नच्चा अन्नविय वोसि रे ॥ गोचराग्रप्रविष्टस्तु, व!मूत्रं न धारयेत् । अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य व्यत्सजेत ॥१६॥ १६-गोचरान के लिए उद्यत मुनि मल-मूत्र की बाधा को न रखे८६ । (गोचरी करते समय मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो) प्रासुक-स्थान६७ देख, उसके स्वामी की अनुमति लेकर वहाँ मल-मूत्र का उत्सर्ग करे। २०- नीयदुवारं तमसं कोटगं परिवज्जए। अचक्खुविसओ जत्थ पाणा दुप्पडिलेहगा ॥ नीचद्वारं तमो (मयं), कोष्ठकं परिवर्जयेत् । अचक्षुविषयो यत्र, प्राणाः दुष्प्रतिलेख्यकाः ॥२०॥ २०- जहाँ चक्षु का विषय न होने के कारण प्राणी न देखे जा सकें, वैसे निम्न-द्वार वाले तमपूर्ण कोष्ठक का परिवर्जन करे। Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डवणा ) २१ जत्थ पुरफाइ बीयाई विप्पड़ष्णाई अगोवलितं बवणं २२ - २ एलगं दारगं वच्छ गं वावि कोट्ठए । उल्लं परिवज्जए ॥ उल्लंघिया विऊहिताण य १०४. २५- ""तरथेव न पविसे २३ असतं पलोएज्जा नाइदूरावलोयए उप्फुल्लं न विणिज्झाए नियोज्ज अपिरो । साणं कोट्ठए । २४ - अइभूमि न गच्छेज्जा गोयरागओ संजए ॥ कुलस्स भूमि जाणिता मियं भूमि आहरे अकप्पियं न पडिगाहेज मुणी । २६ – ०६दगमट्टियआयाणं परक्कमे ॥ भूमिभागं सिणाणस्स य वच्चस्स संलोगं पडिलेहेज्जा विणो । परिवज्जए ॥ बीयाणि हरियाणि च । परिवज्जंतो चिट्ठज्जा सव्वदियस माहिए 11 २७- तत्व से चिटुमाणस ११४ पाणभीषणं । इच्छेज्जा कपि५ ॥ १८३ यत्र पुष्पाणि बीजानि विप्रकीर्णानि कोष्ठके । अधुनोपलिप्तमार्द्र, दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥२१॥ एडकं दारकं श्वानं, वत्सकं वाऽपि कोष्ठके । उन प्रोत् व्यूह्य वा संयतः ॥ २२॥ असंसक्तं प्रलोकेत, नातिदूरमवलोकंत उत्फुल्लं न विनिध्यायेत्, निवताऽजल्पिता ।।२३।। अतिभूमि न गच्छेत्, गोचरागतो मुनिः । कुलस्वा मितां भूमि पराक्रमेत् ।।२४।। तत्रैव प्रतिलिखेत्, भूमि-भागं विचक्षणः । स्नानस्य च वर्चसः, संलोकं परिवर्जयेत् ॥ २५ ॥ दकमृतिका|दानं, बीजानि हरितानि च। परिवर्जयंस्तिष्ठेत्, सर्वेन्द्रिय-समाहितः ॥२६॥ तत्र तस्य तिष्ठतः, आहरेत् पान-भोजनम् । अकल्पिकं न इच्छेत्, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकम् ॥ २७ ॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक २१-२७ २१ - जहाँ कोष्ठक में या कोष्ठक द्वार पर पुण्य, बीजादि बिखरे हों वहाँ मुनि न जाये । कोष्ठक को तत्काल का लीपा और गीला देखे तो मुनि उसका परिवर्जन करे । 83 २२ मुनि भेड़ बच्चे कुत्ते और बछड़े को लांघकर या हटाकर कोठे में प्रवेश न करे ६४ । २३ मुनि अनासक्त दृष्टि से देखे६६ । अति दूर न देखे। उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे । भिक्षा का निषेध करने पर बिना कुछ कहे वापस चला जाये‍ । २४ - गोचराय के लिए घर में प्रविष्ट मुनि अति-भूमि (अननुज्ञात) में न जाये १०१ भूमि मर्यादा) को जानकर मित-भूमि (अनुज्ञात) में प्रवेश करे २५ - विचक्षण मुनि १०५ मित-भूमि में ही उचित भू-भाग का प्रतिलेखन करें। जहाँ से स्नान और शौच का स्थान दिखाई पड़े उस भूमि-भाग का परिवर्जन करे । ११२ २६ - सर्वेन्द्रिय- समाहित मुनि" उदक और मिट्टी" लाने के मार्ग तथा बन और हरियाली को बकर लड़ा रहे। २० वहां खड़े हुए उस मुनि के लिए कोई पान भोजन लाए तो बह अकल्पिक न ले । कल्पिक ग्रहण करे । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २८-आहरंती सिया तत्थ परिसाडेज्ज भोयणं । बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ १८४ आहरन्ती स्यात् तत्र, परिशाटयेद् भोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२८॥ अध्ययन ५ (प्र० उ० ): श्लोक २८-३४ २८-~-यदि साधु के पास भोजन लाती हुई गृहिणी उसे गिराए तो मुनि उस देती हुई११ स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। २६-सम्मद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणि य । असंजमरि नच्चा तारिस परिवज्जए॥ सम्मर्दयन्ती प्राणान्, बीजानि हरितानि च। असंयमकरी ज्ञात्वा, तादृशं परिवर्जयेत् ॥२६॥ २६-प्राणी, बीज और११८ हरियाली को कुचलती हुई स्त्री असंयमकरी होती हैयह जान९ मुनि उसके पास से भक्तपान'२० न ले। ३०-साह? निक्खिवित्ताणं सच्चित्तं घटियाण य । तहेव समणट्ठाए उदगं संपणोल्लिया ॥ संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा च। तथैव श्रमणार्थ, उदकं संप्रणुद्य ॥३०॥ ३०-३१--एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकाल कर१२१, सचित्त बस्तु पर रखकर, सचित्त को हिलाकर, इसी तरह पात्रस्थ सचित्त जल को हिलाकर, जल में अवगाहन कर, आंगन में ढुले हुए जल को चालित कर श्रमण के लिये आहार-पानी लाए तो मुनि उस देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता'२२ । ३१-ओगाहइत्ता चलइत्ता आहरे पाणभोयणं । पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं । अवगाह्य चालयित्वा आहरेत्पान-भोजनम् । वदती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ दंतियं ३२-पुरेकम्मेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा ॥ देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ पुरःकर्मणा हस्तेन, दा भाजनेन वा। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३२॥ ३२-पुराकर्म-कृत१२3 हाथ, कड़छी और बर्तन से१२४ भिक्षा देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे--इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । ३३-१२५एवं उदओल्ले ससिणिद्धे ससरक्खे मट्टिया ऊसे ।। हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणे लोणे ॥ एवं उदआई : सस्निग्धः, ससरक्षो मृत्तिका ऊषः। हरितालं हिंगुलकं, मनःशिला अञ्जनं लवणम् ॥३३॥ ३३-३४ .... इसी प्रकार जल से आर्द्र, सस्निग्ध,१२६ सचित्त रज-कण,१२७ मत्तिका,१२८ क्षार,१२९ हरिताल, हिंगुल, मैनशिल, अञ्जन, नमक, गैरिक,93° वणिका,१३१ श्वेतिका,१३२ सौराष्ट्रिका, 33 तत्काल पीसे हुए आटे13४ या कच्चे चावलों के आटे, अनाज के भूसे या छिलके और फल के सूक्ष्म खण्ड१३६ से सने हुए (हाथ, कड़छी और बर्तन से भिक्षा देती हुई स्त्री) को मुनि प्रतिषेध करेइस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता तथा संसृष्ट और असंसृष्ट को जानना चाहिये । ३४-गेरुय वणिय सेडिय सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुसकए य । उक्कट्ठमसंस? संसट्रे चेव बोधव्वे ॥ गरिकं वर्णिका सेटिका, सौराष्ट्रिका पिष्टं कुक्कुसकृतश्च । उत्कृष्टमसंसृष्टः, संसृष्टश्चैव बोद्धव्यः ॥३४॥ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा (पिण्डेषणा ) ३५ असण दवीए भायणेण दिज्जमाणं न इच्छेज्जा पच्छाकम्मं जहि भवे । ३६ - संसण हत्थेण दवीए भायणेण वा । दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा ज तत्बेसणियं भवे ॥ ३७ – दोहं तु भुजमाणाणं . १४० एगो तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं न इच्छेज्जा छंद से पहिए || ३९ गुब्विणीए विविहं भुज्जमाणं भुत्तसे हत्येण १४३. २८-- दोन्हं तु भुजमाणाणं दोवि तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा जं तत्थेसणियं भवे ॥ ४० सिया वा । य ४१-तं भवे संजयाण देतियं न मे कप्पड़ समणट्ठाए गुब्विणी कालमासिणी । उडिया वा निसीएन्जा निसन्ना वा पुण्हुए ॥ उवन्नरथं पाणभीषणं । विवज्जेज्जा पच्छिए ॥ भत्तपाणं तु अकप्पियं । पडियाइक्वे तारिस ॥ १४व १८५ असंसृष्टेन हस्तेन दर्या भाजनेन वा । दीयमानं येत् पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ॥ ३५ ॥ संसृष्टेन हस्तेन, दर्या भाजनेन वा । दीयमानं प्रतीच्छेत्, यत्तत्रेषणीयं भवेत् ॥३६॥ द्वयोस्तु भुञ्जानयोः, एकस्तत्र निमन्त्रयेत् । दीयमानं न इच्छेत्, धन्यं तस्य प्रतिलेखयेत् ॥ ३७॥ द्वयोस्तु भुञ्जानयोः द्वावपि तत्र निमन्त्रयेवाताम् । दीयमानं प्रतीच्छे यत्तत्रैषणीयं भवेत् ॥ ३८॥ विण्या उपन्यस्तं, विविधं पान-भोजनम्। भूश्यमानं विवर्जयेत् भक्त प्रती ॥३ स्याच्च श्रमणार्थ, विधी कासमासिनी । उत्थिता वा निषीदेत् निषण्णा वा पुनरुतिष्ठेत् ॥४०॥ तद्भवेद् भक्त पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददर्ती प्रत्याचक्षत न मे कल्पते तादृशम् ॥ ४१ ॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक ३५-४१ ३५] जहाँ पश्चात् कर्म का प्रस हो वहीं असंसृष्ट १३९ ( भक्त-पान से अलिप्त ) हाथ, कड़छी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार मुनि न ले । १३९ ३६ संष्ट (भक्त-मान से लिप्त ) हाथ, कड़छी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार, जो वहाँ एषणीय हो, मुनि ले ले । ३७ - दो स्वामी या भोक्ता हों १४१ और एक निमन्त्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला आहार न ले । दूसरे के अभिप्राय को देखे १४२ – उसे देना अप्रिय लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो ले ले 1 ३८ - दो स्वामी या भोक्ता हों और दोनों ही निमन्त्रित करें तो मुनि उस दीयमान आहार को, यदि वह एनीय हो तो ले ले। ३६ - गर्भवती स्त्री के लिए बना हुआ विविध प्रकार का भक्त पान वह खा रही हो तो मुनि उसका विवर्जन करे, १४४ खाने के बाद बचा हो वह ले ले 1 ४०-४१ काल मासवती १४५ दभिणी खड़ी हो और श्रमण को भिक्षा देने के लिए कदाचित् बैठ जाए अथवा बैठी हो और खड़ी हो जाए तो उसके द्वारा दिया जाने वाला भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्प्य होता है इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे - इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अध्ययन ५ (प्र० उ० ) : श्लोक ४२-४८ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४२–थणगं पिज्जेमाणी दारगं वा कुमारियं । तं निविखवित्त रोयंतं आहरे पाणभोयणं ॥ स्तनकं पाययन्ती, दारकं वा कुमारिकाम् । तं (तां) निक्षिप्य रुदन्तं, आहरेत् पान-भोजनम् ॥४२॥ ४२-४३-बालक या बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़१४७ भक्त-पान लाए, वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। ४३-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं। देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४३।। ४४-जं भवे भत्तपाणं तु कप्पाकप्पम्मि संकियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ यद्भवेद् भक्त-पानं तु, कल्प्याकल्प्ये शङ्कितम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४४॥ ४४- जो भक्त-पान कल्प और अकला की दृष्टि से शंका-युक्त हो,१४८ उसे देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे --- इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। -दगवारएण पिहियं नीसाए पीढएण वा। लोढेण वा वि लेवेण सिलेसेण व केणइ ॥ 'दगवारएण' पिहितं, 'नीसाए' पीठकेन वा। ग्लोढेण' वाऽपि लेपेन, श्लेषेण वा केनचित् ॥४५॥ ४५-४६ जल-कुंभ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढ़ा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढंके, लिपे और मूंदे हुए) पात्र का श्रमण के लिए मुंह खोल कर, आहार देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। ४६-तं च उभिदिया देज्जा समणट्ठाए व दावए। देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तच्चोद्भिद्य दद्यात्, श्रमणार्थं वा दायकः। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४६॥ ४७-असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा।। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा दाणट्ठा पगडं इमं ॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा। यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥४७॥ ४७-४८-यह अशन, पानक,१५° खाद्य और स्वाद्य दानार्थ तैयार किया हुआ१५१ है, मुनि यह जान जाए या सुन ले तो वह भक्तपान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे-- इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता । ४८-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८॥ Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ४६-५५ पिंडेसणा ( पिण्डषणा ) ४१--असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा पुण्णट्ठा पगडं इमं n अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा । यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, पुण्यार्थ प्रकृतमिदम् ॥४६॥ ४६-५०-यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पुण्यार्थ तैयार किया हुआ१५२ है, मुनि यह जान जाये या सुन ले तो वह भक्त-पान संयति के लिये अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे---इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता । ५०-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।। दंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न में कल्पते तादृशम् ॥५०॥ ५१-असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा वणिमट्ठा पगडं इमं ॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्यं तथा। यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, वनीपकार्थ प्रकृतमिदम् ॥५१॥ ५१-५२--यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य वनीपकों-भिखारियों के निमित्त तैयार किया हुआ१५३ है, मुनि यह जान जाये या सुन ले तो वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे-इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। ५२-तं भवे भत्तपाणं तु - संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं । तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५२॥ ५३-असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा। समणट्ठा पगडं इमं ॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा। यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥५३॥ ५३-५४---यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य श्रमणों के निमित्त तैयार किया हुआ है, मुनि यह जान जाये या सुन ले तो वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे...-इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। ५४-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५४॥ ५५---उद्देसियं पूईकम्मं अज्झोयर मीसजायं च कोयगडं आहडं। पामिच्चं वज्जए॥ औद्देशिकं कोतकृत, पूतिकर्म आहृतम् । अध्यवतर प्रामित्यं, मिश्रजात च वर्जयेत् ॥५५॥ ५५---औद्देशिक, क्रीतकृत, पूतिकर्म,१५४ आहृत, अध्यवतर१५५ प्रामित्य १५६ और मिश्रजात५७ आहार मुनि न ले। च Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ५६ उपमं से पुच्छेज्जा कस्सट्टा केण वा कहं । सोच्या निस्संकियं सुखं पडिगाम संजए ॥ ५७ अरुण पाणग वा वि खाइम साइमं तहा पुष्फेसु होज्ज उम्मीसं बीएसु हरिए ५८ तं भवे संजयाण वेंतियं वा ॥ भसवाणं तु अकपियं । पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ ५६ असणं पाणगं वा वि साइमं साइमं तहा । उदगम होज्ज निक्खित्तं उत्तंगपण वा ॥ ६० - तं भवे संजयाण भत्तपाणं तु अकव्यियं । पडियाइक्खे दंतियं न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६१ - असणं पाणगं वा वि साइमं साइमं तहा तेग्मि होज्ज निवितं च संघट्टिया दए ॥ तं ६२तं भवे भतपाण तु संजयाण अकचियं । पडिवाइनले दंतियं न मे कप्पइ तारिसं ॥ १८८ तस्य पुछेत् कस्यार्थं केन वा कृतम् । श्रुत्वा निःशङ्कतं शुद्ध, प्रति संयतः ॥५६॥ अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा । पुष्येनिम बर्हरितैर्वा ॥५७॥ तदभवनं तु. संयतानामकल्पिकम् । दीप्रत्यक्ष, न मे कल्पते तादृशम् ||१८|| अशनं पानकं वाऽपि, खाद्य स्वाद्यं तथा । उदके भवेन्निक्षिप्तं, पिनकेषु वा ॥ ४६ ॥ तद्भवेद् भक्त पानं तु, संयतनामकल्पिकम् । दद न मे कल्पते तादृशम् ॥ ६०॥ अशनं पानक वाऽपि, खाद्य स्वाद्य तथा । तेजसि भवेन्निक्षिप्तं, तच्च सङ्घट्य दद्यात् ॥ ६१ ॥ वे भवतानं तु संयतानामकल्पिकम् । प्रत्याची न मे कल्पते तादृशम् ॥६२॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक ५६ ६२ २६-संयमी आहार का उद्गम पूछेकिस लिए किया है ? किसने किया है ? इस प्रकार पूछे । दाता से प्रश्न का उत्तर सुनकर निःशंकित और शुद्ध आहार ले । ५७-५८ -- यदि अशन, पानक, खाद्य और स्वास, पुष्प, बीज और हरियाली उन्मिश्र हो १५९ तो वह भक्त पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करेका आहार मैं नहीं ले सकता । -इस प्रकार ५६ ६० - यदि अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य पानी उ पर निक्षिप्त (रखा हुआ हो तो वह भक्त पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । ६१-६२ - यदि अशन, पानक, खाद्य और स्वाय अग्नि पर निजिप्त (रखा हुआ ) हो और उसका ( अग्नि का ) स्पर्श कर १६३ दे तो वह भक्त पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) १७४. ६३- "एवं उस्सक्किया ओसक्किया उज्जालियापज्जालिया निवाविया । उस्सिचिया निस्सिचिया ओसिया ओयारिया दए । ६४- तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । पडियाइक्ले देतियं न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६५ - होज्ज कट्ठ सिलं वा वि इट्टा वा बि एगया । ठवियं संकमट्टाए तं च होज्ज चलाचलं ॥ ७७५ ६६ - न तेण भिक्खु गच्छेज्जा विट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं सिरं चेय सव्विसमाहिए ६७ - निस्मेणि उसवतानमा रहे मंचं कोलं च पासायं समणट्टाए व ६८ - दुरूहमाणी फलगं पीढ़ ६९ एवारिसे 11 पवज्जा हत्थं पायं व लूसए । पुढविजी वि हिंसेज्जा जे य तन्निस्सिया जगा ॥ दावए ॥ महादोसे जाणिऊण महेति । तम्हा मालोहदं भिक्खं न पडिगेण्हंति संजया ॥ १८६ एवमुत्वक्य अवष्वक्य, उज्ज्वात्य प्रज्वाल्य निर्वाप्य । उत्सिल्य निविष्य अपवर्त्य अवतार्य दद्यात् ॥ ६३॥ तद्भवेद् भक्त पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ६४ ॥ भवेत् काष्ठं शिला वाऽपि, 'इट्टालं' वाऽपि एकदा | स्थापितं संत्रमार्ग, तच्च भवेच्चलाचलम् ॥। ६५ ।। न तेन भ दृष्टस्तत्र संयमः । गंभीरं शुषिरं चैव सर्वेन्द्रिय समाहितः ॥६६ निश्रेण फलकं पीठं, उत्त्म आरोहेत् । मञ्चं कीलं च प्रासादं, श्रमणार्थं वा दायकः ॥ ६७ ॥ आरोहन्ती प्रपत् हस्तं पादं वा लूषयेत् । पृथिवी जीवान् हिंस्यात् याँश्च तन्निश्रितान् 'जगा' ॥ ६८ ॥ एतान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः । तस्मान्मालतां भिक्षां, प्रतिगृह्णन्ति संयताः ॥६६॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक ६३-६६ १६५ ६३-६४ -- इसी प्रकार ( चूल्हे में ) ईंधन डालकर, ( चूल्हे से ) ईंधन निकाल कर, १६९ (चूल्हे को ) उज्ज्वलित कर (सुलगा कर) प्रज्वलित कर (प्रदीप्त कर ), बुझाकर, अग्नि पर रखे हुए पात्र में से आहार निकाल कर, १७० पानी का छींटा देकर, १७१ पात्र को टेढा कर, १७२ उतार कर, १७३ दे तो वह भक्त पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । ६५-६६ यदि कभी काठ, शिला या ईंट के टुकड़े ७४ संक्रमण के लिए रखे हुए हों और नेता हो तो सर्वेन्द्रियसमाहित भिक्षु उन पर होकर न जाए। इसी प्रकार यह प्रकाश रहित और पोली भूमि पर से न जाए। भगवान् ने वहाँ असंयम देखा है । ६७-६६ भ्रमण के लिए वाला तिसैनी, फलक और पीढे को ऊँचा कर, मचान, १७६ स्तम्भ और प्रासाद पर ( चढ़ भक्त पान लाए तो साधु उसे ग्रहण न करे ) । निसैनी आदि द्वारा पढ़ती हुई स्त्री गिर सकती है, हाथपैर टूट सकते हैं। उसके गिरने से नीचे दबकर पृथ्वी के तथा पृथ्वी- आश्रित अन्य जीवों की विराधना हो सकती है। अतः ऐसे महादोषों को जानकर संयमी मह १७७ मालापहृत" भिक्षा नहीं लेते। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशर्वकालिक ) ७० कंद मूल पलंब वा आमं छिन्नं व सन्निरं । तंबागं सिंगबेरं च आमगं परिवज्जए ॥ ७१ तहेव सत्तुचुणाई कोलचुणाई आवणे । सक्कुति फाणियं पूयं अन्नं वा वि तहाविहं ॥ ७२ विक्कायमाणं पस रएण परिका सिवं । पटियाइवले दंतियं न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७३ बहु-अद्वियं पुग्गलं अणिमिसं वा बहु-कंट अत्थियं तदुयं तिदुषं बिल्लं उच्छुखंड व सिवल ॥ ७४- अप्पे सिया भोवणजाए बहु-- धम्मिए देतियं पडियाडवले न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७५ तदुच्चावयं पाणं वारपोयणं । चाउलोदगं 9-8 अनुवा संसेइमं अहणाधोवं विवज्जए ॥ ७६ जं जाणेज्ज चिराधोयं मईए दंसणेण वा । परिपुऊिण सोच्या वा जं च निस्संकियं भवे ॥ હ कन्दं मूलं प्रलम्बं वा, आमं छिन्नं वा 'सन्निरम्' : तुम्बकं श्रृङ्गबेञ्च, आमकं परिवर्जयेत् ॥७०॥ तथैव सक्तु चूर्णानि कोल-चूर्णानि आपणे । फाणितं पूर्व अन्यद्वाऽपि तथाविधम् ॥ ७१ ॥ वर्त रजसा परिस्पृष्टम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।७२।। बह्वस्थिकं पुद्गलं, अनिमिषंष्टकम् । अस्थिकं तिन्दुकं बिल्वं, इण्ड वा शिम्बिम् ।।७३।। अयं स्वाद भोजन-जातं, बहु - उज्झित-धर्मकम् । ददत प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ७४ ॥ सर्वोच्चावचं पानं, अथवा वार धावनम् । संस्वेदजं (संसेकजं ) तण्डुलोदकं, अधुना धौतं विवर्जयेत् ॥ ७५ ॥ यज्जानीयाचिचराद्धौतं, मत्या दर्शनेन वा । प्रतिपृच्छ्य श्रुत्वा वा यच्चनि भवेत् ॥७६॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) श्लोक ७०-७६ ७० - मुनि प्रपक्त्र कंद, मूल, फल, हुआ पत्ती का शाक, १७८ घीया १७६ और अदरक न ले । छिला ७१-७२ -- इसी प्रकार सत्तू, 5" बेर का पूर्ण पड़ी गीला-गुड़ (राव), पुआ, इस तरह की दूसरी वस्तुएँ भी जो बेचने के लिए दुकान में रखी हों, परन्तु न बिकी हों, १८३ रज से ४ स्पृष्ट ( लिप्त ) हो गई हों तो मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे इस प्रकार की वस्तुएं मैं नहीं ले सकता । १८१ १८८ ७३-७४- बहुत अस्थि वाले पुद्गल, बहुत कांटों वाले अनिमिष, १८५ आस्थिक, १८६ और वे के फल, गण्डेरी और फली जिनमें खाने का भाग थोड़ा हो और डालना अधिक पड़े – देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे - इस प्रकार के फल आदि मैं नहीं ले सकता । ७५ ७७ - इसी प्रकार उच्चावच और बुरा पानी १६० या गुड़ के घड़े का घोवन, १६१ आटे का घोवन, १६२ चावल का घोवन, जो अधुनाधौत ( तत्काल का घोवन) हो, १६३ उसे मुनि न ले । अपनी मति १६४ या दर्शन से, पूछकर या सुनकर जान ले – 'यह धोवन चिरकाल: का है' और निःशंकित हो जाए तो उसे जीव Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डवणा ) ७७- अजीवं परिणयं पडिगाहेज अह संकियं आसाइत्ताण ७८ घोवमासायणट्टाए हत्थगम्मि दलाहि मे । मा मे प्रच्चंबिलं पूइं नालं तहं वित्तिए । ८१ एतमवक्कमिता अचित्तं जयं परिटुप्प ७६- तं च अच्चंबिलं पूइं नालं तहं विणित्तए । देतियं पडियाइक्ले न मे कम्पइ तारिसं ॥ नच्चा संजए । ८० - तं च होज्ज अकामेणं विमणेण पच्छियं । तं अप्पणा न पिबे नो वि अन्नस्स दावए || ८३- अणुन्नवे भवेज्जा रोयए ॥ पच्छिन्नम्मि हत्य तत्थ २सिया य गोवरगगओ इच्छेज्जा परिभोत्तुयं । कोद्रुगं भित्तिमूलं वा पडिलेहिताण फासूयं ॥ पडिलेहिया । परिवेज्जा पक्किमे ॥ महावी संबुडे । संपमज्जित्ता भुजेज्ज संजए ॥ EX अभी परिणतं ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयात् संयतः । अथ शंकितं भवेत्, आस्वाद्य रोचयेत् ॥७७ स्तोमास्वादनार्थ हस्तके देहि मे । मा मे अत्यम्लं पूति, नालं तृष्णां विनेतुम् ॥ ७८ ॥ तच्चाऽत्यम्लं पूति, ना तृष्णां विनेतुम् । ददर्ती प्रत्याची न मे कल्पते तादृशम् ॥७६॥ तच्च भवेदकामेन, मनसा प्रतीप्सितम । तद् आत्मना न पिबेत्, नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥८०॥ एकान्तमवक्रम्य, अचित्तं प्रतिलेख्य । यतं परिस्थापयेत् परिया (ष्ठाय प्रतिफामेत् ॥८१॥ स्याच्च गोचरागतः, इच्छेत् परिभोक्तुम् । कोष्ठ भित्तिमूलं वा, प्रतिलेख्य प्रासुकम् ॥८२॥ अनुज्ञाप्य मेघावी प्रति हस्तकं संप्रय तत्र भुञ्जीत संयतः ॥८३॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ७७ ८३ रहित और परिणत जानकर संयमी मुनि ले ले यह मेरे लिए उपयोगी होगा या नहीं ऐसा सन्देह हो तो उसे चखकर लेने का निश्चय करे । संवृते । दाता से कहेने के लिए थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दो । बहुत १६५ सट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ जल लेकर मैं क्या करूँगा ?, ७८ -260 ७६ यदि वह जल बहुत खट्टा, दुर्गन्धयुक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ हो तो देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे इस प्रकार का जल मैं नहीं ले सकता । ८०-८१ - यदि वह पानी अनिच्छा या असावधानी से लिया गया हो तो उसे न स्वयं पीए और न दूसरे साधुओं को दे 1 परन्तु एकान्त में जा अत्ति भूमि को देख यतापूर्वक उसे परिस्थापित करे। परिस्थापित करने के पश्चात् स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे १६६ | ८२-८३ – गोचरान के लिए गया हुआ मुनि कदाचित् आहार करना चाहे तो प्रामुक कोष्ठक या भित्ति को देख कर उसके स्वामी की अनुज्ञा लेकर २०२ छाये हुए एवं .२०१ संवृत स्थल में का प्रमार्जन कर करे । बैठे, हस्तक से२०४ शरीर मेधावी संयति वहाँ भोजन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ८४-तत्थ से भंजमाणस्स अट्टियं कंटओ सिया । तण-कटू-सक्करं वा वि अन्नं वा वि तहाविहं ॥ तत्र तस्य भुजानस्य, अस्थिक कण्टकः स्यात् । तृण-काष्ठ-शर्करा वाऽपि, अन्यद्वाऽपि तथाविधम् ॥४॥ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८४-६० ८४-८६-वहां भोजन करते हुए मनि के आहार में गुठली, काँटा,२०५ तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु निकले तो उसे उठाकर न फेंके, मुंह से न थूके, किन्तु हाथ में लेकर एकान्त चला जाए । एकान्त में जा अचित्त भूमि को देख, यतना-पूर्वक उसे परिस्थापित करे। परिस्थापित करने के पश्चात् स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे । ८५-तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे आसएण न छड्डुए। हत्थेण तं गहेऊणं एगंतमवक्कमे तद् उक्षिप्य न निक्षिपेत्, आस्यकेन न छर्दयेत् । हस्तेन तद् गृहीत्वा, एकान्तमवक्रामेत् ॥८॥ ८६-एगंतमवक्कमित्ता अचित्तं पडिलेहिया । जयं परिट्ठवेज्जा परिटुप्प एकान्तमवक्रम्य, अचित्तं प्रतिलेख्य। यतं परिस्था(ष्ठा)पयेत्, परिस्था(ष्ठा)प्य प्रतिक्रामेत् ॥८६॥ ८७-२०६सिया य भिक्खू इच्छेज्जा सेज्जमागम भोत्तयं । सपिंडपायमागम्म उंडुयं पडिलेहिया ॥ स्याच्च भिक्षुरिच्छेत्, शय्यामागम्य भोक्तुम् । सपिण्डपातमागम्य, 'उडुयं' प्रतिलेख्य ॥७॥ ८७-८८-कदाचित्२०७ भिक्षु शय्या (उपाश्रय) में आकर भोजन करना चाहे तो भिक्षा सहित वहाँ आकर स्थान की प्रतिलेखना करे। उसके पश्चात् विनयपूर्वक२०८ उपाश्रय में प्रवेश कर गुरु के समीप उपस्थित हो, 'इर्यापथिकी' सूत्र को पढ़कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे। ८८-विणएण पविसित्ता। सगासे गुरुणो मुणी इरियावहियमायाय आगओ य पडिक्कमे ॥ विनयेन प्रविश्य, सकाशे गुरोर्मुनिः। ऐपिथिकोमादाय, आगतश्च प्रतिक्रामेत् ॥८॥ नीसेसं जहक्कम । ८९-आभोएताण अइयारं गमणागमणे भत्तपाणे आभोग्य निश्शेषम्, अतिचारं यथाक्रमम् । गमनागमने चैव, भक्त-पाने च संयतः ॥८६॥ चेव ८६-६०-आने-जाने में और भक्त-पान लेने में लगे समस्त अतिचारों को यथाक्रम याद कर ऋजु-प्रज्ञ, अनुद्विग्न संयति व्याक्षेपरहित चित्त से गुरु के समीप आलोचना करे । जिस प्रकार से भिक्षा ली हो उसी प्रकार से गुरु को कहे। व संजए॥ ६०-उज्जुप्पन्नो अणुग्विग्गो ऋजुप्रज्ञः अनुद्विग्नः, अव्वविखत्तेण चेयसा।। अव्याक्षिप्तेन चेतसा। आलोए गुरुसगासे आलोचयेत् गुरुसकाशे, जं जहा गहियं भवे ॥ यद् यथा गृहीतं भवेत् ॥६॥ Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा (पिण्डषणा) १६३ ६१-न सम्ममालोइयं होज्जा पुदिव पच्छा व जं कडं। पुणो पडिक्कमे तस्स वोसट्टो चितए इमं ॥ न सम्यगालोचितं भवेत् पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतम्। पुनः प्रतिक्रामेत्तस्य, व्युत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् ॥११॥ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६१-६७ ___६१-सम्यक् प्रकार से आलोचना न हुई हो अथवा पहले-पीछे की हो (आलोचना का क्रम-भंग हुआ हो ) उसका फिर प्रतिक्रमण करे, शरीर को स्थिर बना यह चिन्तन करे ६२-अहो२०९ जिणेहिं असावज्जा वित्ती साहण देसिया। मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥ अहो ! जिनः असावद्या, वृत्तिः साधुभ्यो देशिता। मोक्षसाधनहेतोः, साधुदेहस्य धारणाय ॥१२॥ ६२-कितना आश्चर्य है-भगवान् ने साधुओं के मोक्ष-साधना के हेतु-भूत संयमी-शरीर की धारणा के लिए निरवद्यवृत्ति का उपदेश किया है। १३-नमोक्कारेण पारेत्ता नमस्कारेण पारयित्वा, करेता जिणसंथवं । कृत्वा जिनसंस्तवम् । सज्झायं पट्टवेत्ताणं स्वाध्यायं प्रस्थाप्य, वीसमेज्ज खणं मुणी ॥ विश्राम्येत् क्षणं मुनिः ॥१३॥ ६३-इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार मन्त्र के द्वारा पूर्ण कर जिनसंस्तव (तीर्थङ्कर-स्तुति) करे, फिर स्वाध्याय की प्रस्थापना (प्रारम्भ) करे, फिर क्षण-भर विश्राम ले२१ । १४-वीसमंतो इमं चिते विश्राम्यन् इमं चिन्तयेत्, हियमट्ठ लाभमट्ठिओ११ ।। हितमर्थ लाभार्थिकः, जइ मे अणुग्गहं कुज्जा यदि मेऽनुग्रहं कुर्यः, साह होज्जामि तारिओ॥ साधवो भवामि तारितः ॥१४॥ ६४–विश्राम करता हुआ लाभार्थी (मोक्षार्थी) मुनि इस हितकर अर्थ का चिन्तन करे–यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं निहाल हो जाऊँ---मानूं कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया । १५-साहवो तो चियत्तेणं निमंतेज्ज जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छेज्जा तेहिं सद्धि तु भुजए॥ साधुस्तंतः 'चियत्तेण', निमन्त्रयेद् यथाक्रमम् । यदि तत्र केचित् इच्छेयुः, तैः सार्धं तु भुञ्जीत ॥६५॥ १५-वह प्रेमपूर्वक साधुओं को यथाक्रम निमन्त्रण दे । उन निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे। ६६-अह कोइ न इच्छेज्जा तओ भुजेज्ज एक्कओ। आलोए भायणे साहू जयं अपरिसाड्यं१३ ॥ अथ कोपि नेच्छेत्, ततः भुजीत एककः । आलोके भाजने साधुः, यतमपरिशाटयन् ॥६६॥ १६–यदि कोई साधु न चाहे तो अकेला ही खुले पात्र में २१२ यतना पूर्वक नीचे नहीं डालता हुआ भोजन करे। ६७-तित्तगं व कडुयं व कसायं अंबिलं व महुरं लवणं वा।। एय लद्धमन्न-पउत्तं महुघयं व भुंजेज्ज संजए॥ तिक्तकं वा कटुकं वा कषायं, अम्लं वा मधुरं लवणं वा। एतल्लब्धमन्यार्थप्रयुक्तं, मधुघतमिव भुञ्जीत संयतः ॥१७॥ ९७-गृहस्थ के लिए बना हुआ २१४तीता (तिक्त) २१५ या कडुवा,२१६ कसैला२१७ या खट्टा२१८, मीठा२१६ या नमकीन२२० जो भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमी मुनि मधुघृत की भांति खाए। Jain Education Intemational ducation Intermational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १६४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६८-१०० ९८-अरसं विरसं वा वि अरसं विरसं वाऽपि, ६८-६६–मुधाजीवी२२२ मुनि अरस२२३ सूइयं वा असूइयं । सूपितं (प्यं) वा असूपितम् (प्यम्)। या विरस,२२४ व्यंजन सहित या व्यंजन उल्लं वा जइ वा सुक्कं आर्द्र वा यदि वा शुष्क, रहित,२२५ आई२२६ या शुष्क,२२७ मन्थु-कुम्मास-भोयणं ॥ मन्थु-कुल्माष-भोजनम् ॥ ६ ॥ मन्थु २२८ और कुल्माष२२६ का जो भोजन विधिपूर्वक प्राप्त हो उसकी निन्दा न करे । 86-उप्पण्णं नाइहोलेज्जा उत्पन्नं नातिहीलयेत्, निर्दोष आहार अल्प या अरस होते हुए भी अप्पं पि बहु फासुयं । अल्पमपि बहु प्रासुकम् । बहुत या सरस होता है २३० । इसलिए उस मुहालद्धं मुहाजीवी मुधालब्धं मुधाजीवी, मुधालब्ध३१ और दोष-वर्जित आहार को समभाव से खा ले २३२ । भुंजेज्जा दोसवज्जियं ॥ भुञ्जीत दोषवजितम् ॥ ६६ ॥ ०-दुल्लहा उ मुहादाई दुर्लभास्तु मुधादायिनः, १०० - मुधादायी२33 दुर्लभ है और मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः । मुधाजीवी भी दुर्लभ है। मुधादायी और महादाई मुधाजीवी दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं। मुहाजीवी भुधादायिनो मुधाजीविनः, ऐसा मैं कहता हूँ। दो वि गच्छंति सोग्गइं॥ द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥१००॥ ॥ति बेमि ॥ इति ब्रवीमि। पिण्डषणायां प्रथमः उद्दश: समाप्तः। Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ५ (प्रथम उद्देशक) श्लोक १ : १. श्लोक १: प्रथम श्लोक में भिक्षु को यथासमय मिक्षा करने की आज्ञा दी गई है । भिक्षा-काल के उपस्थित होने के समय भिक्षु की वृत्ति कैसी रहे, इसका भी मार्मिक उल्लेख इस श्लोक में है। उसकी वृत्ति 'संभ्रम' और ' मूर्छा' से रहित होनी चाहिए । इन शब्दों की भावना का स्पष्टीकरण यथास्थान टिप्पणियों में आया है। २. भिक्षा का काल प्राप्त होने पर ( संपत्ते भिक्खकालम्मिक ) : जितना महत्त्व कार्य का होता है, उतना ही महत्त्व उसकी विधि का होता है । बिना विधि से किया हुआ कार्य फल-दायक नहीं होता। काल का प्रश्न भी कार्य-विधि से जुड़ा हुआ है। जो कोई भी कार्य किया जाये वह क्यों किया जाये ? कब किया जाये? कैसे किया जाये ? ये शिष्य के प्रश्न रहते हैं। आचार्य इनका समाधान देते हैं-अमुक कार्य इसलिए किया जाये, इस समय में किया जाये और इस प्रकार किया जाये । यह उद्देश्य, काल और विधि का ज्ञान कार्य को पूर्ण बनाता है। इस श्लोक में भिक्षा-काल का नामोल्लेख मात्र है। काल-प्राप्त और अकाल भिक्षा का विधि-निषेध इसी अध्ययन के दूसरे उद्देशक के चौथे, पांचवें और छ8 श्लोक में मिलता है। वहाँ भिक्षा-काल में भिक्षा करने का विधान और असमय में भिक्षा के लिए जाने से उत्पन्न होने वाले दोषों का वर्णन किया गया है। प्रश्न यह है कि भिक्षा का काल कौन-सा है ? सामाचारी अध्ययन में बतलाया गया है कि मुनि पहले प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षा के लिए जाय और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय करे। उत्सर्ग-विधि से भिक्षा का काल तीसरा प्रहर ही माना जाता रहा है । “एगभत्तं च भोयणं" के अनुसार भी भिक्षा का काल यही प्रमाणित होता है; किन्तु यह काल-विभाग सामयिक प्रतीत होता है । बौद्ध-ग्रन्थों में भी भिक्षु को एकभक्त-भोजी कहा है तथा उनमें भी यथाकाल भिक्षा प्राप्त करने का विधान है। प्राचीन काल में भोजन का समय प्रायः मध्याह्नोत्तर था। संभवतः इसीलिए इस व्यवस्था का निर्माण हुआ हो अथवा यह व्यवस्था विशेष अभिग्रह (प्रतिज्ञा) रखनेवाले मुनियों के लिए हुई हो। कैसे ही हो, पर एक बार भोजन करने वालों के लिए यह उपयुक्त समय है। इस औचित्य से इसे भिक्षा का सार्वत्रिक उपयुक्त समय नहीं माना जा सकता । सामान्यतः भिक्षा का काल वही है, जिस प्रदेश में जो समय लोगों के भोजन करने का हो। इसके अनुसार रसोई बनने से पहले या उसके उठने के बाद भिक्षा के लिए जाना भिक्षा का अकाल है और रसोई बनने के समय भिक्षा के लिए जाना भिक्षा का काल है। १- (क) अ० चू० : भिक्खाणं समूहो 'भिक्षादिभ्योऽण' [पाणि० ४.२.३८] इति भैक्षम्, भेक्खस्स कालो तम्मि संपत्ते । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : भिक्खाए कालो भिक्खाकालो तंमि भिक्खकाले संपत्ते । (ग) हा० टी० ५० १६३ : 'संप्राप्ते' शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते 'भिक्षाकाले' भिक्षासमये, अनेनासंप्राप्ते भक्तपानंषणाप्रतिषेधमाह, अलाभाज्ञाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति । २- उत्त० २६.१२ : पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई। तईयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥ ३- उत्त० ३०.२१ बृ० वृ० : उत्सर्गतो हि तृतीयपौरुष्यामेव भिक्षाटनमनुज्ञातम् । ४-दश० ६.२२ । ५-(क) वि० पि० : महावग्ग पालि ५.१२ । (ख) The Book of the Gradual Sayings Vol. IV. VIII. V. 41 page 171. Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १६६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १ टि० ३-५ ३. असंभ्रांत ( असंभंतो ख ): भिक्षा-काल में बहुत से भिक्षाचर भिक्षा के लिए जाते हैं। मन में ऐसा भाव हो सकता है कि उनके भिक्षा लेने के बाद मुझे क्या मिलेगा ? मन की ऐसी दशा से गवेषणा के लिए जाने में शीघ्रता करना संभ्रान्त वृत्ति है। ऐसी संभ्रान्त दशा में भिक्षु त्वरा--शीघ्रता करने लगता है। त्वरा से प्रतिलेखन में प्रमाद होता है। ईर्या समिति का शोधन नहीं होता। उचित उपयोग नहीं रह पाता। ऐसे अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। अतः आवश्यक है कि भिक्षा-काल के समय भिक्षु असंभ्रान्त रहे अर्थात् अनाकुल भाव से यथा उपयोग भिक्षा की गवेषणा के लिए जाए। ४. अमूच्छित ( अमुच्छिओख): भिक्षा के समय संयम-यात्रा के लिए भिक्षा की गवेषणा करना विहित अनुष्ठान है। आहार की गवेषणा में प्रवृत्त होते समय भिक्षु की वृत्ति मूरिहित होनी चाहिए । मूर्छा का अर्थ है-मोह, कालसा या आसक्ति । जो आहार में गृद्धि या आसक्ति रखता है, वह मूच्छित होता है। जिसे भोजन में मूर्छा होती है वही संभ्रान्त बनता है। यथा-लब्ध भिक्षा में संतुष्ट रहने वाला संभ्रान्त नहीं बनता । गवेषणा में प्रवृत्त होने के समय भिक्षु की चित्त-वृत्ति मूर्छारहित हो । वह अच्छे भोजन की लालसा या भावना से गवेषणा में प्रवृत्त न हो । जो ऐसी भावना से गवेषणा करता है उसकी भिक्षा-चर्या निर्दोष नहीं होती। भिक्षा के लिए जाते समय विविध प्रकार के शब्द सुनने को मिलते हैं और रूप देखने को मिलते हैं। उनकी कामना से भिक्षु आहार की गवेषणा में प्रवृत्त न हो। वह अमूच्छित रहते हुए अर्थात् आहार तथा शब्दादि में मूर्छा नहीं रखते हुए केवल आहार-प्राप्ति के अभिप्राय से गवेषणा करे, यह उपदेश है। अमूर्छाभाव को समझने के लिए एक दृष्टान्त इस प्रकार मिलता है : एक युवा वणिक्-स्त्री अलंकृत, विभूषित हो, सुन्दर वस्त्र धारण कर गोवत्स को आहार देती है । वह ( गोवत्स ) उसके हाथ से उस आहार को ग्रहण करता हुआ भी उस स्त्री के रंग, रूप, आभरणादि के शब्द, गंध और स्पर्श में मूच्छित नहीं होता है। ठीक इसी प्रकार साधु विषयादि शब्दों में अमूच्छित रहता हुआ आहारादि की गवेषणा में प्रवृत्त हो । ५. भक्त-पान (भत्तपाणं घ ) : ___जो खाया जाता है वह 'भक्त' और जो पीया जाता है वह 'पान' कहलाता है। 'भक्त' शब्द का प्रयोग छ8 अध्ययन के २२ वें श्लोक में भी हुआ है। वहाँ इसका अर्थ 'बार' है। यहाँ इसका अर्थ तण्डुल आदि आहार है। पूर्व-काल में बिहार १-(क) अ० चू० पृ०६६ : असंभंतो 'मा वेला फिट्टिहिति, विलुप्पिहिति वा भिक्खयरेहिं भेक्खं एतेण अत्येण असंभंतो। (ख) जि०चू०पृ०१६६ : असंभंतो नाम सव्वे भिक्खायरा पविट्ठा तेहिं उञ्छिए भिक्खं न लभिस्सामित्तिकाउंमा तूरेज्जा, तूरमाणो ___य पडिलेहणापमादं करेज्जा, रियं वा न सोधेज्जा, उवयोगस्स ण ठाएज्जा, एवमादी दोसा भवन्ति, तम्हा असंभन्तेण पडिलेहणं काऊण उवयोगस्स ठायित्ता अतुरिए भिक्खाए गंतव्वं । (ग) हा० टी०प० १६३ : 'असंभ्रान्तः' अनाकुलो यथावदुपयोगादि कृत्वा, नान्यथेत्यर्थः । २--(क) अ० चू० पृ० ६६ : अमुच्छितो अमूढो भत्तगेहीए सद्दातिसु य । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : 'मूर्छा मोहसमुच्छाययोः'"न मूच्छितः अमूच्छितः, अमूच्छितो नाम समुयाणे मुच्छं अकुब्वमाणो सेसेसु य सद्दाइविसएस। (ग) हा० टी०प० १६३ : 'अमूच्छितः' पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमितिकृत्वा, न तु पिण्डावावेवासक्त इति । ३-(क) जि० चू० पृ० १६७-६८ : दिढतो वच्छओ वाणिगिणीए अलंकियविभूसियाए चारुवेसाए वि गोभत्तादी आहारं वलयंतीति तमि गोभत्तादिम्मि उवउत्तो ण ताए इत्थियाए रूवेण वा तेसु वा आभरणसद्देसु ण वा गंधफासेस मुच्छिओ, एवं साधुणावि विसएसु असज्जमाणेण..... "भिक्खाहिडियव्यत्ति । ४-अ० चू० पृ० ६६ : भत्त-पाणं भजति खुहिया तमिति भत्तं, पीयत इति पाणं, भत्तपाणमिति समासो। ५-एगभत्तं च भोयणं । ६-हा० टी० ५० १६३ : 'भक्तपानं' यतियोग्यमोदनारनालादि । Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) १६७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २ टि० ६-७ आदि जनपदों में चावल का भोजन प्रधान रहा है। इसलिए 'भक्त' शब्द का प्रधान अर्थ चावल आदि खाद्य बन गया। कौटिल्य अर्थशास्त्र की व्याख्या में 'भक्त' का अर्थ तण्ड्रल आदि किया है। श्लोक २: ६. श्लोक २: आहार की गवेषणा के लिए जो पहली क्रिया करनी होती है वह है चलना। गवेषणा के लिए स्थान से बाहर निकल कर साधु किस प्रकार गमन करे और कैसे स्थानों का वर्जन करता हुआ चले, उसका वर्णन इस इलोक से १५ वें श्लोक तक में आया है। ७. गोचरान के लिए निकला हुआ ( गोयरग्गगो ख): भिक्षा-चर्या बारह प्रकार के तपों में से तीसरा तप है। 'गोचराम' उसका एक प्रकार है। उसके अनेक भेद होते हैं। 'गोचर' शब्द का अर्थ है गाय की तरह चरना-भिक्षाटन करना। गाय अच्छी-बुरी घास का भेद किए बिना एक ओर से दूसरी ओर चरती चली जाती है। वैसे ही उत्तम, मध्यम और अधम कुल का भेद न करते हुए तथा प्रिय-अप्रिय आहार में राग-द्वेष न करते हुए जो सामुदानिक भिक्षाटन किया जाता है वह गोचर कहलाता है । पूर्णिकारद्वय लिखते हैं : गोचर का अर्थ है भ्रमण। जिस प्रकार गाय शब्दादि विषयों में गृद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण करती है उसी प्रकार साधु भी विषयों में आसक्त न होते हुए सामुदानिक रूप से उद्गम, उत्पाद और एषणा के दोषों से रहित भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं । यही साधु का गोचरान है। गाय के चरने में शुद्धाशुद्ध का विवेक नहीं होता। मुनि सदोष आहार को वर्ज निर्दोष आहार लेते हैं, इसलिए उनकी भिक्षा-चर्या साधारण गोचर्या से आगेब ढ़ी हुई ---विशेषता वाली होती है । इस विशेषता की ओर संकेत करने के लिए ही गोचर के बाद 'अग्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। अथवा गोचर तो चरकादि अन्य परिव्राजक भी करते हैं किन्तु आधाकर्मादि आहार ग्रहण न करने से ही उसमें विशेषता आती है । श्रमण निर्ग्रन्थ की चर्या ऐसी होती है अत: यहाँ अग्र-प्रधान शब्द का प्रयोग है। १-कौटि० अर्थ० अ० १० प्रक० १४८-१४६ : भक्तोपकरणं-( व्याख्या ) भक्तं तण्डुलादि उपकरणं वस्त्रादि च । २-उत्त० ३०.८ : अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलोणया य बज्झो तवो होइ॥ ३-उत्त० ३०.२५ : अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ।। ४- उत्त० ३०.१६ : पेडा य अद्धपेडा गोमुत्तिपयंगवीहिया चेज। सम्बुक्कावट्टाययगन्तुंपच्चागया छट्ठा॥ ५-हा० टी०प०१८ : गोचरः सामयिकत्वाद् गोरिव चरणं गोचरोऽन्यथा गोचारः.... " गौश्चरत्येवमविशेषेण साधुनाऽप्यटितव्यं, न विभवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वणिग्वत्सकदृष्टान्तेन वेति । ६-(क) अ० चू० पृ०६६ : गोरिव चरणं गोवरो, तहा सद्दादिसु अमुच्छितो जहा सो वच्छगो। (ख) जि० चू० पृ० १६७-६८ : गोयरो नाम भ्रमणं..... जहा गावीओ सदादिसु विसएसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति, विट्ठतो वच्छओ"एवं साधुणावि विसएसु असज्जमाणेण समुदाणे उग्गमउप्पायणासुद्ध निवेसियबुद्धिणा अरत्तदुट्टण भिक्खा हिंडियव्वत्ति। (ग) हा० टी०प० १६३ : गोरिव चरणं गोचरः-उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् । ७-(क) अ० चू०पू० ६६ : गोयरं अग्गं गोतरस्स वा अग्गं गतो, अग्गं पहाणं । कहं पहाणं? एसणादिगुणजुतं, ण उ चरगादीण अपरिक्खिते सणाणं । (ख) जि० चू० पृ० १६८ : गोयरो चेव अग्गं अगं तंमि गओ गोयरग्गगओ, अग्गं नाम पहाणं भण्णइ, सो य गोयरो साहणमेव पहाणो भवति, न उ चरगाईणं आहाकम्मदेसियाइ जगाणंति । (ग) हा० टी०प० १६३ : अग्रः-प्रधानोऽभ्याहृताधाकर्माविपरित्यागेन । Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १९८ अध्ययन ५ (प्र० उ० ) : श्लोक २ टि० ८-१२ ८. वह ( से क ): हरिभद्र कहते हैं 'से' अर्थात् जो असंभ्रांत और अमूछित है वह मुनि' । जिनदास लिखते हैं 'से' शब्द संयत-विरत-प्रतिहतप्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु का संकेतक है । यह अर्थ अधिक संगत है क्योंकि ऐसे मुनि की भिक्षा-चर्या की विधि का ही इस अध्ययन में वर्णन है । अगस्त्यसिंह के अनुसार 'से' शब्द वचनोपन्यास है। ६. मुनि ( मुणी ख ) : मुनि और ज्ञानी एकार्थक शब्द है। जिनदास के अनुसार मुनि चार प्रकार के होते हैं-नाम-मुनि, स्थापना-मुनि, द्रव्य-मुनि और भाव-मुनि । उदाहरण के लिए जो रत्न आदि की परीक्षा कर सकता है वह द्रव्य-मुनि है। भाव-मुनि वह है जो संसार के स्वभाव - असली स्वरूप को जानता हो। इस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि साधु और श्रावक दोनों भाव-मुनि होते हैं। इस प्रकरण में भाव-साधु का ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसी की गोचर्या का यहाँ वर्णन है । १०. धीमे-धीमे ( मंदंग ) : असंभ्रांत शब्द मानसिक अवस्था का द्योतक है और 'मन्द' शब्द चलने की त्रिया (चरे) का विशेषण । साधु जैसे चित्त से असंभ्रांत हो- क्रिया करने में त्वरा न करे वैसे ही गति में मन्द हो धीमे-धीमे चले। जिनदास लिखते हैं -मन्द चार तरह के होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-मन्द । उनमें द्रव्य-मन्द उसे कहते है जो शरीर से प्रतनु होता हैं । भाव-मन्द उसे कहते हैं जो अल्पबुद्धि हो । यहाँ तो गति-मन्द का अधिकार है। ११. अनुद्विग्न ( अणुग्विग्गो घ): अनुद्विग्न का अर्थ है--परीषह से न डरने वाला, प्रशान्त । तात्पर्य यह है—भिक्षा न मिलने या मनोनुकूल भिक्षा न मिलने के विचार से व्याकुल न होता हुआ तथा तिरस्कार आदि परीषहों की आशंका से क्षुब्ध न होता हुआ गमन करे । १२. अव्याक्षिप्त चित्त से ( अव्वक्खित्तेण चेयसा घ): जिनदास के अनुसार इसका अर्थ है---आर्तध्यान से रहित अंत:करण से, पैर उठाने में उपयोग युक्त होकर । हरिभद्र के अनुसार अव्याक्षिप्त चित्त का अर्थ है वत्स और वणिक् पत्नी के दृष्टान्त के न्याय से शब्दादि में अंत:करण को नियोजित न करते हुए, एषणा समिति से युक्त होकर। १–हा० टी०प० १६३ : 'से' इत्यसंभ्रांतोऽमूच्छितः । २—जि० चू० पृ० १६७ : 'से' त्ति निद्देसे, कि निद्दिसति ?, जो सो संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो भिक्खू तस्स निद्देसोत्ति। ३-अ० चू० पृ० ६६ : से इति वयणोवण्णासे । ४ – (क) अ० चू० पृ० ६६ : मुणी विण्णाणसंपण्णो, दव्वे हिरण्णादिमुणतो, भावमुणी विदितसंसारसब्भावो साधू । (ख) जि० चू० पृ० १६८ : मुणोणाम णाणित्ति वा मुणित्ति वा एगट्ठा, सो य मुणी चउव्विहो भणिओ,... - दव्वमुणी जहा रयणपरिक्खगा एवमादि, भावमुणो जहा संसारसहावजाणगा साहुणो सावगा वा, एत्य साहूहिं अधिगारो। (ग) हा० टी० ५० १६३ : मुनिः - भावसाधुः ।। ५ (क) अ० चू०पू०६६ : मंद असिग्घं । असंभंत-मंदविसेसो...असंभंतो चेयसा, मंदो क्रियया। (ख) हा० टी० ५० १६३ : 'मंद' शनैः शनैर्न द्र तमित्यर्थः । ६ जि० चू० पृ० १६८ : मंदो चव्विहो .... 'दव्वमंदो जो तणुयसरीरो एवमाइ. भावमंदो जस्स बुद्धी अप्पा एवमादी .....इइ पुण गतिमदेण अहिगारो। ७ - (क) अ० चूपृ० ६६ : अणुविग्गो अभीतो गोयरगताण परीसहोवसग्गाण। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : उब्विग्गो नाम भीतो, न उब्विग्गो अणुविग्गो, परीसहाणं अभीउत्ति वुत्तं भवति । (ग) हा० टी० ५० १६३ : 'अनुद्विग्नः' प्रशान्तः परीषहादिभ्योऽबिभ्यत् । ८-जि० चू० पृ० १६८ : अव्वक्खित्तेण चेतसा नाम णो अट्टज्माणोवगओ उक्खेवादिणुवउत्तो । ६ हा० टी० ५० १६३ : 'अव्याक्षिप्तेन चेतसा' वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन 'चेतसा' अन्तःकरणेन एषणोपयुक्तेन । Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा) १६६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३ टि० १३-१५ भावार्थ यह है कि चलते समय मुनि चित्त में आर्तध्यान न रखे । उसकी चित्तवृत्ति शब्दादि विषयों में आसक्त न हो तथा पैर आदि उठाते समय वह पूरा उपयोग रखता हुआ चले । गृहस्थों के यहाँ साधु को प्रिय शब्द, रूप, रस और गन्ध का संयोग मिलता है। ऐसे संयोग की कामना अयवा आसक्ति से साधू गमन न करे। वह केवल आहार गवेषणा की भावना से गमन करे । इस सम्बन्ध में टीकाकार ने वत्स और वणिक् वधू के दृष्टान्त की ओर संकेत किया है । जिनदास ने गोचराग्र शब्द की व्याख्या में इस दृष्टान्त का उपयोग किया है । हमने इसका उपयोग प्रथम श्लोक में आये हुए 'अमुच्छिओ' शब्द की व्याख्या में किया है। पूरा दृष्टान्त इस प्रकार मिलता है : “एक वणिक् के घर एक छोटा बछड़ा था। वह सब को बहुत प्रिय था। घर के सारे लोग उसकी बहुत सार-सम्हाल करते थे। एक दिन बणिक के घर जीमनवार हुआ। सारे लोग उस में लग गये । बछड़े को न घास डाली गई और न पानी पिलाया गया । दुपहरी हो गई। वह भूख और प्यास के मारे रंभाने लगा। कुल-वधु ने उसको सुना। वह घास और पानी लेकर गई । घास और पानी को देख बछड़े की दृष्टि उन पर टिक गई । उसने कुल-वधू के बनाव और शृङ्गार की ओर ताका तक नहीं। उसके मन में विचार तक नहीं आया कि वह उसके रूप-रंग और शृङ्गार को देखे ।" दृष्टान्त का सार यह है कि बछड़े की तरह मुनि भिक्षाटन की भावना से अटन करे। रूप आदि को देखने की भावना से चंचलचित्त हो गमन न करे। शलोक३: १३. श्लोक ३: द्वितीय श्लोक में भिक्षा के लिए जाते समय अव्याक्षिप्त चित्त से और मंद गति से चलने की विधि कही है। इस श्लोक में भिक्षु किस प्रकार और कहाँ दृष्टि रख कर चले इसका विधान है। १४. आगे ( पुरओ + ): पूरत:- अग्रतः-आगे के मार्ग को । चौथे चरण में 'य'--'च' शब्द आया है । जिनदास का कहना है कि 'च' का अर्थ है --कुत्ते आदि से रक्षा की दृष्टि से दोनों पाव और पीछे भी उपयोग रखना चाहिए। १५. युग-प्रमाण भूमि को ( जुगमायाएक महिल ) : ईर्या-समिति की यतना के चार प्रकार हैं । यहाँ द्रव्य और क्षेत्र की यतना का उल्लेख किया गया है । जीव-जन्तुओं को देखकर चलना यह द्रव्य-यतना है । युग-मात्र भूमि को देखकर चलना यह क्षेत्र-यतना है। जिनदास महत्तर ने युग का अर्थ 'शरीर' किया है । शान्त्याचार्य ने युग-मात्र का अर्थ चार हाथ प्रमाण किया है। युग शब्द का लौकिक अर्थ है.---.गाड़ी का जुआ । वह लगभग साढ़े तीन हाथ का होता है। मनुष्य का शरीर भी अपने हाथ से इसी प्रमाण का होता है; इसलिए 'युग' का सामयिक अर्थ शरीर किया है। यहाँ युग शब्द का प्रयोग दो अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए है । सूत्रकार इसके द्वारा ईर्या-समिति के क्षेत्र-मान और उसके संस्थान इन दोनों की जानकारी देना चाहते हैं। युग शब्द गाड़ी से सम्बन्धित है । गाड़ी का आगे का भाग संकड़ा और पीछे का भाग चौड़ा होता है। ईर्या-समिति से चलने वाले मुनि की दृष्टि का संस्थान भी यही बनता है। १-जि० चू० पृ० १६८ : पुरओ नाम अग्गओ.......""चकारेण य सुणमादीण रक्खणट्ठा पासओवि पिठुओवि उवओगो कायक्वो २-उत्त० २४.६ : दवओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा। जायणा चउन्विहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥ ३- उत्त० २४.७ : दवओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तओ। ४–जि० चू० पृ० १६८ : जुगं सरीरं भण्णइ। ५-उत्त० २४.७ वृ० ००: युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावात क्षेत्र। ६-(क) अ० चू० पृ० ६९ : जुगमिति बलिवद्दसंदाणणं सरीरं वा तावम्मत्तं पुरतो, अंतो संकुयाए बाहि वित्थडाए दिट्ठीए, (ख) जि० चू० पृ० १६८ : तावमेत्तं पुरओ अंतो संकुडाए बाहि वित्थडाए सगडुद्धिसंठियाए दिट्ठीए। Jain Education Intemational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २०० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३ टि० १६-१८ यदि चलते समय दृष्टि को बहुत दूर डाला जाए तो सूक्ष्म शरीर वाले जीव देखे नहीं जा सकते और उसे अत्यन्त निकट रखा जाए तो सहसा पैर के नीचे आने वाले जीवों को टाला नहीं जा सकता, इसलिए शरीर-प्रमाण क्षेत्र देखकर चलने की व्यवस्था की गई है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'जुगमादाय' ऐसा पाठ-भेद माना है। उसका अर्थ है-युग को ग्रहण कर अर्थात् युग जितने क्षेत्र को लक्षित कर- भूमि को देखता हुआ चले ।। 'सव्वतो जुगमादाय' इस पाठ-भेद का निर्देश भी दोनों धर्णिकार करते हैं। इसका अर्थ है थोड़ी दूर चलकर दोनों पाश्वों में और पीछे अर्थात् चारों ओर युग-मात्र भूमि को देखना चाहिए। १६. बीज, हरियाली ( बीयहरियाई ) : अगस्त्यसिंह स्थविर की चूणि के अनुसार बीज शब्द से वनस्पति के दश प्रकारों का ग्रहण होता है। वे ये हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । 'हरित' शब्द के द्वारा बीजरह वनस्पति का निर्देश किया है । जिनदास महत्तर की भूणि के अनुसार 'हरित' शब्द वनस्पति का सूचक है। १७. प्राणी ( पाणे" ): प्राण शब्द द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों का संग्राहक है । १८. जल तथा सजीव-मिट्टी ( दगमट्टियं ) : 'दगमट्टिय' शब्द आगमों में अनेक जगह प्रयुक्त है । अखण्ड-रूप में यह भीगी हुई सजीव मिट्टी के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। आयारघूला (११२,४२) में यह शब्द आया है । वृत्तिकार शीलाङ्काचार्य ने यहाँ इसका अर्थ उदक-प्रधान मिट्टी किया है। पूर्णिकार और टीकाकार इस श्लोक तथा इसी अध्ययन के पहले उद्देशक के २६ वें श्लोक में आए हुए 'दग' और 'मट्टिया' इन दोनों शब्दों को अलग-अलग ग्रहण कर व्याख्या करते हैं । टीकाकार हरिभद्र ने अपनी आवश्यक वृत्ति में इनकी व्याख्या अखंड और १-(क) अ० चू० पृ० ६९ : 'सुहुमसरीरे दूरतो ग पेच्छति' त्ति न परतो, 'आसण्णो न तरति सहसा वट्टावेतुं' ति ण आरतो। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : दूरनिपायदिट्ठी पुण विप्पगिट्ट सुहुमसरोरं वा सत्तं न पासइ, अतिसन्निविट्ठदिठिवि सहसा दट्टण ण सक्केइ पादं पडिसाहरिडं । २-अ० चू० पृ० ६६ : अहवा "पुरतो जुगमादाय" इति चक्खुसा तावतियं परिगिज्झ पेहमाण इति । ३-(क) अ० चू० पृ० ६६ : पाढंतरं वा "सव्यतो जुगमादाय।" (ख) जि० चू० पृ० १६८ : अन्ने पढंति— 'सव्वत्तो जुगमायाए' नातिदूरं गंतूणं पासओ पिटुओ य निरिक्खियन्वं । ४--(क) अ० चू० पृ० ६६ : बीयवयणेण वा दस भेदा भणिता। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : बीयगहणेण बीयपज्जवसाणस्स दसभेवभिण्णस्स वणप्फइकायस्स गहणं कयं । ५-अ० चू० पृ०६९ : हरितग्गहणेण जे बीयरहा ते भणिता। ६-जि० चू० पृ० १६८ : हरियगहणेण सव्ववणप्फई गहिया। ७-(क) अ० चू०प०६९ : 'पाणा' बेईवियादितसा। (ख) जि० चू० पृ० १६८ : पाणग्गहणणं बेइंदियाईणं तसाणं गहणं । (ग) हा० टी० ५० १६४ : 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियादीन् । --आ० चू० १।२।४२ वृ० : उदकप्रधाना मृत्तिका उपकमृत्तिकेति । t-(क) अ० चू० पृ० ६६ : ओसादि भेदं पाणितं दगं, मट्टिया-णवगणिवेसातिपुढविक्कातो । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : दगग्गहणेण आउक्काओ सभेदो गहिओ, मट्टियागहणेणं ज्जो पुढविक्काओ अडवीओ आणिो सन्निवेसे वा गामे वा तस्स गहणं । (ग) हा० टी०प० १६४ : 'उदकम्' अप्कायं 'मृत्तिका च' पृथिवीकार्य । Jain Education Intemational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डैषणा) २०१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ४ टि० १६-२३ खण्ड-दोनों प्रकार से की है। निशीथ चूर्णिकार ने भी इसके दो विकल्प किये हैं। हरिभद्र कहते हैं कि 'च' शब्द से तेजस्काय और वायुकाय का भी ग्रहण करना चाहिए। जिनदास के अनुसार दगमट्टिका के ग्रहण से अग्नि और वायु का ग्रहण स्वयं हो जाता है । अगस्त्यसिह का अभिमत है कि गमन में अग्नि की संभावना कम है और दाह के भय से उसका वर्जन हर कोई करता ही है । वायु आकाशव्यापी है, अतः उसका सर्वथा परिहार नहीं हो सकता। प्रकारान्तर से सर्वजीवों का वर्जन करना चाहिए-यह स्वतः प्राप्त है । १६. श्लोक ४-६ : चौथे श्लोक में किस मार्ग से साधु न जाये, इसका उल्लेख है। वजित-मार्ग से जाने पर जो हानि होती है, उसका वर्णन पांचवें श्लोक में है । छठे श्लोक में पांचवें श्लोक में बताये हुए दोषों को देखकर विषम-मार्ग से जाने का पुनः निषेध किया है। यह औत्सर्गिकमार्ग है । कभी चलना पड़े तो सावधानी के साथ चलना चाहिए-यह अपवादिक-मार्ग छठे श्लोक के द्वितीय चरण में दिया हुआ है। श्लोक ४ : २०. गड्ढे ( ओवायं क ): जिनदास और हरिभद्र ने 'अवपात' का अर्थ 'खड्डा' या 'गड्डा' किया है । अगस्त्यसिंह ने नीचे गिरने को 'अवपात कहा है। २१. ऊबड़-खाबड़ भू-भाग ( विसमं क ) : अगस्त्यसिंह ने खड्डा, कूप, झिरिंड (जीर्ण कूप) आदि ऊँचे-नीचे स्थान को 'विषम' कहा है । जिनदास और हरिभद्र ने निम्नोन्नत स्थान को 'विषम' कहा है। २२. कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल ( खाणुं क ) : ऊपर उठे हुए काष्ठ विशेष को स्थाणु कहते हैं । २३. पंकिल मार्ग को ( विज्जलं ख ) : पानी सूख जाने पर जो कर्दम रहता है उसे 'विजल' कहते हैं । कर्दमयुक्त मार्ग को 'विजल' कहा जाता है। १--आ० हा० वृ० पृ० ५७३ : दगमृत्तिका चिक्खलम् अथवा दकग्रहणादप्कायः मृत्तिका ग्रहणात् पृथ्वीकायः । २-नि० चू० (७.७४) दगं पाणीयं, कोमारा-मट्टिया, अधवा उल्लिया मट्टिया। ३-हा० टी०प० १६४ : च शब्दात्तेजोबायुपरिग्रहः ।। ४-जि० चू० पु. १६६ : एगग्गहणे गहणं तज्जाईयाणमितिकाउं अगणिवाउणोवि गहिया । ५-अ० चू० पृ० १०० : गमणे अग्गिस्स मंदो संभवो, दाहभएण य परिहरिज्जति, वायुराकाशव्यापीति ण सम्वहा परिहरणमिति ____न साक्षादभिधानमिति । प्रकारवयणेण वा सव्वजीवणिकायाभिहाणं, तावमपि वज्जितो। ६- (क) जि० चू० पृ० १६६ : ओवायं नाम खड्डा, जत्थ हेठ्ठाभिमुहेहि अवयरिज्जइ । (ख) हा० टी० ५० १६४ : 'अवपात' गर्तादिरूपम् । ७-अ० चू० पृ० १०० : अहोपतणमोवातो । ८-अ० चू० पृ० १०० : खड्डा-कूव-झिरिंडाती णिण्णुण्णयं विसमं । ६-(क) जि० चू० पृ० १६६ : विसमं नाम निण्णुण्णयं । (ख) हा० टी० प० १६४ : 'विषम' निम्नोन्नतम् । १.-(क) अ० चू० पृ० १०० : णातिउच्चो उद्घट्टियदारुविसेसो खाणू । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : खाणू नाम कट्ठ उद्घाहुत्तं । (ग) हा० टी० ५० १६४ : 'स्थाणुम्' ऊर्ध्वकाष्ठम् । ११- (क) अ० चू० पृ० १०० : विगयमात्र जतो जलं तं विज्जलं (चिक्खलो)। (ख) जि० चू० १० १६६ : विगयं जलं जत्थ तं विजलं । (ग) हा० टी० ५० १६४ : विगतजलं कर्दमम् । Jain Education Intemational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २०२ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ५-६ टि० २४-२७ २४. संक्रम. के ऊपर से ( संकमेण ग ) : जल या गड्ढे को जिसके सहारे संक्रमण-पार किया जाता है-उसे 'संक्रम' कहा जाता है। संक्रम पाषाण या काष्ठ का बना होता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में जल-संक्रमण के अनेक उपाय बताए गए हैं, उनमें एक स्तम्भ-संक्रम भी है। व्याख्याकार ने स्तम्भ-संक्रम का अर्थ खम्भों के आधार पर निर्मित काष्ठ फलक आदि का पुल किया है । यहाँ संक्रम का अर्थ है जल, गड्ढे आदि को पार करने के लिए काष्ठ आदि से बांधा हुआ मार्ग। संक्रम का अर्थ विकट-मार्ग भी होता है। २५. ( विज्जमाणे परक्कमे घ ) : हरिभद्र सूरि ने 'विज्जमाणे परक्कमे' इन शब्दों को 'ओवाय' आदि समस्त मार्गों के लिए अपवादस्वरूप माना है, जब कि जिनदास ने इसका संबंध केवल 'संक्रम' के साथ ही रखा है । श्लोक ६ को देखते हुए इस अपवाद का सम्बन्ध सभी मार्गों के साथ है । अतः अर्थ भी इस बात को ध्यान में रखकर किया गया है । श्लोक ५: २६. श्लोक ५: पाँचवें श्लोक में विषम-मार्ग में चलने से उत्पन्न होने वाले दोष बतलाए गए हैं । दोष दो प्रकार के होते हैं -- शारीरिक और चारित्रिक । पहले प्रकार के दोष शरीर की और दूसरे प्रकार के दोष चारित्र की हानि करते हैं। गिरने और लड़खड़ाने से हाथ, पैर आदि टूट जाते हैं यह आत्म-विराधना है-शारीरिक हानि है। बस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है यह संयम-विराधना है—चारित्रिक हानि है । अगस्त्यसिंह के अनुसार शारीरिक दोष का विधान सूत्र में नहीं है परन्तु यह दोष वृत्ति में प्रतिभासित होता है । श्लोक ६ २७. दूसरे मार्ग के होते हुए ( सइ अन्नेण मग्गेण ग ) : ___ अन्य मार्ग हो तो विषम मार्ग से न जाया जाए । दूसरा मार्ग न होने पर साधु विषम मार्ग से भी जा सकता है, इस अपवाद की सूचना इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में स्पष्ट है। १-(क) अ० चू० पृ० १०० : पाणिय-विसमत्थाणाति संकमणं कत्तिमसंकमो। (ख) जि० चू० पृ० १६६ : संकमिज्जति जेण संकमो, सो पाणियस्स वा गड्डाए वा भण्णइ । (ग) हा० टी० ५० १६४ : 'संक्रमण' जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन । २-कौटि० अर्थ० १०.२ : हस्तिस्तम्भसंक्रमसेतुबन्धनौकाष्ठवेणुसंघातैः, अलाबुचर्मकरण्डदृतिप्लवगण्डिकावेणिकाभिश्च उदकानि तारयेत् । ३-वही [व्याख्या ] : स्तम्भसंक्रमः-स्तम्भानामुपरि दारुफलकादिघटनया कल्पितः संक्रमः । ४-अ० चि० ६.१५३ : संक्रामसंक्रमो दुर्गसञ्चरे । ५-(क) हा० टी० ५० १६४ : अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्ग इत्यर्थः । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : तेण संकमेण विज्जमाणे परक्कमे णो गच्छेज्जा। ६-जि० चू० पृ० १६६ : जम्हा एते दोसा तम्मा विज्जमाणे गमणपहे ण सपच्चवाएण पहेण संजएण सुसमाहिएण गंतव्वं । ७-(क) जि० चू०पू०१६६ : इदाणि आतविराहणा संजमविराहणा य दोवि भण्णंति । ते तत्थ पवडते वा पक्खलंते वा हत्थाइ लूसणं पावेज्जा, तसथावरे वा जीवे हिंसेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १६४ : अधुना तु आत्मसंयमविराधनापरिहारमाह..."आत्मसंयमविराधनासंभवात् । -अ० चू० १० १०० तस्स पवतस्स पक्खुलंतस्स जं हत्थ-पादादिलूसणं खयकरणाति त सम्वजणप्रतीतमिति ण सुत्त, वृत्तीए विभासिज्जति। E-(क) अ० चू० पृ० १०० : सतीति विज्जमाणे । (ख) जि० चू०पृ० १६६ : 'सति' ति जदि अण्णो मग्गो अत्यि तो तेण न गच्छेज्जा। Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २०३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७ टि० २८-३१ 'अन्नेण मग्गेण' हरिभद्र सूरि के अनुसार यहाँ सप्तमी के अर्थ में तृतीया का प्रयोग है। २८. यतनापूर्वक जाये ( जयमेव परक्कमे घ): 'जय' (यतम् ) शब्द क्रिया-विशेषण है । परक्कमे ( पराक्रमेत् ) क्रिया है । यतनापूर्वक अर्थात् आत्मा और संयम की विराधना का परिहार करते हुए चले । गर्ताकीर्ण आदि मार्गों से जाने का निषेध है, पर यदि अन्य मार्ग न हो तो गर्ताकीर्ण आदि मार्ग से इस प्रकार जाये कि आत्म-विराधना और संयम-विराधना न हो । २६. अगस्त्य चूणि में छठे श्लोक के पश्चात निम्न श्लोक आता है : चलं कटू सिलं वा वि, इझालं वा वि संकमो।। न तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिट्रो तत्थ असंजमो॥ इसका अर्थ है हिलते हुए काष्ठ, शिला, ईंट एवं संक्रम पर से साधु न जाए क्योंकि ज्ञानियों ने वहाँ असंयम देखा है । चूणिकार के अनुसार दूसरी परम्परा के आदर्शों में यह श्लोक यहाँ नहीं है, आगे है ; किन्तु उपलब्ध आदर्शों में यह श्लोक नहीं मिलता । जिनदास और हरिभद्र की व्याख्या के अनुसार ६४ वें श्लोक के पश्चात् इसी आशय के दो श्लोक उपलब्ध होते हैं - होज्ज कट्ठ सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया। ठवियं सकमाए, तं च होज्ज चलाचलं ॥६५॥ ण तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं झुसिर चेव, सव्विदिए समाहिए ॥६६॥ श्लोक ७: ३०. श्लोक ७ : चलते समय साधु किस प्रकार पृथ्वीकाय के जीवों की यतना करे-इसका वर्णन इस श्लोक में है। ३१. सचित्त-रज से भरे हुए पैरों से ( ससरक्खेहि पाहि ग ) जिनदास और हरिभद्र ने इसका अर्थ किया है-सचित्त पृथ्वीकाय के रज-कण से गुण्डित पैरों से। अगस्त्यसिंह स्थविर ने राख-कण जैसे सूक्ष्म रज-कणों को 'ससरक्ख' माना है तथा 'पाय' शब्द को जाति में एकवचन माना है। 'सस रक्खेहि' शब्द की विशेष व्याख्या के लिए देखिए ४.१८ का टिप्पण नं०६६ । १-हा० टी० ५० १६४ : 'सति-अन्येन' इति–अन्यस्मिन् समादौ 'मार्गेण' इति मार्गे, छान्दसत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया। २-(क) अ० चू० पृ० १०० : असति जयमेव ओवातातिणा परक्कमे । (ख) जि. चू० पृ० १६६ : जयभेव परक्कमे णाम जति अण्णो मग्गो नत्थि ता तेणवि य पहेण गच्छेज्जा जहा आयसंजमविराहणा ण भव। (ग) हा०टी०प०१६४ : असति त्वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना""....."यतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायादिति । यतमिति क्रियाविशेषणम् । ३-अ० पू० पृ० १०० : अयं केसिंचि सिलोगो उरि भणिहिति । ४-(क) जि० चू० पृ० १६६ : ससरखेहि-सचित्तरयाइण्णे हि पाएहि । (ख) हा० टी० ५० १६४ : सचित्तपृथिवीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्याम् । ५---१० चू० पृ० १०१ : 'ससरक्खेण' सरक्खो---सुसण्हो छारसरिसो पुढविरतो, सह सरक्खेण सस रक्खो तेण पाएण, एगवयणं जातीए पयत्यो। Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २०४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८ टि० ३२-३८ ३२. कोयले ( इंगालं रासि क ) : अङ्गार-राशि –अङ्गार के ढेर । अङ्गार -पूरी तरह न जली हुई लकड़ी का बुझा हुआ अवशेष' । इसका अर्थ दहकता हुआ कोयला भी होता है। ३३. ढेर के (रासिख ): मूल में 'राशि' शब्द 'छारिय', 'तुस'-इन के साथ ही है, पर उसे 'इंगाल' और 'गोमयं' के साथ भी जोड़ लेना चाहिए। श्लोक: ३४. श्लोक ८: इस श्लोक में जल, वायु और तिर्यग् जीवों की विराधना से बचने की दृष्टि से चलने की विधि बतलाई है। ३५. वर्षा बरस रही हो ( वासे वासंते क ): भिक्षा का काल होने पर यदि वर्षा हो रही हो तो भिक्षु बाहर न निकले । भिक्षा के लिए निकलने के बाद यदि वर्षा होने लगे तो वह ढंके स्थान में खड़ा हो जाये, आगे न जाये। ३६. कुहरा गिर रहा हो ( महियाए पडंतिए ख ) : कुहरा प्रायः शिशिर ऋतु में-गर्भ-मास में पड़ा करता है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा-चर्या के लिए गमन न करे। ३७. महावात चल रहा हो ( महावाये व वायंते " ) : महावात से रजें उड़ती हैं । शरीर के साथ उनका आघात होता है, इससे सचित्त रजों की विराधना होती है । अचित्त रजें आँखों में गिरती हैं। इन दोषों को देख भिक्षु ऐसे समय में गमन न करें। ३८. मार्ग में तिर्यक् संपातिम जीव छा रहे हों ( तिरिच्छसंपाइमेसु वा ५): जो जीव तिरछे उड़ते हैं उन्हें तिर्यक् सम्पातिम जीव कहते हैं। वे भ्रमर, कीट, पतंग आदि जन्तु हैं। १-(क) अ० चू० १० १०१ : 'इंगालो' खदिराईण दड्ढणेव्वाणं तं इंगालं । (ख) हा० टी० ५० १६४ : आङ्गारमिति - अङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गारं राशिम् । २-(क) अ० चू० पृ० १०१ रासि सद्दो पुण इंगालछारियाए वट्टति । 'तुसरासि' च 'गोमयं..... एत्थवि रासि त्ति उभये वर्तते। (ख) हा० टी० ५० १६४ : राशिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते।। ३-(क) अ० चू० पृ० १०१ : ण इति पडिसेहसद्दो, चरणं गोचरस्स तं पडिसेहेति, 'वासं' मेघो, तम्मि पाणियं मयन्ते । (ख) जि० चू० पृ० १७० : नकारो पडिसेहे वट्टइ, चरेज्ज नाम भिक्खस्स अट्ठा गच्छेज्जत्ति, वासं पसिद्धमेव, तंमि वासे वरिस माणेण उ चरियव्वं, उत्तिण्णण य पवु? अहाछन्नाणि सगडगिहाईणि पविसित्ता ताव अच्छइ जावदिओ ताहे हिंडइ । (ग) हा० टी० ५० १६४ : न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थं प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत् । ४-- (क) जि० चू० १० १७० : महिया पायसो सिसिरे गब्भमासे भवइ, ताएवि पडन्तीए नो चरेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १६४ : महिकायां वा पतन्त्यां, सा च प्रायो गर्भमासेषु पतति । ५-(क) अ० चू० पृ० १०१ : वाउक्काय जयणा पुण 'महाबाते' अतिसमुद्घतो मारुतो महावातो, तेण समुद्घतो रतो वाउक्कातो य विराहिज्जति। (ख) जि० चू० पृ० १७० : महावातो रयं समुधुणइ, तत्थ सचित्तरयस्स विराहणा, अचित्तोवि अच्छीणि भरेज्जा एवमाई दोसत्तिकाऊण ण चरेज्जा। (ग) हा० टी० ५० १६४ : महाबाते वा वाति सति, तदुत्खातरजोविराधनादोषात् । ६-(क) अ० चू० पृ० १०१ : तिरिच्छसंपातिमा पतंगादतो तसा, तेसु पभूतेसु संपर्यतेसु ण चरेज्जा इति वट्टति । (ख) जि० चू० पृ० १७० : तिरिच्छं संपयंतीति तिरिच्छसंपाइमा, ते य पयंगादी। (ग) हा० टी०१० १६४ : तिर्यक्संपतन्तीति तिर्यक्सम्पाता:- पतङ्गादयः । Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा (पिण्डैषणा) २०५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६ टि० ३६-४२ श्लोक: ३६. श्लोक ६-११ भिक्षा के लिए निकले हुए साधु को कैसे मुहल्ले से नहीं जाना चाहिए इसका वर्णन 8 वें श्लोक के प्रथम दो चरण में हुआ है। वहाँ वेश्या-गह के समीप जाने का निषेध है । इस श्लोक के अन्तिम दो चरणों तथा १० वें श्लोक में वेश्या-गृह के समीप जाने से जो हानि होती है, उसका उल्लेख है। ११ वें श्लोक में दोष-दर्शन के बाद पुनः निषेध किया गया है । ४०. ब्रह्मचर्य का वशवर्ती मुनि (बंभचेरवसाणुए ख ) : ___अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार इसका अर्थ-'ब्रह्मचर्य का वशवर्ती' होता है और यह मुनि का विशेषण है' । जिनदास महत्तर ने 'बंभचेरवसाणुए' ऐसा पाठ मानते हुए भी तथा टीकाकार ने 'बंभचेरवसाणए' पाठ स्वीकृत कर उसे 'वेससामंते' का विशेषण माना है और इसका अर्थ ब्रह्मचर्य को वश में लाने ( उसे अधीन करने ) वाला किया है। किन्तु इसे 'वेससामंते' का विशेषण मानने से 'चरेज्ज' क्रिया का कोई कर्ता शेष नहीं रहता, इसलिए तथा अर्थ-संगति की दृष्टि से यह साधु का ही विशेषण होना चाहिए। अगस्त्य-चूणि में 'बंभचारिवसाणुए' ऐसा पाठान्तर है। इसका अर्थ है --ब्रह्मचारी-आचार्य के अधीन रहने वाला मुनि । ४१. वेश्या बाड़े के समीप ( वेससामंते क ): जहाँ विषयार्थी लोग प्रविष्ट होते हैं अथवा जो जन-मन में प्रविष्ट होता है वह 'वेश' कहलाता है । इस 'वेश' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-नीच स्त्रियों का समवाय । अमरकीति ने 'वेश' का अर्थ वेश्या का बाड़ा किया है। अभिधान चिन्तामणि में इसके तीन पर्यायवाची नाम हैं- वेश्याश्रय, पुरं, वेश। जिनदास महत्तर ने 'वेस' का अर्थ वेश्या किया है। टीकाकार भी इसी का अनुसरण करते हैं किन्तु शाब्दिक दृष्टि से पहला अर्थ ही संगत है । 'सामन्त' का अर्थ समीप है । समीप के अर्थ में 'सामन्त' शब्द का प्रयोग आगमों में बहुत स्थलों में हुआ है। जिनदास कहते हैं—साधु के लिये वेश्या-गृह के समीप जाना भी निषिद्ध है । वह उसके घर में तो जा ही कैसे सकता है१२ । ४२. विस्रोतसिका ( विसोत्तिया क ): विस्रोतसिका का अर्थ है—सारणिनिरोध, जलागम के मार्ग का निरोध या किसी वस्तु के आने का स्रोत रुकने पर उसका दूसरी ओर मुड़ जाना३ । चूर्णिकार विस्रोतसिका की व्याख्या करते हुए कहते हैं : जैसे - कूड़े-करकट के द्वारा जल आने का मार्ग रुक १-अ० चू० पृ० १०१ : 'बंभचेरवसाणुए' बंभचेरं मेहुणवज्जणवतं तस्स वसमणुगच्छति जं बंभचेरवसाणगो साधू । २-(क) जि० चू० पृ० १७० : जम्हा तंमि वेससामन्ते हिंडमाणस्स बंभचेरव्वयं वसमाणिज्जतित्ति तम्हा तं वेससामंतं बंभचेर वसाणुगं भण्णइ, तमि बंभचेरवसाणुए। (ख) हा० टी० ५० १६५ : ब्रह्मचर्यवशानयने (नये) ब्रह्मचर्य -मैथुन बिरतिरूपं वशमानयति आत्मायत्तं करोति दर्शनाक्षेपा दिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । ३ -- अ० चू० पृ० १०१ : बंभचारिणो गुरुणो तेसि वसमणुगच्छतीति बंभचेर (?चारि) वसाणुए। ४–० चू० १० १०१ : 'वेससामन्ते' पविसंति तं विसयस्थिणो त्ति वेसा, पविसति वा जणमणेसु वेसो। ५-अ० चू० पृ० १०१ : स पुण णीयइत्थिसमवातो। ६-५० ना० श्लो० ३६ का भाष्य १० १७ : वेशे वेश्यावाटे भवा वेश्या। ७ - अ. चि० ४.६६ : वेश्याऽऽश्रयः पुरं वेशः । -जि० चू० पृ० १७० : वेसाओ दुवक्खरियाओ, अण्णाओवि जाओ दुवक्खरियाकम्मेसु वट्ट ति ताओवि वेसाओ चेव । -हा० टी० ५० १६५ : 'न चरेद्वेश्यासामन्ते' न गच्छेद गणिकागहसमीपे । १०-अ० चू० पृ० १०१ : सामंते समोवे वि, किमुत तम्मि चेव । ११–भग० १.१ पृ० ३३ : अदूरसामन्ते । १२-जि० चू० पृ० १७० : सामतं नाम तासि गिहसमीवं, तमवि वज्जणीयं, किमंग पुण तासि गिहाणि ? १३–अ० चू० पृ० १०१ : विस्रोतसा प्रवृत्तिः–विस्रोतसिका विसोत्तिका । सा चउब्विहा—णामढवणातो गतातो । दवविसोत्तया कटलिचेहि सारणिणिरोहो अण्णतोगमणमुदगस्स । भावविसोत्तिता वेसित्थिसविलासवियेक्खित-हसित-विन्भमेहि रागावरुद्वमणोसमाहिसारणीकस्स नाण-दसण-चरित्तसस्सविणासो भवति । Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ___ २०६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १० टि० ४३-४५ जाने पर उसका बहाव दूसरी ओर हो जाता है, खेती सूख जाती है, वैसे ही वेश्याओं के हाव-भाव देखनेवालों के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का स्रोत रुक जाता है और संयम की खेती सूख जाती है। श्लोक १० : ४३. अस्थान में ( अणायणे क ): सावध, अशोधि-स्थान और कुशील-संसर्गये अनायतन के पर्यायवाची नाम हैं। इसका प्राकृत रूप दो प्रकार से प्रयुक्त होता है-अणाययण और अणायण । अणाययण के यकार का लोप और अकार की संधि करने से अणायण बनता है। ४४. बार-बार जाने वाले के संसर्ग होने के कारण ( संसग्गोए अभिक्खणं ख ): इसका सम्बन्ध 'चरंतस्स' से है । 'अभीक्ष्ण' का अर्थ है बार-बार । अस्थान में बार-बार जाने से संसर्ग (सम्बन्ध) हो जाता है। संसर्ग का प्रारम्भ दर्शन से और उसकी परिसमाप्ति प्रणय में होती है। पूरा क्रम यह है -दर्शन से प्रीति, प्रीति से रति, फिर विश्वास और प्रणय। ४५. व्रतों की पीड़ा ( विनाश ) ( वयाणं पीला ग ) : पीड़ा' का अर्थ विनाश अथवा विराधना होता है । वेश्या-संसर्ग से ब्रह्मचर्य-व्रत का विनाश हो सकता है किन्तु सभी व्रतों का नाश कैसे संभव है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चूणिकार कहते हैं-ब्रह्मचर्य से विचलित होने वाला श्रामण्य को त्याग देता है, इसलिए उसके सारे व्रत टूट जाते हैं। कोई श्रमण श्रामण्य को न भी त्यागे, किन्तु मन भोग में लगे रहने के कारण उसका ब्रह्मचर्य-व्रत पीड़ित होता है । वह चित्त की चंचलता के कारण एषणा या ईर्या की शुद्धि नहीं कर पाता, उससे अहिंसा-व्रत की पीड़ा होती है। वह इधर-उधर रमणियों की तरफ देखता है, दूसरे पूछते हैं तब झूठ बोलकर दृष्टि-दोष को छिपाना चाहता है, इस प्रकार सत्य-व्रत की पीड़ा होती हैं । तीर्थङ्करों ने थमण के लिए स्त्री-संग का निषेध किया है। स्त्री-संग करने वाला उनकी आज्ञा का भंग करता है, इस प्रकार अचौर्य-व्रत की पीड़ा होती है। स्त्रियों में ममत्व करने के कारण उसके अपरिग्रह-व्रत की पीड़ा होती है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य-व्रत पीड़ित होने से सब व्रत पीड़ित हो जाते हैं। १-(क) जि० चू० पृ० १७१ : दवविसोत्तिया जहा सारणिपाणियं कयवराइणा आगमसोते निरुद्ध अण्णतो गच्छइ, तओ तं सस्सं सुक्खइ, सा दव्वविसोत्तिया, तासि वेसाणं भावविप्पेक्खियं णट्टहसियादी पासंतस्स णाणदंसणचरित्ताणं आगमो निरु भति, तओ संजमसस्सं सुक्खइ, एसा भावविसोत्तिया। (ख) हा० टी० १० १६५: विस्रोतसिका' तद्रूपसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमस स्य शोषफला चित्तविक्रिया। २-ओ० नि० ७६४ : सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गी। एगट्ठा होति पदा एते विवरीय आययणा ॥ ३--(क) अ० चू० पृ० १०१ : तम्मि 'चरन्तस्स' गच्छन्तस्त संसग्गी' संपको "संसग्गीए अभिक्खणं" पुणो पुणो। किंच संदसणेण पिती पीतीओ रती रतीतो वीसंभो। वीसंभातो पणतो पंचविहं वड़ई पेम्म । (ख) जि० चू० पृ० १७१: वेससामंतं अभिक्खणं अभिक्खणं एंतजंतस्स ताहि समं संसग्गी जायति, भणियं च संदसणाओ पीई पीतीओ रती रती य वीसंभो । वीसंभाओ पणओ पंचविहं वडई पेम्मं ॥ ४- (क) अ० चू० १० १०२ : वताणं बंभवतपहाणाण पीला किंचिदेव विराहणमुच्छेदो वा। (ख) जि० चू०पृ० १७१ : पीडानाम विणासो। (ग) हा० टी० ५० १६५ : 'व्रतानां' प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधना । ५ -(क) अ० चू० पृ० १०२ : वताणं बंभवतपहाणाण पोला किंचिदेव विराहणमुच्छेदा वा समणभावे वा संदेहो अप्पणो परस्स वा। अप्पणो 'विसयविचालितचित्तो समणभावं छड्डे मि मा वा?' इति संदेहो, परस्स एवं विहत्थाणविचारी कि पव्वतितो विडो वेसच्छण्णो?' ति संसयो। सति संदेहे चागविचित्तीकतस्स सव्वमहव्वसपोला, अहउप्पम्वतति ततो वयच्छित्ती, अणुप्पब्वयंतस्स पीडा वयाण, तासु गयचित्तो रियं ण सोहेति त्ति पाणातिपातो। पुच्छितो कि जोएसि?' ति अवलवति मुसावातो, अदत्तादाणमणणुग्णातो तित्थकरेहि, मेहुणे विगयभावो, मुच्छाए परिग्गहो वि। (ख) जि. चू० पृ० १७१ : जई उपिणक्खमइ तो सव्ववया पीडिया भवंति, अहवि ण उण्णिक्खमइ तोवि तग्गयमाणसस्स भावाओ मेहणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो य एसणं न रक्खइ, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ-. कि जोएसि? ताहे अवलवइ, ताहे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहि णाणुण्णायाउत्ति का अदिण्णादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति । Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा) २०७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ११-१२ टि० ४६-५० यहाँ हरिभद्र सूरि 'तथा च वृद्ध व्याख्या' कहकर इसी आशय को स्पष्ट करने वाली कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं । ये दोनों चूर्णिकारों की पंक्तियों से भिन्न हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके सामने चूणियों के अतिरिक्त कोई दूसरी भी वृद्ध-व्याख्या ४६. श्रामण्य में सन्देह हो सकता है ( सामण्णम्मि य संसओ घ ) : इस प्रसङ्ग में श्रामण्य का मुख्यार्थ ब्रह्मचर्य है । इन्द्रिय-विषयों को उत्तेजित करने वाले साधन श्रमण को उसकी साधना में संदिग्ध बना देते हैं । विषय में आसक्त बना हुआ श्रमण ब्रह्मचर्य के फल में सन्देह करने लग जाता है । इसका पूर्ण क्रम उत्तराध्ययन में बतलाया गया है । ब्रह्मचर्य की गुप्तियों का पालन न करने वाले ब्रह्मचारी के शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है । चारित्र का नाश होता है, उन्माद बढ़ता है, दीर्घकालिक रोग एवं आतंक उत्पन्न होते हैं और वह केवली-प्रज्ञप्त-धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। श्लोक ११ : ४७. एकान्त ( मोक्ष-मार्ग ) का (एगतं घ ) : सभी व्याख्याकारों ने 'एकान्त' का अर्थ मोक्ष-मार्ग किया है । ब्रह्मचारी को विविक्त-शय्यासेवी होना चाहिए, इस दृष्टि से यहाँ 'एकान्त' का अर्थ विविक्त-चर्या भी हो सकता है। श्लोक १२: ४८. श्लोक १२: इस श्लोक में भिक्षा-चर्या के लिये जाता हुआ मुनि रास्ते में किस प्रकार के समागमों का या प्रसंगों का परिहार करता हुआ चले, यह बताया गया है। वह कुत्ते, नई ब्याई हुई गाय, उन्मत्त बैल, अश्व, हाथी तथा क्रीड़ाशील बालकों आदि के समागम से दूर रहे। यह उपदेश आत्म-विराधना और संयम-विराधना दोनों की दृष्टि से है। ४६. ब्याई हुई गाय ( सूइयं गावि क ) : प्रायः करके देखा गया है कि नव प्रसूता गाय आहननशील-मारनेवाली होती है। ५०. बच्चों के क्रीड़ा-स्थल ( संडिभंग ): जहाँ बालक विविध क्रीड़ाओं में रत हों (जैसे धनुष् आदि से खेल रहे हों), उस स्थान को 'संडिब्भ' कहा जाता है । १-हा० टी० ५० १६५ : तथा च वृद्धव्याख्या --वेसादिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पाडुप्पायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दब्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणेण ति। २-(क) अ० चू० पृ० १०२ : समणभावे वा संदेहो अप्पणो परस्स वा । अप्पणो 'विसयविचालितचित्तो समणभाव छड़े मि मा वा?' इति संदेहो, परस्स एवंविहत्थाणविचारी किं पन्वतितो विडो वेसच्छण्णो ? ति संसयो। (ख) जि० चू० पृ० १७१: सामण्णं नाम समणभावो, तंमि समणभावे संसयो भवई, कि ताव सामण्णं धरेमि ? उदाह उप्पल्व यामित्ति? एवं संसयो भवइ । (ग) हा० टी०प०१६५ : 'श्रामण्ये च' श्रमणभावे च द्रव्यतो रजोहरणाविधारणरूपे भूयो भाववतप्रधानहेतौ संशयः । ३- उत्त० १६.१ : बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । ४.-(क) प्र० चू० पृ० १०२ : एगंतो णिरपवातो मोक्खगामी मग्गो णाणादि । (ख) हा० टी० ५० १६५ : 'एकान्तं' मोक्षम् । ५--(क) जि० चू० पृ० १७१ : सूविया गावी पायसो आहणणसीला भवइ । (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'सूतां गाम्' अभिनवप्रसूतामित्यर्थः । ६-(क) अ० चू० पृ० १०२ : डिब्भाणि चेडरूवाणि णाणाविहेहि खेलणएहिं खेलंताणं तेसि समागमो संडिब्भं । (ख) जि० चू० पृ० १७१-७२ : संडिब्भं नाम बालरूवाणि रमंति धर्हि । (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'संडिम्भं' बालक्रीडास्थानम् । Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवे आलियं (दशवेकालिक) ग ५१. कलह ( कलहं ) : इसका अर्थ है - वाचिक झगड़ा' । १२. युद्ध ( के स्थान ) को (जुद्धं युद्ध आयुध आदि से होने वाली शस्त्रों की लड़ाई को युद्ध कहा जाता है । ५३. दूर से डाल कर जाये ( दूरओ परिवज्जए ): मुनि ऊपर बताए गए प्रसङ्ग या स्थान का दूर से परित्याग करे, क्योंकि उपर्युक्त स्थानों पर जाने से आत्म-विराधना और संयमविराधना होती है । समीप जाने पर कुत्ते के काट खाने की, गाय, बैल, घोड़े एवं हाथी के सींग, पैर आदि से चोट लग जाने की संभावना रहती है। यह आत्म-विराधना है। ५४. श्लोक १३ : ) ): नाही मारपीट कलह और युद्ध में यह अन्तर है कि वचन की लड़ाई की कलह और कीड़ा करते हुए बच्चे धनुष् से बाण चलाकर मुनि को आहत कर सकते हैं। वंदन आदि के समय पात्रों को पैरों से फोड़ सकते है उन्हें छीन सकते हैं। हरिभद्रसूरि के अनुसार यह संयम विराधना है। मुनि कलह आदि को सहन न कर सकने से बीच में बोल सकता है। इस प्रकार अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं । इलोक १३ : २०८ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) श्लोक १३ टि० ५१-५५ क ५५. न ऊंचा मुंह कर ( अणुन्नए ) : घ इस श्लोक में भिक्षा चर्चा के समय मुनि की मुद्रा कैसी रहे यह बताया गया है । उन्नत दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य उन्नत और भाव उन्नत । जो मुंह ऊँचा कर चलता है- आकाशदर्शी होता है उसे 'द्रव्य उन्नत' कहते हैं । जो दूसरों की हंसी करता हुआ चलता है, जाति आदि आठ मदों से मत्त ( अभिमानी ) होता है वह 'भाव उन्नत' कहलाता है । मुनि को भिक्षाचर्या के समय द्रव्य और भाव - दोनों दृष्टियों से अनुन्नत होना चाहिए । १- (क) अ० चू० पृ० १०२ : कलहो बाधा - समधिक्खेवादि । ० चू० पृ० १७२ : कलहो नाम वाइओ । (ग) हा० टी० प० १६६ : 'कलहं' वाक्प्रतिबद्धम् । (ख) जि० २ (क) अ० चू० पृ० १०२ : जुद्ध आयुहादीहि हणाहणी । (ख) जि०० पृ० १७२ खुर्द नाम जं आउहादीहि (ग) हा० टी० प० १६६ : "युद्ध" खड्गादिभिः । ३ - हा० टी० प० १६६ : 'दूरतो' दूरेण परिवर्जयेत्, आत्मसंयमविराधनासम्भवात् । ४ – (क) अ० चू० पृ० १०२ : अपरिवज्जणे दोसो साणो खाएज्जा, गावी मारेज्जा, गोण हत-गता वि, चेडरुवाणि परिवारेतु बंदताणि भाणं विराहेज्जा आहणेज्ज वा इट्टालादिणा, कलहे अणदृहियासो किंचि हणेज्ज भणेज्ज वा अजुत्तं, जुद्ध उम्मत्तकंडादिणा हम्मेज्ज | (ख) जि० चू० पृ० १७२ : सुणओ धाएज्जा, गावी मारिज्जा, गोणो मारेज्जा, एवं हय-गयाणवि मारजादिदोसा भवंति, बालरुवाणि पुण पाए पडियाणि भाणं भिविज्जा, कट्ठाकट्ठवि करेज्जा, धणुविप्यमुक्केण वा कंडेण आहणेज्जा तारिसं अमहियासंती भणिज्जा, एवमादि दोवा । (ग) हा० टी० प० १६६ गोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना, हिम्भस्थाने बन्दनाद्यागमनपतन भण्डनप्रतुनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनोभयविराधनेति । ५.- अ० चू० पृ० १०२ : इदं तु सरीर चित्तगत दोसपरिहरणत्थमुपदिस्सति । ६- जि० चू० पृ० १७२ : 'दव्वण्णओ भावुण्णओ दव्वण्णओ जो उष्णतेण मुहेण गच्छइ, भावण्णओ हिट्ठो विहसियं तो गच्छद्द, जाति आदिएहि वा अट्ठह मदेह मत्तो । ********* Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा) २०६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १३ टि० ५६-५८ जो आकाशदर्शी होकर चलता है ऊंचा मुंहकर चलता है वह ईर्या समिति का पालन नहीं कर सकता । लोग भी कहने लग जाते हैं— "देखो ! यह श्रमण उन्मत्त की भाँति चल रहा है, अवश्य ही यह विकार से भरा हुआ है ।" जो भावना से उन्नत होता है वह दूसरों को तुच्छ मानता है । दूसरों को तुच्छ मानने वाला लोक-मान्य नहीं होता। ५६. न झुककर ( नावणए क ): । अवनत के भी दो भेद होते हैं : द्रव्य-अवनत और भाव-अवनत । द्रव्य-अवनत उसे कहते हैं जो झुककर चलता है। भाव-अवनत उसे कहते हैं जो दीन व दुर्मना होता है और ऐसा सोचता है- "लोग असंयतियों की ही पूजा करते हैं । हमें कौन देगा ? या हमें अच्छा नहीं देगा आदि ।" जो द्रव्य से अवनत होता है वह मखौल का विषय बनता है । लोग उसे बगुलाभगत कहने लग जाते हैं । जैसे—बड़ा उपयोग-युक्त है कि इस तरह नीचे झुक कर चलता है । भाव से अवनत वह होता है जो क्षुद्र भावना से भरा होता है । श्रमणों को दोनों प्रकार से अवनत नहीं होना चाहिए । ५७. न हृष्ट होकर ( अप्पहि8 ख): जिनदास महत्तर के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'अल्प-हृष्ट' या 'अहृष्ट' बनता है । अल्प शब्द का प्रयोग अल्प और अभाव-इन दो अर्थों में होता है । यहाँ यह अभाव के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अगस्त्य चूणि और टीका के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'अप्रहृष्ट' होता है । 'प्रहर्ष' विकार का सूचक है इसलिए इसका निषेध है। ५८. न आकुल होकर ( अगाउले ख ) : ___ चलते समय मन नाना प्रकार के संकल्पों से भरा हो या श्रुत-सूत्र और अर्थ का चिन्तन चलता हो, वह मन की आकुलता है । विषय-मोग सम्बन्धी बातें करना, पूछना या पढ़े हुए ज्ञान की स्मृति करना वाणी की आकुलता है । अंगों की चपलता शरीर की आकुलता है। मुनि इन सारी आकुलताओं को वर्जकर चले५ । टीकाकार ने अनाकुल का अर्थ क्रोधादि रहित किया है । १-जि० चू० पृ० १७२ : दव्युन्नतो इरियं न सोहेइ, लोगोवि भण्णइ-उम्मत्तओविव समणओ वजइ सविगारोत्ति, भावेवि अस्थि से माणो, तुट्ठत्तेणं अस्थि, सम्बन्धो अथित्ति, अहवा मदावलित्तो ण सम्मं लोगं पासति, सो एवं अणुवसंतत्तणेण न लोग सम्मतो भवति । २-(क) अ० चू० पृ० १०२, १०३ : अवणतो चतुम्विहो-दव्वोणतो जो अवणयसरीरो गच्छति । भावोणतो कीस ण लभामि? विरूवं वा लभामि ? अस्संजता पूतिज्अंति' इति दीणदूमणो।...''दब्वावणतो 'अहो ! जीवरक्खणुज्जुत्तो, सव्वपासंडाण वा णीयमप्पाणं जाणति' त्ति जणो वएज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७२ : ......दव्वोणओ जो ओणयसरीरो खुज्जो वा, भावोणयो जो दीणदुम्मणो, कीस मिहत्था भिक्खे न देति ?, णवा सुन्दरं देति ? असंजते वा पूयति,... - दव्वोणतेणवि उड्डुवंति जहा अहो जीवरक्खणुवउत्तो सुव्वत्त एस (तेण) गो, अहवा सव्वपासंडाणं नीययरं अप्पाणं जाणमाणो वक्कमति एवमादि, एवं करेज्जा, भावोणते एवं चेवेति, जहा किमेतस्स पब्वइतेण? कोहोऽणेण न णिज्जिओत्ति एवमादी। (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'नावनतो' द्रव्यभावाभ्यामेव, द्रव्यानवनतोऽनीचकायः भावानवनतः अलब्ध्यादिनाऽदीनः...... द्रव्यावनत: बक इति संभाव्यते भावावनत: क्षुद्रसत्त्व इति । ३ -जि. चू० पृ० १७२,७३ : अप्पसद्दो अभावे वट्टइ, थोवे य, इह पुण अप्पसद्दो अभाव दट्ठव्वो। ४ - (क) अ० चू० पृ० १०३ : ण पहिट्ठो अपहिट्ठो। (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'अप्रहृष्टः' अहसन् । ५-जि० चू० १० १७३ : अणाउलो नाम मणवयणकायजोगेहि अणाउलो। माणसे अमृदुहद्राणि सुत्तत्थतदुभयाणि वा अचितंतो एसणे उवउत्तो गच्छेज्जा, वायाए वा जाणिवि ताणि अट्टमट्टाणि ताणि अभासमाणेण पुच्छणपरियट्टणादीणि य अकुव्वमाणेण हिंडियव्वं, कायेणावि हत्थणट्ठादीणि अकुस्वमाणो संकुचियहत्थपामो हिंडेज्जा । ६-हा० टी० ५० १६६ : 'अनाकुलः' क्रोधादिरहितः । Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) २१० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १४ टि० ५६-६३ ५६. इन्द्रियों को अपने अपने विषय के अनुसार ( इंदियाणि जहाभागंग ) : जिनदास चुणि में जहाभागं' के स्थान पर 'जहाभावं' ऐसा पाठ है। पाठ-भेद होते हुए भी अर्थ में कोई भेद नहीं है । 'यथाभाव' का अर्थ है-इन्द्रिय का अपना-अपना विषय । सुनना कान का विषय है, देखना चक्षु का विषय है, गन्ध लेना घ्राण का विषय है, स्वाद जिह्वा का विषय है, स्पर्श स्पर्शन का विषय है। ६०. दान्त कर ( दमइत्ता घ): कानों में पड़ा हुआ शब्द, आंखों के सामने आया हुआ रूप तथा इसी प्रकार दूसरी इन्द्रियों के विषय का ग्रहण रोका जा सके यह सम्भव नहीं किन्तु उनके प्रति राग-द्वेष न किया जाय यह शक्य है । इसी को इंद्रिय-दमन कहा जाता है । श्लोक १४: ६१. श्लोक १४: इस श्लोक में मुनि आहार की गवेषणा के समय मार्ग में किस प्रकार चले जिससे लोक दृष्टि में बुरा न लगे और प्रवचन की भी लघुता न हो उसकी विधि बताई गई है। ६२. उच्च-नीच कुल में ( कुलं उच्चावयं घ): कुल का अर्थ सम्बन्धियों का समवाय या घर है । प्रासाद, हवेली आदि विशाल भवन द्रव्य से उच्च-कुल कहलाते हैं । जाति, धन. विद्या आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन भाव से उच्च-कुल कहलाते हैं। तृणकुटी, झोपड़ी आदि द्रव्य से अवच-कूल कहलाते हैं और जाति, धन, विद्या आदि से हीन व्यक्तियों के घर भाव से अवच-कुल कहलाते हैं । ६३. दौड़ता हुआ न चले ( दवदवस्स न गच्छज्जा क ) दवदव' का अर्थ है दौड़ता हुआ। इस पद में द्वितीया के स्थान में षष्ठी है। सम्भ्रान्त-गति का निषेध संयम-विराधना की दृष्टि से किया गया है और दौड़ते हए चलने का निषेध प्रवचन-लाधव और संयम-विराधना दोनों दृष्टियों से किया गया है। संभ्रम (५.१.१) चित्त-चेष्ठा है और द्रव-द्रव कायिक चेष्टा । इसलिए द्रुतगति का निषेध सम्भ्रान्त-गति का पुनरुक्त नहीं है। १-(क) जि० चू० १० १७३ : जहाभावो नाम तेसिदियाणं पत्तेयं जो जस्स विसयो सो जहभावो भण्णइ, जहा सोयस्स सोयव्वं चक्खुस्स 8व्वं घाणस्स अग्घातियव्वं जिब्भाए सादेयव्वं फरिसस्स फरिसणं । (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'यथाभागं' यथाविषयम् । (ग) अ० चू० पृ० १०३ : इंदिया णि सोतादीणि ताणि जहाभागं जहाविसतं, सोतस्स भागी सोतव्वं । २–जि० चू० पृ० १७३ : ण य सक्का सई असुणितेहि हिंडिउं, कि तु जे तत्थ (गदोसा ते बज्जेयव्वा, भणियं च .."न सक्का सहमस्सोउ, सोतगोयरमागयं । रागद्दोसा उजे तत्थ, ते बुहो परिवज्जए ॥१॥" एवं जाव फासोत्ति । ३-- अ. चू० पृ० १०३ : कुलं संबंधिसमवातो, तदालयो वा। ४-हा० टी० ५० १६६ : उच्च-द्रव्यभावभेदाद्विधा ---द्रव्योच्चं धवलगृहवासि भावोच्च जात्यादियुक्तम्, एवमवचमपि द्रव्यतः कुटीरकवासि भावतो जात्याविहीनमिति । ५-(क) जि० चू० पृ० १७३ : दवदवस्स नाम दुयं दुयं । (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'द्रुतं-द्रुत। त्वरितमित्यर्थः । (ग) हैम० ८.३.१३४ : क्वचिद् द्वितीयादेः- इति सूत्रेण द्वितीया स्थाने षष्ठी। ६-(क) जि० चू० पृ० १७३ : सीसो आह–णणु असंभंतो अमुच्छिओ एतेण एसो अत्थो गओ, किमत्थं पुणो गहणं ?, आयरिओ भणइ-पुव्वभणियं , जं भण्णति तत्थ कारणं अत्थि, जं तं हेट्ठा भणियं तं अविसेसियं पंथे वा गिहतरे वा, तत्थ संजमविराहणा पाहण्णेण भणिया, इह पुण गिहाओ गिहंतरं गच्छमाणस्स भण्णइ, तत्थ पायसो संजमविराहणा भणिया, इह पुण पवयणलाघव संकणाइदोसा भवंतित्ति ण पुणरुत्तं । (ख) हा० टी०प० १६६ : दोषा उभयविराधनालोकोपधातादय इति । Jain Education Intemational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डैषणा) २११ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १५ टि० ६४-६६ श्लोक १५: ६४. श्लोक १५: मुनि चलते-चलते उच्चावच कुलों की वसती में आ पहुँचता है। वहाँ पहुँचने के बाद वह अपने प्रति किसी प्रकार की शंका को उत्पन्न न होने दे, इस दृष्टि से इस श्लोक में यह उपदेश है कि वह झरोखे आदि को ताकता हुआ न चले । ६५. आलोक ( आलोयं क ): घर के उस स्थान को आलोक कहा जाता है जहाँ से बाहरी प्रदेश को देखा जा सके । गवाक्ष, झरोखा, खिड़की आदि आलोक कहलाते हैं। ६६. थिग्गल ( थिग्गलं क ) : घर का वह द्वार जो किसी कारणवश फिर से चिना हुआ हो । ६७. संधि (संधि ख ) : ___ अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार दो घरों के अंतर (बीच की गली) को संधि कहा जाता है । जिनदास घूणि और टीकाकार ने इसका अर्थ सेंध किया है । सेंध अर्थात् दीवार की ढकी हुई सुराख । ६८. पानी-घर को (दगभवणाणि ख) अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसका अर्थ जल-मंचिका, पानीय कर्मान्त (कारखाना) अथवा स्नान-मण्डप आदि किया है । जिनदास ने इसका अर्थ जल-घर अथवा स्नान-घर किया है। हरिभद्र ने इसका अर्थ केवल जल-गृह किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय पथ के आस-पास सर्व साधारण की सुविधा के लिए राजकीय जल-मंचिका. स्नानमण्डप आदि रहते थे । जल-मंचिकाओं से औरतें जल भर कर ले जाया करती थीं और स्नान-मण्डपों में साधारण स्त्री-पुरुष स्नान किया करते थे । साधु को ऐसे स्थानों को ध्यानपूर्वक देखने का निषेध किया गया है। गृहस्थों के घरां के अन्दर रहे हुए परेण्डा, जल-गृह अथवा स्नान-घर से यहाँ अभिप्राय नहीं है क्योंकि मार्ग में चलता हुआ साधु क्या नहीं देखे इसी का वर्णन है । ६६. शंका उत्पन्न करने वाले स्थानों से ( संकटाणं घ ) : टीकाकार ने शंका-स्थान को पालोकादि का द्योतक माना है। शंका-स्थान अर्थात् उक्त आलोक, थिग्गल-द्वार, सन्धि, उदकभवन । इस शब्द में ऐसे अन्य स्थानों का भी समावेश समझना चाहिए। १- (क) अ० चू० पृ० १०३ : आलोगो-गवक्खगो । (ख) जि० चू० पृ० १७४ : आलोगं नाम चोपलपादी। (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'अवलोक' नि!हकादिरूपम् । २--(क) जि० चू० पृ० १७४ : थिग्गलं नाम जं घरस्स दारं पवमासी तं पडिपूरियं । (ख) हा० टी० ५० १६६ : 'थिग्गलं' चितं द्वारादि । ३–अ० चू० पृ० १०३ : संधी जमलघराणं अंतरं । ४-(क) जि० चू० पृ० १७४ : संधी खत्तं पडिढक्किययं । (ख) हा० टी० ५० १६६ : संधिः-चितं क्षेत्रम् । ५– (क) अ० चू० पृ० १०३ : पाणिय-कम्मतं, पाणिय-मंचिका, ण्हाण-मण्डपादि दगभवनानि । (ख) जि० चू० पृ० १७४ : दगभवणाणि-पाणियघराणि ण्हाणगिहाणि वा। (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'उदकभवनानि' पानीयगृहाणि । ६-हा० टी० ५० १६६ : शङ्कास्थानमेतदवलोकादि। Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) - प्रश्न हो सकता है- - इन स्थानों को देखने का वर्जन क्यों किया गया है ? इसका उत्तर यह है कि आलोकादि को ध्यानपूर्वक देखने वाले पर लोगों को चोर और पारदारिक होने का सन्देह हो सकता है । आलोकादि का देखना साधु के प्रति शंका या सन्देह उत्पन्न कर सकता है अतः वे शंका स्थान हैं । २१२ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक १६ टि० ७०-७२ : इनके अतिरिक्त स्त्री-जनाकीर्ण स्थान, स्त्री- कथा आदि विषय, जो उत्तराध्ययन में बतलाए गए हैं, वे भी सब शंका-स्थान हैं । स्त्री-सम्पर्क आदि से ब्रह्मचये में शंका पैदा हो सकती है। यह ऐसा सोच सकता है कि ब्रह्मचर्य में जो दोष बतलाए गए हैं वे सचमुच हैं या नहीं ? कहीं मैं ठगा तो नहीं जा रहा हू ? आदि-आदि । अथवा स्त्री सम्पर्क में रहते हुए ब्रह्मचारी को देख दूसरों को उसके ब्रह्मचर्य के बारे में संदेह हो सकता है। इसलिए इन्हें शंका का स्थान ( कारण ) कहा गया है । उत्तराध्ययन के अनुसार शंका-स्थान का संबन्ध ब्रह्मचारी की स्त्री संपर्क आदि नौ गुप्तियों से है और हरिभद्र के अनुसार शंका-स्थान का संबंध आलोक आदि से है * । श्लोक १६ : ७०. श्लोक १६ : श्लोक १५ में शंका-स्थानों के वर्जन का उपदेश है । प्रस्तुत श्लोक में संक्लेशकारी स्थानों के समीप जाने का निषेध है । ७१. गृहपति ( गिहवईणं गृहपति इभ्य श्रेण्डी आदि गिवणं क ) : 1 प्राचीनकाल में पति का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए होता था जो गृहका सर्वाधिकार सम्पन्न स्वामी होता । उस युग में समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई गृह थी । साधारणतया गृहपति पिता होता था। वह विरक्त होकर गृहकार्य से मुक्त होना चाहता अथवा मर जाता, तब उसका उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र को मिलता । उसका अभिषेक कार्य समारोह के साथ सम्पन्न होता । मौर्य-शुंग काल में 'गृहपति' शब्द का प्रयोग समृद्ध वैश्यों के लिए होने लगा था । ७२. अन्तःपुर और आरक्षिकों के ( रहस्सार क्लियाण ) : ख अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'रहस्स-आरविखयाग' को एक शब्द माना है और इसका अर्थ राजा के अन्तःपुर के अमात्य आदि किया है । " जिनदास और हरिभद्र ने इन दोनों को पृथक् मानकर अर्थ किया है। उन्होंने 'रहस्स' का अर्थ राजा, गृहपति और आरक्षिकों का मंत्रणा - गृह तथा 'आरक्खियं' का अर्थ दण्डनायक किया है। १० ० ० १०३ जिए, ताणि निभायमाणो 'किन्गु चोरो ? पारदारितो ? ति संकेजेजा था परं तमेवंविहं संकाय २ उत्त० १६.११-१४ । ३ - वही १६.१४ : संकाहाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं । ४- हा० टी० प० १६६ । ५- (क) अ० चू० पृ० १०४ : गिहवइणो इब्भावतो । (ख) हा० टी० प० १६६ : 'गृहपतीना' श्रेष्ठिप्रभृतीनाम् । ६ –उवा १.१३ : से णं आणंदे गाहावई बहूणं राईसर-तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय इन्भ-सेट्ठि सेणावई सत्थवाहाणं बहुसु कज्जैसु य कारणेय कुटुंबे य मंतेसु य गुज्भेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, सयस्स वि य णं कुटुंबस्स मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्या । ७-२० १० १० १०४ रहस्तावतारापुर अमात्यादयो। ८- (क) जि० चू० पृ० १७४ : रण्णो रहस्सट्ठाणाणि गिहवईणं रहस्तट्ठाणाणि आरविखयाणं रहस्तट्ठाणाणि, संकणादिदोसा भवति, चकारेण अण्गेवि पुरोहियादि गहिया, रहस्सट्ठाणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्तियं मंतेंति । (ख) हा० टी० ५० १६६ राजवत्यवेि 'गृहपतीनां श्रेष्ठप्रभृतीनां रहताठागमिति योग, 'आरक्षकाणां च' : दण्डनायकादीनां रहः स्थानं' ह्यापवरमन्त्रगृहादि । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा) २१३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक १७ टि०७३-७५ ७३. संक्लेश उत्पन्न हो ( संकिलेसकरं ग ) : रहस्य स्थानों में साधु क्यों न जाये इसका उत्तर इसी श्लोक में है । ये स्थान संक्लेशकर हैं अतः वर्जनीय हैं। गुह्य स्थान में जाने से साधु के प्रति स्त्रियों के अपहरण अथवा मंत्र-भेद करने का सन्देह होता है । सन्देश साधु का निग्रह किया जा सकता है अथवा उसे अन्य क्लेश पहुँचाये जा सकते हैं । व्यर्थ ही ऐसे संक्लेशों से साधु पीड़ित न हो, इस दृष्टि से ऐसे स्थानों का निषेध है। संक्लेश का अर्थ है- असमाधि । असमाधि दस प्रकार की है। श्लोक १७: ७४. श्लोक १७: इस श्लोक में भिक्षाचर्या के लिए गये हुए मुनि को किन-किन कुलों में प्रवेश नहीं करना चाहिए, इसका उल्लेख है। ७५. निदित कुल में ( पडिकुद ठकुलं क): __ 'प्रतिक्रु' शब्द निन्दित, जुगुप्सित और गहित का पर्यायवाची है । व्याख्याकारों के अनुसार प्रतिक्रुष्ट दो तरह के होते हैंअल्पकालिक और यावत्कालिक । मृतक और सूतक के घर अल्पकालिक-थोड़े समय के लिए प्रतिक्रुष्ट हैं । डोम, मातङ्ग आदि के घर यावत्कालिक --सर्वदा प्रतिक्रुष्ट हैं । आचाराङ्ग में कहा है-मुनि अजुगुप्सित और अहित कुलों में भिक्षा के लिए जाये। निशीथ में जुगुप्सनीय-कुल से भिक्षा लेने वाले मुनि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है। मुनियों के लिए भिक्षा लेने के सम्बन्ध में प्रतिक्रुध कुल कौन से हैं—इसका आगम में स्पष्ट उल्लेख नहीं है । आगमों में जुगुप्सित जातियों का नाम-निर्देश नहीं है। वहाँ केवल अजुगुप्सित कुलों का नामोल्लेख है। प्रतिष्ट कुल का निषेध कब और क्यों हुआ-इसकी स्पष्ट जानकारी सुलभ नहीं है, किन्तु इस पर लौकिक व वैदिक व्यवस्था का प्रभाव है, यह अनुमान करना कठिन नहीं है । टीकाकार प्रतिक्रुष्ट के निषेध का कारण शासन-लघुता बताते हैं। उनके अनुसार जुगुप्सित घरों से भिक्षा लेने पर जैन-शासन की लघुता होती है इसलिए वहाँ से भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। १-(क) अ० चू० पृ० १०४ : जत्थ इत्थीतो वा राति वा पतिरिक्कमच्छंति मंतंति वा तत्थ जदि अच्छति तो तेसि संकिलेसो भवति कि एत्थ समणयो अच्छति ? कत्तो त्ति वा ? मन्त्रभेदादि संकेज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७४ : भवणगएत्थ इत्थियाइए हियणढे संकणादिदोसा भवंति । (ग) हा० टी०प० १६६ : 'संक्लेशकरम्' असदिच्छाप्रवृत्या मंत्रभेदे वा कर्षणादिनेति । २-ठा० १०.१४ : दसविधा असमाधी पण्णत्ता, तं जहा-पाणातिवाते मुसावाए अविण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे इरियाऽसमिती भासाऽ समिती एसणाऽसमिती आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणाऽसमिती उच्चार-पासवण खेल-सिंघाणग-जल्ल-पारिट्ठावणियाऽसमिती। ३–अ० चू० पृ० १०४ : इदं तु भिक्खाए थाणमुवदिस्सति 'जतो मग्गियव्वा' ? ४ (क) अ० चू०प० १०४ : पडिकुठें निन्दितं, तं दुविहं-इत्तरियं आवकहियं च, इत्तरियं मयगसूतगादि, आवकहितं चंडालादी। (ख) जि० चू० पृ० १७४ : पडिकुठं दुविधं - इत्तिरियं आवकहियं च, इत्तिरियं मयगसूतगादी, आवकहियं अभोज्जा डोंब. मायंगादी। (ग) हा० टी० ५० १६६ : प्रतिक ष्टकुलं द्विविधम्--इत्वरं यावत्कथिकं च, इत्वरं सूतकयुक्तम्, यावत्कथिकम् अभोज्यम्। ५-आ० चू० ११२३ : से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा, गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविठे समाणे से जाइं पुण कुलाई जाणिज्जा, तं जहा, उग्गकुलाणि वा, भोगकुलाणि वा, राइण्णकुलाणि वा, खत्तियकुलाणि वा, इक्खागकुलाणि वा, हरिवंसकुलाणि वा, एसियकुलाणि वा, वेसियकुलाणि वा, गंडागकुलाणि वा, कोट्टागकुलाणि वा, गामरवखकुलाणि वा, पोक्कसालियकुलाणि बा, अण्णयरेसु वा तहप्यगारेसु कुलेसु अदुगंछिएसु अगरहिए सु असणं पाणं खाइमं साइमं वा फासुयं एसणिज्जं जाव मण्णमाणे लाभे संते पडिग्गाहेज्जा। ६-नि० १६.२७ : जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा...। ७-हा० टी०प० १६६ : एतन्न प्रविशेत शासनलघुत्वप्रसंगात् । Jain Education Intemational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक) नियुसिकार भद्रवाह इसे गणधर को मर्यादा बताते है शिष्य बीच में ही पूछ बैठता है-प्रतिकृष्ट कुल में जाने से किसी जीव का वध नहीं होता, फिर उसका निषेध क्यों ? इसके उत्तर में वे कहते हैं- जो मुनि जुगुप्सित कुल से भिक्षा लेता है उसे बोधि दुर्लभ होती है। २१४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक १७ टि० ७५ : आचाराद्ध में केवल भिक्षा के लिए जुगुप्सित और अजुगुप्सित कूल का विचार किया गया है। निशीथ में बस्ती आदि के लिए जुगुप्सित कुल का निषेध मिलता है । ओ नियुक्ति में दीक्षा देने के बारे में जुगुप्सित और अजुगुप्सित कुल का विचार किया गया है। इस अध्ययन से लगता है कि जैन-शासन जब तक लोकसंग्रह को कम महत्व देता था, तब तक उसमें लोक-विरोधी भावना क तत्व अधिक थे। जैन शासन में हरिकेशनल जैसे दवपाक और आर्द्रकुमार जैसे दीक्षा पाने के अधिकारी थे, किन्तु समय-परिवर्तन के साथसाथ ज्यों-ज्यों जैनाचार्य लोक-संग्रह में लगे, त्यों-त्यों लोक-भावना को महत्त्व मिलता गया । 1 जाति और कुल शायत नहीं होते। जैसे वे बदलते हैं से उनको स्थितियां भी बदलती है किसी देश काल में जो घृणित, तिरस्कृत या निन्दित माना जाता है वह दूसरे देश काल में वैसा नहीं माना जाता । ओघनियुक्ति में इस सम्बन्ध में एक रोचक संवाद है । शिष्य ने पूछा : “भगवन् ! जो यहां जुगुप्सित है वह दूसरी जगह जुगुप्सित नहीं है फिर किसे जुगुप्सित माना जाये ? किसे अजुगुप्सित ? और उसका परिहार कैसे किया जाये ?" इसके उत्तर में नियुक्तिकार कहते हैं: "जिस देश में जो जाति- कुल जुगुप्सित माना जाए उसे छोड़ देना चाहिए।" तात्पर्य यह है कि एक कुल किसी देश में जुगुप्सित माना जाता हो, उसे वर्जना चाहिए और यही कुल दूसरे देश में जुगुप्सित न माना जाता हो, वहाँ उसे वर्जना आवश्यक नहीं । अन्त में विषय का उपसंहार करते हुए वे कहते हैं, "वह कार्य नहीं करना चाहिए जिससे जैन-शासन का अयश हो, धर्म प्रचार में बाधा आये, धर्म को कोई ग्रहण न करे । श्रावक या नव-दीक्षित मुनि की धर्म से आस्था हट जाए, अविश्वास पैदा हो और लोगों में जुगुप्सा घृणा फैले । ७ इन कारणों से स्पष्ट है कि इस विषय में लोकमत को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। जैन दर्शन जातिवाद को तात्त्विक नहीं मानता इसलिए उसके अनुसार कोई भी कुल जुगुप्सित नहीं माना जा सकता । यह व्यवस्था वैदिक वर्णाश्रम की विधि पर आधारित है । १- ओ० नि० गा ४४० : ठवणा मिलक्युने अनियतधरं सहेब पडिक ।। एवं गणधर मेरं अहकमतो विराहेजा || २ ओ० नि० गा० ४४१ : आह-प्रतिक्रुष्टकुलेषु प्रविशतो न कश्चित् षड्जीववधो भवति किमर्थं परिहार इति ?, उच्चतेछक्कायदयावतोऽवि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहि । आहारे नीहारे दुगुछिए पिंडगहणे य ॥ ३ आ० चू० १।२३ ४ - नि० १६.२६ : जे भिक्खु दुगु छियकुलेसु वर्साहं पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति । ५- ओ० नि० गा० ४४३ : अट्ठारस पुरिसेसु वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पश्वावणाए एए दुगु छिया जिणवरमयंमि ॥ ६-- ओ० नि००४४२ ननु च ये इह जुगुप्सितास्ते चैवान्यगुप्तास्ततः कथं परिहरणं कर्तव्यम् ? उच्यते जे जहि दुर्गा छिया खलु पश्वावणवसहिभत्तपाणेसु । जिणवयणे पडिकुट्ठा वज्जेयव्वा पयत्तेणं ॥ ७- ओ० नि० गा० ४४४ : दोसेण जस्स असो आयासो पवयणे य अग्गहणं । विपरिणामो अपञ्चओ य कुच्छा य उप्पज्जे ॥ सर्वथा येन केनचित् 'दोषेण' निमित्तेन यस्य सम्बन्धिना 'अयश:' अश्लाघा 'आयासः' पीडा प्रवचने भवति, अग्रहणं वा विपरिणामो वा श्रावकस्य शैक्षकस्य वा तन्न कर्त्तव्यम्, तथाऽप्रत्ययो वा शासने येन भवति यदुर्ततेऽन्यथा वदन्ति अन्यथा कुर्वन्ति एवंविधोऽप्रत्ययो येन भवति तन्न कर्त्तव्यम् । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा ) २१५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १८ टि० ७६-७६ प्राचीन काल में प्रति क्रुट कुलों की पहचान इन बातों से होती थी—जिनका घर टूटी-फूटी बस्ती में होता, नगर के द्वार के पाम (बाहर या भीतर) होता और जिनके घर में कई विशेष प्रकार के वृक्ष होते वे कुल प्रतिकुष्प समझे जाते थे।' ७६. मामक ( गृह-स्वामी द्वारा प्रवेश निषिद्ध हो उस ) का ( मामगंज ) : जो गृहपति कहे--'मेरे यहाँ कोई न आये', उसके घर का । 'भिक्षु बुद्धि द्वारा मेरे घर के रहस्य को जान जायगा' आदि भावना से अथवा यह साधु अमुक धर्म का है ऐसे द्वेष या ईर्ष्या-भाव से ऐसा निषेध संभव है। निषिद्ध घर में जाने से भण्डनादि के प्रसङ्ग उपस्थित होते हैं अत: वहाँ जाने का निषेध है। ७७. अप्रीतिकर कुल में ( अचियत्तकुलं" ): किसी कारणवश गृहपति साधु को आने का निषेध न कर सके, किन्तु उसके जाने से गृहपति को अप्रेम उत्पन्न हो और उसके ( गृहपति के ) इंगित आकार से यह बात जान ली जाए तो वहाँ साधु न जाए । इसका दूसरा अर्थ यह भी है जिस घर में भिक्षा न मिले, कोरा आने-जाने का परिश्रम हो, वहाँ न जाए। यह निषेध, मुनि द्वारा किसी को संक्लेश उत्पन्न न हो इस दृष्टि से है। ७८. प्रीतिकर ( चियत्त ) : जिस घर में भिक्षा के लिए साधु का आना-जाना प्रिय हो अथवा जो घर त्याग-शील ( दान-शील ) हो उसे प्रीतिकर कहा जाता है। श्लोक १८: ७६. श्लोक १८: इस श्लोक में यह बताया गया है कि गोचरी के लिये निकला हुआ मुनि जब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने को उन्मुख हो तब वह क्या न करे। १-ओ० नि० गा० ४३६ : पडिकुट ठकुलाणं पुण पंचविहा थूभिआ अभिन्नाणं । भग्गघरगोपुराई रुक्खा नाणाविहा चेव ॥ २ ---(क) अ० चू० पृ० १०४ : 'मामकं परिवज्जए' 'मा मम घरं पविसन्तु' त्ति मामकः सो पुणपंतयाए इस्सालुयत्ताए वा । (ख) जि० चू० १० १७४ : मामयं नाम जत्य गिहपती भणति --सा मम कोई घरमपिउ, पन्नतणेण मा कोई मम छिडडं लहिहेति, इस्सालुगदोसेण वा। (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'मामक' यत्राऽऽह गृहपतिः—मा मम कश्चित् गृहमागच्छेत, एतद् वर्जयेत् भण्डनादिप्रसंगात् । ३-(क) अ० चू० पृ० १०४ : अच्चियत्तं अप्पितं, अणिट्ठो पवेसो जस्स सो अच्चियत्तो, तस्स जे कुलं तं न पविसे, अहवा ण चागो जत्थ पवत्तइ तं दाणपरिहीणं केवलं परिस्समकारी तं ण पविसे। (ख) जि० चू० पृ० १७४ : अचियत्तकुलं नाम न सक्केति वारेउ, अचियत्ता पुण पविसंता, तं च इगिएण णज्जति, जहा एयस्स साधुणो पविसंता अचियत्ता, अहवा अचियत्तकुलं जत्थ बहुणावि कालेण भिक्खा न लब्भइ, एतारिसेसु कुलेसु पविसंताणं पलिमंथो दोहा य भिक्खायरिया भवति । (ग) हा० टी० ५० १६६ : 'अचिअत्तकुलम्' अप्रीतिकुलं यत्र प्रविद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति, कुतश्चिन्नि मित्तान्तरात् एतदपि न प्रविशेत्, तत्सकलेशनिमित्तत्वप्रसंगात् । ४-(क) अ० चू० १० १०४ : चियत्तं इट्टणिक्खमणपवेसं चागसंपण्णं वा । (ख) जि. चू० पू०१७४ : चियत्तं नाम जत्थ चियत्तो निक्खमणपवेसो चागसील बा। Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ध गृहपति की आज्ञा लिए बिना ( ओग्गहं से अजाइया ) : ८०. २१६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक १८ टि०८०-८३ : यह पाठ दो स्थानों पर यहाँ और ६.१३ में है। पहले पाठ की टीका 'अवग्रहमयाचित्वा" और दूसरे पाठ की टीकाअब यस्य तत्समवावित्वा" है 'ओसि' को सप्तमी का एकवचन माना जाए तो इसका संस्कृत रूप 'अवग्रहे' बनेगा और यदि 'ओग्गहंस' ऐसा मानकर 'ओ हं' को द्वितीया का एकवचन तथा 'से' को षष्ठी का एकवचन माना जाए तो इसका संस्कृत रूप 'अवग्रहं तस्य' होगा । ८१. सन ( साणी) : 'शाणी' का अर्थ है – सन की छाल या अलसी का बना वस्त्र । ( पावार * ) : ८२. मृग-रोम के बने वस्त्र से कौटिल्य ने मृग के रोएँ से बनने वाले वस्त्र को प्रावरक कहा है । अगस्त्यचूर्णि में इसे सरोम वस्त्र माना हैं । चरक में स्वेदन के प्रकरण में प्रावार का उल्लेख हुआ है' । स्वेदन के लिए रोगी को चादर, कृष्ण मृग का चर्म, रेशमी चादर अथवा कम्बल आदि की विधि है । हरिभद्र ने इसे कम्बल का सूचक माना है । ८३. स्वयं न खोले ( अप्पणा नावपंगुरे ) : शाणी और प्रावार से आच्छादित द्वार को अपने हाथों से उद्घाटित न करे, न खोले । पूर्णिकार कहते हैं"हस्य शामी, प्रावार आदि से द्वार को ढांक विश्वस्त होकर पर में बैठते, खाते पीते और आराम करते हैं। उनकी अनुमति लिए बिना प्रावरण को हटा कोई अन्दर जाता है वह उन्हें अप्रिय लगता है और अविश्वास का कारण बनता है । वे सोचने लगते हैं यह बेचारा कितना दयनीय और लोकव्यवहार से अपरिचित है जो सामान्य उपचार को नहीं जानता। यों ही अनुमति लिए बिना प्रावरण को हटा अन्दर चला आता है" " ऐसे दोषों को ध्यान में रखते हुए मुनि चिक आदि को हटा अन्दर न जाए । १- हा० टी० प० : १६७ । २- हा० टी० प० : १६७ । ३ - ( क ) अ० चू० पृ० १०४ : सणो वक्कं पडी साणी । (ख) जि० चू० पृ० १७५ साणी नाम सणव+केहि विज्जइ अलसिमयी वा । (ग) हा० टी० प० १६६-६७ : शाणी अतसीबल्कजा पटी । ४- कौटि० अर्थ० : २.११.२६ । ५- अ० चू० पृ० १०४ कप्पासितो पडो सरोमो पावारतो । ६ - चरक० ( सूत्र स्था० ) १४.४६ : कौरवाजिनकौषेयप्रावाराद्यः सुसंवृतः । ७--- - हा० टी० प० १६७ : प्रावारः -- प्रतीतः कम्बल्याद्य ुपलक्षणमेतत् । ८ – (क) अ० चू० पृ० १०४ : तं सत्तं ण अवंगुरेज्ज । किं कारणं ? तत्थ खाण- पाण-सइरालाव- मोहणारम्भेहि अच्छंताणं अचियत्तं भवति तत एव मामकं लोगोववारविरहितमिति पांडेय जय जया भगति एते बद्दल्ला इव अग्लाह , रुभियव्वा । (ख) जि० चू० पृ० १७५ तं काउं ताणि गिहत्थाणि वीसत्थाणि अच्छंति, खायंति पियंति वा मोहंति वा, तं नो अपंगुरेज्जा, कि कारणं ? तेसि अत्तयं भव, जहा एते एसिल्लपि उक्यारं न याति जहा गावगुणियव्यं लोगसंयबहारबा हिरा वरागा, एवमादि दोसा भवंति । - हा० टी० [१०] १६७ अलौकिकत्वेन तदन्तर्गतभुजिक्रियाविकारिणां प्रद्वेषप्रसंगात् । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २१७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १६ टि०८४-८६ ८४. किवाड़ न खोले ( कवाडं नो पणोल्लेज्जा" ) : आचाराङ्ग में बताया है-घर का द्वार यदि काँटेदार झाड़ी की डाल से ढंका हुआ हो तो गृह-स्वामी की अनुमति लिए बिना, प्रतिलेखन किए बिना, जीव-जन्तु देखे बिना, प्रमार्जन किए बिना, उसे खोलकर भीतर न जाए। भीतर से बाहर न आए। पहले गृहपति की आज्ञा लेकर, काँटे की डाल को देखकर (साफ कर) खोले, फिर भीतर जाए-आए' । इसमें किवाड़ का उल्लेख नहीं है। शाणी, प्रावार और कंटक-वोदिका (कांटों की डाली) से ढंके द्वार को आज्ञा लेकर खोलने के बारे में कोई मतभेद नहीं जान पड़ता । किवाड़ के बारे में दो परम्पराएँ हैं --एक के अनुसार गृहपति की अनुमति लेकर किवाड़ खोले जा सकते हैं। दूसरी के अनुसार गृहपति की अनुमति लेकर प्रावरण आदि हटाए जा सकते हैं, किन्तु किवाड़ नहीं खोले जा सकते। पहली परम्परा के अनुसार 'ओग्गहं सि अजाइया' यह शाणी, प्रावार और किवाड़ -इन तीनों से सम्बन्ध रखता है। दूसरी परम्परा के अनुसार उसका सम्बन्ध केवल 'शाणी' और 'प्रावार' से है, 'किवाड़' से नहीं । अगस्त्यसिंह स्थविर ने प्रावरण को हटाने में केवल व्यावहारिक असभ्यता का दोष माना है और किवाड़ खोलने में व्यावहारिक असभ्यता और जीव-वध-ये दोनों दोष माने हैं। हरिभद्र ने इसमें पूर्वोक्त दोष बतलाए हैं तथा जिनदास ने वे ही दोष विशेष रूप से बतलाए हैं जो बिना आज्ञा शाणी और प्रावार को हटाने से होते हैं। श्लोक १६: ८५. श्लोक १६: गोचरी के लिए जाने पर अगर मार्ग में मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो मुनि क्या करे, इसकी विधि इस श्लोक में बताई गई है। ८६. मल-मूत्र की बाधा को न रखे ( वच्चमुत्तं न धारएल ): साधारण नियम यह है कि गोचरी जाते समय मुनि मल-मूत्र की बाधा से निवृत्त होकर जाए। प्रमादवश ऐसा न करने के कारण अथवा अकस्मात् पुनः बाधा हो जाए तो मुनि उस बाधा को न रोके । मूत्र के निरोध से चक्ष में रोग उत्पन्न हो जाता है... नेव-शक्ति क्षीण हो जाती है । मल की बाधा रोकने से तेज का नाश होता है, कभी-कभी जीवन खतरे में पड़ जाता है । वस्त्र आदि के बिगड़ जाने से अशोभनीय बात घटित हो जाती है । मल-मूत्र की बाधा उपस्थित होने पर साधु अपने पात्रादि दूसरे श्रमणों को देकर प्रासुक-स्थान की खोज करे और वहाँ मल-मूत्र की बाधा से निवृत्त हो जाए। जिनदास और वृद्ध-सम्प्रदाय की व्याख्या में विसर्जन की विस्तृत विधि को ओघनियुक्ति से जान लेने का निर्देश किया गया है। वहाँ इसका वर्णन ६२१-२२-२३-२४--इन चार श्लोकों में हुआ है । १--आ० चू० १।५४ : से भिक्खू वा भिक्खूणि वा गाहावइकुलस्स दुवारबाहं कंटकबोंदियाए पडिपिहियं पेहाए, तेसि पुवामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो अवंगुणिज्ज वा, पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा। तेसि पुवामेव उग्गहं अणुन्नविय पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय तओ संजयामेव अवंगुणिज्ज वा, पविसेज्ज वा, णिक्खमेज्ज वा। २ --- अ० चू० पृ० १०४ : तहा कवाडं जो पणोलेज्जा, कवाडं दारप्पिहाणं तं ण पणोलेज्जा तत्थ त एव दोसा यंत्रे य सत्तवहो । ३-हा० टी० ५० १६७ : 'कपाटं' द्वारस्थगनं 'न प्रेरयेत्' नोद्घाटयेत्, पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । ४-- जि. चू० पृ० १७५ : कवाडं साहुणा णो पणोल्लेयव्वं, तत्थ पुत्वभणिया दोसा सविसेसयरा भवंति, एवं उग्गहं अजाइया पविसंतस्स एते दोसा भवंति।। ५- (क) जि० चू० पृ० १७५ : पुचि चेव साधुणा उवओगो कायक्वो, सण्णा वा काइया वा होज्जा णवत्ति वियाणिऊण पविसि यन्वं, जइ वावडयाए उवयोगो न कओ कएवि वा ओतिण्णस्स जाया होज्जा ताहे भिक्खायरियाए पविट्ठण वच्चमुत्तं न धारेयव्वं, कि कारणं ? मुत्तनिरोघे चक्खुवाघाओ भवति, वच्चनिरोहे य तेयं जीवियमवि रु धेज्जा, तम्हा वच्चम्मुत्तनिरोधो न कायव्वोत्ति, ताहे संघाडयस्स भायणाणि (दाऊण) पडिस्सयं आगच्छित्ता पाणयं गहाय सण्णाभूमि गंतूण फासुयमवगासे उग्गहमणुण्णावेऊण वोसिरियव्वंति । वित्थारो जहा ओहनिज्जुत्तीए । Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) २१८ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २०-२१ टि० ८७-६० अगस्त्यसिंह स्थविर ने इस श्लोक की व्याख्या में एक बहुत ही उपयोगी गाथा उद्धृत की है --"मूत्र का वेग रोकने से चक्षु की ज्योति का नाश होता है । मल का वेग रोकने से जीवनी-शक्ति का नाश होता है। ऊर्ध्व-वायु रोकने से कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है और वीर्य का वेग रोकने से पुरुषत्व की हानि होती है । ८७. प्रासुक-स्थान ( फासुयं ग ) : इसका प्रयोग ५.१.१६,८२ और ६६ में भी हुआ है । प्रस्तुत श्लोक में टीकाकार ने इसकी व्याख्या नहीं की है, किन्तु ८२वें श्लोक में प्रयुक्त 'फासुय' का अर्थ बीज आदि रहित और ६६वें श्लोक की व्याख्या में इसका अर्थ निर्जीव किया है । बौद्ध साहित्य में भी इसका इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । जैन-साहित्य में प्रासुक स्थान, पान-भोजन आदि-आदि प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। _ 'निर्जीव'---यह प्रासुक का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है । इसका प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ निर्दोष या विशुद्ध होता है। श्लोक २०: ८८. श्लोक २०: साधु कैसे घर में गोचरी के लिए जाये इसका वर्णन इस श्लोक में है। ८६. निम्न-द्वार वाले ( नीयदुवारं क ): जिसका निर्गम-प्रवेश-मार्ग नीच-निम्न हो। वह घर या कोठा कुछ भी हो सकता है । निम्न द्वार वाले तथा अन्धकारपूर्ण कोठे का परिवर्जन क्यों किया जाए ? इसका आगम गत कारण अहिंसा की दृष्टि है । न देख पाने से प्राणियों की हिंसा संभव है । वहाँ ईर्या-समिति की शुद्धि नहीं रह पाती। दायकदोष होता है । श्लोक २१: १०. श्लोक २१: मुनि कैसे घर में प्रवेश न करे इसका वर्णन इस श्लोक में है। (ख) हा० टी० ५० १६७ : अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः, स चायम्-पुवमेव साहुणा सन्नाकाइओवयोगं काऊण गोअरे पविसिअन्वं, कहिवि ण कओ कए वा पुणो होज्जा ताहे वच्चमुत्तण धारेअव्वं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवाघाओ भवति, वच्चनिरोहे जीविओवधाओ, असोहणा अ आयविराहणा, जओ भणिअं-'सव्वत्थ संजम'मित्यादि, अओ संघाडयस्स सयभायणाणि समप्पिा पडिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरिज्जा । वित्थरओ जहा ओहणिज्जुत्तीए । १---अ० चू० पृ० १०५ : मुत्तनिरोहे चक्खू वच्चनिरोहे य जीवियं चयति । उड्ढनिरोहे कोढं सुक्कनिरोहे भवे अपुमं ।। [ओ.नि.१५७] २-हा० टी० पृ० १७८ : 'प्रासुकं' बीजादिरहितम् । ३-हा० टी० ५० १८१ : प्रासुक' प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः । ४.- (क) महावग्गो ६.१.१ पृ० ३२८ : भिक्खू फासु विहरेय्यं । (ख) महावग्गो : फासुकं वस्सं वसेयाम । ५-(क) अ० चू० पृ० १०५ : णोयं दुवारं जस्स सो णीयदुवारो, तं पुण फलिहयं वा कोद्रुतो वा जओ भिक्खा नीणिज्जति । पलिहतदुवारे ओणतकस्स पडिमाए हिडमाणस्स खद्धवेउब्वियाति उड्डाहो। (ख) जि० चू० पृ० १७५ : णीयदुवारं दुविहं-वाउडियाए पिहियस्स वा। (ग) हा० टी० ५० १६७ : 'नीचद्वारं'–नीचनिर्गमप्रवेशम् । ६-(क) अ० चू० पृ० १०५ : दायगस्स उक्खेवगमणाती ण सुज्झति । (ख) जि० चू० पृ० १७५ : जओ भिक्खा निक्कालिज्जइ तं तमसं, तत्य अचक्खुविसए पाणा दुक्खं पच्चुवेक्खिज्जंतित्ति काउं नीयदुवारे तमसे कोट्टओ वज्जेयब्यो । (ग) हा० टी० ५० १६७ : ईर्याशुद्धिर्न भवतीत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २१६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २२ टि० ६१-६४ ११. तत्काल का लीपा और गीला ( अहणोवलित्तं उल्लंग ) : तत्काल के लीपे और गीले आँगन में जाने से सम्पातिम सत्त्वों की विराधना होती है । जलकाय के जीवों को परिताप होता है । इसलिए उसका निषेध किया गया है। तुरन्त के लीपे और गीले कोष्ठक में प्रवेश करने से आत्म-विराधना और संयम-विराधना-ये दोनों होती हैं। श्लोक २२: ६२. श्लोक २२: पूर्व की गाथा में आहार के लिए गये मुनि के लिए सूक्ष्म जीवों की हिंसा से बचने का विधान है । इस गाथा में बादरकाय के जीवों की हिंसा से बचने का उपदेश है । ६३. भेड़ ( एलगंक ): पूर्णिकार 'एलग' का अर्थ 'बकरा' करते हैं । टीकाकार, दीपिकाकार और अवघूरीकार इसका अर्थ 'मेष' करते हैं। हो सकता है-एलग का सामयिक ( आगमिक ) अर्थ बकरा रहा हो अथवा संभव है वुर्णिकारों के सामने 'छेलओ' पाठ रहा हो । 'छेलओ' का अर्थ छाग है। १४. प्रवेश न करे ( न पविसे ग ) : भेड़ आदि को हटाकर कोष्ठक में प्रवेश करने से आत्मा और संयम दोनों की विराधना तथा प्रवचन की लघुता होती है । मेष आदि को हटाने पर वह सींग से मुनि को मार सकता है। कुत्ता काट सकता है । पाड़ा मार सकता है । बछड़ा भयभीत होकर बन्धन को तोड़ सकता है और बर्तन आदि फोड़ सकता है । बालक को हटाने से उसे पीड़ा उत्पन्न हो सकती है । उसके परिवार वालों में उस साधु के प्रति अप्रीति होने की संभावना रहती है । बालक को स्नान करा, कौतुक ( मंगलकारी चिन्ह ) आदि से युक्त किया गया हो उस स्थिति में बालक को हटाने से उस बालक के प्रदोष--अमङ्गल होने का लांछन लगाया जा सकता है । इस प्रकार एलक आदि को लांघने या हटाने से शरीर और संयम दोनों की विराधना होने की संभावना रहती है । १-(क) अ० चू० पृ० १०५ : उवलित्तमेत्ते आउक्कातो अपरिणतो निस्सरणं वा दायगस्स होज्जा अतो तं ( परि ) वज्जए। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : संपातिमसत्तविराहणत्थं परितावियाओ वा आउक्काओत्तिकाउं वज्जेज्जा। (ग) हा० टी० ५० १६७ : संयमात्मविराधनापत्तेरिति । २- अ० चू० पृ० १०४ : सुहुमकायजयणाणंतरं बादरकायजयणोवदेस इति फुडमभिधीयते । ३-- (क) अ० चू० पृ० १०५ : एलओ बक्करओ। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : एलओ छागो। ४-हा० टी० ५० १६७ : 'एडकं' मेषम् । ५-दे० ना० ३.३२ : छागम्मि छलओ। ६-हा० टी०प० १६७ : आत्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाच्चेति सूत्रार्थः । ७- (क) अ० चू० पृ० १०५ : एत्थ पच्चवाता-एलतो सिंगेण फेट्टाए वा आहणेज्जा । दारतो खलिएण दुक्खवेज्जा, सयणो वा से अपत्तिय-उप्फोसण-कोउयादीणि पडिलग्गे वा गेण्हणातिपसंगं करेज्जा । सुणतो खाएज्जा । वच्छतो वितत्थो बंधच्छेय भायणातिभेदं करेज्जा । वियूहणे वि एते चेव सविसेसा । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : पेल्लिओ सिंगेहिं आहणेज्जा, पडु वा वहेज्जा, दारए अप्पत्तियं सयणो करेज्जा, उप्फासण्हाणको उगाणि वा, पदोसेण वा पंताविज्जा, पडिभग्गो वा होज्जा ताहे भणेज्जा-समणएण ओलंडिओ एवमादी दोसा, सुणए खाएज्जा, वच्छओ आहणेज्जा वित्तसेज्ज वा, वितत्थो आयसजमविराहणं करेज्जा, विऊहणे ते चेव दोसा, अण्णे य संघट्टणाइ, चेडरूवस्स हत्थादी दुक्खावेज्जा एवमाइ दोसा भवंति । Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) __२२० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २३ टि० ६५-६७ श्लोक २३: ६५. श्लोक २३: इस श्लोक में बताया गया है कि जब मुनि आहार के लिए घर में प्रवेश करे तो वहाँ पर उसे किस प्रकार दृष्टि-संयम रखना चाहिए। ६६. अनासक्त दृष्टि से देखे ( असंसत्तं पलोएज्जा क ): स्त्री की दृष्टि में दृष्टि गड़ाकर न देखे अथवा स्त्री के अंग-प्रत्यंगों को निनिमेष दृष्टि से न देखे। आसक्त दृष्टि से देखने से ब्रह्मचर्य-व्रत पीड़ित होता है-क्षतिग्रस्त होता है। लोक आक्षेप करते हैं - 'यह श्रमण विकार-ग्रस्त है।' रोगोत्पत्ति और लोकोपघात... इन दोनों दोषों को देख मुनि आसक्त दृष्टि से न देखे । मुनि जहाँ खड़ा रहकर भिक्षा ले और दाता जहाँ से आकर भिक्षा दे-वे दोनों स्थान असंसक्त होने चाहिए—त्रस आदि जीवों से समुपचित नहीं होने चाहिए। इस भावना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है कि मुनि असंसक्त स्थान का अवलोकन करे । यह अगस्त्यचूणि की व्याख्या है । 'अनासक्त दृष्टि से देखे' यह उसका वैकल्पिक अर्थ है। ६७. अति दूर न देखे ( नाइदूरावलोयए ख ): मुनि वहीं तक दृष्टि डाले जहाँ भिक्षा देने के लिए वस्तुएँ उठाई-रखी जाएं । वह उससे आगे दृष्टि न डाले। घर के दूर कोणादि पर दृष्टि डालने से मुनि के सम्बन्ध में चोर, पारदारिक आदि होने की आशंका हो सकती है। इसलिए अति दूर-दर्शन का निषेध किया गया है। अगस्त्य-चूणि के अनुसार अति दूर स्थित साधु चींटी आदि जन्तुओं को देख नहीं सकता। अधिक दूर से दिया जाने वाला आहार अभिहृत हो जाता है, इसलिए मुनि को भिक्षा देने के स्थान से अति दूर स्थान का अवलोकन नहीं करना चाहिए-खड़ा नहीं रहना चाहिए । अति दूर न देखे ---यह उसका वैकल्पिक रूप है । १-(क) जि० चू० पृ० १७६ : असंसत्तं पलोएज्जा नाम इत्थियाए दिछि न बंधेज्जा, अहवा अंगपच्चंगाणि अणिमिस्साए दिछीए न जोएज्जा। (ख) हा० टी० ५० १६८ : 'असंसक्तं प्रलोकयेत्' न योषिद् दष्टेष्टि मेलयेदित्यर्थः । २-(क) जि. चु०प्र० १७६ : किं कारणं?, जेण तत्थ बंभवयपीला भवइ, जोएंतं वा दळूण अविरयगा उडाहं करेज्जा-पेच्छह समणयं सवियारं। (ख) हा० टी० ५० १६८ : रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात् । ३--अ० चू० पृ० १०६ : संसत्तं तसपाणातीहि समुपचित्तं न संसत्तं असंसत्तं, तं पलोएज्ज, जत्थ ठितो भिक्ख गेण्हति दायगस्स वा आगमणातिसु..... . . . . . . . . . 'अहवा असंसत्तं पलोएज्जा बंभवयरक्खणत्थं इत्थीए दिठ्ठीए दिट्ठि अंगपच्चंगेसु वा ण संसत्तं अणुबंधेज्जा, ईसादोसपसंगा एवं संभवंति । ४- (क) जि. चू० प० १७६ : तावमेव पलोएइ जाव उक्खेवनिक्खेवं पासई । (ख) हा० टी० ५० १६८ : 'नातिदूरं प्रलोकयेत्'-दायकस्यागमनमात्रदेशं प्रलोकयेत् । ५-(क) जि० चू० पृ० १७६ : तओ परं घरकोणादी पलोयंत दळूण संका भवति, किमेस चोरो पारदारिओ वा होज्जा ? एव मादि दोसा भवंति । (ख) हा० टी० ५० १६८ : परतश्चौरादिशङ्कादोषः । ६–अ० चू० १० १०६ : तं च णातिदूरावलोयए अति दूरत्थो पिपीलिकादीणि ण पेक्खत्ति, अतो तिघरतरा परेण घरतरं भवति पाणजातियरक्खणं ण तीरति ति ..........." (अहवा) णातिदूरगताए वत्तससणिद्धादीहत्यमत्तावलोयणमसंसत्ताए दिट्ठीए करणीयं । Jain Education Intemational Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डषणा ) २२१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक २४ टि०६८-१०२ ६८. उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे ( उप्फुल्लं न विणिज्झाए " ): विकसित नेत्रों से न देखे - औत्सुक्यपूर्ण नेत्रों से न देखे । स्त्री, रत्न, घर के सामान आदि को इस प्रकार उत्सुकतापूर्वक देखने से गृहस्थ के मन में मुनि के प्रति लघुता का भाव उत्पन्न हो सकता है । वे यह सोच सकते हैं कि मुनि वासना में फंसा हुआ है । लाघव दोष को दूर करने के लिए यह निषेध है। 88. बिना कुछ कहे वापस चला जाये ( नियटेज्ज अयंपिरो घ ): घर में प्रवेश करने पर यदि गृहस्थ प्रतिषेध करे तो मुनि घर से बाहर चला आये । इस प्रकार भिक्षा न मिलने पर वह बिना कुछ कहे – निदात्मक दीन वचन अथवा कर्कश बचन का प्रयोग न करते हुए -- मौन भाव से वहाँ से चला आये --यह जिनदास और हरिभद्र सूरि का अर्थ है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने -भिक्षा मिलने पर या न मिलने पर ----इतना विशेष अर्थ किया है। _ 'शीलाद्यर्थस्येर:'3 इस सूत्र से 'इर' प्रत्यय हुआ है । संस्कृत में इसके स्थान पर 'शीलाद्यर्थे तृन' होता है । हरिभद्र सूरि ने इसका संस्कृत रूप 'अजल्पन्' किया है। श्लोक २४: १००. श्लोक २४ आहार के लिए गृह में प्रवेश करने के बाद साधु कहाँ तक जाये इसका नियम इस श्लोक में है। १०१. अतिभूमि (अननुज्ञात) में न जाये ( अइभूमि न गच्छेज्जा क ) : गृहपति के द्वारा अननुज्ञात या वजित भूमि को 'अतिभूमि' कहते है । जहाँ तक दूसरे भिक्षाचर जाते हैं वहाँ तक की भूमि अतिभूमि नहीं होती । मुनि इस सीमा का अतिक्रमण कर आगे न जाये । १०२. कुल-भूमि (कुल-मर्यादा) को जानकर ( कुलस्स भूमि जाणित्ता ) : जहाँ तक जाने में गृहस्थ को अप्रीति न हो, जहाँ तक अन्य भिक्षाचर जाते हों उस भूमि को कुल-भूमि कहते हैं५ । इसका निर्णय ऐश्वर्य, देशाचार, भद्रक-प्रान्तक आदि गृहस्थों की अपेक्षा से करना चाहिए। १- (क) अ० चू० पृ० १०६ : उप्फुल्लं ण विणिज्झाए, उप्फुल्लं उधुराए विट्ठीए, 'फुल्ल विकसणे' इति हास विगसंततारिगं ण विणिज्झाए ण विविधं पेक्खेज्जा, दिट्ठीए विनियट्टणमिदं । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : उप्फुलं नाम विगसिएहि णयणेहि इत्थीसरीरं रयणादी वा ण निज्झाइयव्वं । (ग) हा० टी० ५० १६८ : 'उत्फुल्ल' विकसितलोचनं 'न विणिज्झाए' ति न निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्टकल्याण इति लाधवोत्पत्तेः। २-(क) अ० चू० १० १०६ : वाताए वि 'णियट्टेज्ज अयंपुरो' दिण्णे परियंदणेण अदिण्णे रोसवयहि ....... "एवमादीहि अज पणसीलो 'अयंपुरो' एवंविधो णियट्टे ज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : जदा य पडिसेहिओ भवति तदा अयंपिरेण णियत्तियव्वं, अज्झखमागेणति वुत्तं भवति । (ग) हा० टी० ५० १६८ : तथा निवर्तेत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन् –दीनवचनमनुच्चारयन्निति । ३-हैम० ८.२.१४५ । ४ - (क) अ० चू० पृ० १०६ : भिक्खयरभूमिअतिक्कमणमतिभूमी तं ण गच्छेज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : अणणुण्णाता भूमी . . . . . . . . . . 'साहू न पविसेज्जा। (ग) हा० टी० ५० १६८ :अतिभूमि न गच्छेद् – अननुज्ञातां गृहस्थैः, यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः । ५-(क) अ० चू० पृ० १०६ : किं पुण भूमिपरिमाणं? इति भण्णति तं विभव-देसा-आयार-भद्दग-पतंगादीहि 'कुलस्स भूमि णाऊण' पुवपरिक्कमणेणं अण्णे वा भिक्खयरा जावतियं भूमिमुपसरंति एवं विग्णातं । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : केवइयाए पुण पविसियन्वं ?,.......... 'जत्थ तेसि गिहत्याणं अप्पत्तियं न भवइ, जत्थ अण्णेवि भिक्खायरा ठायंति। Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) लाख का गोला अग्नि पर चढ़ाने से पिघल जाता है और उससे अति दूर रहने पर वह रूप नहीं पा सकता। इसी प्रकार गृहस्थ के घर से दूर रहने पर मुनि को भिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती, एपणा की भी शुद्धि नहीं हो पाती और अत्यन्त निकट चले जाने पर अप्रीति या सन्देह उत्पन्न हो सकता है। अतः यह कुल की भूमि ( भिक्षा लेने की भूमि) को पहले जान ले" । १०३. मित-भूमि (अनुज्ञात) में प्रवेश करे ( मियं भूमि परक्कमे घ ) : गृहस्थ के द्वारा अनुज्ञात-अवर्जित भूमि को मित-भूमि कहते हैं । यह नियम अप्रीति और अविश्वास उत्पन्न न हो इस दृष्टि से हैं। इलोक २५ १०४. श्लोक २५ मित-भूमि में जाकर साधु कहाँ और कैसे खड़ा रहे इसकी विधि प्रस्तुत श्लोक में है । २२२ अध्ययन ५ १०५. विचक्षण मुनि (वियक्खणो ख ) : विचक्षण का अर्थ गीतार्थ या शास्त्र - विधि का जानकार है। अगीतार्थ के लिए भिक्षाटन का निषेध है। भिक्षा उसे लानी चाहिए जो शास्त्रीय विधिनिषेधों और लोक व्यवहारों को जाने, संयम में दोष न आने दे और शासन का लाघव न होने दे | १०६. मित-भूमि में हो ( तत्थेव क ) : मितभूमि में भी न हो इस बात का उपयोग लगाये कि वहाँ कहाँ खड़ा हो और कहाँ न बड़ा हो वह उचित स्थान को देखे । साधु मित-भूमि में कहाँ खड़ा न हो इसका स्पष्टीकरण इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में आया है। १०७. शौच का स्थान ( वच्चस्स ): जहाँ मल और मूत्र का उत्सर्ग किया जाए वे दोनों स्थान 'वर्चस्' कहलाते हैं । १ (क) अ० चू० पृ० ८ गोले त्ति गहणेसणाए अतिभूमीगमणणिरोहत्थं भष्णति जतुगोलमणया कातव्वा, जतुगोलतो अग्गिनारोचितो विधिरति दूरस्यो असंत तो एवं निम्बति साहू विदूरत्वो सोहेति यति भवति कि या सहा कुल भूमि न लभति एवं वान (ख) हा० टी० प० १६ : जह जउगोलो अगणिस्स, सक्कइ काऊन तहा, दूरे असणाऽयं सचाइ, लम्हा भयभूमीए मतं भूमि मि भूमि ( प्र० उ०) श्लोक २५ टि०१०३-१०७ २ (क) अ० ० ० १०६ (ख) जि० चू० पृ० १७७ जत्थ इमाई न दोसंति । गाइदूरे ण आवि आसन्ने । संजमगोलो गिहत्याणं || इयम्मि तेणसंकाइ । चिट्ठिज्जा गोयरग्गओ || २ (क) अ० ० पृ० १०६ (ख) हा० टी० १० १६० (ग) जि० चू० पृ० १७७: मियं नाम अणुन्नायं परक्कमे नाम पविसेज्जा । ३ हा० टी० १० १६५ वयमप्रतिनजायत इति सूत्रार्थः । में बुद्धीए संपेहितं सच्चदोसमुद्र तायतियं पविसेज्जा । रात पराक्रमेत् । ४ – (क) अ० चू० पृ० १०६ : 'वियक्खणों' पराभिप्पायजाणतो, कहि चियत्तं ण वा ? विसेसेण पवयणोवघातरक्खणत्थं । (ख) हा० डी० [१०] १६५ विवक्षणों' विहान अनेन केवल गीतार्थस्यानप्रतिषेधमाह । 1 समेति ताए मिलाए भूमीए एक्लो अबधारणे किमवधारयति ? पृथ्बुदि कुलपुरुवं । तत्तियाए मियाए भूमीए उवयोगो कायश्वो पंडिएण, कत्थ ठातियव्वं कत्थ न वत्ति, तत्थ ठातियव्वं (ग) हा० डी० प० १६० ''तस्यामेव मिता भूमी ६ - ( क ) अ० चू० पृ० १०६ : 'वच्च' अमेज्भं तं जत्थ । पंचप ( ? पसु-पं) डगादिसमीवथाणादिसु त एव दोसा इति । (ख) जि० चू० पृ० १७७ : वच्चं नाम जत्थ वोसिरति कातिकाइसन्नाओ । (ग) हा० टी० प० १६८ : 'वर्चसो' विष्टायाः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेपणा ) १०८. दिखाई पड़े उस भूमि-भाग का ( संलोगं घ ) : 'संलोक' शब्द का सम्बन्ध स्नान और वर्चस् दोनों से है । 'लोक' संदर्शन अर्थात् जहाँ खड़ा होने से मुनि को स्नान करती हुई या मल विसर्जन करती हुई स्त्री दिखाई दे अथवा वही साधु को देख सके' । स्नान गृह और शौच-गृह की ओर दृष्टि डालने से शासन की लघुता होती है अविश्वास होता है और नग्न शरीर के अवलोकन से काम-वासना उभरती है । यहाँ आत्म-दोष और पर दोष – ये दो प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां सोचती हैं हम मातृवर्ग जहाँ स्नान करती हैं उस ओर यह काम विह्वल होकर ही देख रहा है। यह पर सम्बन्धी दोष है। अनावृत स्त्रियों को देखकर मुनि के चरित्र का भंग होता है । यह आत्म-सम्बन्धी दोष है। ये ही दोष वर्चस्-दर्शन के हैं । मुनि इन दोषों को ध्यान में रख इस नियम का पालन करे । श्लोक २६ : १०६. इलोक २६ भिक्षा के लिए मिल-भूमि में प्रविष्ट सा कहां खड़ा न हो, इसका कुछ और उल्लेख इस लोक में है। ११०. सर्वेन्दिय समाहित मुनि ( सव्विदियसमाहिए ) : जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से आक्षिप्त - आकृष्ट न हो, उसे सर्वेन्द्रिय-समाहित कहा जाता है अथवा जिसकी सब इन्द्रियाँ समाहित हों अंतर्मुखी हों, वाह्य विषयों से विरत होकर आत्मलीन बन गई हों, उसे समाहित सर्वेन्द्रिय कहा जाता है जो मुनि सर्वेन्द्रिय समाधि से संपन्न होता है, वही अहिंसा का सूक्ष्म विवेक कर सकता है । १११. मिट्टी ( मट्टिय क ) : अटवी से लाई गई सचित्त सजीव मिट्टी । २२३ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक २६ टि० १०५-११२ : क ११२. लाने के मार्ग ( आयाणं *) ): आदान अर्थात् ग्रहण। जिस मार्ग से उदक, मिट्टी आदि ग्रहण की जाती लाई जाती हो वह मार्ग । हरिभद्र ने 'आदान' को उदक और मिट्टी के साथ ही सम्बन्धित रखा है सम्बन्ध जोड़ा है" । १ (क) अ० चू० पृ० १०६ : 'लोगो' जत्थ एताणि आलोइज्जंति तं परिवज्जए । (ख) जि० चू० पृ० १७७ : आसिणाणस्ससंलोयं परिवज्जए, सिणाणसंलोगं वच्चसंलोगं व ते वा तं पासंति । जबकि जिनदास ने हरियाली आदि के साथ भी उसका (ग) हा० टी० ५० १६० स्वानभूमिका पिकाविभूमिदर्शनम् । २- हा० टी० प० १६८ प्रवचनलाघवप्रसङ्गात्, अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच्च रागादिभावात् । ३ - जि० चू० पृ० १५७ तत्थ आयपरसमुत्था दोसा भवंति, जहा जत्थ अम्हे पहाओ जत्थ य मातिवग्गो अहं व्हायइ तमेसो परिभवमाणो कामेमाणो वा एत्थ ठाइ, एवमाई परसमुत्था दोसा भवंति, आयसमुत्था तस्सेव व्हायंतिओ अवाउडियाओ अविरतियाओ चरितमेवादी बोसा भयंति वयं नाम जत्व वोसिरति कालिकाइसन्नाओ, तस्सवि संलोगं वज्जेय आय परसमुत्यादोसा पणविरहणाय भवति । ४ (क) अ० ० ० १०७ : (ख) जि० पू० पृ० १७७ (ग) हा० टी० प० १६८ ७ - 60 ५- (क) अ० चू० पृ० १०७ : 'मट्टिया' सच्चित्त पुढविक्कायो सो जत्थ अधुणा आणीयो । (ख) जि०० पृ० १७० मट्टिया अडीओ सविता आणीया । fuo ६ - अ० चू० पृ० १०७ : जत्थ जेण वा थाणेण उदगमट्टियाओ गेव्हंति तं दगमट्टियाणं । सविधिसमाहित सरह दिएहि एएस परिहरणे सम्म आहित समाति। सचिदिपसमाहितो नाम तो स्वाहि अस्ति। सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिभिरनाक्षिप्तचित्त इति । "संलोगं जत्थठिएण हि दीसंति, (क) जि० ० पृ० १७७ आदाणं नाम महणं, जेण ममेयंतूण वगमट्टियरियाचीणि घेण्यंति तं दयमट्टियआवा भगद । (ख) हा० डी० १० १६० आदीयतेऽनेनेत्यादानोमार्ग, उदकमृत्तिकाननमार्गमित्यर्थः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २२४ अध्ययन ५ (प्र०उ०) : श्लोक २७ टि० ११३-११५ ११३. हरियाली ( हरियाणि ख ): यहाँ हरित शब्द से समस्त प्रकार के वृक्ष, गुच्छादि, घासादि वनस्पति-विशेष का ग्रहण समझना चाहिए । श्लोक २७ : ११४. श्लोक २७ : अब तक के इलोकों में आहारार्थी मनि स्व-स्थान से निकलकर गृहस्थ के घर में प्रवेश करे, वहाँ कैसे स्थित हो, इस विधि का उल्लेख है । अब वह क्या ग्रहण करे और क्या ग्रहण नहीं करे, इसका विवेचन आता है। जो कालादि गुणों से शुद्ध है, जो अनिष्ट कुलों का वर्जन करता है, जो प्रीतिकारी कुलों में प्रवेश करता है, जो उपदिष्ट स्थानों में स्थित होता है और जो आत्मदोषों का वर्जन करता है उस मुनि को अब दायक-शुद्धि की बात बताई जा रही है। ११५. ( अकप्पियं ग..कप्पियंघ ) : शास्त्र-विहित, अनुमत या अनिषिद्ध को 'कल्पिक' या 'कल्प्य' और शास्त्र-निषिद्ध को 'अकल्पिक' या 'अकल्प्य' कहा जाता है। 'कल्प' का अर्थ है--नीति, आचार, मर्यादा, विधि या सामाचारी और 'कल्प्य' का अर्थ है --नीति आदि से युक्त ग्राह्य, करणीय और योग्य । इस अर्थ में 'कल्पिक' शब्द का भी प्रयोग होता है। उमास्वाति के शब्दों में जो कार्य ज्ञान, शील और तप का उपग्रह और दोषों का निग्रह करता है वही निश्चय-दृष्टि से 'कल्प्य' है और शेष 'अकल्प्य'५ । उनके अनुसार कोई भी कार्य एकान्तत: 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' नहीं होता। जिस 'कल्प्य' कार्य से सम्यक्त्व, ज्ञान आदि का नाश और प्रवचन की निंदा होती हो तो वह 'अकल्प्य' भी 'कल्प्य' बन जाता है। निष्कर्ष की भाषा में देश, काल, पुरुष, अवस्था, उपयोग और परिणाम-विशुद्धि की समीक्षा करके ही 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' का निर्णय किया जा सकता है, इन्हें छोड़कर नहीं। आगम-साहित्य में जो उत्सर्ग और अपवाद हैं वे लगभग इसी आशय के द्योतक हैं। फिर भी 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' की निश्चित रेखाएँ खिची हुई हैं। उनके लिए अपनी-अपनी इच्छा के अनुकूल 'कल्प्य' और 'अकल्प्य' की व्यवस्था देना उचित नहीं होता। बहुश्रुत आगम-धर के अभाव में आगमोक्त विधि-निषेधों का यथावत् अनुसरण ही ऋजु मार्ग है। मुनि को कल्पिक, एषणीय या भिक्षा-सम्बन्धी बयालीस दोष-वजित भिक्षा लेनी चाहिए। यह ग्रहणैषणा (भक्त-पान लेने की विधि) है। १-जि० चू० पृ० १७७ : हरियग्गहणेणं सवे रक्खगुच्छाइणो वणप्फइविसेसा गहिया। २ (क) अ० चू० पृ० १०७ : एवं काले अपडिसिद्धकुलमियभूमिपदेसावत्थितस्स गवेषणाजुत्तस्स गहणेसणाणियमणत्थमुपदिस्सति । (ख) जि० चू० पृ० १७७ : एवं तस्स कालाइगुणसुद्धस्स अणिट्टकुलाणि वज्जेंतस्स चियत्तकुले पविसंतस्स जहोवदिव ठाणे ठियस्स ___ आयसमुत्था दोसा वज्जेतस्स दायगसुद्धी भण्णइ। ३-(क) अ० चू० पृ० १०७ : कल्पितं सेसेसणा दोसपरिसुद्धम्। (ख) हा० टी० ५० १६८ । 'कल्पिकम् एषणीयम् । ४---(क) अ० चू० पृ० १०७ : बायालीसाए अण्णतरेण एसणादोसेण दुट्ठ। (ख) हा० टी० ५० १६८ : 'अकल्पिकम्' अनैषणीयम् । ५-प्र० प्र०१४३ : यज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं निग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चये यत्तत्कल्प्यमकल्प्यमवशेषम् ।। ६- वही १४४-४६ : यत्पुनरुपघातकरं सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् । तत्कल्प्यमप्यकलप्यं प्रवचनकुत्साकरं यच्च । किंचिच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्य वा ॥ देशं कालं क्षेत्र पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धपरिणामान् । प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ।। Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) ११६. श्लोक २८ : इस श्लोक में 'छर्दित' नामक एषणा के दसवें दोषयुक्त भिक्षा का निषेध हैं'। तुलना के लिए देखिए आवश्यक सूत्र ४.८ । ११७. बेती हुई दंतिय ) प्रायः स्त्रियाँ ही भिक्षा दिया करती हैं, इसलिए यहाँ दाता के रूप में स्त्री का निर्देश किया है । श्लोक २६ २२५ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक २८-३० टि० ११६-१२१ श्लोक २८ : क ख ११८. और य ): अगस्त्य घूर्णि में 'य' के स्थान पर 'वा' है। उन्होंने 'वा' से सब वनस्पति का ग्रहण माना है । ग ११६. असंयमकरी होती है - यह जान ( असंजमकर मच्चा ): मुनि की भिक्षाचर्या में अहिंसा का बड़ा सूक्ष्म विवेक रखा गया है । भिक्षा देते समय दाता आरम्भ रत नहीं होना चाहिए । असंयम का अर्थ संयममात्र का अभाव होता है, किन्तु प्रकरण-संगति से यहाँ उसका अर्थ जीव-वध ही संभव लगता है । भिक्षा देने के निमित्त आता हुआ दाता यदि हिंसा करता हुआ आए अथवा भिक्षा देने के लिए वह पहले से ही वनस्पति आदि के आरम्भ में लगा हुआ हो तो उसके हाथ से भिक्षा लेने का निषेध है । १२०. भक्त पान ( तारिसंघ ) : दोनों 'पूर्णिकार 'वारिस' ऐसा पाठ मानते हैं। उनके अनुसार यह शब्द भक्त-पान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार तथा उनके उपजीवी व्याख्याकार 'तारिसिं' ऐसा पाठ मान उसे देने वाली स्त्री के साथ जोड़ते हैं । इसका अनुवाद होगा उसे वर्जे उसके हाथ से भिक्षा न ले । १. श्लोक ३० १२१. एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकाल कर ( साह ): भोजन को एक बर्तन से निकाल कर दूसरे बर्तन में डालकर दे तो चाहे वह प्रासुक ही क्यों न हो मुनि उसका परिवर्जन करे । पि०नि० ६२७-२८ : सच्चिते अस्चिते मीसग तह छड्डणे य चउभंगो । चभंगे पडलेही गहणे आणाइणो दोसा । उसिस्स देत व मेल कायदाही या सोपा पडिए महविदुआहरणं । क (क) अ० ० ० १०७ पाए हाति इस्वी (ख) जि० चू० पृ० १७८ : पायसो इत्थियाओ भिक्खं दलयंति तेण इत्थियाए निद्देसो कओ 1 (ग) हा० ० ० १६९ वदतीम् स्त्र्येव प्रायो निक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम् । ३ - अ० चू० पृ० १०७ वा सद्देण सव्ववणस्सतिकार्य । ४ – (क) अ० चू० पू० १०७ : तारिसं पुन्वमधिकृतं पाणभोयणं परिवज्जए । (ख) जि० चू० पृ० १७८ तारिस भत्तपाणं तु परिवज्जए । ५-हा० टी० प० : १६६ : तादृशीं परिवर्जयेत् । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २२६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३०-३१ टि० १२२ इस प्रकार के आहार की चौमङ्गी इस तरह है' :-- (१) प्रासुक बर्तन से आहार को प्रासुक बर्तन में निकाले । (२) प्रासुक बर्तन से आहार को अप्रासुक बर्तन में निकाले । (३) अप्रासुक बर्तन से आहार को प्रासुक बर्तन में निकाले । (४) अप्रासुक बर्तन से आहार को अप्रासुक बर्तन में निकाले । प्रासुक में से प्रासुक निकाले उसके भङ्ग इस प्रकार है :--- (१) अल्प को अल्प में से निकाले । (२) बहुत को अल्प में से निकाले । (३) अल्प को बहुत में से निकाले । (४) बहुत को बहुत में से निकाले । विशेष जानकारी के लिए देखिए --पिण्डनियुक्ति गा०५६३-६८ । १२२. श्लोक ३०-३१ : आहार को पाक-पात्र से दूसरे पात्र में निकालना और उसमें जो अनुपयोगी अंश हो उसे बाहर फेंकना संहरण कहलाता है। संहरण-पूर्वक जो भिक्षा दी जाए उसे 'संहृत' नाम का दोष माना गया है । सचित्त-वस्तु पर रखे हुए पात्र में भिक्षा निकाल कर देना, छोटे पात्र में न समाए उतना निकाल कर देना, बड़े पात्र में जो बड़े कट से उठाया जा सके उतना निकाल कर देना, संहृत' दोष है। जो देय-भाग हो, उसे सचित्त-वस्तु पर रख कर देना निक्षिप्त' दोष है । उदक का प्रेरण, अवगाहन और चालन सचित्त-स्पर्श के भीतर समाए हए हैं । फिर भी इनका विशेष प्रसंग होने के कारण विशेष उल्लेख किया गया है। सचित वस्नु का अवगाहन कर या उसे हिलाकर भिक्षा दी जाए, यह एषणा का 'दायक' नामक छट्ठा दोष है। १- (क) अ० चू० पृ० १०७ : साहटु अण्णम्मि भायणे छोणं । एत्थ य फासुयं अफासुए साहरति चउभंगो। तत्थ जं फासुयं फासुए साहरति तं सुक्खं सुक्खे साहरति एत्थ वि चउभंगो । भंगाण पिडनिज्जुत्तीए विसेसत्थो । (ख) जि० चू० पृ० १७८ : साहटु नाम अन्नंमि भायणे साहरिउ देति तं फासुगंपि विवज्जए, तत्व फासुए फासुयं साहरइ १ फासुए अफासुयं साहरइ २ अफासुए फासुयं साहरइ ३ अफासुए अफासुयं साहरति ४, तत्थ जं फासुयं फासुएस साहरति तं येवं थेवे साहरति बहुए थेवं साहरइ थेवे बहुयं साहरइ बहुए बहुयं साहरइ, एतेसि भंगाणं जहा पिंडनिज्जुत्तीए। २-पि० नि० ५६५-७१ : मतेण जेण दाहिइ तत्थ अदिज्जं तु होज्ज असणाई। छोटु तयन्नहिं तेणं देई अह होइ साहरणं ।। भूमाइएस तं पुण साहरणं होइ छसुवि काए । जं तं दुहा अचित्तं साहरणं तत्थ चउभंगो।। सुक्के सुक्कं पढमो सुक्के उल्लं तु बिइयओ भंगो। उल्ले सुक्कं तइओ उल्ले उल्लं चउत्थो उ॥ एक्केक्के चउभंगो सुक्काईएस चउसु भगेसु । थोवे थोवं थोवे बहुं च विवरीय दो अन्ने ॥ जत्थ उ थोवे थोवं सुक्के उल्लं च छुहद तं भन्भ( गेज्ज्ञ)। जइ तं तु समुक्खेउं थोवामारं दलइ अन्नं ।। उक्खेवे निक्खिवे महल्लभाणंमि लुद्ध वह डाहो । अचियत्त वोच्छेओ छक्कायवहो य गुरुमत्त । थोवे थोवं छूढं सुक्के उल्लं तु तं तु आइन्न । बहुयं तु अणाइन्नं कडदोसो सोत्ति काऊ । ३ देखिए ‘संघट्टिया' का टिप्पण (५. १. ६१) संख्या १६३ Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २२७ अध्ययन ५ (प्र० उ०): श्लोक ३२ टि० १२३-१२५ श्लोक ३२: १२३. पुराकर्म-कृत ( पुरेकम्मेण क ) : साधु को भिक्षा देने के निमित्त पहले सजीव जल से हाथ, कड़छी आदि धोना अथवा अन्य किसी प्रकार का आरम्भ-हिंसा करना पूर्व-कर्म दोष है। १२४. बर्तन से ( भायणेण ख ): ___ काँसे आदि के बर्तन को 'भाजन' कहा जाता है । निशीथ धूर्णि के अनुसार मिट्टी का बर्तन 'अमत्रक' या 'मात्रक' और कांस्य का पात्र 'भाजन' कहलाता है। १२५. श्लोक ३३-३४ : पाठान्तर का टिप्पण : एवं उदओल्ले ससिण द......॥३३।। गेरुय व पणय...............||३४।। टीकाकार के अनुसार ये दो गाथाएँ हैं । धुणि में इनके स्थान पर सत्रह श्लोक हैं। टीकाभिमत गाथाओं में 'एवं' और 'बोधव्वं' ये दो शब्द जो हैं वे इस बात के सूचक हैं कि ये संग्रह-गाथाएँ हैं । जान पड़ता है कि पहले ये श्लोक भिन्न-भिन्न थे फिर बाद में संक्षेपीकरण की दृष्टि से उनका थोड़े में संग्रह किया गया। यह कब और किसने किया इसकी निश्चित जानकारी हमें नहीं है। इसके बारे में इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि यह परिवर्तन चूणि और टीका के निर्माण का मध्यवर्ती है । अगस्त्य पूणि की गाथाए इस प्रकार हैं : १. उदओल्लेण हत्थे ण दवीए भायणेण वा । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं । २. ससिणिद्धेण हत्थेण.... ३. ससरक्खेण हत्थेण.. ४. मट्टियागतेण हत्थेण.............. ५. ऊसगतेण हत्थेण..... ६. हरितालगतेण हत्थेण...... ... ७. हिंगोलुयगतेण हत्थेण.. ८. मणोसिलागतेण हत्थेण........ ६. अंजणगतेण हत्थेण. १०. लोणगतेण हत्थेण.... ११. गेरुयगतेण हत्थेण.... १२. वणियगतेण हत्थेण.. १३. सेडियगतेण हत्थेण . १४. सोरठ्ठियगतेण हत्थेण ... १५. पिट्ठगतेण हत्थेण.......... ............ १- (क) अ० चू० पृ० १०८ : पुरेकम्मं जं साधुनिमितं धोवणं हत्यादीणं । (ख) जि० चू० पृ० १७८ : पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्ठूणं हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्म भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १७० : पुरः कर्मणा हस्तेन साधुनिमित्तं प्राक्कृतजलोज्ननव्यापारेण । २ (क) जि० चू० पृ० १७६ : भायणं कसभायणादि । (ख) हा० टी० ५० १७० : 'भाजनेन वा' कांस्यभाजनादिना । ३-(क) नि० ४.३६ चू० : पुढविमओ मत्तओ। कंसमयं भायणं । Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) २२८ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३३-३४ टि०१२६-१३० १६. कुक्कुसगतेण हत्थेण... १७. उक्कुट्ठगतेण हत्थेण.. ............ श्लोक ३३: १२६. जल से प्रार्द्र, सस्निग्ध ( उदओल्ले ससिणिद्धे क ) : जिससे बूदें टपक रही हों उसे आर्द्र' और केवल गीला-सा हो उसे सस्निग्ध' कहा जाता है। १२७. सचित्त रज-कण ( ससरक्खे ख ) : विशेष जानकारी के लिए देखिए ४.१८ का टिप्पण संख्या ६६ । १२८. मृत्तिका (मट्टिया ख ) : इसका अर्थ है मिट्टी का ढेला या कीचड़ । १२६. क्षार ( उसे ख ) : इसका अर्थ है खारी या नोनी मिट्टी। श्लोक ३४: १३०. गैरिक ( गेरुय क ) : इसका अर्थ है लाल मिट्टी। १.---(क) जि० चू० पृ० १७६ : उद उल्लं नाम जलतितं उद उल्लं। (ख) हा० टी० ५० १७० : उदकाो नाम गलदुदक बन्दुयुक्तः । २-(क) नि० भा० गा० १४८ चूणि : जत्थूदबिंदू ण संविज्जति तं ससिणिद्धं । (ख) अ० चू० पृ० १०८ : ससिणिद्ध-जं उदगेण किचि णिद्ध', ण पुण गलति । (ग) जि० चू० पृ० १७६ : ससिणिद्ध नाम जं न गलइ । (घ) हा० टी० ५० १७० : सस्निग्धो नाम ईषदु दकयुक्तः । ३ ---(क) अ० चू० पृ० १०६ : ससरक्ख पंसु-रउग्गुंडितं । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : सस रक्खेण ससरक्खं नाम पंसुरजगुंडियं । (ग) हा० टी० ५० १७० : सरजस्को नाम-पृथिवी रजोगुण्डितः । ४- (क) अ० चू० पृ० १०६ : मट्टिया लेटुगो। (ख) जि० चू० पृ० १७६ : मट्टिया कडउमट्टिया चिक्खल्लो। (ग) हा० टी० ५० १७० : मृद्गतो नाम–कर्दमयुक्तः । ५ -(क) अ० चू० पृ० १०६ : उसो लवणपंसू । (ख) जि० चू० पृ० १६७ : ऊसो णाम पंसुखारो। (ग) हा० टी० ५० १७० : अष:-पांशु क्षारः । ६–(क) अ० चू० पृ० ११० : गेरुयं सुवण्णगेहतादि । (ख) जि० चू० १० १७६ : गेरुअ सुवण्ण ( रसिया)। (ग) हा० टी० ५० १७० : गैरिका-धातुः । Jain Education Intemational Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा (पिण्डया) १३१. वर्णिका ( वण्णिय क ) : इसका अर्थ है पीली मिट्टी' क १३२. वेतिका ( सेडिय इसका अर्थ है खड़िया मिट्टी । ख १३३. सौराष्ट्रका ( सोरट्रिय ) सौराष्ट्र में पाई जाने वाली एक प्रकार की मिट्टी । इसे गोपीचन्दन भी कहते हैं। वर्णिकारों के अनुसार स्वर्णकार सोने पर चमक लाने के लिए इस मिट्टी का उपयोग करते थे । * १३४. तत्काल पीसे हुए आटे ( पिट्ठ ख ) : चावलों का कच्चा और अपरिणत आटा 'पिष्ट' कहलाता है | अगस्त्य सिंह और जिनदास के अनुसार अग्नि की मंद आँच से पकाया जाने वाला अपक्व पिष्ट एक प्रहर से परिणत होता है और तेज आँच से पकाया जाने वाला शीघ्र परिणत हो जाता है । १३५. अनाज के भूसे या छिलके ( कुक्कुस ): ख चावलों के छिलकों को 'कुक्कुस' कहा जाता है । १३६. फल के सूक्ष्म खण्ड ( उक्कट्ठे ग ) : २२६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ३४ टि० १३१-१३६ उत्कृष्ट शब्द के 'उक्किट्ठ", 'उक्कट्ठ' और 'उक्कुट्ठ'६ ये तीन शब्द बनते हैं । भिन्न-भिन्न आदर्शो में इन सब का प्रयोग मिलता है । 'उत्कृष्ट' का अर्थ फलों के सूक्ष्म खण्ड अथवा वनस्पति का चूर्ण होता है" । १- (क) अ० चू० पृ० ११० : वण्णिता पीतमट्टिया । (ख) जि० चू० पृ० १५६ : वष्णिया पीयमट्टिया । (ग) हा० टी० १० १७० वर्षिका पीतमुसिका । (क) अ० चू० पृ० ११० : सेडिया महासेडाति । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : सेढिया गंडरिया I (ग) हा० टी० प० १७० : श्वेतिका - शुक्लमृत्तिका । ३ शा० नि० पृ० ६४ : सौराष्ट्र याढकीतुवरीपर्पटीकालिकासती । सुजाता देशभाषायां गोपीचन्दनमुच्यते ॥ ४- ( क ) अ० चू० पृ० ११० : सोरट्टिया तूवरिया सुवण्णस्स ओप्पकरणमट्टिया । (ख) जि० ० ० १७ सोरडिया उवरिया, जोए सुवणारा उप्प करेति सुवणस्स पिडं । ५. (क) अ० ० पृ० ११० : आमपिट्ठ आमओ लोट्टो । सो अपिधणो पोरुसीए परिणमति । बहुइंधणो आरतो चेव । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : आमलोट्ठो, सो अप्पेधणो पोरिसिमित्तण परिणमड बहुइ घणो आरतो परिणमइ । ६ – ( (क) अ० चू० पृ० ११०: कुक्कुसा चाउलत्तया । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : कुक्कुसा चाउलातया । (ग) हा० टी० प० १७० कुक्कुसाः प्रतीताः । (घ) नि० ४.३२ ० सा ७ - ० ८.१.१२८ : 'उक्किट्ठ' इत् कृपादी । ८- - हैम० ८.१.१२६ : 'उक्कट्ठ' ऋतोऽत् । ९०८.१.१३१ ''उत्पाद १० (क) नि० भा० ० १४०० उट्ठो नाम सविसवगस्थतिसंकुर फलागि वा उति हि होतो, एस उक्कुट्ठो हत्थो भणति । (ख) नि० ४.३० पू० सचिवस्तीग्गो ओक्को भणति । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) २३० अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ३५ टि० १३७-१३८ दशकालिक के व्याख्याकारों ने उत्कृष्ट का अर्थ सुष्टि, तिल, गेहूँ और यवों का आटा या ओखली में फूटे हुए इगली या पीलुपर्णी के पत्र, लौकी, तरबूज आदि किया है । ग १३७ अ और संसुद्ध को जानना चाहिए (असंपट्ठे संसदट्ठे चैव बोध प ) : बोधव्वे सजीव पृथ्वी, पानी और वनस्पति से भरे हुए हाथ या पात्र को संसृष्ट-हस्त या संसृष्ट-पात्र कहा जाता है । निशीथ में संसृष्ट- हस्त के २१ प्रकार बतलाए हैं "बल्ले सिणि ससरवसे मटिटया उसे लोणे य हरियाले मणोसिलाए, रसगए गेख्य सेटीए ॥ १ ॥ हिंगुलु अंजणे लोद्धे, कुक्कुस पिट्ठ कंद मूल सिंगबेरे य । पुप्फक कुट्ठ एए, एक्कवीसं भवे हत्या ॥ २ ॥" निशी भाध्य गाथा १४७ की पूष्टि के अठारह प्रकार बतलाए है पुरेकम्मे कामे उदले समिि , हरियाणा जीवय सेडियमोर पि कुकुष इनमें पुरा-कर्म, पश्चात् कर्म, उदकार्ड और सस्निग्ध-ये अकाय से सम्बन्धित हैं । पिष्ट, कुक्कुस और उत्कृष्ट--- ये वनस्पतिकाय से संबन्धित हैं । इनके सिवाय शेष पृथ्वीकाय से संबन्धित है । " 1 उक्कट्ठ आयार चूला १150 में 'उक्कट्ठ' के आगे 'संसट्ठ' शब्द और है । यहाँ उसके स्थान में 'कए' है पर वह 'कुक्कुस' के आगे है । के आगे 'कप, कड, संसट्ट' जैसा कोई शब्द नहीं है, इसलिए अर्थ में थोड़ी अस्पष्टता आती है । यह सचित्त वस्तु से संसृष्ट आहार लेने का निषेध और उससे असंसृष्ट आहार लेने का विधान है । 1 सजातीय प्रासुक आहार से प्रसंसृष्ट हाथ आदि से लेने का निषेध और ससृष्ट हाथ आदि से लेने का जो विधान है, वह असंसृष्ट और संसृष्ट शब्द के द्वारा बताया गया है। टीकाकार "विधि पुनरत्रोर्ध्वं वक्ष्यति स्वयमेव" इस वाक्य के द्वारा सजातीय प्रासुक आहार से असंसृष्ट और संसृत्र हाथ आदि का सम्बन्ध अगले दो इलोकों से जोड़ देते हैं । तैंतीसवी गाथा के 'एवं' शब्द के द्वारा "दव्वीए भायणेण वा देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं" की अनुवृत्ति होती है। इलोक ३५ १३८. जहाँ पश्चात् कर्म का प्रसङ्ग हो ( पच्छाकम्मं जहि भवे घ ) : जिस वस्तु का हाथ आदि पर लेप लगे और उसे धोना पड़े वैसी वस्तु से अलिप्त हाथ आदि से भिक्षा देने पर पश्चात् कर्म दोष का प्रसङ्ग आता है । भिक्षा देने के निमित्त जो हस्त, पात्र आदि आहार से लिप्त हुए हों उन्हें गृहस्य सचित्त जल से धोता है, अतः पश्चात्कर्म होने की सम्भावना को ध्यान में रखकर असंसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का निषेध तथा संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का विधान किया गया है। रोटी आदि सूखी चीज, जिसका लेप न लगे और जिसे देने के बाद हाथ आदि धोना न पड़े, वह असंसृष्ट हाथ आदि से भी ली जा सकती है । 1 १- (क) अ० चू० पृ० ११० : उक्कुट्ठे थूरो सुरालोट्टो, तिल-गोधूम-जवपिट्ठे वा अंबिलिया पीलुपष्णियातीणि वा उक्खल छुष्णादि । fo (ख) जि० ० पृ० १७६ नामोडियकालिगादीणि उक्त। (ग) हा० डी० पं० १७० तथोत्कृष्ट इति उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालफलादीनां शस्त्रकृतानि चिणिकादिपत्र समुदायो वा उखलकण्डित इति । खण्डानि भयन्ते २- नि० भा० गा० १४७ । ३ - आ० ० १ / ८० वृ: संसृष्टेन हस्तादिना टीयमानं न गृह्णीयात् इत्येवमादिना तु असंसृष्टेन तु गृह्णीयात् इति । ४- नि० भा० गा० १८५२ : माकिरपाक होत असतो ब करमतेहि तु सम्हा, संसद् हि भवे ग्रहणं ॥ ५- (क) अ० चू० पृ० ११०: असंसट्टा अण्णादीहिं अणुवलित्तो तत्थ पच्छेकम्मदोसो । सुबकपोयलिदमादि देतीए घेप्पति । (ख) जि० ० ० १०८ अवेदमं दधिमाह देन्ना, तस्य पाकम्मोसोसिकाउंन घेप्पर सुखपूलिया दिनद fo तो घेप्पइ । (ग) हा० टी० प० १७० रुकमण्डकादिवत् तदम्पदोषरहितं गृह्णीयादिति । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २३१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३५ टि० १३६ पिण्ड नियुवित (गाथा ६१३-२६) में एषणा के लिप्त नामक नौवे दोष का वर्णन करते हुए एक बहुत ही रोचक संवाद प्रस्तुत किया गया है । आचार्य कहते हैं.---''मुनि को अलेपकृत आहार (जो नुपड़ा न हो, सूखा हो, वैसा आहार) लेना चाहिए, इससे पश्चात्कर्म के दोष का प्रसङ्ग टलता है और रस-लोलुपता भी सहज मिटती है।" शिष्य ने कहा-“यदि पश्चात्-कर्म दोष के प्रसङ्ग को टालने के लिए लेप-कर आहार न लिया जाए यह सही हो तो उचित यह होगा कि आहार लिया ही न जाए जिससे किसी दोष का प्रसङ्ग ही न आए।" आचार्य ने कहा--- "सदा अनाहार रहने से चिरकाल तक होने वाले तप, नियम और संयम की हानि होती है, इसलिए यावत्जीवन का उपवास करना ठीक नहीं।" शिष्य फिर बोल उठा--"यदि ऐसा न हो तो छह-छह मान के सतत उपवान किए जाएं और पारणा में अलेप-कर आहार लिया जाए।" आचार्य बोले...यदि इस प्रकार करते हुए सयम को निभाया जा सके तो भले किया जाए, रोकता कौन है ? पर अभी शारीरिक बल मुदृढ़ नहीं है, इसलिए तप उतना ही किया जाना चाहिए जिससे प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि मुनि का आचार भली-भांति पाला जा सके।" मुनि को प्राय: विकृति का परित्याग रखना चाहिए। शरीर अस्वस्थ हो, संयम-योग को लिाकाक्ति-संचय करना आवश्यक हो तो विकृतियाँ भी खाई जा सकती हैं । अलेप-कर आहार मुख्य होना चाहिए। कहा भी है ...अभिनवणं निविगई गया य'।' इसलिए सामान्य विधि से यह कहा गया है कि मुनि को अलेप कर आहार लेना चाहिए । श्चात्-कर्म दोष की दृष्टि से विचार किया जाए वहाँ उतना ही पर्याप्त है जिन्ना मूल श्लोकों में बताया गया है । १३६. असंसृष्ट संसृष्ट ( असंसठेण, ३५ संसठ्ठण ३६ क ): . असंसृष्ट और संसृष्ट के आठ विकल्प होते हैं--- १. संसृष्ट हस्त संसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । २. संसृष्ट हस्त संसृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ३. संसृष्ट हस्त असंसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । ४. संसृष्ट हस्त असं सृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ५. असंसृष्ट हस्त संसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । ६. असंसृष्ट हस्त संसृष्टमात्र निरवशेषद्रव्य । ७. असंसृष्ट हस्त असंसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । ८. असंमृष्ट हस्त असंसृष्टमात्र निरवशेषद्रव्य । इनमें दूसरे, चौथे, छ? और आठवें विकल्प में पश्चात्-कर्म की भावना होने के कारण उन रूपों में भिक्षा लेने का निषेध है और शेष रूपों में उसका विधान है। १-दश० चू० : २.७ ॥ २-(क) अ० चू० पृ० ११० : एत्थभंगा----संसट्ठो हत्थो संसट्ठो मत्तो सावसेसं दव, संसट्ठो हत्थो संसट्ठो मत्तो णिरवसेसं दव्वं--- एवं अट्ठ भंगा। एत्थ पढमो पसत्थो, सेसा कारणे जीव-सरीररक्खणत्यमणंतरमपदिट्ठ। (ख) जि. चू० १० १७६ : एत्थ अट्ठभंगा-हत्थो संसत्तो मत्तो संसट्ठो निरवसेसं दव्वं एवं अट्ठभंगा कायब्वा, एत्थ पढमो भंगो सव्वुक्किट्ठो, अण्णेसुवि जत्थ सावसेसं दवं तत्थ गेण्हति । (ग) हा टी०प० १७० : इह च वृद्धसंप्रदाय:--संसह हत्थे संसठे मत्ते सावसेसे दवे, संसट्ठे हत्थे संसट्टे मत्ते णिरवसेसे दव्वे, एवं अट्ठभंगा, एत्थ पढमभंगो सव्वुत्तमो, अन्नेसुऽवि जत्थ सावसेसं दव्वं तत्थ पिप्पइ, ण इयरेसु, पच्छाकम्मदोसाउ ति। Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशर्वकालिक ) १४०. इलोक ३७ : इस श्लोक में 'अनिष्ट' नामक उद्यम के पंद्रह दोष युक्त मिला का निषेध किया गया है अनिका अर्थ है अननुज्ञात 1 वस्तु के स्वामी को अनुज्ञा -- अनुमति के बिना उसे लेने पर 'उड्डाह' अपवाद होता है, चोरी का दोष लगता है, निग्रह किया जा सकता है । इसलिए मुनि को वस्तु के नायक की अनुमति के बिना उसे नहीं लेना चाहिए । १४१. स्वामी या भोक्ता हों (भुंजमाणाणं क ) 'भुञ्ज्' धातु के दो अर्थ हैं - पालना और खाना । प्राकृत में धातुओं के 'परस्मै' और 'आत्मने' पद की व्यवस्था नहीं है, इसलिए संस्कृत में 'भुंजमाणाणं' शब्द के संस्कृत रूपान्तर दो बनते हैं- ( १ ) भुञ्जतो: और (२) भुञ्जानयोः । एक ही वस्तु के दो स्वामी हों अथवा एक ही भोजन को दो व्यक्ति खाने वाले हों ।' 'दोह तु भुंजमाणाणं' का अर्थ होता है १४२. देवे ( पहिए ) : घ २३२ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ३७ ३६ टि०१४०-१४४ श्लोक ३७ : उसके चेहरे के हाव-भाव आदि से उसके मन के अभिप्राय को जाने । मुनि को वस्तु के दूसरे स्वामी का, जो मीन बैठा रहे अभिप्राय नेत्र और मुँह की चेष्टाओं से जानने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि उसे कोई आपत्ति न हो, अपना आहार देना इष्ट हो तो मुनि उसकी स्पष्ट अनुमति के बिना भी एक अधिकारी द्वारा दत्त आहार ले सकता है और यदि अपना आहार देना उसे इष्ट न हो तो मुनि एक अधिकारी द्वारा दत्त आहार भी नहीं ले सकता है । श्लोक ३८ १४३. श्लोक ३८ इस श्लोक में 'निसृष्ट' ( अधिकारी के द्वारा अनुमत) भक्त-पान लेने का विधान है। इलोक ३६ : ( भुज्जमाणं विवज्जेज्जा ख १४४. यह सा रही हो तो मुनि उसका विवर्जन करे दोहद- पूर्ति हुए बिना गर्भ का पात या मरण हो सकता है इसलिए गर्भवती स्त्री की दोहद-पूर्ति (इच्छा पूर्ति) के लिए जो आहार बने वह परिमित हो तो उसकी दोहद-पूर्ति के पहले मुनि को नहीं लेना चाहिए । १ – (क) अ० चू० पृ० ११० : "भुज पालनडम्भवहरणयोः" इति एवं विसेसेति – अन्भवहरमाणाण रवखताण वा विच्छ्पाताति अभोयणमवि सिया । (ख) जि० चू० पृ० १७६ : भुंजसो पालने अब्भवहारे च अब्भवहारे दो जधा एक्कमि वट्टियाए वे जणा भोतुकामा । (ग) हा० डी० प० १०१ २ (क) अ० चू० पृ० ११० : ): तत्थ पालने ताव एस साहुपायोग्गस्स दोन्नी सामिया पालनां कुर्वतो एकस्य वस्तुनः स्वामिनरिश्वर्व एवं नान्योः अभ्यवहारायोद्यतयोरपि योजनीय, यतो भुजिः पालनेऽभ्यवहारे च वर्तत इति । आगारिति बेागुणेहि मासाविसेस करपेहि । मुह.‍ इणयणविकारेहि य, घेप्पति अंतरगतो भावो || अहरणीय दोहामारभंति तं चि वर्तमानसामी० [पाणि०३.३.१३२] इति वर्तमानमेव । णाताभिष्यातस्य जदि इट्ठं तो घेप्पति, ण अण्णा । (ख) जि० चू० पृ० १७९: णेत्तादीहिं विगारेहिं अभणतत्सवि नज्जद जहा एयस्स दिज्जमाणं वियत्तं न वा इति अवियत्त तो णो पडिगेज्जा | (ग) हा० टी० प० १७१ विकारः किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति इष्टं चेद् गृहणीयान्न चेन्नैवेति । अपि अभिप्रायं तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवक्त्रादि अ० पू० पृ० १११ इसे दोगा परिमितवणीतं दिष्ये सेनमज्जति दोहो तीसे तस्स वा गन्भस्स सण्णीभूतस्स अप्पत्तियं होज्ज । (ख) जि० चू० पृ० १८० तत्थ जं सा भुजइ कोइ ततो देइ तं ण गेव्हियव्वं, को दोसो ? कदाइ तं परिमियं भवेज्जा, तीए य सद्धा ण विणीया होज्जा, अविणीये य डोहले गन्भपडणं मरणं वा होज्जा । (ग) हा० टी० ० प० १७१ तत्र भुज्जमानं तया विवज्यं मा भूतस्या अल्पत्वेनाभिलाषानिवृत्त्या गर्भपतनादिदोष इति । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा (पिण्डषणा) २३३ अध्ययन ५ (प्र० उ०): श्लोक ४०-४२ टि०१४५-१४७ श्लोक ४० १४५. काल-मासवती ( कालमासिणी ख ) : जिसके गर्भ का प्रसूतिमास या नवां मास चल रहा हो उसे काल-मासवती (काल-प्राप्त गर्भवती) कहा जाता है। जिनदास चूणि और टीका के अनुसार जिन-कल्पिक मुनि गर्भवती स्त्री के हाथ से भिक्षा नहीं लेते, फिर चाहे वह गर्भ थोड़े दिनों का ही क्यों न हो। काल-मासवती के हाथ से भिक्षा लेना 'दायक' (एषणा का छट्ठा) दोष है। श्लोक ४१: १४६. श्लोक ४१: अगस्त्य पूणि में (अगस्त्य धुणिगत क्रमांक के अनुसार ५६ वें और ५७ वें तथा टीका के अनुसार ४० वें और ४२ वें श्लोक के पश्चात्) "तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं"..--ये दो चरण नहीं दिये हैं और देंतियं पडियाइवखे, न मे कप्पइ तारिस'---इन दो चरणों के आशय को अधिकार-क्रम से स्वतः प्राप्त माना है। वैकल्पिक रूप में इन दोनों श्लोकों को द्वयर्थ (छह चरणों का श्लोक) भी कहा है। श्लोक ४२ : १४७. रोते हुए छोड़ ( निक्खिवित्तु रोयंत ग ) : जिनदास चूणि के अनुसार गच्छवासी स्थविर मुनि और गच्छ-निर्गत जिनकल्पिक-मुनि के आचार में कुछ अन्तर है। स्तनजीवी बालक को स्तन-पान छुड़ा स्त्री भिक्षा दे तो, बालक रोए या न रोए, गच्छवासी मुनि उसके हाथ से भिक्षा नहीं लेते। यदि वह बालक कोरा स्तनजीवी न हो, दूसरा आहार भी करने लगा हो और यदि वह छोड़ने पर न रोए तो गच्छवासी मुनि उसकी माता के हाथ से भिक्षा ले सकते हैं । स्तनजीवी बालक चाहे स्तन-पान न कर रहा हो फिर भी उसे अलग करने पर रोने लगे उस स्थिति में गच्छवासी मुनि भिक्षा नहीं लेते। गच्छ-निर्गत मुनि स्तनजीवी बालक को अलग करने पर, चाहे वह रोए या न रोए, स्तन-पान कर रहा हो या न कर रहा हो, उसकी माता के हाथ से भिक्षा नहीं लेते । यदि वह बालक दूसरा आहार करने लगा हो उस स्थिति में उसे स्तन-पान करते हुए को छोड़कर, फिर चाहे वह रोए या न रोए, भिक्षा दे तो नहीं लेते और यदि वह स्तन-पान न कर रहा हो फिर भी अलग करने पर रोए तो भी भिक्षा नहीं लेते । यदि न रोए तो वे भिक्षा ले सकते हैं। १-(क) अ० चू० पृ० १११ : प्रसूतिकालमासे 'कालमासिणी'। (ख) जि० चू० पृ० १८० : कालमासिणी नाम नवमे मासे गन्भस्स वट्टमाणस्स । (ग) हा० टी० प० १७१ : 'कालमासवती' गर्भाधानान्नवममासवती। २-(क) जि० चू० पृ० १८० : जा पुण कालमासिणी पुवुट्ठिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गेण्हंति,, जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव आवन्नसत्ता भवति तओ दिवसाओ आरद्ध परिहरति । (ख) हा० टी० ५० १७१ : इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकं, जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति सम्प्रदायः । ३---अ० चू० पृ० ११२ : पुवभणितं सुत्त सिलोगद्ध वित्तीए अणुसरिज्जति -बेतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पति तारिसं। अहवा दिवड्ढसिलोगो अत्यनिगमणवसेणं । ४.--(क) अ० चू०पृ० ११२ : गज्छवासीण थणजीवी थणं पियंतो निक्खित्तो रोवतु वा मा वा अग्गहणं, अह अपिबंतो णिक्खिस्तो रोवंते (अग्गहणं अरोवंते) गहणं, अह भत्तं पि आहारेति तं पिबंते निक्वित्ते रोवते अग्गहणं, अरोवंते गहणं । गच्छनिग्गत्ताण थणजीविम्मि णिक्खित्ते पिबंते (अपिबते) वा रोयंते (अरोयते) वा अग्गहणं, भत्ताहारे पिबंते निक्खित्ते रोयमाणे अरोयमाणे वा अग्गहणं, अपिबते रोयमाणे अग्गहणं, अरोयमाणे गहणं । (ख) जि० चू० पृ० १८० : तत्थ गज्छवासी जति थणजीवी णिक्खित्तो तो ण गेण्हति रोवतु वा मा वा, अह अन्नपि आहारेति तो जति न रोवइ तो गेण्हति, अह अपियंतओ णिक्खिस्तो थणजीवी रोवई तो ण गेण्हं ति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा अपियंतओ पियंतिओ वा न गेण्हंति, जाहे अन्नपि आहारे पयत्तो भवति ताहे जइ पिघं तओ तो रोवइ मा वा ण गेण्हंति, अपियन्तओ जदि रोवइ परिहरति अरोवते गेहति । (ग) हा० टी० ५० १७२ : चूणि का ही पाठ यहाँ सामान्य परिवर्तन के साथ 'अत्रायं वृद्धसम्प्रदाय' कहकर उद्धृत किया है। Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) यह स्थूल-दर्शन से बहुत साधारण सी बात लगती है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो इसमें अहिंसा का पूर्ण दर्शन होता है । दूसरे को थोड़ा भी कष्ट देकर अपना पोषण करना हिंसा है। अहिंसक ऐसा नहीं करता इसलिए वह जीवन निर्वाह के क्षेत्र में भी बहुत सतर्क रहता है । उक्त प्रकरण उस सतर्कता का एक उत्तम निदर्शन है । शिष्य पूछता है – बालक को रोते छोड़कर भिक्षा देने वाली गृहिणी से लेने में क्या दोष है ? आचार्य कहते हैं बालक को नीचे कठोर भूमि पर रखने से एवं कठोर हाथों से उठाने से बालक में अस्थिरता आती है। इससे परिताप दोष होता है। बिल्ली आदि उसे उठा ले जा सकती है' । इलोक ४४ : १४८. शंका- पुक्त हो ( संकिय इस लोक में 'शंकित' (एषा के पहले दोष युक्त भिक्षा का निषेध किया गया है। आहार युद्ध होने पर भी कल्पनीय और अकल्पनीय – उद्गम, उत्पादन और एषणा से शुद्ध अथवा अशुद्ध का निर्णय किए बिना लिया जाए वह 'शंकित' दोष है । शंका सहित लिया हुआ आहार शुद्ध होने पर भी कर्म-बन्ध का हेतु होने के कारण अशुद्ध हो जाता है । अपनी ओर से पूरी जाँच करने के बाद लिया हुआ आहार यदि अशुद्ध हो तो भी कर्म-बन्ध का हेतु नहीं बनता । श्लोक ४५-४६ २३४ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक ४४-४७ टि० १४८-१५० : क ख १४. श्लोक ४५-४६ : उभिन्न दो प्रकार का होता है इन दोनों लोकों में 'उदभिन्न' नामक ( उद्गम के बारहवें दोषयुक्त शिक्षा का निषेध है 'पिहित - उद्भिन्न' और 'कपाट उद्भिन्न' । चपड़ी आदि से बंद पात्र का मुंह खोलना 'पिहित उद्भिन्न' कहलाता है | बन्द किवाड़ का खोलना 'कपाट- उद्भिन्न' कहलाता है । पिधान सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का हो सकता है । उसे साधु के लिए खोला जाए और फिर बंद किया जाए वहाँ हिंसा की सम्भावना है। इसलिए 'पिहित उदभिन्न' भिक्षा निषिद्ध है किवाड़ खोलने में अनेक जीवों के वकी सम्भावना रहती है इसलिए 'कपाट - उद्भिन्न' भिक्षा का निषेध है। इन श्लोकों में 'कपाट उभिन्न' भिक्षा का उल्लेख नहीं है । इन दो भेदों का आधार पिण्डनिर्युक्ति ( गाथा ३४७ ) है । तुलना के लिए देखिए - आयार चूला ११६०, ६१ । ): ) ) इलोक ४७ : १५०. पानक (पाण हरिभद्र ने 'पानक' का अर्थ आरनाल ( कांजी ) किया है । आगम-रचनाकाल में साधुओं को प्राय: गर्म जल या पानक ( तुषोदक, वोदक, सौवीर आदि) ही प्राप्त होता था । आधार वूला १।१०१ में अनेक प्रकार के पानकों का उल्लेख है । प्रवचन सारोद्धार के अनुसार 'सुरा' आदि को 'पान', साधारण जल को 'पानीय' और द्राक्षा, खर्जूर आदि से निष्पन्न जल को 'पानक' कहा जाता है । १ (क) अ० ० पू० ११२ एल्थ बोसा सुकुमालसरीरस्स वरेहि हत्थेहि सयगीए वा पीडा, मज्जातो या वाणाचहरणं करेज्जा । (ख) जि० चू० पृ० १८० सीसो आह को सत्य दोसोत्ति ?, आपरिओ आहतर निविष्यमाणस्स सहित् घेप्यमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो मज्जाराइ व अवधरेज्जा । (ग) हा० टी० प० १७२ । २- पि० नि० गा० ५२६-५३० । ३ – हा० ० टी० १० १७३ : 'पानकं' च आरनालादि । ४- प्रव० सारो० गा० १४१७ : पाणं सुराइयं पाणियं जलं पाणगं पुणो एत्थ । दक्खावाणियपमुहं Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २३५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ४६ टि० १५१-१५२ पानक गृहस्थों के घरों में मिलते थे। इन्हे विधिवत् निष्पन्न किया जाता था। भावप्रकाश आदि आयुर्वेद ग्रन्थों में इनके निष्पन्न करने की विधि निर्दिष्ट है । अस्वस्थ और स्वस्थ दोनों प्रकार के व्यक्ति परिमित मात्रा में इन्हें पीते थे। सुश्रुत के अनुसार गुड़ से बना खट्टा या बिना अम्ल का पानक गुरु और मूत्रल है । मृवीका (किसमिस) से बना पानक श्रम, मूर्छा, दाह और तृषानाशक है। फालसे से और बेरों का बना पानक हृदय को प्रिय तथा विष्टम्भि होता है। साधारण जल दान आदि के लिए निष्पन्न नहीं किया जाता । दानार्थ-प्रकृत से यह स्पष्ट है कि यहाँ 'पानक' का अर्थ द्राक्षा, खजूर आदि से निष्पन्न जल है। १५१. दानार्थ तैयार किया हआ (दाणट्ठा पगडं घ): विदेश-यात्रा से लौटकर या वैसे ही किसी के आगमन के अवसर पर प्रसाद-भाव से जो दिया जाए वह दानार्थ कहलाता है। प्रवास करके कोई सेठ चिरकाल के बाद अपने घर आये और साधुवाद पाने के लिए सर्व पाखण्डियों को दान देने के निमित्त भोजन बनाए वह दानार्थ-प्रकृत कहलाता है । महाराष्ट्र के राजा दान-काल में समान रूप से दान देते हैं। उसके लिए बनाया गया भोजन आदि भी 'दानार्थ-प्रकृत' कहलाता है। श्लोक ४६ : १५२. पुण्यार्थ तैयार किया हुआ (पुण्णट्ठा पगडं घ): जो पर्व-तिथि के दिन साधुवाद या श्लाघा की भावना रखे बिना केवल 'पुण्य होगा' इस धारणा से अशन, पानक आदि निष्पन्न किया जाता है - उसे 'पुण्यार्थ-प्रकृत' कहा जाता है । वैदिक परम्परा में 'पुण्यार्थ-प्रकृत' दान का बहुत प्रचलन रहा है । प्रश्न हुआ कि शिष्ट कुलों में भोजन पुण्यार्थ ही बनता है। वे क्षुद्र कुलों की भांति केवल अपने लिए भोजन नहीं बनाते, किन्तु पितरों को बलि देकर स्वयं शेष भाग खाते हैं। अत: 'पुण्यार्थ-प्रकृत' भोजन के निषेध का अर्थ शिष्ट-कुलों से भिक्षा लेने का निषेध होगा? आचार्य ने उत्तर में कहा—नहीं, आगमकार का 'पुण्यार्थ-प्रकृत' के निषेध का अभिप्राय: वह नहीं है जो प्रश्न की भाषा में रखा गया है । उनका अभिप्राय यह है कि गृहस्थ जो अशन, पानक पुण्यार्थ बनाए वह मुनि न ले५ । १-सु० सू० ४६.४३० : गौडसम्लमनम्लं वा पानकं गुरु मूत्रलम् । २-सु० सू० ४६.४३२-३३ : माकं तु श्रमहरं, मूर्छादाहतृषापहम् । परूषकाणां कोलानां, हृद्य विष्टम्भि पानकम् ॥ ३ -- (क) अ० चू० पृ० ११३ : 'दाणटप्पगडं' कोति ईसरो पवासागतो साधुसद्देण सव्वस्स आगतस्स सक्कारणनिमित्तं दाणं देति, रायाणो वा मरहट्ठगा दाणकाले अविसेसेण देति । (ख) जि० चू० पृ० १८१ : दाणापगडं नाम कोति वाणियगमादी दिसासु चिरेण आगम्म घरे दाणं देतित्ति सव्वपासंडाणं तं दाणठ्ठ पगडं भण्णइ । (ग) हा०टी०प०१७३ : दानार्थं प्रकृतं नाम-साधुवादनिमित्त यो ददात्यव्यापारपाखण्डिभ्यो देशान्तरादेरागतो वणिक प्रभृतिरिति । ४ (क) अ० चू० पृ० ११३ : जं तिहि-पव्वणीसु पुण्णमुद्दिस्स कीरति तं पुण्णट्ठप्पगडं । (ख) जि० चू० पृ० १८१ : पुन्नत्थापगडं नाम जं पुण्णनिमित्त कीरइ तं पुण्णट्ठ पगडं भण्णइ । ५-हा० टी० ५० १७३ : पुण्यार्थ प्रकृतं नाम – साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति । अत्राह -पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो भिक्षाया अग्रहणमेव, शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तः, तथाहि-न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थमेव क्षुद्रसत्त्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति, नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात, स्वभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेवात, स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति, एतेनाऽदेयदानाभावः प्रत्युक्तः, देयस्यैव यवच्छादानानुपपत्त:, कदाचिदपि वा दाने यदृच्छादानोपपत्तेः, तथा व्यवहारदर्शनात, अनीदृशस्यैव प्रतिषेधात् तदारम्भदोषेण योगात्, यदृच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तः नासौ तदर्थ इत्यारम्भदोषायोगात, दृश्यते च कदाचित् सूतकादाविव सर्वेभ्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रहणान्न दोष इति । Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २३६ अध्ययन ५(प्र०उ०): श्लोक ५१-५५ टि०१५३-१५४ श्लोक ५१: १५३. वनीपकों-भिखारियों के निमित्त तैयार किया हुआ ( वणिमट्ठा पगडं घ ) : दूसरों को अपनी दरिद्रता दिखाने से या उनके अनुकूल बोलने से जो द्रव्य मिलता है उसे 'वनी' कहते हैं और जो उसको पीए-उसका आस्वादन करे अथवा उसकी रक्षा करे वह 'वनीपक' कहलाता है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने श्रमण आदि को 'वनीपक' माना है, वह स्थानाङ्गोक्त वनीपकों की ओर संकेत करता है। वहाँ पाँच प्रकार के 'वनीपक' बतलाए हैं-अतिथि-वनीपक, कृपण-वनीपक, ब्राह्मण-वनीपक, श्व-वनीपक और श्रमण-वनीपक । दृत्तिकार के अनुसार अतिथि भक्त के सम्मुख अतिथि-दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहनेवाला अतिथि-वनीपक कहलाता है । इसी प्रकार कृपण ( रंक आदि दरिद्र) भक्त के सम्मुख कृपण-दान की प्रशंसा कर और ब्राह्मणभक्त के सम्मुख ब्राह्मण-दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहने वाला क्रमशः कृपण-वनीपक और ब्राह्मण-वनीपक कहलाता है । श्व(कुत्ता) भक्त के सम्मुख इव-दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहने वाला श्व-वनीपक कहलाता है । वह कहता है- 'गाय आदि पशुओं को घास मिलना सुलभ है किन्तु छि: छि: कर दुत्कारे जाने वाले कुत्तों को भोजन मिलना सुलभ नहीं। ये कैलास पर्वत पर रहने वाले यक्ष हैं। भूमि पर यक्ष के रूप में विचरण करते हैं।" श्रमण-भक्त के सम्मुख दान की प्रशंसा कर उससे दान चाहने वाला श्रमणवनीपक कहलाता है। हरिभद्र सूरि ने 'वनीपक' का अर्थ 'कृपण' किया है। किन्तु 'कृपण' 'वनीपक का एक प्रकार है इसलिए पूर्ण अर्थ नहीं हो सकता। इस शब्द में सब तरह के भिखारी आते हैं । श्लोक ५५ : १५४. पूतिकर्म (पूईकम्म ख ) : यह उद्गम का तीसरा दोष है । जो आहार आदि श्रमण के लिए बनाया जाए वह 'आधाकर्म' कहलाता है। उससे मिश्र जो आहार आदि होते हैं, वे पूतिकर्मयुक्त कहलाते हैं। जैसे--अशुचि-गंध के परमाणु वातावरण को विषाक्त बना देते हैं, वैसे ही आधाकर्म-आहार का थोड़ा अंश भी शुद्ध आहार में मिलकर उसे सदोष बना देता है। जिस घर में आधाकर्म आहार बने वह तीन दिन तक पूतिदोष-युक्त होता है इसलिए चार दिन तक (आधाकर्म-आहार बने उस दिन और उसके पश्चात् तीन दिन तक) मुनि उस घर से भिक्षा नहीं ले सकता। १--ठा० ५।२०० वृ०: परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकूलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीता, तां पिबति-आस्वादयति पातीति वेति वनीपः स एव बनीपको-याचकः । २–अ० चू० पृ० ११३ : समणाति वणीमगा। ३-ठा० ५।२०० : पंच वोमगा पण्णत्ता तंजहा-अतिहिवणीमगे, किवणवणीमगे, माहणवणीमगे, साणवणीमगे, समण वणीमगे । ४-ठा० २२०० वृ०: अवि नाम होज्ज सुलभो, गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिक्कारहयाणं न हु सुलभो होज्ज सुणताणं ।। केलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महि । चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥ ५–हा० टी० ५० १७३: वनीपका:-कृपणाः । ६-(क) पि०नि० गा० २६६ : समणकडाहाकम्मं समणाणं जंकडेण मीसं तु । आहार उवहि-वसही सव्वं तं पूइयं होइ॥ (ख) हा० टी० ५० १७४ : पूतिकर्म-संभाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् । ७-पि०नि० गा० २६८ : पढमदिवसमि कम्मं तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होइ । पूईसु तिसु न कप्पइ कप्पइ तइओ जया कप्पो॥ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा (पिण्डैषणा ) २३७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ५५ टि० १५५-१५७ १५५. अध्यवतर ( अज्झोयर ग ) 'अध्यवतर' उद्गम का सोलहवाँ दोष है। अपने के लिए आहार बनाते समय साधु की याद आने पर और अधिक पकाए उसे 'अध्यवतर' कहा जाता है। मिश्र-जात' में प्रारम्भ से ही अपने और साधुओं के लिए सम्मिलित रूप से भोजन पकाया जाता हैं और इसमें भोजन का प्रारम्भ अपने लिए होता है तथा बाद में साधु के लिए अधिक बनाया जाता है। मिथ-जात' में चावल, जल, फल और साग आदि का परिमाण प्रारम्भ में अधिक होता है और इसमें उनका परिमाण मध्य में बढ़ता है। यही दोनों में अन्तर है। ___टीकाकार 'अज्झोयर' का संस्कृत रूप अध्यवपूरक करते हैं । वह अर्थ की दृष्टि से सही है पर छाया की दृष्टि से नहीं, इसलिए हमने इसका संस्कृत रूप 'अध्यवतर' दिया है। १५६. प्रामित्य ( पामिच्चंग ) 'प्रामित्य' उद्गम का नवाँ दोष है । इसका अर्थ है- साधु को देने के लिए कोई वस्तु दूसरों से उधार लेना। पिण्ड-निर्य क्ति (३१६-३२१) की वृत्ति से पता चलता है कि आचार्य मलयगिरि ने 'प्रामित्य' और 'अपमित्य' को एकार्थक भाना है। १२ वीं गाथा की वृत्ति में उन्होंने लिखा है कि वापस देने की शर्त के साथ साधु के निमित्त जो वस्तु उधार ली जाती है वह 'अपमित्य' है। इसका अगला दोष 'परिवर्तित' है। चाणक्य ने 'परिवर्तक', 'प्रामित्यक' और 'आपमित्यक' के अर्थ भिन्न-भिन्न किए हैं। उसके अनुसार एक धान्य से आवश्यक दूसरे धान्य का बदलना 'परिवर्तक' कहलाता है । दूसरे से धान्य आदि आवश्यक वस्तु को मांगकर लाना 'प्रामित्यक' कहलाता है । जो धान्य आदि पदार्थ लौटाने की प्रतिज्ञा पर ग्रहण किये जाते हैं, वे 'आपमित्यक' कहलाते हैं । भिक्षा के प्रकरण में 'आपमित्यक' नाम का कोई दोष नहीं है । साधु को देने के लिए दूसरों से मांग कर लेना और लौटाने की शर्त से लेना-ये दोनों अनुचित हैं। संभव है वृत्तिकार को 'प्रामित्य' के द्वारा इन दोनों अर्थों का ग्रहण करना अभिप्रेत हो, किन्तु शाब्दिकदृष्टि से 'प्रामित्य' और 'अपमित्य' का अर्थ एक नहीं है । 'प्रामित्य' में लौटाने की शर्त नहीं होती। 'दूसरे से मांग कर लेना'-'प्रामित्य' का अर्थ इतना ही है। १५७. मिश्रजात ( मीसजायं घ): 'मिश्र-जात' उद्गम का चौथा दोष है । गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए उसके साथ-साथ साधु के लिए भी पका ले, वह 'मिश्रजात' दोष है। उसके तीन प्रकार हैं-यावदर्थिक-मिथ, पाखण्डि-मिथ और साधु-मिथ । भिक्षाचर (गृहस्थ या अगृहस्थ) और कुटुम्ब १-हा० टी०प० १७४ : अध्यवपूरक- स्वार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपम् । २-हा० टी०प० १७४ : मिश्रजातं च-आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम् ।। ३-पि०नि० गा० ३८८-८९ : अज्झोयरओ तिविहो जावंतिय सघरमीसपासडे । मूलंमि य पुवकये ओयरई तिण्ह अट्टाए । तंडुलजलआयाणे पुष्फफले सागवेसणे लोणे । परिमाणे नाणतं अज्झोयरमोसजाए य॥ ४- हा० टी० ५० १७४ : प्रामित्य-साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् । ५--पि०नि० गा० ६२ वृत्ति : 'पामिच्चे' इति अपमित्य - भूयोऽपि तव दास्थामीत्येवमभिधाय यत् साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तदपमित्यम् । ६-पि० नि० गा०६३ : परियट्टिए। ७-कौटि० अर्थ० २.१५. ३३ : सस्यवर्णानामर्धान्तरेण विनिमयः परिवर्तकः । सस्ययाचनमन्यतः प्रामित्यकम् । तदेव प्रतिदानार्थमापमित्यकम् । ८-(क) पि० नि० गा० २७३ : निग्गंथट्ठा तइओ अत्तट्ठाएऽवि रंधते । वृत्ति-आत्मार्थमेव राध्यमाने तृतीयो गृहनायको ब्रूते, यथा-निर्ग्रन्थानामर्थायाधिकं प्रक्षिपेति । (ख) हा० टी० ५० १७४ : मिश्रजातं च --आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम् । Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवे आलियं ( दशवेकालिक ) २३८ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ५७-५६ टि०१५८-१६१ के लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'यावदर्थिक' कहलाता है । पाखण्डी और अपने लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'पाखण्डि - मिश्र' एवं जो भोजन केवल साधु और अपने लिए एक साथ पकाया जाए वह 'साधु मिश्र' कहलाता है' । इलोक ५७ : ग ध १५८. पुष्प, बीज और हरियाली से ( पुप्फेसु बीएस हरिए पा ): यहाँ पुष्प, बीज और हरित शब्द की सप्तमी विभक्ति तृतीया के अर्थ में है । १५६. उन्मिश्र हों (उम्मीसंग ) : 'उन्मिश्र' एपणा का सातवां दोष है । साधु को देने योग्य आहार हो, उसे न देने योग्य आहार (सचित्त या मिश्र) से मिला कर दिया जाए अथवा जो अचित्त आहार सचित्त या मिश्र वस्तु से सहज ही मिला हुआ हो वह 'उन्मिश्र' कहलाता है' । बलि का भोजन कणवीर आदि के फूलों से मिश्रित हो सकता है । पानक 'जाति' और 'पाटला' आदि के फूलों से मिश्रित हो सकता है । धानी अक्षत - बीजों से मिश्रित हो सकती है। पानक 'दाड़िम' आदि के बीजों से मिश्रित हो सकता है। भोजन अदरक, मूलक आदि हरित से मिश्रित हो सकता है। इस प्रकार खाद्य और स्वाद्य भी पुष्प आदि से मिश्रित हो सकते हैं । 'संहृत' में अदेय-वस्तु को सचित्त से लगे हुए पात्र में या सचित्त पर रखा जाता है और इसमें सचित्त और अचित्त का मिश्रण किया जाता है, इन दोनों में यही अन्तर है । १६०. उलिंग (उसिंग घ ) : इसका अर्थ है की टिका-नगर । विशेष जानकारी के लिए देखिए ८.१५. का इसी शब्द का टिप्पण । १६१. पनक ( पणगेसु प ) : श्लोक ५६ काया होता है। १ - पि० नि० गा० २७१ मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च । २- पि०नि० गा० ६०७ : दायव्यमदायध्वं च दोऽवि दव्वाई देइ मीसेउं । ओयण कुसुणाईणं साहरण तयन्नहि छोढुं ॥ ३ -- ( क ) अ० चू० पृ० ११४ : तेसि किंचि 'पुप्फेहि' बलिकूरादि असणं उम्मिस्सं भवति, 'पाणं' पाडलादीहिं कढितसीतलं वा किंचि वासितं, 'खादिमं' मोदगादी, 'सादिमं' वडिकादि । 'नीएहि' अक्खतादोहिं, 'हरिएहि' भूतणातीहि जहासंभवं । (ख) जि० चू० पृ० १८२ पुष्फेहि उम्मिसं नाम पुटफाणि कलत्रीरमंदरादीणि तेहि बलिमादि असणं उम्मिस्सं होज्जा, पाणए वीरपालादणि पुष्पाणि परित, अहया वीषाणि जह छाए परिवाणि होज्जा अमीसा वा पाणी होना पाणिए कालिमपाणगा पोयाणि होज्जा, हरिताणि विश्वसामु अलयलगारीणि पविताण होगा, जहां य असणपाणाणि उम्मिस्सगाणि पुष्फादीहि भवंति एवं खाइमसाइमाणिवि भाणियव्वाणि । (च) हा टी० प० १७४ पुष्पं जातिपालादिभिः भवेयुरिम बीरिति । ४- पि० नि० गा० ६०७ । ५. ( क ) अ० चू० पृ० ११४ (ख) जि० : उतिगो कीडीयाणगरं । १० चू० पृ० १८२ उतिगो नाम कोडियानगरयं । : (ग) हा० टी० प० १७५: कोटिकानगरं । ६--- (क) अ० चू० पृ० ११४ : पणओ उल्ली, ओल्लियए कहिचि अनंतराविट्ठवितं । (ख) जि० चू० पृ० १५२ : पणओ उल्ली भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १७५ : पनकेषु उल्लीषु । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) ग १६२. निक्षिप्त ( रखा हुआ ) हो ( निक्खितं " ) : निक्षिप्त दो तरह का होता है अनन्तर निक्षिप्त और परंपरा निक्षिप्त। नवनीत जल के अन्दर रखा जाता है यह अनन्तर निक्षिप्त का उदाहरण है। संपातिम जीवों के भय से दधि आदि का बर्तन जलकुण्ड में रखा जाता है यह परंपरा निक्षिप्त का उदाहरण है' । जहाँ जल, उतिंग, पनक का अशन आदि के साथ सीधा सम्बन्ध हो जाता है वहां अशन आदि अनन्तर निक्षिप्त कहलाते हैं । जहाँ जल, उत्तिग, पनक आदि का सम्बन्ध अशन आदि के साथ सीधा नहीं होता केवल भोजन के साथ होता है वहाँ अशनादि परंपर निक्षिप्त कहलाते हैं। दोनों प्रकार के निक्षिप्त अनादि साधु के लिए है यह पाप है। १६३. उसका (अग्नि का) स्पर्श कर (संघट्टिया ध ) : साधु को भिक्षा दूं उतने समय में रोटी आदि जल न जाये, दूध आदि उफन न जाये ऐसा सोचकर रोटी या पूआ आदि को उलट कर, दूध आदि को निकाल कर अथवा जल का छींटा देकर अथवा जलते ईंधन को हाथ, पैर आदि से छू कर देना यह संघट्य दोष है । श्लोक ६३ : २३६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ६१ ६३ टि० १६२-१६४ ६१-६३ १६४. श्लोक ६३ अगस्त्य चूर्णि और जिनदास चूर्णि के अनुसार यह श्लोक संग्रह-गाथा है । इस संग्रह - गाथा में अगस्त्य घृणि के अनुसार निम्न नौ गाथाएँ समाविष्ट हैं : २. ३. १. असणं पाणगं वावि खाइम साइमं तहा ॥ अगिणिम्मि होज्ज निक्खित्तं तं च उस्सिक्किया दए । तं च ओसक्किया दए । तं च उज्जालिया दए || ४. ५. ५. ७. श्लोक ६१ : ८. उपदि ॥ तं च निस्सिचिया दए । तं च ओवत्तिया दए । 'तं च ओतारिता दए । ह. जिनदास रिंग के अनुसार सात श्लोकों का विषय संगृहीत है । तं च विज्झाविया दए । 'तं च उस्सिचिया दए । १ - (क) अ० चू० पृ० ११४ : निक्खित्तमणंतरं परंपरं च । अनंतरं णवणीय- पोयलियाति, परंपरनिक्खित्तमसणाति भायणत्यमुपरि जलकु' डस्स विण्णत्थं । (च) हा० टी० प० १७९ उनि भायणत्थं दधिमादि । (ख) जि० ० चू० पृ० १८२ : उदगंमि णिक्खित्तं दुविहं, तंज- अणंतरणिक्खित्तं जधा नवनीतपोग्गलियमादि, परंपरनिक्खित्तं दहिपिडोसंपादन छोड़ स्वर उदितं । अतंर परंपरं च अयंतरं नवगीत योग्यलयमादि, परोपरं जलप होवर २ अ० चू० पृ० ११४ : एत्थ निक्खिवत्तमिति गणेसणा दोसा भणिता । ३ (क) अ० चू० पृ० ११५ : 'जाव साधूणं भिक्ख देमि ताव मा डज्झिहिती उन्भुतिहिति वा' आहट्टऊण देति, पूवलियं वा उत्थल्लेऊण, उम्मुयाणि वा हत्थपादेहि संघट्टेत्ता । (ख) जि० ० ० १०२ संघट्टया नाम जाव अहं साहू विदेसि साब मा उभराइऊण छहित ते आवडेऊण देइ | (ग) हा० टी० प० १७५: तच्च संघट्ट्य, यावद्भिक्षां ददामि तावत्तापातिशयेन मा भूदुद्र तिष्यत इत्याघट्ट्य दद्यादिति । ४ - जिनदास चूर्णि में श्लोक संख्या २ और ५ नहीं हैं । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २४० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६३ टि० १६५-१७० १६५. (चूल्हे में) ईंधन डालकर (उस्सक्किया क) : ____ मैं भिक्षा दूं इतने में कहीं घूल्हा बुझ न जाए-इस विचार से चूल्हे में ईंधन डालकर' । १६६. (चूल्हे में) ईंधन निकाल कर (ओसविकया क) : ___मैं भिक्षा दूं इतने में कोई वस्तु जल न जाए-इस भावना से चूल्हे में से ईंधन निकाल कर । १६७. उज्ज्वलित कर (सुलगा कर) (उज्जालिया ख): तृण, ईंधन आदि के प्रक्षेप से घुल्हे को प्रज्वलित कर । प्रश्न हो सकता है 'उस्स क्किया' और 'उज्जालिया' में क्या अन्तर है ? पहले का अर्थ है-जलते हुए 'चूल्हे में ईंधन डाल कर जलाना और दूसरे का अर्थ है---नए सिरे से धूल्हे को सुलगा कर अथवा प्रायः बुझे हुए चूल्हे को तृण आदि से जला कर । १६८. प्रज्वलित कर (पज्जालिया ख): बार-बार ईंधन से धूल्हे को प्रज्वलित कर । १६६. बुझाकर (निव्वाविया ख) : मैं भिक्षा हूँ इतने में कहीं कोई चीज उफन न जाए. इस दृष्टि से चूल्हे को बुझा कर । १७०. निकाल कर (उस्सिचियाग) पात्र बहुत भरा हुआ है, इसमें से आहार बाहर न निकल जाए--इस भय से उत्सेचन कर---बाहर निकालकर अथवा उसको हिलाकर उसमें गर्म जल डालकर। १-(क) अ० चू० पृ० ११५ : उस्सिक्किया अवसंतुइया । 'जाव भिक्खं देमि ताव मा विज्झाहिति' त्ति सअट्ठाए तन्निमित्त चेइहरालक्खे (?) वि परिहरितव्वं । (ख) जि० चू० पृ० १८२ : उस्स किया नाम अवसंतुइय साधुनिमित्तं उस्सिक्किज्जा तहा जहा अहं भिक्खं दाहामि ताव मा उम्भावेतित्ति । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'उस्सक्किय' ति यावद्भिक्षां ददामि तावन्मा भूद्विध्यास्यतीत्युरिसच्य दद्यात् । २ ---(क) अ० चू० पृ० ११५ : ओसक्किय उम्मुयाणि ओसारेऊण, मा ओदणो डज्झिहिति उवधुप्पिधिति वा किंचि । (ख) हा० टी० ५० १७५ : 'ओसक्किया' अवसl अतिदाहभयादुल्मकान्युत्सार्येत्यर्थः । ३---(क) अ० चू० पृ० ११५ : उज्जालिय कलिच---कुतलगादीहि । उस्सिक्कणुज्जलणविसेसो-जलंताण चेव उम्मुयाणं विसेसुज्जा लणट्ठमुप्पुजणं उस्सिक्कणं, बहुविज्झातस्स तिणादीहि उज्जालणं। (ख) जि० चू० पृ०१८२-१८३ : उज्जालिया नाम तणाईणि इंधणाणि परिक्खि विऊण उज्जालयइ, सीसो आह उस्सक्कियउज्जालियाणं को पइविसेसो ?, आरिओ आह- उस्सक्केति जलंतमवि, उज्जालयइ पुण संजतट्ठाए उठ्ठिता सव्वहा विज्झायं अणि तणाईहिं पुणो उज्जालेति । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'उज्ज्वाल्य' अर्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपेण । ४- हा० टी० ५० १७५ : 'प्रज्वाल्य' पुनः पुनः (इन्धनप्रक्षेपेण) । ५- (क) अ० चू० पृ० ११६ : पाणगादिणा देयेण विज्झती देति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : णिव्वाविया नाम जाव भिक्खं देमि ताव उदणादी डज्झिहिति ताहे तं अगणि विज्ावेऊण देइ । (ग) हा० टी०प० १७५ : 'निव्वाविया' निर्वाप्य दाहभयादेवेति भावः । ६- (क) अ० चू० पृ० ११६ : उस्सिचिया कढंताओ ओकढिऊण उण्होदगादि देति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : उस्सिचिया नाम तं अइभरियं मा उन्भूयाएऊण छड्डिज्जिहिति ताहे थोवं उक्कड्ढोऊण पासे ठवेइ, अहवा तओ चेव उक्किड्ढिऊणं उण्होदगं दोच्चगं वा देइ । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'उत्सिच्य' अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दानार्थ तीमनादीनि । Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डषणा) २४१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६५-६७ टि०१७१-१७६ १७१. छींटा देकर (निस्सिचिया ग) : उफान के भय से अग्नि पर रखे हुए पात्र में पानी का छींटा देकर अथवा उसमें से अन्न निकालकर' । १७२. टेढ़ाकर (ओवत्तिया घ) : अग्नि पर रखे हुए पात्र को एक ओर से झुकाकर । १७३. उतार कर (ओयारिया घ): साधु को भिक्षा दूं इतने में जल न जाए- इस भय से उतारकर । श्लोक ६५ १७४. ईंट के टुकड़े (इट्टालं ख) : मिट्टी के ढेले दो प्रकार के होते हैं ---एक भूमि से सम्बद्ध और दूसरे असम्बद्ध । असम्बद्ध ढेले के तीन प्रकार होते हैंउत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । पत्थर उत्कृष्ट है, लोष्ट्र मध्यम है और ईंट जघन्य है। श्लोक ६६: १७५. अगस्त्य चूरिण में ६६ वें श्लोक का प्रारम्भ गभीरं झुसिरं चेव'--इस चरण से होता है जब कि जिनदास और हरिभद्र के सम्मुख जो आदर्श था उसमें यह ६६ वें श्लोक का तीसरा चरण है। अगस्त्य सिंह ने यहाँ 'अधोमालापहृत' की चर्चा की है, जब कि जिनदास और हरिभद्र के आदर्श में उसका उल्लेख नहीं है। श्लोक ६७: १७६. मचान (मंचं ग) : चार लट्ठों को बाँधकर बनाया हुआ ऊंचा स्थान जहाँ नमी, सीलन तथा जीव-जन्तुओं से बचाने के लिए भोजनादि रखे जाते हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार यह सोने या चढ़ने के काम आता था । १-(क) अ० चू० पृ० ११६ : जाव भिक्खं देमि ताव मा उम्भिहितित्ति पाणिताति तत्थ णिरिसचति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : निस्सिचिया णाम तं अहियं दव्वं अण्णत्थ निस्सिचिऊण तेण भायणेण ऊणं देइ तं अहवा तम द्दहियगं उदणपत्तसागादी जाव साहूणं भिक्खं देमि ताव मा उन्भूयावेउत्तिकाऊण उदगादिणा परिसिंचिऊण देइ । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'निषिच्य' तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्यात्, उद्वर्तनभयेन वाऽद्रहितमुदकेन निषिच्य । २-(क) अ० चू० १० ११६ : अगणिनिक्खित्तमेव एक्कपस्सेण ओवत्त तूण देति । (ख) जि० चू० पृ० १८३ : उव्वत्तिया नाम तेणेव अगणिनिक्खित्त ओयत्तेऊण एगपासेण देति । (ग) हा० टी० ५० १७५ : 'अपवर्त्य' तेनेवाग्निनिक्षिप्तेन भाजनेनान्येन वा दद्यात् । ३–(क) जि० चू० पृ० १८३ : ओयारिया नाम जमेतमद्दहियं जाव साधूणं भिक्खं देमि ताव नो डज्झिहित्तित्ति उत्तारेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १७५ : 'अवतार्य' दाहभयाद्दानार्थ वा दद्यात् । ४-डगला पुण दुविधा-सम्बद्धा भूमिए होज्जा असम्बद्धा वा होज्जा। जे असम्बद्धा ते तिविधा..."। उवला उक्कोसा, लेछु मसिणा मज्झिमा, इट्टालं जहन्न । ५- अ० चू० पृ० ११६ : गहणेसणा विसेसो निक्खित्तमुपदिट्ठ, गवेषणा विसेसो पागडकरणमुपदिस्सति जहा 'गंभीरं झुसिर' सिलोगो। ६-अ० चू० पृ० ११७ : एतं भूमिघरादिसु अहेमालोहडं। ७-अ० चू० पृ० ११७ : मंचो सयणीयं चडणमंचिगा वा। Jain Education Intemational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) १७७. मालापहृत (मालोहदं): मालापत उद्गम का तेरहवां दोष है (१) ऊर्ध्व - मालापहृत - ऊपर से उतारा हुआ । (२) अधो- मालापहृत — भूमि-गृह ( तल-घर या तहखाना ) से लाया हुआ । (३) तिर्यग्-मालापहृत-ऊँडे बर्तन या कोठे आदि में से झुककर निकाला हुआ' । यहाँ सिर्फ मालापत का निषेध किया गया है। अगस्त्य टिप्पण | २४२ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक ६९-७० टि० १७७-१७६ : इलोक ६६ : १७८. पत्ती का शाक (सन्निरं): इसके तीन प्रकार है- ६७ वें श्लोक में निश्रेणि, फलक, पीठ मंच, कील और प्रासाद इन छः शब्दों के अन्वय में चूर्णिकार और टीकाकार एकमत नहीं है। भूमिकार निथेगि, फलक और पीठ को आरोहण के साधन तथा मंच की और प्रसाद को आरोह-स्थान मानते हैं। आयार चुला के अनुसार घूर्णिकार का मत ठीक जान पड़ता है। वहाँ ११८७ वें सूत्र में अन्तरिक्ष स्थान पर रखा हुआ आहार लाया जाए उसे मालापहृत कहा गया है और अन्तरिक्ष-स्थानों के जो नाम गिनाए हैं उनमें थंभंसिवा', मंचसिवा, पासायंसि वा' – ये तीन शब्द यहाँ उल्लेखनीय हैं। इन्हें आरोह्य स्थान माना गया है। १८७ वें सूत्र में आरोहण के साधन बतलाए हैं उनमें 'पीढं वा, फलगं वा, निस्सेणि वा' -इनका उल्लेख किया है। इन दोनों सूत्रों के आधार पर कहा जा सकता है कि इन छहों शब्दों में पहले तीन शब्द जिन पर चढ़ा जाए उनका निर्देश करते हैं और अगले तीन शब्द चढ़ने के साधनों को बताते हैं । टीकाकार ने 'मंच' और 'कील' को पहले तीन शब्दों के साथ जोड़ा उसका कारण इनके आगे का 'च' शब्द जान पड़ता है । संभवतः उन्होंने 'च' के पूर्ववर्ती पांचों को प्रासाद से भिन्न मान लिया । श्लोक ७० : काम इस भिन्न है- देखिए ६६ वें श्लोक का अगस्त्य सिंह स्थविर ने इसका अर्थ केवल 'शाक' किया है। जिनदास और हरिभद्र इसका अर्थ 'पत्र-शाक करते हैं। १७६. घीया ( तुंबागं ग ) : जिसकी त्वचा म्लान हो गई हो और अन्तर्-भाग अम्लान हो, वह 'तुंबाग' कहलाता है। हरिभद्र सूरि ने तुम्बाक का अर्थ छाल व १- पि० नि० गा० ३६३ । २ - तुलना के लिए देखिए आयारचूला १२८७-८ अधो मालापहृत के लिए देखिए आधारचूला ११८७ ८९ । ३ - (क) अ० चू० पृ० ११७ : निस्सेणी मालादीण आरोहण-कट्ठ संघातिमं फलगं, पहुलं कट्टमेव व्हणाति उपयोज्जं पीढं । एतानि उसवेताण उद्धं वेऊण आहे चडेज्न मंचो सपनीयं चटणमंबिया या खीलो भूमिसमाकोट्टितं कट्ठे पासादो समालको घरविसेसो । एताणि समणट्ठाए दाया चडेज्जा (ख) जि० ० ० १३ मिरची सोगसिद्धा फलगं महत्तं सुवन्नयं भवइ, पोटयं महाणपीडा, उस्तवित्ता नाम एलाणि उत्ताणि काऊ तिरिन्दानि वा आहेज्जा, मंचो सोगसिद्धो, कोलो उवा, पासा पसिद्ध एतेहि दापये संजताए आता मसपाणं आणेन्ा । ४ - हा० टी० प० १७६ : निश्रेण फलकं पीठम् 'उस्सवित्ता' उत्सृत्य ऊद्ध कृत्वा इत्यर्थः, आरोहेन्मञ्च, कीलकं च उत्सूत्य कमारोहे दित्याह प्रासादम् । ५- अ० चू० पृ० ११७ : 'सणिरं' सागं । ६ - ( क ) जि० चू० पृ० १८४ : सन्निरं पत्तसागं । (ख) हा० टी० प० १७६ : सन्तिरमिति पत्रशाकम् । ७- ( क ) अ० चू० पृ० ११७ तुम्बागं ज तयाए मिलाणममिलाणं अंतो त्वम्लानम् । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : तुम्बागं नाम जं तयामिलाणं अब्भंतरश्रो अद्दयं । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २४३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७१-७२ टि०१८०-१८३ मज्जा के बीच का भाग किया है और मतान्तर का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया है कि कई व्याख्याकार इसका अर्थ हरी तुलसी करते हैं' । शालिग्रामनिघण्टु के अनुसार यह दो प्रकार का होता है-एक लम्बा और दूसरा गोल । हिन्दी में 'तुंबाक' को कद्, लौकी तथा रामतरोई और बंगला में लाउ कहते हैं। श्लोक ७१: १८०. सत्तू ( सत्तुचुण्णाइं २ ) : अगस्त्य चूणि में सत्तू और चूर्ण को भिन्न-भिन्न माना है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि 'सत्तुचुण्णाई' का अर्थ सत्त करते हैं। सत्तू और चूर्ण ये भिन्न शब्द हों तो चूर्ण का अर्थ चून, जो आटा और घी को कड़ाही में भूनकर चीनी मिलाकर बनाया जाता है, हो सकता है । हरियाना में चुन के लड्डू बनते हैं। सत्तू चूर्ण को एक माना जाए तो इसका अर्थ पिष्टक होना चाहिए । सत्तू को पानी से घोल, नमक मिला आग पर पकाया जाता है । कड़ा होने पर उसे उतार लिया जाता है । यह 'पिष्टक' कहलाता है। १८१. बेर का चूर्ण ( कोलचुण्णाई ख ) : ___अगस्त्यसिंह और जिनदास ने इसका अर्थ बेर का चूर्ण और हरिभद्र ने बेर का सत्तू किया है। आयार चूला में पीपल, मिर्च, अदरक आदि के चूर्णों का उल्लेख है । १८२. तिल-पपड़ी ( सक्कुलि ग ) . चूणि और टीका में इसका अर्थ तिल-पपड़ी किया है। चरक और सुश्रुत की व्याख्या में कचौरी आदि किया गया है। ___ श्लोक ७२ १८३. न बिकी हों ( पसढं क): जो विक्रेय वस्तु बहुत दिनों तक न बिके उसे 'प्रशठ' या 'प्रसृत' कहा गया है । टीकाकार ने इसका संस्कृत रूप 'प्रसह्य' किया है। १-हा. टी० ५० १७६ : 'तुम्बाकं त्वग्मिजान्तर्वति आर्द्रा वा तुलसीमित्यन्ये । २-शालि नि० पृ. ८६० : अलाबुः कथिता तुम्बी द्विधा दीर्घा च वर्तुला । ३ -- अ० चू० पृ० ११७ : "सत्तु या जवातिधाणाविकारो" । "चुण्णाई" अण्णे पिटुबिसेसा । ४ (क) जि० चू० पृ० १८४ : सत्तुचुण्णाणि नाम सत्तुगा, ते य जवविगारी। (ख) हा० टी० ५० १७६ . 'सक्तुचूर्णान्' सक्तून् । ५---(क) अ० चू० पृ० ११७ : कोला बदरा तेसि चुण्णाणि । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : कोलाणि बदराणि तेसि चुण्णो कोलचुण्णाणि । ६-हा० टी० ५० १७६ : 'कोलचूर्णान्' बदरसक्तून् । ७ आ० चू० २०१०७ : पिप्पलिचुण्णं वा .... मिरियचुण्णं वा... 'सिंगबेरचुण्णं वा....."अन्नयरं वा तहप्पगारं। ८-(क) अ० चू० पृ० ११७ : सक्कुली तिलपप्पडिया। (ख) जि० चू० पृ० १८४ : सक्कुलीति पप्पडिकादि । (ग) हा० टी० ५० १७६ : 'शष्कुली' तिलपर्पटिकाम् । --(क) सु० २७०.२६७ । (ख) भक्ष्यपदार्थ वर्ग : ४६.५४४ । १० -(क) अ० चू० पृ० ११८ : पसढ मिति पच्चक्खातं तददिवसं विक्कतं न गतं । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : तं पसढं नाम जं बहदेवसियं दिणे दिणे विक्कायते तं । ११-हा० टी०प० १७६ : 'प्रसा' अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् । Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) २४४ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७३ टि० १८४-१८५ १८४. रज से ( रएण ख ) : रज का अर्थ है-हवा से उड़कर आई हुई अरण्य की सूक्ष्म सचित्त ( सजीव ) मिट्टी' । __ श्लोक ७३ : १८५. पुद्गल, अनिमिष (पुग्गलं क . अणिमिसं ख ) : पुद्गल शब्द जैन-साहित्य का प्रमुख शब्द है। इसका जैनेतर साहित्य में क्वचित् प्रयोग हुआ है। बौद्ध-साहित्य में पुद्गल चेतन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इसका प्रयोग आभरण के अर्थ में हुआ है। जैन-साहित्य में पुद्गल एक द्रव्य है । परमाणु और परमाणु-स्कन्ध-इन दोनों की संज्ञा पुद्गल' है । कहीं-कहीं आत्मा के अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत श्लोक में जो 'पुद्गल' शब्द है उसके संस्कृत रूप 'पुद्गल' और 'पौद्गल' दोनों हो सकते हैं । चूणि और टीका-साहित्य में पुद्गल का अर्थ मांस भी मिलता है । यह इसके अर्थ का विस्तार है । पौद्गल का अर्थ पुद्गल-समूह होता है। किसी भी वस्तु के कलेवर, संस्थान या बाह्य रूप को पौद्गल कहा जा सकता है । स्थानांग में मेघ के लिए 'उदगपोग्गलं' (सं० उदकपौद्गलम्') शब्द प्रयुक्त हुआ है। पौद्गल का अर्थ मांस, फल या उसका गूदा--इनमें से कोई भी हो सकता है। इसलिए यहाँ कुछ व्याख्याकारों ने इसका अर्थ मांस और कइयों ने वनस्पति--फल का अन्तर्भाग किया है। इस प्रकार अनिमिष शब्द भी मत्स्य तथा वनस्पति दोनों का वाचक है। धूणिकार पुद्गल और अनिमिष का अर्थ मांस-मत्स्यपरक करते हैं । वे कहते हैं- साधु को मांस खाना नहीं कल्पता, फिर भी किसी देश, काल की अपेक्षा से इस अपवाद सूत्र की रचना हुई है । टीकाकार मांस-परक अर्थ के सिवाय मतान्तर के द्वारा इनका वनस्पति-परक अर्थ भी करते हैं। आयारघूला १।१३३-१३४ वें सूत्र से इन दो श्लोकों की तुलना होती है। १३३ वें सूत्र में इक्षु, शाल्मली इन दो वनस्पतिवाचक शब्दों का उल्लेख है और १३४ वें सूत्र में मांस और मत्स्य शब्द का उल्लेख है। वृत्तिकार शीलाङ्क सूरि मांस और मत्स्य का लोक-प्रसिद्ध अर्थ करते हैं, किन्तु वे मुनि के लिए इन्हें अभक्ष्य बतलाते हैं। उनके अनुसार बाह्योपचार के लिए इनका ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु खाने के लिए नहीं। अगस्त्यसिंह स्थविर, जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि के तथा शीलाङ्कसूरि के दृष्टिकोण में अन्तर केवल आशय के अस्पष्टीकरण और स्पष्टीकरण का है, ऐसा सम्भव है । वे अपवाद रूप में मांस और मत्स्य के लेने की बात कहकर रुक जाते हैं, किन्तु उनके उपयोग की चर्चा नहीं करते । शीलाङ्कसूरि उनके उपयोग की बात बता सूत्र के आशय को पूर्णतया स्पष्ट कर देते हैं। १-(क) अ० चू० पृ० ११८ : रयेण अरण्णातो वायुसमुद्धतेण समंततो घत्थं । (ख) जि० चू० १० १८४ : तत्थ वायुणा धुएण आरण्णेण सचित्रोण रएण । (ग) हा० टी० ५० १७६ : 'रजसा' पाथिवेन । -कौटि० अर्थ० २.१४ प्र० ३२ : तस्माद् वज्रमणिमुक्ताप्रवालरूपाणां जातिरूपवर्णप्रमाणपुद्गल लक्षणान्युपलभेत । व्याख्याः-उच्चावचहरणोपायसम्भवात्, वज्रमणिमुक्ताप्रवालरूपाणां वज्रादिरूपाणां चतुर्णां, जातिरूपवर्णप्रमाणपदगललक्षणादि, जाति-उत्पत्तिः, रूपम् -आकारः, वर्ण:-रागः, प्रमाणं-माषकादिपरिमाणं, पुद्गलम्-आभरणं, लक्षणं--लक्ष्म एतानि उपलभेत -विद्यात् । ३-सू० १.१३.१५: उत्तमपोग्गले । वृत्ति-उत्तमः पुदगल--आत्मा। ४---नि० भा० गा० १३५ चूणि : पोग्गल मोयगदंते....... पोग्गलं--मंसं । ५--ठा० ३.३५६ वृ० : उदकप्रधानं पौद्गलम्--पुद्गलसमूहो मेघः इत्यर्थः, उदकपौद्गलम् । ६-(क) अ० चू० पृ० ११८ : पोग्गलं प्राणिविकारो। ..अणिमिसो वा कंटकायितो। (ख) जि० चू० पृ० १८४ : बहुअट्ठिय व मंसं मच्छं वा बहुकटयं । ७-(क) अ० चू० पृ० ११८ : मंसातीण अग्गहणे सति देश-काल गिलाणावेक्खमिदमववातसुत्तं । (ख) जि० चू० पृ० १८४ : मंसं वा व कप्पति साहूणं कंचि कालं देसं पडुच्च इमं सुत्तमागतं । ८-हा० टी० ५० १७६ : बह्वस्थि 'पुद्गल' मांसम् 'अनिमिषं वा' मत्स्य वा बहुकण्टकम्, अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः, अन्ये त्वभिदधति - वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते इति । ह-आ० चू०१।१३४ ७० : एवं मांससूत्रमपि नेयम्, अस्य चोपादानं क्वचिल्लूतायुपशमनार्थ सद्वंद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात् फलवदष्टं, भुजिश्चात्र बहिःपरिभोगा), नाभ्यवहारार्थे, पदातिभोगवदिति । Jain Education Intemational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा (पिण्डैषणा) २४५ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ७५ टि० १८६-१८६ १५६. आस्थिक (अत्थियं ग) : दोनों चूणियों में 'अच्छियं' पाठ मिलता है । इसका संस्कृत रूप 'आक्षिक' बनता है। 'आक्षिक एक प्रकार का रंजक फल है। आक्षिकी नामक एक लता भी होती है । उसका फल पित्त-कफ नाशक, खट्टा तथा वातवर्धक होता है । हारिभद्रीय वृत्ति के अनुसार 'अत्थियं' पाठ है। वहाँ इसका अर्थ अस्थिक-वृक्ष का फल किया गया है। भगवती (२२.३) और प्रज्ञापना (१) में बहुबीजक वनस्पति के प्रकरण में 'अस्थिय' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसकी पहचान 'अगस्ति या अगस्त्य' से की जा सकती है। इसे हिन्दी में 'अगस्तिया', 'हथिया', 'हदगा' कहते हैं। अगस्तिया के फूल और फली होते हैं। इसकी फली का शाक भी बनता है। १८७. तेन्दू (तिदुयंग): तेन्दू भारत, लंका, बर्मा और पूर्वी बंगाल के जंगलों में पाया जाने वाला एक मझोले आकार का वृक्ष है । इस वृक्ष की लकड़ी को आबनूस कहते हैं। इस वृक्ष का खाया जाने वाला फल नींबू के समान हरे रंग का होता है और पकने पर पीला हो जाता है। १८८. फली (सिबलि ): अगस्त्य चूर्णि और हारिभद्रीय वृत्ति में 'सिंबलि' का अर्थ निष्पाव (वल्ल धान्य) आदि की फली और जिनदास पणि में केवल फली किया है । शाल्मलि के अर्थ में 'सिंबलि' का प्रयोग देशी नाममाला में मिलता है। शिष्य ने पूछा--७०वें श्लोक में अपक्व प्रलम्ब लेने का निषेध किया है, उससे वे स्वयं निषिद्ध हो जाते हैं। फिर इनका निषेध क्यों? आचार्य ने कहा-वहाँ अपक्व प्रलम्ब लेने का निषेध है, यहाँ बहु-उज्झन-धर्मक वस्तुओं का। इसलिए ये पक्व भी नहीं लेनी चाहिए। श्लोक ७५ : १८९. श्लोक ७५ : अब तक के इलोकों में मुनि को अकल्पनीय आहार का निषेध कर कल्पनीय आहार लेने की अनुज्ञा दी है। अब ग्राह्य-अग्राह्य जल के विषय में विवेचन है" । जल भी अकल्प्य छोड़ कल्प्य ग्रहण करना चाहिए । १- (क) अ० चू० पृ० ११८ : अच्छियं । (ख) जि० चू० पृ०१८४ : अच्छि यं । २-सु० ४६.२०१ : फलवर्ग । ३--च० सू० २७.१६० : पित्तश्लेष्मध्नमम्लं च वातलं चाक्षिकीफलम् । ४-हा० टी० ५० १७६ : 'अत्थिकं' अस्थिकवृक्षफलम् । ५-शालि० नि० भू० पृ० ५२३ । ६-(क) जि० चू० पृ० १८४ : तिदुयं-टिबरुयं । (ख) हा० टी० ५० १७६ : 'तेंदुकं' तेंदुरुकीफलम् । ७ -- नालन्दा विशाल शब्द सागर। ८-(क) अ० चू०५ ११८ : णिप्फवादि सेंगा-सेंबलि । (ख) हा० टी० प०१७६ : 'शाल्मलि वा' वल्लादिफलिम् । (ग) जि० चू० पृ०१८४ : सिंबलि-सिंगा। -दे० ना० ८.२३ : सामरी सिंबलए-सामरी शाल्मलिः । १०—जि० चू० पृ० १८४-८५ : सीसो आह–णणु पलंबगहणेण एयाणि पहियाणि, आयरिओ भण्णइ -एताणि सत्थोवहताणिवि अन्नाम समुदाणे फासुए लब्भमाणे ण गिव्हियव्वाणि । ११-(क) अ००प०११८ : 'एगालंभो अपज्जत्तं' ति पाण-भोयणेसणाओ पत्थुयाओ, तत्व किंचि सामण्णमेव संभवति भोयणे पाणे य,..." अयं तु पाणग एव बिसेसो संभवतीति भण्णति । (ख) जि० चू० पृ० १८५ : जहा भोयणं अकप्पियं पडिसिद्धि कप्पियमणुण्णायं तहा पाणगमवि भण्णइ । Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशकालिक ) १०. उच्चावच पानी ( उच्चावयं पाणं क ) उच्च और अवच शब्द का अर्थ है ऊँच और नीच । जल के प्रसङ्ग में इनका अर्थ होगा- -श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ । जिसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श श्रेष्ठ हों वह 'उच्च' और जिसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श श्रेष्ठ न हों वह 'अवच' कहलाता है । जो वर्ग में सुन्दर गंध से अति दुर्गन्ध रहित रस से परिपश्य और स्पर्श से स्निन्यता रहित हो यह उच्च जल है और यह साधु को कल्पता है। जो ऐसे वर्ण आदि से रहित है वह अवच और अग्राह्य है । - द्राक्षा-जल 'उच्च जल' है और आरनाल का पूति-दुर्गन्धयुक्त जल 'अवच जल' है' : 'उच्चावच' का अर्थ नाना प्रकार भी होता है । १९१. गुड़ के घड़े का धोवन ( वारघोयणं चूर्णि-द्वय में 'वालधोवणं' पाठ है । चूर्णिकार ने यहाँ रकार और लकार का एकत्व माना है । 'वार' घड़े को कहते हैं । फाणित - गुड़ आदि से लिप्त घड़े का धोवन 'वार धोवन' कहलाता है । २४६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ७५ टि० १६० १६३ ख ) : १६२. आटे का घोवन ( संसेइमं ग ) 'संसेइम का' अर्थ आटे का घोवन होता है। शीलाङ्काचार्य इसका अर्थ तिल का घोवन और उबाली हुई भाजी जिसे ठंडे जल से सींचा जाए, वह जल, करते हैं । अगस्त्यसिंह स्थविर और अभयदेव सूरि शीलाङ्काचार्य के दूसरे अर्थ को स्वीकृत करते हैं । निशीथ चूर्णि में भी 'संसेइम' का यह दूसरा अर्थ मिलता है" । १२२. जो अघुनाधीत ( तत्काल का पोवन ) हो ( अहणाघोष ) यह एषणा के आठवें दोष 'अपरिणत' का वर्जन है । आयार चूला के अनुसार अनाम्ल - जिसका स्वाद न बदला हो, अव्युत्क्रान्त १ – (क) अ० चू० पृ० ११८: 'उच्चावयं' अणेगविधं वण्ण-गंध-रस-फार्सोहि हीण-मजिमुत्तमं । तं (ख) जि० चू० पृ० १८५ : उच्चं च अवयं च उच्चावचं, उच्च नाम जं वण्णगंध रस फासेहि उववेयं, तं च मुद्दियादिपाणगादी, चत्वादि ओसोम गंध अपूर्व एसओ परिकापरसं फास अतिं पण कम्प अवयं नाम जयेतेहि वगंधर काहिं विहोणं अवयं भन्नति एवं ता वससीए वैष्यति । (ग) हा० टी० प० १७७ : 'उच्च' वर्णाद्युपेतं द्राक्षापानादि 'अवचं' वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि । २- जि० ० चू० पृ० १८५ : अहवा उच्चावयं णाम णाणापगारं भन्नइ । ३ (क) अ० चू० पृ० ११८, ११६ : अदुवा वालधोवणं, 'वालो' वारगो र लयोरेकत्वमिति कृत्वा लकारो भवति वालः, -- तेण 5 वार एव वालः । (ख) जि० चू० पृ० १८५: रकारलकाराणमेगत्तमितिकाउं वारओ वालओ भन्नइ । ४ – (क) अ० चू० पृ० ११६ : तस्य धोवणं फाणितातीहि लित्तस्स वालादिस्स । (ख) नि० ० ० १०५ सोय गुलानियादिभावणं तस्स घोषगंवारो। (ग) हा० डी० १० १७७ ५ - (क) जि० चू० पृ० १८५ : (ख) हा० टी० प० १७७ ६-० ० १२९० विनोदकम् परिवारणिकादिसंवाद 'बारकवाद' गुडघाचनमित्यर्थः । संसेइमं नाम पाणियं अहेऊण तस्सोवरि पिट्ठे संतेइज्जति, एवमादि तं संसेदियं मन्नति । 'संस्वेदजं' पिष्टोदकादि । ७ (क) अ० चू० पृ० ११६ : जम्मि किश्चि सागादी संसेदेत्ता सित्तोसित्तादि कीरति तं संसेइमं । ( ख ) ठा० ३.३७६ वृ० : संसेकेन निर्वृतमिति संसेकिमम् अरणिकादिपत्रशाकमुक्तालय येन शीतलजलेन संसिध्यते । (क) नि० १५ गा० ४७०६ ० : ससेतिमं णाम पिट्ठरे पाणियं तावेत्ता पिण्डियट्ठिया तिला तेण ओलहिज्जेति तत्थ जे आमा तिला ते संसेतिमामं भण्णति । आदिग्गहणेणं जं पि अण्णं किचि एतेणं कमेण संसिज्झति तं पि संसेतिमामं भण्णति । (ख) नि० १७.१३२ गा० ५२५९ ० संसेतिमं तिला उष्वाभिए सिणा जति सोतोदगा घोवंति तो संसेतिमं भणति । , Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा (पिण्डषणा) २४७ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक ७६-७८ टि० १६४-१६५ जिसकी गन्ध न बदली हो, अपरिणत--जिसका रंग न बदला हो, अविध्वस्त-विरोधी शस्त्र के द्वारा जिसके जीव ध्वस्त न हुए हों, वह अधुनाधौत जल अप्रासुक (सजीव) होने के कारण मुनि के लिए अनेषणीय (अग्राह्य) होता है । जो इसके विपरीत आम्ल, व्युत्क्रान्त, परिणत, विध्वस्त होने के कारण प्रासुक ( अजीव ) हो वह चिरधौत जल मुनि के लिए एषणीय (ग्राह्य) होता है। यहाँ केवल अधुनाधौत जल का निषेध और चिरधौत होने के कारण जो अजीव और परिणत (परिणामान्तर प्राप्त) हो गया हो उसे लेने का विधान किया गया है। जिनदास चूणि और टीका में 'संस्वेदज' जल लेने का उत्सर्ग-विधि से निषेव और आपवादिक विधि से विधान किया है। परम्परा के अनुसार जिस धोवन को अन्तर्मुहुर्न काल न हुआ हो वह अधुनाधौत और इसके बाद का चिरचौत कहलाता है । इसकी शास्त्रीय परिभाषा यह है -जिसका स्वाद, गंध, रस और स्पर्श न बदला हो वह अधुनाधौत और जिसके ये बदल गए हों वह चिरधौत है । इसका आधार अधुनाधौत और अप्रासुक के मध्यवर्ती उक्त चार विशेषण हैं। श्लोक ७६ः १६४. मति ( मईएख) : यहाँ मति शब्द कारण से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । वर्ण आदि के परिवर्तन और अपरिवर्तन जल के अजीव और सजीव होने का निर्णय करने में कारण बनते हैं। मति द्वारा चिरधौत को जानने के लिए तीन उपाय बताए जाते हैं १-पुष्पोदक का विगलित होना। २-बिन्दुओं का सूखना। ३--चावलों का सीझना । चूर्णिकार के अनुसार ये तीनों अनादेश (असम्यग विधान) हैं, क्योंकि पुष्पोदक कभी-कभी चिरकाल तक टिक सकता है। जल की बूंदें भी सर्दी में चिरकाल से सूखती हैं और गर्मी में शीघ्र सूख जाती हैं। कलम, शालि आदि चावल जल्दी सीझ जाते हैं। घटिया चावल देरी से सीझते हैं । पुष्पोदक के विगलित होने में, बिन्दुओं के सूखने में और चावलों के सीझने में समय की निश्चितता नहीं है, इसलिए इनका कालमान जल के सचित्त से अचित्त होने में निर्णायक नहीं बनता । श्लोक ७८: १६५. बहुत खट्टा ( अचंबिलंग ) : आगम-रचना-काल में साधुओं को यवोदक, तुषोदक, सौवीर, आरनाल आदि अम्ल जल ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते थे। उनमें १.-आ० चु० १६९ : से भिक्खू वा भिक्खुणी वा...से जं पुण पाणगजायं जाणिज्ना, तंजहा-उस्सेइमं वा, संसेइमं वा, चाउलोदग वा, अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणंबिलं अव्वोक्कतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं अणेस णिज्ज ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहिज्जा। २-अ० चू० पृ० ११६ : 'आउक्कायस्स चिरेण परिणामो' त्ति मुद्दियापाणगं पक्खित्तमेत्तं, वालगे वा धोयमेत्ते, सागे वा पक्खित्तमेत्ते, अभिणव-धोतेसु चाउलेसु। ३-(क) जि० चू० पृ० १८५ : ताव अन्नंमि लब्भमाणे ण पडिगाहेज्जा । (ख) हा० टी० प० १७७ : एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृह्णीयारिति । ४-जि० चू० पृ० १८५-८६ : अपुच्छिए वण्णगंधरसफासेहिं णज्जति, जया य पाणस्स य कुक्कुसावया हेट्ठीभूया सुठु य पसणं भवति, फासुयं भवति, उसिणोदगमवि जदा तिन्नि वारे उव्वत्तं ताहे कप्पइ । ५-(क) अ० चू० पृ० ११६ : मतीए कारणेहिं । (ख) हा० टी० ५० १७७ : मत्या दर्शनेन वा, 'मत्या' तद्ग्रहणादिकर्मजया। ६-जि० चू० पृ० १८५ : मतीए नाम जं कारणेहि जाणइ, तत्थ केई इमाणि तिण्णि कारणाणि भणंति, जहा जाव पुप्फोदया विरा यंति ताव मिस्सं, अण्णे पुण भणंति--जाव फुसियाणि सुक्कंति, अण्णे भणंति–जाव तंदुला सिझंति, एवइएण कालेण अचित्तं भवइ, तिण्णिवि एते अणाएसा, कह?, पुप्फोदया कयायि चिरमच्छेज्जा, फुसियाणि वरिसारत्ते चिरेण सुक्कंति, उण्हकाले लहु, कलमसालि-तंदुलावि लहुँ सिझंति, एतेण कारणेण । Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) २४८ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ८१-८२ टि० १९६-२०० कांजी की भांति अम्लता होती थी। अधिक समय होने पर वे जल अधिक अम्ल हो जाते थे । उनमें दुर्गन्ध भी पैदा हो जाती थी। वैसे जलों से प्यास भी नहीं बुझती थी। इसलिए उन्हें चखकर लेने का विधान किया गया है । श्लोक ८१ : १९६. अचित्तं भूमि को ( अचित ख ) : दग्धस्थान आदि शस्त्रोपहत भूमि तथा जिस भूमि पर लोगों का आवागमन होता रहता है वह भूमि अचित्त होती है' । १७. यतना-पूर्वक ( जयं ग ) : यहाँ 'यत' शब्द का अर्थ अत्वरित किया है । ग १८. परिस्थापित करे ( परिवेज्जा ) : परिस्थापन ( परित्याग) दश प्रायश्चित्तों में चौथा प्रायश्चित्त है। अयोग्य या सदोष आहार आदि वस्तु आ जाए तो उसका परित्याग करना एक प्रायश्चित्त है, इसे 'विवेक' कहा जाता है। इस श्लोक में परित्याग कहाँ और कैसे करना चाहिए, परित्याग के बाद क्या करना चाहिए - इन तीन बातों का संकेत मिलता है। परित्याग करने की भूमि एकान्त और अचित्त होनी चाहिए। उस भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उसे देख रजोहरण से साफ कर) परिस्थान करना चाहिए। परित्याग करते समय 'वोसिरामि' - छोड़ता हूँ, परित्याग करता हूं यों तीन बार बोलना चाहिए । परित्याग करने के बाद उपाश्रय में आकर प्रतिक्रमण करना चाहिए। १६. प्रतिक्रमण करे ( पडिक्कमे घ ) : प्रतिक्रमण का अर्थ है लौटना-वापस आना । प्रयोजन के बिना मुनि को कहीं जाना नहीं चाहिए। प्रयोजनवश जाए तो वापस आने पर आने-जाने में जान-अनजान में हुई भूलों की विशुद्धि के लिए ईर्यापथिकी का ( देखिए आवश्यक चूर्णि ४.६ ) ध्यान करना चाहिए । यहाँ इसी को प्रतिक्रमण कहा गया है। इलोक ८२ : २०० श्लोक ८२ : इस श्लोक से भोजन विधि का प्रारम्भ होता है । सामान्य विधि के अनुसार मुनि को गोचराय से वापस आ उपाश्रय में भोजन करना चाहिए, किन्तु जो मुनि दूसरे गाँव में भिक्षा लाने जाए और वह बालक, बूढ़ा, बुभुक्षितया तपस्वी हो या प्यास से पीड़ित हो तो १ – (क) अ० चू० पृ० १२० : अच्चित्तं झामथंडिल्लाति । (ख) जि० ० ० १०६ अवित्तं नाम (ग) हा० टी० प० १७८ : 'अचित्तं' दग्धदेशादि । (क) जि० चू० पृ० १८६ : जयं नाम अतुरियं । (ख) हा० टी० प० १७८ 'यतम्' अत्वरितम् । ३ठा० १०।७३ । ४ - विशेष स्पष्टता के लिए देखिए आयार चुला १।२,३ । ४जि० पू० पृ० १०६ ५ ६ हा० ० ० १०८ सत्योवह अचित्तं तं च आगमणवंडिलादी । पडिलेणागमेण पमज्जमाथि गहिया, चक्खुणा पडिमा रहरणादिना पमज्जणा। प्रतिष्ठापयेद्विपिता त्रिर्वाक्यपूर्व व्युत्सृजेत्। ७. - (क) अ० चू० पृ० १२० : पच्चागतो इरियावहियाए पडिक्कमे । (ख) जि० चू० पृ० १८६-८७ : परिटट्वेऊण उवस्सय मागंतूण ईरियावहियाए पडिक्कमेज्जा | : (ग) हा० टी० प० १७८ प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदी पथिकाम् एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २४६ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८३ टि० २०१-२०३ उपाश्रय में ग्राने के पहले ही भोजन (कलेवा) कर सकता है । श्लोक ८२ से ८६ तक इसी आपवादिक विधि का वर्णन है । जिस गांव में वह भिक्षा के लिए जाए वहाँ साधु ठहरे हुए हों तो उनके पास जाकर आहार करना चाहिए। यदि साधु न हों तो कोष्ठक अथबा भित्तिमूल आदि हों वहाँ जाना चाहिए। यदि उनका अधिकारी हो तो वहाँ ठहरने के लिए उनकी अनुमति लेनी चाहिए। आहार के लिए उपयुक्त स्थान वह होता है, जो ऊपर से छाया हुआ और चारों ओर से संवृत हो । वैसे स्थान में ऊपर से उड़ते हुए सूक्ष्म जीवों के गिरने की संभावना नहीं रहती। आहार करने से पहले 'हस्तक' से समूचे शरीर का प्रमार्जन करना चाहिए। २०१. भित्तिमूल ( भित्तिमूलं ग): व्याख्याकारों ने इसका अर्थ दो घरों का मध्यवर्ती भाग, भित्ति का एक देश अथवा भित्ति का पाश्र्ववर्ती भाग और कुटीर या भीत किया है। श्लोक ८३ : २०२. अनुज्ञा लेकर (अणुन्नवेत्तु क): ___स्वामी से अनुज्ञा प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है- "हे श्रावक ! तुम्हें धर्म-लाभ है। मैं मुहूर्त भर यहाँ विश्राम करना चाहता हूँ" मुनि यह कहे, किन्तु यहां खाना-पीना चाहता हूँ' यह न कहे, क्योंकि ऐसा कहने पर गृहस्थ कुतूहलवश वहाँ आने का प्रयत्न कर सकता है। अनुज्ञा देने की विधि इस प्रकार है-गृहस्थ नतमस्तक होकर कहता है-"आप चाहते हैं वैसे विश्राम की अनुज्ञा देता हूँ।" २०३. छाए हए एवं संवत स्थल में (पडिच्छन्नम्मि संवडे ख ) : जिनदास धुणि के अनुसार 'प्रतिच्छन्न' और 'संवृत'-ये दोनों शब्द स्थान के विशेषण हैं। अगस्त्य घूगि और टीका के अनुसार 'प्रतिच्छन्न' स्थान का और 'संवृत' मुनि का विशेषण है। उत्तराध्ययन (१.३५) में ये दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं । शान्त्याचार्य ने इन दोनों को मुख्यार्थ में स्थान का विशेषण माना है। १-(क) अ० चू० पृ० १२० : गोतरग्गगतस्स भोत्तव्यसंभवो गामंतरं भिक्खायरियाए गतस्स काल-क्खमण-पुरिसे आसज्ज पढमालियं । (ख) जि०० पृ० १८७ : जो य सो गोयरग्गगओ भुंजइ सो अन्नं गामं गओ बालो बुढो छाआलू खमओ वा, अहवा तिसिओ तो कोई विलंबणं काऊण पाणयं पिबेज्जा, एवमादि, पढमालियं काउं, तं पुण अण्णसाधुउवस्सगऽसतीए कुछए भित्तिमूले वा समुद्दिसेज्जा। २-देखिए टिप्पण संख्या २०४ । ३-प्रश्न० (सं०) पृ० २०२ : संपमज्जिऊण ससीसं कायं । ४-अ० चू० पृ० १२० : दोण्हं घराणं अंतरं भित्तिमूलं । ५-हा० टी० ५० १७८ : 'भित्तिमूलं वा' कुड्यैकदेशादि । ६--- जि० चू० पृ० १८७ : भित्ती नाम कुडो कुड्डो। ७ -- (क) अ० चू० पृ० १२० : धम्मलाभपुव्वं तस्स त्थाणस्स पभुमणुण्णवेति --जदि ण उवरोहो एत्थ मुहुत्त वीससामि, ण भणति ___ 'समुद्दिसामि' मा कोतुहल्लेण एहिती। (ख) जि० चू० पृ० १८७ : तेण तत्थ ठायमाणेण तत्थ पहू अणुन्नवेयव्वो-धम्मलाभो ते सावगा! एत्य अहं मुहत्तागंमि विस्समामि, ण य भणयति जहा समुद्दिस्सामि आययामि वा, कोउएण पलोएहिति । (ग) हा० टी० ५० १७८ : 'अनुज्ञाप्य' सागारिकपरिहारतो विश्रमणव्याजेन तत्स्वामिनमवग्रहम् । ८-जि० चू० पृ० १८७ : पडिच्छण्णे संवुडे ठातियव्वं जहा सहसत्ति न दीसती, जहा य सागारियं दूरओ जं न पासति तहा ठातियव्वं । E-(क) अ० चू० पृ० १२० : पडिच्छण्णे थाणे संवुडो सयं जधा सहसा ण दीसति सयमावयंत पेच्छति । (ख) हा० टी० ५० १७८ : 'प्रतिच्छन्ने' तत्र कोष्ठकादौ 'संवृत' उपयुक्तः सन् । १०-उत्त० वृ० पत्र ६०,६१ : 'प्रतिच्छन्ने' उपरिप्रावरणान्विते, अन्यथा सम्पातिमसत्त्वसम्पातसम्भवात्, 'संवृते' पार्श्वत: कटकु ट्यादिना सङ्कटद्वारे अटव्यां कुडङ्गादिषु वा... ... 'संवृतो वा सकलाश्रवविरमणात् । Jain Education Intemational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २५० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८४ टि० २०४-२०५ बहत्कल्प के अनुसार मुनि का आहार-स्थल प्रतिच्छन्न-ऊपर से छाया हुआ और संवृत -पार्श्व-भाग से आवृत होना चाहिए । इस दृष्टि से 'प्रतिच्छन्न' और 'संवृत' दोनों स्थान के विशेषण होने चाहिए । २०४. हस्तक से ( हत्थगंग): 'हस्तक' का अर्थ-मुखपतिका, मुख-वस्त्रिका होता है । कुछ आधुनिक व्याख्याकार 'हस्तक' का अर्थ पूंजनी (प्रमार्जनी) करते है, किन्तु यह साधार नहीं लगता । ओघनियुक्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों में मुख-वस्त्रिका का उपयोग प्रमार्जन बतलाया है । पात्र-केसरिका का अर्थ होता है—पात्र-मुख-वस्त्रिका-पात्र-प्रमार्जन के काम आने वाला वस्त्र-खण्ड । 'हस्तक', मुख-'वस्त्रिका' और 'मुखान्तक'-ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं। श्लोक ८४: २०५, गुठली, कांटा (अद्वियं कंटओख ) : धूर्णिकार इनका अर्थ हड्डी और मछली का कांटा करते हैं और इनका सम्बन्ध देश-काल की अपेक्षा से ग्रहण किए हुए मांस आदि से जोड़ते हैं। अस्थिक और कंटक प्रमादवश गृहस्थ द्वारा मुनि को दिए हुए हो सकते हैं --ऐसा टीकाकार का अभिमत है। उन्होंने एक मतान्तर का भी उल्लेख किया है। उसके अनुसार अस्थिक और कंटक कारणवश गृहीत भी हो सकते हैं । किन्तु यहाँ अस्थिक और कंटक का अर्थ हड्डी और मछली का कांटा करना प्रकरण-संगत नहीं है। गोचरान-काल में आहार करने के तीन कारण बतलाए हैं --असहिष्णुता, ग्रीष्मऋतु का समय और तपस्या का पारणा । ओघनियुक्ति के भाष्यकार ने असहिष्णुता के दो कारण बतलाए हैं— भूख और प्यास" । क्लान्त होने पर मनि भूख की शांति के लिए थोड़ा-सा खाता है और प्यास की शांति के लिए पानी पीता है । यहाँ 'भुंजमाण' शब्द का अर्थ परिभोग किया जा सकता है। उसमें खाना और पीना—ये दोनों समाते हैं। गुठली और कांटे का प्रसंग भोजन की अपेक्षा पानी में अधिक है । आयारचूला में कहा है कि आम्रातक, कपित्थ, बिजौरे, दाख, खजूर, नारियल, करीर (करील-एक प्रकार की कंटीली झाड़ी), बेर, आंवले या इमली का धोवन 'सअट्ठियं' (गुठली सहित), 'सकरणुयं' (छिलके सहित) और 'सबीयगं' (बीज सहित) हो, उसे गृहस्थ वस्त्र आदि से छानकर दे तो मुनि न ले । इस सूत्र के ‘सअट्ठिय' शब्द की तुलना प्रस्तुत श्लोक के 'अट्टिय' शब्द से होती है। शीलाङ्काचार्य ने 'सअट्ठिय' शब्द का अर्थ गुठली सहित किया है। १-(क) जि० चू० पृ० १८७ : हत्थगं मुहपोत्तिया भण्णइत्ति । (ख) हा० टी० ५० १७८ : 'हस्तक' मुखवस्त्रिकारूपम् । २–ओ० नि० ७१२ वृ० : संपातिमसत्त्वरक्षणार्थ जल्पद्भिर्मुखे दीयते, तथा रजः-सचित्तपृथिवीकायस्तत् प्रमार्जनार्थ मुखवस्त्रिका गृह्यते, तथा रेणुप्रमार्जनार्थं मुखवस्त्रिकाग्रहणं प्रतिपादयन्ति पूर्वर्षयः । तथा नासिकामुखं बध्नाति तथा मुखवस्त्रिकया वसति प्रमार्जयन् येन न मुखादौ रजः प्रविशतीति । ३--ओ० नि० ६६८ वृ०। ४-(क) अ० चू० पृ० १२१ : अद्वितं कारणगहितं अणाभोगेण वा, एवं अणि मिसं । (ख) जि० चू० पृ० १८७ : जइ तस्स साहुणो तत्थ भुजमाणस्स देसकालादीणि पडुच्च गहिए मंसादीए अन्नपाणे अट्ठी कंटका वा हुज्जा। ५-हा० टी० ५० १७८ : अस्थि कण्टको वा स्यात्, कथंचिद् गृहिणां प्रमाददोषात्, कारणगृहीते पुद्गल एवेत्यन्ये । ६--ओ० नि० गा० २५० । ७–ओ० नि० भाष्य १४६ । ८-आ० चू० १११०४। - आ० चू० १११०४ ७० : 'सास्थिक' सहास्थिना-कुलकेन यद्वर्त्तते । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा (पिण्डेषणा) २५१ आयारचूला में जिन बारह प्रकार की वनस्पति के फलों के घोवन का उल्लेख किया गया है उनमें लगभग सभी फल गुठली या बीज वाले हैं और उनके कुछ पेड़ कंटीले भी हैं। इसीलिए दाता के प्रमादवश किसी धोवन में गुठली और काँटे का रहना संभव भी है। हो सकता है ये भोजन में भी रह जाएँ। किन्तु यहाँ ये दोनों शब्द हड्डी और मत्स्य-कंटक के अर्थ में प्रयुक्त प्रतीत नहीं होते । श्लोक ८७ : २०६. श्लोक ८७ : पिछले पाँच श्लोकों (८२-८६ ) में गोचराग्र-गत मुनि के भोजन की विधि का वर्णन है। आगे के दस श्लोकों (८७-९६) में भिक्षा लेकर उपाश्रय में आहार करने की और उसकी अन्तराल - विधि का वर्णन है । इसमें सबसे पहले स्थान प्रतिलेखना की बात आती है । गृहस्थ के पास से भिक्षा लेने के बाद मुनि को उसका विशोधन करना चाहिए। उसमें जीव-जन्तु या कंटक आदि हों तो उन्हें निकाल कर अलग रख देना चाहिए । बोपनि फिकार ने भिक्षा-विशुद्धि के तीन स्थानमा शून्यगृह वह न हो तो देवकुल और वह न मिले तो उपका द्वार' । इसलिए आश्रय में प्रविष्ट होने से पहले स्थान प्रतिलेखना करनी चाहिए और प्रतिलेखित स्थान में आहार की विशुद्धि कर फिर उपाश्रय में प्रवेश करना चाहिए। प्रवेश विधि इस प्रकार है- पहले रजोहरण से पादप्रमार्जन करे, उसके बाद तीन बार 'निसीहिया' ( आवश्यक कार्य से निवृत्त होता हूँ) बोले और गुरु के सामने आते ही हाथ जोड़ 'णमो खमासमणाणं' बोले । इस सारी विधि को विनय कहा गया है। अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक ८७ टि० २०६ : उपाश्रय में प्रविष्ट होकर स्थान प्रतिलेखन कर भिक्षा की झोली को रख दें, फिर गुरु के समीप आ 'ईर्यापथिकी' सूत्र पढ़े, फिर कायोत्सर्ग ( शरीर को निश्चल बना भुजाओं को प्रलंबितकर खड़ा रहने की मुद्रा) करने के लिए 'तस्सोत्तरी करणेणं" सूत्र पढ़े, फिर कायोत्सर्ग करे । उसमें अतिचारों की क्रमिक स्मृति करे, फिर 'लोगस्स उज्जोयगरे" सूत्र का चिन्तन करें । ओघनियुक्तिकार कायोत्सर्ग में केवल अतिचारचिन्तन की विधि बतलाते है । जिनदास महत्तर अतिचार- चिन्तन के बाद 'लोगस्स' सूत्र के चिन्तन का निर्देश देते हैं । नमस्कार मंत्र के द्वारा कायोत्सर्ग को पूरा कर गुरु के पास आलोचना करे। चूर्णिकार और टीकाकार के अनुसार आलोचना करने वाला अव्याक्षिप्त-चित्त होकर ( दूसरों से वार्तालाप न करता हुआ) आलोचना करे। ओघनियुक्ति के अनुसार आचार्य व्याक्षिप्त न हों; धर्म-कथा, आहार- नीहार, दूसरे से बातचीत करने और विकथा में लगे हुए न हों तब उनके पास आलोचना करनी चाहिए । आलोचना करने से पहले यह आचार्य की अनुज्ञा ले और आचार्य अनुवादे तब आलोचना करें" जिससे भिक्षा ती हो उसी क्रम से पहली भिक्षा से प्रारम्भ कर अन्तिम भिक्षा तक जो कुछ बीता हो वह सब आचार्य को कहे। समय कम हो तो आलोचना (निवेदन) १- ओ० नि० गा० ५०३ । २- ओ० नि० गा० ५०६ । ३ - आव० ५.३ । ४-आव० २ । ५- जि० चू० पृ० १८८ । ६- ओ० नि० गा० ५१२ । ७० ० ० १ ताहे लोगस्सुजोयगर कण समारं - (क) जि० १० चू० पृ० १८८ : अव्वक्खित्तेण चेतसा नाम तमालोयंतो अण्णेण केणइ समं न उल्लावद, अवि वयणं वा अन्नस्स न देई । (ख) हा० टी० प० १७६ अन्याक्षिप्तेन चेतसा अन्यत्रोपयोग मगच्छतेत्यर्थ । ८ ६- ओ० नि० गा० ५१४ । १०- ओ० नि० गा० ५१५ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) २५२ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ८७ टि २०६ का संक्षेप भी किया जा सकता है । आलोचना आचार्य के पास की जानी चाहिए अथवा आचार्य-सम्मत किसी दूसरे मुनि के पास भी वह की जा सकती है। आलोचना सरल और अनुद्विग्न भाव से करनी चाहिए। स्मृतिगत अतिचारों को आलोचना करने के बाद भी अज्ञात या विस्मृत पुर: कर्म, पश्चात् कर्म आदि अतिचारों की विशुद्धि के लिए फिर प्रतिक्रमण करे – 'पडिक्कमामि गोयरचरियाए' सूत्र पढ़े। फिर व्युत्सृष्ट-देह (प्रलम्बित बाहु और स्थिर देह खड़ा) होकर निरवद्यवृत्ति और शरीर धारण के प्रयोजन का चितन करे । नमस्कार मंत्र पढ़कर. कायोत्सर्ग को पूरा करे और जिन-संस्तव —'लोगस्स' सूत्र पड़े । उसके बाद स्वाध्याय करे एक मण्डली में भोजन करनेवाले सभी मुनि एकत्रित न हो जाएं तब तक स्वाध्याय करे । ओधनियुक्ति के अनुसार आठ उच्छ्वास तक नमस्कार-मंत्र का ध्यान करे अथवा 'जइ मे अणुग्गहं कुज्जा' इत्यादि दो श्लोकों का ध्यान करे । फिर मुहूर्त तक स्वाध्याय करे (कम से कम तीन गाथा पढ़े) जिससे परिश्रम के बाद तत्काल आहार करने से होने वाले धातु-क्षोभ, मरण आदि दोष टल जाएँ । मुनि दो प्रकार के होते हैं१. मण्डल्युपजीवी-मण्डली के साथ भोजन करने वाले । २. अमण्डल्युपजीवी-अकेले भोजन करने वाले । मण्डल्युपजीवी मुनि मण्डली के सब साधु एकत्रित न हो जाएं तब तक आहार नहीं करता। उनकी प्रतीक्षा करता रहता है। अमण्डल्युपजीवी मुनि भिक्षा लाकर कुछ क्षण विश्राम करता है। विश्राम के क्षणों में वह अपनी भिक्षा के अर्पण का चिन्तन करता है। उसके बाद आचार्य से प्रार्थना करता है --- "भंते ! यह मेरा आहार आप लें।" आचार्य यदि न लें तो वह फिर प्रार्थना करता है-"भते ! आप पाहुने, तपस्वी, रुग्ण, बाल, वृद्ध या शिक्षक-इनमें से जिस किसी मुनि को देना चाहें उन्हें दें।" यो प्रार्थना करने पर आचार्य पाहुने आदि में से किसी मुनि को कुछ दें तो शेष रहा हुआ आचार्य की अनुमति से स्वयं खा ले और यदि आचार्य कहें कि साधुओं को तुम ही निमन्त्रण दो तो वह स्वयं साधुओं को निमंत्रित करे। दूसरे साधु निमन्त्रण स्वीकार करें तो उनके साथ खा ले और यदि कोई निमंत्रण स्वीकार न करे तो अकेला खा ले। निमंत्रण क्यों देना चाहिए-इसके समाधान में ओघनियुक्तिकार कहते हैं--जो भिक्षु अपनी लाई हुई भिक्षा के लिए सामिक साधुओं को निमंत्रण देता है उससे उसकी चित्त-शुद्धि होती है । चित्त-शुद्धि से कर्म का विलय होता है, आत्मा उज्ज्वल होती है । निमंत्रण आदरपूर्वक देना चाहिए । जो अवज्ञा से निमन्त्रण देता है, वह साधु-संघ का अपमान करता है । जो एक साधु का १-ओ० नि० गा० ५१८, ५१६ । २-ओ० नि० गा० ५१७ ॥ ३-आव० ४.८ । ४–ओ० नि० गा०५१० वृ० : व्युत्सृष्टदेहः-प्रलम्बितबाहुस्त्यक्तदेहः साधु पद्रवेऽपि नोत्सारयति कायोत्सर्गम्, अथवा व्युसृष्टदेहो दिभ्योपसर्गेऽष्वपि न कायोत्सर्गभङ्ग करोति, त्यक्तदेहोऽक्षिमलदूषिकामपि नापनयति, स एवं विधः कायोत्सर्ग कुर्यात् । विशेष जानकारी के लिए देखिए १०.१३ के 'वोसट्ठ-चत्त-देहे' की टिप्पणी । ५-अ० चू० पृ० १२२ : वोसट्ठो इमं चितए जं अतरं भणीहामि । ६-ओ० नि० भाष्य २७४ । ७- ओ० नि० गा० ५२१ : विणएण पट्टवित्ता सज्झायं कुणइ तो महुत्तागं । पुरुवभणिया य दोसा, परिस्समाई जढा एवं ॥ 4-(क) जि० चू० पृ० १८६ : जई पुव्वं ण पट्ठवियं ताहे पट्ठविऊण सज्झायं करेइ, जाव साधुणो अन्ने आगच्छंति, जो पुण खमणो अत्तलाभिओ वा सो मुहत्तमेत्तं व सज्झो (बीसत्थो) इमं चितेज्जा। (ख) हा० टी० ५० १८० : स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति, यः पुनस्तदन्यः क्षपकादि: सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षण' स्तोककालं मुनिः । 8-ओ० नि० गा०:५२१-२४ । १०-ओ० नि० गा० ५२५ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Onty Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) अनादर करता है, वह सब साधुओं का अनादर करता है। जो एक साधु का आदर करता है, वह सब साधुओं का आदर करता है । २५३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक टि० २०७-२०० : ८५ कारण स्पष्ट है जिसमें साधुता, ज्ञान, दर्शन, तप और संयम है वह साधु है । साधुता जैसे एक में है वैसे सब में है । एक साधु का अपमान साधुता का अपमान है और साधुता का अपमान सब साधुओं का अपमान है। इसी प्रकार एक साधु का सम्मान साधुता का सम्मान है और साधुता का सम्मान सब साधुओं का सम्मान है । इसीलिए कहा है कि संयम प्रधान साधुओं का वैयावृत्त्य करो - भक्त पान काम करो और सब प्रतिपाती है, या अतिपाती है। 1 इन दस श्लोकों में से पहले श्लोक का प्रतिपाद्य है- भिक्षा-विशुद्धि के लिए स्थान का प्रतिलेखन । दूसरे का प्रतिपाद्य है-उपाश्रय में प्रवेश की विधि, ईर्यापथिकी का पाठ और कायोत्सर्ग । भूलों की विस्मृति- यह तीसरे का विषय है। चौथे का विषय है-उनकी आलोचना । छोटी या विस्मृत भूलों की विशुद्धि के लिए पुनः प्रतिक्रमण, चिन्तन और चिन्तनीय विषय ये पाँचवें और छट्ठे में हैं । कायोत्सर्ग पूरा करने की विधि और इसके बाद किए जाने वाले जिन संस्तव और स्वाध्याय का उल्लेख- ये सातवें श्लोक के तीन चरणों में हैं और स्वाध्याय के बाद भोजन करना यह वहाँ स्वयंगम्य है । चौथे चरण में एकाकी भोजन करने वाले मुनि के लिए विश्राम का निर्देश दिया गया है । शेष तीन श्लोकों में एकाकी भोजन करने वाले मुनि के विश्रामकालीन चिन्तन, निमंत्रण और आहार करने के वस्तुविषय का प्रतिपादन हुआ है। के लिए देखिए - प्रश्न व्याकरण ( संवरद्वार-१ : चौथी भावना ) | तुलना २०७. कदाचित् ( सिया क ) : यहाँ 'स्यात्' का प्रयोग 'यदि' के अर्थ में हुआ है। आवश्यकतावश साधु उपाश्रय में न आकर बाहर ही आहार कर सकता है । इसका उल्लेख श्लोक ८२ और ८३ में है। विशेष कारण के अभाव में साधारण विधि यह है कि जहाँ साधु ठहरा हो वहीं आकर भोजन करे । उसका विवेचन आगे किया जा रहा है । श्लोक ८८ : २०८. विनयपूर्वक ( विषएण क ): उपाश्रय में प्रवेश करते संचय नैषेधिकी का उच्चारण करते हुए अञ्जलिपूर्वक 'नमस्कार हो क्षमाश्रमण को 'ऐसा कहना विनय की पद्धति है । एक हाथ में झोली होती है इसलिए दाएं हाथ की अंगुलियों को मुकुलित कर उसे ललाट पर रख 'नमो खमासमणाणं' का उच्चारण करे । तुलना-णिक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियबो - प्रश्न व्याकरण ( संवरद्वार- ३ पाँचवीं भावना ) । , १- ओ० नि० गा० ५२६ : एक्कम्मि हीलियमी, सब्वे ते होलिया हु'ति । २ श्र० नि० गा० ५२७ : एक्कम्मि पूइयंमी, सव्वे ते पूइया हुति । ३- ओ० नि० गा० ५२६-५३१ । ४- ओ० नि० गा० ५३२ । ५ - अ० चू० पृ० १२१ : सिया य इति कदायि कस्सति एवं विता होज्जा कि मे सागारियातिसंकडे बाहिं समुद्दि ेणं ? उवस्सए चैव भविस्सति' एवं इच्छेखा एस नियतो विविरिति एवं सिवासहो । , ६ (क) अ० पू० १० १२२ निसीया मोसमासमा जति सोलम्बावडी तो दाहित्वमाि काऊण एतेन विणएण । (ख) जि० चू० पृ० १८८ : विणओ नाम पवितो णितीहियं काऊण 'नमो खमासमणाणं' ति भणतो जति से खणिओ हत्थो, एसो विणओ भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १७६ : 'विनयेन' नैषेधिकी नमः क्षमाश्रमणेभ्योऽञ्जलिकरणलक्षणेन । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) २०६. ( अहो क ) : व्याख्याकारों ने इसे विस्मय के अर्थ में प्रयुक्त माना है। इसे सम्बोधन के लिए भी प्रयुक्त माना जा सकता है । २११ (लाभ) २५४ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक १२-६७ टि० २०६-२१४ श्लोक ६२ : २१०. क्षणभर विश्राम करे ( वीसमेज्ज खणं मुणी प ) : मण्डली - भोजी मुनि मण्डली के अन्य साधु न आ जाएँ तब तक और एकाकी भोजन करने वाला मुनि थोड़े समय के लिए विश्राम करे । यहाँ मकार अलाक्षणिक है। श्लोक १३: श्लोक ६४ : श्लोक १६: २१२. खुले पात्र में ( आलोए भायणे ग) : जिस पात्र का मुंह खुला हो या चौड़ा हो उसे आलोक-भाजन कहा जाता है। आहार करते समय जीव-जन्तु भलीभांति देखे जा सकें इस दृष्टि से मुनि को प्रकाशमय पात्र में आहार करना चाहिए । २१३. (अपरिसा घ) इसका पाठान्तर 'अपरिसाडिय' है । भगवती और प्रश्न व्याकरण में इस प्रसंग में 'अपरिसाडि' पाठ मिलता है । वहाँ इसका अर्थ होगा, जैसे न गिरे वैसे । श्लोक १७: २१४. गृहस्थ के लिए बना हुआ ( अन्नड पडतं ) अगस्त्य-पूरि में इसके दो अर्थ किए हैं परकृत और अन्नार्थ भोजनाचे प्रयुक्त जिनदास पूर्ण और वृत्ति में इसका अर्थ १ – (क) अ० चू० पृ० १२२ : अहोसद्दो विम्हए। को विम्हओ ? सत्तसमाकुले वि लोए अपीडाए जीवाण सरीरधारणं । (ख) हा० टी० प० १७६ : 'अहो' विस्मये । २ (क) जि०० पृ० १०९ जाव साधुषो अन् आगच्छति जो पुण समणो असताभियो या सी गृहसमेतं वा सज्मो (वीसत्यो ) । (ख) हा० टी० प० १८० : मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति यः पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षण' स्तोककालं मुनिरिति । ३– (क) अ० चू० पृ० १२३ : तं पुण कंटऽट्टि मक्खिता परिहरणत्थं, 'आलोगभायणे' पगास-विउलमुहे वल्लिकाइए । (ख) जि० ० पृ० १८६ ते सागा आलोयभावणे समूह सियाण्य चू० : । (ग) हा० टी० प० १८० : 'आलोके भाजने' मक्षिकाद्यपोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः । ४ -- भग० ७.१.२२ : अपरिसाडि । ५ प्रश्न० संवर द्वार १: (चौथी भावना) । ६ - अ० चू० पृ० १२४ : अण्णापउत्तं परकडं, अहवा भोयणत्ये पयोए एतं लद्ध अतो तं । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २५५ अध्ययन ५ (प्र०उ०) : श्लोक ६७ टि० २१५-२२० मोक्षार्थ-प्रयुक्त किया है। उनके अनुसार मोक्ष की साधना शरीर से होती है और शरीर का निर्वाह आहार से होता है । मोक्ष-साधना के लिए शरीर का निर्वाह होता रहे इस दृष्टि से मुनि को आहार करना चाहिए, सौन्दर्य और बल बढ़ाने के लिए नहीं । २१५. तीता ( तिक्त ) ( तित्तगं क ) : तिक्त के उदाहरण-करेला, खीरा, ककड़ी आदि हैं। २१६. कडुवा ( कडुयं क ) : कटुक के उदाहरण --त्रिकटु (सोंठ, पीपल और कालीमिर्च) अश्वक और अदरक आदि हैं । २१७. कसैला ( कसायं क ) : कषाय के उदाहरण-आँवले , निष्पाव (वल्लधान्य) आदि हैं। २१८. खट्टा ( अंबिलं ख): खट्टे के उदाहरण - तक्र, कांजी आदि है । २१६. मीठा ( महरं ख ): मधुर के उदाहरण-क्षीर", जल११, मधु१२ आदि । २२०. नमकीन ( लवणं ग) : नमकीन के उदाहरण --नमक आदि । १- (क) जि० चू० पृ० १६० : 'एयलद्धमन्नत्थपउत्त' मिति अण्णो-मोक्खो तष्णिमित्तं आहारेयव्वंति, तम्हा साहुणा सब्भावाण कुलेसु साधुत्ति (न) जिभिदियं उबालभइ, जहा जमेतं मया लद्ध एतं सरीरसगडस्स अक्खोवंगसरिसंतिकाऊण पउत्तं न वण्णरूवबलाइनिमित्तंति । (ख) हा० टी० ५० १८० : 'अन्यार्थम्' अक्षोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थं प्रयुक्तं तत्साधकम् । २-अ० चू० पृ० १२४ : 'तित्तगं' कारवेल्लाति । ३-(क) जि० चू० पृ० १८६ : तत्थ तित्तगं एलगवालुगाइ। (ख) हा० टी० ५० १८० : तिक्तकं वा एलुकवालुङ्कादि । ४- अ० चू० पृ० १२४ : 'कडुयं त्रिकडुकाति । ५-जि० चू० पृ० १८६ : कडुमस्सगादि, जहा पभूएण अस्सगेण संजुत्तं दोद्धगं । ६-हा० टी० प०१८० : कटुकं वा आकतीमनादि । ७-अ० चू० पृ० १२४ : 'कसाय' आमलकसारियाति । ८-(ख) जि० चू० पृ० १८९ : कसायं निष्फायादी। (ख) हा० टी० ५० १८० : कषायं वल्लादि । ६-(क) अ० चू० पृ० १२४ : अंबिलं तक्क-कंजियादि । (ख) जि० चू० पृ० १८६ : अंबिलं तक्कंबिलादि । (ग) हा० टी०प० १८० : अम्लं तक्रारनालादि । १०---अ० चू० पृ० १२४ : मधुरं खीराति । ११–जि० चू० पृ० १८६ : मधुरं जलखीरादि । १२-हा० टी० ५० १८० : मधुरं क्षीरमध्वादि । १३- (क) अ० चू० पृ० १२४ : लवणं सामुद्दलवणातिणा सुपडियुरामण्णं । (ख) जि० चू० पृ० १८६ : लवणं पसिद्धं चेव । (ग) हा० टी० ५० १८० : लवणं वा प्रकृतिक्षारं तथाविधं शाकादिलवणोत्कटं वाऽन्यत् । Jain Education Intemational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) २२१. मधुघृत ( महु-घयं ) : जैसे मधु और घी सरस मानकर खाए जाते हैं वैसे ही अस्वाद-वृत्ति वाला मुनि नीरस भोजन को भी सरस की भांति खाए । इस उपमा का दूसरा आशय यह भी हो सकता है कि जैसे मधु और घी को एक जबड़े से दूसरे जबड़े की ओर ले जाने की आवश्यकता नहीं होती किन्तु वे सीधे ही निगल लिए जाते हैं, उसी प्रकार स्वाद - विजेता मुनि सरस भोजन को स्वाद के लिए मुँह में इधर-उधर घुमाता न रहे, किन्तु उसे शहद और घी की भाँति निगल जाए'। घ २५६ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक १८ टि० २२१-२२३ इलोक १८: जो जाति कुल आदि के सहारे नहीं जीता उसे मुमाजीवी कहा जाता है'। २२२. मुधाजीवी ( मुहाजीवी ग ) : टीकाकार मुधाजीवी का अर्थ अनिदान-जीवी करते हैं और मतान्तर का भी उल्लेख करते हैं । वाला हो सकता है किन्तु संगत लगता है । मुधाजीवी या अनिदान-जीवी का अर्थ अनासक्त भाव से जीने वाला, भोग का संकल्प किये बिना जीने इस प्रसङ्ग में इसका अर्थ प्रतिफल देने की भावना रखे बिना जो आहार मिले उससे जीवन चलाने वाला एक राजा था। एक दिन उसके मन में विचार आया कि सभी लोग अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं और उसको मोक्ष का साधन बताते हैं अत: कौन-सा धर्म अच्छा है उसकी परीक्षा करनी चाहिए। धर्म की पहचान उनके गुरु से ही होगी। वही सच्चा गुरु है जो अनिविष्ट भोजी है । उसी का धर्म सर्व श्रेष्ठ होगा। ऐसा सोच उसने अपने नौकरों से घोषणा कराई कि राजा मोदकों का दान देना चाहता है । राजा की मोदक दान की बात सुन अनेक कार्यटिक आदि वहाँ दान लेने आये । राजा ने दान के इच्छुक उन एकत्र काटक आदि से पूछा आप लोग अपना जीवन निर्वाह किस तरह करते हैं ?" उपस्थित भिक्षुओं में से एक ने कहा- "मैं मुख से निर्वाह करता हूँ ।" दूसरे ने कहा- "मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ।" तीसरे ने कहा- "मैं हाथों से निर्वाह करता हूँ ।" चौथे ने कहा"मैं लोकानुग्रह से निर्वाह करता हूँ ।" पांचवें ने कहा- "मेरा क्या निर्वाह ? मैं मुधाजीवी हूँ ।" राजा ने कहा- "आप लोगों के उत्तर को मैं अच्छी तरह नहीं समझ सका अतः इसका स्पष्टीकरण करें ।" तब पहले भिक्षु ने कहा- "मैं कथक हूँ, कथा कह कर अपना निर्वाह करता है, अतः करता हूं।" दूसरे ने कहा मैं मुख तीसरे ने कहा "मैं लेखक हूँ, अतः हाथ से निर्वाह करता हूँ ।" पाँचवे ने कहा "मैं संसार से विरक्त नियंग्य है। संवननिर्वाह के हेतु निःस्वार्थ बुद्धि से लेता है। मैं आहार आदि के लिए किसी की अधीनता स्वीकार नहीं करता, अतः मैं मुधाजीवी हूँ ।" इस पर राजा ने कहा- "वास्तव में आप ही सच्चे साधु हैं ।" राजा उस साधु से प्रतिबोध पाकर प्रव्रजित हुआ । देश पहुंचाता हूँ, लेखवाहक हूं अतः पैरों से निर्वाह करता है।" चौथे ने कहा “मैं लोगों का अनुग्रह प्राप्त कर निर्वाह करता हूँ २२३. अरस (अरसं क ) गुड़, दाड़िम आदि रहित, संस्कार रहित या बधार रहित भोज्य-वस्तु को 'अरस' कहा जाता है । १ (क) अ० चू० पृ० १२४ : महुघतं व भुंजेज्ज जहा मधुघतं कोति सुरसमिति सुमुहो भुंजति तहा तं सुमुहेण भुंजितव्वं, अहवा महू-तमिव हणुयातो हनु असंवारते (ख) जि० ० ० १६० तं मधुयमिव भूपि साहूया, जहा महद्ययानि जति तहा तं असोहणमवि भुजिष्यं अहवा जहा महष हा हवं असंचारेहि भुजितव्यं । (ग) हा० टी० प० १८० : मधुघृतमिव च भुञ्जीत संयतः, न वर्णाद्यर्थम्, अथवा मधुघृतमिव ' णो वामाओ हणुआओ दाहिणं हणुअं संचारेज्ज' । २०१० १० १२० ३० टी० प० १०१ ४ – (क) अ० चू० पृ १२४ : अरसं गुडदा डिम दिविरहितं । (ख) जि०० पू० १६० हिंगुलवणादिहि संभरेह रहिये । (ग) हा० टी० प० १८१ अरसम् असंप्राप्तरसं हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमित्यर्थः । मुहाजीवि नाम जातिकुलादीहि आजीपणविसेसेहि परं न जीवति । 'मुपाजीवी' सर्ववा अनिदानजीची जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये। - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डषणा) २५७ अध्ययन ५ (प्र०उ०) : श्लोक ६८ टि० २२४-२२८ २२४. विरस (विरसं क ): जिसका रस बिगड़ गया हो, सत्व नष्ट हो गया हो उसे 'विरस' कहा जाता है, जैसे बहुत पुराने, काले और ठण्डे चावल 'विरस' होते हैं। २२५. व्यञ्जन सहित या व्यञ्जन रहित (सूइयं वा असूइयं ): सूप आदि व्यञ्जनयुक्त भोज्य-पदार्थ 'सूपित' या 'सूप्य' कहलाते हैं । व्यञ्जन रहित पदार्थ असूपित' या 'असूप्य' कहलाते हैं। टीकाकार ने इनके संस्कृत रूप 'सूचित' और 'असूचित' दिए हैं और चूर्णिकार द्वारा मान्य अर्थ स्वीकार किया है । उन्होंने मतान्तर का उल्लेख करते हुए इनका अर्थ—'कहकर दिया हुआ' और 'बिना कहकर दिया हुआ' किया है। चरक के अनुसार 'सूप्य' शीघ्र पकने वाला माना गया है। __ तुलना- अवि सूइयं वा सुक्कं-'सूइयं' ति दध्यादिना भक्तमार्दीकृतमपि तथा भूतं शुष्क वा बल्लचनकादि आयारो-६।४।१३, वृ० पत्र २८६ । २२६. प्राई ( उल्लं"): जिस भोजन में छौंका हुआ शाक या सूप यथेष्ठ मात्रा में हो उसे 'आई' कहा गया है। २२७. शुक्क ( सुक्कं ग ) : जिस भोजन में बघार रहित शाक हो उसे 'शुष्क' कहा गया है। २२८. मन्थु ( मन्थु घ): ___अगस्त्य धुणि और टीका में 'मन्थु' का अर्थ बेर का चूर्ण किया है । जिनदास महत्तर ने बेर, जौ आदि के चूर्ण को 'मन्थु' माना है। सुश्रुत में 'मन्थ' शब्द का प्रयोग मिलता है । वह सम्भवतः 'मन्थु' का ही समानार्थक शब्द होना चाहिए। उसका लक्षण इस प्रकार बताया गया है-जौ के सत्तू घी में भूनकर शीतल जल में न बहुत पतले, न बहुत सोन्द्र घोलने से 'मन्थ' बनता है । 'मन्थु' खाद्य द्रव्य भी रहा है और सुश्रुत के अनुसार विविध द्रव्यों के साथ विविध रोगों के प्रतिकार के लिए उसका उपयोग किया जाता था। १-(क) अ० चू० पृ० १२४ : विरसं कालंतरेण सभावविच्चुत उस्सिण्णोयणाति । (ख) जि० चू० पृ० १६० : विरसं नाम सभावओ विगतरसं विरसं भण्णइ, तं च पुराणकण्हवन्नियसीतोदणादि । (ग) हा० टी० ५० १८१ : 'विरसं वापि' विगतरसमतिपुराणौदनादि । २--अ० चू० पृ० १२४ : सूवित सव्वंजणं असूवित णिव्वंजणं । ३–हा० टी० ५० १८१ : 'सूचितं' व्यञ्जनादियुक्तम् 'असूचितं वा' तद्रहितं वा, कथयित्वा अकथयित्व। वा दत्तमित्यन्ये । ४-च० सू० अ० २७.३०५। ५--(क) अ० चू० पृ० १२४ : सुसूवियं 'ओल्लं'। (ख) हा० टी० ५० १८१ : 'आद्र' प्रचुरव्यञ्जनम् । ६–(क) अ० चू० पृ० १२४ : मंदसूवियं 'सुक्क'। (ख) हा० टी० प०१८१ : शुष्कं स्तोकव्यञ्जनम् । ७-(क) अ० चू० पृ१२४ : बदरामहितचुण्णं मन्यु। (ख) हा० टी० ५० १८१ : मन्यु-बदरचूर्णादि । ८-जि० चू० पृ० १६० : मन्थू नाम बोरचुन्न जवचुन्नादि । ६-सु० सू० अ० ४६.४२५ : सक्तवः ससिषाऽभ्यक्ताः, शीतवारिपरिप्लुताः । नातिद्रवा नातिसान्द्रा, मन्थ इत्युपदिश्यते ।। १०----सु० सू० अ०४६.४२६-४२८ । Jain Education Intemational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २५८ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ६६ टि० २२६-२३१ यवचूर्ण ( सत्तू ) खाया भी जाता था और पिया भी जाता था। द्रव-मन्थु के लिए 'उदमन्थ' शब्द का प्रयोग मिलता है। वर्षाऋतु में 'उदमन्थ' ( जलयुक्त सत्तू ), दिन में सोना, अवश्याय (ओस अर्थात् रात्रि में बाहर सोना ), नदी का पानी, व्यायाम, आतप (धूप)-सेवन तथा मैथुन छोड़ दे । ____ मन्थु' के विविध प्रकारों के लिए देखिए ५.२.२४ 'फलमंथूणि' की टिप्पण। २२६. कुल्माष ( कुम्मास ) : जिनदास महत्तर के अनुसार 'कुल्माष' जौ के बनते हैं और वे 'गोल्ल' देश में किए जाते हैं । टीकाकार ने पके हुए उड़द को 'कुल्माष' माना है और यवमास को 'कुल्माष' मानने वालों के मत का भी उल्लेख किया है । भगवती में भी 'कुम्मासपिंडिका' शब्द प्रयुक्त हुआ है। वहाँ वृत्तिकार ने 'कुल्माष' का अर्थ अधपके मूंग आदि किया है और केवल अधपके उड़द को 'कुल्माष' मानने वालों के मत का भी उल्लेख किया है। वाचस्पति कोश में अधपके गेहूँ को 'कुल्माष' माना है और चने को 'कुल्माष' मानने वालों के मत का भी उल्लेख किया है। अभिधान चिन्तामणि की रत्नप्रभा व्याख्या में अधपके उड़द आदि को 'कुल्माष' माना है । चरक की व्याख्या के अनुसार जौ के आटे को गूंथकर उबलते पानी में थोड़ी देर स्विन्न होने के बाद निकालकर पुन: जल से मर्दन करके रोटी या पूड़े की तरह पकाए हुए भोज्य को अथवा अर्ध स्विन्न चने या जौ को 'कुल्माष' कहा जाता है और वे भारी, रूखे, वायुवर्धक और मल को लाने वाले होते है। श्लोक ६६ २३०. अल्प या अरस होते हुए भी बहुत या सरस होता है ( अप्पं पि बहु फासुयं ख): ___ अल्प और बह की व्याख्या में चूणि और टीका में थोड़ा अन्तर है। चूणि के अनुसार इसका अर्थ-अल्प भी बहुत हैहोता है और टीका के अनुसार इसका अर्थ अल्प या बहुत, जो असार है-होता है । २३१. मुधालब्ध ( मुहालद्धंग ) : उपकार, मंत्र, तंत्र और औषधि आदि के द्वारा हित-सम्पादन किए बिना जो मिले उसे 'मुधालब्ध' कहा जाता है। १-च० सू० अ० ६.३४-३५ : "उदमन्थं दिवास्वप्नमवश्याय नदीजलम् । व्यायाममातपं चैव व्यवायं चात्र वर्जयेत् ।" २---जि० चू० पृ० १६० : कुम्मासा जहा गोल्लविसए जवमया करेति । ३-हा० टी० ५० १८१ : कुल्माषा: ---सिद्धमाषाः, यवमाषा इत्यन्ये । ४.- भग० १५.८ : एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए । ५ - भग० १५.१ वृ० : कुल्माषा अर्द्ध स्विन्ना मुद्गादयः, माषा इत्यन्ये । ६.--अर्द्ध स्विन्नाश्च गोधूमा, अन्ये च चणकादयः । कल्माषा इति कथ्यन्ते । ७–अ० चि० काण्ड ४.२४१ : कुल्माष, यावकः द्वे अर्धपक्वमाषादेः । ८ --च० सू० अ० २७.२६२ : कुल्माषा गुरवो रूक्षा वातला भिन्नवर्चसः । &—(क) अ० चू० पृ० १२४ : 'अप्पं पि बहु फासुयं' 'फासुएसणिज्जं दुल्लभं' ति अप्पमवि तं पभूतं । तमेव रसादिपरिहोणमवि अप्पमवि। (ख) जि० चू० पृ० १६० : तत्थ साहुणा इमं आलंबणं कायवं, जहा मम संथ वपरिधारिणो अणुवकारियस्स अप्पमवि परो देति तं बहु मण्णियव्वं, जं विरसमवि मम लोगो अणुवकारिस्स देति तं बहु मन्नियध्वं । १०- हा० टी० ५० १८१ : अल्पमतन्न देहपूरकमिति किमनेन ? बहु वा असारप्रायमिति, वा शब्दस्य व्यवहितः संबंधः, कि विशिष्टं तदित्याह – 'प्रासुक' प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते अल्पं वा, वाशब्दाद्विरसादि वा, बहुप्रासुकं-सर्वथा शुद्ध नातिहीलयेदिति । ११- (क) अ० चू० पृ० १२४ : मुधालद्ध-वेंटलादिउवगारवज्जितेण मुहालद्ध। (ख) जि० चू० पृ० १६. : मुहालद्ध नाम जं कोंटलवेंटलादीणि मोत्तू णमितरहा लद्धं तं महालद्ध। (ग) हा० टी० ५० १८१ : 'मुधालब्ध कोण्टलादिव्यतिरेकेण प्राप्तम् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) २३२. दोष वर्जित आहार को समभाव से खा ले ( भुजेज्जा दोसवज्जियं प ) : विनदास महत्तर इसका अर्थ-आधाक आदि दोष रहित और टीकाकार संयोजना आदि दोष रहित करते हैं। आधाक आदि] गवेषणा के दोष है और संयोजना आदि भोषणा के यहां भोगेपणा का प्रसद्ध है इसलिए टीकाकार का मत अधिक संगत लगता है और यह मुनि के आहार का एक सामान्य विशेषण है, इसलिए पूर्णिकार का मत भी असंगत नहीं है । 1 परिभोगषणा के पाँच दोष हैं : - ( १ ) अंगार, (२) धूम, (३) संयोजना, (४) प्रमाणातिक्रान्त और (५) कारणातिक्रान्त । गौतम ने पूछा - "भगवन् ! अंगार, धूम और संयोजना से दोषयुक्त आहार व पान का क्या अर्थ है ?" भगवान् ने कहा- "गौतम ! जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर उसमें मूच्छित गुद्ध, स्नेहाबद्ध और एकाग्र होकर आहार करे वह अंगार दोषयुक्त पान-भोजन है। "जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर उसमें बहुत द्वेष और क्रोध करता हुआ आहार करे - वह धूम दोषयुक्त पान -भोजन है । "जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर स्वाद बढ़ाने के लिए उसे दूसरे द्रव्य के साथ मिलाकर आहार करे- वह संयोजना दोषयुक्त पान-भोजन है ।" प्रमाणातिक्रान्त का अर्थ है- मात्रा से अधिक खाना। उसकी व्याख्या इस प्रकार है जो साधु अथवा साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण कर कुकड़ी के अण्डे जितने प्रमाण वाले (वृत्तिकार के अनुसार मुर्गी के अण्डे का दूसरा अर्थ हैजिस पुरुष का जितना भोजन हो उस पुरुष की अपेक्षा से उसका बत्तीसवाँ भाग) ३२ कौर (ग्रास) से अधिक आहार करे -- वह प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन है । जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले आठ कौर आहार करे- वह अल्पाहार है । जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले बारह कौर आहार करे वह अपार्थ अवमोदरिका ( भूख के अनुसार आधे से भी अधिक कम खाना) है। जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले सोलह कौर आहार करे वह अर्ध-अवमोदरिका है। जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाणवाले चौबीस कौर आहार करे - वह अवमोदरिका है । जो मुर्गी के अण्डे जितने प्रमाण वाले ३२ कौर आहार करे वह प्रमाणप्राप्त है । जो इससे एक कौर भी कम आहार करे वह श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकाम - रसभोजी नहीं कहा जाता * । साधु के लिए छह कारणों से भोजन करना विहित है । उसके बिना भोजन करना कारणातिक्रान्त-दोष कहलाता है । वे छह कारण ये हैं - ( १ ) क्षुधा - निवृत्ति, (२) वैयावृत्त्य -- आचार्य आदि की वैयावृत्त्य करने के लिए, (३) ईर्यार्थ – मार्ग को देख-देखकर २५६ अध्ययन ५ ( प्र० उ० श्लोक ९६ टि० २३२ १-० ० ० १६० आहाकम्माई दोह २- हा० टी० प० १८१ : 'दोषवजित' संयोजनादिरहितमिति । ३ - भग० ७.१.२१ : अह भंते ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदृट्ठस्स पाणभोयणस्स के अट्ठे पन्न े ?, गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्जं असण-पाण -खाइम साइमं पडिग्गाहेता मुच्छिए गिद्ध े गढिए अभोववन्ने आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा । सइंगाले पाण- भोयणे 1 जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण- पाण- खाइम- साइमं पडिग्गाहेत्ता महयाअप्पतियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! सधूमे पाण-भोयणे । ४. जेणं निग्ये वा निग्गंथी वा जाव पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहे अन्नदव्वेण सद्धि संजोएत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! संजोयणादोस पाण-भोयणे । 10 ०७.१.२४ जे निये वा निग्गंधी वा कफामु-एसपिज् जाव साइमं पडियाला परं बत्तीसाए कुक्कुडिअडपमानताण' कवला आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! पमाणातिक्कते पाण- भोयणे । अट्ट कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुबालस कुक्कु डिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे श्रवड्ढोमोयरिया, सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागत्पते, चम्बी कुक्कुदिअंगमाण मेतं कवले आहारमाहारेमाणं ओमोदरिए बलीस कुक्कुडिअडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्तं एतो एक्केण वेि घासेण ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामरस भोई।ते वत्तब्वं सिया । ५- उत्त० २६.३ : वणवेयावच्चे [इरिए संजमाए तह पापवतियाए पुग धम्मचिताए । } Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) २६० अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक १०० टि० २३३ चलने के लिए, (४) संयमार्थ-संयम पालने के लिए, (५) प्राण-धारणार्थ-संयम-जीवन की रक्षा के लिए और (६) धर्म-चिन्तनार्थ--- शुभ ध्यान करने के लिए। गौतम ने एक दूसरे प्रश्न में पूछा--"भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणत, एषणा-युक्त, विशेष एषणा-युक्त और सामुदानिक पानभोजन का क्या अर्थ है ?" भगवान् ने कहा- “गौतम ! शस्त्र और शरीर परिकर्म-रहित निर्ग्रन्थ प्रासुक, अपने लिए अकृत, अकारित और असंकल्पित, अनाहूत, अक्रीतकृत, अनुद्दिष्ट, नवकोटि परिशुद्ध, दश दोष-रहित, विप्रयुक्त, उद्गम और उत्पादन की एषणायुक्त अंगार, धूम और संयोजनादोष-रहित तथा सुर-सुर और चव-चव ( यह भोजन के समय होने वाले शब्द का अनुकरण है ) शब्द-रहित, न अति शीघ्र और न अत्यन्त धीमे, नीचे न डालता हुआ, गाड़ी की धुरी में अंजन लगाने और व्रण पर लेप करने के तुल्य केवल संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु, संयम भार का वहन करने के लिए, अस्वाद वृत्तिपूर्वक, जैसे बिल में सांप पैठता है वैसे ही स्वाद के निमित्त ग्रास को इधर-उधर ले जाए बिना आहार करता है--यह शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणत, एषणा-युक्त, विशेष एषणा-युक्त और सामुदानिक पान-भोजन का अर्थ है'। श्लोक १०० २३३. मुधादायो ( महादाई ): प्रतिफल की कामना किए बिना निःस्वार्थ भाव से देने वाले को 'मुधादायी' कहा है। इन चार श्लोकों ( ६७-१०० ) में अस्वादवृत्ति और निष्कामवृत्ति का बहुत ही मार्मिक प्रतिपादन किया गया है। जब तक देहासक्ति या देह-लक्षी भाव प्रबल होता है, तब तक स्वाद जीता नहीं जा सकता । नीरस भोजन मधु और घी की भाँति खाया नहीं जा सकता । जिसका लक्ष्य बदल जाता है, देह का रस चला जाता है, मोक्ष-लक्षी भाव का उदय हो जाता है, वही व्यक्ति स्वाद पर विजय पा सकता है, सरस और नीरस को किसी भेदभाव के बिना खा सकता है। दो रस एक साथ नहीं टिक सकते, या तो देह का रस टिकेगा या मोक्ष का । भोजन में सरस और नीरस का भेद उसे सताता है जिसके देह में रस है । जिसे मोक्ष में रस मिल गया उसे भोजन में रस जैसा कुछ लगता ही नहीं, इसलिए वह भोजन को भी अन्यार्थप्रयुक्त ( मोक्ष के हेतु-भूत शरीर का साधन ) मानकर खाता है । इस वृत्ति से खाने वाला न किसी भोजन को अच्छा बताता है और न किसी को बुरा। मुधादायी, मुधालब्ध और मुधाजीवी-ये तीन शब्द निष्कामवृत्ति के प्रतीक हैं। निष्कामवृत्ति के द्वारा ही राग-द्वेष पर विजय पाई जा सकती है । कहीं से विरस आहार मिले तो मुनि इस भावना का आलम्बन ले कि 'मैंने इसका कोई उपकार नहीं किया, फिर भी इसने मुझे कुछ दिया है । क्या यह कम बात है ?' यों चिन्तन करने वाला द्वेष से बच सकता है। 'मुझे मोक्ष की साधना के लिए जीना है और उसी के लिए खाना है'–यों चिन्तन करने वाला राग या आसक्ति से बच सकता है। साधू हमारा भला नहीं करते, फिर हम उन्हें क्यों दें? यह प्रतिफल का विचार है, फल के प्रति फल और उपकार के प्रति उपकारयह विनिमय है। उसका कोई स्वतंत्र परिणाम नहीं होता। इस भावना का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग बहुधा कहा करते हैं- साधु, समाज पर भार हैं क्योंकि वे समाज से बहुत लेते हैं, देते कुछ भी नहीं । यह सकाम मानस का चिन्तन है। १–भग० ७.१-२५ : अह भंते ! सत्थातीतस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स, वेसियस्स, सामुदाणियस्स, पाणभोयणस्स के अट्टे पन्नते ?, गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा निक्खित्त-सत्थ-मुसले बवगय-माला-बन्नगविलेवणे ववगयचुयचइयचत्तदेह, जीवविप्पजलं, अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूयमकोयकड-मणुद्दिजें, नवकोडीपरिसुद्ध', वस दोसविप्पमुक्क, उग्गम-उप्पायणेसणासुपरिसुद्ध, वीतिगालं, वीतधूम, संजोयणादोसविप्पमुक्कं, सुरसुरं, अचवचवं, अदुयमविलंबियं अपरिसाडि, अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं संजम-जाया-माया-वत्तियं, संजम-भार वहणठ्ठयाए बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणणं आहारमाहारेति । एस णं गोयमा! सत्थातीतस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्स वेसियस्स सामुदाणियस्स पाणभोयणस्स अयमढे पन्नत्त । Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) इसका अर्थ यह हुआ कि सकाम दृष्टि वाले लोग विनिमय से आगे कुछ देख नहीं पाते; किन्तु जिन्हें निष्काम दृष्टि मिली है, वे लोग संयम का स्वतन्त्र मूल्य आंकते हैं और इसलिए वे प्रतिफल की कामना किए बिना संयम साधना में सहयोगी बनते हैं । २६१ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक १०० टि० २३३ : एक संन्यासी था । वह एक भागवत के यहाँ आया और बोला- “मैं तुम्हारे यहाँ चातुर्मास-काल व्यतीत करना चाहता हूँ । मुझे विश्वास है कि तुम मेरे निर्वाह का भार वहन कर सकोगे ।" भागवत ने कहा- "आप मेरे यहाँ वर्षाकाल व्यतीत कर सकते हैं किन्तु उसके लिए आपको मेरी एक शर्त स्वीकार करनी होगी। वह यह है कि आप मेरे घर का कोई भी काम न करेंगे।" परिव्राजक ने भागवत की शर्त मान ली । संन्यासी ठहर गया । भागवत भी संन्यासी की असन बसन आदि से खूब सेवा करने लगा । एक दिन रात्रि के समय आकर चोरों ने भागवत का घोड़ा चुरा लिया और प्रभात होता जानकर उसे नदी के तट पर के वृक्ष से बांध दिया। संन्यासी प्रातः नित्य नियमानुसार स्नान करने नदी पर गया। वहीं उसने घोड़े को वृक्ष से बंधा देखा । संन्यासी से रहा नहीं गया और वह झट से भागवत के घर आया। अपनी प्रतिज्ञा को बचाते हुए भागवत से बोला- “मैं नदी पर अपना वस्त्र भूल आया हूँ ।" भागवत ने नौकर को वस्त्र लाने नदी पर भेजा । नौकर ने घोड़े को नदी के तट पर वृक्ष से बंधा देखा और अपने स्वामी से सब बात कही । भागवत संन्यासी के भाव को ताड़ गया और संन्यासी से बोला- “आप अपनी प्रतिज्ञा को भूल गये । अब मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि निर्विष्ट - किसी से सेवा की अपेक्षा रख कर उसकी सेवा करने का फल अल्प होता है। " Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं पिंडेसणा (बीओ उद्देसो) पंचम अध्ययन पिण्डषणा (द्वितीय उद्देशक) Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : पंचम अध्ययन पिंडेसणा (वीओ उद्देसो) : पिण्डैषणा (द्वितीय उद्देशक) मूल संस्कृत छाया १-पडिग्गहं संलिहिताणं लेव-मायाए संजए। दुगंधं वा सुगंधं वा सव्वं भंजे न छड्डए॥ प्रतिग्रहं संलिह्य, लेपमात्रया संयतः । दुर्गन्धं वा सुगन्धं वा, सर्व भुञ्जीत न छर्देत् ॥१॥ हिन्दी अनुवाद १. संयमी मुनि लेप लगा रहे तब तक पात्र को पोंछ कर सब खा ले, शेष न छोड़े, भले फिर वह दुर्गन्धयुक्त हो या सुगन्धयुक्त'। २-सेज्जा निसीहियाए समावन्नो व गोयरे । अयावयट्ठा भोच्चा णं जइ तेणं न संथरे । शय्यायां नैषेधिक्यां, समापन्नो वा गोचरे । अयावदर्थं भुक्त्वा 'ण', यदि तेन न संस्तरेत् ॥२॥ २-३-उपाश्रय या स्वाध्याय-भूमि में अथवा गोचर (भिक्षा) के लिए गया हुआ मुनि मठ आदि में अपर्याप्त खाकर यदि न रह सके तो कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से और इस उत्तर (वक्ष्यमाण) विधि से भक्त-पान की गवेषणा करे । ३-तओ भत्तपाणं विहिणा इमेणं कारणमुप्पन्ने गवेसए। पुव्व-उत्तण उत्तरेण य॥ सतः कारणे उत्पन्ने, भक्त-पानं गवेषयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन, अनेन उत्तरेण च ॥३॥ ४-कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जेत्ता काले कालं समायरे ॥ कालेन निष्कामेद् भिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवयं, काले कालं समाचरेत् ॥४॥ ४-भिक्षु समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आए। अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय का हो, उसे उसी समय करे। ५-१°अकाले चरसि भिक्खू कालं न पडिलेहसि । अप्पाणं च किलामेसि सन्निवेसं च गरिहसि ॥ अकाले चरसि भिक्षो! कालं न प्रतिलिखसि । आत्मानं च क्लामयसि, सन्निवेशं च गर्हसे ॥५॥ ५.-भिक्षो ! तुम अकाल में जाते हो, काल की प्रतिलेखना नहीं करते, इसीलिए तुम अपने-आप को क्लान्त (खिन्न) करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की निन्दा करते हो। ६-सइ काले चरे भिक्खू कुज्जा पुरिसकारियं । अलाभो त्ति न सोएज्जा तवो त्ति अहियासए ॥ सति काले चरेद् भिक्षुः, कुर्यात् पुरुषकारकम् । 'अलाभ' इति न शोचेत्, तप इति अधिसहेत ॥६॥ ६-भिक्षु समय होने पर भिक्षा के लिए जाए; पुरुषकार (श्रम) करे ; भिक्षा न मिलने पर शोक न करे; 'सहज तप ही सही'-यों मान भूख को सहन करे। Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) ७-"तहेवुच्चावया पाणा भत्तट्टाए समागया। त-उज्जुयं न गच्छेज्जा जयमेव परक्कमे ॥ तथैवोच्चावचाः प्राणाः, भक्तार्थ समागताः । तहनुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥७॥ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ७-१३ ७. इसी प्रकार नाना प्रकार के प्राणी भोजन के निमित्त एकत्रित हों, उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता हुआ यतनापूर्वक जाए। ८-गोयरग्ग-पविट्ठोउ । न निसीएज्ज कत्थई । कहं च न पबंधेज्जा चिद्वित्ताण व संजए॥ गोचराग-प्रविष्टस्तु, न निषीदेत् कुत्रचित् । कथां च न प्रबध्नीयात्, स्थित्वा वा संयतः ॥८॥ ८-गोचराग्र के लिए गया हुआ संयमी कहीं न बैठे और खड़ा रह कर भी कथा का प्रबन्ध न करे। E-१५अग्गलं फलिहं दारं कवाडं वा वि संजए। अवलंबिया न चिट्ठज्जा गोयरग्गगओ मुणी ॥ अर्गला परिघं द्वारं, कपाट वाऽपि संयतः । अवलम्ब्य न तिष्ठेत्, गोचराग्रगतो मुनिः ॥६॥ ---गोचराग्र के लिए गया हुआ संयमी आगल, परिध१६, द्वार या किवाड़ का सहारा लेकर खड़ा न रहे। श्रमणं ब्राह्मणं वाऽपि, कृपणं वा वनीपकम् । उपसंक्रामन्तं भक्तार्थ, पानार्थं वा संयतः ॥१०॥ १०-समणं माहणं वा वि किविणं वा वणीमगं । उबसंकमंतं भत्तट्ठा पाणट्ठाए व संजए ॥ ११-तं अइक्कमित्त न पविसे न चिट्ठे चक्खु-गोयरे। एगंतमवक्कमित्ता तत्थ चिट्ठज्ज संजए ॥ १०-११---भक्त या पान के लिए उपसंक्रमण करते हुए (घर में जाते हुए) श्रमण, ब्राह्मण, कृपण' या वनीपक को लांघकर संयमी मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे। गृहस्वामी और श्रमण आदि की आँखों के सामने खड़ा भी न रहे। किन्तु एकान्त में जाकर खड़ा हो जाए। तमतिक्रम्य न प्रविशेत्, न तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे। एकान्तमवक्रम्य, तत्र तिष्ठेत् संयतः ॥११॥ १२-वणीमगस्स वा तस्स दायगस्सुभयस्स वा। अप्पत्तियं सिया होज्जा लहुत्तं पवयणस्स वा ॥ वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयो । अप्रीतिकं स्याद् भवेत्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ॥१२॥ १२---भिक्षाचरों को लांघकर घर में प्रवेश करने पर वनीपक या गृहस्वामी को अथवा दोनों को अप्रेम हो सकता है अथवा उससे प्रवचन की लघुता होती है। १३–पडिसेहिए व दिन्ने वा तओ तम्मि नियत्तिए। उवसंकमेज्ज भत्तट्ठा पाणट्ठाए व संजए॥ प्रतिषिद्ध वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवृत्ते । उपसंक्रामेद् भक्तार्थ, पानार्थं वा संयतः ।।१३।। १३- गृहस्वामी द्वारा प्रतिषेध करने या दान दे देने पर, वहां से उनके वापस चले जाने के पश्चात् संयमी मुनि भक्त-पान के लिये प्रवेश करे। Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डषणा) २६७ १४-उप्पलं पउमं वा वि उत्पलं पद्म वाऽपि, कुमुयं वा मगदंतियं । कुमुदं वा 'मगदन्तिकाम्। अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं अन्यद्वा पुष्पं सचित्त, तं च संलंचिया दए ॥ तच्च सलुञ्च्य दद्यात् ॥१४॥ अध्ययन ५ (द्वि०उ०) : श्लोक १४-२० १४-१५---कोई उत्पल१६, पद्म२९, कुमुद२१, मालती२२ या अन्य किसी सचित्त पुष्प का छेदन कर भिक्षा दे वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । १५-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥१॥ १६-उप्पलं पउमं वा वि कुमुयं वा मगदंतियं । अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं तं च सम्मद्दिया दए ॥ उत्पलं पद्म वाऽपि, कुमुदं वा 'मगदन्तिकाम्' । अन्यद्वा पुष्पं सचित्तं, तच्च संमृद्य दद्यात् ॥१६॥ १६-१७-कोई उत्पल, पद्म, कुमुद, मालती या अन्य किसी सचित्त पुष्प को कुचल कर२४ भिक्षा दे, वह भक्त-पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे—इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। १७-तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तद्भवेद् भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥१७॥ लय १८-सालुयं वा विरालियं शालूकं वा विरालिका, कुमुदुप्पलनालियं । कुमुदोत्पलनालिकाम् । मुणालियं सासवनालियं मृणालिका सर्षपनालिका, उच्छुखंड अनिव्वुडं ॥ इक्षु-खण्डमनिव॒तम् ॥१८॥ १८-१६-कमलकन्द२६, पलाशकन्द, कुमुद-नाल, उत्पल-नाल, पद्म-नाल२८, सरसों की नाल२६, अपवव गंडेरी", वृक्ष, तृण' या दूसरी हरियाली की कच्ची नई कोंपल न ले। १६-तरुणगं वा पवालं रुक्खस्स तणगस्स वा । अन्नस्स वा वि हरियस्स आमगं परिवज्जए॥ तरुणकं वा प्रवालं, रूक्षस्य तृणकस्य वा। अन्यस्य वापि हरितस्य, आमकं परिवर्जयेत् ॥१६॥ २०-तरुणियं व छिवाडि आमियं भज्जियं सई। देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ तरुणी वा छिवाडि', आमिका भजितां सकृत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२०॥ २०-- कच्चो और एक बार भूनी हुई33 फली* देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे-इस प्रकार का आहार में नहीं ले सकता। Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) कोलमपुरिसन्न कासवनालयं । २१- तहा बेलुयं तिलपपडगं आमगं २२ - तव चाउल पि वियडं वा तत्तनि । तिलपिट्ठ आमगं २४ - तहेव २३- कविट्ठ मूलगं आमं मणसा वि न बीयमणि बिहेलगं आमगं २६- अगो न २५ समुयाणं चरे कुलं उच्चाययं नीर्य ऊसढं अमुयिओ मायने २७ - बहु विविहं माउलिंग च मूलगतियं । असत्थपरिणयं नीमं परिवज्जए ॥ विसी एज्ज इपिन्नागं परिवज्जए ॥ फलमंथूणि जाणिया । पियालं च परघरे पत्थए || परिवज्जए ॥ कुलमइक्कम्म भिक्खू सया । वित्त मेसेज्जा पंडिए । भोयणम्मि एसणारए ॥ नाभिधाए ॥ अत्थि खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे इच्छा देज्ज परो न वा ॥ २६८ तथा कोलमनुत्स्विन्नं, वेणुकं काश्यपालिकाम् । तिलपर्यटक नीपं, आमक परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ तथैव 'चाउ' पिष्टं, विकट वा तप्त निर्वृतम् । तिष्टतिथिष्यार्क, परिवर्जयेत्॥२२॥ कपित्थं मातुलिङ्ग च मूलकं मूलकलिकाम् । आमामशस्त्रपरिणतां, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ॥ २३॥ तथैव फलमन्यून्, बीजमन्थून् ज्ञात्वा । विभीतकं प्रियालं च, आमकं परिवर्जयेत् ॥ २४॥ समुदा परे भिक्षु कुलवायचं सदा । नीच कुलमतिक्रम्य, उप(उत्तं) नाभिचारयेत् ॥ २५॥ " अदीनो वृत्तिमेषयेत् न विषीदेत पण्डितः । भोज मात्राज्ञ एषणारतः ॥ २६ ॥ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) श्लोक २१-२७ २१ - इसी प्रकार जो उबाला हुआ न हो वह बेर, वंश -करी काश्यपनालिका तथा अपनत्र तिल पपड़ी और कदम्ब फल न ले । 3 बहु परगृहेऽस्ति विविध खाद्य स्वाद्यम् । न तत्र पण्डितः कुप्येत्, इच्छा दद्यात् परो न वा ॥२७॥ २२ - इसी प्रकार चावल का पिष्ट पूरा न उबला हुआ गर्म" जल४१, तिल का पिष्ट, पोई-साग और सरसों की खली ४२ अपक्व न ले । २३ अपक्व और शस्त्र से अपरिणत बिजोरा मूला और मूले के कैथ गोल टुकड़े को मन कर भी न चाहे । २४ - इसी प्रकार अपक्व फलचूर्णं, बीजपूर्ण, बहेड़ा और प्रियाल फल ४८ न ले । २५ मि सदा समुदाना भिक्षा करे, उच्च और नीच सभी कुलों में जाए, नीच कुल को छोड़कर उच्च कुल में न जाए । 1 २६ - भोजन में अमूच्छित मात्रा को जानने वाला, एषणारत पण्डित मुनि अदीन भाव से वृति (शिक्षा) की एपणा करे ( भिक्षा न मिलने पर ) विषाद न करे । । २७ - गृहस्थ के घर में नाना प्रकार का प्रचुर खाद्य-स्वाद्य होता है, (किन्तु न देने पर ) पण्डित मुनि कोप न करे । (यों करे की अपनी इच्छा है, दे या न दे । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २६६ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २८-३४ २८-सयणासण वत्थं वा भत्तपाणं व संजए। अदेंतस्स न कुप्पेज्जा पच्चक्खे वि य दीसओ॥ शयनासनं वस्त्रं वा, भक्त-पानं वा संयतः। अददतो न कुप्येत्, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने ॥२८॥ २८-संयमी मुनि सामने दीख रहे शयन, आसन, वस्त्र, भक्त या पान न देने वाले पर भी कोप न करे। २६-इत्थियं पुरिसं वा वि डहरं वा महल्लगं । वंदमाणो न जाएज्जा नो य णं फरसं वए॥ स्त्रियं पुरुषं वाऽपि, डहर वा महान्तम् । वन्दमानो न याचेत, नो चैनं परुषं वदेत् ॥२६॥ २६---मुनि स्त्री या पुरुष, बाल या वृद्ध की वन्दना (स्तुति) करता हुआ याचना न करे५०, (न देने पर) कठोर वचन न बोले । से कुप्पे समुक्कसे। ३०-जे न वंदे न वंदिओ न एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्टई यो न वन्दते न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥३०॥ ३०-जो वन्दना न करे उस पर कोप न करे, वन्दना करने पर उत्कर्ष न लाएगर्व न करे। इस प्रकार (समुदानचर्या का) अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य निर्बाच भाव से टिकता है। ३१-सिया एगइओ लर्बु लोभेण विणिगृहई। मा मेयं दाइयं संतं दळूणं सयमायए॥ स्यादेकको लब्ध्वा, लोभेन विनि हते। मा ममेदं दर्शितं सत्, दृष्ट्वा स्वयमादद्यात् ॥३१॥ ३१-३२-~-कदाचित् कोई एक मुनि सरस आहार पाकर उसे, आचार्य आदि को दिखाने पर वह स्वय ले न ले,---इस लोभ से छिपा लेता है, वह अपने स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला और रस-लोलुप मुनि बहुत पाप करता है। वह जिस किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता और निर्वाण को नहीं पाता। ३२–अत्तगुरुओ लुद्धो बहुं पावं पकुव्वई। दुत्तोसओ य से होइ निव्वाणं च न गच्छई ॥ आत्मार्थ-गुरुको सुब्धः, बहु पापं प्रकरोति। दुस्तोषकश्च स भवति, निर्वाणं च न गच्छति ॥३२॥ ३३ --सिया विविहं भद्दगं विवण्णं एगइओ लर्बु पाणभोयणं । भद्दगं भोच्चा विरसमाहरे ॥ स्यादेकको लब्ध्वा, विविधं पान-भोजनम् । भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा , विवर्ण विरसमाहरेत् ॥३३॥ ३३- कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त में बैठ श्रेष्ठ-श्रेष्ठ खा लेता है, विवर्ण और विरस को स्थान पर लाता है। ३४-जाणंतु ता इमे समणा जानन्तु तावदिमे श्रमणा, आययट्ठी अयं मुणी। आयतार्थी अयं मुनिः । सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं, संतुटको सेवई पंतं __रूक्षवृत्तिः सुतोषकः ॥३४॥ लूहवित्ती सुतोसओ ॥ ३४... ये श्रमण मुझे यों जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी५२ है, सन्तुष्ट है, प्रान्त (असार) आहार का सेवन करता है, रूक्षत्ति५३ और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला है। Jain Education Intemational Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) २७० अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ३५-४१ ३५-पूयणट्ठी जसोकामी माणसम्माणकामए बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई॥ पूजनार्थी यशःकामी, मान-सम्मान-कामकः । बहु प्रसूते पापं, मायाशल्यञ्च करोति ॥३५॥ ३५–बह पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना करने वाला५४ मुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया-शल्य५५ का आचरण करता है। ३६--सुरं वा मेरगं वा वि अन्नं वा मज्जगं रसं। ससक्खं न पिबे भिक्खू सारक्खमप्पणो॥ सुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यद्वा माद्यकं रसम् । स्व (स) साक्ष्य न पिबेद्भिक्षुः, यश: संरक्षन्नात्मनः ॥३६॥ ३६-अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी प्रकार का मादक रस आत्म-साक्षी से५८ न पीए। जसं ३७–पिया एगइओ तेणो न मे कोइ वियाणई। तस्स पस्सह दोसाई निर्याड च सुह मे ॥ पिबति एककः स्तेनः, न मां कोऽपि विजानाति । तस्य पश्यत दोषान्, निकृति च श्रृणुत मम ॥३७॥ ३७ --जो मुनि--- मुझे कोई नहीं जानता (यों सोचता हुआ) एकान्त में स्तेन-वृत्ति से मादक रस पीता है, उसके दोषों को देखो और मायाचरण को मुझसे सुनो। ३८-वड्डई सोंडिया तस्स मायामोसं च भिक्खुणो। अयसो य अनिव्वाणं सययं च असाहुया ॥ वर्धते शौण्डिता तस्य, माया-मृषा च भिक्षोः। अयशश्चानिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥ ३८--उस भिक्षु के उन्मत्तता, मायामृषा, अयश, अतृप्ति और सतत असाधुता--- ये दोष बढ़ते हैं। ३६-निच्चुग्विग्गो जहा तेणो नित्योद्विग्मो यथा स्तेनः, अत्तकम्मेहि दुम्मई। आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः। तादृशो मरणान्तेऽपि, तारिसो मरणंते वि नाराधयति संवरम् ॥३६॥ नाराहेइ संवरं॥ ३६- वह दुर्मति अपने दुष्कर्मों से चोर की भांति सदा उद्विग्न रहता है । मद्यपमुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता। ४०-आयरिए नाराहेइ आचार्यान्नाराधयति. समणे यावि तारिसो। श्रमणांचापि तादृशः । गिहत्था वि णं गृहस्था अप्येनं गर्हन्ते, गरहंति येन जानन्ति तादृशम् ॥४०॥ जेण जाणंति तारिसं ॥ ४०-- वह न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे मद्यप मानते हैं, इसलिए उसकी गर्दा करते हैं। एवंतु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः । ४१-एवं गुणाणं तारिसो नाराहेइ तु अगुणप्पेही च विवज्जओ। मरणंते वि संवरं ॥ ४१-इस प्रकार अगुणों की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और गुणों को वर्जने वाला मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता। तादृशो मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् ॥४१॥ Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा) २७१ अध्ययन ५ (द्वि० उ०): श्लोक ४२-४८ ४२-तवं कुब्वइ मेहावी पणीयं वज्जए रसं । मज्जप्पमायविरओ तवस्सी अइउक्कसो ॥ तपः करोति मेधावी, प्रणीतं वर्जयेद् रसम् । मद्यप्रमादविरतः, तपस्वी अत्युत्कर्षः ॥४२॥ ४२-४३ - जो मेधावी तपस्वी तप करता है, प्रणीत रस को वर्जता है, मद्यप्रमाद६३ से विरत होता है, गर्व नहीं करता, उसके अनेक साधुओं द्वारा प्रशंसित, विपुल और अर्थ-संयुक्त५ कल्याण को स्वयं देखो६६ और मैं उसकी कीर्तना करूँगा वह सुनो। ४३-तस्स पस्सह कल्लाणं अणेगसाहुपूइयं । विउलं अत्थसंजुत्तं कित्तइस्सं सुह मे ॥ तस्य पश्यत कल्याणं, अनेक-साधु-पूजितम्। विपुलमर्थ-संयुक्तं, कोर्तयिष्ये शृणुत मम ॥४३॥ ४४-एवं तु गुणप्पेही अगुणाणं च विवज्जओ। तारिसो मरणंते वि आराहेइ संवरं ॥ एवं तु गुण-प्रेक्षी, अगुणानां च विवर्जकः। तादृशो मरणान्तेऽपि, आराधयति संवरम् ॥४४॥ ४४---इस प्रकार गुण की प्रेक्षा(आसेवना) करने वाला और अगुणों को६७ वर्जने वाला, शुद्ध-भोजी मनि मरणान्तकाल में भी संवर की आराधना करता है। ४५-आयरिए आराहेइ समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति जेण जाणंति तारिसं ॥ आचार्यानाराधयति, श्रमणांश्चापि तादृशः। गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति, येन जानन्ति तादृशम् ॥४५॥ ४५-वह आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी। गृहस्थ भी उसे शुद्धभोजी मानते हैं, इसलिए उसकी पूजा करते हैं। ४६-तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जे नरे। आयारभावतेणे य कुव्वइ देवकिम्बिसं ॥ तपःस्तेन: वचःस्तेनः, रूपस्तेनश्च यो नरः। आचार-भावस्तेनश्च, करोति देव-किल्बिषम् ॥४६॥ ४६-जो मनुष्य तप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर६८ होता है, वह किल्बिषिक देव-योग्य-कर्म करता है। ४७- लघृण वि देवत्तं उववन्नो देवकिब्बिसे । तत्था वि से न याणाइ कि मे किच्चा इमं फलं ?॥ लब्ध्वाऽपि देवत्वं, उपपन्नो दैव-किल्बिषे। तत्राऽपि सः न जानाति, कि मे कृत्वा इदं फलम् ॥४७॥ ४७-किल्बिषिक देव के रूप में उपपन्न जीव देवत्व को पाकर भी वहाँ वह नहीं जानता कि 'यह मेरे किस कार्य का फल है। ४६-तत्तो वि से चइत्ताणं लम्भिही एलमूययं । नरयं तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ ततोऽपि सः च्युत्वा, लप्स्यते एडमूकताम् । नरकं तिर्यग्योनि वा, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा ॥४८॥ ४८-वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्यगति में आ एडमूकता (गंगापन) ७१ अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को पाएगा, जहां बोधि अत्यन्त दुर्लभ होती है। Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक) ४६ एवं च दोसं दणं नायपुत्रेण भाति । पि महावी अणुमा पि मायामो विवज्जए || ५० सिविलऊन भिक्लेसण सोहि संजयाण बुद्धाण सगासे । तत्थ भिक्खू सुप्पणिहिदिए तिब्वलज्ज गुणवं विहरेज्जासि ॥ ॥ त्ति बेमि ॥ २७२ एनं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । अणुमात्रमपि मेधावी, मायामृषाविव ॥४६॥ शिक्षित्वा भिक्षेषणाशुद्धि, संपतानां बुद्धानां सकाशे । तत्र भिक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रियः, तीव्रलज्जो गुणवान् विहरेत् ॥५०॥ इति ब्रवीमि । अध्ययन ५ ( द्वि० उ०) श्लोक ४९-५० ४९ - इस दोष को देखकर ज्ञातपुत्र ने कहा मेधावी मुनि अणु- मात्र भी माया मृषा न करे । पिण्डेषणायाः पञ्चमायने द्वितीय उद्देशकः समाप्तः । ५० संयत और बुद्ध श्रमणों के समीप भिक्षेपणा की विशुद्धि सीसकर उसमें सुप्रणिहित इन्द्रिय वाला भिक्षु उत्कृष्ट संयम और गुण से सम्पन्न होकर विचरे । .७२ इस प्रकार मैं कहता हूँ । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ५ (द्वितीय उद्देशक ) श्लोक १: १. दुर्गन्धयुक्त हो या सुगन्धयुक्त ( दुगंधं वा सुगंधं वा ग ) : दुर्गन्ध और सुगन्ध शब्द अमनोज्ञ और मनोज्ञ आहार के उपलक्षण हैं। इसलिए दुर्गन्ध के द्वारा अप्रशस्त और सुगन्ध के द्वारा प्रशस्त वर्ण, रस और स्पर्शयुक्त अाहार समझ लेना चाहिए। शिष्य ने पूछा गुरुदेव ! यदि श्लोक का पश्चाई पहले हो और पूर्वाद्धं बाद में हो, जैसे -- 'संयमी मुनि दुर्जन्ध या सुगन्धयुक्त सब आहार खा ले, शेष न छोड़े, पात्र को पोंछ कर लेप लगा रहे तब तक' तो इसका अर्थ सुख-ग्राह्य हो सकता है ? आचार्य ने कहा ..प्रतिग्रह' शब्द मांगलिक है । इसलिए इसे आदि में रखा है और 'जूठन न छोड़े' इस पर अधिक बल देना है, इसलिए इसे बाद में रखा है। अतः यह उचित ही है। इस श्लोक का आशय यह है कि मुनि सरस-सरस आहार खाए और नीरत आहार हो उसे जूठन के रूप में डाले -ऐसा न करे किन्तु स रस या नीरस जैसा भी आहार मिले उन सब को खा ले। तुलना के लिए देखिए आयार घूला ११६ । श्लोक २: २. उपाश्रय ( सेज्जा क): अगस्त्यसिंह ने इसका अर्थ 'उपाश्रय'२, जिनदास महत्तर ने 'उपाश्रय' मठ, कोष्ठ और हरिभद्र सूरि ने 'वसति' किया है। ३. स्वाध्याय भूमि में ( निसीहियाए क ) : स्वाध्याय भूमि प्राय: उपाश्रय से भिन्न होती थी। वृक्ष-मूल आदि एकान्त स्थान को स्वाध्याय के लिए चुना जाता था। वहाँ जनता के आवागमन का संभवतः निषेध रहता था । 'नषेधिकी' शब्द के मूल में यह निषेध ही रहा होगा। दिगम्बरों में प्रचलित 'नसिया' इसीका अपभ्रंश है। १--(क) जि० चू० पृ० १६४ : सीसो आह-जइ एवं सिलोगपच्छद्ध पुदिव पढिज्जई पच्छा पडिग्गहं संलिहिताणं, तो अत्थो सुहगेज्झयरो भवति, आयरिओ भणइ-सुहमुहोच्चारणत्थं, विचित्ता य सुत्तबंधा, पसत्थं च पडिग्गहगहणं उद्देसगस्स आदितो भण्णमाणं भवतित्ति अतो एयं सत्तं एवं पढिज्जति । (ख) अ० चू पृ० १२५ : भुत्तस्स संलेहणविहाणे भणितव्वे अणाणुपुवीकरणं कहिंचि आणुपुश्विनियमो कहिचि पकिण्णकोपदेसो भवति ति एतस्स परूवणत्थं । एवं च घासेसणा विधाणे भणिते वि पुणो वि गोयरग्गपविट्ठस्स उपदेसो अविरुद्धो। णग्ग मुसितपयोग इवा वा 'दुग्गंध' पयोगो उद्देसगादौ अप्पसत्थो त्ति ।। २--अ० चू० पृ० १२६ : 'सेज्जा' उवस्सओ। ३-जि० चू० पृ० १६४ : सेज्जा-उवस्सतादि मट्ठकोट्ठयादि । ४- हा० टी०प० १८२ : 'शय्यायां' वसतौ। ५- (क) अ० चू० पृ० १२६ : 'णिसीहिया' सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सैव निसीहिया। (ख) जि० चू० पृ० १६४ : तहा निसोहिया जत्थ सज्मायं करेंति। (ग) हा० टी० ५० १८२ : 'नषेधिक्यां' स्वाध्यायभूमौ । Jain Education Intemational Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ४. गोचर ( भिक्षा ) के लिए गया हुआ मुनि मठ आदि में ( समावन्नो व गोयरे ख ) : गोचर-काल में छात्रावास आदि एकान्त स्थान में साधुओं के लिए है'। अगस्त्यसिह ने इसका सम्बन्ध पूर्व व्याख्या (२.१.६२ ) से जोड़ा है। ५. अपर्याप्त ( अयावयट्ठा) : २७४ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) इलोक ३, ४ टि० ४-८ इसका अर्थ है- जितना चाहे उतना नहीं अर्थात् पेट भर नहीं । तुलना के लिए देखिए ( ५.४६ ) | ७. कारण उत्पन्न होने पर ( कारणमुत्पन्ने के ) : आहार करने का विधान बाल, वृद्ध, तपस्वी या अत्यन्त शुचित और तृषित ६. न रह सके तो ( न संथरे घ ) : दूसरी बार भिक्षाचरी करना विशेष विधि जैसा जान पड़ता है। टीकाकार तपस्वी आदि के लिए ही इसका विधान बतलाते हैं, प्रतिदिन भोजन करने वाले स्वस्थ मुनियों के लिए नहीं । मूल सूत्र की ध्वनि भी लगभग ऐसी ही है । श्लोक ३ : यहां 'कारण' शब्द में सप्तमी विभक्ति के स्थान में 'मकार' अलाक्षणिक है । पुष्ट आलम्बन के बिना मुनि दूसरी बार गोचरी न जाए, किन्तु क्षुधा की वेदना, रोग आदि कारण हो तभी जाए। साधारणतया जो एक बार में मिले उसे खाकर अपना निर्वाह कर ले । मुख्य कारण इस प्रकार हैं- (१) तपस्या, (२) अत्यन्त भूख-प्यास, ( ३ ) रुग्णावस्था और (४) प्राघूर्णक साधुओं का आगमन । श्लोक ४ : ग ८. अकाल को वर्जकर ( अकालं च विवजेता " ) : प्रतिलेखन का काल स्वाध्याय के लिए अकाल है । स्वाध्याय का काल प्रतिलेखन के लिए अकाल है। काल मर्यादा को जानने वाला भिक्षु अकाल-किया न करे। १- (क) जि० चू० पृ० १६४ : गोयरग्गसमावण्णो बालबुड्ढखवगादि मट्ठकोट्ठगादिसु समुद्दिट्ठो होज्जा । (ख) हा० टी० प० १०२ समापन्नो वा गोचरे, क्षयका छन्नमठाव । २- अ० चू० पृ० १२६ : गोयरे वा जहा पढमं भणितं । ३ (क ) ० ० ० १२६ एते पाप भोरचा नं जावद (ख) जि० चू० पृ० १९४ : अयावयट्ठे नाम ण यावयट्ठ, उट्ठ (ऊणं ) ति वृत्तं भवति । (ग) हा० टी० प० १८२ : न यावदर्थम् अपरिसमाप्तमिति । ४- हा० डी० १० १२ दिन भुक्तेन न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः अप विद्यमान ग्लानोदेति । " पाचदभिप्रायं तविवरीय 'मतावयट्ठे भुंजिता । ५– (क) अ० ० पृ० १२६ : सो पुण खमओ वा जधा "वियट्ठभत्तियस्स कप्पंति सव्वे गोयरकाला ( दशा० श्रु० ८ सूत्र २४४) छुधालु वा दोसीणाति पढमालियं काउं पाहुणएहिं वा उवउत्ते ततो एवमातिम्मि कारणे उप्पण्णे । (ख) हा० टी० प० १८२ ततः कारणे' वेदनादावुत्यन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्त-यानं गवेषयेद्', अन्विष्ये (वेषये तु अन्यवा सदभुक्तमेव यतोनामिति । ६ - (क) अ० चू० पृ० १२६ : जधोतियं विवरीयं 'अकालं च सति कालमवगतमणागतं वा एतं 'विवज्जेत्ता' चतिऊण, ण केवलं भिखाए पडिहातीणमवि जहोतिते । (ख) जि० चू० पृ० १९४ : 'अकालं च विवज्जेत्ता' णाम जहा पडिलेहणवेलाए सज्झायस्स अकालो, सज्झायवेलाए पडिलेहणाए अकालो एवमादि अकालं विवज्जित्ता । (ग) हा० टी० प० १८३ : 'अकालं च वर्जयित्वा' येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स खल्वकालस्तमपास्य । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा (पिण्डेषणा ) ६. जो कार्य जिस समय का हो उसे उसी समय करे ( काले कालं समायरे घ) : इस श्लोक से छट्ठ श्लोक तक समय का विवेक बतलाया गया है। मुनि को भिक्षा काल में भिक्षा, स्वाध्याय -काल में स्वाध्याय और जिस काल में जो क्रिया करनी हो वह उसी काल में करनी चाहिए' । २७५ अध्ययन ५ (द्वि० उ० ) श्लोक ५-७ टि०१-१२ सूत्रकृताङ्ग के अनुसार - भिक्षा के समय में भिक्षा करे, खाने के समय में खाए, पीने के समय में पिए, वस्त्र - काल में वस्त्र ग्रहण करे या उनका उपयोग करे, लयन-काल में ( गुफा आदि में रहने के समय अर्थात् वर्षाकाल में ) लयन में रहे और सोने के समय में सोए । काल का व्यतिक्रम मानसिक असन्तोष पैदा करता है। इसका उदाहरण अगले श्लोक में पढ़िए । श्लोक ५ : १०. श्लोक ५ एक मुनि अकालचारी था। वह भिक्षा काल को लाँघकर आहार लाने गया । बहुत घूमा, पर कुछ नहीं मिला । खाली झोली ले वापस आ रहा था । कालचारी साधु ने पूछा "क्यों, भिक्षा मिली ?" वह तुरन्त "इस गाँव में भिक्षा कहां है ? यह तो भिखारियों का गाँव है ।" बोला अकालचारी मुनि की इस आवेश-पूर्ण बाणी को सुन कालचारी मुनि ने जो शिक्षा-पद कहा वही इस श्लोक में सूत्रकार ने उद्धृत किया घटनाक्रमों का त्यों रखते हुए सूत्रकार ने मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है, जैसे चरति पडिलेहसि किलामेसि गरिहसि श्लोक ६ : ११. समय होने पर ( सइ - काले क ) : 'सइकाले' का संस्कृत रूप 'स्मृतिकाले' भी हो सकता है। जिस समय भिक्षा देने के लिए भिक्षुओं को याद किया जाए उस समय को स्मृति-काल कहा जाता है । श्लोक ७ १२. श्लोक ७-८ : सातवें और आठवें श्लोक में क्षेत्र विवेक का उपदेश दिया गया है। मुनि को वैसे क्षेत्र में नहीं जाना चाहिए जहाँ जाने से दूसरे जीव-जन्तु दर कर उड़ जाएँ, उनके खाने-पीने में दिन पड़े आदि-आदि। इसी प्रकार भिचार्य गए हुए मुनि को गृह आदि में नहीं वंदना चाहिए। १० सू० पू० १६४-५ भिलावेला भिवं समायरे पणिवेलाए पडिले समायरे एवमादि, भणियं च 'जोयो जोगो जिगामि दुखापतो अपवाहंत असतो होड कावध्यो ।' २० २.१.१५ अन्न अन्नकाले, पापाकाले पत्थं त्यकाले, लेणं लेणकाले, सका। 1 - (क) जि० चू० पृ० १०५: तमकालचारि आउरीभूतं दट्ठू ण अण्णो साहू भणेज्जा- लद्वा ते एयंमि निवेसे भिक्खति ? भइ -- कुओ एत्थ थंडिल्लगामे भिक्खत्ति । तेण साहुणा भण्णइ -तुमं अप्पणो दोसे परस्स उर्वारिनि वाडेहि, तुम पमादबोले सम्झायलोने या कालं न पास, अप्पा अईहिडीए ओमोदरियाए किलामेसि इमं सन्निवेच गरि हसि, जम्हा एते दोसा तम्हा । (ख) हा० टी० प० १८३ । ४ - हा० टी० प० १८३ : 'सति' विद्यमाने 'काले' भिक्षासमये चरेद्भिक्षु, अन्ये तु व्याचक्षते - स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिषीय स्मयं पत्र भिक्षाका: स स्मृतिकाः । 1 ५- हा० टी० प० १८४ : उक्ता कालयतना, अधुना क्षेत्रयतनामाह । ६- हा० डी० प० १८४ तासनेनान्तरायाधिकरणादिदोषात् । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १३. न बैठे (न निसीएन ) : यहाँ बैठने के बारे में सामान्य निषेध किया गया है'। इसके विशेष विवरण और अपवाद की जानकारी के लिए देखिए बृहत्कल्प सूत्र ( ३.२१-२२) । अनुसंधान के लिए देखिए अध्याय ६ श्लोक ५६-५६ । २७६ अध्ययन ५ ( द्वि० उ०) श्लोक ८-१० टि० १३-१७ : श्लोक : १४. कथा का प्रबन्ध न करे ( कहं च न पबंधेज्जा ग ) : कथा के तीन प्रकार हैं-धर्म-कथा, वाद-कथा और विग्रह- कथा । इस त्रिविध कथा का प्रबन्ध न करे। किसी के पूछने पर एक उदाहरण बता दे किन्तु चर्चाक्रम को लम्बा न करे । साधारणतया भिक्षु गृहस्थ के घर में जैसे बैठ नहीं सकता वैसे खड़ा खड़ा भी धर्म-कथा नहीं कह सकता । तुलना के लिए देखिए (३.२२-२४)। १५. लोक इस श्लोक में वस्तु-विवेक की शिक्षा दी गई है। मुनि को वस्तु का वैसा प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे लघुता लगे और चोट लगने का भी प्रसंग आए । इलोक १६. परिघ (फलिहं क ) : नगर-द्वार के किवाड़ को बन्द करने के बाद उसके पीछे दिया जाने वाला फलक । श्लोक १०: १७. कृपण (किवि ) इसका अर्थ 'पिण्डोलग' है । उत्तराध्ययन (५.२२ ) में 'पिण्डोलग' का अर्थ - 'पर-दत्त आहार से जीवन निर्वाह करने वाला'किया है । ४ १ (क)००० १२७ मिसिएम' णो पनि 'करवति' लिम-देवकुला। (ख) जि० चू० पृ० १६५ : गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियव्वं कत्थइ घरे वा देवकुले वा सभाए वा पवाए वा एवमादि । २- जि० ० चू० पृ० १६६ : णण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा । जि० ० पृ० ११५-१६ जहा व न निसिएग्जा तहा डिओोऽवि धम्मकहाबादकहा- बिमाहादि णो 'पा' नाम कहेज्जइ । (ख) हा० टी० प० १८४ : 'कथां च' धर्मकथादिरूपां 'न प्रबध्नीयात्' प्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेनैकव्याकरणंकज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति । (क) जि० सू० पृ० १९६ इमे दोसा कयाति दुबई पडेना, पतरस य संजमबिराहणा आयविराणा या होम्नसि । (ख) हा० टी० प० १४ साधयविराधनाशेषात् । ५- ( क ) अ० चू० पृ० १२७ : नगरद्दारकवाडोवत्थंभणं 'फलिहं' । (ख) हा० टी० प० १८४: परिघं ' नगरद्वारा दिसंबन्धिनम् । (क) अ० चू० पृ० १२७ : किवणा पिंडोलगा (ख) जि० चू० पृ० १६६ : किविणा- पिण्डोलगा । (ग) हा० टी० प० १८४ : 'कृपणं वा' पिण्डोलकम् । ७- उत्त० बू० वृ० प० २५० । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) घ १८. प्रवचन की (पवयणस्स ) : प्रवचन का अर्थ द्वादशाङ्गी है' । प्रवचन के आधारभूत जैन-शासन को भी प्रवचन कहा जाता है। श्लोक १४ : १६. उत्पल ( उप्पलं क ) : नीलकमल । क २०. पद्म (पउम ) : रक्त-कमल । अगस्त्य सिंह ने पद्म का अर्थ 'नलिन' और हरिभद्र ने 'अरविन्द' किया है । 'अरविन्द' रक्तोत्पल का नाम है । ख २१. कुमुद (कुमुयं वा ): श्वेत कमल । इसका नाम गर्दभ है । २०७ अध्ययन ५ (द्वि००) श्लोक १२-१५ टि० १८-२३ श्लोक १२ : ख २२. मालती ( मगदंतियं ): यह देशी शब्द है । इसका अर्थ मालती और मोगरा है। कुछ आचार्य इसका अर्थ 'मल्लिका' (बेला) करते हैं । श्लोक १५: २३. लोक १५: अगस्त्य पुगि के अनुसार १४ और १५ को श्लोक के रूप में पढ़ने की परम्परा रही है। पूर्णिकार ने इसके समर्थन में लौकिक लोक भी किया है। १ - भग० २०.८.१४ : पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिङगे । २ (क) अ० चु० पृ० १२८ : उप्पलं णीलं । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : उप्पलं नीलोत्पला दे । (ग) हा० टी० प० १८५ : 'उत्पल' नीलोत्पलादि । ३- अ० चू० पृ० १२८ : पडमं णलियं । ४―हा० टी० प० १८५ पद्मम्' अरविन्दं वापि । ५- शा० नि० भू० पृ० ५३९ । ६- (क) जि० चू० पृ० १२८ : 'कुमुदं' गद्दभगं । (ख) जि० चू० पृ० १६६ : कुमुदं गद्दभुप्पलं । (ग) हा० टी० प० १८५ कुमुदं वा' गर्दभक वा । (क) अ० चू० पृ० १२८: 'मगदं तिगा' मेलिगा । ७ (ख) जि. ० चू० पृ० १९६ : यति मेदिया, अपने नगति-धियइल्लो मदगंतिया भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १८५ 'दंतकांतिकां माये । ८ - -अ० चु० पृ० १२६ : 'तं भवे भत्तपाणं' एतत्स विमं प्रद्ध पदंति - देतिपं पडियाइक्खे तं किं ? संजताणं अकप्पिय परिहासमाणसंबंधमतीतायंत रसिलोयसंबंध समाजति तहा एपिति पुन यदिवसोभति लोगे यमुग्वाहिलोइया प्रयोग उपा दश धर्म न भाति तरष्ट्रा मत्तः प्रमत्त उन्मत्तो भ्रांतः कुद्धः पिपासितः ॥ त्वरमाणश्च भीरुश्च चोरः कामी च ते दशः । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) २७८ अध्ययन ५ (द्वि०उ०) : श्लोक १६, १८ टि० २४-२८ श्लोक १६: २४. कुचल कर (सम्मद्दिया' घ) : इसी ग्रन्थ (५.१.२६) में सम्मर्दन के प्रकरण में 'हरिय' शब्द के द्वारा समस्त वनस्पति का सामान्य ग्रहण किया है । यहाँ भेदपूर्वक उत्पल आदि का उल्लेख किया है इसलिए यह पुनरुक्त नहीं है। श्लोक १८: २५. श्लोक १८ : शालूक आदि अपक्व रूप में खाए जाते हैं इसलिए उनका निषेध किया गया है । २६. कमलकन्द (सालुयं क): कमल की जड़। २७. पलाशकन्द (विरालियं क): विदारिका का अर्थ पलाशकन्द किया गया है। हरिभद्र सूरि ने यह सूचित किया है कि कुछ आचार्य इसका अर्थ पर्ववल्लि, प्रतिपर्ववल्लि, प्रतिपर्वकन्द करते हैं । अगस्त्य सिंह ने वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ 'क्षीर-विदारी, जीवन्ती और गोवल्ली' किया है। जिनदास के अनुसार बीज से नाल, नाल से पत्ते और पत्ते से कन्द उत्पन्न होता है वह 'विदारिका' हैं। २८. पद्म-नाल (मुणालियंग) पद्म-नाल पद्मिनी के कन्द से उत्पन्न होती है और उसका आकार हाथी दाँत जैसा होता है । १-हा० टी० ५० १८५ : संमृद्य दद्यात्, संमर्दनम् नाम पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम् । २-(क) अ० चू० पृ० १२८ : 'सम्मद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणी य।' उप्पलादीण एत्थं हरियग्गहणेण गहण वि काल ___ विसेसेण एतेसि परिणामभेदा इति इह सभेदोपादाणं । (ख) जि० चू० पृ० १६६-१६७ : सीसो आह –णणु एस अत्थो पुवि चेव भणिओ जहा 'सम्महमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाई' ति हरियग्गहणेण वणप्फई गहिया, किमत्थं पुणो गहणं कयंति ?, आयरिओ भणइ -तत्थ अविसेसियं वणप्फइ गहणं कयं, इह पुण सभेदभिण्णं वणप्फइकायमुच्चारियं । ३-जि० चू०प० १९७ : एयाणि लोगो खायति अतो पडिसेहणनिमित्तं नालियागहणं कयति ..... 'सासवनालि' सिद्धतत्थगणालो, तमवि लोगो ऊणसंतिकाऊण आमगं चेव खायति । ४ .... (क) अ० चू० पृ० १२६ : 'सालुपं उप्पलकंदो।' (ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'सालुगं' नाम उप्पलकन्दो भण्णइ । (ग) हा० टी० ५० १८५ : 'शालूकं वा' उत्पलकन्दम् । (घ) शा० नि० भू० पृ० ५३६ : पद्मादिकन्दः शालूकम् । ५-हा० टी० ५० १८५ : 'विरालिकां' पलाशकन्दरूपां, पर्ववल्लिप्रतिपर्ववल्लिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये । ६-- अ० चू० पृ० १२६ : 'विरालिय' पलासकंदो अहवा 'छीरविराली' जीवन्ती गोवल्ली इति एसा । ७ ---जि० चू० पृ०१९७ : 'बिरालिय' नाम पलासकंदो भण्णइ, जहा बीए वस्सी जायंति, तीसे पत्ते, पत्ते कंदा जायंति, सा घिरालिया। ८---(क) अ० चू० पृ० १२६ : पउमाणमूला 'मुणालिया। (ख) जि० चू० १० १६७ : मुणालिया-गयदंतसन्निभा पउमिणिकंदाओ निग्गच्छति । (ग) हा० टी० ५० १८५ : 'मृणालिकां' पद्मिनीकन्दोत्थाम् । (घ) शा० नि० भू० पृ० ५३८ : मृणालं पद्मनालञ्च । Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) २६. सरसों की नाल (सासवनालियं ग ) । सरसों की नाल' । ३०. अपश्य गंडेरी (उपसंघ) - पक्ष या पर्व सहित इक्षु खण्ड सचित्त होता है । यहाँ उसी को अनिवृति — अपक्व कहा है । श्लोक १६ : ३१. तृण ( तणगस्स ख ) : जिनदास चूर्णि में तृण शब्द से अर्जक और मूलक आदि का ग्रहण किया है । अगस्त्यसिह स्थविर और टीकाकार इससे मधुर-तृण आदि का ग्रहण करते हैं है। संभव है शब्द गुणयुग का संक्षेप हो। नारियल खजूर केक और । इलोक २० : ३२. कच्ची (तरुणियं क ) : यह उस फली का विशेष है, जिसमें दाने न पड़े हों। ख २३. एक बार भूनी हुई (भज्जियं सई ) : २७९ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) श्लोक १९-२० टि० २१-३३ दो या तीन बार भूनी हुई फली लेने का निषेध नहीं है । इसलिए यहाँ सकृत् शब्द का प्रयोग किया गया है" । यहाँ केवल एक बार भुनी हुई फी लेने का निषेध है। धारा ११७ में दो-तीन बार भूनी हुई फी लेने का विधान भी है। १ – (क) अ० चू० पृ० १२६ : सासवणालिया सिद्धत्थगणाला । (ख) जि० चू० पृ० १९७ : 'सासवनालिअं' सिद्धत्थगणालो । (ग) हा० टी० प० १८५: 'सपनालिकां' सिद्धार्थकमञ्जरीम् । २ (क) अ० पू० पृ० १२ मणिय (ख) जि० चू० पृ० १९७: उच्छुखंडमवि पव्वेसु धरमाणेसु ता नेव अनवगतजीवं कप्पइ । ३ हा० टी० ५० १८५ : इभुखण्डम् अनिर्वृतं' सचित्तम् । ४- शा० नि० भू० पृ० ५२६ : इसका अर्थ वन-तुलसी है । १० चू० पृ० १६७ : तणस्स जहा अज्जगमूलादीणं । ५- जि० ६ (क) अ० चू० पृ० १२६ : तणस्स वा महुरतणातिकस्स । (ख) हा० टी० प० १५५ तुषस्य वा मधुरगादेः । ७ ८ (क) अ० चू० पृ० १३० : 'तरुणिया' अणापक्का । (ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'तरुणिया' नाम कोमलिया । (ग) हा० टी० प० १८५ : 'तरुणां वा' असंजाताम् । (क) अ० चू० पृ० १३० : 'सतिभज्जिता' एक्कसि भज्जिता । (ख) जि० चू० पृ० १९७ : 'सई' भज्जिया' नाम एक्कसि भज्जिया । (ग) हा० टी० प० १८५ तथा भजतां 'सकृद्' एकवारम् । -आ० ० १०७ भिस् वा भिक्खुणी या गाहाब : बाबरणं वा मुजि वा मंया पाउलं वा भज्जियं फासूयं एसणिज्जं ति मुण्णमाणे लाभे सन्ते पडिगाहेज्जा । मधुर का अर्थ - लाल गन्ना या चावल हो सकता हारे के वृक्ष को जन्म कहा जाता है। वाडिया अणुपविट्ठे समानं पुण जाणे प उपवास भन्जयं दृश्तो वा भश्जियं तितो वा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २८० अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २०-२१ टि० ३४-३६ ३४. फली (छिवाडिक): ___ अगस्त्य चणि में 'छिवाड़ी' का अर्थ 'संबलिया' और जिनदास चूणि में 'सिंगा' तथा टीका में मूंग आदि की फली किया है। 'संबलिया' और 'सिंगा' दोनों फली के ही पर्यायवाची नाम हैं। श्लोक २१: ३५. वंश-करीर (वेलुय ख): अगस्त्य चणि में 'वेलुयं' का अर्थ 'बिल्व' या 'वंशकरिल्ल' किया है। जिनदास महत्तर और टीकाकार के अनुसार इसका अर्थ 'वंशकरिल्ल' है। आचाराङ्ग वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'बिल्व' किया है। यहाँ 'वेलूय' का अर्थ 'बिल्व' संगत नहीं लगता, क्योंकि दशवकालिक में 'बिल्व' का उल्लेख पहले ही हो चुका है। प्राकृत भाषा की दृष्टि से भी बल्ब' का 'बेलुय' रूप नहीं बनता, किन्तु 'वेणुक' का बनता है । यहाँ 'बेलुय' का अर्थ वंश-करीर-बांस का अंकुर होना चाहिए । अभिधान चिन्तामणि में दस प्रकार के शाकों में करीर' का भी उल्लेख है। अभिधान चिन्तामणि की स्वोपज्ञ टीका में 'करीर' का अर्थ बांस का अंकुर किया गया है। सुश्रुत के अनुसार बांस के अंकुर कफकारक, मधुरविपाकी, विदाही, वायुकारक, कषाय एवं रूक्ष होते हैं । ३६. काश्यपनालिका ( कासवनालियं ख ) : व्याख्याकारों ने इसका अर्थ 'श्रीपणि फल' और 'कसारु' किया है । 'श्रीपणि' के दो अर्थ हैं"-(१) कुंभारी और (२) कायफल । कंभारी--- यह वनस्पति भारतवर्ष, सिलोन और फिलीपाइन द्वीप-समूह में पैदा होती है । इसका वृक्ष ६० फुट तक ऊँचा होता है। इसका पिंड सीधा रहता है और उसकी गोलाई ६ फुट तक रहती है। इसकी छाल सफेद और कुछ भूरे रंग की रहती है। माघ से चंत्र तक इसके पत्ते गिर जाते हैं और नेत्र-वैशाख में नए पत्ते निकलते हैं। इसमें पीले रंग के फूल लगते हैं, जिन पर भूरे छींटे होते हैं। इसका फल १ इंच लम्बा, मोटा और फिसलना होता है । यह पकने पर पीला हो जाता है। १-(क) अ० चू० पृ० १३० : 'छिवाडिया' संबिलिया। (ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'छिवाडी' नाम संगा। (ग) हा० टी० ५० १८५ : 'छिवाडि' मिति मुद्गादिफलिम् । २- अ० चू० पृ० १३० : 'वेलुयं' बिल्ल वंसकरिल्लो वा। ३-(क) जि० चू० पृ० १६७ : वंसकिरिल्लो बेलुयं । (ख) हा० टी० ५० १८५ : 'वेणुक' वंशकरिल्लम् । ४- आ० चू० ११११८ वृ० : 'वेलुयं' बेलुयंति बिल्वम् । ५-दश० ५.१.७३ : अत्थियं तिदुयं बिल्लं । ६-हैम० ८.१.२०३ : वेणौ णो वा । ७.४.२४९-५० : 'मूलपत्रकरीराग्रफलकाण्डाविरूढकाः । त्वक पुष्पं फलकं शाकं दशधा...। ८-वही पृ० ४७७ : 'करीरं' वंशादेः । है-सु० (सू०) ४६.३१४ : 'वेणोः' करीराः कफला मधुरा रसपाकतः । विदाहिनो वातकरा: सकषाया विरूक्षणाः ।। १०-(क) अ० चू० पृ० १३० : 'कासवनालियं' सीवण्णी फलं कस्सारुकं । (ख) जि० चू० पृ० १६७ : 'कासवनालिअं' सीवणिफलं भण्णइ । (ग) हा०टी०प०१८५ : 'कासवनालिअं' श्रीवर्णीफलम्। ११- व. चं० पू० ४१५,५२७ । १२-व० चं० पृ० ४१५ । Jain Education Interational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा) २८१ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २२ टि० ३७-३६ कायफल ... यह एक छोटे कद का हमेशा हरा रहने वाला वृक्ष है। इसका छिलका खुरदरा, बादामी और भूरे रंग का होता है। इसके पत्ते गुच्छों में लगते हैं। उनकी लम्बाई ७.५ से १२.५ सेन्टिमीटर और चौड़ाई २.५ से ५ सेन्टिमीटर तक होती है। कसारु -- कसेरु नाम का जलीय कन्द है । यह एक किस्म का भारतीय घास का कंद है । इस घास से बोरे और चटाइयाँ बनती हैं । यह घास तालाबों और झीलों में जमती है । इस वृक्ष की जड़ों में कुछ गठाने रहती हैं जो तन्तुओं से ढंकी हुई रहती हैं । इसका फल गोल और पीले रंग का जायफल के बराबर होता है। इसकी छोटे और बड़े के भेद से दो जातियाँ होती हैं । छोटा कसेरु हल्का और आकृति में मोथे की तरह होता है । इसको हिन्दी में चिचोड़ और लेटिन में केपेरिस एस्क्युलेंटस कहते हैं। दूसरी बड़ी जाति को राज कसेरु कहते हैं। सर्दी के दिनों में कसेरु जमीन से निकाले जाते हैं और उनके कार का छिलका हटाकर उनको कच्चे ही खाते हैं। ३७. अपक्व-तिलपपड़ी ( तिलपप्पडगंग ) वह तिल-पपड़ी वजित है, जो कच्चे तिलों से बनी हो । ३८. कदम्ब-फल (नीमंग ) : ___हारिभद्रीय टीका में 'नीम' नीमफलम्- ऐसा मुद्रित पाठ है । किन्तु 'नीमं नीपफलम्'- ऐसा पाठ होना चाहिए । पूणियों में 'नीम' शब्द का प्रयोग उचित हो सकता है, किन्तु संस्कृत में नहीं । संस्कृत में इसका रूप 'नीप' होगा। 'नीप' का अर्थ 'कदम्ब' है और उस का प्राकृत रूप 'नीम' होता है । कदम्ब एक प्रकार का मध्यम आकार का वृक्ष होता है जो भारतवर्ष के पहाड़ों में स्वाभाविक तौर से बहुत पैदा होता है । इसका पुष्प सफेद और कुछ पीले रंग का होता है । इसके फूल पर पंखुड़ियां नहीं होतीं, बल्कि सफेद-सफेद सुगन्धित तन्तु इसके चारों ओर उठे हुए रहते हैं । इसका फल गोल नींबू के समान होता है। कदम्ब की कई तरह की जातियाँ होती हैं। इनमें राज कदम्ब, धारा कदम्ब, धूलि कदम्ब, भूमि कदम्ब इत्यादि जातियाँ उल्लेखनीय है। श्लोक २२: ३६. चावल का पिष्ट (चाउलं पिट्ठ क ): अगस्त्यसिंह ने अभिनव और अनिन्धन ( बिना पकाए हुए ) चावल के पिष्ट को सचित्त माना है। जिनदास ने 'चावल-पिट्ठ' का अर्थ भ्राष्ट्र (भूने हुए चावल) किया है। वह जब तक अपरिणत होता है तब तक सचित्त रहता है। १-व० चं० पृ० ५२७।। २-व० चं० पृ० ४७६ । ३-(क) अ० चू० पृ० १३० : "तिलपप्पडयो' आमतिलेहि जो पप्पडो कतो। (ख) जि० चू० पृ० १९८ : जो आमगेहि तिलेहि कीरइ, तमवि आमगं परिवज्जेज्जा। (ग) हा० टी० ५० १८५ : 'तिलपर्पट' पिष्टतिलमयम् । ४-हा० टी० ५० १८५ : 'नीम' नीमफलम् । ५-(क) अ० चू० पृ०१३० : 'णीव' फलं । (ख) जि० चू० पृ० १९८ : 'मीम' नीमरक्खस्स फलं। ६-हैम० ८.१.२३४ : तीपापोडे मो वा। ७-८० चं० पृ० ३७५॥ ८.-अ० चू० पृ० १३० : चाउलं पिट्ठलोट्ठो । तं अभिणवमणिधणं सच्चित्तं भवति । है-जि० चू० पृ० १९८ : चाउलं पिठं भट्ठ भण्णइ, तमपरिणतधम्म सचित्तं भवति । Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ४०. पूरा न उबला हुआ गर्म ( तत्सनिष्टं ) : पूर्णि और टीका में रात-निन्दु' के 'सप्तनित और इन दो संस्कृत रूपों के अनुसार अर्थ किए गए हैं जो ज 1 गर्म होकर फिर से शीत हो गया हो - विभिन्न काल मर्यादा के अनुसार सचित हो गया हो वह तप्त निर्ऋत कहलाता है । जो जल थोड़ा गर्म किया हुआ हो वह तप्त अनि त कहलाता है' । पक्व जल वही माना जाता है जो पर्याप्त मात्रा में उबाला गया हो। देखिए इसी सूत्र (३.६) की टि० संख्या ३६ । २८२ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) : श्लोक उ०) श्लोक २२ टि ४०-४२ ४१. जल ( वियडं ख ) : मुनि के लिए अन्तरिक्ष और जलाशय का जल लेने का निषेध है । वे अन्तरिक्ष और जलाशय का जल लेते भी हैं किन्तु वही, जो दूसरी वस्तु के मिश्रण से विकृत हो जाए । स्वाभाविक जल सजीव होता है और विकृत जल निर्जीव मुनि के लिए विकृत जल ( या इक्कीस प्रकार का द्राक्षा आदि का पानक । देखिए आयारचुला १) ही ग्राह्य है । इसलिये अङ्ग साहित्य में बहुधा 'वियर्ड' शब्द का प्रयोग जल के अर्थ में भी होता है । अभयदेवसूरि ने वियड का अर्थ 'पानक' किया है । 'वियड' शब्द का प्रयोग शीतोदक और उष्णोदक दोनों के साथ होता है । अगस्त्य सिंह स्थविर 'वियड' का अर्थ गर्म जल करते हैं। जिनदास णि और टीका में इसका अर्थ शुद्धोदक किया है । ४२. पोई - साग और सरसों की खली ( पूइपिन्नागं ग ) : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार 'पूर पिन्नागं' का अर्थ है-सरसों की पिट्ठी । जिनदास महत्तर सरसों के पिंड (भोज्य ) को 'पूइ पिन्नागं' कहते हैं। टीकाकार ने इसका अर्थ सरसों की खली किया है। आयारचूला में भी 'पूइ पिन्नाग' शब्द प्रयुक्त हुआ है। वहाँ वृत्तिकार ते इसका अर्थ कुथित की खली किया है " सूत्रकृताङ्ग के वृत्तिकार ने 'पिण्याक' का अर्थ केवल खली किया है" । सुश्रुत ' में 'पिण्याक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। व्याख्या में उसका अर्थ तिल, अलसी, सरसों आदि की खली किया है" । उस स्थिति में 'पूइ पिन्नाग' का अर्थ सरसों की खली करना चिन्तनीय है । शालिग्राम निघण्टु ( पृ० ८७३) के अनुसार 'पूइ' एक प्रकार का साग है। संस्कृत में इसे उपोदकी या पोदकी कहते हैं । हिन्दी में इसका नाम पोई का साग है । बंगला में इसे पूइशाक कहते हैं । पूइ और पिन्नाग को पृथक् मानकर व्याख्या की जाए तो पूइ का अर्थ पोई और पिण्याक का अर्थ सरसों आदि की खली किया जा सकता है । १-- (क) अ० चू० पृ० १३० : तत्तनित्वुद्धं सीतलं पडिसचितीभूतं अणुव्वत्तदंडं वा । - (ख) हा० टी० प० १८५: तप्तनिर्वृतं क्वथितं सत् शीतीभूतम्, तप्तनिवृतं वा अप्रवृत्तत्रिदण्डम् । २-- ठा० ३।३४६ : णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स कप्पंति तओ वियडदत्तीओ पडिग्गाहित्तते । ३ - ठा० ३।३४६ वृ० : 'वियड' त्ति पानकाहारः । ४-आ० चू० ६।२४ : 'सिओदगविथडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा' । ५- अ० चू० पृ० १३० : वियडं उन्होयगं । ६ (क) जि० [० चू० पृ० १६८ : सुद्धमुदयं वियडं भण्णइ । (ख) हा० टी० प० १८५: विकटं वा शुद्धोदकम् । ७५० सू० पृ० १३० पूतिनाम सरिसवपि । ८ जि० चू० पृ० १६८: ६ हा० टी० ए० १०५ १० आ० पू० १।११२० ११ – सू० २.६.२६ प० ३६६ वृ० : 'पिण्याक : ' खलः । १२- गु० (सू०) ४६.३२१ "पिण्याकतिलककाकानि सर्व्वदोषप्रकोपणानि । 'पूतियं' नाम सिद्धथपिंडगो, तत्थ अभिन्ना वा सिद्धत्थगा भोज्जा, दरभिन्ना वा । पूतिविन्याक' सर्वपलम् । प्रतिपित्तावन्ति कुवितम्। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २८३ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) श्लोक २३-२४ टि०४३-४७ श्लोक २३ : ४३. कैथ' ( कविट्ठ क): कैथ एक प्रकार का कंटीला पेड़ है जिसमें बेल के आकार के कसैले और खट्टे फल लगते हैं। ४४. बिजौरा ( माउलिगं क ): बीजपूर, मातुलुंग, रुचक, फलपूरक इसके पर्यायवाची नाम हैं। ४५. मूला और मूले के गोल टुकड़े ( मूलगं मूलगत्तियं ख) : 'मूलक' शब्द के द्वारा पत्र-सहित-मूली' और 'मूलक कत्तिका' के द्वारा पत्र-रहित-मूली का ग्रहण किया है । चूणि के अनुसार यह पाठ 'मूलकत्तिया'--'मूलकत्तिका' और टीका के अनुसार 'मूलवत्तिया' 'मूलवत्तिका' है। सुश्रुत (४.६.२५७) में कच्ची मूली के अर्थ में 'मूलक-पोतिका' शब्द प्रयुक्त हुप्रा है । संभव है उसी के स्थान में 'मूलबत्तिय' का प्रयोग हुआ हो । श्लोक २४: ४६. फलचूर्ण, बीज चूर्ण ( फलमंथूणि क; बीयमंथूणि ख ) : बेर आदि फलों के चूर्ण को 'फलमन्यु' कहते हैं और जौ, उड़द, मूंग आदि बीजों के चूर्ण को 'बीजमन्थु' कहते हैं । आयार घूला में उदुम्बर, न्यग्रोध (बरगद), प्लक्ष (पाकड़), अश्वत्थ आदि के मन्थुओं का उल्लेख है । देखिए 'मंथु' (५.१.६८) की टिप्पण संख्या २२८ । ४७. बहेड़ा ( बिहेलगं" ): अर्जन वृक्ष की जाति का एक बड़ा और ऊँचा वृक्ष, जिसके फल दवा के काम में आते हैं। त्रिफला में से एक फल । १-(क) अ० चू० पृ० १३० : कवित्थफलं 'कविट्ठ'। (ख) हा० टी० प० १८५ : 'कपित्थं' कपित्थफलम् । २-(क) अ० चू० पृ० १३० : बीजपूरगं मातुलिगं । (ख) जि० चू० पृ० १९८ : कविट्ठमालिंगाणि पसिद्धाणि । (ग) हा० टी० ५० १८५ : मातुलिङ्गच' बीजपूरकम् । ३--शा० नि० भू०५७८ । ४-जि० चू० पृ० १६८ : मूलओ सपत्तपलासो। ५-अ० चू० पृ० १३० : मूलगकंदगचक्कलिया। (ख) जि. चू० पृ० १९८ : मूलकत्तिया-मूलकंदा चित्तलिया भण्णइ : (ग) हा० टी०प०१८५ : 'मूलवत्तिका' मुलकन्दचक्कलिम। ६-(क) जि० चू०प०१९८ । (ख) हा० टी०प०१८५। ७- (क) जि० चू० पृ० १६८ : मंथू --बदरचुष्णो भण्णइ, फलमथू बदरओंबरादोणं भण्णइ । (ख) हा० टी० ५० १८६ : 'फलमन्थून्' बदरचूर्णान् । ८-(क) जि० चू० पृ० १६८ : 'बीयमंथू' जवमासमुग्गादीणि । (ख) हा० टी० ५० १८६ : 'बीजमन्थून' यवादिचूर्णान् । -- आ० चू० १११११ : उबरमंथु वा, नग्गोहमंथु वा, पिलुखुमं, वा, आसोत्थमंथु वा, अन्नयरं वा, तहप्पगारं मंथुजाय । १०-(क) अ०० १० १३० : 'विभेलगं' भूतरुक्खफलं, तस्समाणजातीतं हरिंडगाति वा । (ख) जि० चू०१० १९८: बिहेलगरुक्खस्स फलं बिहेलगं । (ग) हा० टी०प० १८६ : 'बिभीतक' बिभीतकफलम् । Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २८४ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २५, २६ टि० ४८-५० ४८. प्रियाल फल' (पियालं ग) : प्रियाल को चिरौंजी कहते हैं। 'चिरौंजी' के वृक्ष प्राय: सारे भारतवर्ष में पाये जाते हैं । इसके पत्ते छोटे-छोटे, नोकदार और खुरदरे होते हैं। इसके फल करोंदे के समान नीले रंग के होते हैं। उनमें से जो मगज निकलती है उसे चिरौंजी कहते हैं। श्लोक २५ : ४६: समुदान (समुयाणं क) : मुनि के लिए समुदान भिक्षा करने का निर्देश किया गया है। एक या कुछ एक घरों में से भिक्षा ली जाय तो एषणा की शुद्धि रह नहीं सकती, इसलिए अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लेना चाहिए, ऊँच और नीच सभी घरों में जाना चाहिए। जो घर जाति से नीच कहलाएँ, धन से समृद्ध न हों और जहाँ मनोज्ञ आहार न मिले उनको छोड़ जो जाति से उच्च कहलाएँ, धन से समृद्ध हों और जहाँ मनोज्ञ आहार मिले वहाँ न जाए । किन्तु भिक्षा के लिए निकलने पर जुगुप्सित कुलों को छोड़कर परिपाटी (क्रम) से आने वाले छोटे-बड़े सभी घरों में जाए। जो भिक्षु नीच कुलों को छोड़कर उच्च कुलों में जाता है वह जातिवाद को बढ़ावा देता है और लोग यह मानते हैं कि यह भिक्षु हमारा परिभव कर रहा है। ' बोद्ध-साहित्य में तेरह 'धुताङ्ग' बतलाए गए हैं। उनमें चौथा 'धुताङ्ग' सापदान-चारिकाङ्ग' है। गांव में भिक्षाटन करते समय बिना अन्तर डाले प्रत्येक घर से भिक्षा ग्रहण करने को 'सापदान-चारिकाङ्ग' कहते हैं । श्लोक २६: ५०. वन्दना (स्तुति) करता हुमा याचना न करे (वंदमाणो न जाएज्जा ग) : यहाँ उत्पादन के ग्यारहवें दोष 'पूर्व-संस्तव' का निषेध है। दोनों चूर्णिकारों और टीकाकार ने 'वंदमाणं न जाएज्जा' पाठ को मुख्य मानकर व्याख्या की है और 'वंदमाणो न जाएज्जा' को पाठान्तर माना है। किन्तु मूल पाठ 'वंदमाणो न जाएज्जा' ही होना चाहिए । इस श्लोक में उत्पादन के ग्यारहवें दोष—पुब्विपच्छा १-(क) अ० चू० पृ० १३० : पियालं पियालरुक्खफलं वा । (ख) जि० चू० पृ० १९८ : पियालो रुक्खो तस्स फलं पियालं । (ग) हा० टी०प०१८६ : 'प्रियालं वा' प्रियालफलं च । २-(क) अ० चू० पृ० १३१ : समुयाणीयंति-समाहरिज्जति तदत्यं चाउलसाकतो रसादीणि तदुपसाधणाणीति अण्णमेव __'समुदाणं चरे' गच्छेदिति । अहवा पुव्वणितमुग्गाप्पायणेसणासुद्धमण्णं समुदाणीयं चरे । (ख) जि० चू० पृ० १६८ : समुदाया णिज्जइति, थोवं थोवं पडिवज्जइति बुसं भवइ । (ग) हा० टी०प० १८६ : समुदानं भावभक्ष्यमाश्रित्य चरेद् भिक्षुः । ३-जि० चू० पृ० १९८-१६६ : 'उच्च” नाम जातितो णो सारतो सारतो णो जातीतो, एगं सारतोवि जाइओवि, एगं णो सारओ नो जाइओ, अवयमवि जाइयो एगं अवयं नो सारओ, सारओ एणं अवयं नो जाइओ, एगं जाइओऽवि अवयं सारओऽवि, एगं नो जाइओ अवयं नो सारओ, अहवा उच्च जत्थ मणुन्नाणि लब्भति, अवयं जत्य न तारिसाणित्ति, तहप्पगारं फुलं उच्चं वा भवउ अवयं वा भवउ, सव्वं परिवाडीय समुदाणितब्बं, ण पुण नीयं कुलं अतिक्कमिऊण ऊसढ अभिसंधारिज्जा, 'णीय' नाय णीयंति वा अवयंति वा एगट्ठा, दुगु छियकुलाणि वज्जे उण जं सेसं कुलं तमतिक्कमिउणं नो ऊसढं गच्छेज्जा, ऊसढं नाम ऊसदंति वा उच्चति वा एगट्ठ, तमि ऊसढे उक्कोसं लभीहामि बहुं वा लब्भीहामितिकाऊण णो णियाणि अतिक्क मेज्जा, कि कारणं ? दोहा भिक्खायरिया भवति, सुत्तत्थपलिमंथो य, जडजीवस्स य अण्णे न रोयंति, जे ते अतिक्कमिज्जति ते अप्पत्तियं करेंति जहा परिभवति एस अम्हेत्ति, पव्वइयोवि जातिवायं ण मुयति, जातिवाओ य उववूहिओ भवति। ४..-विशुद्धि मार्ग भूमिका प० २४ । विशेष विवरण के लिए देखें १०६७-६८ । ५-(क) अ० चू० पृ० १३२ : पाठविसेसो वा — 'वंदमाणो न जाएज्जा'। (ख) जि० चू०प० २०० : अथवा एस आलावओ एवं पढिज्जइ 'वंदमाणो ण जाएज्जा' वंदमाणो णाम वंदमाणो सिराकंप पंजलियादीहि णो जाएज्जा, वायाएवि वंदणसरिसाए ण जातिब्बो, जहा सामि भट्टि देवए वाऽसि । Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा) २८५ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ३१, ३४ टि० ५१-५३ सथव' (पूर्वपश्चात् संस्तव) के एक भाग 'पूर्व-संस्तव' का निषेध है। इसका समर्थन आयार घुला के 'वं दिय बंदिय' शब्द से होता है। वृत्तिकार शीलाङ्कसूरि के अनुसार इसका अर्थ यह है कि मुनि गृहपति की स्तुति कर याचना न करे । आयार चूला के टिप्पणीगत दोनों वाक्य और प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्द्ध के दोनों चरण केवल अर्थ-दृष्टि से ही नहीं किन्तु शब्द-दृष्टि से भी प्रायः तुल्य हैं । आचाराङ्ग के 'वंदिय' का अर्थ यहाँ 'वंदमाणो' के द्वारा प्रतिपादित हुआ है। निशीथ में 'पूर्व-संस्तव' के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। प्रश्न व्याकरण (संवरद्वार १) में 'ण वि वंदणाए' के द्वारा उक्त अर्थ का प्रतिपादन हुआ है। इन के आधार पर 'वंदमाणो' पाठ ही संगत है । वन्दमान-वन्दना करते हुए व्यक्ति से याचना नहीं करनी चाहिए - यह अर्थ चूर्णिकार और टीकाकार को अभिप्रेत है। किन्तु यह व्याख्या विशेष अर्थवान् नहीं लगती और इसका कहीं आधार भी नहीं मिलता। 'वंदमाणो न जाएज्जा' इसका विशेष अर्थ भी है, आगमों में आधार भी है, इसलिए अर्थ की दृष्टि से भी 'वंदमाणो' पाठ अधिक उपयुक्त है। श्लोक ३१ ५१. छिपा लेता है (विणिगृहई ख): इसका अर्थ है-सरस आहार को नीरस आहार से ढक लेता है। श्लोक ३४: ५२. मोक्षार्थी (आययट्ठी ख): इस शब्द को अगस्त्यधूणि में 'आयति-अर्थी' तथा जिनदास धूणि और टीका में 'आयत-अर्थी' माना है। ५३. रूक्षवृत्ति (लूहवित्ती ) : रूक्ष शब्द का अर्थ रूखा और संयम-दोनों होता है। जिनदास धूणि में रूक्षवृत्ति का अर्थ रूक्ष-भोजी और टीका में इसका अर्थ संयम-वृत्ति किया है। १-- आ० चू० ११६२ : 'नो गाहावई वंदिय-वंदिय जाएज्जा' नो वणं फरुसं वएज्जा'। २-आ० चू० ११६२ ०० : गृहपति 'वंदित्वा' वाग्भिः स्तुत्वा प्रशस्य नो याचेत । ३ –नि० २.३८ : जे भिक्खू पुरे संथवं पच्छा संथवं वा करेइ करेंतं वा सातिज्जति । चू० : 'संथवो' थुती, अदत्ते दाणे पुव्वसंथवो, दिण्णे पच्छासंथवो। जो तं करेति सातिज्जति वा तस्स मासलहुं । ४--(क) अ० चू० पृ० १३२ : 'वंदमाणं ण जाएज्जा' 'जहा अहं वंदितो एतेण, जायामि णं, भद्दो अवस्स दाहिति । सो वंदिय मेत्तेण जातिओ चितेज्ज भणेज्ज वा-चोरते वंदिहि त्ति, एणातियं एवमादि दोसा। (ख) जि० चू० पृ० २०० : 'वंदमाणं न जाइज्जा जहा अहमेतेण वंदिउत्ति अवस्समेसो दाहेति, तत्थ विपरिणामादिदोसा संभवंति, पुरिसं पुण वंदमाणं वंदमाणं अन्नं किंचि वक्खेवं काऊण अण्णतो वा मग्गिऊण पुणो तत्थेव गंतूण मगइ, जइ ताहे पुणो वंदति तो मग्गिओ जइ कदापि पडिसेहेज्जा तत्थ नो अण्णं फरुसं वए, जहा होणं ते वंदितं, तुमं अवंदओ चेव, एवमादि। (ग) हा० टी० ५० १८६ : वन्दमानं सन्तं भद्रकोऽयमिति न याचेत, विपरिणामदोषात्, अन्नाद्यभावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रू यात्-वृथा ते वन्दनमित्यादि । ५- (क) जि० चू० पृ० २०१ : विविहेहि पगारेहि गृहति विणिगृहति, अप्पसारियं करेइ, अन्नेण अन्तपन्तेण ओहाडेति । (ख) हा० टी० ५० १८७ : 'विनिगूहते' अहमेव भोक्ष्य इत्यन्तप्रान्तादिनाऽऽच्छादयति । ६-(क) अ० चू० पृ० १३३ : [आयती ] आगामिणि काले हितमायतीहितं, आतति हितेण अत्थी आपस्थाभिलासी। (ख) जि० चू० पृ० २०२ : आयतो-मोक्खो भण्णइ, तं आययं अत्थयतीति आययट्ठी । (ग) हा० टी० ५० १८७ : 'प्रायतार्थी' मोक्षार्थी । ७-(क) जि० चू० पू० २०२ : लूहाइ से वित्ती, एतस्स ण णिहारे गिद्धी अस्थि । (ख) हा० टी० ५० १८७ : 'रूक्षवृत्तिः' संयमवृत्तिः । Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अध्ययन ५ ( द्वि० उ० ) : श्लोक ३५-३६ टि० ५४-५८ श्लोक ३५ : ५४. मान-सम्मान की कामना करने वाला ( माणसम्माणकामए ख ) : वंदना करना, आने पर खड़ा हो जाना मान कहलाता है और वस्त्र पात्र आदि देना सम्मान है अथवा मान एकदेशीय अर्चना है और सम्मान व्यापक अर्चना' 1 redआलिय (दशर्वकालिक ) ५५. माया- शल्य ( मायासल्लं घ) : वहाँ शल्य का अर्थ आयुध ( शरीर में घुसा हुआ कांटा ) अथवा बाण की नोक है । जिस प्रकार शरीर में घुसी हुई अस्त्र की नोक यथा देती है उसी प्रकार जो पाप कर्म मन को व्यथित करते रहते हैं उन्हें शल्य कहा जाता है । माया, निदान और मिथ्यादर्शन – ये तीनों सतत चुभने वाले पाप कर्म हैं, इसलिए इन्हें शल्य कहा जाता है । पूजार्थी व्यक्ति बहुत पाप करता है और अपनी पूजा आदि को सुरक्षित रखने के लिए वह सम्यक् प्रकार से आलोचना नहीं करता किन्तु माया- शल्य करता है—अपने दोषों को छिपाने का प्रयत्न करता है । इलोक ३६: ५६. संयम (जप) यहाँ यश शब्द का अर्थ संयम हैं । संयम के अर्थ में इसका प्रयोग भगवती में भी मिलता है । ५७. सुरा, मेरक (सुरं वा मेरगं वा क ) : सुरा और मेरक दोनों मंदिरा के प्रकार हैं। टीकाकार पिष्ट आदि द्रव्य से तैयार की हुई मदिरा को सुरा और प्रसन्ना को मेरक मानते हैं । चरक की व्याख्या में परिपक्व अन्न के सन्धान से तैयार की हुई मदिरा को सुरा माना है । भावमिश्र के 'अनुसार उबाले हुए शालि, षष्टिक आदि चावलों को सन्धित करके तैयार की हुई मंदिरा को सुरा कहा जाता है। मैरेय तीक्ष्ण, मधुर तथा गुरु होती है" । सुरा को पुनः सन्धान करने से जो सुरा तैयार होती है, उसे मैरेय कहते हैं अथवा धाय के फूल, गुड़ तथा धान्याम्ल ( कांजी) के सन्धान से मैरेय तैयार होता है" । वृद्ध शौनक के अनुसार आसव और सुरा को मिलाकर एक पात्र में सन्धान करने से प्रस्तुत मद्य को मैरेय कहा जाता है" । आयुर्वेद - विज्ञान के अनुसार कैथ की जड़, बेर तथा खांड-इनका एकत्र सन्धान करने से मैरेयी नाम की मदिरा तैयार होती है । ५८. आत्म- साक्षी से (ससक्खं ग ) : इससे अगले श्लोक में लुक-छिपकर स्तेन वृत्ति से मद्य पीने वाले का वर्णन किया है। प्रस्तुत श्लोक में आत्म साक्षी से मद्य न पीए १- ( क ) जि० चू० पृ० २०२ : माणो बंदणअन्भुट्टाणपच्चयओ, सम्माणो तेहि वंदणादीहिं वत्थपत्तादीहिं य, अहवा माणो एगदेसे कोरड, सम्माणी पुण सारेहि इति । (ख) हा० टी० प० १८७ तत्र वन्दनाभ्युत्थानलाभनिमित्तो मानः, वस्त्रपात्रादिलाभनिमित्तः सन्मानः । २- अ० चू० पृ० १३४ : सल्लं - आउधं देधलग्गं । १-ठा० ३।३८५ । जि० To चू० पृ० २०२ : कम्मरुययाए वा सो लज्जाए वा अणालोएंतो मायासल्लमवि कुव्वति । ० टी० प० १८८ : यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते । ४ ५ - हा० ६ - भग० ४१.१.६. : ते णं भंते ! जीवा कि आयजसेणं उववज्जंति आत्मनः संबन्धि यशो यशोहेतुत्वाद् यशः संयम आत्मयशस्तेन । ७ - हा० टी० प० १८८ : 'सुरां वा' पिष्टादिनिष्पन्नां, 'मेरकं वापि प्रसन्नाख्याम् । ८ पूर्व भा० (सूत्रस्थान ) अ० २५ पृ० २०३ : परिवक्वान्नसन्धानसमुत्पन्नां सुरां जगुः । & च० पूर्व भा० (सूत्रस्थान ) अ० २५. पृ० २०३ : 'शालिषष्टिकपिष्टादिकृतं मद्य सुरा स्मृता । १० - वही अ० २७ श्लोक १८४ । ११ ही ० २५० २०३ : मेरे धातकीपुष्यधान्यालसन्धितम् । १२- वही अ० २७ १० २४० : 'आसवस्य सुरायाश्च द्वयोरेकत्र भाजने । संपानं तहिनामा ॥ १३- वही अ० २५. पु० २०३ : 'मालूरमूलं बदरी, शर्करा च तथैव हि । एषामेकत्रसन्धानात् मंरेयी मदिरा 'स्मृता ॥' Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडेसणा ( पिण्डेषणा ) २८७ अध्ययन ५ ( द्वि०उ० ) : श्लोक ३८, ३६, ४२ टि०५६-६३ यह बतलाया गया है। अगस्त्य चूर्णि में 'ससक्ख' का अर्थ स्वसाक्ष्य" और वैकल्पिक रूप में 'ससाक्ष्य गृहस्थों के सम्मुख किया है । जिनदास घुणि में इसका अर्थ केवल 'ससाक्ष्य' किया है। टीकाकार 'साख' का अर्थ- परित्याग में साक्षीभूत केवली के द्वारा प्रतिषिद्ध करते हैं और मद्य-पान का आत्यन्तिक निषेध बतलाते हैं। साथ ही साथ कुछ व्याख्याकार इस सूत्र को ग्लान विषयक अपवाद सूत्र मानते हैं-- इस मतान्तर का उल्लेख भी मिलता है । इलोक ३८ : ५६. उम्मत्तता ( सोंडिया ) : 'सोडिया' का अर्थ है- सुरापान की आसक्ति या गृद्धि से होने वाली उन्मत्तता । इलोक ३६ ६०. संवर ( संवरं ) : अगस्त्य सिंह ने इसका अर्थ 'प्रत्याख्यान'", जिनदास महत्तर ने संयम तथा हरिभद्र सूरि ने 'चारित्र' किया है । श्लोक ४२ : ६१. जो मेधावी ( मेहावीरु) मेधावी दो प्रकार के होते हैं - ग्रन्थ-मेधावी और मर्यादा मेधावी । जो बहुश्रुत होता है उसे ग्रन्थ- मेधावी कहा जाता है और मर्यादा के अनुसार चलने वाला मर्यादा मेधावी कहलाता है" । ६२. प्रणीत ( पणीयं ) : दूध, दही, घी आदि स्निग्ध पदार्थ या विकृति को प्रणीत रस कहा जाता है" । विस्तृत जानकारी के लिए देखिए ८.५६ का टिप्पण | ६३. मद्य प्रमाद ( मज्जप्पमाय ): यहाँ मद्य और प्रमाद भिन्नार्थक शब्द नहीं हैं, किन्तु मद्य प्रमाद का कारण होता है इसलिए मद्य को ही प्रमाद कहा गया है २ । -अ० चू० पृ० १३४ : सक्खी भूतेण अप्पणा सचेतणेण इति । २- अ० चू० पृ० १३४ : अहवा जया गिलाणकज्जे ततो 'ससक्खो ण पिबे' जणसक्खिगमित्यर्थः । ३ - जि० ० चू० पृ० २०२ : जति नाम गिलाणनिमित्तं ताए कज्जं भविज्जा ताहे 'ससक्खं नो पिबेज्जा' ससक्खं नाम सागारिएहि पाइयमाणं । ४- हा० टी० प० १८८: 'ससाक्षिक' सदापरित्यागसाक्षिके व लिप्रतिषिद्ध ं न पिबेद् भिक्षु, अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात् । अन्ये तु ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्रमत्यागारिकवाव्याचते । १३४ : सुरादिसु संगो 'सोंडिया' । (ख) जि० ० ० २०३ सुंडिया नाम जा सुरातनेही या डि अभ्यति, ताणि मुरादीनि मोतृणं ण अन्नं शेयह । (ग) हा० टी० ० १ 'डि' तयत्यन्ताभ २- हा० डी० प० १ ६ (क) अ० चू० पृ० : ७ -अ० चू० पृ० १३४ 'संवरं' पच्चक्खाणं । ८ -जि० चू० पृ० २०४ : संवरो णाम संजमो । ६- हा० टी० प० १८८ : 'संवरं' चारित्रम् । १० - जि० चू० पृ० २०३ : मेधावी दुविहो, त० गंथमेधावी मेरामेधावी य, तत्थ जो महंतं गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी, मेरामेधावीणाम मेरा मज्जाया भण्णांत तीए मेराए धावतित्ति मेरामेधावी । ११ (क) अ० चू० पृ० १३५ : पणीए पधाणे विगतीमादीते । (ख) जि० चू० पृ० २०३ : पणीतस्स नाम नेहविगतीओ भण्णति : (ग) हा० टी० प० १८६ : 'प्रणीतं' स्निग्धम् । १२- ठा० ६।४४ वृ० : 'छव्विहे पमाए पन्नत्ते तं जहा मज्जपमाए .. मद्यं सुरादि तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं( दशवकालिक ) २८८ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ४३, ४४, ४६ टि० ६४-६८ श्लोक ४३: ६४. अनेक साधुओं द्वारा प्रशंसित ( अणेगसाहपूइयं ख ): ___अगस्त्य पूणि और टीका में 'अणेगसाहु' को समस्त-पद माना है । जिनदास पूर्णि में 'अणेगं' को 'कल्लाणं' का विशेषण माना है। ६५. विपुल और अर्थ-संयुक्त ( विउलं अत्थसंजत्तं ग ) : अगस्त्य पूणि के अनुसार 'विउल' का मकार अलाक्षणिक है और विपुलार्थ-संयुक्त एक शब्द बन जाता है । विपुलार्थ-संयुक्त अर्थात् मोक्ष-पुरुषार्थ से युक्त । जिनदास चूणि में भी ऐसा किया है, किन्तु 'अत्थसंजुत्तं' की स्वतंत्र व्याख्या भी की है । टीका में 'विउलं' और 'अत्थसंजुत्तं' की पृथक् व्याख्या की है। ६६. स्वयं देखो ( पस्सह ): देखना चक्षु का व्यापार है। इसका प्रयोग पूर्ण अवधारण के लिए भी होता है, जैसे-मन से देख रहा है । यहाँ सर्वगत अवधारण के लिए "पश्यत' का प्रयोग हुआ है ---उस तपस्वी के कल्याण को देखो अर्थात् उसका निश्चित ज्ञान करो। श्लोक ४४ : ६७. अगुणों को ( अगुणाणं ख ) : जिनदास चूणि में जो नागार्जुनीय परम्परा के पाठ का उल्लेख है उसके अनुसार इसका अर्थ होता है- अगुण-रूपी ऋण न करने वाला । अगस्त्यसिंह ने इस अर्थ को विकल्प में माना है। श्लोक ४६ : ६८. तप का चोर .... भाव का चोर ( तवतेणे क......... भावतेणे ग) : तपस्वी जैसे पतले दुबले शरीरवाले को देख किसी ने पूछा- "वह तपस्वी तुम्ही हो?" पूजा-सत्कार के निमित्त "हाँ, मैं ही हैं" ऐसा कहना अथवा “साधु तपस्वी ही होते हैं", ऐसा कह उसके प्रश्न को घोटाले में डालने वाला तप का चोर कहलाता है। इसी प्रकार धर्मकथी, उच्चजातीय, विशिष्ट आचार-सम्पन्न न होते हुए भी मायाचार से अपने को वैसा बतलाने वाला क्रमश: वाणी का चोर, रूप का चोर और आचार का चोर होता है। १-(क) अ० चू० पृ० १३५ : अणगेहि 'साधूहि पूतियं पसंसियं इह-परलोगहितं । (ख) हा० टी० ५० १८६ : अनेकसाधुपूजितं, पूजितमिति–सेवितमाचरितम् । २-जि० चू० पृ० २०४ : अणेगं नाम इहलोइयपरलोइयं, जं च । ३ अ० चू० पृ० १३५ : 'विपुलं अट्ठसंजुत्तं विपुलेण' वित्थिण्णेण 'अस्थेण संजुत्त" अक्खयेण णेवाणत्थेण । ४-जि० चू०प० २०४ : 'विउलं अत्थसंजुत्त' नाम विपुलं विसालं भण्णति, सो य मोक्खो, तेण विउलेण अत्थेण संजुत्तं विउलस्थ संजुत्तं, अत्थसंजुत्तं णाम सभावसंजुत्त, ण पुण णिरत्थियंति । ५- हा० टी० ५० १८६ : 'विपुलं विस्तीर्ण विपुलमोक्षावहत्वात् 'अर्थसंयुक्तं' तुच्छता विपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् । ६---अ० चू० पृ० १३५ : पस्सणं णयणगतो वावारो सव्वगतावधारणे वि पयुज्जति, मनसा पश्यति । तस्य पश्यतेति । ७- जि० चू० पृ० २०४ : तहा नागज्जुण्णिया तु एवं पढंति- 'एवं तु अगुणप्पेही अगुणाणं विवज्जए' अगुणा एव अणं अगुणाणं, अगति वा रिणति वा एगट्ठा, तं च अगुणरिणं अकुव्वंतो। -अ० चू० पृ० १३६ : अधवा अगुणी एवं रिणं तं विवज्जेति। Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडेसणा (पिण्डैषणा ) २८६ अध्ययन ५ ( द्वि० उ०) : श्लोक ४७-४८ टि० ६६-७१ जो किसी सूत्र और अर्थ को नहीं जानता तथा अभिमानवश किसी को पूछता भी नहीं, किन्तु व्याख्यान या वाचना देते समय आचार्य तथा उपाध्याय से सुनकर ग्रहण करता है और यह तो मुझे ज्ञात ही था'- इस प्रकार का भाव दिखाता है वह भावचोर होता है। ६६. किल्बिषिक देव-योग्य-कर्म ( देवकिब्बिसंध): देवों में जो किल्विष ( अधम जाति का ) होता है, उसे देवकिल्विष कहा जाता है । देवकिल्विष में उत्पन्न होने योग्य कर्म या भाव देवकिल्बिष कहलाता है। "देवकिब्बिसं" का संस्कृत रूप देव-किल्विष हो सकता है जैसा कि दीपिकाकार ने किया है। किन्तु वह देव-जाति का वाचक होता है इसलिए "कुब्वइ" क्रिया के साथ उसका संबंध नहीं जुड़ता । इसलिए उसका संस्कृत रूप "दैव-किल्बिष" होना चाहिए । वह कर्म और भाव का वाचक है और उसके साथ क्रिया की संगति ठीक बैठती हैं । किल्बिष देवताओं की जानकारी के लिए देखिए भगवती (६.३३) एवं स्थानाङ्ग (३.४६६) । स्थानाङ्ग में चार प्रकार का अपध्वंस बतलाया है-असुर, अभियोग, सम्मोह और देवकिल्बिष' । वृत्तिकार ने अपध्वंस का अर्थ चरित्र और उसके फल का विनाश किया है। वह आसुरी आदि भावनाओं से होता है। उत्तराध्ययन में चार भावनाओं का उल्लेख है। उनमें तीसरी भावना किल्वि षिकी है। इस भावना के द्वारा जो चरित्र का विनाश होता है उसे देवकिल्बिष-अपध्वंस कहा जाता है । स्थानाङ्ग (४.५७०) के अनुसार अरिहन्त-प्रज्ञप्त-धर्म, आचार्य-उपाध्याय और चार तीर्थ का अवर्ण बोलने वाला व्यक्ति देवकिल्बिषकत्व कर्म का बंध करता है। उत्तराध्ययन के अनुसार ज्ञान, केवली, धर्माचार्य, संघ और साधुओं का अवर्ण बोलने वाला तथा माया करने वाला किल्बिषिकी भावना करता है। प्रस्तुत श्लोक में किल्बिषिक-कर्म का हेतु माया है । देवों में किल्बिष पाप या अधम होता है उसे देवकिल्बिष कहा जाता है । माया करने वाला दैवकिल्बिष करता है अर्थात् --देवकिल्बिष में उत्पन्न होने योग्य कर्म करता है। श्लोक ४७: ७०. ( किच्चा घ) : __ 'कृत्वा' और 'कृत्यात' इन दोनों का प्राकृत रूप 'किच्चा' बनता है। श्लोक ४८: ७१. एडमूकता (गूंगापन) ( एलमूययं ख ) : एडमुकता --मेमने की तरह मैं मैं करनेवाला एडमूक कहलाता है । एडमूक को प्रव्रज्या के अयोग्य बतलाया है। १--जि० चू० पृ० २०४ : तत्थ तवतेणो णाम जहा कोइ खमगसरिसो केणावि पुच्छिओ-तुम सो खमओत्ति?, तत्थ सो पूयासक्कारनिमित्तं भणति ओमिति, अहवा भणइ -साहूणो चेव तवं करेंति, तुसिणो संविक्खइ, एस तवतेणे, वयतेणे णाम नहा कोइ धम्मकहिसरिसो वाईसरिसो अण्णेण पुच्छिओ जहा तुमे सो धम्मकहि वादी वा ?, पूयासक्कारणिमित्त भण्णइ.-आमं, तोण्हिक्को वा अच्छइ, अहवा भणइ साधुणो चेवधम्मकहिणो वादिणो य भवंति, एस वयतेणे, रूपतेणे णाम रूवस्सो कोइ रायपुत्तादी पव्वइओ, तस्स सरिसो केणइ पुच्छिओ, जहा तुमं सो अमुगोत्ति? ताहे भण्णति-आमंति, तुसिणीओ वा अच्छइ, रायपु त्तादयो एरिसा वा, एस रूपतेणे, आयारभावतेणे णाम जहा महुराए कोउहलति जहा आवस्सयचुण्णीएस आयारतेणो, भावतेणो णाम जो अणब्भुवगतं किंचि सुत्तं अत्थं वा माणावलेवेण न पुच्छइ, वक्खाणंतं वाएंतस्स वा सोऊण गेण्हइ। २-ठा० ४।५६६ : चउविहे अवद्ध से पन्नते तंजहा-आसुरे आभिओगे संमोहे देवकिब्बिसे । ३.-ठा० ४।५६६ वृ० : अपध्वंसनमपध्वंस:-चारित्रस्य तत् फलस्य वा असुरादिभावनाजनितो विनाशः । ४-उत्त० ३६.२६४ : नाणस्स केवलोणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवण्णवाई किबि सियं भावणं कुणइ॥ ५-हा० टी० ५० १६० : 'एलमूकताम्' अजाभाषानुकारित्वं मानुषत्वे । ६-आव० हा० वृ० पृ० ६२८ । Jain Education Intemational Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) २६० अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ५.० टि० ७२ तुलना--अन्नगरेसु आमुरिएम किठिन सिएसु ठाणेसु उबवत्तारी भवंति, ततो विप्पमुच्चमाणे भुज्जो गुज्जो एलमूयत्ताए, तावयत्ताए, जाइयत्ताए पच्चायनि---एलवामूका एलमुकास्तद् भावनोत्पद्यन्ते ।...यथैलको मूकोऽव्यक्तवाक भवति, एवमसावप्य व्यक्तवाक समुत्पद्यत इति (सूत्र० २.२ वृत्ति) श्लोक ५० : ७२. उत्कृष्ट संयम ( तिव्वलज्ज घ) : यहाँ लज्जा का अर्थ संयम है । १-(क) अ० चू० पृ० १३७ : 'तिव्वलज्ज' तिव्वं अत्यर्थः लज्जा संजम एव जस्स स भवति तिव्वलज्जो। (ख) जि० चू० पृ० २०५ : लज्जा-संजमो-तिव्वसंजमो, तिव्वसद्दो पकरिसे वट्टइ, उक्किट्ठो संजमो जस्स सो तिब्वलज्जो भण्णइ । (ग) हा० टी० ५० १६० : 'तीव्रलज्जः' उत्कृष्टसंयमः सन् । Jain Education Intemational Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8 अज्झयणं महायार कहा षष्ठ अध्ययन महाचार कथा Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख 'क्षुल्लक-प्राचारकथा' ( तीसरे अध्ययन ) की अपेक्षा इस अध्ययन में प्राचारकथा का विस्तार से निरूपरप हग्रा है इसलिये इसका नाम 'महाचार-कथा' रखा गया है। "जो पुचि उद्दिट्ठो, पायारो सो अहीरणमारित्तो। सच्चेव य होई कहा, पायारकहाए महईए ॥" (नि० २४५) तीसरे अध्ययन में केवल अनाचार का नाम-निर्देश किया गया है और इस अध्ययन में अनाचार के विविध पहलुओं को छुना गया है। प्रौदेशिक, क्रीतकृत, नित्यान, अभ्याहृत, रात्रि-भक्त और स्नान-ये अनाचार हैं ( ३.२)-यह 'क्षुल्लक-प्राचारकथा' की निरूपण-पद्धति है। 'जो निर्ग्रन्थ नित्यान, कीत, प्रौद्देशिक और पाहुत भोजन आदि का सेवन करते हैं वे जीव-वध का अनुमोदन करते हैं- यह महर्षि महावीर ने कहा है, इसलिए धर्मजीवी-निर्ग्रन्थ क्रीत, प्रौद्देशिक और आहृत भोजन-पानी का वर्जन करते हैं ( ६.४८-४६ )-यह 'महाचार-कथा' की निरूपण-पद्धति है। यह अन्तर हमें लगभग सर्वत्र मिलेगा और यह सकारण भी है। 'क्षुल्लक-पाचारकथा' की रचना निर्ग्रन्थ के अनाचारों का संकलन करने के लिये हुई है ( ३.१) और महाचार कथा की रचना जिज्ञासा का समाधान करने के लिए हुई है (६.१-४ )। 'क्षुल्लक-प्राचार-कथा' में अनाचारों का सामान्य निरूपण है । वहाँ उत्सर्ग और अपवाद की चर्चा नहीं है । 'महाचार-कथा' में उत्सर्ग और अपवाद की भी यत्र-तत्र चर्चा हुई है। __एक अोर अठारह स्थान बाल, वृद्ध और रोगी सब प्रकार के मुनियों के लिये अनाचरणीय बतलाए हैं ( ६.६-७, नि० ६.२६७ ) तो दूसरी ओर निषद्या ( जो अठारह स्थानों में सोलहवां स्थान है ) के लिये अपवाद भी बतलाया गया है-जराग्रस्त, रोगी और तपस्वी निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर में बैठ सकता है ( ६.५६ ) । रोगी निर्ग्रन्थ भी स्नान न करे ( ६.६० ) । यहाँ छ8 श्लोक के निषेध को फिर दोहराया है। इस प्रकार इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद के अनेक संकेत मिलते हैं। अठारह स्थान हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और घसकाय, अकल्प, गृहि-भाजन, पर्यक, निषद्या, स्नान और शोभा-वर्जन-ये अठारह अनाचार स्थान हैं "वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेज्जा य, सिरणारणं सोहवज्जणं ॥ (नि०२६८ ) तुलना'क्षुल्लक-प्राचारकथा' में जो अनाचार बतलाए हैं उनकी 'महाचार-कथा' से तुलना यों हो सकती हैअनाचार वरिणत स्थल तुलनीय स्थल (अ. ३ का श्लोक) (अ०६ का श्लोक) औद्देशिक, कोतकृत, नित्याग्र और अभ्याहृत ४४-४६ रात्रि-भोजन २२-२५ स्नान ६०-६३ सन्निधि १७-१८ गृहिपात्र ५०-५२ अग्नि समारम्भ ३२-३५ Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ६ : आमुख वरिणत स्थल (अ० ३ का श्लोक ) तुलनीय स्थल (अ० ६ का श्लोक) ५३-५५ ५६-५६ अनाचार प्रासन्दी, पर्यङ्क गृहान्तर निषद्या गान उद्धर्तन ताप्तानिवृत भोजित्व मूल, शृङ्गबेर, इक्षु-खण्ड, कन्द, मूल, फल और बीज । सौवर्चल, सैन्धव, रुमालवण ; सामुद्र, पांशूक्षार और काला-ल वरण धूम-नेत्र या धूपन २६-३१ ४०-४२ २६-२८ ३२-३२ या २१ वमन, वस्तीकर्म, विरेचन, अंजन, दतौन और गात्र-अभ्यङ्ग विभूषा इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर जान पड़ता है कि 'क्षुल्लक-याचार' का इस अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है। इस अध्ययन का दूसरा नाम "धर्मार्थकाम" माना जाता रहा है। इसका कोई पुष्ट अाधार नहीं मिलता किन्तु सम्भव है कि इसी अध्ययन के चतुर्थ श्लोक में प्रयुक्त 'धम्मत्थकाम' शब्द के अाधार पर वह प्रयुक्त होने लगा हो । 'धर्मार्थकाम' निर्ग्रन्थ का विशेषरण है । धर्म का अर्थ है मोक्ष । उसकी कामना करने वाला 'धर्मार्थकाम' होता है। "धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयम उलं सिवं अरगावाहं। तमभिप्पेया साहू, तम्हा धम्मत्थकामत्ति ॥" ( नि०२६५) निर्ग्रन्थ धर्मार्थकाम होता है । इसीलिए उसका प्राचार-गोचर ( क्रिया-कलाप ) कठोर होता है । प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य यही है। इसलिए संभव है कि प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'धर्मार्थकाम" हुया हो। प्रस्तुत अध्ययन में अहिंसा, परिग्रह आदि की परिष्कृत परिभाषाएँ मिलती हैं - (१) अहिंसा –'अहिंसा सब्बभूएसु संज मो' ( ६-८)। (२) परिग्रह–'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' ( ६.२० )। यह अध्ययन प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत हुआ है (नि० १.१७ )। Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8 अज्ञयणं : षष्ठ अध्ययन महायारकहा : महाचार कथा मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १-नाणदंसणसंपन्न संजमे य तवे रयं । गणिमागमसंपन्न उज्जाणम्मि समोसढं ॥ ज्ञानदर्शनसंपन्न, संयमे च तपसि रतम् । गणिमागमसंपन्नम्, उद्याने समवसृतम् ॥१॥ १-२--ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-सम्पदा से युक्त गणी को उद्यान में समवसृत देख राजा और उनके अमात्य, ब्राह्मण और क्षत्रिय उन्हें नम्रतापूर्वक पूछते हैं--आपके आचार का विषय कैसा है ? २--रायाणो रायमच्चाय माहणा अदुव खत्तिया। पुच्छंति निहुअप्पाणो कहं मे आयारगोयरो ? ॥ राजानो राजामात्याश्च, ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः । पृच्छन्ति निभृतात्मानः, कथं भवतामाचारगोचरः? ॥२॥ ३-तेसि सो निहओ दंतो सव्वभूयसुहावहो । सिक्खाए सुसमाउत्तो आइक्खई वियक्खणो॥ तेभ्यः स निभृतो दान्तः, सर्वभूतसुखावहः। शिक्षया सुसमायुक्तः, आख्याति विचक्षणः ॥३॥ ३-ऐसा पूछे जाने पर वे स्थितात्मा, दान्त, सब प्राणियों के लिए सुखावह, शिक्षा में समायुक्त और विचक्षण गणी उन्हें बताते हैं--- ४-हंदि धम्मत्थकामाणं निग्गंथाणं सुणेह मे। आयारगोयरं भीम सयलं दुरहिद्वियं ॥ हंदि धर्मार्थकामानां, निर्ग्रन्थानां शृणुत मम । आचारगोचरं भीम, सकलं दुरधिष्ठितम् ॥४॥ ४---मोक्ष चाहने वाले निर्ग्रन्थों के भीम, दुर्धर और पूर्ण आचार का विषय मुझसे सुनो। ५-नन्नत्थ एरिसं वृत्तं जं लोए परमदुच्चरं ।। विउलट्ठाणभाइस्स न भूयं न भविस्सई॥ नान्यत्र ईदृशमुक्तं, यल्लोके परम-दुश्चरम्। विपुलस्थानभागिनः, न भूतं न भविष्यति ॥५॥ ५-लोक में इस प्रकार का अत्यन्त दुष्कर आचार निर्ग्रन्थ-दर्शन के अतिरिक्त कहीं नहीं कहा गया है। मोक्ष-स्थान की आराधना करने वाले के लिए ऐसा आचार अतीत में न कहीं था और न कहीं भविष्य में होगा। ६-बाल, वृद्ध अस्वस्थ या स्वस्थ--- सभी मुमुक्षुओं को जिन गुणों की आराधना अखण्ड और अस्फुटित१२ रूप से करनी चाहिए, उन्हें यथार्थ रूप से सुनो। ६-सखुड्डगवियत्ताणं वाहियाणं च जे गुणा। अखंडफुडिया कायव्वा तं तुणेह जहा तहा ॥ सक्षुल्लक-व्यक्तानां, व्याधितानां च ये गुणाः । अखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, तान् शृणुत यथा तथा ॥६॥ Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) २६६ अध्ययन ६ : श्लोक ७-१२ ७--दस अट्ठ य ठाणाई जाई बालोऽवरज्झई। तत्थ अन्नयरे ठाणे निग्गथत्ताओ भस्सई॥ दशाष्टौ च स्थानानि, यानि बालोऽपराध्यति । तत्रान्यतरस्मिन् स्थाने, निर्ग्रन्थत्वाद् भ्रश्यति ॥७॥ ७ आचार के अठारह स्थान हैं। जो अज्ञ उनमें से किसी एक भी स्थान की विराधना करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट होता है। [ वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसेज्जा य सिणाणं सोहवज्जणं ॥] [ व्रतषटकं कायषट्कं, अकल्पो गृहि-भाजनम् । पर्यो निषद्या च, स्नानं शोभा-वर्जनम् ॥] [अठारह स्थान हैं-छह व्रत और छह काय तथा अकल्प, गृहस्थ-पात्र, पर्यङ्क, निषद्या, स्नान और शोभा का वर्जन ।] ८-तथिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणं दिवा सव्वभूएसु संजमो॥ तत्रेदं प्रथम स्थानं, महावीरेण देशितम् । अहिंसा निपुणं दृष्टा, सर्वभूतेषु संयमः ॥८॥ ८-- महावीर ने उन अठारह स्थानों में पहला स्थान अहिंसा का कहा है। इसे उन्होंने सूक्ष्मरूप से १५ देखा है। सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। ह--जावंति लोए पाणा तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा न हणे णो वि घायए॥ यावन्तो लोके प्राणाः, त्रसाः अथबा स्थावराः। तान् जानन्नजानन् वा, न हन्यात् नो अपि घातयेत् ॥६॥ -- लोक में जितने भी बस और स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ जान या अजान में उनका हनन न करे और न कराए। १०-सवे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं । निग्गंथा वज्जयंति णं॥ सर्वे जीवा अपीच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम् । तस्मात्प्राणवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति 'ण' ॥१०॥ १०-सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसलिए प्राण-वध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं। ११-अपणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए। आत्मार्थ परार्थ वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात् । हिंसकं न मृषा ब्रू यात्, नो अप्यन्यं वादयेत् ॥११॥ ११-निर्ग्रन्थ अपने या दूसरों के लिए, क्रोध से" या भय से पीड़ाकारक सत्य और असत्य न बोले१८, न दूसरों से बुलवाए। १२--मुसावाओ य लोगम्मि सव्वसाहिं गरहिओ। अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवज्जए॥ मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गहितः। अविश्वास्यश्च भूतानां, तस्मान्मृषा विवर्जयेत् ॥१२॥ १२–इस समूचे लोक में मृषावाद सब साधुओं द्वारा गहित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अत: निर्ग्रन्थ असत्य न बोले। Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ अध्ययन ६ : श्लोक १३-१६ महायारकहा ( महाचारकथा) १३-चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमेत्तं पि ओग्गहंसि अजाइया ॥ चित्तवदचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु। दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ॥१३॥ १३-१४---संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत२१, दन्तशोधन २२ मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आज्ञा लिए बिना स्वयं ग्रहण नहीं करता, दूसरों से ग्रहण नहीं कराता और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करता। १४-तं अप्पणा न गेहंति नो वि गेण्हावए परं। अन्नं वा गेण्हमाणं पि नाणुजाणंति संजया ॥ तदात्मना न गृहन्ति, नाऽपि ग्राहयन्ति परम् । अन्य वा गृण्हन्तमपि, नानुजानन्ति संयताः ॥१४॥ १५-अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।। नायरंति मुणी लोए भेयाययणवज्जिणो ॥ अब्रह्मचर्य घोरं, प्रमादं दुरधिष्ठितम् । नाचरन्ति मुनयो लोके, भेदायतन-वजिनः ॥१५॥ १५--अब्रह्मचर्य लोक में घोर२३ प्रमादजनक और दुर्बल व्यक्तियों द्वारा आसेवित है ।२५ चरित्र-भंग के स्थान से बचने वाले२६ मुनि उसका आसेवन नहीं करते। १६-मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं तम्हा मेहुणसंसरिंग निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ मूलमेतद् अधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्यम्। तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निग्रन्था वर्जयन्ति 'ण' ॥१६॥ १६–यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महान् दोषों की राशि है। इसलिए निर्ग्रन्थ मैथुन के संसर्ग का वर्जन करते हैं। १७-बिडमुब्भेइम लोण तेल्लं सप्पि च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्तवओरया ॥ बिडमुभेद्य लवणं, तैलं सर्पिश्च फाणितम् । न ते सन्निधिमिच्छन्ति, ज्ञातपुत्र-वचोरताः ॥१७॥ १७--जो महावीर के वचन में रत हैं, वे मुनि बिडलवण२८, सामुद्र-लवण, तैल, घी और द्रव-गुड़ का संग्रह ३१ करने की इच्छा नहीं करते। १८- लोभस्सेसो अणुफासो मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से ॥ लोभस्यैषोऽनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरदपि। यः स्यात्सन्निधि-कामः, गृही प्रवजितो न सः ॥१८॥ १८-जो कुछ भी संग्रह किया जाता है वह लोभ का ही प्रभाव33 है-ऐसा मैं मानता हूँ । जो श्रमण सन्निधि का कामी है वह गृहस्थ है, प्रवजित नहीं है। १९-जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम्। तदपि संयमलज्जार्थ, धारयन्ति परिदधते च ॥१६॥ १६-जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं, उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं। Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशर्वकालिक) २० न सो पर नायपुत्रेण तो ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वृत्तं महेसिया ॥ २१- सम्वत्वहिणा संरक्खणपरिग्गहे अवि अपणो विदेहम्म नायरंति ममाइ ॥ २३ तिमे सुहुमा तसा अदुव जाई राओ कहमेसणिय २२ - अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्ध हिं वणियं । जा य" लज्जासमा वित्ती एगभतं च भीषणं ॥ २४- उदउल्लं बुद्धा २५ एवं च दो नायपुसण सव्वाहारं न निग्गंथा 1 पाणा थावरा । अपासंतो बीयसंस पाणा निर्वाडिया महि दिया ताइं विवज्जेज्जा राओ तत्थ कहं चरे ? ॥ चरे ? ॥ वणं भासिवं । भुजति राइभोयणं ॥ २६ - पुढविकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा । तिथिण संजया करणजोएण सुसमाहिया ॥ न स परिग्रह उक्तः, जातपुत्रेण प्रतापनः मूर्च्छा परिग्रह उक्तः इत्युक्तं मणि। २०। सपना बु संरक्षणाय परि २६६ अध्यात्मनोऽपि देहे. नावति मतिम् ।।२१। अहो नित्यं तप कर्म सर्वदूषितम् । या व लज्जासमा वृत्तिः, एक भक्तं च भोजनम् ||२२|| सन्तीमे सूक्ष्माः प्राणाः, त्रसा अथवा स्थावराः । यान्त्री अपश्यन्, कथमेषणीयं चरेत् ? ॥२३॥ उदभाई बीजसंकतं प्राणाः निपतिता मह्याम् । दिवा तान् विवर्जयेत् रात्रौ तत्र कथं चरेत् ? ||२४|| एतं च दोषं दृष्ट्वा, जातपुत्रेण भाषितम् । सर्वाहारं न भुञ्जते निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम् ||२५|| पृथ्वीकार्य न हिसन्ति, मनसा वचसा कायेन । विपेन करणयोन संयताः समाः ।।२६ अध्ययन ६ इलोक २०-२६ २० सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है" । मूर्च्छा पारग्रह है-ऐसा महर्षि ( गणधर ) ने कहा है । २१ राव काल और सब क्षेत्रों में तीर्थङ्कर उपधि (एक दूव्य वस्त्र ) के साथ प्रव्रजित होते हैं। प्रत्येक बुद्ध, जिनकल्पिक आदि भी संयम की रक्षा के निमित्त उपधि ( रजोहरण, मुख-वस्त्र आदि ) ग्रहण करते हैं। वे उपधि पर तो क्या अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं करते । २२ अहो ! सभी तीर्थङ्करों ने श्रमणों के लिए संयम के अनुकूल वृत्ति और देहपालन के लिए एक बार भोजन*६ (या रागद्वेष-रहित होकर भोजन करना) इस नित्य तपः कर्म का उपदेश दिया है। २३- जो बस और स्थावर सूक्ष्मप्राणी हैं, उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निर्ग्रन्थ एपणा कैसे कर सकता है। २४ -- उदक से आर्द्र और बीजयुक्त भोजन तथा जीवा मार्ग उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टालना शक्य नहीं इसलिए निर्ग्रन्थ रात को भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ? २५ - ज्ञातपुत्र महावीर ने इस हिंसात्मक दोष को देखकर कहा "जो निर्ग्रन्थ होते हैं वे रात्रि भोजन नहीं करते, चारों प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का आहार नहीं करते । " २६ - सुसमाहित संयमी मन, वचन, - इस त्रिविध करण और कृत, कारित काया एवं अनुमति इस त्रिविध योग से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अध्ययन ६: श्लोक २७-३३ महायारकहा ( महाचारकथा ) २७-पुढविकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ पृथ्वीकार्य विहिसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान् । साँश्च विविधान् प्राणान्, चाक्षुषाँश्चाचाक्षुषान् ॥२७॥ २७-पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । २८ तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवणं । पुडविकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । पृथ्वीकाय-समारम्भ, यावज्जीव वर्जयेत् ॥२८॥ २८ – इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त पृथ्वीकाय के समारम्भ का वर्जन करे । २६-आउकायं न हिसंति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ अप-कायं न हिंसन्ति, मनसा वचसा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥२६॥ २६-सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया- इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति —इस विविध योग से अप्काय की हिसा नहीं करते । ३०-आउकायं विहिसंतो हिंसई उ तयस्सिए। तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ अप-कायं विहिसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान् । वसांश्च विविधान् प्राणान्, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥३०॥ ३०-- अप्काय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। ३१ तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं । आउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । अप-काय-समारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३१॥ ३१ -- इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त अप्काय के समारम्भ का वर्जन करे । ३२-जायतेयं न इच्छति पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ॥ जात-तेजसं नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्षणमन्यतरच्छस्त्रं, सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ॥३२॥ ३२---मुनि जाततेज५२ अग्नि जलाने की इच्छा नहीं करते। क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र५४ और सब ओर से दुराश्रय है५५॥ ३३... पाईणं पडिणं वा वि उड्ढं अणुदिसामवि । अहे दाहिगओ वा वि दहे उत्तरओ वि य॥ प्राच्या प्रतीच्यां वाऽपि, ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि । अधो दक्षिणतो वापि, दहेदुत्तरतोऽपि च ॥३३॥ ३३–वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अध: दिशा और विदिशाओं में५६ दहन करती है। Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० अध्ययन ६ : श्लोक ३४-४० दसवेआलियं (दशवकालिक) ३४- भूयाणमेसमाघाओ हव्ववाहो न संसओ। तं पईवपयावट्ठा । संजया किंचि नारभे ॥ भूतानामेष आघातः, हव्यवाहो न संशयः । तं प्रदीपप्रतापार्थ, संयताः किञ्चिन्नारभन्ते ।।३४॥ ३४-निःसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि५७) जीवों के लिए आघात है५८ । संयमी प्रकाश और ताप के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे । ३५-तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवणं ।। तेउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-बर्द्धनम् । तेजः काय-समारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३॥ ३५-(अग्नि जीवों के लिए आघात है) इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त अग्निकाय के समारम्भ का वर्जन करे। ३६ - अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नति तारिसं। सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥ अनिलस्य समारम्भ, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् । सावद्य-बहुलं चैतं, नैनं त्रायिभिः सेवितम् ॥३६॥ ३६-तीर्थङ्कर वायु के समारम्भ को अग्नि-समारम्भ के तुल्य' ही मानते हैं। यह प्रचुर पाप-युक्त है। यह छहकाय के त्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है । ३७-तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा। न ते वीइउमिच्छन्ति वीयावेऊण वा परं ॥ तालवृन्तेन पत्रेण, शाखा-विधुवनेन वा। न ते वी जितुमिच्छन्ति, वोजयितुं वा परेण ॥३७॥ ३७- इसलिए वे वीजन, पत्र, शाखा और पंखे से हवा करना तथा दूसरों से हा कराना नहीं चाहते। ३८-जंपि वत्थं व पाय वा कंबलं पायपुंछणं । न ते वायमुईरति जय परिहरंति य॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । न ते वातमुदीरयन्ति, यतं परिदधते च ॥३८॥ ३८-जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उनके द्वारा वे वायु की उदीरणा३ नहीं करते, किन्तु यतना-पूर्वक उनका परिभोग करते हैं। ३६-तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवढ्ढणं । वाउकायसमारंभ जावज्जीवाए वज्जए । तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । वायुकाय-समारम्भ, यावज्जीवं वर्जयेत् ॥३६॥ ३९-(वायु-समारम्भ सावद्य-बहुल है) इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त वायुकाय के समारम्भ का वर्जन करे। ४०.-वणस्सई न हिसंति मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ वनस्पति न हिंसन्ति, मनसा वचता कायेन । त्रिविधेन करण-योगेन, संयताः सुसमाहिताः ॥४०॥ ४० -सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया- इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति -इस त्रिविध योग से वनस्पति की हिंसा नहीं करते। Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकथा ( महाचारकथा) ३०१ अध्ययन ६ : श्लोक ४१-४७ ४१-वणस्सई विहिंसंतो वनस्पति विहिंसन्, हिसई उ तयस्सिए। हिनस्ति तु तदाश्रितान् । तसे य विविहे पाणे त्रसाश्च विविधान् प्राणान् चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ चाक्षुषाँश्चाचाक्षुषान् ।।४१॥ ४१...-वनस्पति की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष ( अदृश्य ) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। ४२-तम्हा एयं वियाणित्ता तस्मादेतं विज्ञाय, दोसं दुग्गइवड्ढणं । दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । वणस्सइसमारंभ वनस्पति-समारम्भ, जावज्जीवाए वज्जए॥ यावज्जीव वर्जयेत् ॥४२॥ ४२—इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-गर्यन्त वनस्पति के समारम्भ का वर्जन करे। ४३-तसकायं न हिसंति त्रसकायं न हिंसन्ति, मणसा वयसा कायसा । मनसा वचसा कायेन। तिविहेण करणजोएण त्रिविधेन करण-योगेन, संजया सुसमाहिया ॥ संयताः सुसमाहिताः ॥४३॥ ४३--सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया--इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति -- इस त्रिविध योग से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते। ४४-तसकायं विहिंसंतो त्रसकायं विहिंसन्, हिंसई उ तयस्सिए। हिनस्ति तु तदाश्रितान् । तसे य विविहे पाणे त्रसाँश्च विविधान् प्राणान्, चक्खुसे य अचक्खसे ॥ चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् ॥४४॥ ४४–त्रसकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) बस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। ४५-तम्हा एवं वियाणित्ता तस्मादेतं विज्ञाय, दोसं दुग्गइवड्ढणं ।। दोषं दुर्गति-वर्द्धनम् । तसकायसमारंभ त्रसकाय-समारम्भ, जावज्जीवाए वज्जए॥ यावज्जीवं वर्जयेत् ॥४५॥ ४५ ---इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनि जीवन-पर्यन्त वसकाय के समारम्भ का वर्जन करे। ४६–जाइं चत्तारिऽभोज्जाइं इसिणा-हारमाईणि" । ताई तु विवज्जतो संजमं अणुपालए॥ यानि चत्वारि अभोज्यानि, ऋषिणा आहारादीनि। तानि तु विवर्जयन्, संयममनुपालयेत् ॥४६॥ ४६-ऋषि के लिए जो आहार आदि चार (निम्न श्लोकोक्त) अकल्पनीय हैं, उनका वर्जन करता हुआ मुनि संयम का पालन करे। ४७–पिडं सेज्जं च वत्थं च पिण्डं शय्यां च वस्त्र च, चउत्थं पायमेव य। चतुर्थ पात्रमेव च । अकप्पियं न इच्छेज्जा अकल्पिक नेच्छेत्, पडिगाहेज्ज कप्पियं ॥ प्रतिगृण्हीयात् कल्पिकम् ॥४७॥ ४७---मुनि अकल्पनीय पिण्ड, शय्यावसति, वस्त्र और पात्र को ग्रहण करने की इच्छा न करे८ किन्तु कल्पनीय ग्रहण करे । Jain Education Intemational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशर्वकालिक ) ४८ वह इड मुद्दे सियाह ते वृत्त ४६ - तम्हा नियागं ममायंति कीयमुद्देसियाह वज्जयंति निर्माया ५० - कंसेसु कुंडमोए भुजतो आयारा ५२ - पच्छाकम्मं एमट्ठ निगंधा समजाणंति महेसिणा ॥ ५१ - सीओदगसमारंभे मत्तपोषण जाई उन्नति बिट्टो तत्थ असणवाणाई ५३ - आसंदीपलियं के ठिपप्पानो धम्मजीविणो ॥ कंसपा सु वा पुणो । असणपाणाई परिभस्सइ ॥ पुरेकम्मं सिया तत्य न कप्पई । न भुंजंति गिहिभाषणे ॥ 93 मंचनासालएसु अणायरियमज्जाणं आसइत 1 ५४ - नासंदीपलियं केसु न निसेज्जा न सद्दत्त, निमगंवाऽपडिलेहाए बुद्धतमहिगा" भूयाई अजमो ॥ वा । वा ॥ पीढए । " ३०२ ये निवाय ममान्ति, मौदेशिकाहृतम् । वयं ते समजानन्ति इत्युक्तं महर्षिणा ।। ४८ ।। तरमादानपानादि फीतमोशिकाहुतम्। वर्जयति स्थितात्मानः निर्ग्रन्था धर्मजीविनः ॥ ४६ ॥ कांस्येषु कांस्य पात्रेषु 'कुण्डमोदेषु' वा पुनः । भुजाम: अशनपानादि, आचारात् परिभ्रश्यति ॥ ५० ॥ शीतोदक समारम् अमत्र धावनच्छर्दने । यानि सम्यते भूतानि, दुष्प्रयमः ॥५१॥ पापुरकर्म स्यात्तत्र न कल्पते । एतदर्थं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था गृहिभाजने ॥ ५२ ॥ आसन्दी - पर्यङ्कयोः, मञ्चाशालकयोर्वा । अनाचरितमायांणां आसितुं शक्ति वा ॥५३॥ सन्दीप न निषद्यायां न पीठके । निथा: अप्रतिलेख, बुद्धोक्ताधिष्ठातारः ॥ १४ अध्ययन ६ श्लोक ४८-५४ ४८ - जो नित्याय ( आदरपूर्वक निमन्त्रित कर प्रतिदिन दिया जाने वाला ) क्रीत (निर्ग्रन्थ के निमित्त खरीदा गया ) औद्देशिक (निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया ) और आहृत (निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया गया) आहार ग्रहण करते हैं वे आणि का अनुमोदन करते हैं ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। ४६ - इसलिए धर्मजीवी, स्थितात्मा नियत कि औरत अ पान आदि का वर्जन करते हैं। . ५० - जो गृहस्थ के कांसे के प्याले, कांसे के पात्र और कुण्डमोद ( कांसे के बने कुण्डे के आकार वाले बर्तन) में अशन, पान आदि खाता है वह श्रमण के आचार से भ्रष्ट होता है। ५१ - बर्तनों को सचित्त जल७२ से धोने में और बर्तनों के धोए हुए पानी को डालने में प्राणियों की होती है। सीरों ने वहाँ असंयम देखा है१४ । ५२ - गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने में 'पश्चात् कर्म' और 'पुरःकर्म' की संभावना है। वह निर्ग्रन्थ के लिए कल्प्य नहीं है । एतदर्थ वे गृहस्थ के बर्तन में भोजन नहीं करते। ५३ आप के लिए आदी पलंग मञ्च और आसालक ( अवष्टम्भ सहित आसन पर बैठना या सोना अनाचीर्ण है। ५४ - तीर्थङ्करों के द्वारा प्रतिपादित विधियों का आचरण करने वाले निर्ग्रन्थ आसन्दी, पलंग, आसन और पीढ़े का (विशेष स्थिति में उपयोग करना पड़े तो ) प्रतिलेखन किए बिना उन पर न बैठे और न सोए । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ अध्ययन ६ : श्लोक ५५-६१ महायारकहा (महाचारकथा) ५५-गंभीरविजया एए पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदीपलियंकाय एयम विवज्जिया ॥ गम्भीरं विच (ज) या एते, प्राणा दुष्प्रतिलेख्यकाः । आसन्दो-पर्यङ्करच एतदर्थं विवजितौ ॥५५॥ ५५–आसन्दी आदि गम्भीर-छिद्र वाले होते हैं। इनमें प्राणियों का प्रतिलेखन करना कठिन होता है। इसलिए आसन्दी, पलंग आदि पर बैठना या सोना वर्जित किया है। ५६ गोयरगपविट्ठस्स निसेज्जा जस्स कप्पई। इमेरिसमणायारं आवज्जइ अबोहियं ॥ गोचरान-प्रविष्टस्य, निषद्या यस्य कल्पते । एतादृशमनाचार, आपद्यते अबोधिकम् ॥५६॥ ५६---भिक्षा के लिए प्रविष्ट जो मुनि गृहस्थ के घर में बैठता है वह इस प्रकार के आगे कहे जाने वाले, अबोधि-कारक अनाचार को प्राप्त होता है। ५७-८"विवत्ती बंभचेररस पाणाणं अवहे वहो। वणीमगपडिग्घाओ पडिकोहो अगारिणं ॥ विपत्तिब्रह्मचर्यस्य, प्राणानामवधे वधः । वनीपक-प्रतिघातः, प्रतिकोधोऽगारिणाम् ॥५७॥ ५७-गृहस्थ के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य-- आचार का विनाश, प्राणियों का अवधकाल मैं वध, भिक्षाचरों के अन्तराय और घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है ५८ अगुत्ती बंभचेरस्स इत्थीओ यावि संकणं । कुसोलबड्णं ठाणं दूरओ परिवज्जए॥ अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य, स्त्रीतश्चापि शङ्कनम् । कुशीलवर्धनं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥५॥ ५८----ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है८५ और स्त्री के प्रति भी शंका उत्पन्न होती है । यह (गृहान्तर निषद्या) कुशील वर्धक स्थान है इसलिए मुनि इसका दूर से वर्जन करे। ५६ तिण्हमन्नयरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पई। जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तवस्सिणो॥ त्रयाणामन्यतरकस्य, निषद्या यस्य कल्पते। जरयाऽभिभूतस्य, व्याधितस्य तपस्विनः ॥५६॥ ५६–जराग्रस्त, रोगी और तपस्वीइन तीनों में से कोई भी साधु गृहस्थ के घर में बैठ सकता है। ६०-वाहिओ वा अरोगी वा सिणाणं जो उ पत्थए । वोक्कतो होइ आयारो जढो हवइ संजमो॥ व्याधितो वा अरोगी वा, स्नानं यस्तु प्रार्थयते । व्युत्क्रान्तो भवति आचारः, त्यक्तो भवति संयमः ॥६०॥ ६०-जो रोगी या नीरोग साधु स्नान करने की अभिलाषा करता है उसके आचार का उल्लंघन होता है, उसका संयम परित्यक्त होता है। ६१-संतिमे सुहमा पाणा घसासु भिलुगासु य। जे उ भिक्खू सिणायंतो वियडेणुप्पिलावए ॥ सन्ति इमे सूक्ष्माः प्राणाः, घसासु 'भिलुगासु' च । यांस्तु भिक्षुः स्नान्, विकटेन उत्प्लावयति ॥६१॥ ६१—यह बहुत स्पष्ट है कि पोली भूमि और दरार-युक्त भूमि में६२ सूक्ष्म प्राणी होते हैं। प्रासुक जल से स्नान करने वाला भिक्षु भी उन्हें जल से प्लावित करता dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ६२ "तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा | जावज्जीवं वयं घोरं असणाण महि" ६३ सिगाणं लोडं अदुवा क पउमगाणि गाय सुव्वट्टणट्टाए नायरंति कयाइ ६५. विभूसावत्तियं कम्मं बंधइ संसारसायरे जेणं वि ॥ ६४ - नगिणस्स वा वि मुंडस्स दोहरोमनहंसिणो मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाए कारियं ॥ पडइ ६६ - विभूसावत्तियं बुद्धा सावज्जबहुलं नेयं मन्नंति ॥ ताईह य | भिक्खू चिक्कणं । घोरे बुतरे ॥ चेयं तारिसं । चेयं सेवियं ॥ ६७ - खवेंति अप्पाणममोहदंसिणो तवे रया संजम अज्जवे गुणे । धुणंति पावाई पुरेकडाई नवाइ पावाई न ते करेति ॥ ६८ - सभोवता अममा अकिंचणा सविज्जविज्जानुगया जसंसिणो । उउपसन्ने विमले व चंदिमा सिद्धि विमाणाइ उति ताइणो ॥ -त्ति बेमि ॥ ३०४ तस्मात्ते न स्नान्ति, शीतेन उष्णेन वा । यावज्जीवं व्रतं घोरं, अस्नानधिष्ठातारः ॥ ६२ ॥ स्नानमथवा कल्कं लोध्रं पद्मकानि च । मात्रस्वोदनार्थ नाचरन्ति कदाचिदपि ॥ ६३ ॥ नग्नस्य वापि मुण्डस्य, दीर्घरोमनखवतः । मैथुनाद् उपशान्तस्य, किवि कार्यम् ॥६४॥ विषाप्रत्ययं भ कर्म बध्नाति चिक्कणम् । संसार सागरे घोरे, येन पतति दुरुत्तरे ॥ ६५॥ विभूषाप्रत्ययं चेतः, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् । सावद्य-बहुलं चैतत् प्रायिभिः सेवितम् ॥६६॥ क्षपयन्त्यात्मानममोहदशन:, तपसि रताः संयमार्जवे गुणे । धुन्वन्ति पापानि पुराकृतानि, नवानि पापानि न ते कुर्वन्ति ॥ ६७॥ सदोपशान्ता अममा अकिञ्चना:, स्वविद्याविद्यानुपायस्विनः । ऋतु प्रसन्ने विमल इव चन्द्रमाः, सिद्धि विमानानि उपयन्ति त्रायिणः । इति ब्रवीमि ॥ अध्ययन श्लोक ६२-६८ : ६२ – इसलिए मुनि शीत या उष्ण जल से स्नान नहीं करते । वे जीवनपर्यन्त घोर अस्नान व्रत का पालन करते हैं । ६३ - मुनि शरीर का उबटन करने के प लिए 1 १०० केसर आदि का प्रयोग नहीं करते । 1 ६४ - नग्न १०१, मुण्ड, दीर्घ- रोम और नखाने तथा मैथुन से निवृत्त मुनि को विभूषा से नया प्रयोजन है ? ६२ विभूषा के द्वारा भिक्षु चिकने ( दारुण) कर्म का बन्धन करता है। उससे वह दुस्तर संसार सागर में गिरता है। ६६ - विभूषा में प्रवृत्त मन को तीर्थङ्कर विभूषा के तुल्य ही चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं। यह प्रपुर पापयुक्त है। यह छहकाय के त्राता मुनियों द्वारा आसेवित नहीं है। ६० अमोहदस", तप, संयम और ऋजुतारूप गुण में रत मुनि शरीर को १०४ कृश कर देते हैं। वे पुराकृत पाप का नाश करते हैं और नए पाप नहीं करते । ६८ - सदा उपशान्त, ममता-रहित, अकिञ्चन, आत्मविद्यायुक्त व्यवस्थी और त्राता मुनि शरद् ऋतु के " चन्द्रमा १०७ की तरह मल-रहित होकर सिद्धि या सौधर्मावतंसक आदि विमानों को प्राप्त करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ६ श्लोक १: १. ज्ञान ( नाण क): ज्ञान-सम्पन्न के चार विकल्प होते हैं(१) दो ज्ञान से सम्पन्न - मति और श्रुत से युक्त । (२) तीन ज्ञान से सम्पन्न -- मति, श्रुत और अवधि से युक्त अथवा मति, श्रुत और मनःपर्याय से युक्त । (३) चार ज्ञान से सम्पन्न -मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय से युक्त । (४) एक ज्ञान से सम्पन्न-केवलज्ञान से युक्त । आचार्य इन चारों में से किसी भी विकल्प से सम्पन्न हो सकते हैं। २. दर्शन (दसण क ): दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम या क्षय से उत्पन्न होने वाला सामान्यबोध दर्श नकहलाता है। ३. आगम-सम्पन्न ( आगमसंपन्न ग ) : आगम का अर्थ श्रुत या सूत्र है । चतुर्दश-पूर्वी, एकादश अङ्गों के अध्येता या वाचक तथा स्वसमय-परसमय को जाननेवाले 'आगमसंपन्न' कहलाते हैं । 'ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न'-इस विशेषण से प्राप्त विज्ञान की महत्ता और 'आगम-सम्पन्न' से दूसरों को ज्ञान देने की क्षमता बताई गई है। इसलिए ये दोनों विशेषण अपना स्वतंत्र अर्थ रखते हैं। ४. उद्यान में ( उज्जाणम्मि घ): जहाँ क्रीड़ा के लिए लोग जाते हैं वह 'उद्यान' कहलाता है। यह उद्यान शब्द का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है। अभिधान चिन्तामणि के अनुसार 'उद्यान' का अर्थ क्रीड़ा-उपवन है । जीवाभिगम वृत्ति के अनुसार पुष्प आदि अच्छे वृक्षों से सम्पन्न और उत्सव आदि में बहुजन उपभोग्य स्थान 'उद्यान' कहलाता है । निशीथ चूर्णिकार के अनुसार उद्यान का अर्थ है-नगर के समीप का वह स्थान जहाँ लोग सहभोज १ अ० चू० पृ० १३८ : नाणं पंचविहं मति-सुया-ऽवधि-मणपज्जव-केवलणामधेयं ... 'तत्य तं दोहि वा मतिसुत्तेहि, तिहि वा मतिसुतावहोहिं अहवा मतिसुयमणपज्जर्वेहि, चतुहि वा मतिसुतावहीहि मणपज्जवेहि, एक्केण वा केवलनाणेण संपण्णं । २ जि० चू०प० २०७ : दर्शन द्विप्रकारं क्षायिक क्षायोपशमिकं च, अतस्तेन क्षायिकेग क्षायोपशमिकेन वा संपन्नम् । ३--(क) अ० चू० पृ० १३८ : आगमो सुतमेव अतो तं चोद्दसपुवि एकारसंगसुयधरं वा। (ख) जि० चू० पृ० २०८ : आगमसंपन्नं नाम वायगं, एक्कारसंग च, अन्नं वा ससमयपरसमयवियाणगं । (ग) हा० टी० ५० १६१ : 'आगमसंपन्न' विशिष्टश्रुतधर, बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । ४-(क) अ० चू० पु० १३८ : नाणदंसणसंपण्णमिति एतेण आतगतं विण्णाणमाहप्पं भण्णति, 'गणि आगमसंपण्णं' एतेण परग्गाहण सामथसंपण्णं । 'संपण्णमिति' सहपुणरुत्तमवि न भवति, पढमे सयं संपण्णं, बितिये परसंघातगं एयं समरूवता । ५–हला० : उद्याति क्रीडार्थमस्मिन् । ६-अ० चि० ४.१७८ : आक्रीड: पुनरुद्यानम् । ७-जीव० सू० २५८ वृ० : उद्यानं-पुष्पादि सद्वृक्षसंकुलमुत्सवादौ बहुजनोपभोग्यम् । Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशर्वकालिक ) ३०६ अध्ययन ६ श्लोक २ टि० ५-६ ( उद्यानिका ) करते हों । समवायांग वृत्तिकार ने भी इसका यही अर्थ किया है । आज की भाषा में उद्यान को पिकनिक प्लेस ( गोष्ठीस्थल ) कहा जा सकता है । इलोक २ : ): क ५. राजा और उनके अमात्य ( रायाणो रायमच्चा पूर्णि-द्वय अमात्य का अर्थ दण्डनायक, सेनापति आदि किया है। टीकाकार ने इसका अर्थ मन्त्री किया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र की व्याख्या में 'अमात्य' को कर्मसचिव और राजा का सहायक माना गया है। 'अमात्य' को महामात्र और प्रधान भी कहा जाता है । शुक्र ने अमात्य का मन्त्रिपरिषद् में नवां स्थान माना है। उनके अनुसार देश-काल का विशेष ज्ञाता 'अमात्य' कहलाता है। राज्य में कितने गाँव कितने नगर और कितने अरण्य हैं ? कितनी भूमि जोती गई ? उसमें से राज्य को कितना अंश प्राप्त हो चुका है ? कितना 3 अभी प्राप्त करना है ? कितनी भूमि बिना जोती रह गई ? इस वर्ष कितना कर लगाया गया ? भाग, दण्ड, शुल्क आदि से प्राप्तव्य धन कितना है ? बिना जोती भूमि से कितना अन्न उत्पन्न हुआ ? वन में कौन-कौन सी वस्तुएँ उत्पन्न हुई ? खानों में कितना धन उत्पन्न हुआ ? खानों के रत्न आदि से कितनी आय हुई ? कितनी भूमि स्वामी-हीन हो गई ? कितनी उपज मारी गई और कितनी उपज चोरों के हाथ लगी ? इन समस्त विषयों पर विचार करना और फिर उसका विवरण राजा के समक्ष प्रस्तुत करना अमात्य का कर्तव्य माना गया है" । इस तरह यह मन्त्रिपरिषद् का सदस्य कृषि, व्यापार आदि विभागों का अध्यक्ष रहा होगा । ख ६, क्षत्रिय ( सत्तिया ) : अगस्त्य सिंह ने 'क्षत्रिय' का अर्थ 'राजन्य' आदि किया है" । जिनदास के अनुसार कोई कोई क्षत्रिय होता है, राजा नहीं भी होता यहां उन क्षत्रियों का उल्लेख है जो राजा नहीं हैं" आदि किया है । १ - नि० उ०८. सू० २. चू० : उज्जाणं जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति, जं वा ईसि नगरस्स उवकंठं ठियं तं उज्जाणं । २ - सम० ११७ वृ० : बहुजनो यत्र भोजनार्थं यातीति I ३ - ( क ) अ० चू० पृ० १३८ : रायमत्ता अमच्च सेणावतिपभितयो । (ख) जि० ० चू० पृ० २०८ : रायमच्चा अमच्चा, डंडणायगा सेणावइप्पभितयो । ४- हा० टी० प० १६१: 'राजामात्याश्च' मन्त्रिणः । ५- कौटि० अ० ८.४ पृ० ४४ । ६ - वही, ८.४ पृष्ठ ४१ अमात्या नाम राज्ञः सहायाः । ७०वि०३.२०४ स्वोपज्ञवृत्ति महामात्राः प्रधानानि अमात्यपुरोहितसे नापत्यादयः । ८- शु० २.७०-७२ । ६- शु० २.८६ : देशकालप्रविज्ञाता ह्यमात्य इति कथ्यते 1 १० शु० २.१०२-५ : पुराणि च कति ग्रामा अरण्यानि च सन्ति हि । कषिता कति भूः केन प्राप्तो भागस्ततः कति ॥ भागशेषं स्थितं कस्मिन् कत्यकृष्टा च भूमिका । भागद्रव्यं वत्सरेऽस्मिञ्झुल्कदण्डादिजं कति ॥ अकृष्टपच्यं कति च कति चारण्यसंभवम् । कति चाकरसंजातं निविप्राप्तं कतीति च ॥ अस्वामिकं कति प्राप्तं नाष्टिकं तस्कराहृतम् । सञ्चितन्तु विनिश्चित्यामात्यो राज्ञे निवेदयेत् ॥ १३८ : 'खत्तिया' राइण्णादयो । राजा होता है, क्षत्रिय नहीं भी होता, हरिभद्र ने 'क्षत्रिय का अर्थ श्रेष्ठ ११- अ० चू० पृ० १२- जि० चू० पृ० २०८-९ : 'खत्तिया' नाम कोइ राया भवइ ण खत्तियो, अन्नो खत्तियो भवति ण उ राया, तत्थ जे खत्तिया ण राया तेसि गणं कथं । १३- हा० टी० प० १६१ : 'क्षत्रियाः ' श्रेष्ठयादयः । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ३०७ 'राजन्य' का अर्थ राजवंशीय या सामन्त तथा बैठि का वर्ष ग्राम-महत्तर (याम-शासक) या श्रीदेवता वाला है। ७. आचार का विषय ( आधारगोवरोध ) : आचार के विषय को 'आचार-गोचर' कहते हैं । स्थानाङ्ग वृत्ति के अनुसार साधु के आचार के अङ्गभूत छह व्रतों को 'आचारगोचर कहा जाता है । वहाँ आचार और गोचर का अर्थ स्वतन्त्र भाव से भी किया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यप्रकार का आचार है । गोचर का अर्थ है 'भिक्षाचरी" । -यह पाँच श्लोक ३ : ८. शिक्षा में ( सिक्खाए ग ) : शिक्षा दो प्रकार की होती है ग्रहण और आसेवन सूत्र और अर्थ का अभ्यास करना ग्रहण शिक्षा है । आवार का सेवन और अनाचार का वर्जन आसेवन शिक्षा कहलाती है । श्लोक ४ : ९. ( हंदि क ) : यह अव्यय है इसका अर्थ है – उपदर्शन* । --- अध्ययन ६ श्लोक ३-६ टि० ७-१२ : धारण करने १०. मोक्ष चाहने वाले ( धम्मत्थकामाणं क चारित्र आदि धर्म का प्रयोजन मोक्ष है। उसकी इच्छा करने वाले 'धर्मार्थ काम' कहलाते हैं । श्लोक ६ : ): ११. बाल वृद्ध (सखुडुगवियताणं): खुड्डग (क्षुद्रक) का अर्थ बाल और वियत्त ( व्यक्त) का अर्थ वृद्ध है । 'सखुड्डगवियत्त' का शब्दार्थ है – सबालवृद्ध । १२. अखण्ड और अस्फुटित ( अखंडफुडिया ग ) : टीकाकार के अनुसार आंशिक - विराधना न करना 'अखण्ड' और पूर्णतः विराधना न करना 'अस्फुटित' कहलाता है। अगस्त्य - १ (क) अ० चू० पृ० १३६ : आयारस्स आयारे वा गोयरो - आयारगोयरो, गोयरो (ख) हा० टी० प० १६१ 'आचारगोचर:' क्रियाकलापः । पुण २ -- स्था० ८.३.६५१ प० ४१८ वृ० : 'आचार: ' साधुसमाचारस्तस्य गोचरो - विषयो व्रतषटका दिराचारगोचरः अथवा आचारश्चज्ञानादिविषयः पञ्चधा गोचरराव भिक्षाचयत्याचारगोचरम् । विसयो । ३- जि० चू० पृ० २०९ सिक्खा दुविधा, तंजहा गहण सिक्खा आसेवणासिक्खा य, गहण सिक्खा नाम सुत्तस्थाणं गहणं, आसेवासक्खा नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा तेसि कारणं संफासणं, अकर णिज्जाण य वज्जणया । ४० टी० १० १२२ हंदि ति हम्दीत्युपप्रदर्शने । हा०] [टी० [१०] १९२ धर्मः चारिधर्मादिस्तस्यार्थ प्रयोजनं मोलस्तं मच्छन्तीति विशुद्ध विहितानुष्ठान करणे. नेति धर्मार्थकामा - मुमुक्षवस्तेषाम् । ६— (क) अ० चू० पृ० १४३ : खुड्डगो बालो, वियत्तो व्यक्त इति सबुड्डएहिं वियत्ता सखुड्डग वियत्ता, तेसि । (ख) जि० ० ० २१६ सहा दिवसा नाम महत्वा तेति खुगवियत्ताणं' बालबुद्धाति पुत भवइ । (ग) हा० टी० प० ११५ सह द्रव्यभावा वर्तसे व्यस्तास्यभाववृद्वास्तेषां सशुल्कव्यक्तान सबालवृद्धानाम् । ७ - हा० टी० प० १६५-६६ : अखण्डा देशविराधनापरित्यागेन, अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन । । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३०८ अध्ययन ६ : श्लोक ७ टि० १३-१४ सिंह स्थविर ने वैकल्पिक रूप से खण्डफुल्ल' शब्द मानकर उसका अर्थ विकल किया है । अखण्डफुल्ल अर्थात् अविकल-सम्पूर्ण' । श्लोक ७: १३. आचार के अठारह स्थान हैं ( दस अ य ठाणाई क ): आचार के अठारह स्थान निम्नोक्त हैं : १. अहिंसा १०. वायुकाय-संयम २. सत्य ११. वनस्पतिकाय-संयम ३. अचौर्य १२. सकाय-संयम ४. ब्रह्मचर्य १३. अकल्प वर्जन ५. अपरिग्रह १४. गृहि-भाजन-वर्जन ६. रात्रि-भोजन त्याग १५. पर्यंक-वर्जन ७. पृथ्वीकाय-संयम १६. गृहान्त र निषद्या-वर्जन ८. अप्काय-संयम १७. स्नान-बर्जन ६. तेजस्काय-संयम १८. विभूषा-वर्जन १४. श्लोक ७: कुछ प्रतियों में आठवाँ इलोक 'वय छक्क' भूल में लिखा हुआ है किन्तु यह दशवकालिक की नियुक्ति का श्लोक है। चूणिकार और टीकाकार ने इसे नियुक्ति के श्लोक के रूप में अपनी व्याख्या में स्थान दिया है । हरिभद्रसूरि भी इन दोनों नियुक्ति-गाथाओं को उद्धृत करते हैं और प्रस्तुत गाथा के पूर्व लिखते हैं : "कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकार: वय छक्कं कायछक्क, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं" || (हा० टी० ५० १६६) दोनों चूणियों में गिहिणिसेज्जा' ऐसा पाठ है जबकि टीका में केवल 'निसेज्जा' ही है। कुछ प्राचीन आदर्शों में नियुक्तिगाथेयम्' लिख कर यह श्लोक उद्धृत किया हुआ मिला है। संभव है पहले इस संकेत के साथ लिखा जाता था और बाद में यह संकेत छूट गया और वह मूल के रूप में लिखा जाने लगा। वादिवेताल शान्तिसूरि ने इस श्लोक को शय्यंभव की रचना के रूप में उद्धृत किया है। समवायाङ्ग (१८) में यह सूत्र इस प्रकार है : समणाणं निग्गंथाणं सखुड्डय-विअत्ताणं अट्ठारस ठाणा प० तं० वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहि भायणं । पलियंक निसिज्जा य सिणाणं सोभवज्जणं ।। १-अ० चू० पृ० १४४ : 'खण्डा' विकला, फुल्ला-णट्ठा, अकारेण पडिसेहो उभयमणुसरति......अहवाऽविकलमेव खण्डफुल्लं । २--(क) अ० चू० पृ० १४४ : निग्गं थभावातो भस्सति, एतस्स चेव अत्थस्स वित्यारणे इमा निज्जुत्ती --"अट्ठारस ठाणाइ" गाहा। कंठा । तेसि विवरणथमिमा निज्जुत्ती ---"वयछक्कं कायछक्क" गाहा । (ख) जि० चू०१० २१६ : निर्गन्थभावाओ भण्ण (स्स) ति, एस चेव अत्यो सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णति तं० 'अट्ठारस ठाणाई" गाथा भाणियव्वा कयराणि पुण अट्ठारसठाणाई ?, एत्थ इमाए सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णइ-वयछक्कं कायछक्कं ।' ३-उत्त० बृ० वृ० पृ०२० : शय्यम्भवप्रणीताचारकथायामपि “वयछक्ककायछक्क" मित्यादिनाऽऽचारप्रक्रमेऽप्यनाचारवचनम् । Jain Education Intemational w Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) १५. सूक्ष्म रूप से ( निउणं) 1 अगस्त्य पूगि के अनुसार 'निउण' शब्द 'दिट्ठा' का किया विशेषण है जिनदास चूर्णि और टीकाकार के अनुसार यह 'अहिंसा' का विशेषण है। इलोक ६ १. क्रोध हेतुक मृषावाद : जैसे २. मान हेतुक मृषावाद जैसे ३. मदावाद जैसे ४. लोभ-हेतुक मृषावाद : जैसे ५. भय-हेतुक मृषावाद जैसे ३०६ श्लोक ८ : १६. जान या अजान में ( ते जाणमजाणं वा ) हिंसा दो प्रकार से होती है-जान में या अजान में जान-बूझकर हिंसा करने वालों में राग-द्वेष की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है और अजान में हिंसा करने वालों में अनुपयोग या प्रमाद होता है। श्लोक ११: १७. क्रोध से ( कोहा ख ) : मृषावाद के छह कारण है क्रोध, मान, माया, लोभ, भय और हास्य । दूसरे महाव्रत में क्रोध, लोभ, हास्य और भय इन चारों का निर्देश है। यहाँ कां और भय इन दो कारणों का उल्लेख है । चूर्णि और टीका ने इनको सांकेतिक मानकर सभी कारणों को समझ लेने का संकेत दिया है । अध्ययन ६ : श्लोक ८-११ टि० १५-१८ ६. हास्यवाद कुतूहल बोल तू दास है इस प्रकार कहना । अबहुश्रुत होते हुए भी अपने को बहुश्रुत कहना । मान से जी चुराने के लिए और में पीड़ा है' यों कहना। सरस भोजन की प्राप्ति होते देख एषणीय नीरस को अनेषणीय कहना । दोष सेवन कर प्रायश्चित्त के भय से उसे स्वीकृत करना । १८. पीड़ाकारक सत्य और असत्य न बोले ( हिंसगं न मुलं बूया ग ) : 'हिंसक' शब्द के द्वारा परपीड़ाकारी सत्य वचन बोलने का निषेध और 'मृषा' शब्द के द्वारा सब प्रकार के मृषावाद का निषेध किया गया है । १- अ० ० पृ० १४४: निपुणं सव्वपाकारं सव्वसत्तगता इति । २ (क) जि० चू० पृ० २१७ : 'निउणा' नाम सव्वजीवाणं सव्वे वाहि अणववाएण, जेणं उद्द े सियादीणि भुंजंति ते तहेव हिसगा भवन्ति, जीवाजीवेहि संजमोति सव्वजीवेसु अविसेसेण संजमो जम्हा अओ अहिंसा जिणसासणे निउणा, ण अण्णत्थ । (ख) हा टी० प० १९६ निपुणा आधारिभोगतः कृतकारिता विपरिहारेण सूक्ष्मा । (क) जि० ० ० २१७'मा नाम निविते ३. रामोसाभिभूओ पाए, अनागमानो नाम अपदुस्समाणो अगुव ओगेणं इ' दियाइणावी पमातेण घातयति । (ख) हा० टी० प० १६६ : तान् जानन् रागाद्यभिभूतो व्यापादनबुध्या अजानन्वा प्रमादपारतन्त्र्येण । ४ ० ० ० २१८ को मागमायामाथि गहिया। हा० डी० ५० ११७ फोडा पास इत्यादि एक लभातीयहण' मिति मानाद्वा अत एवाहं बहुत इत्यादि मापात भिक्षाटन परिजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि लोभाच्छोभनतरान्नलाभे सति प्रान्तस्यैवणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि, यदि वा 'मयात् किञ्चितिथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि एवं हास्याविष्यपि वाच्यम् । ६ (क) अ० पू० १० १४५ सिगं सम्यमवि पोडाकारि, मुसावितहं समुभयं न बूया न वसेज (ख) जि० चू० पृ० २१८: 'हिंसगं' नाम जेण सच्चेण भणिएन पीडा उत्पज्जइ तं हिंसगं अपि, अपि च न तच्चवचनं सत्यमतच्चवचनं न च यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमितरं मृषा । 7 ण पस्सामित्ति, सच्चमेव तं Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशर्वकालिक ) ११. सब साधुओं द्वारा हित है ( सय्यसाहूहि गरहिओ मृषावाद सब साधुओं द्वारा गर्हित है। इसके समर्थन में चूर्णिकार ने लिखा है कि बौद्ध आदि साधु भी मृषावाद की गर्दा करते हैं । उनके पाँच शिक्षा-पदों में 'मृषावाद परिहार' को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसका महत्व इसलिए है कि इसकी आराधना के बिना शेष शिक्षा-पदों की आराधना संभव नहीं होती । २१. अल्प या बहुत ( अप्पं बहुं ख ) : ३१० श्लोक १२ : ) एक श्रावक था । उसने मृषावाद को छोड़ चार अणुव्रत ग्रहण किए मृषावाद का परित्याग नहीं किया। कुछ समय पश्चात् वह एक-एक कर सभी व्रत तोड़ने लगा। एक बार उसके मित्र ने कहा- "तुम व्रतों को क्यों तोड़ते हो ?" उसने उत्तर दिया- "नहीं तो, मैं व्रतों को कहाँ तोड़ता हूँ ?" मित्र ने कहा "तुम झूठ बोलते हो ।" उसने कहा- "मैंने झूठ बोलने का त्याग कब किया था ?" सत्यशिक्षापद के अभाव में उसने सारे व्रत तोड़ डाले । श्लोक १३: २०. सजीव या निर्जीव ( चित्तमंतमचित्तं क ) : चतुष्पद जिसमें ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली बेतना हो उसे चित्तवान् और चेतनारहित को अचित्त' कहते हैं द्विपद और अपद ये 'चितवान्' और हिरण्य आदि अत्ति हैं। अल्प और बहुत के प्रमाण तथा मूल्य की दृष्टि से चार विकल्प बनते हैं : ( १ ) प्रमाण से अल्प मूल्य से बहुत । (२) प्रमाण से बहुत मूल्य से अल्प । ग २२. दन्तशोधन ( दन्तसोहण " ) : ख अध्ययन ६ श्लोक १२-१५ टि० १९-२३ (३) प्रमाण से अल्प मूल्य से अल्प । (४) प्रमाण से बहुत मूल्य से बहुत । मुनि इनमें से किसी भी विकल्प वाली वस्तु को स्वामी की आज्ञा लिए बिना ग्रहण न करे । चरक में 'दन्तशोधन' को दन्तपवन और दन्तविशोधन कहा है। वृद्ध वाल्लट ने इसे दन्तधावन कहा है। मिलिन्दपन्ह में इसके स्थान में 'दन्तपोण' और दशर्वकालिक में 'दन्तवण' का प्रयोग हुआ है । श्लोक १५ : २३. घोर ( घोरं क ) : घोर का अर्थ भयानक या रौद्र है। अब्रह्मचारी के मन में दया का मात्र नहीं रहता। अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त मनुष्य के लिए ऐसा ४ च० सूत्र अ० ५.७१-७२ । ५ - च० पूर्वभाग पृ० ४६ १- (क) जि० चू० पृ० २१८ : जो सो मुसावाओ, एस सव्वसाहूहि गरहिओ सक्कादिणोऽवि मुसावादं गरहंति, तत्थ सक्काणं पंचन्हं सिक्खावयाणं मुसावाओ भारियतरोत्ति, एत्थ उदाहरणं एगेण उवासएण मुसावायवज्जाणि चत्तारि सिक्खावयाणि गहियाणि तत्र सो तानि जिउमारो, अष्णेष व भणिओ, जहा शिमेवाणि भंजसि ? तभी तो अमिष्या नाहं भजामि । ण मए मुसावायस्स पच्चक्खा यं तेसिपि सव्वाहियया णिच्छिता । एतेण कारणेण तेसिपि मुसावाओ भुज्जो सत्यसाहित (ख) हा० टी० प० १९७ : सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः 'गर्हितो' निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात् । २- जि० ० चू० पृ० २१८-१६ : चित्त नाम चेतणा भण्णइ, सा च चेतणा जस्स अत्थि तं चित्तमंतं भण्णइ तं दुपयं चउप्पयं अप वा होज्जा, 'अचित्त' नाम हिरण्णादि । ३-जि० पू० पृ० २१२ अप्यं नाग पमाणओ मुल्लओ य, बहुमवि माओ त्सओ व Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाया कहा ( महाचारकथा ) ३११ अध्ययन ६ श्लोक १६-१७ टि०२४-२६ कोई भी कार्य नहीं होता जिसे वह न कह सके या न कर सके । अर्थात् अब्रह्मचारी रौद्र बन जाता है। इसलिए अब्रह्मचर्य को 'घोर' कहा गया है। ख २४. प्रमाद - जनक ( पमायं ): ब्रह्मचर्य इन्द्रिय का प्रमाद है। अब्रह्मचर्य से मनुष्य प्रमत्त हो जाता है । यह सब मनुष्य का सारा आचार और क्रिया-कलाप प्रमादमय या भूलों से परिपूर्ण वन जाता है। गया है । २५. दुर्बल व्यक्तियों द्वारा आसेवित है ( दुरहिद्विषं जिनदास के अनुसार अब्रह्मचर्यं घृणा प्राप्त कराने वाला होता है, इसलिए उसे 'दुरधिष्ठित' कहा गया है। अगस्त्य चूर्णि के अनुसार अब्रह्मचर्यं जुगुप्सित जनों द्वारा अधिष्ठित - आश्रित हैं। इसका दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि अब्रह्मचर्य जन्म-मरण की अनन्त परम्परा का हेतु है यह जानने वाले के लिए वह सहजनवा सेवनीय नहीं होता। इसलिए उसे संगति के लिए सुरक्षित' कहा गया है। २६. चरित्र भंग के स्थान से बचने वाले ( भैयाययणवजिणो प ) : चरित्र-भेद का आयतन (स्थान) मैथुन है। इसका वर्जन करने वाले 'भेदायतनवर्जी' कहलाते हैं । श्लोक १६ : २७. मूल (मूलं): मूल, बीज और प्रतिष्ठान ये एकार्थक शब्द है। २९. समुद्र-लवण (उम्मेद) उद्भिज लवण दो प्रकार का होता है (१) समुद्र के पानी से बनाया जाने वाला । ख इलोक १७ : २८. बिड लवण ( बिडं क ) : यह कृत्रिम लवण गोमूत्र आदि में पकाकर तैयार किया जाता है । अतः यह प्रासुक ही होता है । ) : ): प्रमादों का मूल है। इसमें आसक्त इसलिए अब्रह्मचर्य को 'प्रमाद' कहा १- (क) अ० चू० पृ० १४६ : घोरं भयाणगं । (ख) जि० चू० पृ० २१६ : घोरं नाम निरणुक्कोसं, कीं ? अबंभपवत्तो हि ण किचि तं अकिच्चं जं सो न भणइ । (ग) हा० टी० प० १६८ "पोरं रौद्र रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात । २- अ० चू० पृ० १४६ : स एवइ दियप्पमातो । ३– (क) जि० चू० पृ० २१६ : जम्हा एतेण पमत्तो भवति अतो पमादं भणइ, तं च सव्वपमादाणं आदी, अहवा सव्वं चरणकरणं तंमि वट्टमाणे पमादेतित्ति । (ख) हा० टी० प० १६८ : 'प्रमादं' प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् । ४ - वि० पू० पृ० २१९ ५-- अ० चू० पृ० १४६ ६० डी० प० १६० दुरहिट्ठियं नाम गुच्यं पाव तमहतोत्ति दुरहिद्विषं । 'दुरहिट्ठियं' दुगु छियाधिट्ठितं । 'दुराचयं' दुस्सेवं विदितजिनवचनानन्त संसारहेतुस्यात् । ७ (क) वि० ० ० २१६ भिजाई जेण परिपाली सो भेदो तस्स भेदस्य पसूती आवतगं मेहणंति व भेदायतणं यति । , (ख) हा० टी० प० १६८ : भेद: -- चारित्रभेदस्तदायतनं-- तत्स्थानमिदमवोक्तन्यायात्तद्वाजिनः -- चारित्रातिचारभीरवः । ८- जि० चू० पृ० २१९ मूलं नाम बीयंति वा पट्टाणंति वा मूलंति वा एगट्टा । E -- (क) अ० चू० पृ० १४६ : 'विडं' जं पागजात तं फासुगं । (ख) जि० ० पृ० २२० : बिलं (डं) गोमुत्तादीहिं पविऊण कित्तिमं कीरइ... अहवा बिलग्गहणेण फासुगलोणस्स गहणं क्रयं । (ग) हा० टी० प० ११८ 'बि' योमूत्रादिपश्वम् । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) (२) खानों से निकलने वाला यहाँ 'सामुद्रिक' लवण का ग्रहण किया है । यह अप्रासुक होता है' । ३०. -गुड़ (फाणिय) ३१२ गहने 'फाणित' का अर्थ-विकार और हरि ने द्रव-गुड़ किया है। भावप्रकाश के अनुसार कुछ गाढ़ और बहुत तरल ऐसे पकाए हुए ईख के रस को 'फाणित' कहा जाता है । ३१. संग्रह (सन्निहि ग) : लवण आदि वस्तुओं का संग्रह करना, उन्हें अपने पास रखना या रात को रखना 'सन्निधि' कहलाता है। जो लवण आदि द्रव्य चिरकाल तक रखे जा सकते हैं उन्हें अविनाशी द्रव्य और जो दूध, दही थोड़े समय तक टिकते हैं उन्हें विनाशी द्रव्य कहा जाता है । यहाँ अविनाशी द्रव्यों के संग्रह को 'सन्निधि' कहा है'। निशीथ घूणि के अनुसार विनाशी द्रव्य के संग्रह को 'सन्निधि' और अविनाशी द्रव्य के संग्रह को 'सञ्चय' कहा जाता है। अध्ययन ६ श्लोक १८ टि० ३०-३३ : श्लोक १८ : ३२. श्लोक १८ : व्यवहार भाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि ने इस श्लोक के स्थान पर दशर्वकालिक का उल्लेख करते हुए जो श्लोक उद्धृत किया है, उसके प्रथम तीन चरण इससे सर्वथा भिन्न हैं । वह इस प्रकार है - यत् दशवेकालिके उक्तमशनं पानं खादिमं तथा संचयं न कुर्यात् तथा च तद्ग्रन्थ: : ७-३० ० ० १४७ ६०० पृ० २२० असणं पाणगं चैव खाइमं साइमं तहा । ३३. प्रभाव (अणुफासो क) : अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'अनुस्पर्श' का अर्थ अनुसरण या अनुगमन किया है और जिनदास महत्तर ने अनुभाव - सामर्थ्य या प्रभाव किया है। सह कुवा, गिट्टी पम्पइएन से ।" (०५० उ०५ गा० ११४) १ – (क) अ० च० पृ० १४६ : 'उब्भेइम' सामुद्दोति लवणागरेसु समुष्पज्जति तं अफासुगं । (ख) हा० टी० प० १६८ : 'उभेद्य' सामुद्रादि । (ग) जि० ० ० २२० उमरगहण सामुदायीक ग्रहणं कथं । २ (क) अ० ० ० १४६ 'फाणित उपविकारो (ख) हा० टी० प० १६८ : फाणितं द्रवगुड़ः । ३ शा० नि० भू० पृ० १०८४ : इक्षोरसस्तु यः पक्वः किञ्चिद्गाढो बहुद्रवः । स एवेक्षुविकारेषु ख्यातः फाणितसंज्ञया ॥ ४- (क) जि० चू० पृ० २२ : 'सन्निधि' नाम एतेसि दव्वाणं, जा परिवासणा सा सन्निधी भण्णति । (ख) हा० टी० प० १६८: 'संनिधि कुर्वन्ति' पर्युषितं स्थापयन्ति । ५- जि० १० चू० पृ० २२० एताणि अविणासिदव्वाणि न कप्पंति, किमंग पुण रसादीणि विणासिदव्वाणिति ?, एवमादि सणिधि न ते साधवो भगवन्तो णायपुत्तस्स वयणे रया इच्छति । ६ - नि० ० उ० ८. सू० १७. चू० : सन्निही णाम दधिखीरादि जं विणासि दव्वं, जं पुण अविणासि दव्वं, चिरमवि अच्छइण विणस्सइ, सो संचतो । 'घयतेल्ल-वत्थ- पत्त- गुल- खंड- सक्कराइयं अनुसरणमणुवमो अनुकासो अगुफासो नाम अणुभावो भणति । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा (महाचारकथा) अध्ययन६:श्लोक १४ टि०३४-३५ ३४. मैं मानता हूँ ( मन्ने ख ) : यह क्रिया है । अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार इसका कर्ता शय्यम्भव है। जिनदास महत्तर के अनुसार इसका कर्ता तीर्थङ्कर है। हरिभद्र सूरी के अभिमत में प्राकृत-शैली के अनुसार इसका पुरुष परिवर्तन होता है । ३५. ( अन्नयरामविल ) : धुणिकार के अनुसार यह सामान्य निर्देश है इसलिए इसका लिङ्ग नपुंसक है। हरिभद्र सूरी ने इसे सन्निधि का विशेषण माना है। किन्तु 'सन्निधि' पुंलिङ्ग-शब्द है इसलिए यह चिन्तनीय है । ३६. ( सिया ग ) : अगस्त्यसिंह स्थविर ने सिया को क्रिया माना है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरी ने 'सिया' का अर्थ कदाचित् किया है। ३७. ( सन्निहीकामे ग) : चणिकारों ने सन्निधिकाम'-..- यह एक शब्द माना है। टीकाकार ने 'कामे' को क्रिया माना है। उनके अनुसार 'सन्निहिं कामे' ऐसा पाठ बनता है । श्लोक १६: ३८. संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ( संजमलज्जट्ठा ग ) : वहाँ वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रोञ्छन रखने के दो प्रयोजन बतलाए गए हैं (१) संयम के निमित्त । (२) लज्जा के निमित्त। शीतकाल में शीत से पीड़ित होकर मुनि अग्नि सेवन न करे; उसके लिए वस्त्र रखने का विधान किया गया है। पात्र के अभाव में संसक्त और परिशाटन दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए पात्र रखने का विधान किया गया है। पानी के जीवों की रक्षा के लिए कम्बल (वर्षाकल्प) रखने का विधान किया गया है । लज्जा के निमित्त 'चोलपट्टक' रखने का विधान है। व्याख्याकारों ने संयम और लज्जा को अभिन्न भी माना है । वहाँ 'संयम की रक्षा के लिए'--यह एक ही प्रयोजन फलित होता है । १-अ० चू० पू० १४७ : मणगपिता गणहरो सयं वाजत्था अप्पणो अभिप्पायमाह-मण्णे एवं जाणामि । २... जि० चू०प० २२० : मन्ने णाम तित्थंकरो वा एवमाह । ३-हाटी० ५० १६८ : 'मन्ये' भन्यन्ते, प्राकृतशैल्या एकवचनम, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः । ४ ---(क) अ० चू० : अण्णत रामिति विडातीणं किंचि जहा अण्णं निहिज्जति । (ख) जि० चू०प० २२० : अन्नतरं णाम तिलतुसतिभागमेत्तमवि, अहवा अन्नयरं असणादी। ५-हा० टी०प० १९८ : 'अन्यतरामपि' स्तोकामपि । ६-अ० चू०प०१४७ : सियादिति भवेज्ज'। ७-(क) जि० चू० पृ० २२० : "सिया कदापि' । (ख) हा०टी०प० १९८ : 'यः स्यात' यः कदाचित । ८-(क) अ० चू०प०१४७ : सण्णिधी भणितो, तं कामयतीति सगिणधीकामो। (ख) जि० चू०पृ० २२० : सपिणहि कामयतीति सन्निहिकामी । 8-हा० टी०प० १९८: कदाचित्संनिधि कामयते' सेवते। १०-(क) जि. चु० पृ. २२१: एतेसि वत्थावीणं जं धारणं तमवि, संजमनि मतं वा बत्थस्स गहणं कीरइ, मा तस्स अभावे अग्गिसेवणादि दोसा भविस्संति, पाताभावेऽवि संसत्तारसाडणादी दोसा भविस्सति कम्बलं वासकप्पादी तं उदगादिरक्खणडाघेप्पति, लज्जानिमित्तं चोलपटको घेप्पति. अहवा संजमो चेच लज्जा, भणितं च - इह तो लज्जा नाम लज्जा मंतो भष्णइ, संजममंतो.त वुत्तं भवति," एताणि वत्यादीणि संजमलज्जट्ठा । (ख) हा टी० ५० १६६ : 'सयमलज्जार्थ' मिति संधमार्थ पात्रादि, तद्व्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालना भावात्, लज्जार्थं वस्त्रं, तव्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्ट श्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः, अथवा संयम एव लज्जा तदर्थ सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयति । Jain Education Intemational Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशवेकालिक) ३१४ ३६. रखते और उनका उपयोग करते हैं ( धारंति परिहरति घ ) प्रयोजन होने पर इसका मैं उपयोग करूंगा इस दृष्टि से रखना 'धारण' कहलाता है और वस्त्र आदि का स्वयं परिभोग करना 'परिणत है' यह समय धानुक प्रयोग है। इस धातु का ठीक छोड़ना होता है और सामयिक अर्थ है पहना। श्लोक २० : ख ४०. ज्ञातपुत्र महावीर ने ( नायपुत्रेण ) : भगवान् महावीर का एक नाम 'नायपुत्त' ज्ञातपुत्र भी है। यह नाम पितृवंश से संबन्धित है । भगवान् के लिए ज्ञात, ज्ञातकुलनिर्वृत्त और ज्ञातकुलचन्द्र आदि विशेषण भी प्रयुक्त हुए हैं । भगवान् के पिता सिद्धार्थ को 'ज्ञातकुल निर्वृत्त' नाम से सम्बोधित किया गया है । इससे स्पष्ट होता है कि भगवान् के कुल का नाम 'ज्ञात' था । अगस्त्यसिंह स्थविर और जिनदास महत्तर के अनुसार 'ज्ञात' क्षत्रियों का एक कुल या जाति है । 'ज्ञात' शब्द से वे ज्ञातकुल उत्पन्न सिद्धार्थ का ग्रहण करते हैं और 'ज्ञातपुत्र' से भगवान् का' । आचाराङ्ग (२०१५) में भगवान् के पिता को काश्यपगोत्री कहा गया गया है। भगवान् इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए थे यह भी माना जाता है। भगवान् ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपनी इसलिए वे आदि का कहलाते हैं। भगवान् महावीर भी इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री थे | ज्ञात या ज्ञातृ काश्यपगोत्रियों का अवान्तर भेद रहा होगा । अध्ययन ६ श्लोक २० टि० ३१-४१ हरिभद्रसूरि ने 'ज्ञात' का अर्थ उदार क्षत्रिय सिद्धार्थ किया है। बौद्ध साहित्य में भगवान् के लिए 'नानपुत्त' शब्द का अनेक स्थलों में प्रयोग हुआ है । प्रो० वसन्तकुमार चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि लिच्छवियों की एक शाखा या वंश का नाम 'नाय' (नात ) था । 'नाथ' शब्द का अर्थ संभवतः जाति (राजा के लातिन) है। श्वेताम्बर अङ्ग आगमों में 'नाया धम्मकहा' एक आगम है। यहाँ 'नाय' शब्द भगवान् के नाम का सूचक है । दिगम्बर-परम्परा में 'नामकहा' को 'नाथधर्म - कथा' कहा गया है। महाकवि धनञ्जय ने भगवान् का वंश 'नाथ' माना है । इसलिए – भगवान् को 'नाथान्वय' नाम से संबोधित किया है । नाथ 'नाय' या 'नात' का ही अपभ्रंश रूप प्रतीत होता है । ४१. वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है ( न सो परिग्गहो वृत्तो क ) : मुनि के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएँ हैं। पहली परम्परा मुनि को वस्त्र धारण करने का निषेध करती है और दूसरी उसका विधान | पहली परपरा के अनुपावी अपने को दिगम्बर कहते हैं और दूसरी के अनुपायो श्वेताम्बर दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दोनों १००० २२१ ताथ पारणा नाम संयोजत्वं पारिज जहा उप्पने पोषणे एवं परिभुंजिस्तामिति एसा पारणा, परिहरणा नाम जा सयं वत्थादी परिभुंजइ सा परिहरणा भण्णइ । २ हा० हा० टी० प० ११६ परिहरति परिभुञ्जते च । (क) अ० पू० णायभूयसिद्धस्थातियते । (ख) जि० चू० पृ० २२१ : णाया नाम खत्तियाणं जातिविसेसो, तम्मि संभूओ सिद्धत्थो, तस्य पुत्तो णायपुत्तो । ४ - अ० चि० १.३५ : इक्ष्वाकुकुलसम्भूताः स्याद्द्द्वाविंशतिरर्हताम् । ५- हा० टी० प० १६६ : ज्ञात उदारक्षत्रियः सिद्धार्थः तत्पुत्रेण । ६ - ( क ) म० नि० १.२.४ ; ३.१.४ । (ख) सं० नि० ३.१.१ । ७ - जै० भा० वर्ष २ अङ्क १४.१५ पृ० २७६ : जेकोवी ने 'नाथ' शब्द का संस्कृत प्रतिशब्द 'ज्ञात्रिक' व्यवहार किया है, परन्तु अर्थ-निर्णय को चेष्टा नहीं की है। मुझे ऐसा लगता है कि जिस वंश की पुत्र या कन्या का राजकन्या या राजपुत्र के साथ विवाह हो सकता था उसी वंश को 'ज्ञातिवंश' कहा गया है । -5 - ज० ६० भाग १ पृ० १२५: णाहधम्मकहा णाम अंग तित्थयराणं धम्मकहाणं सरुचं वण्णेदि । ६-६० ना० ११५ : सम्मतिर्महतिर्वोरो, महावीरोऽन्त्यकाश्यपः । नाथान्य वर्धमान वत्तीयमिह साम्प्रतम् ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ महायारकहा ( महाचारकथा ) अध्ययन ६ : श्लोक २० टि० ४१ शब्द अशास्त्रीय हैं जबकि दोनों के विचार शास्त्र-सम्मत हैं । भाषा और रचना-शैली की दृष्टि से यह प्रमाणित हो चुका है कि उपलब्ध जैन-साहित्य में आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) प्राचीनतम आगम है। उसकी चूला (आयार चुला) में मुनि को एक वस्त्र सहित, दो वस्त्र सहित आदि कहा है' । अन्य आगमों में मुनि की अवेन और सचेत्र --दोनों अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । जिनकल्ली मुनि के लिए शीत ऋतु बीत जाने पर अचेल रहने का भी विधान है । वास्तव में वस्त्र रखना या न रखना कोई विवाद का विषय नहीं है। परिस्थिति-भेद से सचेलता और अचेलता दोनों अनुज्ञात हैं। अचेल को उत्कर्ष-भाव और सचेल को अपकर्ष-भाव नहीं लाना चाहिए और न आपस में एक दूसरे की अवज्ञा करनी चाहिए-- जोऽवि दुवत्यतिवत्यो, एगेण अचेलगो व संथरइ । ण ह ते हीलंति परं, सव्वेऽपि य ते जिणाणाए ॥१॥ जे खलु विसरिसकप्पा, संघयणधिइयादिकारणं पप्प। णऽवमन्नइ ण य हीणं, अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥२॥ सव्वेऽवि जिणाणाए, जहाविहि कम्मखवणअट्ठाए। विहरति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एवं ॥३॥ (आचा० वृ० पत्र २२२) इन गाथाओं में समन्वय की भाषा का ज्वलन्त रूप है। आचार्य उमास्वाति (या उमास्वामी) को दोनों सम्प्रदाय अपना-अपना आचार्य मान रहे हैं। उन्होंने धर्म-देह रक्षा के निमित्त अनुज्ञात पिण्ड, शय्या आदि के साथ वस्त्रैषणा का उल्लेख किया है तथा कल्प्याकल्प्य की समीक्षा में भी बस्त्र का उल्लेख किया है। इसी प्रकार एषणा-समिति की व्याख्या में वस्त्र का उल्लेख है। स्थानाङ्ग में पाँच कारणों से अचेलता को प्रशस्त बतलाया है। वहाँ चौथे कारण को तप और पाँचवें कारण को महान् इन्द्रिय-निग्रह कहा है । संक्षेप में यही पर्याप्त होगा कि अवस्था-भेद के अनुसार अचेलता और सचेलता दोनों विहित हैं। परिग्रह का प्रश्न शेष रहता है । शब्द की दृष्टि से विचार किया जाए तो लेना मात्र परिग्रह है। स्थानांग में परिग्रह के तीन नाम बतलाए हैं –शरीर, कर्म-पुद्गल और भण्डोपकरण । बन्धन की दृष्टि से विचार करने पर परिग्रह की परिभाषा मूर्छा है। सूत्रकार ने इसे बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है । जीवन-यापन के लिए आवश्यक वस्त्र, पात्र आदि रखे जाते हैं वे संयम-साधना में उपकारी होते हैं इसलिए धर्मोपकरण कहलाते है । वे परिग्रह नहीं हैं । उनके धारण करने का हेतु मूर्छा नहीं है । सूत्रकार ने उनके रखने के दो प्रयोजन बतलाए हैं - संयम और लज्जा। स्थानाङ्ग में प्रयोजन का विस्तार मिलता है। उसके अनुसार वस्त्र-धारण के तीन प्रयोजन हैं-लज्जा, जुगुप्सा-निवारण और परीषह १-आ० चू० ५।२ : जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंधयणे से एगं वत्थ धारिज्जा नो वीयं । २-उत्त०२.१३: एगयाऽचेलए होइ, सचेले आवि एगया। एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए । ३ -आ०८.५०-५३ : उवाइक्कते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्याइं परिढविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले । ४-प्र० प्र० १३८ : पिण्डः शय्या वस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यन् । कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ।। ५-प्र० प्र०१४५: किंचिच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्य वा ॥ ६-त० भा० ६.५ : अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य च उद्गमोत्पादनेषणादोषवर्जनम् -एषणा-समितिः । ७-ठा० ५.२०१ : पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तंजहा -अप्पा पडिलेहा, लाविए पसत्थे, रूवे वेसासिते, तवे अणुन्नाते, विउले इंदियनिग्गहे । ८-ठा० ३.६५ : तिविहे परिग्गहे पं० २०–कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ३१६ शीत, उष्ण और मच्छर आदि से बचाव करना । प्रश्न व्याकरण में संयम के उपग्रह तथा वात, आतप, दंश और मच्छर से बचने के लिए उपधि रखने का विधान किया है। ४२. महब ( गणधर ) ने ( महेसिणा घ ) : जिनदास महत्तर ने ‘महर्षि' का अर्थ गणधर या मनक के पिता शय्यंभव किया है और हरिभद्रसूरि ने केवल 'गणधर' किया है । श्लोक २१ अध्ययन ६ श्लोक २१-२२ टि० ४२-४४ : ४३. श्लोक २१ इस श्लोक का अर्थ दोनों घूर्णिकार एक प्रकार का करते हैं । अनुवाद उन्हीं की व्याख्या के अनुसार किया गया है। टीकाकार का अर्थ इससे भिन्न है । वे बुद्ध का अर्थ जिन नहीं, किन्तु तत्त्व वित् साधु करते हैं। जिनदास ने 'परिग्ग' को क्रिया माना है । टीकाकार ने 'परिग्गहे' को सप्तमी विभक्ति माना है । सर्वत्र का अर्थ वृद्धि में अतीत अनागत-काल और सर्व भूमि किया है। टीकाकार ने सर्वत्र का अभिप्राय उचित क्षेत्र और काल माना है । टीका के अनुसार इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार होता है उचित क्षेत्र और काल में आगमोक्त उपधि सहित, तत्त्वज्ञ मुनि छह जीवनिकाय के संरक्षण के लिए वस्त्र आदि का परिग्रहण होने पर भी उसमें ममत्व नहीं करते । और तो क्या, वे अपने देह पर भी ममत्व नहीं करते । " श्लोक २२ : ४४. संयम के अनुकूल वृत्ति ( लज्जासना वित्ति ) : यह वृत्ति का विशेषण है । लज्जा का अर्थ है संयम । मुनि की वृत्ति - जीविका संयम के अनुरूप या अविरोधी होती है इसलिए उसे " लज्जासमा" कहा गया है" । १ - ठा० ३.३४७ : तिहि ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, तंजहा -हिरिपत्तियं दुर्गुछापत्तित, परीसहवत्तियं । २ - प्रश्न ( संवरद्वार १ ) एयंपि संजमस्स उवग्गणाए वातातवदंस मसगसीय परि रक्खणट्ट्याए उबगरणं रागदोसरहितं परिहरियण्यं ।' ३ -- (क) जि० चू० पृ० २२१ : गणधरा मणगपिया वा एवमाहुः । (च) हा० टी० १० १२२ 'महर्षिणा' गणधरेण मुझे सेभव आहेति । ४ – (क) अ० चू० पृ० १४८ : सन्वत्थ उवधिणा सह सोपकरणा, बुद्रा - जिगा । स्वाभाविकमिदं जिर्णालंयमिति सच्चे वि एग सेण निग्नता परियारश्यस्वे परिग्रहेण मुनिमिते मि मावि भगवंतो मुनी अपरिया पहुं भगवंत करकर धारिण्यति तंमि ? अनि अप्पो दि देहनि गाचरंति मनाइ (ख) जि० चू० पृ० ५६० टी० १० १९९ ६- जि० जि० ० ० २२२ हा० डी० ५० १६६ योगः । ८००० २२१ स भूमि अतीतानागते ६-- हा० टी० प० १६६ : 'सर्वत्र' उचिते क्षेत्रे काले च । २२२ : बुढा' पचावहिदिसवस्तुतस्याः साधवः । संरक्खन परिहों' नाम जमरनिवितं परिमिति । 'संरक्षणपरिग्रह' इति संरक्षणाय जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिप सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति १०- ( क ) अ० चू० पृ० १४८ : लज्जा -संजमो । लज्जासमा संजमाणुविरोहेण । (ख) हा० टी० प० १६६ : लज्जा संयमस्तेन समा सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनोत्यर्थः । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा (महाचारकथा) अध्ययन ६ : श्लोक २२ टि०४५-४६ ४५. ( जा य ): ___ दोनों धूणियों में' 'जा य' (या च) और टीका में 'जाव' (यावत्) पाठ मानकर व्याख्या की है। ४६. एक बार भोजन ( एगभत्त' च भोयणं घ ) : अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'एक-भक्त-भोजन' का अर्थ एक बार खाना अथवा राग-द्वेष रहित भाव से खाना किया है । उक्त वाक्यरचना में यह प्रश्न शेष रहता है कि एक बार कब खाया जाए? इस प्रश्न का समाधान दिवस शब्द का प्रयोग कर जिनदास महतर कर देते हैं । टीकाकार द्रव्य-भाव की योजना के साथ चूर्णिकार के मत का ही समर्थन करते हैं । काल के दो विभाग हैं-दिन और रात । रात्रि-भोजन श्रमण के लिए सर्वथा निषिद्ध है। इसलिये इसे सतत तप कहा गया है। शेष रहा दिवस-भोजन । प्रश्न यह है कि दिवस-भोजन को एक-भक्त-भोजन माना जाए या दिन में एक बार खाने को? धुणिकार और टीकाकार के अभिमत से दिन में एक बार खाना एक-भक्त-भोजन है। आचार्य वट्टकेर ने भी इसका अर्थ यही किया है उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झव्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥ (मूलाचार --मूल गुणाधिकार ३५) 'सूर्य के उदय और अस्त काल की तीन घड़ी छोड़कर या मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना, यह एक-भक्त-मूल मूल-गुण है।' स्कन्दपुराण को भी इसका यही अर्थ मान्य है । महाभारत में वानप्रस्थ भिक्षु को एक बार भिक्षा लेनेबाला और एक बार भोजन करने वाला कहा है । मनुस्मृति और वशिष्ठ स्मृति में भी एक बार के भोजन का उल्लेख मिलता है। उत्तराध्ययन (२७.१२) के अनुसार सामान्यत: एक बार तीसरे पहर में भोजन करने का क्रम रहा है। पर यह विशेष प्रतिज्ञा रखने वाले श्रमणों के लिए था या सबके लिए इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु आगमों के कुछ अन्य स्थलों के अध्ययन से पता चलता है कि यह क्रम सबके लिए या सब स्थितियों में नहीं रहा है। जो निर्ग्रन्थ सूर्योदय से पहले आहार लेकर सूर्योदय के बाद उसे खाता है वह "क्षेत्रातिकान्त पान-भोजन है° । निशीथ (१०.३१-३९) के 'उग्गय वित्तीए' और 'अणथमियमणसंकप्पे' इन दो शब्दों का फलित यह है कि भिक्ष का भोजन-काल सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच का कोई भी काल हो सकता है। यही आशय दशवकालिक के निम्न श्लोक में मिलता है अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्या य अणुग्गए। आहारमइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ॥ (८.२८) १-(क) अ० चू० पृ० १४८ : जा इति वित्ती-उद्देसवयणं चकारी समुच्चये। (ख) जि० चू० पृ० २२२ : 'जा' इति अविसेसिया, चकारो सावखे । २-हा० टी० ५० १६६ : यावल्लज्जासमा। ३- अ० चू० पृ० १४८ : एगवारं भोयणं एगस्स वा राग-दोसरहियस्स भोयणं । ४-जि० चू० पू० २२२ : एगस्स रागदोसरहियस्थ भोअणं अहवा इक्कवारं दिवसओ भोयगंति । ५-हा० टी० ५० १६६ : द्रव्यत एकम् -एकसंख्यानुगतं, भावत एकं कर्मबन्धाभावादद्वितीय, तदिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति ।। ६-दिनार्द्ध समयेऽतीते, भुज्यते नियमेन यत् । एक भक्तमिति प्रोक्तं, रात्रौ तन्न कदाचन ।। ७-महा० शा० २४५.६ : सकृदन्ननिषेविता । ८-म० स्मृ० ६.५५ : एककालं चरेद् भैक्षम् । है-व० स्मृ० ३.१६८ : ब्रह्मचर्योक्तमार्गेण सकृद्भोजनमाचरेत् । १०--भग० ७.१ सू० २१: गोयमा ! जे णं निग्गंथो वा निगंथी वा फासुएसणिज्ज असगं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहित्ता उग्गए सूरिए आहारं आहारेति, एस णं गहणेसणा? खेत्तातिकते पाणभोयणे । Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३१८ अध्ययन ६ :श्लोक २४-२८ टि०४७-५० ____ तात्पर्य यह है कि यदि केवल तीसरे पहर में ही भोजन करने का सार्वदिक विधान होता तो सूर्योदय या सूर्यास्त हुआ है या नहींऐसी विचिकित्सा का प्रसंग ही नहीं आता और न क्षेत्रातिकान्त पान-भोजन' ही होता, पर ऐसी विचिकित्सा की स्थिति का भगवती, निशीथ और बृहत्कल्प में उल्लेख हुआ है। इससे जान पड़ता है कि भिक्षुओं के भोजन का समय प्रातःकाल और सायं-काल भी रहा है। ओनियुक्ति में विशेष स्थिति में प्रात:, मध्याह्न और सायं-इन तीनों समयों में भोजन करने की अनुज्ञा मिलती है । इस प्रकार 'एकभक्त-भोजन' के सामान्यतः एक बार का भोजन और विशेष परिस्थिति में दिवस-भोजन-ये दोनों अर्थ मान्य रहे हैं। ४७. अहो नित्य तपः कर्म ( अहो निच्चं तवोकम्म क ) : जिनदास ने अहो शब्द के तीन अर्थ किए हैं : (१) दीनभाव । (२) विस्मय। (३) आमंत्रण। उनके अनुसार 'अह' शब्द यहाँ विस्मय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । टीकाकार का भी यही अभिमत है। आर्य-शय्यंभव या गणधरों ने इस नित्य-तप: कर्म' पर आश्चर्य अभिव्यक्त किया है। तपः कर्म का अर्थ तप का अनुष्ठान है। श्लोक २४ : ४६. उदक से आई और बीजयुक्त भोजन ( उदउल्लं बीयसंसतं क ): 'उद उल्लं' के द्वारा स्निग्ध आदि (५.१.३३-३४ के) सभी शब्दों का संग्रहण किया जा सकता है। 'बीज' और 'संसक्त' शब्द की व्याख्या संयुक्त और वियुक्त दोनों रूपों में मिलती है। बीज से संसक्त ओदन आदि-यह संयुक्त व्याख्या है । 'बीज' और 'संसक्त'-किसी सजीव वस्तु से मिला हुआ कांजी आदि —यह इसकी वियुक्त व्याख्या है। ४६. ( महि ख ): यहाँ सप्तमी के स्थान में द्वितीया विभक्ति है। श्लोक २८ : ५०. ( एयं): टीकाकार ने 'एयं' का संस्कृत रूप 'एतत्' (५.१.११), 'एनं'६ (५.२.४६), 'एतं'१० (६.२५) और 'एवं'१ (६.२८) किया है। १-- ओ०नि० गा०२५० भाष्य गा०१४८.१४६ । २-जि० चू० पृ० २२२ : अहो सट्टो तिसु अत्थेसु वट्टइ, तं जहा–दीणभावे विम्हए आमंतणे, तत्थ दीणभावे जहा अहो अहमिति, जहा विम्हए अहो सोहणं एवमादी, आमंतणे जहा आगच्छ अहो देवदत्तात्ति एवमादि, एत्थ पुण अहो सद्दो विम्हए दृढव्वो। ३-हा० टी० ५० १६६ : अहो विस्मये। ४- अ० चू० पृ० १४८ : अज्जसेज्जभवो गणहरा वा एवमाहंसु-अहो निच्चं तवोकम्मं । ५-(क) अ० चू० पृ० १४८ : 'तबोकम्म' तवोकरणं । (ख) जि० चू० पृ० २२२ : णिच्चं नाम निययं, 'तबोकम्म' तवो कीरमाणो । (ग) हा० टी० पृ० १६६ : नित्यं नामायाणभावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवं प्रतिपात्येव तपःकर्म-तपोऽनुष्ठानम् । ६ हा० टी०प० २०० : उदकाई पूर्ववदेकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः। ७-हा० टी०प० २०० : 'बीजसंसक्तं' बीजैः संसक्तं-मिश्रम्, ओदनादीति गम्यते, अथवा बीजानि पृथगभूतान्येव, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति। ८-हा० टी० ५० १६५ : 'तम्हा' एअं विआणित्ता-तस्मादेतत् विज्ञाय । ६-हा० टी०प० १६० : एअंच दोसं दळूणं -एनं च दोषम् --अनन्तरोदितम् । १०-हा० टी० प० २०० : एअं च दोसं ठूणं – 'एतं च' अनन्तरोदितम् । ११-हा० टी० प० २०० : तम्हा एअं वियाणित्ता-तस्मादेवं विज्ञाय । Jain Education Intemational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ३१६ अध्ययन ६ : श्लोक ३२ टि० ५१-५४ यद्यपि इसके संस्कृत रूप ये सभी बन सकते हैं फिर भी अर्थ की दृष्टि से यहाँ 'एवं' की अपेक्षा 'एतं' अधिक संगत है। यह 'दोष' शब्द का विशेषण है। ५१. समारम्भ ( समारंभंग ): समारंभ का अर्थ आलेखन आदि किया है । आलेखन आदि की जानकारी के लिए देखिए टिप्पणी सं० ७२-७३ (४.१८) । श्लोक ३२: ५२. जाततेज (जायतेयं ख): जो जन्म-काल से ही तेजस्वी हो वह 'जाततेज' कहलाता है । सूर्य 'जाततेज' नहीं होता। वह उदय-काल में शान्त और मध्याह्न में तीव्र होता है । स्वर्ण परिकर्म से तेजस्वी बनता है इसलिए वह 'जाततेज' नहीं कहलाता । जो परिकर्म के बिना उत्पत्ति के साथ-साथ ही तेजस्वी हो उसे 'जाततेज' कहा जाता है । अग्नि उत्पत्ति के साथ ही तेजस्वी होती है। इसीलिए उसे 'जाततेज' कहा गया है । ५३. अग्नि ( पावगं ख ): ____ लौकिक मान्यता के अनुसार जो हुत किया जाता है वह देवताओं के पास पहुँच जाता है इसलिए वह 'पावग' (प्रापक) कहलाता है । जैन दृष्टि के अनुसार पावक' का कोई विशेष अर्थ नहीं है। जो जलाता है वह 'पावक' है। यह अग्नि का पर्यायवाची नाम है और 'जाततेज' इसका विशेषण है । टीकाकार के अनुसार पावग' का संस्कृत रूप 'पाप' और उसका अर्थ अशुभ है। वे 'जाततेज' को अग्नि का पर्यायवाची नाम और 'पापक' को उसका विशेषण मानते हैं । ५४. दूसरे शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र ( तिक्खमन्नयरं सत्यं ग ) : जिससे शासन किया जाए उसे शस्त्र कहते हैं। कुछेक शस्त्र एक धार, दो धार, तीन धार, चार धार और पांच धार वाले होते हैं, किन्तु अग्नि सर्वतोधार-सब तरफ से धार वाला शस्त्र है । एक धार वाले परशु, दो धार वाले शलाका या एक प्रकार का बाण, तीन धार बाली तलवार, चार धार वाले चतुष्कर्ण और पाँच धार वाले अजानुफल होते हैं। इन सब शस्त्रों में अग्नि जैसा कोई तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है। अगस्त्य घृणि के अनुसार 'तिक्खमन्नयरा सत्था' ऐसा पाठ होना चाहिए। इससे व्याख्या में भी बड़ी सरलता होती है । 'तिक्खमन्नयरा सत्था' अर्थात् अन्यतर शस्त्रों से तीक्ष्ण । १-हा० टी०प० २०० : समारम्भमालेखनादिः । २-अ० चू० पृ० १५० : जात एव जम्मकाल एव तेजस्वी, ण तहा आदिच्चो उदये सोमो मज्झे तिव्यो। ३–जि० चू०प० २२४ : जायतेजो जायते तेजमुप्पत्तीसमकमेव जस्स सो जायतेयो भवति, जहा सुवण्णादीणं परिकम्मणाविसेसेण तेयाभिसंबंधो भवति, ण तहा जायतेयस्स । ४- (क) अ० चू० पृ० १५० : पावगं हवं, सुराणं पावयतीति पावक:-एवं लोइया भणति । वयं पुण अविसेसेण 'डहण' इति पावकः तं पावकम् । (ख) जि० चू० पृ० २२४ : लोइयाणं पुण जं हूयइ तं देवसगास (पावइ) अओ पावगो भण्णइ । ५-हा० टी०प० २०१ : जाततेजा-अग्निः तं जाततेजस नेच्छन्ति मनःप्रभृतिभिरपि 'पापक' पाप एव पापकस्तं, प्रभूतसत्त्वा पकारित्वेनाशुभम्। ६-(क) अ० चू० पृ० १५० : 'तं सत्थं एकधारं ईलिमादि, दुधारं करणयो, तिधार तरवारी, चउधारं चउक्कण्णओ, सव्वओ धारं गहण विरहितं चक्कं अग्गी समंततो सव्वतोधारं, एवमण्णतरातो सत्थातो तिक्खयाए सव्वतोधारता' । (ख) जि० चू० पृ० २२४ : सासिज्जइ जेण तं सत्थं, किचि एगधार, दुधार, तिधारं, चउधार, पंचधारं, सव्वतोधारं नत्थि मोत्तुमगणिमेगं, तत्थ एगधारं परसु, दुधार कणयो, तिधार असि, चउधारं तिपडतो कणीयो, पंचधारं अजानुफलं, सव्वओ धारं अग्गी, एतेहिं एगधारदुधारतिधारचउधारपंचधारेहि सत्थेहि अण्णं नत्थि सत्यं अगणिसत्थाओ तिक्खतरमिति। Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) ३२० अध्ययन ६ : श्लोक ३३-३४ टि० ५५-५६ तिवमन्नयरं सत्यं' पाठ मानकर जो व्याख्या हुई है वह कुछ जटिल बन पड़ी है--तिक्वमन्नयरं सत्थं' अर्थात् अन्यतर शस्त्रसबसे तीक्ष्ण शस्त्र अथवा सर्वतोधार शस्त्र ! अन्यतर का अर्थ प्रधान है। ५५. सब ओर से दुराश्रय है ( सव्यओ वि दुरासयं घ ) : अग्नि सर्वतोधार है इसीलिए उसे सर्वतो दुराश्रय कहा गया है । इसे अपने आश्रित करना दुष्कर है। इसकी दुराश्रयता का वर्णन ३३वे श्लोक में है। श्लोक ३३ : ५६. विदिशाओं में ( अणुदिसां ख ) : एक दिग से दूसरी दिग के अन्तरित आकाश को अनुदिशा या विदिशा कहते हैं । यहाँ सप्तमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। श्लोक ३४ : ५७. अग्नि ( हव्ववाहो ख ) : 'हव्यवाह' अग्नि का पर्यायवाची नाम है। लौकिक मान्यता के अनुसार देव-तृप्ति के लिए जो घृत आदि हव्य-द्रव्यों का वहन करे वह 'हव्यवाह' कहलाता है। खुणिकार ने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जो जीवित प्राणियों के जीवन का 'वह' (संस्कृत में वध) करता है और मूर्तिमान अजीव द्रव्यों के विनाश का वहन करता है उसे 'हव्ववाह' कहा जाता है । ५८. आघात है ( एसमाघाओ क ): यहाँ मकार अलाक्षणिक है । उपचार दृष्टि से आघात का हेतु भी आघात कहलाता है । ५९. प्रकाश और ताप के लिए ( पईवपयावठा ग ) : अग्नि-समारम्भ के दो प्रयोजन बतलाए गए हैं -प्रदीप और प्रताप । अंधकार में प्रकाश के लिए अग्नि का प्रदीपन किया जाता है-.दीप आदि जलाये जाते हैं। हिमाल में तथा वर्षाकाल में लोग अग्नि-ताप लेते हैं। अग्नि-ताप में वस्त्रों को सुखाते हैं और ओदन आदि पकाते हैं । इन दोनों प्रयोजनों में अन्य गौण प्रयोजन स्वयं समा जाते हैं। १-हा०टी०प०२०१: 'तीक्ष्णं' छेदकरणात्मकम् 'अन्यतरत् शस्त्रं' सर्वशस्त्रम्, एकधारादिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्प मिति भावः । २-अ० चू० पृ० १५० : अण्णतराओत्ति पधाणाओ। ३-(क) जि० चू०प० २२४ : सवओवि दुरासयं नाम एतं सत्थं सव्वतोधारतणेण दुक्खमाश्रयत इति दुराश्रयं । (ख) हा० टी०प० २०१: सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमिति । ४---अ० चू० पृ० १५० : 'अणुदिसाओं-- अंतरदिसाओ। ५. हा० टी०प० २०१ : 'सुपां सुपो भवन्ती' ति सप्तम्यर्थे षष्ठी। ६ -(क) अ० चू० पु० १५० : हव्वाणि डहणीयाणि बहेति विद्धसयति एवं हव्ववाहो, लोगे पुण हव्वं देवाण वहति हव्यवाही। (ख) जि० चू०प० २२५: हव्वं वहतीति हव्ववाहो, तत्थ लोगसिद्ध ते हव्वं देवाणं अहावरं दिव्वा तिप्पंतीति, वहतीति वाहो, वहति णाम णेति, हव्वं नाम जंहूयते घयादि तं हव्वं भण्णइ, अम्हं पुण जम्हा हव्वाणि जीवाणं जीवियाणि वधति अजीबदम्बाण य मुत्तिमंताणं विणासं बहतीति हव्ववाहो। (ग) हा० टी० ५० २०१ : 'हव्यवाह' अग्निः । ७-(क) जि० चू० पृ० २२५ : तेसि भूताणं आपादे आघातो णाम जावंतो भूता अगणिसगासमल्लियंते ते सव्वे घातयतीति आघातो। (ख) हा० टी०प० २०१: एष 'आघात' हेतुत्वादाघातः। ८-(क) जि० चू०प० २२५ : तत्थ पदीवनिमित्तं जहा अंधकारे पगासत्थं पदीवो कीरई, पयावणनिमित्त हिमागमे वरिसासू वा ___अप्पाणं तावंति, वत्थाणि वा ओदणादीणि वा पयावंति । (ख) हा० टी० प० २०१: 'प्रदीपप्रतापनार्थम्' आलोकशीतापनोदार्थम्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा (महाचारकथा) ३२१ अध्ययन ६ : श्लोक ३६,३८,४६ टि०६०-६४ श्लोक ३६ : ६०. अग्नि-समारम्भ के तुल्य ( तारिसं ख ) : इसके पूर्ववर्ती श्लोकों में अग्निकाय के समारम्भ का वर्णन किया गया है । यहाँ 'तारिसं' शब्द के द्वारा 'अनिल समारम्भ' की 'अग्नि समारम्भ' से तुलना की गई है। ६१. ( सावज्जबहुलं "): जिसमें बहुल (प्रचुर) सावध हो वह सावद्य-बहुल होता है । जो अव द्य साहित होता है उसे सावद्य कहते हैं। अवद्य, वैर और पर-ये एकार्थक हैं। ६२. (च ): अगस्त्यसिंह ने 'चकार' को हेतु के अर्थ में और जिनदास ने पाद-पूर्ति के अर्थ में माना है। श्लोक ३८ : ६३. उदीरणा ( उईरंति ग ) : इसका अर्थ है-प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न करना-प्रेरित करना । श्लोक ४६: ६४. श्लोक ४६ : ४५वें श्लोक तक मूलगुणों (व्रत-षट्क और काय-षट्क) की व्याख्या है। इस श्लोक से उत्तरगुणों की व्याख्या प्रारम्भ होती है। प्रस्तुत अध्ययन में उत्तरगुण छह (अकल्प-वर्जन, गृहि-भाजन-वर्जन, पर्यंक-वर्जन, गृहान्तर-निषद्या-वर्जन, स्नान-वर्जन और विभूषा-वर्जन) बतलाए हैं। वे मूलगुणों के संरक्षण के लिए हैं, जैसे—पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए २५(प्रत्येक की पांच-पाँच) भावनाएँ होती हैं, वैसे ही व्रत और काय-षट्क की रक्षा के लिए ये छह स्थान हैं। जिस प्रकार भीत और किवाडयुक्त गृह के लिए भी प्रदीप और जागरण रक्षा-हेतु होते हैं, वैसे ही पंचमहाव्रतयुक्त साधु के लिये भी ये उत्तरगुण महाव्रतों के अनुपालन के हेतु होते हैं। उनमें पहला उत्तरगुण 'अकल्प' है । १-(क) अ० चू० पृ० १५१ : 'तारिसं' अग्गिसमारभसरिसं । (ख) हा० टी० प० २०१ : 'तादृशं' जाततेजःसमारंभसदृशम् । २-(क) अ० चू० पृ० १५१ : सावज्ज बहुलं जम्मि तं सावज्जबहुलं । (ख) हा० टी० प० २०१ : 'सावद्यबहुलं' पापभूयिष्ठम् । ३-जि० चू० पृ २२५ : सह वज्जेण सावज्ज, वज्जं नाम वज्जति वेरंति वा परंति वा एगट्टा, बहुलं नाम सावज्जदोसाययणं । ४- अ० चू० पृ० १५१ : चकारो हेतौ। ५ जि० चू० पृ० २२५ : चकारः पादपूरणे। ६-जि० चू० पृ० २२६ : कायछक्कं गतं, गया य मूलगुणा, इदाणि उत्तरगुणा, अकप्पादिणि छट्ठाणाणि, ताणि मूलगुणसारक्खय भूताणि, तं ताव जहा पंचमहन्वयाणं रक्खणनिमित्तं पत्तेयं पंच पंच भावणाओ तह अकप्पादिणि छठ्ठाणाणि वयकायाणं रक्खणत्थं भणियाणि, जहा वा गिहस्स कुड्डकवाडजुत्तस्सवि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवन्ति तह पंचमहन्वयजुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणरथं इमे उत्तरगुणा भवन्ति, तत्थ पढमं उत्तरगुणो अकप्पो। Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक) ३२२ अध्ययन ६ : श्लोक ४७ टि० ६५-६८ ६५. अकल्पनीय ( अभोज्जाइंक ) : यहाँ अभोज्य (अभोग्य) का अर्थ अकलनीय है। जो भक्त-पान, शय्या, वस्त्र और पात्र साधु के लिए अग्राह्य हो---विधि-सम्मत न हो, संयम का अपकारी हो उसे अकल्पनीय कहा जाता है। ६६. ( इसिणाख): चूर्णिद्वय के अनुसार यह तृतीया का एक वचन है और टीकाकार ने इसे पाठी का बहुवचन माना है। ६७. ( आहारमाईणि ख ) : यहाँ मकार अलाक्षणिक है। आदि शब्द के द्वारा शय्या, वस्त्र और पात्र का ग्रहण किया गया है । श्लोक ४७: ६८. अकल्पनीय ..की इच्छा न करे ( अकप्पियं न इच्छेज्जा" ) : _ अकल्प दो प्रकार के होते हैं...शैक्ष-स्थापना अकल्प और अकल्प-स्थापना अकल्प । शैक्ष (जो कल्प, अकल्प न जानता हो) द्वारा आनीत या याचित आहार, वसति और वस्त्र ग्रहण करना, वर्षाकाल में किसी को पत्र जत करना या ऋतुबद्ध काल (वर्षाकाल के अतिरिक्त काल) में अयोग्य को प्रबजित करना शैक्ष-स्थापना अकल्प' कहलाता है । जिनदास महत्तर के अनुसार जिसने हिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो उसका लाया हुआ भक्त-पान, जिसने शय्या (आयारचूला २) का अध्ययन न किया हो उसके द्वारा याचित दसति और जिसने वस्त्रषणा (आयारचूला ५) का अध्ययन न किया हो उसके द्वारा आनीत वस्त्र, वर्षाकाल में किसी को प्रवजित करना और ऋतुबद्ध-काल में अयोग्य को प्रबजित करना शैक्ष स्थापना आल्प' कहलाता है । जिसने पावणा (आयार चूला ६) का अध्यपन न किया हो उसके द्वारा आनीत पात्र भी 'शक्ष-स्थापना अकल्प' है । अकल्पनीय पिण्ड आदि को 'अकला-स्थानना-प्रकल्प' कहा जाता है। यहां यही प्रस्तत a . १---(क) अ० चू० १० १५२ : 'अभोज्जाणि' अकप्पिताणि। (ख) जि० चू० पृ० २२७ : 'अभोज्जाणि' अकप्पियाणि । (ग) हा० टी०५० २०३ : 'अभोज्यानि' संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि । २-(क) अ० चू० पृ० १५२ : 'इसिणा' साधुणा। (ख) जि० चू० पृ० २२७ : 'इसिणा' णाम साधुणा । ३-हा० टी० प० २०३ : 'ऋषीणां' साधूनाम् । ४-- (क) अ० चू० पृ० १५२ : आहारो आदी जेसि ताणि आहारादीणि । (ख) जि० चू०प० २२७ : आहारो आई जेसि ताणि आहारमादीणि ताणि अभोज्जाणि । (ग) हा० टी०प० २०३ : आहारशय्यावस्त्रपात्राणि। ५- अ० चू० पृ० १५२ : पढमोत्तरगुणो अकप्पो । सो दुबिहो, तं-सेहठवगाकप्पो अकप्पट्ठवणाकप्पोय। पिंडसेज्जवत्थपत्ताणि ___अप्पप्पणो अकप्पितेण उप्पाइयाणि ण कप्पति, वासासु सध्ने ण पब्वाविजंति, उडुबद्ध अणला । अकप्पठवणाकप्पो इमो।। ६---जि० चू० पृ० २२६ : तत्थ सेहट्ठवणाकप्पो नाम जेण पिण्डणिज्जुत्ती ण सुता तेसु आणियं न कप्पड़ भोत्तुं, जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पइ, जेण वत्वेसणा ण सुया तेण वत्थं, उहुनद्ध अणला ण पवाविज्जति, वासासु सम्वेऽवि। ७-हा० टी०प० २०३ : अणहीआ खलु जेणं पिडेसणसेज्जवस्थपाएसा । तेणाणियाणि जतिणो कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥१॥ उउबद्ध मि न अणला वासावासे उ दोऽवि णो सेहा । दिक्खिज्जती पार्य ठवणाकप्पो इमो होइ ॥२॥ ८-हा०टी०प०२०३ : अकल्पस्थापनाकल्पमाह--'जाई' ति सूत्रम् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ७०. कुंडलोद ( कुंडमोस ) ): ६६. कांसे के प्याले ( कंसेसुक ) : स्वरि कांसे से बने हुए बर्तन को कंस' (कांस्य) कहते हैं। अगर प्याले या क्रीडायान के बर्तन को 'कंस' माना है'। जिनदास महत्तर थाल या खोरक गोलाकार बर्तन को 'कंस' मानते हैं। टीकाकार के अनुसार कटोरा आदि 'कंस' कहलाता है । कंस गगरी जैसा पात्र विशेष है । कुछ लोग इसे फूल या कांसे का पात्र समझते हैं। यूनानियों का ध्यान इसकी ओर गया था। उन्होंने लिखा है कि वह गिरते ही मिट्टी के पात्र की तरह टूट जाता था । अगस्त्यभूमि के अनुसार कच्छ आदि देशों में प्रचलित कुंड़े के आकार वाला कांसे का भाजन 'कुंडमोद' कहलाता है । जिनदास रिंग ने हाथी के पाँव के आकार वाले बर्तन को 'कुंडमोद' माना है। टीकाकार ने हाथी के पाँव के आकार वाले मिट्टी आदि के भाजन को 'कुंडमोद' कहा है। पुलिस में 'कुंडमोस' के स्थान में 'कॉक' पाठान्सर का उल्लेख है 'कोड' का अर्थ पात्र अथवा मिट्टी का पात्र' और 'कोस' का अर्थ शराव सकोरा " किया गया है। पीने का ७२. सवित जल ( सीओदग क ) ): यहां शीत का अर्थ सति' ७१. (पुणो ख ) : दोनों पूर्णिकारों के अनुसार 'पुनः' शब्द विशेषण' के अर्थ में है और इसके द्वारा सोने, चांदी आदि के बर्तन सूचित किए गए है। श्लोक ५१ ग ७३. ( धन्नंति " ) : १०० २००० २२० ३ हा० टी० प० २०३ फंसे षि के अनुसार यह धातु हम टीकाकार ने 'छिपति' पाठ मानकर उसके लिए संस्कृत धातु 'क्षिपन प्रेरणे' का प्रयोग किया है" । ३२३ श्लोक ५० : विहारो कां ते बट्टगातिसुतापा = - अ० चू० पृ० १५३ : १०० ५० १५३ जि० अध्ययन ६ इलोक ५०-५१ टि० ६९-७३ 993 १३ (क) १०० १० १५३ (ख) जि० ० पृ० २२८ ४ पा० भा० पृ० १४८ । ५०० पृ० १५३ कुंडाकुंडानेव महंत ६ जि० ० ० २२७ कुंडोपो नाम हत्यपदामितीसडियं कुंडमोपं । ७हा० ० ० २०३ कुंडमोदे हस्तिपादाकारेषु मृग्मयादिषु । 'जे पढत कोंडकोसेसु वा' तत्थ 'कोंडगं' तिलपोलणगं । । जणामि, साथि पुर्ण वातापि या खोरगाणि वा ते कंसेति । कटकादिषु । अन्ने पुर्ण एवं पति 'कोसेवा पुगों तत्थ कुण्डं पुढविमनं भवति । १० -- ( क ) अ० चू० पृ० १५३ : 'कोसे' सरावाती । (ख) जि० चू० पृ० २२७ : कोसग्गहणेण सरावादीणि गहियाणि । ११- अ० चू० पृ० १५३ : पुणा इति विसेसणो, रुप्पतलिकातिसु वा । (ख) जि० चू० पृ० २२७ : पुणो सद्दो विसेसणे वट्टति, कि विसेसयति ?, जहा अन्नेसु सुवन्नादिभायणे सुत्ति । १२ (क) जि० चू० पू० २२८ : सीतग्गहणेण सचेयणस्स उदगस्स गहणं कथं । (ख) हा० टी० प० २०४ : 'शीतोदक.......' सचेतनोदकेन । १४ - हा० टी० प० २०४ : ' क्षिप्यन्ते' हिंस्यन्ते । न्नति णु हिंसायामिति हिंसन्जति । सदो हिसाए बट्ट । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ३२४ ७४. तीर्थङ्करों ने वहाँ असंयम देखा है ( दिट्ठो तत्थ असंजमो गृहस्थ के भाजन में भोजन करने से छहों प्रकार के जीवों की विराधना संभव है । क्योंकि जब गृहस्थ उस भाजन को सचित्त जल से धोता है तब अकाय की और धोए हुए जल को फेंकने से पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति तथा त्रसकाय की विराधना होती है । उस पानी को अविधि से फेंकने से वायुकाय की विराधना होती है । यह असंयम है' । श्लोक ५२ ७६. (एम): यहाँ मकार अलाक्षणिक हैं । घ ख ७५. संभावना ( सिया ) : जिनदास ने 'सिया' शब्द को आशंका के अर्थ में और हरिभद्र ने 'कदाचित्' के अर्थ में माना है । ): अध्ययन ६ : श्लोक ५२-५४ टि० ७४-७८ इलोक ५३ : ७७. आसालक ( अवष्टम्भ सहित आसन ) ( आसालएसुख ) : अवष्टम्भ वाला ( जिसके पीछे सहारा हो वैसा ) आसन 'आसालक' कहलाता है । चूर्णि और टीका के अनुसार 'मंचमासालएसु वा ' इस चरण में दूसरा शब्द 'आसालय' है और अंगविज्जा के अनुसार यह 'मासालग' है' | 'मंचमासालय' में मकार अलाक्षणिक है - इसकी चर्चा और टीका में नहीं है। श्लोक ५४ : ७८. श्लोक ५४ : पिछले श्लोक में आसन्दी आदि पर बैठने और सोने का सामान्यतः निषेध है । यह अपवाद सूत्र है । इसमें आसन्दी आदि का प्रतिलेखन किए बिना प्रयोग करने का निषेध है। जिनदास महत्तर और टीकाकार के अनुसार राजकुल आदि विशिष्ट स्थानों में धर्म-कथा के समय आसन्दी आदि का प्रतिलेखन-पूर्वक प्रयोग करना विहित है । अगस्त्य चूर्णि के अनुसार यह श्लोक कुछ परम्पराओं में नहीं है । १- जि० चू० पृ० २२८ : अणिद्दिट्ठस्स असंजमस्स गहणं कथं, सो य इमो जेण आउक्काएण धोव्वंति सो आउक्काओ विराहिओ भवति, कदापि पूयरगादिवि तसा होज्जा, धोवित्ता य जत्थ छड्डिज्जति तत्थ पुढविआउतेउहरियतसविराहणा वा होज्जा, बावका अति व अनयणाए वा इडिजमाणे वाउक्काओ बिराहिन्जइ एवं छम्ह पुढविमाईणं विराहणा भवति, एसो असंमोतिगरेहि बिडो २ (क) जि० चू० पृ० २२८ : सियासहो आसंकाए वट्टइ | (ख) हा० टी० प० २०४ : स्यात् -- तत्र कदाचित् । (क) अ० चू० पृ० १५४ 'आसालओ' - सावट्ठ' भमासणं । (ख) जि० चू० पृ० २२८ : आसालओ नाम ससावंगम (सावट्ठ भं) आसणं । (ग) हा० टी० प० ४०४ : आशालकस्तु अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः । ४ (क) पृ० ५२ व फल वा मंच मंचमा सालने वा (ख) वही पृ० ६५ मसालो मंचको वत्ति पहलको पहिलेको ...।।१७२ ।। ५ (क)००० २२६ जया पुण कारणं भव तदा निगगंधा पहिलेहान्त (एति) धम्मसहाराकुलादिमु पहिलेहेऊन निसीयणादीणि कुति पडिलेहाए नाम चक्षा पडिले सयणादीनि कुवंति। (ख) हा० टी० प० २०४ : इह चाप्रत्युपेक्षितासन्यादौ निषीदनादिनिषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादिषु प्रत्युपेक्षितेषु निषीदनादिविधिमाह, विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति । " ६- २० ० पृ० १५४ सन्दीप एक सिलोगो चित्र अस्थि जेसिबि सि तिष्यतयस पत्तिए, अहवा तस्स जयणा एसा । जेण पढति ते सामण्णमेव जयगोवदेस मंगीकरेंति, जला कारणं तदा पडिलेहणाए, ण अपडिलेहिय । " ॥२४॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ३२५ अध्ययन ६ : श्लोक ५५-५७ टि० ७६-८४ ७६. आसन ( निसेज्जा ख ): ___एक या अनेक वस्त्रों से बना हुआ आसन' । ८०. पीढ़े का ( पीढए ख ): जिनदास महत्तर के अनुसार 'पीढा' पलाल का और टीका के अनुसार बेंत आदि का होता है। ८१. ( बुद्धवुत्तमहिट्ठगा ५ ) : यहाँ मकार अलाक्षणिक है। श्लोक ५५: ८२. गंभोर-छिद्र वाले ( गंभोरविजया क ): गंभीर का अर्थ अप्रकाश और विजय का अर्थ विभाग है। जिनका विभाग अप्रकाशकर होता है वे गंभीरविजय' कहलाते हैं । जिनदास चूणि में मार्गण, पृथक्करण, विवेचन और विचय को एकार्थक माना है । टीकाकार ने 'विजय' की छाया विजय और उसका अर्थ आश्रय किया है। जिनदास धूणि में 'वैकल्पिक' रूप में 'विजय' का अर्थ आथय किया है। इनके अनुमार गंभीरविजय' का अर्थ 'प्रकाश-रहित आश्रय वाला' है । हमने 'विजय' की संस्कृत-छाया 'विचय' की है । अभयदेवसूरि ने भी इसकी छाया यही की है। श्लोक ५६ : ८३. अबोधि-कारक अनाचार को ( अबोहियं घ ) अगस्त्य धुणि और टीका में अबोधिक का अर्थ --- अबोधिकारकर या जिसका फल मिथ्यात्व हो वह किया है । जिनदास चूर्णि में इसका अर्थ केवल मिथ्यात्व किया है। श्लोक ५७: ८४. श्लोक ५७ धुणिद्वय में गृहस्थ के घर बैठने से होने वाले ब्रह्मचर्य-नाश आदि के कारणों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है : स्त्री को बार-बार देखने से और उसके साथ बातचीत करने से ब्रह्मचर्य का विनाश होता है१२ । १- (क) जि० चू० पृ० २२६ : 'निसिज्जा' नाम एगे कप्पो अगेगा या कप्पा । (ख) हा० टी० ५० २०४ : निषद्यायाम् एकादिकल्परूपायाम् । २-जि० चू० पु० २२६ : 'पीढगं'–पलालपीठगादि। ३ हा० टी०प० २०४ : 'पीठके'--वेत्रमयादौ । ४-अ० चू० ५० १५४ : गंभीरं अप्पगास, विजयो--विभागो। गंभीरो जेसि ते गंभीरविजया । ५-जि. चू० पृ० २२६ : गंभीरं अप्पगासं भष्णइ, विजओ नाम गम्गणंति वा पियुकरणंति वा विवेयणति वा विजओत्ति वा एगट्ठा। ६ हा० टी०प० २०४ : गम्भीरम् – अप्रकाशं विजय-आश्रयः अप्रकाशापया एते' । ७-जि० चू० पृ० २२६ : अहया विजओ उवस्सओ भण्णइ, जम्हा तेसि पाणाणं गंभीरो उबस्सो तओ दुचिसोधगा। .भग० २५.७ वृ० : आणाविजए - आज्ञा-जिनप्रवचनं तस्याविचयो निर्णयो यत्र तवाशाविचयं प्राकृतत्वाच्च आणाविजयेत्ति । ६-अ० चू. पृ १५४ : अबोहिकारि अबोहिकं । १० हा० टी० प० २०५ : 'अबोधिक' मिथ्यात्वफलम् । ११--जि० चू० पृ० २२६ : 'अबोहियं' नाम मिच्छत्तं । १२-जि० चू० पृ० २२६ : कहं बंभचेरस्स विवत्ती होज्जा ?, अवरोप्परओसभासअन्नोऽन्नदसणादीहि बंभचेरविवत्ती भवति । Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३२६ अध्ययन ६ : श्लोक ५८ टि०८५-८६ ___ कोई वधक तीतर बेचने के लिए आया । गृहस्वामिनी मुनि के सामने लेने में सकुचाती है । वह वस्त्र मरोड़ने के व्याज से उसकी गर्दन तोड़ देने का संकेत जताती है और वह उस तीतर को असमय में ही मार डालता है--इस प्रकार अवधकाल में प्राणियों का वध होता है। टीका में 'पाणाणं च वहे वहां' ऐसा पाठ व्याख्यात है । इसका अर्थ है-गोचराग्र प्रविष्ट मुनि गृहस्थ के घर बैठता है तब उसके लिए भक्त-पान बनाया जाता है --इस प्रकार प्राणियों का वध होता है। भिक्षाचर घर पर मांगने जाते हैं। स्त्री सोचती है कि साधु से बात करते समय बीच में उठ इन्हें भिक्षा कैसे दूँ ? साधु को बुरा लगेगा, यह सोच वह उनकी ओर ध्यान नहीं देती। इससे भिक्षाचरों के अन्तराय होता है और वे साधु का अवर्णवाद बोलते हैं। स्त्री जब साधु से बातचीत करती है तब उसका पति, ससुर या बेटा सोचने लगता है कि यह साधु के साथ अनुचित बातें करती है । हम भूखे-प्यासे हैं, हमारी तरफ ध्यान नहीं देती और प्रतिदिन का काम भी नहीं करती । इस तरह घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है। श्लोक ५८ : ८५. ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है ( अगुत्ती बंभचेरस्स क ) स्त्री के अङ्ग-प्रत्यङ्गों पर दृष्टि गड़ाए रखने से और उसकी मनोज्ञ इन्द्रियों को निरखते रहने से ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है। ८६. स्त्री के प्रति भी शंका उत्पन्न होती है (इत्थीओ यावि संकणं ख ) : स्त्री के प्रफुल्ल वदन और कटाक्ष को देखकर लोग सन्देह करने लगते हैं कि यह स्त्री इस मुनि को चाहती है और वैसे ही मुनि के प्रति भी लोग सन्देह करने लगते हैं । इस तरह स्त्री और मुनि दोनों के प्रति लोग सन्देहशील बनते हैं । १-(क) अ० चू० पृ० १५५ : अबधे वधो-अवहत्याणे ओरतो । कहं ? अविरतियाए सहालवेंतस्स जीवंते तित्तिरए विक्केणुए उवणीए, कहं जीवंतमेतस्स पुरतो गेल्लामि त्ति वत्थद्धंतवलणसन्नाए गोवं वलावेति, एवं अवहे वधो संभवति । (ख) जि० चू० पृ० २२६-३० : पाणाण अवघे वहो भवति, तत्थ पाणा णाम सत्ता, तेसि अवधे वधो भवेज्जा, कहं ? सो तत्थ उल्लावं करेइ, तत्थ य तित्तिरओ...सो चितेति-कहमेतस्स अग्गओ जीवंतं गेण्हिस्सामि, ताहे ताए सण्णा कया, दसिया बलिया, आगलियं, सेवि जा गिण्हामि ताहे मारिज्जेज्जा, एवं पाणाण अवधे वधो भवति । २-हा० टी०प० २०५ : प्राणिनां च वधे वधो भवति, तथा संबन्धादाबाकर्मादिकरणेन । ३-जि० चू० पृ० २३० : तत्थ य बहवे भिक्खायरा एंति, सा चितेति -कहभेतस्स सगासाओ उठेहामित्ति अपत्तियं से भविस्सति, ताहे ते अतित्थाविज्जंति, तत्थ अंतराइयदोसो भवति, ते तस्स अवणं भासंति । ४-जि० चू०पू० २३० : समंता कोहो पडिकोहो, समंता नाम सम्वत्तो, तकारडकारलकाराणाभेगत्तमितिका पडिकोहो पढिज्जइ, सो य पडिकोधो इमेण पगारेण भवति ....जे तीए पतिससुरपुत्तादी ते अपडिगणिज्जमाणा मण्णेज्जा-एसा एतेण समणएण पंसुलाए कहाए अक्खित्ता अम्हे आगच्छमाणे वा भुक्खियतिसिए वा णाभिजाणइ, न वा अप्पणो णिच्चकरणिज्जाणि अणुढेइ, अतो पडिकोधो अगारिणं भवइ । ५-जि० चू० पृ० २३० : इत्थीणं अंगपच्चंगेसु दिदुनिवेसमाणस्स ईदियाणि मणुन्नाणि निरिवखंतस्स बंभवतं अगुत्तं भवइ । ६-जि० चू० पृ० २३० : इत्थी वा पप्फुल्लक्यणा कडक्खविक्खित्तलोयणा संकिजेज्जा, जहा एसा एवं कामयति, चकारेण तथा सुभणियसुरूवादीगुह उववेतं संकेज्जा। Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा (महाचारकथा) ३२७ अध्ययन ६ : श्लोक ५६-६१ टि० ८७-६० श्लोक ५६ : ८७. श्लोक ५६ : पूणि और टीका के अनुसार अतिजराग्रस्त, अतिरोगी और घोर तपस्वी भिक्षा लेने के लिए नहीं जाते किन्तु जो असहाय होते हैं, जो स्वयं भिक्षा कर लाया हुआ खाने का अभिग्रह रखते हैं या जो साधारण तप करते हैं, वे भिक्षा के लिए जाते हैं। गृहस्थ के घर में स्वल्पकालीन विश्राम लेने का अपवाद इन्हीं के लिए है और वह भी ब्रह्मचर्य-विपत्ति आदि दोषों का सम्भव न हो, उस स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है। श्लोक ६० : ८८. आचार ( आयारो ग ) : इस श्लोक में आचार और संयम--ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं। 'आचार' का तात्पर्य कायक्लेश आदि बाह्य तप और 'संयम' का तात्पर्य अहिंसा-प्राणि-रक्षा है। ८६. परित्यक्त ( जतो घ): _ 'जढ' का अर्थ है परित्यक्त । हेमचन्द्राचार्य ने 'त्यक्त' के अर्थ में 'जढ' को निपात किया है। और षड्भायाचन्द्रिका में इसके अर्थ में 'जज' का निपात है। श्लोक ६१: ६० श्लोक ६१: सचित्त जल से स्नान करने में हिंसा होती है इसलिए उसका निषेध बुद्धिगम्य हो सकता है, किन्तु अचित्त जल से स्नान करने का निषेध क्यों ? सहज ही यह प्रश्न होता है। प्रस्तुत श्लोक में इसी का समाधान है। १- (क) अ० चू० पृ० १५५ : अभिभूत इति अतिप्रपीडितो, एवं वाहितो वि, 'तवस्सी' पक्षमासातिखमण कलंतो एतेसि णेव गोयराबतरणं । जस्स य पुण सहायासतीए अत्तलाभिए वा हिंडेज्जा ततो एतेसि निसेज्जा अणुण्णाता। (ख) जि० चू० पृ० २३०-३१ : जराभिभूओ 'वाहिअस्स तवस्सिणो' त्ति अभिभूयग्गहणं जो अतिकठ्ठपत्ताए जराए बज्जइ, जो सो पुण वुड्ढभावेऽवि सति समत्थो ण तस्स गहणं कयंति, एते तिन्निवि न हिंडाविज्जति, तिन्नि हिंडाविज्जति सेधो अत्तलाभिओ वा अविकिट्ठतवस्सी वा एवमादि, तिहि कारणेहि हिंडेज्जा, तेसि च तिण्हं णिसेज्जा अणुन्नाया। (ग) हा० टी० प० २०५ : 'जरयाऽभिभूतस्य' अत्यन्तवृद्धस्य 'व्याधिमत:' अत्यन्तमशक्तस्य 'तपस्विनो' विकृष्टक्षपकस्य । एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव, आत्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्रविषयः । २-(क) अ० चू० पृ० १५५ : एतेसि बंभविबत्ति-वणीमगपडिघातातिजयणाए परिहरंताणं णिसेज्जा। (ख) जि० चू०प०२३१ : तत्थ थेरस्स बंभचेरस्स विवत्तीमादी दोसा नत्थि, सो मुहुत अच्छइ, जहा अन्तरातपडिघातादओ दोसा न भवंति, वाहिओऽवि मग्गति किचि तं जाव निकालिज्जइ ताव अच्छइ, विस्समण? वा, तवस्सीवि आतवेण किलामिओ विसमिज्जा। ३--(क) जि० चू० पृ० २३१ : आयारग्गहणेण कायकिलेसादिणो बाहिरतवस्स गहणं कयं । (ख) हा० टी०प० २०५ : 'आचारो' बाह्यतपोरूपः, 'संयमः' प्राणिरक्षणादिकः । ४–हा० टी०प० २०५ : 'जढः' परित्यक्तो भवति । ५. हैम० ४.२५८ : 'जढं'–त्यक्तम् । ६-षड्भाषाचन्द्रिका पृ० १७८ : त्यक्ते जडम् । ७ हा० टी० प० २०५ : प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह । Jain Education Intemational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ६१. पोली भूमि ( घसासु ) : ख ६२. दरार-युक्त भूमि में ( भिलुगासु ख ) : यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है दरार । 'घसा' का अर्थ है- शुषिर भूमि, पुराने भूसे की राशि या वह प्रदेश जिसके एक सिरे का आक्रमण करने से सारा प्रदेश हिल उठे। घ १३. जल से ( वियद्वेण ) : 'विकृत' का अर्थ जल या प्रामुक जल हैं। ३२८ श्लोक ६२ : २४. श्लोक ६२ सूक्ष्म प्राणी की जहाँ हिंसा न होती हो उस स्थिति में भी स्नान नहीं करना चाहिए । जिनदास महत्तर ने इसके कारणों का उल्लेख करते हुए बताया है कि स्नान करने से ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है, अस्नान रूप काय-क्लेश तप नहीं होता और विभूषा का दोष लगता है । ६५. शीत या उष्ण जल से ( सीएण उसिणेण वा ख अध्ययन ६ : श्लोक ६२-६३ टि० ६१-६७ ): अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'शीत' का अर्थ जिसका स्पर्श सुखकर हो वह जल और 'उष्ण' का अर्थ आयु-विनाशकारी जल किया हैं। टीकाकार ने 'शीत' और 'उष्ण' का अर्थ प्रासुक और अप्रासुक जल किया है" । ६. ( असिणाणमहिमा) : ): यहाँ 'मकार अलादाणिक है। श्लोक ६३ : १७. गन्ध चूर्ण ( सिणाणं * ) : यहाँ 'मान' का अर्थ है। टीकाकार ने 'स्थान' को उसके प्रसिद्ध अर्थ अंग-प्रशालन में ग्रहण किया है वह सही नहीं है । चूर्ण में इसकी विस्तृत जानकारी नहीं मिलती फिर भी उससे यह स्पष्ट है कि यह कोई उद्वर्तनीय गन्ध द्रव्य है" । उमास्वाति १ (क) अ० पू० पृ० १५६ मतिमतरजीविता इति प्रसि, अंतो सुष्णो भूमिपदेसो पुराणभूसातिरासी वा । (ख) हा० डी० प० २०५ 'सा' विरभूमि २- जि० ० चू० पृ० २३१ : घसा नाम जत्थ एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सब्वी चलइ सा घसा भण्णइ । ३– (क) जि० चू० पृ० २३१ : भिलुगा राई | (ख) हा० टी० प० २०५ : 'भिलुगासु च' तथाविधभूमिराजीषु च । ४- जि० चू० पृ० २३१: वियडं पाणयं भण्णइ । 'बिग' फामुपाणिएणावि । ५ (क) अ० ० पृ० १५६ (ख) हा० टी० प० २०६ बिकृतेन प्राकोदकेन । ६- जि० चू० पृ० २३२ : जइ उप्पीलावणादिदोसा न भवंति, तहावि अन्ने व्हायमाणस्स दोसा भवंति कहं ?, व्हायमाणस्स अतिभवति अपिच्चयो व काकिलेस तो सो पद, विभुसादोसो य भवति । ७ - अ० चू० पृ० १५६ : सीतेण वा सुहफरिसेण, उसिणेण वा आउविणासकारिणा । ८० टी० १० २०६ शीतेन योग्नोदकेन प्रासुकेनासुकेत्यर्थः । ६- हा० टी० ० प० २०६ : 'स्नानं' पूर्वोक्तम् । १० अ० चू० पृ० १५६ : सिणाणं सामायिगं उवण्हाणं । अधवा गंधवट्टओ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ३२६ इसको घ्राणेन्द्रिय का विषय बतलाया है'। उससे भी इसका गन्ध द्रव्य होना प्रमाणित है । मोनियर-मोनियर विलियम्स ने भी अपने संस्कृत- अंग्रेजी कोष में इसका एक अर्थ सुगन्धित चूर्ण किया है । ख ८. कल्क ( कक्कं ): इसका अर्थ स्नान द्रव्य, विलेपन द्रव्य अथवा गन्धाट्टक - गन्ध-द्रव्य का आटा है। प्राचीन काल में स्नान में सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग किया जाता था । स्नान से पहले तेल-मर्दन किया जाता और उसकी चिकनाई को मिटाने के लिए पिसी हुई दाल या आंवले का सुगन्धित उबटन लगाया जाता था। इसी का नाम कल्क है । इसे चूर्ण कषाय भी कहा जाता है । ६६. लोध्र ( लोद्धं क ) : 1 सोध (गन्यद्रव्य) का प्रयोग ईषत् पाण्डुर छवि करने के लिए होता था 'मेघदूत' के अनुसार लोध-नुष्य के पराग का प्रयोग मुख की पाण्डुता के लिए होता था । 'कालिदास का भारत' के अनुसार स्नान के बाद काला-गुरु, लोध्र रेगु, धूप और दूसरे सुवासित द्रव्यों (कोषेय) के सुगन्धमय धूप में केश सुखाए जाते थे। 'प्राचीन भारत के प्रसाधन" के अनुसार लोध्र ( पठानी लोध ) वृक्ष की छाल का चूर्ण शरीर पर, मुख्यतः मुख पर लगाया जाता था। इसका रंग पाण्डुर होता है और पसीने को सुखाता है। संभवतः इन्हीं दो गुणों के कारण कवियों को यह प्रिय रहा होगा। इसका उपयोग श्वेतिमा गुरण के लिए ही हुआ है। स्वास्थ्य की दृष्टि से सुश्रुत में लोध्र के पानी से मुख को धोना कहा है। लोध्र के पानी से मुख धोने पर झांई, फुंसी, दाग मिटाते हैं। ३ 7 लोध के वृक्ष बंगाल, आसाम और हिमालय तथा खसिया पहाड़ियों में पाए जाते हैं। यह एक छोटी जाति का हमेशा हरा रहने बल होता है। इसके अंडाकृति और कंगूरेदार होते हैं इसके फूल पीने रंग के और सुगन्धित होते हैं। इसके प्रायः आधा इंच लम्बा और अंडाकृति का फल लगता है। यह फल पकने पर बैंगनी रंग का होता है। इस फल के अन्दर एक कठोर गुठली रहती है । उस गुठली में दो-दो बीज रहते हैं। इसकी छाल गेरुए रंग की और बहुत मुलायम होती है। इसकी छाल और पत्तों में से रंग निकाला जाता है । (क) प्र० प्र०४३ स्नानारागतिकवर्णकाधिवासपवासः । गन्धमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति ॥ (ख) प्र० प्र० ४३ अव० : स्नानमङ्गप्रक्षालनं चूर्णम् । A Sanskrit English Dictionary. Page 1266: Anything used in ablution (e.g. Water, Perfumed Powder) ३ (क) अ० ० ५० १५६ महासंयोग था। (ख) जि० चू० पू० २३२ : कक्को लवन्तयो कीरइ, वण्णादी कक्को वा, उव्वलयं अट्टगमादि कक्को भण्णइ । ४ (ड) अ० ० ० १५६ लोड कसापादि अदुरच्छविकरणत्वं विरजति । (ख) हा० टी० प० २०६ सोध्यम् । ५- मेघ० ० २ हस्ते सीतामलमल बालकुन्दानुविद्ध', नीता लोप्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः। चूदापाणे नवकुरव चाकर्मी शिरीगं सीमन्ते च त्वदुपगमनं यत्र न बधूनाम् ॥ अध्ययन ६ श्लोक ६३ टि० ६८-६९ : ६- कालीदास का भारत पृ० ३२० । ७- प्राचीन भारत पृ० ७५ । ८- सु० चि० २४.८ भिल्लोदककषायेण तथैवामलकस्य वा । नेत्रे स्वस्थः शीतोदकेन वा ॥ प्रशासये नीलिकां मुखशोषं च पिडकां व्यंगमेव च । रक्तपितकृतान् रोगान् सद्य एव विनाशयेत् ॥ ६ - ० चं० भा० ९ पृ० २२१० । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३३० अध्ययन ६ : श्लोक ६४ टि० १००-१०२ १००. पद्म-केसर ( पउमगाणि ख ): __ अगस्त्य चूणि' के अनुसार 'पद्मक' का अर्थ 'पद्म-केसर' अथवा कुंकुम, टीकाकार के अनुसार उसका अर्थ कुंकुम और केसर तथा जिनदास चूणि के अनुसार कुंकुम है । सर मोनियर-मोनियर विलियम्स ने भी इसका अर्थ एक विशेष सुगन्धित द्रव्य किया है। ___ 'पद्मक' का प्रयोग महाभारत में मिलता है-तुलाधार ने जाजलि से कहा- "मैंने दूसरों के द्वारा काटे गए काठ और घास-फूस से यह घर तैयार किया है । अलक्तक ( वृक्ष-विशेष की छाल ), पद्मक ( पद्ममाख ), तुङ्गकाष्ठ तथा चन्दनादि गन्ध-द्रव्य एवं अन्य छोटीबड़ी वस्तुओं को मैं दूसरों से खरीद कर बेचता हूँ।" सुश्रुत में भी इसका प्रयोग हुआ है---न्यग्रोधादि गण में कहे आम्र से लेकर नन्दी वृक्ष पर्यन्त वृक्षों की त्वचा, शङ्ख, लाल चन्दन, मुलहठी, कमान, गैरिक, अंजन ( सुरमा ), मंजीठ, कमलनाल, पद्ममाख–इनको बारीक पीसकर, दूध में घोलकर, शर्करा-मधु मिलाकर भली प्रकार छानकर ठण्डा करके जलन अनुभव करते रोगी को बस्ति दे । श्लोक ६४: १०१. नग्न ( नगिणस्स क ): चणिद्वय में 'नगिण' का अर्थ नग्न किया है। टीका में उसके दो प्रकार किए हैं-औपचारिक नग्न और निरुषचरित नग्न । जिनकल्पिक वस्त्र नहीं पहनते इसलिए वे निरुपचरित नग्न होते हैं। स्थविर-कल्पिक मुनि वस्त्र पहनते हैं किन्तु उनके वस्त्र अल्प मूल्य वाले होते हैं, इसलिए उन्हें कुचेलवान् या औपचारिक नग्न कहा जाता है। १०२. दीर्घ रोम और नख वाले ( दोहरोमनहसिणो ख ): स्थविर-कल्पिक मुनि प्रमाणयुक्त नख रखते हैं जिससे अन्धकार में दूसरे साधुओं के शरीर में वे लग न जाएं। जिन-कल्पिक मुनि के नख दीर्घ होते हैं । अगस्त्य धूणि से विदित होता है कि नखों के द्वारा नख काटे जाते हैं किन्तु उनके कोण भलीभाँति नहीं कटते इसलिए वे दीर्घ हो जाते हैं। १-अ० चू० पृ० १५७ : 'पउमं' पउमकेसरं कुंकुम वा। २---हा० टी० प० २०६ : 'पद्मकानि च' कुंकुमकेसराणि । ३–जि० चू० पृ० २३२ : पउमं कुंकुम भण्णइ । 8-A Sanskrit English Dictionary. Page 584 : Padmaka--A Particular fragrant Substance. ५- महा० शा० अ० २६२. श्लोक ७ : परिच्छिन्नैः काष्ठतृणैर्मयेदं शरणं कृतम् । अलक्तं पद्मकं तुङ्ग गन्धाश्चोच्चावचांस्तथा । ६---सु० उत्तरभाग. ३६.१४८ : आम्रादीनां त्वचं शङ्ख चन्दनामलकोत्पलः॥ गरिकाञ्जनमञ्जिष्ठामृणालान्यथ पद्मकम् । श्लक्ष्णपिष्टं तु पयसा शर्करामधुसंयुतम् ॥ ७-(क) अ० चू० पृ० १५७ : ‘णगिणो' णग्गो। (ख) जि० चू० पृ० २३२ : णगिणो–णग्गो भण्णइ । ८-हा० टी० ५० २०६ : 'नग्नस्य वापि' कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य निरुपचरितस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रम् । -हा० टी० प० २०६ : 'दीर्घरोमनखवतः' दीर्घरोमवतः कक्षादिषु दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य, इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा भवन्ति यथाऽन्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति । १०–अ० चू० पृ० १५७ : दोहाणि रोमाणि कक्खादिसु जस्स सो दोहरोमो, आश्री कोटी, गहाणं आत्रीयो णहस्सीयो, कहा जदि वि पडिणहादीहि अतिदीहा कप्पिज्जंति तहवि असंठविताओ णहथूराओ दीहाओ भवंति । दोहसदो पत्तेयं भवति, दीहाणि रोमाणि णहस्सीयो य जस्स सो दोहरोमणहस्सी तस्स । Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायारकहा (महाचारकथा) ३३१ अध्ययन ६ : श्लोक ६७-६८ टि० १०३-१०७ श्लोक ६७ १०३. अमोहदर्शी ( अमोहदंसिणो क ): मोह का अर्थ विपरीत है । अमोह इसका प्रतिपक्ष है । जिसका दर्शन अविपरीत है उसे अमोहदर्शी कहते हैं। १०४ शरीर को ( अप्पाणं क): 'आत्मा' शब्द शरीर और जीव-इन दोनों अर्थों में व्यवहृत होता है। मृत शरीर के लिए कहा जाता है कि इसका आत्मा चला गया - आत्मा शब्द का यह प्रयोग जीव के अर्थ में है। यह कृशात्मा है, स्थूलात्मा है...-आत्मा शब्द का यह प्रयोग शरीर के अर्थ में है। प्रस्तुत श्लोक में आत्मा शब्द शरीर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। शरीर अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ कार्मण शरीर का अधिकार है। कार्मण शरीर -सूक्ष्म शरीर को क्षय करने के लिए तप किया गया है तब औदारिक शरीर-स्कूल शरीर स्वयं कृश हो जाता है अथवा औदारिक शरीर को तप के द्वारा कृश किया जाता है तब कार्मण शरीर स्वयं कृश हो जाता है। श्लोक ६८ १०५. आत्म-विधायुक्त ( सविज्जविज्जाणुगया ख ): 'स्वविद्या' का अर्थ अध्यात्म-विद्या है । 'स्व विद्या' ही विद्या है, उससे जो अनुगत –युक्त है उसे 'स्वविद्याविद्यानुगत' कहते हैं । यह अगस्त्य चुणि की व्याख्या है । जिनदास महत्तर विद्या शब्द के पुन: प्रयोग को लौकिक-विद्या का प्रतिषेध करने के लिए ग्रहण किया हुआ बतलाते हैं । टीकाकार ने 'स्वविद्या' को केवल ज्ञान या श्रुत-ज्ञान रूप माना है। १०६. शरत् ऋतु के ( उउप्पसन्ने ग): ___सब ऋतुओं में अधिक प्रसन्न ऋतु शरद् है । इसलिए उसे 'ऋतु प्रसन्न' कहा गया है । इसका दूसरा अर्थ—प्रसन्न-ऋतु भी किया जा सकता है। १०७. चन्द्रमा ( चंदिमा " ): घृणि और टीका में 'चंदिमा' का अर्थ 'चन्द्र' किया है । प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'चंदिमा' का संस्कृत रूप चन्द्रिका होता है। १ .... (क) अ० चू० पृ० १५७ : मोहं विवरीयं, ण मोहं अमोहं पस्संति अमोहदंसिणो। (ख) जि० चू० पृ० २३३ : अमोहं पासंतित्ति अमोहदंसिणो सम्मदिट्ठी.....। २ ---(क) अ० चू० पृ० १५७ : 'अप्पाणं' अप्पा इति एस सद्दो जीवे सरीरे य दिठ्ठप्रयोगो, जीवे जधा मतसरीरं भण्णति-गतो सो अप्पा जस्सिम सरीरं, सरीरे-थूलप्पा किसप्पा, इह पुण तं खविज्जति, त्ति अप्पवयणं सरीरे ओरालियसरीरखवणेण कम्मणं वा सरीरखवणमिति, उभयेणाधिकारो। (ख) जि० चू० पृ० २३३ : आह—कि ताव अप्पाणं खति उदाहु सरीरंति ?, आयरिओ भणइ-अप्पसदो दोहिवि दीसइ सरीरे जीवे य, तत्थ सरीरे ताव जहा एसो संतो दोसई मा णं हिंसहिसि, जीवे जहा गओ सो जीवो जस्सेयं सरीरं, तेण भणितं खवेति अप्पाणंति, तत्थ सरीरं औदारिक कम्मगं च, तत्थ कम्मएण अधिगारो, तस्स य तवसा खए कीरमाणे औदारियमवि खिज्जइ। ३-अ० चू० पृ० १५८ : सविज्जविज्जाणुगता 'स्व' इति अप्पा, 'विज्जा' विन्नाणं, आत्मनि विद्या सविज्जा अज्झप्पविज्जा, विज्जागाणातो सेसिज्जति, अज्झप्पविज्जा जा विज्जा ताए अणुगता सविज्जविज्जाणुगता। ४-जि० चू० पृ० २३४ : बीयं विज्जागहणं लोइयविज्जापडिसेहणत्थं कतं । ५-हा० टी०प० २०७ : स्वविद्या-परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा। ६-अ० चू० पृ० १५८ : उडू छ, तेसु पसन्नो उडुप्पसण्णो, सो पुण सरदो, अहवा उडू एव पसण्णो । ७- (क) अ० चू० पृ० १५८ : चन्द्रमा चन्द्र इत्यर्थः । (ख) जि० चू० पृ० २३४ : जहा सरए चंदिमा विसेसेण निम्मलो भवति । (ग) हा० टी० प० २०७ : चन्द्रमा इव विमलाः । ८-हैम० ८.१.१८५: चन्द्रिकायां मः । Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवैआलियं (दशवकालिक) ३३२ अध्ययन ६ : श्लोक ६८ टि० १०८ १०८. सौधर्मावतंसक आदि विमानों को ( विमाणाइ घ): वैमानिक देवों के निवास स्थान 'विमान' कहलाते हैं । सम्यग्-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने वाले उत्कृष्टतः अनुत्तर विमान तक चले जाते हैं। १-हा० टी०प० २०७ : 'विमानानि' सौधर्मावतंसकादीनि । २–अ० चू० पृ० १५८ : विमाणाणि उक्कोसेण अणुत्तरादीणि । Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं वक्कसुद्धि सप्तम अध्ययन वाक्यशुद्धि Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामुख याचार का निरूपण उसी को करना चाहिए जिसे वाक्य-शुद्धि का विवेक मिला हो । मौन गुप्ति है, वाणी का प्रयोग समिति । गुप्ति का लाभ अकेले साधक को मिलता है, समिति का लाभ वक्ता और श्रोता दोनों को मिलता है । वाणी का वही प्रयोग समिति है जो सावद्य और अनवद्य के विवेक से सम्वलित हो। जिसे सावद्य-अनव द्य का विवेक न हो उसे बोलना भी उचित नहीं फिर उपदेश देने की बात तो बहुत दूर है। प्रस्तुत अध्ययन में असत्य और सत्यासत्य भाषा के प्रयोग का निषेध किया गया है, क्योंकि भाषा के ये दोनों प्रकार सावद्य ही होते हैं । सत्य और असत्याऽमृषा (व्यवहार-भाषा) के प्रयोग का निषेध भी है और विधान भी हैं । सत्य और व्यवहार-भाषा सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की होती है। वस्तु के यथार्थ रूप का स्पर्श करने वाली भाषा सत्य हो सकती है, किन्तु वह वक्तव्य हो भी सकती है और नहीं भी। जिससे कर्म-परमाणु का प्रवाह पाए वह जीव-वधकारक-भाषा सत्य होने पर भी प्रवक्तव्य है । इस प्रकार निर्ग्रन्थ के लिए क्या वक्तव्य और क्या प्रवक्तव्य-इसका प्रस्तुत अध्ययन में बहुत सूक्ष्म विवेचन है । अहिंसा की दृष्टि से यह बहुत ही मननीय है। दशवकालिक सूत्र अहिंसा का प्राचार-दर्शन है। वाणी का प्रयोग प्राचार का प्रमुख अंग है। अहिंसक को बोलने से पहले और बोलते समय कितनी सूक्ष्म बुद्धि से काम लेना चाहिए, यह अध्ययन उसका निदर्शन है। भाषा के प्रकारों का वर्णन यहाँ नहीं किया गया है। उसके लिए प्रज्ञापना (पद ११) और स्थानाङ्ग (स्था० १०) द्रष्टव्य हैं। वाक्य-शुद्धि से संयम की शुद्धि होती है। अहिंसात्मक वाणी भाव-शुद्धि का निमित्त बनती है। अत: वाक्य-शुद्धि का विवेक देने के लिए स्वतन्त्र अध्ययन रचा गया है । प्रस्तुत अध्ययन सत्य-प्रवाद (छट्ठ) पूर्व से उद्धृत किया गया है । नियुक्तिकार ने मौन और भाषण दोनों को कसौटी पर कसा है। भाषा-विवेकहीन मौन का कोई विशेष मूल्य नहीं है । भाषा-विवेक-सम्पन्न व्यक्ति दिन-भर बोलकर भी मौन की आराधना कर लेता है। इसलिए पहले बुद्धि से विमर्श करना चाहिए फिर बोलना चाहिए। प्राचार्य ने कहा-शिष्य ! तेरी वाणी बुद्धि का वैसे अनुगमन करे जैसे अन्धा आदमी अपने नेता (ले जाने वाले) का अनुगमन करता है । मा १-हा० टी० १०२०७ : "सावज्जणवज्जाणं, वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स ण खमं, किमंग पुण देसणं काउं । २--दश० ७.१,२। ३--वही, ७.२॥ ४-वही, ७.३। ५-वही, ७.११-१३। ६-दश० नि० २८८: जं वक्कं वयमाणस्स संजमो सुज्झई न पुण हिसा । न य अत्तकलुसभावो तेण इहं बक्कसुद्धित्ति ।। ७-वही, १७ : सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ। ८-वही, २६०-२६२ : वयणविभत्तिअकुसलो वओगयं बहुविहं अयाणंतो। जइवि न भासइ किंची न चेव वयगुत्तयं पत्तो। वयणविभत्तीकुसलो वओगयं बहुविहं वियाणंतो। दिवसपि भासमाणो तहावि वयगुत्तयं पत्तो॥ पुव्वं बुद्धीइ पेहिता पच्छा वयमुयाहरे। अचक्खुओ व नेतारं बुद्धिमन्नेउ ते गिरा। Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १ - चउन्हं खलु परिसंखाय आसाणं दोन्ह तु विषयं सिक् दो न भासेज्ज सव्वसो ॥ पानवं । य सच्चा अवत्तव्वा २- जा सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धेाइना न तं भासेज्ज पन्तवं ॥ ३- असचमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं समुप्पेगसंदिद्धं गिरं भासेवज पनयं ॥ ४- एयं च अट्टमन्नं वा जं तु नामेइ सासयं । स भासं सच्चमो पि तं पि धीरो विवज्जए || ५- हिं तहामुति जं गिरं भासए नरो तम्हा सो पुट्ठो पावेणं किं पुण जो मुर्ख बए ॥ ६ - तम्हा गच्छामो वक्लामो अमुगं वा णे भविस्सई । अहं वा णं करिस्कामि एसो वा णं करिस्सई ॥ सत्तमं अज्झयणं : सप्तम अध्ययन वक्कसुद्धि वाक्यशुद्धि संस्कृत छाया चतसृणां खलु भाषाणां परिसंख्याय प्रज्ञावान् । द्वाभ्यां तु विनयं शिक्षेत, द्वे न भाषेत सर्वशः ॥ १ ॥ या च सत्या अवक्तव्या, सत्यामृषा च या मृषा । याच बुरनाचीर्णा न तां भाषेत प्रज्ञावान् ||२|| असत्यामृषा सत्यां च, अनयामकर्कशाम् । समुत्प्रेक्षां ( क्ष्य) असंदिग्ध, गिरं भाषेत प्रज्ञावान् ॥३॥ एवं यस्तु नामयति स्वाशयम् । भाषां सत्यामृषा अपि तामपि धीरो विवर्जयेत् ||४|| वितथापि तथा मूर्ति, यां गिरं भाषते नरः । तस्मात्स स्पृष्ट: पापेन, किं पुनर्यो मृषा वदेत् ॥५॥ तस्माद् गच्छामः वक्ष्यामः, अमुकं वा नो भविष्यति । अहं वा इद करिष्यामि, एष वा इदं करिष्यति || ६ || हिन्दी अनुवाद १- प्रज्ञावान मुनि पारों भाषाओं को जानकर दो के द्वारा लिय ( शुद्ध प्रयोग ) ' सीखे और दो सर्वथा न बोले । सत्यमृषा २- जो अवक्तव्य-सत्य', (मिश्र) शृषा और असत्याऽमृषा (व्यवहार) भाषा बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण हो उसे प्रज्ञावान् मुनि न बोले । - प्रज्ञावान् मुनि ( व्यवहार-भाषा) और अनवद्य और सदेह विचार कर बोले 1 असत्यामृषा सत्य-भाषा जो हो, उसे सोच ४- वह धीर पुरुष उस अनुज्ञात असत्यामुषा को भी५ न बोले जो अपने आशय को यह अर्थ है या दूसरा प्रकार संदिग्ध बना देती हो । 119 इस ५- जो पुरुष सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है ( पुरुषवेषधारी स्त्री को पुरुष कहता है) उससे भी वह पाप से स्पष्ट होता है तो फिर उसका क्या कहना जो साक्षात् मृषा बोले ? ६-७ इसलिए हम जाएंगे "", 'कहेंगे', 'हमारा अमुक कार्य हो जाएगा', 'मैं यह करूंगा' अथवा 'यह (व्यक्ति) यह ( कार्य ) करेगा' - यह और इस प्रकार की Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ अध्यय ७: श्लोक ७-१३ दसवैआलियं( दशवकालिक ) ७-एवमाई उ जा भासा एसकालम्मि संकिया। संपयाईयम? वा तं पि धीरो विवज्जए॥ एवमादिस्तु या भाषा, एष्यत् काले शङ्किता। साम्प्रतातीतार्थयो, तामपि धोरो विवर्जयेत् ॥७॥ दूसरी भाषा जो भविष्य-सम्बन्धी होने के कारण (सफलता की दृष्टि से) शंकित हो अथवा वर्तमान और अतीत काल-सम्बन्धी अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे भी धीरपुरुष न बोले । ८...-१३अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए जमट्ठतु न जाणेज्जा एवमेयं ति नो वए॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नाऽनागते । यमर्थं तु न जानीयात्, एवमेतदिति नो वदेत ॥८॥ ८-अतीत, वर्तमान और अनागत कालसम्बन्धी जिस अर्थ को (सम्यक् प्रकार से) न जाने, उसे 'यह इस प्रकार ही है'-ऐसा न कहे। &-अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए जत्थ संका भवे तं तु एवमेयं ति नो वए॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नाऽनागते । यत्र शंका भवेत्तत्तु, एवमेतदिति नो वदेत् ॥६॥ 8-अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जिस अर्थ में शंका हो, उसे 'यह इस प्रकार ही है'-- ऐसा न कहे । १०.१४अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए । निस्संकियं भवे जंतु एवमेयं ति निदिसे ॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नाऽनागते । निश्शङ्कितं भवेद्यत्त, एवमेतदिति निदिशेत् ॥१०॥ १०-अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो (उसके बारे में ) 'यह इस प्रकार ही है'---ऐसा कहे। ११–तहेव फरसा भासा गुरुभूओवघाइणी सच्चा वि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो॥ तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतोपघातिनी। सत्यापि सा न वक्तव्या, यत: पापस्य आगमः ॥११॥ ११-इसी प्रकार परुष १५ और महान् भूतोषघात करने वाली ६ सत्य भाषा भी न बोले, क्योंकि इनसे पाप-कर्म का बंध होता १२-तहेव काणं काणे त्ति पंडगं पंडगे ति वा। वाहियं वा वि रोगि त्ति तेणं चोरे ति नो वए॥ तथैव कागं 'काण' इति, पण्डकं पण्डक इति वा। व्याधित वाऽपि रोगीति, स्तेनं "चोर' इति नो वदेत ॥१२॥ १२- इसी प्रकार काने को काना, , नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। परो १३-एएणन्नेण वढण जेणुवहम्मई। आयारभावदोसन्नू न तं भासेज्ज पन्नवं ॥ एतेनाऽन्येन वाऽर्थेन, परो येनोपहन्यते। आचार-भाव-दोषज्ञः, न त' भाषेत प्रज्ञावान् ॥१३॥ १३-आचार (वचन-नियमन) संबंधी भाव-दोष (चित्त के प्रद्वष या प्रमाद) को जानने वाला प्रज्ञावान् पुरुष पूर्व श्लोकोक्त अथवा इसी कोटि की दूसरी भाषा, जिससे दूसरे को चोट लगे-न बोले । Jain Education Intemational Education International For Private & Personal use only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ : श्लोक १४-२० वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) १४–“तहेव होले गोले त्ति साणे वा वसुले त्ति य। दमए दुहए वा वि नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ तथैव 'होलः' 'गोल' इति, 'श्वा' वा 'वृषल' इति च । द्रमको' 'दुर्भग' ३चाऽपि, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥१४॥ १४-इसी प्रकार प्रज्ञावान् मुनि रे होल !, रे गोल !, ओ कुत्ता! , ओ वृषल!, ओ द्रमक !, ओ दुर्भग ! —ऐसा न बोले । १५-अज्जिए पज्जिए वा वि अम्मो माउस्सिय त्तिय। पिउस्सिए भाइणेज्ज ति धूए नत्तुणिए ति य॥ आयिके ! प्रायिके ! वाऽपि, अम्ब ! मातृष्वसः ! इति च । पितृष्वसः ! भागिनेयि ! इति दुहितः ! नप्तके ! इति च ॥१५॥ १६-२०हले हले त्ति अन्ने त्ति भट्ट सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुले ति इत्थियं नेवमालवे ॥ हले ! हला! इति 'अन्ने' इति, 'भट्ट !' स्वामिनि ! गोमिनि ! 'होले' ! गोले ! 'वृषले' ! इति, स्त्रियं नैवमालपेत् ॥१६॥ १५-१६-१७---हे आयिके ! (हे दादी!, हे नानी !), हे प्रायिके ! (हे परदादी!, हे परनानी !), हे अम्ब ! (हे मां !), हे मौसी!, हे बुआ !,हे भानजी!, हे पुत्री!, हे पोती !, हे हले !, हे हला !, हे अन्ने !, हे भट्ट !, हे स्वामिनि !, हे गोमिनि !, हे होले !, हे गोले !, हे वृषले !-इस प्रकार स्त्रियों को आमंत्रित न करे ! किन्तु (प्रयोजन वश) यथायोग्य गुण-दोष का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमंत्रित करे। १७-नामधिज्जेण णं बूया इत्थीगोत्तण" वा पुणो । जहारिहमभिगिज्ज्ञ आलवेज्ज लवेज्ज वा ॥ नामधेयेन तां ब्रू यात्, स्त्री-गोत्रेण वा पुनः । यथार्हमभिगृह, आलपेत् लपेत् वा ॥१७॥ १५-अज्जए पज्जए वा वि बप्पो चुल्लपिउ ति य। माउला भाइणेज्ज त्ति पुत्त नत्तुणिय त्ति य॥ आर्यक ! प्रार्यक ! वाऽपि, वप्त: ! क्षुल्लपितः ! इति च । मातुल ! भागिनेय ! इति, पुत्र ! नप्तः ! इति च ॥१८॥ १८-१६-२०-हे आर्यक !,(हे दादा!, हे नाना !), हे प्रार्यक !, (हे परदादा !, हे परनाना !), हे पिता!, हे चाचा !, हे मामा !, हे भानजा!, हे पुत्र !, हे पोता!, हे हल !, हे अन्न!, हे भट्ट !, हे स्वामिन्!, हे गोमिन् !, हे होल !, हे गोल !,हे वृषल !---इस प्रकार पुरुष को आमंत्रित न करे। किन्तु (प्रयोजनवश) यथायोग्य गुण-दोष का विचार कर एक बार या बारबार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमंत्रित १६-२हे हो हले त्ति अन्ने त्ति भट्टा सामिय गोमिए। होल गोल वसुले त्ति पुरिसं नेवमालवे ॥ हे ! भो ! हल ! इति 'अन्न !' इति, भट्ट ! स्वामिक ! गोमिक ! । होल !' 'गोल' 'वृषल !' इति पुरुषं नैवमालपेत् ॥१६॥ करे। २०-नामधेज्जेण णं ब्रूया पुरिसगोत्तण वा पुणो। जहारिहमभिगिज्झ आलवेज्ज लवेज्ज वा ॥ नामधेयेन तंब यात्, पुरुष-गोत्रेण वा पुनः। यथार्हमभिगृह्य, आलपेत् लपेत् वा ॥२०॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) अध्ययन ७: श्लोक २१-२७ २१-२४पंचिदियाण पाणाणं एस इत्थी अयं घुस । जाब णं न विजागेज्जा ताव जाइ ति आलवे ॥ पञ्चेन्द्रियाणां प्राणानां, एषा स्त्री अयं पुमान् । यावत्तां (तं) न विजानीयात, तावत् 'जातिः' इत्यालपेत् ॥२१॥ २१ -... पंचेन्द्रिय प्राणियं के बारे में जब तक - यह स्त्री है या पुरुष ...ऐसा न जान जाए तब तक गाय की जाति, घोड़े की जाति-~-इस प्रकार बोले। २२-"तहेव मजुस्सं पसं पक्खि वा वि सरीसिव।। थूले गमेइले दो पाइमे ति य नो वए॥ तथैव मनुष्यं पशु. पक्षिणं वाऽपि सरीसृपम् । स्थूलः प्रमेदुरो बध्यः (वाह्यः), पाक्य (पात्य) इति च नो वदेत् ।।२२।। २२-२३ - इसी प्रकार मनुष्य, पशु-पक्षी और सांप को (देख यह) स्थूल, प्रमेदुर, वध्य (या बाह्य)६ अथवा पाक्य है, ऐसा न कहे । (प्रयोजनवश कहना हो तो) उसे परिवृद्धा कहा जा सकता है, उपचित कहा जा सकता है अथवा संजात (युवा)", प्रीणित और महाकाय कहा जा सकता है। २३–परिवुड्ड ति णं खूया बूया उचिए ति य । संजाए पीणिए वा वि महाकाए ति आलवे ॥ परिवृद्ध इत्येनं ब्रूयात्, ब्रूयादुपचित इति च । संजातः प्रीणितो वाऽपि, महाकाय इत्यालपेत् ॥२३॥ २४-तहेव गाओ दुमाओ दम्मा गोरहग तिय। वाहिमा रहजोग ति । नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ तथैव गावो दोह्याः, दम्या 'गोरहगा' इति च । वाह्या रथयोग्या इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥२४॥ २४-२५ -- इसी प्रकार प्रज्ञावान् मुनि गायें दुहने योग्य हैं, बैल४ दमन करने योग्य है३५, वहन करने योग्य है३६ और रथयोग्य है... इस प्रकार न बोले। (प्रयोजनवश कहना हो तो) बैल युवा है'६, धेनु दूध देने वाली है, (बैल) छोटा है, बड़ा है अथवा संबहन--धुरा को वहन करने वाला है४१.... यों कहा जा सकता है। २५-३जुवं गवे त्ति णं बूया धेj रसदय ति य। रहस्से महल्लए वा वि वए संवहणे ति य॥ युवा गौरित्येनंब यात्, धेनुं रसदा इति च । हस्बो वा महान् वाऽपि, वदेत् संवहन इति च ॥२५॥ २६-तहेव गंतुमुज्जाणं पव्वयाणि वणाणि य। रुक्खा महल्ल पेहाए नेवं भासेज्ज पन्नवं ॥ तथैव गत्वोद्यानं, पर्वतान् वनानि च । रुक्षान् महतः प्रेक्ष्य, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥२६॥ २६.-इसी प्रकार उद्यान, पर्वत और बन में जा वहाँ बड़े वृक्षों को देख प्रज्ञावान् मुनि यों न कहे २७–अलं पासायखंभाणं तोरणाणं गिहाण य। फलिहरगलनावाणं उदगदोणिणं॥ अलं प्रासादस्कम्भोभ्यां, तोरणेभ्यो गृहेभ्यश्च । परिघार्गलनौभ्यः, अलं उदकद्रोण्यै ॥२७।। २७- (ये वृक्ष) प्रामाद४२, स्तम्भ, । तोरण (नगरद्वार), घर, परिध, अर्गला, नौका और जल की कुंडी के लिए४४ उपयुक्त (पर्याप्त या समर्थ) हैं। अलं Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) २८ - पी. ए पंगरे य सिदा जंतलट्ठी अंतली व नाभी वा नगते मा मंडिया व अलं सिया || " ॥ २६-- आसणं सयणं जाणं होन्या या विस्सए । भूओवघाइनि भासं नेवं भासेज पन्नवं ॥ ३० – तहेव पव्ययाणि प्राणि थ | स्पा महल्ल पेहाए एवं भासेज्ज पन्नवं ॥ ३१ - जाइता बी पयायसाला वए ३२- तहा गंतुभुज्जाणं ३३- १५असं डा पलाई पक्काई पायलज्जाई नो थए । बेलोइयाई देहिमा सि टालाई तिनो वए ॥ भएम भूयरूय इसे रुवखा महालया । विडिमा दरिमणि महाफला त्तिय ॥ इथे अंबा 1 संभूया ति वा पुणो ॥ पठायो ३४ - बोसोओ नीबाओ बीइय। लाइमा भमिओ सि पिहुखज्ज खिन्न त्ति नो बए ॥ ३४१ पीठकाय 'चंगवेराय' च, लाङ्गलाय 'मधिका' स्यात् । या नावा गंडिकायै वा अलं स्यात् ॥ २८ ॥ आसनं शयनं यानं, भवेद्वा किञ्चिदुपाश्रये । भूतोपघातिनीं भाषां नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ||२६|| तथैव गत्वोद्यानं, पर्वतान् वनानि च । ज्ञान महतः प्रेय एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥ ३०॥ जातिमन्त इमे रुक्षाः, दीर्घवृत्ताः महान्तः । प्रजातशाला विटपिन:, वदेद् दर्शनीया इति च ॥ ३१ ॥ तथा फलानि पक्वानि, पाकखाद्यानि नो वदेत् । वेलो चितानि 'टालाई", इति नोचे ।। ३२ ।। असंस्कृता मेधा, बहुनिर्वर्तित-फलाः । वदे बहुसंभूता भूतरूपा इति वा पुनः ॥ ३३ ॥ | तथैवोषधयः पक्वा, नीलिकाः छविमत्यः । लवनीया भर्जनीया इति, इति ॥३४॥ अध्ययन ७ श्लोक २८-३४ ४५ २) पीठ, कापी हल, मयिक, कोल्हू, नाभि ( पहिए का मध्य भाग) अथवा अहरन के उपयुक्त हैं । २९ ( इन वृक्षों) में आसन, शयन, ४८ यान और उपाश्रय के उपयुक्त कुछ (काष्ठ) हैं- इस प्रकार भूतोपघातिनी भाषा प्रज्ञावान् भिक्षु न बोले। ३०-३१ – इसी प्रकार उद्यान, पर्वत और वन में जहाँ बड़े चों को देख ( प्रयोजनवश कहना हो तो ) प्रज्ञावान् भिक्षु यों कहे ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, लम्बे हैं, गोल हैं, महालय (बहुत विस्तार वाले अथवा स्कन्ध युक्त ) हैं४६ शाखा वाले हैं, प्रशाखा वाले हैं" और दर्शनीय हैं। ३२- तथा ये फल पक्व हैं, पकाकर खाने योग्य हैं" इस प्रकार न कहे। (तथा ये फल तोड़ने योग्य) इनमें गुठली नहीं पड़ी है ये दो टुकड़े करने योग्य फरक करने योग्य हैं ) - इस प्रकार न कहे । ३३ (प्रयोजन कहना हो तो ये आम्रवृक्ष अब फल- धारण करने में असमर्थ हैं, बहुनिर्वर्तित ( प्रायः निष्पन्न) फल वाले हैं, बहु-संभूत ( एक साथ उत्पन्न बहुत फल वाले) है अव भूतरूप (कोमल) - इस प्रकार कहे । ३४ - इस प्रकार औषधियां‍ पक गई हैं, अपक्व हैं, छवि ( फली) वाली काटने योग्य हैं, भूनने वा बनाकर खाने योग्य हैं—६° इस प्रकार न बोले । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवे आलियं ( दशवेकालिक ) ६१ ३५ - रूढा बहुसंभूषा थिरा ऊसढा वि पशुवाओ गभिया ससाराओ ति आलवे ॥ ३६ तहेव संखड कि नच्चा कज्जे ति नो वए। तेण वा वि त्ति सुतिस्थति य आवगा ॥ ३७-संब पणियट्ठ त्ति बहुसमाणि आवगाणं संसडि ३६- बहुवाहा य | ३८-तहा मईओ पुष्णाओ कायतिज्जर ति नो बए । नावाहि तारिमाओ ति पाणिपेज सिनो बए ॥ सलिलोदगा बहुवियोगा एवं भासेज्न ४० -तहेब बूया तेगं । तित्याणि वियागरे ॥ सावन अगाहा जोगं परस्सट्ठाए निद्विषं । कीरमाणं ति वा नच्चा सावर्ज न लवे मुणी ॥ यावि पन्नवं ॥ ४१ - "सुकडे ति सुपक्के ति सुचिन्ने सुह मडे । सुनिट्टिए सुलट्ठे ति सावन् बज्जए वज्जए मुणी ॥ ३४२ रूढ़ा बहुसम्भूताः, स्थिरा उच्छूता अपि च । गभिताः प्रसृताः, ससारा इत्यालपेत् ||३५| तथैव संस्कृति ज्ञात्वा, कार्यमिति वदेत्। स्तेनकं वाऽपि वध्य इति, सुतीर्था इति चापगाः ॥ ३६ ॥ संस्कृति संस्कृति ब्रूयात्, पगिता इति स्तेनकम् समान तीन आपगानां व्यागृणीयात् ॥ ३७ ॥ तथा नद्यः पूर्णाः, कायतार्या इति नो वदेत् । नौभिस्तार्या इति, प्राणिपेया इति नो वदेत् ॥ ३८ ॥ बहुप्रभृता अगाथा सलिलोपीडोयकाः । बहुविस्तृतोदकाश्चापि, एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥ ३६ ॥ तथैव साब पो परवाच निष्ठितम्। क्रियमाणमिति वा ज्ञात्त्रा, साव न लयेत् मुनिः ॥ ४० ॥ सुकृतमिति सुपक्यमिति, सुच्छिन्नं सुहृतं मृतम् । सुनिष्ठितं सुलष्टमिति साय वर्जयेत् मुनिः ॥४ अध्ययन ७ श्लोक ३५-४१ ३५ - ( प्रयोजनवश बोलना हो तो ) औषधियाँ अंकुरित हैं, निष्पन्न- प्राय: हैं, स्थिर हैं, ऊपर उठ गई हैं, भुट्टों से रहित हैं, भुट्टों से सहित हैं, धान्य-कण सहित हैं इस प्रकार बोले । 1 ३६-३७ इसी प्रकार सी (जीमनवार) और कृत्य – मृतभोज को जानकर कर चोर मारने योग्य है और नदी अच्छे घाट वाली है इस प्रकार न कहे प्रयोजन कहता हो तो) बड़ी कोसड़ी पोर को णितार्थ (धन के लिए जीवन की बाजी लगाने वाला ) ४ और 'नदी के घाट प्रायः सम हैं इस प्रकार कहा जा सकता है । ६४ ३८-३९ -- तथा नदियाँ भरी हुई हैं, शरीर के द्वारा पार करने योग्य हैं, नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं और तट पर बैठे हुए प्राणी उनका जल पी सकते हैं इस प्रकार न कहे (प्रयोजन कहना हो तो) ( नदियां ) प्रायः भरी हुई हैं, प्रायः अनाथ बहु दूसरी नदियों के द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है, बहुत विस्तीर्ण जल वाली हैं- प्रज्ञावान् भिक्षु इस प्रकार कहे । ४० - इसी प्रकार दूसरे के लिए किए गए अथवा किए जा रहे सावध व्यापार को जानकर मुनि सावद्य वचन न बोले। जैसे ४१ - बहुत अच्छा किया है (भोजन आदि), बहुत अच्छा पकाया है (घेवर आदि), बहुत अच्छा छेदा है पत्र- शाक आदि), बहुत अच्छा हरण किया है (माक की तिक्तता आदि), बहुत अच्छा मरा है ( दाल या सत्तू में घी आदि ), बहुत अच्छा रसनिष्पन्न हुआ है (तेमन आदि में बहुत ही इष्ट है (चावल आदि) मुनि न सावद्य वचनों का प्रयोग न करे । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ४२ - पयत्तपक्के त्ति व पक्कमालवे पयत्तन्निति व छिन्नमालवे । पत्ति व कम्महे व्यं पहारगाढ ति व गाढमाल || ॥ ४३ -- सव्वुक्क सं अलं ४४- सम्यमेयं सत्यमेवं अणुवी एवं अचक्कियमवत्तन्वं अचितं ४५ -- सुक्कीयं नत्थि परग्धं वा एरिसं । चेव नो वा सुदिश्कीय केज्जमेव वा । अकेज्जं इमं गेण्ह इमं इमं मुंच पणिय वियागरे ॥ नो ४६ -- अप्पग्धे वा ४८ बहवे वहस्सामि तिनो पए। सव्वं सव्वत्य भासेज्ज पन्नवं ॥ ४७ ---तवा संजयं कए वा विक्कए वि पणिय अणवज्जं वए ॥ महग्ये वा वा । समुन् वियागरे ॥ वा । आस एहि करेहि सय चिट्ठ वयाहि ति नेवं त्ति, भासेज्ज पन्नवं ॥ धीरो इमे लोए वृच्वंति न लये असाहं साहू शि साहू साहू सि आलवे ॥ असाहू साहूणो । ३४३ प्रयत्नस्वमिति वा पश्चपेत् प्रयत्नन्निमितिया नात्। मितवा कर्महेतुकम् पारमिति वा ॥४२॥ सर्वोत्कर्ष परार्ध वा अनु अशक्यमवक्तव्यम् अचिन्त्यं चैव नो वदेत् ॥ ४३ ॥ सर्वमेतदिध्यागि नोत् । अनुविविच्य सर्व सर्वत्र, एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥ ४४ ॥ सुसंवा अक्रेयं यमेव वा । इदं गृहाण इदं मुञ्च, पप्यं नो व्याखीयात् ॥ ४५ ॥ पायें वा महावा, *ये वा विक्रयेऽपि वा । पायें समुत्यन्ने अनवद्य' व्यामृणीयात् ॥४६॥ धीरः आस्व एहि कुरु वा । शेष्व तिष्ठ व्रज इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥४७॥ बहव इमे असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः । न साधु साधुरिति, साधु साधुरित्यालपेत् ॥४८॥ अध्ययन ७ : श्लोक ४२-४८ ४२ (योजन कहना हो तो) सुपक्य को प्रयत्न पक्व कहा जा सकता है। सुच्छिन्न को प्रयत्नच्छिन्न कहा जा सकता है, कर्मविज्ञापूर्वक किए हुए) को प्रयत्नलष्ट कहा जा सकता है। गाढ़ (गहरे घाव वाले) को प्रहार गाढ़ कहा जा सकता है । ४३ ( क्रय-विक्रय के प्रसंग में ) यह वस्तु सर्वोत्कृष्ट है, यह बहुमूल्य है, यह तुलनारहित है. इसके समान दूसरी वस्तु कोई नहीं है, इसका पोल करना शक्य नहीं है", इसकी विशेषता नहीं कही जा सकती", यह अचिन्त्य है - इस प्रकार न कहे। ४४ - (कोई सन्देश कहलाए तब ) मैं यह सब यह दुगा, (किसी को सन्देश देता हुआ यह है (अविकल या ज्यों का त्यों है) इस प्रकार कहे सब प्रसंगों में पूर्वोक्त सब वचन-विनियों का अनुचिन्तन कर प्रज्ञावान् गुनि वैसे बोले (जैसे कर्मबन्ध न हो ) । ४५ -- पण्य वस्तु के वारे में (यह माल ) अच्छा खरीदा ( बहुत सस्ता आया ), ( यह माल) अच्छा वेचा (बहुत नफा हुआ), यह बेचने योग्य नहीं है, यह बेचने योग्य है, इस माल को ले ( यह मंहगा होने वाला है ), इस माल को बेच डाल (यह सस्ता होने वाला है ) - इस प्रकार न कहे । ४६ - अल्पमूल्य या बहुमूल्य माल के लेने या बेचने के प्रसङ्ग में सुनि अनवद्य वचन बोले विक्रम से विरत का इस विषय में कोई अधिकार नहीं है इस प्रकार कहे । ४७ इसी प्रकार धीर और प्रज्ञावान् मुनि असंयति (गृहस्थ ) को बैठ, इधर आ ( अमुक कार्य ) कर, सो, ठहर या खड़ा हो जा, चला जा - इस प्रकार न कहे । में ४८. - ये बहुत सारे असाधु जन-साधारण को साधु 'साधु कहलाते हैं । मुनि असाधु न कहे, जो साधु हो उसी को साधु कहे ३ । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ४६ -- नाणदंसण संपन्नं संजमे एवंगुणस संजयं २०- "देवा ५१ य त रथं । बाहु ॥ तिरियाणं च जओ मयाणं ख हे | होउ अमुवाणं मा वा होउ ति नो बए ॥ व सोह हेमं धार्य सिवं ति रा । क्या णु होज्न एयाणि मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ५२ तहेव मेहं व नहं व मानवं न देव देव त्ति गिरं वएज्जा । सम्मुछिए उनए या पओए वएज्ज वा वुट्ठ बलाहए ति ॥ य । ५३- अंतलिक्खे त्तिणं ब्रूया गुज्झाणुचरियत्ति रिद्विमंत नरं दिस्स रिद्विमंत ति आलवे ॥ आलवे ॥ ५४ तहेब सावज्जणुमोयणी गिरा ओहारिणी जा य परोवधाइणी से कोह लोह भयसा व मानवो न हासमाणो वि गिरं वएन्ना ॥ ५५ सबक्कड समुपेहिया मुणी गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया । मियं अट्ठ अणुवीs भासए समाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ ३४४ ज्ञानदर्शन संपन्न, संयमे च तपसि रतम् । एवं गु संयतं साधुमालपेत् ॥४ देवानां मनुजानाञ्च, तिरायांच अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवतु इति नो वदेत् ॥ ५० ॥ बालो वा शीतोष् क्षेमं 'धायं' शिवमिति वा । कान मा वा भवेयुरिति नो वदेत् ||३१|| तथैव मेघं वा नभो वा मानवं न देव देव इति गिरं वदेत् । संमूच्छितः उन्नतो वा पयोदः, वदेद् वा वृष्टो बलाहक इति ॥ ५२ ॥ अन्तरिक्षमिति तद् ब्रूयात, गुह्यानुचरितमिति च । ऋद्धिमन्तं नरं दृष्ट्वा, ऋद्धिमान् इत्यालपेत् ॥ ५३ ॥ तथैव सावधानुमोदिनी गी अवधारिणी या च परोपघातिनी । सत्रोध-लोभ-भयेन वा मागवतः न हसन्नपि गिरं वदेत् ।। ५४ ।। सवाक्यशुद्धि समुत्प्रेक्ष्य मुनिः, गिरं च दुष्टां परिवर्जयेत्सदा । मितामष्ट अनुविविच्य भाषकः, सतां मध्ये लभते प्रशंसनम् ||५५ ॥ अध्ययन ७ श्लोक ४९-५५ ४६- ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत इस प्रकार सुण-समायुक्त संगमी को ही साथ क ५०देन मनुष्य और ोिं (पशुपक्षियों) का आपस में होने पर अयुक की विजय हो अथवा अमुक की विजय न हो - इस प्रकार न कहे । २१- वायु, वर्षा सुभिक्ष और शिव ये नहीं तो अच्छा रहे व गर्मी क्षे ये कब होंगे अथवा इस प्रकार न कहे । ५२ उसी प्रकार २१ 1 मेव, नभ और मानव के लिए ये देव हैं'- ऐसी वाणी न बोने पर रहा है, अथवा उन्नत रहा है, अथवा मेघ प्रकार बोले । ही रहा है उड़ हो रहा है भुक बरस पड़ा है- इस ५३ नम और मेघ को अन्तरिक्ष अथवा ह्याच रहे ऋािन्नर को देखकर यह ऋद्धिमान पुरुष 'ऐसा 53 ५४ - इसी प्रकार मुनि सावद्य का अनुमोदन करनेवाली, अवचारिणी (संदिग्ध अर्थ के विषय में असंदिग्ध ) और पर उपघातकारिणी भाषा, क्रोध, लोभ, भय, मान या हास्यवश न बोले । ५५ यह भूमि वास्य-शुद्धिको भाँति समझ कर दोषयुक्त वाणी का प्रयोग न करे। मित और दोष रहित वाणी सोचविचार कर बोलने वाला साधु सत् पुरुषों में प्रशंसा को प्राप्त होता है । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ५६ -- भाषाए दोसे य गुणे य जाणिया तीसे य दुई परिवज्जए सपा छसु संजए सामणिए सया जए वएज पुढे हियमाणुलोमियं ॥ ५७ विभासी सुसमाहिईदिए चक्कायावगए अणिस्सिए । सनिने पुनम पुरेकर्ड आराहए लोगमिण तहा परं ॥ ----fer af 11 ३४५ भाषायाः दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा, तस्याश्च दुष्टायाः परिवर्जकः सदा । षट्सु संयतः श्रामण्ये सदा यतः, देद् बुद्ध: हितमानुलोनिकीम् ।। ५६ ।। परीक्ष्यभाषी सुसमाहितेन्द्रियः, अपगतचतुष्कपायः अनिश्रितः : । सनम पुराकृतं आराधयेल्लोकमिमं तथा परम् ||५७|| इति ब्रवीमि अध्ययन ७ श्लोक ५६-५७ ५६ - भाषा के दोषों और गुणों को जानकर दोषपूर्ण भाषा को सदा वर्जने वाला, छह जीवकाय के प्रति संयत श्रामण्य में सदा सावधान रहने वाला प्रबुद्ध भिक्षु हित और अनुलोमिक वचन बोले । ५७ - गुण-दोष को परख कर बोलने वाला, सुसमाहित-इन्द्रिय वाला, चार कपायों से रहित निधित (तटस्थ) भिक्षु पूर्वकृत पाप- मल को नष्ट कर वर्तमान तथा भावी लोक की आराधना करता है । ऐसा मैं कहता हूँ। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ७ श्लोक १: १. विनय ( शुद्ध प्रयोग ) ( विणयंग ) : जिनदास चुणि के अनुसार भाषा का वह प्रयोग, जिसमें धर्म का अतिक्रमण न हो, विनय कहलाता है' । टीकाकार ने भाषा के शुद्ध प्रयोग को विनय कहा है। अगस्त्य चूणि में मूल पाठ 'विजय' है और 'विनय' को वहाँ पाठान्तर माना है। विजय (विचय) अर्थात् निर्णय । वहाँ जो चार भाषाएं बताई गई हैं उनमें से असत्य और मिश्र तो साधु को सर्वथा बोलनी ही नहीं चाहिए । शेष दो भाषाओं (सत्य और व्यवहार) का साधु को निर्णय करना चाहिए-उसे क्या और कैसे बोलना या नहीं बोलना है- इसका विवेक करना चाहिए। श्लोक २: २. अवक्तव्य-सत्य ( सच्चा अवत्तव्वा क ): अबक्तव्य-सत्य-भाषा का स्वरूप ग्यारहवें श्लोक से तेरहवें तक बतलाया गया है । ३. जो भाषा बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण हो ( जा य बुद्ध हिंऽणाइन्ना ग ) : श्लोक के इस चरण में असत्यामृषा का प्रतिपादन हुआ है । वह क्रम-दृष्टि से 'जा य सच्चा अवत्तब्वा' के बाद होना चाहिए था, किन्तु पद्य-रचना की अनुकूलता की दृष्टि से विभक्ति-भेद, वचन-भेद, लिङ्ग-भेद और क्रम-भेद हो सकता है । इसलिए यहाँ क्रम-भेद किया गया है। श्लोक ४ : ४. श्लोक ४ : इस श्लोक का अनुवाद चूणि और टीका के अभिमत से भिन्न है। हमारे अनुवाद का आधार इसके पूर्ववर्ती दो श्लोक हैं । दूसरे के अनुसार असत्य और सत्य-मृषा भाषा सर्वथा वर्जनीय है तथा सत्य और असत्यामृषा, जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण है वह वर्जनीय है। तीसरे श्लोक में आचीर्ण-सत्य और असत्यामुषा का स्वरूप बताकर उनके बोलने का विधान किया है। इसके पश्चात् क्रमशः चौथे में असत्यामषा और पाँचवें में सत्य-भाषा के अनाचीर्ण स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। १--जि० चू० पृ० २४४ : जं भासमाणो धम्मं णातिक्कमइ, एसो विणयो भण्णइ । २-हा० टी०प० २१३ : 'विनयं' शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मे तिकृत्वा । ३–अ० चू० १० १६४ : विजयो समाणजातियाओ णिकरिसणं । जधा वितियो सुमिगयो, तत्थ वयणीयावयणीयत्तण विजयं सिक्खे । केसिंचि आलावओ "विणयं सिक्खे' तेसि विसेसेण जो गयो भाणितव्यो त सिक्खे । ४-(क) जि० चू० पृ० २४४ : चउत्थीवि जा अ बुद्धेहि णाइन्नागहणेण असच्चामोसावि गहिता, उक्कमकरणे मोसावि गहिता, एवं बंधानुलोमत्थं, इतरहा सच्चाए उवरिमा भाणियव्वा, गंथाणुलोमताए विभत्तिभेदो होज्जा वयणभेदो वसु ( थी) पुलिंगभेदो व होज्जा अत्थं अमुंचतो। (ख) हा० टीप० २१३ : या च 'बुद्ध तीर्थक रगणधरैरनाचरिता असत्यामषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा। Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ३४७ अध्ययन ७ : श्लोक ४ टि० ५-७ 'सासय' का संस्कृत रूप 'शाश्वतं' भी होता है। मोक्ष के लिए 'सासयं ठाणं' शब्द व्यवहृत होता है, जब कि स्वाशय यहाँ स्वतंत्र रहकर भी अपना पूर्ण अर्थ देता हैं । असत्याऽमृषा (व्यवहार) भाषा के बारह प्रकार हैं उनमें दसवां प्रकार है - 'संशयकरणी" । जो भाषा अनेकार्थवाचक होने के कारण श्रोता को संशय में डाल दे उसे संशयकरणी कहा जाता है। जैसे - किसी ने कहा- "सैन्धव लाओ।" सैन्धव का अर्थ----नमक और सिन्धु देश का घोड़ा, पुरुष और वस्त्र होता है। श्रोता संशय में पड़ जाता है । वक्ता अपने सहजभाव से अनेकार्थवाचक शब्द का प्रयोग करता है । वह संशयकरणी व्यवहार-भाषा अनाचीर्ण नहीं है, किन्तु आशय को छिपाकर दूसरों को भ्रम में डालने के लिए अनेकार्थ शब्द का प्रयोग (जैसे-अश्वत्थामा हतः) किया जाए वह संशयकरणी व्यवहार-भाषा अनाचीर्ण है अथवा जो शब्द सामान्यतः संदिग्ध हों-सन्देह-उत्पादक हों उनका प्रयोग भी अनाचीर्ण है। टीकाकार ने चौथे श्लोक में सत्यासत्य', सावद्य एवं कर्कश सत्य और पांचवें में असत्य का निषेध बतलाया है, किन्तु वह आवश्यक नहीं लगता। वे सर्वथा त्याज्य हैं, इसलिए उनके पुनर् निषेध की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती। असत्य-भाषा सावध ही होती है इसलिए सावध आदि विशेषणयुक्त असत्य के निषेध का कोई अर्थ नहीं होता। ५. उस अनुज्ञात असत्याऽमृषा को भी ( स भासं सच्चमोसं पितं पिघ) : अगस्त्यसिंह स्थविर इस श्लोक में सत्य और असत्यामृषा का प्रतिषेध बतलाते हैं । जिनदास महत्तर असत्यामृषा का प्रतिषेध बतलाते हैं और टीकाकार सत्य तथा सत्य-मृषा का निषेध बतलाते हैं । हमारी धारणा के अनुसार ये दोनों श्लोक तीसरे श्लोक के 'असंदिग्ध' शब्द से संबन्धित होने चाहिए --- वह व्यवहार और सत्यभाषा अनाचीर्ण है जो संदिग्ध हो । अगस्त्य चूणि के आधार पर इसका अनुवाद यह होगा --यह ( सावद्य और कर्कश ) अर्थ या इसी प्रकार का दूसरा ( सक्रिय, आस्नवकर और छेदनकर आदि ) अर्थ जो शाश्वत मोक्ष को भग्न करे, उस असत्यामृषा-भाषा और सत्यभाषा का भी धीर पुरुष प्रयोग न करे। ६. यह ( एयं क ): ____ दोनों चूर्णिकार और टीकाकार 'एयं' शब्द से सावध और कर्कश वचन का निर्देश करते हैं। ७. दूसरा ( अन्नं क ): अगस्त्यासह स्थविर अन्य शब्द के द्वारा सक्रिय, आस्नवकर और छेदनकर आदि का ग्रहण करते हैं । इसकी तुलना आयारचूला (४११०) से होती है। वहाँ भाषा के चार प्रकारों का निरूपण करने के पश्चात् बतलाया है कि मुनि सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, १-पन्न० भा० ११ सू० १६५। २–दश० नि० गाथा २७७; हा० टी०प० २१०; संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत् । ३-हा० टी० प० २१३ : साम्प्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह । ४-हा० टी० प० २१४ : साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाह । ५.-अ. चू० पृ० १६५ : सा पुण साधुणो अब्भणुण्णतात्ति सच्चा,'' 'असच्चामोसा मपि तं पढममम्भणुण्णतामवि । ६-जि० चू० पू० २४५-२४६ : स भिक्खू ण केवलं जाओ पुत्वभणियाओ सावज्जभासाओ वज्जेज्जा, किन्तु जावि असच्चमोसा भासा तमवि धीरो विविहं अणेगप्पगारं वज्जए विवज्जएत्ति । ७ हा० टी० प० २१३ : 'स' साधुः पूर्वोक्तभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषां 'सत्यामृषामपि' पूर्वोक्ताम्, अपिशब्दात्सत्यापि या तथाभूता तामपि 'धीरो' बुद्धिमान् ‘विवर्जयेत' न ब्रूयादिति भावः । -(क) अ० चू० पृ० १६५ : एतमितिसावजं कक्कसं च । (ख) जि० चू०प० २४५ : एयं सावज्जं कक्कस च । (ग) हा० टी०५० २१३ : 'एत' चार्थम्' अनन्तरप्रतिषिद्ध सावद्यकर्कशविषयम् । ६-अ० चू० पृ० १६५ : अण्णं सकिरियं अण्हयकरी च्छेदनकरी एवमादि । Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) अध्ययन ७: श्लोक ५ टि०८-६ निष्ठुर, परुष, आस्न बकरी, छेदन करी, भेदनकरी, परितापन करी और भूतोपघातिनी रात्य-भाषा भी न बोले' । वृत्तिकार शीलाङ्कसूरि ने लिखा है ... मृषा और सत्य-मृषा भाषा मुनि के लिए सर्वथा अपाच्य है । कर्कश आदि विशेषणयुक्त सत्य-भाषा भी उसे नहीं बोलनी चाहिए। ८. ( सासयं ): अगस्त्य चूणि और टीका में इसका अर्थ मोक्ष है । हमने इसका अर्थ स्वाशय अपना आशय किया है। जिनदास चूणि के अनुसार सासव' का अर्थ स्वाथव -अपना श्रीता होना चाहिए । आस्रव का अर्थ थोता भी है। इसका अर्थ वचन, प्रतिज्ञा और अंगीकार भी है। इसलिए इसका अर्थ अपना वचन, प्रतिज्ञा या अंगीकार भी हो सकता है । श्लोक ५: ६. श्लोक ५: इस श्लोक में बतलाया गया है कि सफेद भूठ बोलने वाला पाप से स्पृष्ट होता ही है, किन्तु वस्तु का यथार्थ निर्णय किए बिना सत्य लगने वाली असत्य वस्तु को सहसा सत्य कहने वाला भी पाप से बच नहीं पाता। इसलिए सत्य-भाषी पुरुष को अनुविचिन्त्य भाषा (सोच-विचार कर बोलने वाला) और निष्ठा-भाषी (निश्चयपूर्वक बोलने वाला) होना चाहिए । इस श्लोक की तुलना आयारचूला (४१३) से होती है। अगस्त्यासह स्थविर वितथ का अर्थ अन्यथावस्थित करते है । जिनदास महत्तर अतद्रूप वस्तु को वितथ' कहते हैं। टीकाकार 'वितथ' का अर्थ 'अतथ्य' करते हैं । मूर्ति का अर्थ दोनों चूर्णिकारों के अनुसार शरीर" और टीकाकार के अनुसार स्वरूप है। अगस्त्यसिंह स्यविर ने 'अपि' शब्द को 'भी' के अर्थ में लिया है। जिनदास महत्तर 'अपि' शब्द को संभावना के अर्थ में ग्रहण करते हैं१३ । हरिभद्रसूर 'अपि' का अर्थ 'भी' मानते हैं किन्तु उसे तथामूर्ति के आगे प्रयुक्त मानते हैं।४ । ____ अगस्त्य सिंह स्थविर के अनुसार इस श्लोक के पूर्वार्ध का अर्थ होता है --(१) जो पुरुष अन्ययावस्थित, किन्तु किसी भाव से तथाभूतरूप वाली वस्तु का आश्रय ले कर बोलना है; (२) जिनदास महत्तर के अनुसार इसका अर्थ है ---जो पुरुष वितथ-भूति वाली वस्तु का १.... आ० चू० ४.१० : तहप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं करकसं कड्डयं निदुर फरुतं अण्यकरि छेपणकार भेयणकरि परित्तावणकरि उद्दवणरि भूओवघाइयं अभिकंख नो भासेज्जा। २–आचा० ४.१० ०० : तत्र मृषा सत्यामृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न वाच्या। ३- (क) अ० चू० पृ० १६५ : सासतो मोक्खो। (ख) हा० टी० ५० २१३ : शाश्वतम् मोक्षम् । ४. जि. चू०प०२४५ : जहा जं थोवमवि थुणणादि तं च सोयारस्स अप्पियं भवइ । ५ पाइयसद्दमहष्णव पृ० १५७ । ६- वृहद् हिन्दी कोष ।। ७ - अ० चू० पृ० १६५ : अतथा वितहं - अण्णहावत्थितं । ८-जि० पू० पृ० २४६ : बितहं नाम जं वत्थं न तेण सगावेण अस्थि तं वितह भण्णइ । ९- हा० टी०प० २१४ : वितथम्' अतथ्यम् । १०-अ० चू० पृ० १६५, जि० चू० पृ० २४६ : 'मुत्ती सरीरं मण्णइ ।' ११-हा० टी० प० २१४ : 'लथाभू प' कथंचित्तत्स्वरूपमपि वस्तु । १२ अ० चू० पृ० १६५ : अविसण केणतिभावेण तथाभूतमवि । १३ -जि० चू० पृ० २४६ : अविसदो संभावणे । १४-हा० टी०प०२१४ : अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः । Jain Education Intemational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ३४६ अध्ययन ७ : श्लोक ६ टि०१० आश्रय लेकर बोलना है और (३) हरिभद्रसूरि के अनुसार इसका अर्थ होता है -तथामूर्ति होते हुए भी जो वितथ हो, उसका आश्रय लेकर जो बोलता है। चूणिकार और टीकाकार के उदाहरणों में बहुत बड़ा अन्तर है । अगस्त्यचूणि के अनुसार स्त्री-वेषधारी पुरुष को देखकर यह कहना कि स्त्री सुन्दर है। जिनदास चूणि के अनुसार स्त्री-वेषधारी पुरुष को देखकर यह कहना कि स्त्री गा रही है, नाच रही है, बजा रही है, जा रही है तथा पुरुष-वेषधारी स्त्री को देखकर यह कहना कि पुरुष गा रहा है, नाच रहा है, बजा रहा है, जा रहा है—सदोष है। टीका के अनसार 'पुरुष-वेषधारी स्त्री को स्त्री कहना सदोष है। चूणिकार वेष के आधार पर किसी को पुरुष या स्त्री कहना सदोष मानते हैं और टीकाकार इसे निर्दोष मानते हैं । यह परस्पर विरोध है । खुणि---पुरुष = स्त्रीवेष = स्त्री = सदोष स्त्री = पुरुषवेष = पुरुष = सदोष टीका-स्त्री = पुरुषवेष =: स्त्री = सदोष रूप-सत्य भाषा की अपेक्षा टीकाकार का मत ठीक लगता है। उनकी दृष्टि से पुरुष-वेषधारी स्त्री को पुरुष कहना चाहिए, स्त्री नहीं, किन्तु सातवें श्लोक की टीका में उन्होंने लिखा है कि जहाँ किसी व्यक्ति के बारे में उसके स्त्री या पुरुष होने का निश्चय न हो तब 'यह पुरुप है' ऐसा कहना वर्तमान शंकित भाषा है। इससे चूर्णिकार के मत की ही पुष्टि होती है। वे उसको सन्देह-दशा की स्थिति में जोड़ते हैं । नाटक आदि के प्रसङ्ग में जहाँ वेष-परिवर्तन की संभावना सहज होती है वहाँ दूसरों को भ्रम में डालने के लिए अथवा स्वयं को सन्देह हो वैसी स्थिति में तथ्य के प्रतिकूल, केवल वेष के अनुसार, स्त्री या पुरुष कहना सदोष है। सत्य-भाषा का चौथा प्रकार रूप-सत्य है। जैसे प्रवजित रूपधारी को प्रवजित कहना 'रूप-सत्य सत्य भाषा' है । इस श्लोक में बतलाया है कि परिवर्तित वेष वाली स्त्री को स्त्री नहीं कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यही है कि जिसके स्त्री या पुरुष होने में सन्देह हो उसे केवल बाहरी रूप या वेष के आधार पर स्त्री या पुरुष नहीं कहना चाहिए किन्तु उसे स्त्री या पुरुष का वेष धारण करने वाला कहना चाहिए । आयारचूला से भी इस आशय की पुष्टि होती है। श्लोक ६ १०. इसलिए ( तम्हा क ) : यत और तत् शब्द का नित्य सम्बन्ध है । अगस्त्यसिंह ने इनका सम्बन्ध इस प्रकार मिलाया है-संदिग्ध वेष आदि के आधार पर बोलना भी सदोष है। इसलिए मृपावाद की संभावना हो वैसी शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए । हरिभद्रसूरि के अनुसार सत्य लगने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलने वाला पाप से लिप्त होता है, इसलिए जहाँ मृषावाद की संभावना हो वैगी शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि पूर्व इलोकोक्त वेष-शंकित भाषा बोलने वाला पाप से लिप्त होता है, इसलिए क्रिया-शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए। १- अ० पू० पृ० १६५ : जहा पुरिसमिस्थिनेवत्थं भणति - सोभणे इत्थी एवमादि । २ -जि० चू० पृ० २४६ : तस्थ पुरिसं इथिणेवत्थियं इत्थि वा पुरिसनेवत्थियं दळूण जो भासई-इमा इत्थिया गायति णच्चइ' वाएइ गच्छइ, इमो या पुरिसो गायइ णच्चइ वाएति गच्छइत्ति । ३ ० टी०प०२१४ : पुरुषनेपथ्यस्थितवनिताद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति गायति वेत्यादिरूपाम । ४ ..हा० टी० प० २१४ : साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति । ५.पन्न पद ११॥ ६-० ० ४।५ : इत्थी बेस, पुरिस वेस, नपुंसग वेस एयं वा चेयं अन्नं वा चेयं अणुवीइ णिट्ठाभासी, समियाए संजए भासं भासेज्जा वृत्त -तथा स्त्रयादिके दृष्टे सति स्त्र्येवैषा पुरुषो वा नपुसकं वा, एवमेवैतदन्यद्वैतत्, एवम् ‘अणुविचिन्त्य' निश्चित्य निष्ठाभाषी मन समित्या समतया संयत एव भाषां भाषेत । ७. अ० चू० पृ० १६६ : जतो एवं नेवच्छादीण य संवि? वि दोसो, तम्हा । ८-हा० टी० प० २१४ : 'तम्ह' त्ति सूत्रं, यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य भाषमाणो बद्धयते तस्मात् । Jain Education Intemational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३५० अध्ययन ७ : श्लोक ७-६ टि० ११-१३ ११. हम जायेंगे ( गच्छामो क ) : यहाँ 'वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा' इस सूत्र के अनुसार निकट भविष्य के अर्थ में वर्तमान विभक्ति है। श्लोक ७: १२. वर्तमान और अतीत काल-संबन्धी अर्थ के बारे में शंकित ( संपयाईयमढेंग ) : काल की दृष्टि से शकित भाषा के तीन प्रकार होते हैं : (१) भविष्यकालीन (२) वर्तमानकालीन और (३) अतीतकालीन । भविष्यकालीन शंकित भाषा के उदाहरण छठे श्लोक में आ चुके हैं । निश्चित जानकारी के अभाव में –अमुक वस्तु अमुक की हैं - इस प्रकार कहना वर्तमानकालीन शंकित भाषा है । टीककार के अनुसार स्त्री या पुरुष है -ऐसा निश्चय न होने पर किसी को स्त्री या पुरुष कहना वर्तमान शंकित भाषा है। बैल देखा या गाय, इसकी ठीक स्मृति न होते हुए भी ऐसा कहे कि मैंने गाय देखी थी.... यह अतीतकालीन शंकित भाषा है । श्लोक ८-६: १३. श्लोक ८-१० : दोनों चणियों में आठवें, नवें और दसवें श्लोक के स्थान पर दो ही श्लोक हैं और रचना-दृष्टि से वे इनसे भिन्न हैं। विषय-वर्णन की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं जान पड़ता किन्तु शब्द-संकलन की दृष्टि से चूणि में व्याख्यात श्लोक गम्भीर हैं। टीकाकार ने चूणि से भिन्न परम्परा के आदर्शों का अनुसरण किया है। अगस्त्य चूणिगत श्लोक और उसकी व्याख्या इस प्रकार है: तहेवाणागतं अट्ठ जं वऽण्णऽणुवधारितं । संकितं पडुपण्णं वा एवमेयं ति णो वदे ॥८॥ तेहवाणागतं अटुं जं होति उवधारितं । नीसंकितं पडुप्पण्णं थावथावाए णिद्दिसे ॥६॥ अनुवाद इसी प्रकार सुदुर भविष्य और अतीत के अज्ञात तथा वर्तमान के संदिग्ध अर्थ के बारे में यह इस प्रकार ही है- ऐसा न कहे। इसी प्रकार सदर भविष्य और अतीत के सुज्ञात तथा वर्तमान के निश्चित अर्थ को हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थापित कर उसका निर्देश करे---जैसा हो वैसा कहे । छटु तथा सातवें श्लोक में जिस क्रिया का हो सकना संदिग्ध हो उसे निश्चयपूर्ण शब्दों में कहने का निषेध किया है और इन दो उलोकों में अतीत, अनागत और वर्तमान की घटनाओं तथा व्यक्तियों की निश्चित जानकारी के अभाव में या संदिग्ध जानकारी की स्थिति में उनका निश्चित भाषा में प्रतिपादन करने का निषेध किया है । अगस्त्य चूणि में 'एष्यत्' का अर्थ निकट भविष्य और अनागत का अर्थ सुदूर भविष्य किया है । कल्की होगा—यह सुदूर भविष्य का अविज्ञात अर्थ है । दिलीप सुदूर अतीत में हुए हैं। उनके बारे में निर्धारित बातें कहना असत्य वचन है। १-भिक्षु० ४. ४.७६ । २-हा० टी० १०२१४ : तथा साम्प्रतातीतार्थयोरपि या शङ्किता, साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति, अतीतार्थेऽप्येवमेव बलीवर्दतत्स्च्याद्यनिश्चये तदाऽत्र गौरस्माभिष्ट इति । ३---अ० चू० पृ० १६६ : एसो आसणो, अणागतो विकिट्ठो। ४-अ० चू० पृ० १६६ : अणुवधारितं -अविष्णातं । ५- अ० चू० पृ० १६६ : जहा दिलीपादयो एवं विधा आसी। Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ३५१ अध्ययन ७ : श्लोक १०-११ टि० १४-१६ उप (अव) धारित का अर्थ वस्तु की सामान्य जानकारी (उपलब्धिमात्र) और निःशङ्कित का अर्थ वस्तु की विशिष्ट जानकारी (सर्वोपलब्धि) है। अतीत और अनागत के साथ उपधारित और वर्तमान के साथ निःशंकित का प्रयोग किया है वह सापेक्ष है। वर्तमान की जितनी पूर्ण जानकारी हो सकती है उतनी अतीत और भविष्य की नहीं हो सकती। सामान्य बात यही है कि दोनों काल के अनवधारित और शंकित अर्थ के बारे में यह इसी प्रकार है' इस प्रकार नहीं कहना चाहिये किन्तु 'मैं नहीं जानता' इस प्रकार कहना चाहिए । मिथ्या वचन और विवाद से बचने का यह उत्तम उपाय है । जिनदास चुणि (पृ० २४८) में ये श्लोक इस प्रकार हैं : तं तहेव अईयंमि, कालंमिऽण वधारियं । जं चण्णं संकियं वावि, एवमेवंति नो वए।। तहेवाणागयं अत्थं, जे होइ उवहारियं । निस्संकियं पड़प्पन्ने, एवमेयंति निदिसे ॥ अनुवाद इसी प्रकार अतीत काल के अनिश्चित अर्थ तथा अन्य (वर्तमान तथा भविष्य) के शंकित अर्थ के विषय में यह ऐसे ही है-इस प्रकार न कहे। इसी प्रकार भविष्यकाल तथा वर्तमान और अतीत के निश्चित अर्थ के बारे में यह ऐसे ही है-इस प्रकार न कहे। श्लोक १० १४. श्लोक १० छश्लोक से नवें श्लोक तक निश्चयात्मक भाषा बोलने का निषेध किया है और इस श्लोक में उसके बोलने का विधान है। निश्चयात्मक भाषा बोलनी ही नहीं चाहिए, ऐसा जैन दृष्टिकोण नहीं है, किन्तु जैन दृष्टिकोण यह है कि जिस विषय के बारे में वक्ता को सन्देह हो या जिस कार्य का होना संदिग्ध हो उसके बारे में निश्चयात्मक भाषा नहीं बोलनी चाहिए -ऐसा करूँगा, ऐसा होगा, इस प्रकार नहीं कहना चाहिए । 'किन्तु मेरी कल्पना है कि मैं ऐसा करूँगा,' 'संभव है कि यह इस प्रकार होगा'–यों कहना चाहिए । स्याद्वाद को जो लोग सन्देहवाद कहते हैं और जो कहते हैं कि जैन लोग निश्चयात्मक भाषा में बोलते ही नहीं उनके लिए यह श्लोक सहज प्रतिवाद है। श्लोक ११: १५. परुष ( फरसा क): जिनदास और हरिभद्र ने 'परुष' का अर्थ स्नेह-वजित-रूखा किया है। शीलाङ्कमूरि के अनुसार इसका अर्थ मर्म का प्रकाशन करने वाली वाणी है। १६. महान् भूतोपघात करने वाली ( गुरुभओवघाइणी ख): आयारधूला ४।१० में केवल 'भूओवघाइय' शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ 'गुरु' शब्द का प्रयोग संभवतः पद-रचना की दृष्टि से हुआ है। 'गुरु' शब्द भूत का विशेषण हो तो अर्थ का विरोध आता है। छोटे या बड़े किसी भी जीव की घात करने वाली भाषा मुनि के लिए अवाच्य है । इसलिए यह भूतोपघातिनी का विशेषण होना चाहिए। जिस भाषा के प्रयोग से महान् भूतोपघात हो उसे गुरुभूतोपघातिनी भाषा कहा जा सकता है । १-अ० चू० पृ० १६७ : उवधारियं वत्थुमतं, नीसंकितं सव्वपगारं। २ -(क) जि० चू० पृ० २४६ : 'फरुसा' णाम णेहवज्जिया।। (ख) हा० टी० ५० २१५ : 'परुषा भाषा' निष्ठुरा भावस्नेहरहिता। ३-आ० चू० ४।१० वृ० : 'परुषां' मर्मोद्घाटनपराम् । ४-जि० चू० पृ० २४६ : जीए भासाए भासियाए गुरुओ भूयाणुवघाओ भवइ । Jain Education Intemational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३५२ अध्ययन ७: श्लोक १३-१५ टि०१७-१६ अगस्त्य चूणि में गुरु-भूतोपघातिनी' के तीन अर्थ किए गए हैं : (१) वृद्ध आदि गुरुजन या सब जीवों को उपतप्त करने वाली, (२) गुरु अर्थात् बड़े व्यक्तियों का उपघात करने वाली, जैसे--कोई विदेशागत व्यक्ति है । वह अपने को कुल-पुत्र या ब्राह्मण बतलाता है । उसे दास आदि कहना उसके उपघात का हेतु बनता है । (३) गुरु अर्थात् बड़ी भूतोपघात करने वाली, जैसे -कोई ऐसी बात कहना जिससे विद्रोह भड़क जाए, अन्तःपुर आदि को मार डाले'। यहाँ उपघात के प्राणिवध, पीड़ा और अभ्याख्यान—ये तीन अर्थ हो सकते हैं । प्रस्तुत श्लोक में स्नेह-वजित, पीड़ा और प्राणि वध कारक तथा अभ्याख्यानात्मक सत्य वचन बोलने का निषेध है। श्लोक १३ : १७. आचार सम्बधो भाव-दोष को जानने वाला ( आयारभावदोसन्नू ग ) : जिनदास चणि और टीका में 'आयार' का कोई अर्थ नहीं किया गया है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'आयार' का अर्थ- 'वचननियमन' किया है । भाव-दोष का अर्थ प्रदुष्ट चित्त है । काना किसी व्यक्ति का नाम हो उसे काना कहने में दोष नहीं है, किन्तु द्वेषपूर्ण चित्त से काने व्यक्ति को काना नहीं कहना चाहिए। भाव-दोष का दूसरा अर्थ प्रमाद है । प्रमादवश किसी को काना नहीं कहना चाहिए। श्लोक १४ १८. श्लोक १४: होल, गोल आदि शब्द भिन्न-भिन्न देशों में प्रयुक्त होने वाले तुच्छता, दुश्चेष्टा, विग्रह, परिभव, दीनता और अनिष्टता के सूचक हैं । एक शब्द में ये अवज्ञा-सूचक शब्द हैं। होल-निष्ठुर आमंत्रण । गोल-जारपुत्र । श्वान-कुत्ता । वृषल-शूद्र । द्रमक-रंक । दुर्भग--भाग्यहीन। तुलना के लिए देखिए आयारचूला ४।१२ तथा 'होलावायं सहीवायं, गोयावायं च नो वदे' (सूत्रकृताङ्ग १.६.२७) । श्लोक १५: १६. श्लोक १५: इन शब्दों का प्रयोग करने से स्नेह उत्पन्न होता है । यह श्रमण अभी भी लोक-संज्ञा को नहीं छोड़ रहा है, यह चाटुकारी है'ऐसा लोग अनुभव करते हैं, इसलिए इनका निषेध किया गया है। १-अ० चू० ५० १६७ : विद्धादीण गुरूण सव्वभूताण वा उवघातिणी, अहवा गुरूणि जाणि भूताणि महंति, तेसि कुलपुत्तबंभणत्त भावितं विदेसागतं तहाजातीयकतसंबंध दासादि वदति जतो से उवघातो भवति गुरु वा भूतोवघातं जा करेति रायंतेउरादि अभिद्रोहातिणा मारणंतियं ।। २-(क) ठा० १०.६० वृ०: उवधातनिस्सते . उपधाते-प्राणिवधे निधितम्-आश्रितम्, दशमं मृषा । (ख) नि० चू० : उपघातः-पीडा व्यापादनं वा। (ग) प्र. वृ० ११ : उवघाइयणिस्सिया–आधातनि:सृता चौरस्त्वमित्याद्यभ्याख्यानम् । ३-अ० चू० पु. १६८ : वयण-नियमणमायारो, एयंमि आयारे सति भाव दोसो—पदुळं चित्तं तेण भावदोसेण न भासेज्ज । जति पूण काण-चोर-ति कस्सति णामं ततो भासेज्जावि । अहवा आयारे भावदोसो पमातो, पमातेण ण भासेज्ज । ४- हा० टी०प० २१५ : इह होलादिशब्दास्तत्तद्देशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्यादिवाचकाः। ५--अ० चू० पृ० १६८ : होलेत्ति निठुरमामंतणं देसीए भविलवदमिव । एवं गोले इति दुच्चेद्वितातो सुणएणोवमाणवदणं वसुलो सुदृपरिभवववणं भोयणनिमित्तं घरे घरे द्रमति गच्छतीति दमओ रंको। दूभगो अणिटो। ६-जि० चू० पृ० २५० : एयाणि अज्जियादीणि णो भासेज्जा, किं कारणं? जम्हा एवं भणंतस्स हो जायइ परोप्पर, लोगो य भणेज्जा, एवं वा लोगो चितेज्जा, एसऽज्जवि लोगसन्न ण मुयइ, चाटुकारी वा। Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ३५३ श्लोक १६ : २०. श्लोक १६: अगस्त्य चूर्णि के अनुसार 'हले' और 'अन्ने' तरुणी स्त्री के लिए सम्बोधन शब्द हैं । इनका प्रयोग महाराष्ट्र में होता था । लाट (मध्य और दक्षिणी गुजरात ) देश में उसके लिए 'हला' शब्द का प्रयोग हुआ करता था । 'भट्टे' पुत्र रहित स्त्री के लिए प्रयुक्त होता था । 'सामिणी' यह लाट देश में प्रयुक्त होने वाला सम्मान सूचक सम्बोधन शब्द है और 'गोमिणी' प्रायः सब देशों में प्रयुक्त होता था । होले गोले और वसुले ये तीनों प्रिय वचन वाले आमंत्रण हैं, जो कि गोल देश में प्रयुक्त होते थे' 1 जिनदास के अनुसार 'हले' आमंत्रण का प्रयोग वरदा-तट में होता था, और 'हुला' का प्रयोग लाट देश में । 'अन्ने' का प्रयोग महाराष्ट्र में वेश्याओं के लिए होता था । 'भट्ट' का प्रयोग लाट देश में ननद के लिए होता था । 'सामिणी' और 'गोमिणी' ये के चाटुता आमन्त्रण हैं । होले गोले और वसुले -- ये तीनों मधुर आमंत्रण हैं ।" श्लोक १७ : अध्ययन ७ : श्लोक १६-१७ टि० २०-२१ २१. नाम... ---गोत्तेण ख ) : प्राचीन काल में व्यक्ति के दो नाम होते थे गोत्र नाम और व्यक्तिगत नाम । व्यक्ति को इन दोनों नामों से सम्बोधित किया जाता था। जैसे - भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य का नाम इन्द्रभूति था और वे आगमों में गौतम - इस गोत्रज नाम से प्रसिद्ध हैं । पाणिनी ने गोत्र का अर्थ - पौत्र आदि अपत्य किया है । यशस्वी और प्रसिद्ध पुरुष के परंपर-वंशज गोत्र कहलाते थे । स्थानाङ्ग में काश्यप गोतम, वत्स, कुत्स, कौशिक, मण्डव, वाशिष्ट-- ये सात गोत्र बतलाये हैं । वैदिक साहित्य में गोत्र शब्द व्यक्ति विशेष या रक्त सम्बन्ध से संबद्ध जन-समूह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है" । बौधायन श्रौतसूत्र के अनुसार विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ और कश्यप- ये सात गोत्र-कर्त्ता ऋषि हैं तथा आठवाँ गोत्र-कर्त्ता ऋषि अगस्त्य हैं। इनकी संतति या वंश-परम्परा को गोत्र कहा जाता है । इस श्लोक में बताया गया है कि नाम याद हो तो नाम लेकर सम्बोधित करें, नाम याद न हो तो गोत्र से सम्बोधित करे अथवा नाम या गोत्र दोनों में से जो अधिक उचित हो उससे सम्बोधित करे । अवस्था आदि की दृष्टि से जिस व्यक्ति के लिए जो उचित हो उसी शब्द से उसको सम्बोधित करे। मध्य प्रदेश में वयोवृद्धा स्त्री को 'ईश्वरा' कहा जाता है, कहीं उसे 'धर्म-प्रिया' और कहीं 'धर्मशीला' । इस प्रकार जहाँ जो शब्द उचित हो, उसी से सम्बोधित करे । " अन्वेति मरहट्ठे तरी 1 १००० १६० जति सवदे गोमणी गोविए होले गोले बने २- जि० ० ० २५०ति आनंत लाविस समागमणं वा आमंत जहां हलिति मरहट्ठविस आमंत, दोमूलखराचायणं अति भट्टति लाडा पतिभविनोद हामी गोमणिओ चाटुए वयणं, होलेति आमंतणं, जहा- 'होलवणिओ ते पुच्छइ सयक्कऊ परमेसाणो इंदो । अण्णंपि किर वारसा इदमहसतं समतिरेकं । एवं गोलवसुगावि महरं सप्पिवासं आमंतणं । 1 । तिला भट्ट ति अन्य-रहित पायोला सामिदेसीए लगत्याणपाणि प्रिया ३ पा० व्या० ४. १. १६२ : अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम् । ४-ठा० ७.३० : सत्त मूलगोत्ता प० तं० कासवा गोतमा बच्छा कोच्छा कोसिता मंडवा वासिट्ठा । ५- अ० वे० ५. २१.३ । ६- प्रवराध्याय ५४ । लज्जा ७- जि० ० १० २५१ जं तीए नाम तेण नामविश्वेण सा इत्वी आतविव्या, जाहे नाम न सरेना ताहे गोले जहा कासवगोते ! एवमादि, 'जहारिहं' नाम जा वुड्डा सा अहोत्ति वा तुज्झेति वा भाणियव्वा, जा समावणया सा तुमंति वा वत्तच्या, वच्छं पुणो पप्प ईसरीति वा, समाणवया ऊणा वा तहावि तुम्भेति भाषियव्वा, जेणप्पगारेण लोगो आभासइ जहा भट्टा गोमिणित्ति वा एवमादि । महा० टी० प० २१६ : तत्र वयोवृद्धा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते धर्मशीले इत्यादिना, अन्यथा च यथा न लोकोपघातः । , Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३५४ अध्ययन ७: श्लोक १९-२२ टि०२२-२५ २२. गुण-दोष का विचार कर ( अभिगिज्म ") : ___'अभिगिज्झ' शब्द की तुलना आयारचूला ४।१० के 'अभिकख' शब्द से होती है । टीकाकार ने इसका अर्थ किया है --'अभिकाय - पर्यालोच्य' अर्थात् पर्यालोचन कर । प्रस्तुत श्लोक के 'अभिगिज्झ' शब्द का चूर्णिकार और टीकाकार दोनों को यही अर्थ अभिमत है। श्लोक १६: २३. श्लोक १६: हे ! और भो ! सामान्य आमंत्रण शब्द हैं । 'अण्णं' यह महाराष्ट्र में पुरुष के सम्बोधन के लिये प्रयुक्त होता था। 'भट्टि', 'सामि' और 'गोमि'—ये पूजावाची शब्द हैं । 'होल' प्रभुवाची शब्द है । 'गोल' और 'वसुल' युवा पुरुष के लिए प्रयुक्त प्रिय-शब्द हैं। श्लोक २१: २४. श्लोक २१: शिष्य ने पूछा-यदि पञ्चेन्द्रिय जीवों के बारे में स्त्री-पुरुष का सन्देह हो तो उनके लिए जाति शब्द का प्रयोग करना चाहिए तब फिर चतुरिन्द्रिय तक के जीव जो नपुंसक ही होते हैं, उनके लिये स्त्री और पुरुष लिङ्गवाची शब्दों का प्रयोग कैसे किया जा सकता है और यह जो प्रयोग किया जाता है, जैसे पुरुष स्त्री मुर्मुर पृथ्वी पत्थर मृत्तिका আন্ত करक उस्सा (अवश्याय) अग्नि ज्वाला वायु वात वातुली (वात्या) वनस्पति आम्र अंबिया द्वीन्द्रिय शंख शुक्ति त्रीन्द्रिय मत्कोटक पिपीलिका चतुरिन्द्रिय मधुकर मधुकरी क्या वह सही है ? आचार्य ने कहा--जनपद-सत्य और व्यवहार-सत्य भाषा की दृष्टि से यह सही है। शिष्य-तब फिर पंचेन्द्रिय के लिए भी ऐसा हो सकता है ? आचार्य-पंचेन्द्रिय में स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों होते हैं, इसलिए उनका यथार्थ निर्देश करना चाहिए । असंदिग्ध जानकारी के अभाव में सही निर्देश नहीं हो सकता इसलिए वहाँ 'जाति' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। श्लोक २२: २५. श्लोक २२ : इस श्लोक में मनुष्य, पशु, पक्षी और अजगर को स्थूल, प्रमेदुर, वध्य और पाक्य नहीं कहना चाहिए। उन्हें जो कहना है वह अगले श्लोक में प्रतिपाद्य है। १- (क) जि० चू० पृ० २५१ : अभिगिज्झ नाम पुब्वमेव दोसगुणे चितेऊण । (ख) हा० टी० प० २१६ : 'अभिगृह्म' गुणदोषानालोच्य। २--अ०० पृ० १६६ : हे भो हरेत्ति सामण्णमामंतणवयणं । 'अण्णं' इति मरहट्ठाणं । भट्टि सामिय गोमिया पूया वयणाणि । निसातिसु सव्वविभत्तिसु। होल इति पहुवयणं । गोल वसुल जुवाणप्रियवयणं। ३–हा० टी०प० २१७ : जइ लिंगवच्चए दोसो ता कोस पुढवादि नपुंसगत्तेवि पुरिसिथिनि सो पयट्टई, जहा पत्थरो मट्टिआ करओ उस्सा मुम्मरो जाला वाओ वाउली अंबओ अंबिलिया किमिओ जलूया मक्कोडओ कीडिआ भमरओ मच्छिआ इच्चेवमादि? आयरिओ आहे. जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एवं पयट्टइत्ति ण एत्थ दोसो पंचिदिएसु पण ण एयमंगीकीरईगोवालादीणविण सुदिधम्मत्ति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छि असामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति । Jain Education Intemational Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि (वाक्यशुद्धि) अध्ययन ७ : श्लोक २३ टि० २-३० २६. वध्य ( या वाह्य ) ( वज्झे ग ) : शीलाङ्कसूरि ने 'वज्झ' शब्द के दो संस्कृत रूप दिए हैं -वध्य और वाह्य । इनका क्रमशः अर्थ होता है-वध करने योग्य और वहन करने योग्य' । अगस्त्य धूणि में मनुष्य की वध्यता के लिए पुरुष-मेध का उदाहरण दिया गया है । २७. पाक्य (पाइमेघ) : टीकाकार ने इसका मूल अर्थ पकाने योग्य तथा मतान्तर के अनुसार काल-प्राप्त किया है। शीलाङ्कसरि ने इसके दो अर्थ किए हैं पचन-योग्य और पातन-योग्य - देवता आदि के बलि देने योग्य । श्लोक २३ : २८. श्लोक २३ : पूर्वोक्त श्लोक में स्थूल आदि जिन चार शब्दों के प्रयोग का निषेध किया है उनकी जगह आवश्यकता होने पर परिवृद्ध आदि शब्दों के प्रयोग का विधान इस इलोक में किया गया है । अवाच्य वाच्य स्थूल परिवृद्ध प्रमेदुर उपचित वध्य या वाह्य संजात और प्रीणित पाक्य महाकाय आयारचूला ४।२५ में स्थूल आदि के स्थान पर परिवृद्ध-काय, उपचित-काय, स्थिर-संहनन, चित-मांस-शोणित और बहुप्रतिपूर्णेन्द्रिय शब्दों के प्रयोग का विधान है। २६. परिवृद्ध ( परिवुड्ढे क ) हरिभद्रसूरि ने इसका संस्कृत रूप 'परिवृद्ध' किया है और शीलाङ्कसूरि भी आयारचूला ४१२६ वृत्ति में इसका यही रूप मानते हैं । प्राकृत व्याकरण के अनुसार भी वृद्ध का बुड्ढ रूप बनता है। धूणियों तथा कुछ प्राचीन आदर्शों में परिवूढ' ऐसा पाठ मिलता है। उत्तराध्ययन (७. २, ६) में 'परिवूढ' शब्द का प्रयोग हुआ है। शान्त्याचार्य ने इसका संस्कृत रूप परिवढ' और इसका अर्थ 'समर्थ' किया है। उपाध्याय कमलसंयम ने एक स्थल पर उसका संस्कृत रूप 'परिवृढ' और दूसरे स्थल पर 'परिवृद्ध' किया है । ३०. उपचित ( उचिए ख ): मांस के उपचय से उपचित । १-आ० चू० ४।२५ वृ० : वध्यो वहनयोग्यो वा । २--- अ० चू० पृ० १७० : तत्थ मणुस्सो पुरिसमेधादिसु । ३- हा० टी०प० २१७ : 'पाक्य:' पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये । ४–आ० चू०४।२५ वृ० : पचनयोग्यो देवतादेः पतनयोग्यो वेति । ५-हैम० ८.२.४४ : दग्धविदग्ध-वृद्धि वृद्धेः ढः । ६- उत्त० बृ० वृ० पत्र २७३, २७४ । ७–उत्त० स० पत्र १५८-१५६ । ८-अ० चू० पृ० १७० : उवचितो मंसोवचएण। Jain Education Intemational Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७:श्लोक २४-२५ टि. ३१-३८ दसवेआलियं (दशवैकालिक) ३१. संजात ( युवा ) ( संजाए ग ) : ___ संजात का अर्थ युवा है। ३२. प्रीणित ( पीणिए ग ) : प्रीणित का अर्थ है-आहार आदि से तृप्त' । श्लोक २४ : ३३, दुहने योग्य हैं ( दुज्झाओ क ): दोह्य का अर्थ है ---दुहने योग्य अथवा दोहन-काल, जैसे--अभी इन गायों के दुहने का समय है । ३४. बैल ( गोरहग ख ) : गोरहग-तीन वर्ष का बछड़ा। रथ की भाँति दौड़ने वाला बैल, जो रथ में जुत गया वह बैल, पाण्डु-मथुरा आदि में होने वाला बछड़ा। कहीं-कहीं रथ में जुतने योग्य तरुण बैल को तथा अमदप्राप्त छोटे बैल को भी गोरहग कहा जाता है । टीका में 'गोरहग' का अर्थ कल्होड किया है । कल्होड देशी शब्द है। इसका अर्थ है-वत्सतर-बछड़े से आगे की और संभोग में प्रवत्त होने के पहले की अवस्था । ३५. दमन करने योग्य है ( दम्मा ख ): दम्य अर्थात् दमन करने योग्यः । बधिया करने योग्य ---कृत्रिम नपुंसक करने योग्य भी दम्य का अर्थ है । ३६. वहन करने योग्य है ( वाहिमा ग ) : वाह्य-गाड़ी का भार ढोने में समर्थ । ३७. रथ-योग्य है ( रहजोग ग ) : अभिनव युवा होने के कारण यह बैल अल्प-काय है, बहुत भार ढोने में समर्थ नहीं है, इसलिए यह रथ-योग्य है। श्लोक २५ ३८. श्लोक २५: इस तथा पूर्ववर्ती श्लोक के अनुसार १-अ० चू० पृ० १७० : संजातो समत्तजोव्वणो। २--अ० चू० पृ० १७० : पीणितो आहारातितित्तो। ३-हा० टी० ५० २१७ : तथैव गावो 'दोह्या' दोहार्हाः । ४....(क) आ० ० ४।२७०० : दोहनयोग्या एता गावो दोहनकालो वा वर्तते । (ख) जि० चू० पृ० २५३ : दोहणिज्जा बुज्झा, जहा गावीणं दोहणवेला बट्टइ। ५-सूत्र० १.४. २. १३ वृ० : 'गोरहगति त्रिहायणं बलीवर्दम् । ६-अ०० पृ० १७०: गोजोग्गा रहा गोरहजोग्यत्तणेण गच्छंति गोरहगा पण्डु-मधुरादीसु किसोर-सरिसा गोपोतलगा अण्णत्थ वा तरुणतरुणारोहा जे रहम्मि वाहिज्जति, अमदप्पत्ता खुल्लगवसभा वा ते वि । ७-हा० टी०प० २१७ : गोरथकाः कल्होडाः ।। ८- दे० ना० २.६. पृ० ५६ : कल्होडो वच्छयरे...... कल्होडो वत्सतरः । ...-(क) अ० चू०पृ० १७०: दम्मा दमणपत्तकाला। (ख) जि० चू०प०२५३ : दमणीया दम्मा, दमणपयोग्गत्ति वुत्त' भवइ । १० जि० चू० पृ० २५३ : वाहिमा नाम जे सगडादीभरसमत्था । जि. चू०प०:२५३ : रथजोग्गा णाम अहिणवजोव्वणतणण अप्पकाया, ण ताव बहुभारस्स समत्था, किन्तु संपयं रहजोग्गा एतेत्ति। Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) अध्ययन ७:श्लोक २७ टि०३९-४४ अवाच्य १. गाय दुहने योग्य है। २. बैल दम्य है। ३. बैल हल में जोतने योग्य है । ४. बैल वाह्य है। ५. बल रथ-योग्य है। वाच्य धेनु दूध देने वाली है। बैल युवा है। बैल ह्रस्व है- छोटा है। बैल महालय -बड़ा है। बैल संवहन है। ३६. बैल युवा है ( जुवं गवे क ) : युवा बैल, चार वर्ष का बैल'। ४०. बड़ा है ( महल्लए ग ) : दोनों चूणियों में 'महल्लए' के स्थान पर 'महव्वए' पाठ है । आयारचूला ४।२८ में 'महल्लए ति वा' 'महब्वए ति वा'--ये दोनों पाठ हैं। ४१. धुरा को वहन करने वाला है ( संवहणे घ ) : ___संवहण—जो धुरा को धारण करने में क्षम हो उसे संबहन कहा जाता है। श्लोक २७: ४२. प्रासाद ( पासाय क ) : एक खंभे वाले मकान को प्रासाद कहा जाता है। चूर्णिकारों ने इसका व्युत्पत्तिक-लभ्य अर्थ भी किया है-जिसे देखकर लोगों के मन और आँखें प्रसन्न हों वह प्रासाद कहलाता है। ४३. परिघ, अर्गला ( फलिहग्गल ग ) : ___ नगर-द्वार की आगल को परिघ और गृहद्वार की आगल को अर्गला कहा जाता है। ४४. जल की कुंडी के लिए ( उदगदोणिणं घ): अगस्यसिंह स्थविर के अनुसार-एक काठ के बने हुए जल-मार्ग को अथवा काठ की बनी हुई जिस प्रणाली से रहॅट आदि के जल का संचार हो उसे 'द्रोणि' कहा जाता है। १-जि० चू०प० २५४ : जुवं गवो नाम जुवाणगोणोत्ति, चउहाणगो वा। २-(क) अ० चू० पृ० १७१ : वाहिममवि महब्धयमालवे। (ख) जि० चू० पृ० २५४ : जो वाहिमो तं महत्वयं भणेज्जा। ३---(क) दश० दी० ७.२५ : संवहनं धुर्पम् । (ख) जि० चू० पृ० २५४ : जो रहजोगो तं संवहणं भणेज्जा। (ग) हा० टी०प०२१७ : संवहनमिति रथयोग्यं संवहनं वदेत् । ४-(क) जि० चू० पृ० २५४ : पासादस्स एगक्खंभस्स। (ख) हा० टी०प०२१८: एकस्तम्भः प्रासादः। ५-(क) अ०० १० १७१: पसीदंति जंमि जणस्स मणोणयणाणि सो पासादो। (ख) जि० चू० पृ० २५४ : पसीयंति जंमि जणस्स णयणाणि पासादो भण्णइ । ६-हा० टी० प० २१८ : तत्र नगरद्वारे परिघः गोपुरकपाटादिष्वर्गला। ७-० चू०पू० १७१ : एग कट्ठ उदगजाणमेव, जेण वा अरहट्टादीण उदगं संचरति सा दोणी । Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ३५८ जिनदास महत्तर के अनुसार जिसमें रहेंट की घड़ियाँ पानी डालें वह जल-कुंडी वाले देशों में जल से भरकर रखी जाती है और जहाँ स्नान तथा कुल्ला किया जाता है, टीकाकार ने इसका अर्थ - रहेंट के जल को धारण करने वाली किया है । आयार चूला ४।२६ में 'यह वृक्ष उदक द्रोणी के योग्य है' ऐसा कहने का निषेध मिलता है । 'द्रोणी' का अर्थ जल-कुंडी के सिवाय काष्ठमय नौका भी हो सकता है । अर्थशास्त्र में 'द्रोणी' का अर्थ काष्ठमय जलाधार किया है । श्लोक २८ अध्ययन ७ श्लोक २८ टि० ४५-४७ : ४५. काष्ठ-पात्री ( चंगबेरे क ) : काष्ठमयी या वंशमयी पात्री को 'चंगबेर' कहा जाता है। प्रश्न व्याकरण में इसी अर्थ में 'चंगेरी' शब्द का प्रयोग मिलता है । ४६. मयिक ( मइयं ख ) : म अर्थात् बोए हुए खेत को सम करने के लिए उपयोग में आने वाला एक कृषि का उपकरण ' पर कुलिय' शब्द का प्रयोग हुआ है। शीलाचार्य ने फुलीय' का अर्थ नहीं किया है। अनुयोगद्वार की कृषि का उपकरण विशेष जिसके नीचे रखे और तीसी लोह की पट्टियां बंधी हुई हो, वैसा लघुतर का काटने के लिये किया जाता है । प्रश्न व्याकरण में इसी अर्थ में 'मत्तिय' शब्द मिलता है" । ४७. ( गंधिया) : 93 गण्डका अर्थात् अहरन", काष्ठफलक" । कौटिलीय अर्थशास्त्र में एक स्थल पर गण्डिका को जल-संतरण का उपाय बतलाया है । व्याख्याकार ने माधव को उद्धृत करते हुए उसका अर्थ प्लवन-काष्ठ किया है" । अथवा काठ की बनी हुई वह कुंडी जो कम पानी वह 'उदगदोणि' कहलाती है' | १- जि० ० ० २५४ उदगदोणी अरहट्टन्स भवति जीए उपर पडलो पाणियं पाडेति अहवा उदगोणी घरांगगए कटुमपी अपोद देने कीर, तत्व मस्सा रहातंति आयमंति या २ हा० डी० ० २१८ उपकोष्योऽरहट्टजलधारिकाः । १३- यही १०.२ । १४- वही, १०.२ : गण्डिकाभि: प्लनवकाष्ठैरिति माधवः । (क) प्रश्न० ( आश्रवद्वार ) १.१३ वृ० : दोणि द्रोणी नौः । (ख) अ० चि० ३.५४१ । ४ – कौटि० अर्थ ० २.५६ : द्रोणी दारुमयो जलाधारो जलपूर्णः । ५ - जि० चू० पृ० २५४ : चंगबेरं कट्टुमयभायणं भण्णइ, अहवा चंगेरी वंसमयी भवति । ६- प्रश्न० (आयवहार) १.१३० चंगेरी ब ेरी महती काष्ठपात्री पटवा ७-हा० डी० १० २१० किम् उप्तबीजाच्छादनम्। ८०० ४२९ अगलनाचा उपयोग पोटचंग तंगल कुलियतीनाभिगंडी आसणसणावस्यजग्गा विवा ६- अनु० वृ० : अधोनिबद्ध तिर्यक्तीक्ष्णलोहपट्टिकं कुलिकं लघुतरं काष्ठं तृणाविच्छेदार्थं यत् क्षेत्रे वाह्यते तन्मरुमंडलादि प्रतीतं कुलिकमुच्यते । १० - प्रश्न० ( आश्रबद्वार) १ वृ० : मत्तियत्ति मत्तिकं, येन कृष्टं वा क्षेत्रं मृज्यते । ११ -- (क) हा० टी० प० २१८ : गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी ( अहिगरणी) स्थापनी । (ख) कौटि० अर्थ० २. ३२ : गण्डिका- काष्ठाधिकरणी । १२- कौटि० अर्थ० २. ३१ : गण्डिकासु कुट्टयेत्, ( व्याख्या) गण्डिकासु काष्ठफलकेषु कुट्टयेत् । आयारचूला में 'मइयं' के स्थान वृत्ति में इसका अर्थ यह हैइसका उपयोग खेत की पास Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ३५६ अध्ययन ७ : श्लोक २६-३२ टि० ४८-५३ श्लोक २६ : ४८. उपाश्रय के ( उवस्सए ख ) : उपाश्रय-घर अथवा साधुओं के रहने का स्थान' । श्लोक ३१ ४६. दीर्घ हैं, वृत्त "हैं, महालय हैं ( दीहवट्टा महालया ): नालिकेर, ताड़ आदि वृक्ष दीर्घ होते हैं । अशोक, नन्दि आदि वृक्ष वृत्त होते हैं। बरगद आदि वृक्ष महालय होते हैं अथवा जो वृक्ष बहु विस्तृत होने के कारण नानाविध पक्षियों के आधारभूत हों, उन्हें महालय कहा जाता है । ५०. प्रशाखा वाले हैं ( विडिमा ग ) : विटपी--जिनमें प्रशाखाएं फूट गई हों। श्लोक ३२ ५१. पकाकर खाने योग्य हैं ( पायखज्जाइं ख ) : पाक-खाद्य-इन फलों में गुठलियाँ पड़ गई हैं, इसलिए ये भूसे आदि में पकाकर खाने योग्य हैं । ५२. वेलोचित हैं ( वेलोइयाइंग): जो फल अति पक्व होने के कारण डाल पर लगा न रह सके -तत्काल तोड़ने योग्य हो उसे 'बेलोचित' कहा जाता है। ५३. इनमें गुठली नहीं पड़ी है ( टालाइंग ) : जिस फल में गुठली न पड़ी हो उसे 'टाल' कहा जाता है । १-अ० चू० पृ० १७२ : उवस्सयं साधुणिलयणं । २-जि० चू० पू० २५५ : दोहा जहा नालिएरतालमादी। ३--(क) जि० चू० पृ० २५५ : वट्टा जहा असोगमाई। (ख) हा० टी० प० २१८ : वृत्ता नन्दिवृक्षादयः । ४-जि० चू० पृ० २५५ : महालया नाम वडमादि । ५ जि० चू० पृ० २५५ : अहवा महसदो बाहुल्ले वट्टइ, बहूणं पक्खिसिंघाण आलया महालया । ६-(क) जि० चू० पृ० २५५ : 'बिडिमा' तत्थ जे खंधओ ते साला भण्णंति, सालाहितो जे णिग्गया ते बिडिमा भण्णंति । (ख) हा० टी०प० २१८ : 'विटपिनः' प्रशाखावन्तः । ७-(क) जि. चू०पू० २५६ : पाइखज्जाणि णाम जहा एताणि फलाणि बद्धट्ठियाणि संपयं कारसपलादिस पाइऊण खाइयव्वाणित्ति । (ख) हा० टी० प० २१८-१६ : 'पाकखाद्यानि' बद्धास्थीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति । ८-(क) हा० टी०प० २१६ : 'वेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्ति इत्यर्थः । (ख) जि० चू० पृ० २५६ : 'वेलोइयाणि' नाम वेला-कालो, तं जा णिति वेला तेसि उच्चिणि ऊगं ते अतिपरकाणि एयाणि पडंति जइ न उच्चिणिज्जति । ...-- (क) जि० चू० पू० २५६ : टालाणि नाम अबद्धट्ठिगाणि भन्नंति । (ख) हा० टी० प० २१६ : 'टालानि' अबद्धास्थीनि कोमलानीति । Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ७: श्लोक ३३-३४ टि. ५४-५९ ५४. ये दो टुकड़े करने योग्य हैं ( वेहिमाइंघ ) : जिन आमों में गुठली न पड़ी हों उनकी फांके की जाती हैं। वैसे आमों को देखकर उन्हें वेध्य नहीं कहना चाहिए। श्लोक ३३ : ५५. श्लोक ३३: मार्ग बताने के लिये वृक्ष का संकेत करना जरूरी हो तो-'वृक्ष पक्व हैं' के स्थान पर ये असंतृत हैं-फल धारण करने में असमर्थ हैं - इस प्रकार कहा जा सकता है । पाक-खाद्य के स्थान पर ये वृक्ष बहुनिवर्तित फल (प्राय: निष्पन्न फल वाले हैं) इस प्रकार कहा जा सकता है। 'वेलोचित' के स्थान पर ये वृक्ष बहुसम्भूत (एक साथ उत्पन्न बहुत फल वाले हैं) इस प्रकार कहा जा सकता है। 'टाल- इन फलों में गुठली नहीं पड़ी है' के स्थान पर ये फल भूत-रूप (कोमल) हैं-इस प्रकार कहा जा सकता है। 'द्वैधिक-दो टुकड़े करने योग्य' के स्थान पर क्या कहना चाहिए ? यह न तो यहाँ बतलाया गया है और न आचराङ्ग में ही। इससे यह जाना जा सकता है कि 'टाल' और 'द्वैधिक' ये दोनों शब्द परस्पर सम्बन्धित हैं। अचार के लिए केरी या अंबिया (बिना जाली–अन्दर का तन्तु पड़ा आम का कच्चा फल) तोड़ी जाती है और उसकी फांके की जाती हैं, इसलिए 'टाल' और 'वेहिम' कहने का निषेध है। ५६. ( बहुनिवट्टिमा ख): ___इसमें मकार दीर्घ है, वह अलाक्षणिक है । श्लोक ३४ ५७. औषधियाँ ( ओसहीओ क ): एक फसला पौधा, चावल, गेहूँ आदि । ५८. अपक्व हैं (नीलियाओ ख ) नीलिका का अर्थ हरी या अपक्व है । ५६. छवि ( फली ) वाली हैं (छवी इय क ): जिनदास यूणि के अनुसार 'नीलिया' औषधि का और टीका के अनुसार 'छवि' का विशेषण है। १- (क) जि० चू० पृ० २५६ : वेहिमं, अबद्ध ठ्ठिगाणं अंबाणं पेसियाओ कीरंति। (ख) हा० टी०प० २१६ : 'धिकानी' ति पेशीसंपादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानि । २-हा० टी० प० २१६ : असमर्था 'एते' आम्राः, अतिभारेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः । ३-हा० टी० प० २१६ : बहूनि निर्वतितानि बद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा, अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः। ४-हा० टी०प० २१६ : 'बहुसंभूताः' बहूनि संभूतानि-पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलो चितार्थ उक्तः। ५-(क) जि० चू० पृ० २५६ : 'भूतरूवा' णाम फलगुणोववेया। (ख) हा० टी०प० २१६ : भूतानि रूपाणि --अबद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालानार्थ उपलक्षितः । ६ ...(क) अ० चू०१० १७३ : ओसहिओ फलपाकपज्जत्ताओ सालिमादिओ। (ख) हा० टी०प० २१६ : 'ओषधयः' शाल्यादिलक्षणाः । ७- अ० चू० पृ० १७३ : णवा पाकपत्ताओ णीलियाओ। ८-जि० ० १० २५६ : तत्थ सालिबीहिमादियातो ताओ पक्काओ नीलियाओ वा णो भणेज्जा, छविग्गहणेण णिप्पवालिसेंदगादीण सिंगातो छविमंताओ णो भगेज्जा। हैहा० टी०प० २१६ : तथा नीलाश्छवय इति वा वल्लचवलकादिफललक्षणाः । Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ३६१ टीकाकार को संभवत: 'फलियाँ नीली हैं, कच्ची हैं, यह अर्थ अभिप्रेत रहा है | अगस्त्य त्रुणि के अनुसार 'पक्काओ ' और 'नीलियाओ' 'छवी इय' के भी विशेषण होते हैं, जैसे—फलियाँ पक गई हैं या अपक्व हैं । आयारचूला के अनुसार पक्काओ, नीलियाओ, छवीइ, लाइमा, भज्जिमा, पिखज्जा- ये सारे 'ओसहिओ' के विशेषण हैं। ६०. चिड़वा बनाकर खाने योग्य है ( पिसज्ज ) घ पृथुक का अर्थ चिड़वा है । आयारकूला ( ४।३३ ) में 'बहुखज्जाति वा ऐसा पाठ है। शीलाङ्कसूरि ने उसका वैकल्पिक रूप में वही अर्थ किया है जो 'प' का है। ६१. श्लोक ३५ (१) रूढ (२) बहुसम्भूत (२) स्थिर -- इलोक ३५ (क) अ० चि० ३.६५ (ख) जि० ० ० २५६ (ग) हा० डी० ए० २१६ (५) मित (६) प्रसूत (७) ससार (४) उत्त वनस्पति की ये सात अवस्थाएँ हैं । इनमें बीज के अंकुरित होने से पुनर् बीज बनने तक की अवस्थाओं का क्रम है । (१) बीज बोने के पश्चात जब वह प्रादुर्भूत होता है तो दोनों बीज-पत्र एक दूसरे से अलग हो जाते हैं, निकलने का मार्ग मिलता है- इस अवस्था को रूढ़' कहा जाता है । (२) पृथ्वी के ऊपर आने के पहरे हो जाते हैं और बीमाकुर की पहली पसी बन जाते है 'सम्भूत' कहा जाता है । (३) भ्रूणमूल नीचे की ओर बढ़कर जड़ के रूप में विस्तार पाता है— इस अवस्था को 'स्थिर' कहा जाता है। (४) भ्रूणाग्र स्तम्भ के रूप में आगे बढ़ता है इसे 'उत्सृत' कहा जाता है । (५) आरोह पूर्ण हो जाता है और भुट्टा नहीं निकलता उस अवस्था को 'गर्भित' कहा जाता है। (६) भुट्टा निकलने पर उसे 'प्रसूत' और (७) दाने पड़ जाने पर उसे 'ससार' कहा जाता है । अगस्य चूर्णि के अनुसार ( १ ) अंकुरित को (२) फलित ( विकसित ) को बहुत (३) उपपात से सुबत बीजांकुर की उत्पादक शक्ति को स्थिर (४) सुसंबंधित स्तम्भ को उत्सृत (५) भुट्टा न निकला हो तो उसे गर्भित (६) भुट्टा निकलने पर प्रसूत और दाने पड़ने पर ससार कहा जाता है । जिनदास वर्णि और टीका में मी शब्दान्तर के साथ लगभग यही अर्थ है । अध्ययन ७ श्लोक ३५ टि० ६०-६१ : : १- अ० चू० पृ० १७३ : छवीओ संबलीओ णिप्पावादीण तओ वि पक्काओ नीलिताओ वा । २-आ० ० ४१३३ : से भिक्खु वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए तहावि ताओ न एवं वएज्जा तंजहा पक्काति वा दि पाओ नाम जवगोधूमादी पिलगा कोरसि साथै जयंति। पृयुका अर्धपश्वशात्यादि कियन्ते । भ्रूणाग्र को बाहर ४- आ० चू० ४ | ३३ वृ० : 'बहुखज्जा' बहुभक्ष्याः पृथुकरणयोग्या वेति । 1 अ० ० ० १७३ अंकुरिता बहुसम्भूता सुकसिता जग्गादि उपघातातीताओ विरा सुसंबद्धता उदा अणिमुगाओ माथिम्बिताओ पसूताओ सव्वोषधातविरहिताओ पाओस। इस अवस्था को ६- (क) जि० चू० पृ० २५७ : 'विरूढा' णाम जाता, बहुसंभूया णाम निष्पन्ना, थिरा णाम निब्भयीभूया उबगया यत्ति उस्सिया भण्णंति, गब्भिया नाम जासि ण ताव सोसयं निष्फिड इति, निफा डिएसु पसूताओ भण्णंति, ससारातो नाम सहसारेण ससारातो सतं बुलाओत्ति वुतं भवइ । (ख) हा० टी० प० २१६ : 'रूढाः' प्रादुर्भूताः त' बहुसंभूता' निष्पन्नप्रायाः 'उत्सृता' इति उपघातेम्यो निर्गता इति वा, तथा अयंका 'प्रसूता निर्गत शीर्षकाः 'ससारा' संजाततन्दुलादिसाराः । *****.. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३६२ अध्ययन ७: श्लोक ३६-३६ टि०६२-६६ श्लोक ३६: ६२. संखडि ( जीमनवार ) ( संडि क ) : भोज ( जीमनवार या प्रकरण ) में जीव-वध होता है, इसलिए इसे 'संखडि' कहा जाता है। भोज में अन्न का संस्कार किया जाता है-पकाया जाता है, इसलिए इसे संस्कृति भी कहा जाता है । ६३. मृतभोज ( किच्चं ख ) : किच्च-कृत्य अर्थात् मृत-भोज । पितर आदि देवों के प्रीति-सम्पादनार्थ 'कृत्य' किये जाते थे। 'गृहस्थ को ये कृत्य करने चाहिएऐसा मुनि नहीं कह सकता। इससे मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। 'कृत्य' शब्द का प्रयोग हरिभद्र सूरी ने भी किया है : संखडि-पमुहे किच्चे, सरसाहारं खुजे पगिण्हंति । भत्तठं थुव्वंति, वणीमगा ते वि न हु मुणिणो ॥ श्लोक ३७ : ६४. पणितार्थ ( धन के लिए जोवन को बाजी लगाने वाला) (पणियट्ट ख ) : चोर धन के अर्थी होते हैं । वे उसके लिए अपने प्राणों की भी बाजी लगा देते हैं। इसीलिए उन्हें सांकेतिक भाषा में पणितार्थ कहा जाता है । प्रयोजन होने पर भी भाषा-विवेक-सम्पन्न मुनि को वैसे सांकेतिक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिससे कार्य भी सध जाए और कोई अनर्थ भी न हो। श्लोक ३८ : ६५. ( कायतिज्ज ख ): इसका पाठान्तर 'कायपेज्ज' है। उसका अर्थ है काकपेया नदियाँ अर्थात् तट पर बैठे हुए कौए जिनका जल पी सकें वे नदियाँ, किन्तु इसी श्लोक के चौथे चरण में 'पाणिज्ज' पाठ है। जिनके तट पर बैठे हुए प्राणी जल पी सकें वे नदियाँ 'पाणिज्ज' कहलाती हैं। इसलिए उक्त पाठान्तर विशेष अर्थवान् नहीं लगता । श्लोक ३६ : ६६. दूसरी नदियों के द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है ( उप्पिलोदगा ख ) : दूसरी नदियों के द्वारा जिनका जल उत्पीडित होता हो वे या बहुत भरने के कारण जिनका जल उत्पीडित हो गया हो-दुसरी ओर मुड़ गया हो---वे नदियाँ 'उप्पिलोदगा' कहलाती हैं । १- (क) जि० चू० पृ० २५७ : छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि संखंडिज्जंति जीए सा संखडी भण्णइ । (ख) हा० टी० प० २१९ : संखण्ड्यन्ते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी। २--(क) अ० चू० पृ० १७४ : किच्चमेव धरत्येण देवपीति मणुस्सकज्जमिति । (ख) जि० चू० पृ० २५७ : किच्चमेयं जं पितीण देवयाण या अट्टाए दिज्जई, करणिज्जमेयं जंपियकारियं देवकारियं वा किज्जई। (ग) हा० टी०प० २१६ : 'करणीये' ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वदेत् । ३-हा० टी० प० २१६ : पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः, प्राणा तप्रयोजन इत्यर्थः । ४-जि० चू० पृ० ५२८ : अण्णे पुण एवं पढंति, जहा-कायपेजंति नो वदे, काआ तडत्या पिबंतीति कायपेज्जातो। ५--जि० चू० पू० २५८ : तडथिएहि पाणीहि पिज्जतीति पाणिपिज्जाओ। ६-जि० चू० पृ० २५८ : 'उप्पिलोदगा' नाम जासिं परनदीहि उप्पीलियाणि उदगाणि, अहवा बहुउप्पिलोदओ जासि अइभरियत्त ण अण्णओ पाणियं बच्चइ। Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धि (वाक्यशुद्धि) ३६३ श्लोक ४१ ६७. इलोक ४१ अगस्त्य वर्णि के अनुसार 'सुकृत' सर्व क्रिया का प्रशंसक ( अनुमोदक ) वचन है। इसी प्रकार 'सुपक्व' पाक-क्रिया, 'सुच्छिन्न' छेद क्रिया, 'सुहृत' हरण क्रिया, 'सुमृत' लीन-क्रिया, 'सुनिष्ठित' सम्पन्न क्रिया, 'सुलष्ट' शोभन या विशिष्ट क्रिया के प्रशंसक वचन हैं। दशकालिक पूर्णिकार और टीकाकार इनके उदाहरण भोजन विषयक भी देते हैं और सामान्य भी । उत्तराध्ययन के टीकाकार कमल संयमोपाध्याय इसके सारे उदाहरण भोजन-विषयक देते हैं । नेमिचन्द्राचार्य इन सारे प्रयोगों की भोजन विषयक व्याख्या कर विकल्प के रूप में सुपक्व शब्द को छोड़कर शेष शब्दों की सामान्य विषयक व्याख्या भी करते हैं । सुकृत आदि के प्रयोग सामान्य हो सकते हैं, किन्तु इस श्लोक में मुख्यतया भोजन के लिए प्रयुक्त है—ऐसा लगता है। आचाराङ्ग में कहा है -- भिक्षु बने हुए भोजन को देखकर 'यह बहुत अच्छा किया है - इस प्रकार न कहे । - के प्रस्तुत लोक की तुलना इसीसे होती है, इससे यह सहज ही जाना जाता है कि वहाँ ये सारे प्रयोग भोजन आदि से सम्बन्धित है। सुकृत आदि शब्दों का निरवद्य प्रयोग किया जा सकता है। जैसे- इसने बहुत अच्छी सेवा की, इसका वचन विज्ञान परिपक्व है । इसने स्नेह बन्धन को बहुत अच्छी तरह छेद डाला है आदि-आदि । ६९. कर्म-हेतुक ( कम्महेयंग) : क ६८. बहुत अच्छा किया है ( सुकडे ति ) : जिसे स्नेह, नमक, काली मिर्च आदि मसाले के साथ सिद्ध किया जाए वह 'कृत' कहलाता है। सुकृत अर्थात् बहुत अच्छा किया हुआ । श्लोक ४२ : अध्ययन ७ श्लोक ४१-४३ टि० ६७-७० कर्महेतुक का अर्थ है-शिक्षापूर्वक या हुए हाथों से किया हुआ । श्लोक ४३ : ७०. इसका मोल करना शक्य नहीं है ( अचक्कियं ग ) : हस्तलिखित (ख और ग) आदर्शों और अगस्त्य वर्णि में अचक्किय तथा कुछ आदर्शों में अविक्किय पाठ है । दोनों चूर्णिकारों स० [सं०] १.३६ तम् अन्नादि पर्वतपूर्णादिभिन्नं पत्रकावि, सुहृतं शाकारितादिमृतं घृतादिपाद सुनिसिया निष्ठतम् सुष्टं शोभनं पादिखण्डोम्बलादि प्रकाररेवमन्यदपि साव वर्जयेत् मुनिः । , २ उत्त० ० १.३६ वृ० पाहतं यदनेनाऽरातेः प्रतिकृतं सुप पूर्ववत् सुनोऽयं योगादिः सुतं कवयंस्य धनं चौरादिभिः सुमृतोऽयं प्रत्यनीक धिवर्णादिः सुनिष्ठितोऽयं प्रासादादिः सुष्टोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सायं बचो वर्जयेद् मुनिः । ३--आ० चू० ४।२३ : से भिक्खु वा, भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए, तहावि तं णो एवं जाति वा कति वा साकडे ति वा कहलाने तिबा करने ति वा एयप्यवारं भासं साव जाव णो भासेज्जा । 1 ४--उत्त० ने० १.३६ वृ० : निरवद्यं तु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपक्वमस्य वचन विज्ञानादि, सुच्छिन्नं स्नेहनिगडादि, सुहृतोऽयमुत्प्रव्राजयितुकामेभ्यो निजकेभ्य: शैक्षकः, सुमृतमस्य पण्डितमरणेन सुनिष्ठितोऽयं साध्वाचारे, सुलष्टोऽयं दारको व्रतग्रहणस्येत्यादिरूपम् । ५ -- च० ( सू० ) : २७.२६४ की व्याख्या : " 'अस्नेहलवणं सर्वमकृतं कटुकै विना । विज्ञेयं लवणस्नेह- कटुकैः संस्कृतं कृतम् ॥' ६ - वि० ० ० २५९ कम्महेयं नाम सितापुव्यगति हुतं भवति । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ७: श्लोक ४७-५० टि०७१-७४ ने इसका अर्थ 'असक्क' (अशक्य) किया है। हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ----असंस्कृत-दूसरी जगह सुलभ किया है । ७१. यह अचिन्त्य है ( अचितं घ ) : अगस्त्य सिंह और जिनदास ने 'अचित' पाठ माना है । हरिभद्र मूरि' ने 'अचिअत्तं' पाठ मान कर उसका अर्थ अप्रीतिकर किया है। श्लोक ४७: ७२. श्लोक ४७ : असंयमी को आ-जा आदि क्यों नहीं कहना चाहिए ? इस प्रश्न के समाधान में चूर्णिकार कहते हैं -- अगंयमी पुरुष तपे हुए लोहे के गोले के समान होते हैं । गोले को जिधर से छूओ वह उधर से जला देता है वैसे ही असंयमी मनुष्य चारों ओर से जीवों को कष्ट देने वाला होता है । वह सोया हुआ भी अहिंसक नहीं होता फिर जागते हुए का तो कहना ही क्या ? श्लोक ४८ ७३. जो साधु हो उसो को साधु कहे ( साहुं साहु त्ति आलवे घ): साधु का वेष धारण करने मात्र से कोई साधु नहीं होता, वास्तव में साधु वह होता है जो निर्वाण-साधक-योग की साधना करे। उलोक ५० ७४. श्लोक ५० अमक व्यक्ति या पक्ष की विजय हो, यह कहने से युद्ध के अनुमोदन का दोष लगता है और दूसरे पक्ष को द्वेष उत्पन्न होता है, इसजिग पनि को ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए। १--(क) अ० चू० पृ० १७६ : अबक्कियमसक्क । (ख) जि० चू० पृ० २६० : अचक्कियं नाम असक्कं, जहा कइएण विकायएण वा पुच्छिओ इमस्स मोल्लं करेहित्ति, ताहे भणियब्वं को एतस्स मोल्लं करेउं समत्थोत्ति, एवं अचक्कियं भण्णइ। २ हा० टी०प० २२१ : 'अविक्किअंति' असंस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि । ३- अ० चू० पू० १७६ : अचितितं चितेतुं पि ण तीरति । ४- जि० चू० पृ० २६० : अचितं णाम ण एतस्स गुणा अम्हारिसेहिं पागएहि चितिज्जति । ५-हा० टी०प० २२१ : अचिअत्तं वा--अप्रीतिकरम् । ६-जि० चू० पृ० २६१ : अस्संजतो सब्वतो दोसमावहति चिट्ठतो तत्तायगोलो, जहा ततायगोलो जओ छिबइ ततो डहइ तहा असंजओवि सुयमाणोऽवि णो जीवाणं अणुवरोधकारओ भवति, किं पुण जागरमाणोति । ७- जि. चू० पृ० २६१ : जे णिव्वाणसाहए जोगे साधयंति ते भाषसाधवो भक्षणति । ८-(क) जि. चू० पृ० २६२ : तत्थ अमुयाणं जतो होउत्ति भणिए अणुमइए दोसो भवति, तप्पक्खिओ वा पोसमावज्जेज्जा, अओ एरिसं भासं णो वएज्जा । (ख) हा० टी०प० २२२ : 'अमुकानां' . 'जयो भवतु मा वा भवत्विति नो वदेद्, अधिकरण तत्स्वाम्यादि पदोषप्रसङ्गादिति । Jain Education Intemational Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ७५. श्लोक ५१ : जिसमें अपनी या दूसरों की शारीरिक सुख-सुविधा के लिए अनुकूल स्थिति के होने और प्रतिकूल स्थिति के न होने की आशंसा हो वैसा वचन मुनि न कहे - इस दृष्टि से यह निषेध है । ७७. सुभिक्ष ( धायं ख ) : ७६. क्षेम ( खेमं): शत्रु सेना तथा इस प्रकार का और कोई उपद्रव नहीं हो, तो उस स्थिति का नाम क्षेम है । व्यवहार भाष्य की टीका में क्षेम का अर्थ शुभ लक्षण किया है। उससे राज्य भर में नीरोगता व्याप्त रहती है । यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है - सुभिक्ष* । ७८. शिव (सिस) : ३६५ श्लोक ५१: शिव अर्थात् रोग, मारी का अभाव, उपद्रव न होना । अध्ययन ७ श्लोक ५१-५२ टि०७५-८० : ८०. नभ नह क ) : ( श्लोक ५२ : ७६. श्लोक ५२ : मेघ, नभ और राजा देव नहीं हैं। उन्हें देव कहने से मिध्यात्व का स्थिरीकरण और लघुता होती है, इसलिए उन्हें देव नहीं कहना चाहिए। वैदिक साहित्य में आकाश, मेघ और राजा को देव माना गया है किन्तु यह वस्तु-स्थिति से दूर है। जनता में मिथ्या धारणा न फैले, इसलिए यह निषेध किया गया है। तुलना के लिए देखिए आयारचूला ४।१६,१७ । मिथ्यावाद से बचने के लिए 'आकाश' को देव कहने का निषेध किया गया है। प्रकृति के उपासक आकाश को देव मानते थे । प्रश्न- उपनिषद् में 'आकाश' को देव कहा गया है। आचार्य पिप्पलाद ने उससे कहा यह देव आकाश है वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, बाकू (सम्पूर्ण कर्मेद्रिय) मन (अन्तःकरण) और (ज्ञानेन्द्रिय समूह) (ये भी देव है) ये सभी अपनी महिमा को प्रकट करते 1 हुए कहते हैं - हम ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण करते हैं । १- अ० चू० पृ० १७७ एताणि सरीरसुहहेउं पयाणं वा आसंसमाणो णो वदे । २ (क) अ० ० ० १०० : परचातिवं (ख) हा० टी० १० २२२ 'क्षेम' राजविड्वरशून्यम् । ३- व्य० उ० ३ गाथा २०६ : क्षेमं नाम सुलक्षणं यद् वशात् सर्वत्र राज्ये नोरोगता । ४ – (क) अ० चू० पृ० १७७ : घातं सुभिक्खं । (ख) हा० टी० १० २२२ प्रातं सुभिक्षम् । ५-३० ० १० १७७ कुलरोगनारिविरहितं शिवम् । ६ - हा० टी० प० २२२ : 'शिव' मिति चोपसर्ग रहितम् । ७ - ( क ) अ० चू० पृ० १७८ : मिच्छत थिरीकरणादयो दोसा इति । (ख) जि० पू० पृ० २६२ तत्थ मितविरोकरादि दोसा भवति । (ग) हा० टी० १० २२३ : मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् । J - प्र० उ० प्रश्न २.२ : तस्मै स होवाचाकाशो ह वा एष देवो वायुग्निरापः पृथिवी वाङमश्चक्षु श्रोत्रं च । ते प्रकाश्याभिवदन्ति वयमेतद् वाणमवष्टभ्य विधारयामः । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक) अध्ययन ७ : श्लोक ५३-५४ टि. ८१-८३ ८१. मानव ( माणवं क ): यहाँ मानव (राजा) को देव कहने का निषेध किया गया है। टीकाकार के अनुसार मानव को देव कहने से मिथ्यावाद, लाघव आदि दोष प्राप्त होते हैं। प्राचीन ग्रंथों में राजा को देव मानने की परम्परा रही है। रामायण में स्पष्ट उल्लेख है कि राजा देव हैं, वे इस पृथ्वी तल पर मनुष्य-शरीर धारण कर विचरण करते हैं : तान्नहिस्यान्दचाक्रोशेन्नाक्षिपेन्नाप्रियं वदेत देवा मानुषरूपेण, चरन्त्येते महीतले ॥ (वाल्मिकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग १८.४३) महाभारत के अनुसार राजा एक परम देव है जो मनुष्य रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होता है : न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्यषा नररूपेण तिष्ठति ॥ (महाभारत, शांतिपर्व, अ० ६८.४०) मनुस्मृति में भी राजा को परमदेव माना गया है : बालोऽपि नावमन्तव्यो, मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्यषा, नररूपेण तिष्ठति ॥ (मनुस्मृति अ० ७.८) चाणक्य ने भी ऐसा ही माना है : 'न राज्ञः परं दैवतम्' (चाणक्य सूत्र ३७२) श्लोक ५३ : ८२. श्लोक ५३ : 'अंतलिक्खे ति णं बूया गुज्झाणुजरिय त्तिय'- नभ और मेघ को अन्तरिक्ष अथवा गुह्यानुचरित कहे। अन्तरिक्ष और गुह्यानुचरित मेघ और नम दोनों के वाचक है । गुह्यानुपरित का अर्थ दोनों धूणिकारों ने नहीं किया है। हरिभद्रसूरि इसका अर्थ 'देवसेवित' करते हैं। श्लोक ५४ : ८३. अवधारिणो (संदिग्ध अर्थ के विाय में असंदिग्ध) ( ओहारिणी ख ): चूणियों में अवधारिणी का अर्थ शंकित भाषा अर्थात् संदिग्ध वस्तु के बारे में असं दिग्ध वचन बोलना किया गया है। टीका में इसका मूल अर्थ निश्चयकारिणी भाषा वैकल्पिक अर्थ संशयकारिणी भाषा किया गया है। दश० ६.३ के श्लोक ६ में आये हुए इस शब्द का अर्थ भी धूणि और टीका में ऐसा ही है । १-हा० टी० प० २२३ : 'भान' राजानं देव म त नो वदेत, मिथ्यावादलाधवादिप्रसङ्गात् । २-(क) जि० चू०प० २६३ : तत्व नभं अंतलिक्खंति वा वदेज्जा, गुज्झाणुचरितंति वा तं ....... मेहोवि अंतरिक्खो भण्णइ, गुज्झगागुचरिओ भण्णइ। (ख) हा० टी०प० २२३ । ३-हा० टी० प० २२३ : गुह्यानुचरित पति वा, सुरसेवितमित्यर्थः । ४-- (क) अ० चू० पृ० १७८ : सं दसु एवदमिति निच्छयवयणमवधारणम् । (ख) जि० चू० पृ. २६३ : ओहारिणी णाम संकिया, भणियं-- से नूर्ण भंते ! मन्नामीति ओहारिणी भासा?, आलावगो। ५-हा० टी० ५०२२३ : 'अवधारिणी' इवमित्यमेवेति, संशयकारिणी वा। ६-(क) अ० चू० पृ० १७८ : ओधारिणी मसंदिद्धरुवं संदिद्धेवि भणितं च सेणूणं भंते ! मण्णामीति ओधारिणी भासा। (ख) जि० चू० पृ ३२१ : तत्थ ओहारिणी संकिया भणति, जहा एसो चोरो, पारदारिओ?, एवमादि, भणियं च 'से भन्ते! मण्णामित्ति ओहारिणो मासा' आलावगो। (ग) हा० टी०प० २५४ : 'अवधारिणीम्' अशोभन एवायमित्यादिरूपाम् । Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) ३६७ अध्ययन ७: श्लोक ५७ टि०८४-८५ ८४. ( माणवो ग) : अगस्त्यसिंह और जिनदास के अनुसार मनुष्य ही मुनि बन सकते हैं, इसलिए यहाँ उन्हें 'मानव' शब्द से सम्बोधित किया है। हरिभद्र सूरि ने 'मानव' को कर्तृपद माना है । 'माणवा' और 'माणवो' -ये दोनों मूल पाठ के परिवर्तित रूप प्रतीत होते हैं । मूलपाठ 'माणओं होना चाहिए। यहाँ मानव का अर्थ प्रासंगिक नहीं है। मानवश वचन बोलना भाषा का एक दोष है। अतः क्रोध, लोभ, भय और हास्य के प्रकरण में 'मान' शब्द ही अधिक संगत लगता है। किसी कारण से 'माणओ' का मानवो' में परिवर्तन हो गया तब व्याख्याकारों को खींचतान कर मानव शब्द की संगति बिठानी पड़ी। ८५. श्लोक ५७ : भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से सावद्य और निरवद्य भाषा का सूक्ष्म विवेचन किया है। प्रिय, हित, मित, मनोहर, वचन बोलना चाहिए-यह स्थूल बात है। इसकी पुष्टि नीति के द्वारा भी होती है किन्तु अहिंसा की दृष्टि नीति से बहुत आगे जाती है। ऋग्वेद में भाषा के परिष्कार को अभ्युदय का हेतु बतलाया है सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमकत । अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रषां लक्ष्मीनिहिताधि वाचि ॥ जैसे चलनी से सत्तु को परिष्कृत किया जाता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग बुद्धि के बल से भाषा को परिष्कृत करते हैं। उस समय विद्वान् लोग अपने अभ्युदय को जानते है । विद्वानों के वचन में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है। महात्मा बुद्ध ने चार अंगों से युक्त वचन को निरवद्य वचन कहा है : "ऐसा मैंने सुना : एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथ पिण्ड क के जेतवनाराम में विहार करते थे। उस समय भगवान् ने भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा-'भिक्षुओ ! चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा; विज्ञों के अनुसार वह निरवद्य है, दोषरहित है । कौन से चार अंग? भिक्षुओ ! यहाँ भिक्षु अच्छा वचन ही बोलता है न कि बुरा, धार्मिक वचन ही बोलता है न कि अधार्मिक, प्रिय वचन ही बोलता है न कि अप्रिय, सत्य वचन ही बोलता है न कि असत्य । भिक्षुओ ! इन चार अंगों से युक्त वचन अच्छा है न कि बुरा, यह विज्ञों के अनुसार निरवद्य तथा दोष-रहित है।' ऐसा बताकर भगवान् ने फिर कहा : 'सन्तों ने अच्छे वचन को ही उत्तम बताया है । धार्मिक वचन को ही बोले न कि अधार्मिक वचन को-यह दूसरा है । प्रिय वचन को ही बोले न कि अप्रिय वचन को -यह है तीसरा । सत्य वचन को ही बोले न कि असत्य व वन को'--यह है चौथा ॥१॥ तब आयुष्मान बंगीस ने आसन से उठकर, एक कन्धे पर चीवर संभालकर, भगवान् को हाथ जोड़कर अभिवादन कर उन्हें कहा'भन्ते ! मुझे कुछ सूझता है। भगवान् ने कहा - 'बंगीस ! उसे सुनाओ ।' तब आयुष्मान् के सम्मुख अनुकुल गाथाओं में यह स्तुति की: 'वह बात बोले जिससे न स्वयं कष्ट पाए और न दूसरे को ही दुःख हो, ऐसी ही बात सुन्दर है।' 'आनन्ददायी प्रिय वचन ही बोले । पापी बातों को छोड़कर दूसरों को प्रिय वचन ही बोले।' 'सत्य ही अमृत वचन है, यह सदा का धर्म है । सत्य, अर्थ और धर्म में प्रतिष्ठित सन्तों ने (ऐसा) कहा है।' 'बुद्ध जो कल्याण-वचन निर्वाण प्राप्ति के लिए, दुःख का अन्त करने के लिए बोलते हैं, वही वचनों में उत्तम है।" १-(क) अ० चू०११७८ : माणवा ! इति मणुस्सामंतणं 'मणुस्सेस धम्मोवदेस' इति । (ख) जि० चू० पृ० २६३ : माणवा इति मणुस्सजातीए एस साहुधम्मोत्तिकाऊण मणुस्सामंतणं कयं, जहा हे माणवा ! २-हा० टी०प० २२३ : 'मानवः' पुमान् साधुः । ३-ऋग्वेद १०.७१। ४-सु०नि० सुभाषित सुत्त २.५ पृ० ८६ । - Jain Education Intemational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३६८ अध्ययन ७: श्लोक ५७ टि०८६-८७ ५६. गुण-दोष को परख कर बोलने वाला ( परिक्खभासीक): गुण-दोष की परीक्षा करके बोलने वाला परीक्ष्यभाषी कहलाता है। जिनदास चूणि में परिज्जभासी' और 'परिक्खभासी' को एकार्थक माना गया है । ८७. पाप मल (धुन्नमलं ग ) : धुन्न का अर्थ पाप है। १-(क) अ० चू० पृ० १७६ : परिक्ख सुपरिक्खित्तं तथाभासितु सील यस्स सो परिक्खभासी। (ख) हा० टी०प० २२३ : 'परीक्ष्यभाषी' आलोचितवक्ता । २-जि० चू० पु. २६४ : 'परिजभासी' नाम परिज्जभासित्ति वा परिक्खभासित्ति वा एगहा। ३-(क) अ० चू० पृ० १७६ : धुण्णं पावमेव । (ख) जि० चू० पृ० २६४ : तत्थ धुण्णंति वा पावंति वा एगट्ठा। (ग) हा० टी० प० २२४ : धुन्नमलं पापमलम् । Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं आयारपणिही अष्टम अध्ययन आचार-प्रणिधि Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख आचार वही है जो संक्षेप में तीसरे और विस्तार से छठे अध्ययन में कहा गया है'। इस अध्ययन का प्रतिपाद्य आचार नहीं है। इसका अभिधेय अर्थ है -- प्रवार की प्रणिधि या श्राचारविषयक प्रणिधि । श्राचार एक निधि है । उसे पाकर निर्ग्रन्थ को जैसे चलना चाहिए उसका पथ-दर्शन इस अध्ययन में मिलता है । प्राचार की सरिता में निर्ग्रन्थ इन्द्रिय और मन को कैसे प्रवाहित करे, उसका दिशा-निर्देश मिलता है । प्रणिधि का दूसरा अर्थ है-एकाग्रता, स्थापना या प्रयोग । ये प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं । उच्छृङ्खल प्रश्व सारथि को उन्मार्ग में ले जाते हैं वैसे ही दुष्पति ( राग-द्वेष प्रयुक्त) इन्द्रियां यमण को उत्पथ में ले जाती है। यह इन्द्रिय का विधान है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में इन्द्रियों की मध्यस्थ प्रवृत्ति हो - राग और द्वेष का लगाव न हो यह उनका सुप्रणिधान है। क्रोध, मान, माया और लोभ का संग्राहक शब्द है--कषाय । जिस श्रमण का कपाय प्रबल होता है उसका श्रामण्य ईक्षु-पुष्प की भांति निष्फल होता है । इसलिए श्रमण को कषाय का निग्रह करना चाहिए। यही है मन का सुप्रणिधान । "श्रमण को इन्द्रिय और मन का अप्रशस्त प्रयोग नहीं करना चाहिए, प्रशस्त प्रयोग करना चाहिए" - यह शिक्षण ही इस अध्ययन की आत्मा है, इसलिए इसका नाम 'आचार - प्रणिधि' रखा गया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में गु-पुरुष-प्रणिधि राज-प्रणिधि, दूत प्रविधि यादि प्रणिधि उत्तरपद वाले कई प्रकरण हैं। इस प्रकार के नामकरण की पद्धति उस समय प्रचलित थी ऐसा जान पड़ता है। अर्थशास्त्र के व्याख्याकार ने प्रणिधि का अर्थ कार्य में लगाना व व्यापार किया है। प्रचार में प्रवृत्त करना व व्यापार करना - ये दोनों अर्थ यहाँ संगत होते हैं। यह 'प्रत्याख्यान प्रवाद' नामक नवें पूर्व की तीसरी इसी की है। वे दैनंदिन व्यवहारों को बड़े मागिती है । वस्तु से 7 खुले रहते हैं, बहुत सुना जाता है खुली रहती है, बहुत दीख पड़ता है; किन्तु भी और देखी गई सारी बातों को दूसरों से कहे यह भिक्षु के लिए उचित नहीं है। श्रुत और दृष्ट बात के श्रौपघातिक अंश को पचा ले, 'देह में उत्पन्न दुःख को सहना महान् फल का हेतु है' इस विचार मन्थन का नवनीत है हृदय 'देहे पुखं महाफल (श्लोक २७) है। यह 'देहली-दीपक स्वाय' से अध्ययन के धार और पार श्रामण्य के रक्त की शुद्धि के लिए शोधन-यंत्र का काम करता है । इसमें कषाय-विजय, निद्रा - विजय, अट्टहास्य-विजय के लिए बड़े सुन्दर निर्देशन दिए गए हैं। श्रद्धा का सातत्य रहना चाहिए। भाव-विशुद्धि के जिस उत्कर्ष से पैर बढ़ चलें, वे न रुकें और न अपने पथ से हटें ऐसा प्रयत्न होना चाहिए (श्लोक ६१) । स्वाध्याय और ध्यान-ये श्रात्म-दोषों को मांजने वाले हैं। इनके द्वारा श्रात्मा परमात्मा बने (श्लोक ६३ ) । यहाँ पहुँचकर 'याचार प्रविधि' सम्पन्न होती है। १- बा० नि० २९३ जो आवारी हो अहोमरिसो २ - दश० नि० २६६ : जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदिआई तवं चरंतस्स । सो हीरई असहोणेहिं सारही वा तुरंगेहि ॥ ३ दश० नि० ३०१ : सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि उच्छ्रफुल्लं व निष्फलं तस्स सामन्नं ॥ ४- दश० नि० ३०८ तम्हा उ अप्पसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं । पणिहामि पसर भाणियो 'मायाश्चमिहि' ति ॥ ५- दश० नि० १-१७। · उसे प्रकाशित न करे (श्लोक २०-२१) । अहिंसा । एक दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन का दोनों भागों को प्रकाशित करता है और Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १-आवारप्पणिह ल जहा कायव्य भिक्खुणा । तं मे उदाहरिस्तामि आणुपुवि सुणेह मे ॥ २ - पुढविदगअगणिमारुय तणरुक्ख सवा । तसा य पाणा जीव त्ति इइ वृत्त महेक्षिणा ॥ ३ ते अच्छणजोग निचं होयस्ययं सिया । मणसा फायदवकेण एवं भवइ संजए ॥ ४- पुढव भित्ति सिलं लेलु नेय भिदे न सलिहे। तिविहण करणजोएण सजए समाहिए । ५- सद्धपुढवीए न निसिए ससरक्यम्मि य आसणे । पमज्जित्त निसीएज्जा जाइता जस्त ओग्यहं ॥ ६ - सीओदगं न सेवेज्जा सिलावटु" हिमाणि य उसिणोदगं तत्तफास यं पडिगाहेज्ज संजए ॥ आवारपणही आचार - प्रणिधि अट्ठमं अज्झयणं : अष्टम अध्ययन संस्कृत आचार - प्रणिधि लब्ध्वा, यथा कर्तव्यं भिक्षुणा । तं भवद्भ्यः उदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणु मे ॥ १॥ पृथिवीदकाग्निमारुताः, तृणरक्षा: सबीजकाः । त्रसाश्च प्राणाः जीवा इति, इति उक्तं महर्षिणा ||२॥ तेषामक्षण- योगेन, नित्यं भवितव्यं स्यात् । मनसा काय वाक्येन एवं भवति संयतः ॥३॥ पृथिवीं भित्ति शिलां लेष्टुं नँय भिन्द्यात् न संसि । त्रिविधेन करण-योगेन, संयतः सुसमाहितः ॥४॥ निवेद ससरक्षे च आसने । प्रमृश्य विषीदेत् याचित्वा यस्यावग्रहम् ॥५॥ शोदन सेवेत शिला हिमानि च । उष्णोदकं तप्तप्रागुकं प्रतिगृहीयात् संवतः ||६ हिन्दी अनुवाद १- आचार - प्रणिधि को पाकर भिक्षु को जिस प्रकार (जो) करना चाहिए वह मैं तुम्हें कहूँगा । अनुक्रमपूर्वक मुझसे सुनो। २- पृथ्वी, उदक, अग्नि, वायु, बीपर्यन्त तृणवृक्ष और त्रस प्राणी- ये जीव हैं ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। ३ --- भिक्षु को मन, वचन और काया से उनके प्रति सदा अहिंसक होना चाहिए । इस प्रकार अहिंसक रहने वाला संयत (संयमी) होता है। ४- सुसमाहित संयमी तीन करण और तीन योग से पृथ्वी, मित्ति ( दरार ), शिला और ढेले का भेदन न करे और न उन्हें कुरे । ५- मुनि शुद्ध पृथ्वी और सचित रज से ससृष्ट आसन पर न बैठे" । अचित्तपृथ्वी पर प्रमार्जन कर" और वह जिसकी हो उसकी अनुमति लेकर बैठे। १२ - ६--संयमी शीतोदक १३, ओले, बरसात के जल और हिम का सेवन न करे । तप्त होने पर जो प्रासुक हो गया हो वैसा जल १६ ले । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवैआलियं ( दशवैकालिक ) ७ उदउल्लं अप्पणो कार्य नेव पुंछे न संलिहे । तहाभूयं समुह नो णं संघट्टए मुणी ॥ "गालं अर्गाणि अच अलायं या सजोइय न उंजेज्जा न घट्टज्जा नो णं निव्वावर मुणी ॥ पत्तण साहावियण वा । न वीएज्ज अप्पणो कार्य बाहिर वा वि पोपलं ॥ ९-तालिपटेण १० तणरुवखं न छिदेज्जा फलं मूलं व कस्सई । आमगं विवि बीय मणसा वि न पत्थए । ११ गणेस न बिज्जा बीएस हरिएस वा । उदगम्मि तहा निश्च उतिगणमेस वा ॥ १२- तसे पान हिंसेज्जा वाया अदुव कम्मुणा । उवरओ सय्यभूएस पासेज्ज विविहं जगं ॥ सहुमाई पेहाए जाई जाणित्त संजए। । दयाहिगारी भूएस, आस चिट्ट सएहि वा ॥ १३ - अट्ठ उदामात्मनः कार्य, लिले । समुत्प्रेक्ष्य न तथाभूतं नैनं संघट्टयेत् मुनिः ॥ ३७४ अङ्गारमग्निमचिः, अलातं वा सज्योतिः । नोसिञ्चेत् न वेद, नैनं निर्वापयेद् मुनिः ॥ ८॥ तालवृन्तेन पत्रेण शाखा-विद्युनेन वा । न व्यजेदात्मनः कार्य, बाह्य वाऽपि पुद्गलम् ॥६॥ सुरक्षन छिन्याद फलं मूलं वा कस्यचित् । आमकं विविधं बीजं, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥ १०॥ गहनेषु न तिष्ठेत् बीजेषु हरितेषु वा । उदके तथा नित्यं, '' वा ॥११॥ त्रसान् प्राणान् न हिस्यात्, वाचा अथवा कर्मणा । उपरतः सर्वभूतेषु विजगत् ॥१२॥ अष्टसूक्ष्माणि प्रेप, यानि ज्ञात्वा संयतः । दयाधिकारी भूतेषु आस्व उत्तिष्ठ शेष्व वा ॥ १३ ॥ अध्ययन ८ श्लोक ७-१३ ७-मुनि जल से धोने अपने शरीर को" न पोंछे और न मले"। शरीर को तथाभूत ( भीगा हुआ ) देखकर उसका स्पर्श न करे । मुनि बङ्गार, अग्नि, अनि और ज्योतिसहित अलात ( जलती लकड़ी ) को न प्रदीप्त करे, न स्पर्श करे और न बुझाए । ६-मुनि वीजन, पत्र, शाखा या पंखे से अपने शरीर अथवा बाहरी पुद्गलों पर २ हवा न डाले । १० – मुनि तृण, वृक्ष ३ तथा किसी भी ( वृक्ष आदि के ) फल या मूल का छेदन न करे और विविध प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे । ११ – मुनि वन निकुञ्ज के बीच २४ बीज, हरित, अनन्ताकि वनस्पति, सर्पच्छत्र २६ और काई पर खड़ा न रहे । १२- मुनि वचन अथवा काया से त्रस प्राणियों की हिंसा न करे । सब जीवों के वध से उपरत होकर विभिन्न प्रकार वाले ह जगत् को देखे-- आत्मोपम्यदृष्टि से देखे । १३ संयमी मुनि आठ प्रकार के सूक्ष्म (शरीर वाले जीवों को देखकर बैठे खड़ा हो और सोए इन सूक्ष्मदारी वाले जीवों को जानने पर ही कोई सब जीवों की दया का अधिकारी होता है । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ८: श्लोक १४-२० आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) ३७५ १४-कयराइं अट्ठ सुहुमाई कतराणि अप्टौ सूक्ष्माणि, जाई पुच्छेज्ज संजए। यानि पृच्छेत् संयतः। इमानि तानि मेधावी, इमाइं ताई मेहावी आचक्षीत विचक्षणः ॥१४॥ आइक्खेज्ज वियक्खणो॥ १४-वे आठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं ? संयमी शिष्य यह पूछे तब मेधावी और विचक्षण आचार्य कहे कि दे ये हैं १५–सिणेहं पुप्फसुहुमं च पाणुत्तिगं तहेव य।। पणगं बीय हरियं च अंडसुहमं च अट्टमं॥ स्नेहं पुष्प-सूक्ष्मं च, 'प्राणोत्तिङ्ग' तथैव च । 'पनक' बीजं हरितं च, 'अण्डसूक्ष्मं च अष्टमम् ॥१५॥ १५-स्नेह, पुष्प, प्राण, उत्तिङ्ग', काई, बीज, हरित और अण्ड-ये आठ प्रकार के सूक्ष्म हैं। १६-सब इन्द्रियों से समाहित साधु इस प्रकार इन सूक्षण जीवों को सब प्रकार से जानकर अप्रमत्त-भाव से सदा यतना करे । १६--एवमेयाणि जाणित्ता सव्वभावेण संजए। अप्पमत्तो जए निच्चं सविदियसमाहिए ॥ एवमेतानि ज्ञात्वा, सर्वभावेन संयतः। अप्रमत्तो यतेत नित्यं, सर्वेन्द्रिय-समाहितः ॥१६॥ १७–धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं । सेज्जमुच्चारभूमि च संथारं अदुवासणं ॥ ध्र वं च प्रतिलेखयेत्, योगेन पात्र-कम्बलम् । शय्यामुच्चारभूमि च, संस्तारमथवासनम् ।।१७।। १७-मुनि पात्र३, कम्बल शय्या३५, उच्चार-भूमि, संस्तारक" अथवा आसन का यथासमय प्रमाणोपेत प्रतिलेखन करे। १८-४२उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । फासुयं पडिलेहित्ता परिवावेज्ज संजए॥ उच्चारं प्रस्त्रवणं, 'खेल' सिंघाणं 'जल्लियम्' । प्रासुकं प्रतिलेख्य, परिष्ठापयेत् संयतः ॥१८॥ १८-संयमी मुनि प्रासुक (जीव रहित) भूमि का प्रतिलेखन कर वहाँ उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक के मैल और शरीर के मैल का उत्सर्ग करे। १६-पविसित्तु परागारं पाणट्टा भोयणस्स वा। जयं चिट्ट मियं भासे ण य रूवेसु मणं करे ॥ प्रविश्य परागारं, पानार्थ भोजनाय वा। यतं तिष्ठेत् मितं भाषेत्, न च रूपेषु मनः कुर्यात् ॥१६॥ १६-मुनि जल या भोजन के लिए गहस्थ के घर में प्रवेश करके उचित स्थान में खड़ा रहे४५, परिमित बोले और रूप में मन न करे। २०-बहुँ सणेइ कणेहि। बहु अच्छोहि पेच्छा। न य दिढ सयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ॥ बहु शृणोति कणः, बह्वक्षीभिःप्रेक्षते । न च दृष्टं श्रुतं सर्व, भिक्षुराख्यातुमर्हति ॥२०॥ २०-कानों से बहुत सुनता है, आँखों से बहुत देखता है; किन्तु सब देखे और सुने को कहना भिक्षु के लिए उचित नहीं। Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) २१ - स ुयं वा जइ वा दिट्ठ लवेज्जोवधाइयं । न न य केण उवाएणं गिहिजोगं समायरे ॥ २२ -- निद्वाणं रसनिज्जूढं भगं पावगं पावगं ति वा । पुट्टो वा वि अपुट्ठो वा लाभालाभं न निदिसे ॥ २३ न य भोयणम्मि गिडो चरे उंछं अयंपिरो । भुजेज्जा न अफा कीयमुद्दे सियाह २४ सन्निहि च न कुव्वेज्जा अणुमायं पि सजए । पुहाजीवी हवेज्ज २५ - लहवित्ती II सुट्ट अपिच्छे सुहरे सिया । आमुरतं न गच्छेज्जा सोच्चाणं जिणसासणं ॥ असंबद्ध जगनिस्सिए ॥ २६ - कण्णसोक्खहिं पेमं अहियासे देहे दुष दुक्खं सहि नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कस फासं काएण अहियासए || २७ पिवास दुस्सेन्जं खुहं सीउन्हं अरई भयं । अव्यहिओ महाफलं ॥ ३७६ श्रुतं वा यदि वा दृष्टं, न लपेद् औषघातिकम् । मान गृहियोगं समाचरेत् ॥ २१॥ निष्ठानं नियूं ढरसम् भद्रकं पापकमिति वा । पृष्टो वाप्यपृष्टो वा लाभालाभं न निर्दिशेत् ॥ २२ ॥ न च भोजने गृद्धः, जा अप्रासुकं न भुञ्जीत, श्रीमद्देशिकाहृतम् ॥२३॥ सन्निधिं च न कुर्यात्, अगुमात्रमपि संयतः । मुधाजीवी असंबद्धः, भवे 'ज्जग' निश्रितः ॥ २४ ॥ वृत्तिः सन्तुष्टः अल्पे सुभः स्यात् । सुरत्वं न गच्छेत् वासनम् ।। २५ ।। कर्णसौख्येषु शब्देषु, प्रेम नाभिनिवेशयेत् । दारुणं कर्कश स्पर्श, कायेन अध्यासीत ॥ २६॥ सां शीतोष्णमति भयम् । अप्पासीतापति, देहे दुःखं महाफलम् ॥२७॥ अध्ययन ८ : श्लोक २१-२७ २१ मुनी हुई देखी हुई घटना के बारे में साधु औपघातिक वचन न कहे और किसी उपाय से कर्मका समाचरण न करे । 1 73 २२- किसी के पूछने पर या बिना पूछे यह नीरस है, यह अच्छा ऐसा न कहे और सरस या मिला या न मिला यह भी यह सरसर है, है, यह बुरा है नीरस आहार न कहे । २३- भोजन में गृद्ध होकर विशिष्ट घरों में न जाए किन्तु वाचालता से रहित होकर अनेक परों से थोड़ा थोड़ा) ले । अप्राक, क्रीत, औद्दे शिक और आहृत आहार प्रमादवश आ जाने पर भी न खाए । २४ – संयमी अणुमात्र भी सन्निधि न करे । वह मुधाजीवी 5, असंबद्ध ६ (अलिप्त) और जनपद के "रहे कुल या ग्राम के आश्रित न रहे । ६१ २५- मुनि रूक्षवृत्ति, छ, सुसन्तुष्ट, अल्प इच्छा वाला और अल्पाहार से तृप्त होने वाला हो । वह जिन शासन को ६४ सुनकर क्रोध‍ न करे । ६३ ६७ २६ - कानों के लिए सुखकर शब्दों में प्रेम न करे, दारुण और कर्कश स्पर्श‍ को काया से सहन करे । ७२ २७ -- क्षुधा, प्यास, दुःशय्या (विषम भूमि पर सोना), शीत, उष्ण, अरति और भय को अव्यथित चित्त से सहन करे। क्योंकि देह में उत्पन्न कष्ट को सहन करना महाफल का हेतु होता है । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३७७ अध्ययन ८: श्लोक २८-३४ २८-अत्थंगयम्मि आइच्चे पुरत्था य अणुग्गए। आहारमइयं ८ सव्वं मणसा वि न पत्थए। अस्तङ्गते आदित्ये, पुरस्तात् चानुद्गते । आहारमयं सर्व, मनसापि न प्रार्थयेत ॥२८॥ २८-सूर्यास्त से लेकर ६ पुन: सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करें। २६-अतितिणे अचवले अप्पभासी मियासणे। हवेज्ज उयरे दंते थोवं लर्बु न खिसए॥ 'अतितिणः' अचपलः, अल्पभाषी मिताशनः। भवेदुदरे दान्तः, स्तोक लब्ध्वा न खिसयेत् ॥२६॥ २६-आहार न मिलने या अरस आहार मिलने पर प्रलाप न करे, चपल न बने, अलभाषी, मितभोजी२ और उदर का दमन करने वाला हो । थोड़ा आहार पाकर दाता की निन्दा न करे८४ । ३०---"न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे । सुयलाभे न मज्जेज्जा जच्चा तवसिबुद्धिए॥ न बाह्य परिभवेत्, आत्मानं न समुत्कर्षयेत् । श्रुतलामे न माद्यत, जात्या तपस्वि-बुद्ध्या ॥३०॥ ३०-दूसरे का तिरस्कार न करे । अपना उत्कर्ष न दिखाए । श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि का मद न करे। ३१-८से जाणमजाणं वा कटु आहम्मियं पययं। संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे॥ अथ जानन्न जानन्वा, कृत्वा अधार्मिकं पदम् । संवृणुयात् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तं न समाचरेत् ॥३१॥ ३१-जान या अजान में कोई अधर्मकार्य कर बैठे तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा ले, फिर दूसरी बार वह कार्य न करे। ३२-अणायारं परक्कम्म नेव गृहे न निण्हवे। सुई सया वियडभावे अस सत्त जिइंदिए॥ अनाचारं पराक्रम्य, नैव गुहेत न निन्हुवीत । शुचिः सदा विकटभावः, असंसक्तो जितेन्द्रियः ॥३२॥ ३२--अनाचार का सेवन कर उसे न छिपाए और न अस्वीकार करे६३ किन्तु सदा पवित्र, स्पष्ट९५, अलिप्त और जितेन्द्रिय रहे। ३३--अमोहं वयणं आयरियस्स तं परिगिज्झ कम्मुणा कुज्जा महप्पणो। वायाए उववायए॥ अमोघं वचनं कुर्यात्, आचार्यस्य महात्मनः । तत्परिगृह्य वाचा, कर्मणोपपादयेत् ॥३३॥ ३३ - मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल करे। (आचार्य जो कहे) उसे वाणी से ग्रहण कर कर्म से उसका आचरण करे। ३४-अधुवं जीवियं नच्चा सिद्धिमग्गं वियाणिया। विणियट्ट ज्ज भोगेसुई । आउं परिमियमप्पणो॥ अध्र वं जीवितं ज्ञात्वा, सिद्धिमार्ग विज्ञाय । विनिवर्तेत भोगेभ्यः, आयुः परिमितमात्मनः ॥३४॥ ३४-मुमुक्षु जीवन को अनित्य और अपनी आयुको परिमित जान तथा सिद्धि-मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवृत्त बने । dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) * (वलं थामं च पेहाए सद्धामा रोगमप्पणी खेत्तं कालं च विन्नाय तहप्पाणं निजु जए ) ॥ ३५ जरा जाव न वाही जाय न जाविदिया न ताव धम्मं पीलेइ बढ़ई । ३६ - कोहं माणं च मायं च पाववडढणं । लोभं च धमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हियमपणो ॥ / हायंति समायरे ॥ ३७- कोहो पोई पीइं पणासेइ माणो विजयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ नोहो सविणासणो ॥ ३८ - उसमेण हणे कोहं"" १०० माणं मद्दवया जिणे । मार्ण चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे ॥ ३६- कोहो व माणो व अणिग्गहोया माया य लोभो य पवड्ढमाणा । चत्तारि ए ए कसिणा कसाया सिचंति मूलाई पुणग्भवस्स || * 'यह गाथा कुछ प्रतियों में मिलती है, कुछ में नहीं । ३७८ बलं स्थाम च प्रेक्ष्य, धड़ामारोग्यमात्मनः । क्षेत्रं कालं च विज्ञाय, तथात्मानं नियुञ्जीत ॥ जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्धते । यादिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धमं समाचरेत् ।।३५।। क्रोधं मानं च मायां च, लोभं च पापवर्धनम् । वमेच्चतुरो दोषांस्तु, इतिमात्मनः ॥३६॥ फोम: प्रीति प्रणाापति, मानो विनयनाशनः । माया मंत्र्याणि नाशयति. लोभः सर्वविनाशनः ॥ ३७॥ उपामेन हन्यात् को मानं मावेन जयेत् । मायां च ऋजुभावेन, सोभं सन्तोषतो जपेत् ॥३५॥ क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतो, माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ । चत्वार एते कृष्णाः कषायाः, सिचन्ति मूलानि पुनर्भवस्य || ३६ || अध्ययन पश्लोक ३५-३६ अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर, क्षेत्र और काल को जानकर अपनी शक्ति के अनुसार आत्मा को तप आदि में नियोजित करे । ३५ - जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करे । ३६ - क्रोध, मान, माया और लोभये पाप को बढ़ाने वाले हैं। आत्मा का हित चाहने वाला इन चारों दोपों को छोड़े । ३७ – क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने वाला है, माया मंत्री का विनाश करती है और लोभ सब (प्रीति, विनय और मंत्री ) का नाश करने वाला है । ३८ - उपशम से १०१ क्रोध का हनन करे, मृदुता से " मान को जीते, ऋजुभाव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते । ३६ - अनिगृहीत क्रोध और मान, प्रवर्द्धमान माया और लोभ ये चारों संक्लिष्ट १०४ कषाय १५ पुनर्जन्मरूपी वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारपणही ( आचार - प्रणिधि) ४० राइणिएस विषयं पजे - वसीलयं समयं न हायएज्जा । कुम्मो व्व अल्लीणपलीणगुतो परवकमेज्जा तवसंजमम्मि || ४१ - निद्द चन संपहासं मिहोकहाहि सज्झायम्मि ४२-जोगं च जुजे जुत्तो य अट्ठ न य चिट्ठ ेज्जा ४६ अि समणधम्मम्मि अणलसो धुवं । लहड ४३ – १७ इहलोगपारत्तहियं जे बहुस्सुयं पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं बहुमन्नेज्जा विवज्जए । न रमे रओ सया ॥ ४५ – १२३न पक्खओ न नेव किचाण भासमाणस्स पिट्रिमंसं मायामो समणधम्मम्मि ४४. हर पार्य च कार्य च पणिहाय अल्लीणगुशो सगासे गुरुणो न ११३ अणुत्तरं ॥ सोम्यई । पशुवासेज्जा ॥ जिइंदिए । निसिए मुणी ॥ पुरओ पिटूओ । ऊरु समासेज्जा गुरुतिए । न भासेज्जा अंतरा । खाएज्जा विवज्जए । ३७६ रात्निकेषु विनयं प्रपुनीत वशीलतां सततं न हापयेत् । कूर्म इवालीनप्रलीन गुप्तः, पराक्रामेत् तपस्संयमे ॥ ४० ॥ निद्रां च न बहु मन्येत, संग्रहासं विवर्जयेत्। मिथ: कथासु न रमेत, स्वाध्याये रतः सदा ||४१ || योगं च भ्रमणध युञ्जीतानलसो ध्रुवम् । स्वधमणधर्म, अर्थ लभतेतरम् ॥४२॥ इहलोकपरत्रहित, येन गच्छति मुगतिम् । पर्युपासीत पृच्छेदर्थविनिश्चयम् ||४३|| हस्तं पादं कार्य प्रणिधाय जितेन्द्रियः । गुप्त नित् सकाशे मुनिः ॥४४॥ न पक्षतः न पुरतः, नैव कृत्यानां पृष्ठतः । न च ऊरु समाश्रित्य, तिष्ठेद् गुर्वन्ति ॥४५॥ अपृष्टो न भाषेत, भाषमाणस्यान्तरा । पृष्ठमांसं न खादेत् मायामृषाविवर्जयेत् ॥४६॥ अध्ययन ८ : श्लोक ४०-४६ ४० -- पूजनीयों ( आचार्य, उपाध्याय और दीक्षा - पर्याय में ज्येष्ठ साधुओं) के प्रति विनय का प्रयोग करे । ध्रुवशीलता ( अष्टादश सहस्र शीलाङ्गों "") की कभी हानि न करे । कुर्म की तरह आलीन- - गुप्त और प्रलीन गुप्त हो तप और संयम में पराक्रम करे । ०८ ४१ निद्राको बहुमान न दे अट्ट ११० १११ हास का वर्जन करे मैथुन को कवा में रमण न करे, सदा स्वाध्याय में रत रहे । ११२ ४२ मुनिवरहित हो धमणधर्म में योग ( मन, वचन और काया) का यथोचित १४ प्रयोग करे । श्रमण-धर्म में लगा आमृति अनुत्तर फल को प्राप्त होता है । ४३ - जिस श्रमणधर्म के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, मृत्यु के पश्चात् सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति के लिए यह बहु की पपासना करे और अर्थ विनिश्चय १६ के लिए प्रश्न करे । - ११८ ४४ जितेन्द्रिय मुनि हाथ पैर और शरीर को संयमित कर १२१, आलीन (न अतिदूर और न अतिनिकट) और गुप्त (मन और वाणी से संत होकर गुरु के समीप बैठे | ४५ – आचार्य आदि के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न बैठे। गुरु के समीप उनके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर १२४ न बैठे । ४६ -- बिना पूछे न बोले १२५, बीच में १२६ न बोले, पृष्ठमांस -- चुगली न खाए १२७ और कपटपूर्ण असत्य का वर्जन करे। १२८ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३८० अध्ययन ८ : श्लोक ४७-५३ ४७--अप्पत्तिय जेण सिया अप्रीतियन स्यात्, आसु कुप्पेज्ज वा परो। आशु कुप्येद्वा परः। सव्वसो तं न भासेज्जा सर्वशस्तां न भाषेत, भास अहियगामिणि ॥ भाषामहितगामिनीम् ॥४७।। ४७ --जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा शीघ्र कुपित हो ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा २६ न वोले। ४८–दिद मियं असं दिद्ध दृष्टां मितामसंदिग्धां, पडिपुन्नं वियं जियं। प्रतिपूर्णा व्यक्तां चिताम् । अय पिरमणुन्विग्गं अजल्पाकीमनुहिग्नां, भास निसिर अत्तवं ॥ भाषां निसृजेदात्मवान् ॥४८॥ ४८--आत्मवान् १३०, दृष्ट१३१, परिमित१३२, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण१३३, व्यक्त, परिचित, वाचालता-रहित और भय-रहित भाषा बोले। ४६- १3५आयारपन्नत्तिधरं आचार-प्रज्ञप्ति-धर, दिट्टिवायमहिज्जगं । वृष्टिवादमधीयानम् । वइविक्खलियं नच्चा वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा, न तं उवहसे मुणी॥ न तमुपहसेन्मुनिः ॥४६।। ४६ - आचारांग और प्रज्ञप्तिभगवती को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को पढ़नेवाला३६ मुनि बोलने में स्खलित हुआ है ३० ( उसने वचन, लिङ्ग और वर्ण का विपर्यास किया है) यह जान कर मुनि उसका उपहास न करे। ५०-१६नक्खत्तं समिणं जोगं निमित्तं मंत भेसजं। गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं ॥ नक्षत्रं स्वप्नं योग, निमित्त मंत्र-भेषजम्, गृहिणस्तन्नाचक्षीत, भूताधिकरणं पदम् ॥५०॥ ५०.-नक्षत्र18, स्वप्नफल १६०, वशीकरण°४१, निमित्त१४२, मन्त्र १४3 और भेषज-- ये जीवों की हिंसा के १४४ स्थान हैं, इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके फलाफल न बताए । ५१-अन्नट्ठ पगडं भएज्ज उच्चारभूमिसंपन्न इत्थीपसुविज्जिय लयणं अन्यार्थ प्रकृतं लयनं, सयणासणं। भजेत शयनासनम् । उच्चारभूमिसम्पन्न, ॥ स्त्रीपशुविजितम् ॥५१॥ ५१- मुनि दूसरों के लिए बने हुए१४५ गृह१४६, शयन और आसन का सेवन करे । वह गृह मल-मूत्र-विसर्जन की भूमि से युक्त तथा स्त्री और पशु से रहित ४७ हो। ५२-विवित्ता य भवे सेज्जा विविक्ता च भवेच्छय्या, नारीणं न लवे कहं। नारीणां न लपेत् कथाम् । गिहिसंथवं न कुज्जा गृहि-संस्तवं न कुर्यात्, कुज्जा साहहिं संथवं ॥ कुर्यात साधुभिः संस्तवम् ॥५२॥ ५२-जो एकान्त स्थान हो वहाँ मुनि केवल स्त्रियों के बीच व्याख्यान न दे४८ । मुनि गृहस्थों से परिचय न करे, परिचय साधुओं से करे | ५३-५°जहा कुक्कुडपोयस्स यथा कुक्कुटपोतस्य, निच्चं कुललओ भय। नित्यं कुललतो भयम् । एवं खु बंभयारिस्स एवं खलु ब्रह्मचारिण:, इत्थीविग्गहओ भयं ॥ स्त्रीविग्रहतो भयम् ॥५३॥ ५३ --जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को १५१ सदा बिल्ली से भय होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता Jain Education Intemational Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३८१ अध्ययन ८: श्लोक ५४-६० ५४-चित्तभिति न निज्झाए नारि वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दठणं दिदि पडिसमाहरे॥ चित्रभित्ति न निध्यायेत, नारों वा स्वलङ्कृताम् । भास्करमिव दृष्ट्वा, दृष्टि प्रतिसमाहरेत् ॥५४॥ ५४ - चित्र-भिति५३ (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित भित्ति) या आभूषणों से सुसज्जित५४ स्त्री को टकटकी लगाकर न देखे । उन पर दृष्टि पड़ जाए तो उसे वैसे खींच ले जैसे मध्याह के सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि स्वयं खिंच जाती है। ५५-हत्थपायपडिच्छिन्न कण्णनासविगप्पियं५५ अवि १५वाससई नारि बंभयारी विवज्जए॥ प्रतिच्छिन्न-हस्तपादां, विकल्पित-कर्णनासाम् । अपि वर्षशता नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत् ॥३५॥ ५५ -- जिसके हाथ पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो वैसी सौ वर्ग की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। पर ५६-विभूसा इत्थिसंसग्गी पणीयरसभोयणं नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं विभूषा स्त्री-संसर्गः, प्रणीत-रसभोजनम् । नरस्यात्मगवेषिणः, विषं तालपुटं यथा ॥५६॥ ५६ -आत्मगवेषी १५७ पुरुष के लिए विभूषा१५८, स्त्री का संसर्ग और प्रणीतरस का भोजन तालपूट-विष१६० के समान जहा॥ ५७--अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहिय । इत्थीणं तं न निज्झाए कामरागविवड्डणं ॥ अङ्ग-प्रत्यङ्ग संस्थानं, चारुल्लपितप्रेक्षितम् । स्त्रीणां तन्न निध्यायेत्, कामरागविवर्धनम् ।।५७॥ ५७ -स्त्रियों के अङ्ग, प्रत्यङ्ग, संस्थान ६', चारु-भासित (मधुर बोली) और कटाक्ष६२ को न देखे उनकी ओर ध्यान न दे, क्योंकि ये सब काम-राग को बढ़ाने वाले हैं। ५८–विसएस मणुन्नेस पेम नाभिनिवेसए। अणिच्चं तेसि विन्नाय परिणामं पोग्गलाण उ॥ विषयेषु मनोज्ञेषु, प्रेम नाभिनिवेशयेत् । अनित्यं तेषां विज्ञाय, परिणामं पुद्गलानां तु ॥५॥ ५८-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पुद्गलों के परिणमन को १६३ अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे१६४ ॥ ५६-पोग्गलाण परीणामं पुद्गलानां परिणाम, तेसि नच्चा जहा तहा। तेषां ज्ञात्वा यथा तथा । विणीयतण्हो विहरे - विनीततृष्णो विहरेत्, सीईभूएण अप्पणा ॥ शीतीभूतेनात्मना ॥५६॥ ५६-इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है वैसा जानकर अपनी आत्मा को उपशान्त कर१६५ तृष्णा-रहित हो विहार करे। ६०-जाए१६६ सद्धाए निक्खंतो परियायट्ठाणमुत्तमं तमेव अणुपालेज्जा आयरियसम्मए॥ यया श्रद्ध या निष्क्रान्तः पर्यायस्थानमुत्तमम् । तामेवाऽनुपालयेत्, गुणान् आचार्यसम्मतान् ।६०॥ ६०--जिस श्रद्धा से ६° उत्तम प्रव्रज्यास्थान के लिए घर से निकला, उस श्रद्धा को६८ पूर्ववत् बनाए रखे और आचार्य-सम्मत१६६ गुणों का अनुपालन करे। गुणे Jain Education Intemational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ६१ - तवं चिमं संजनजोगवं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए । सूरे व सेणाए समतमा उहे अलमप्यणो होइ अलं परेसि ॥ ६२ - सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुराई जं सिमलं पुरेकर्ड समीरिय रुपमलं व जोइणा ॥ ६३ -- से तारिसे दुक्खस हे जिइंदिए सुवेण पुतं अममे अकिचणे । विरायई कम्मघणम्मि अवगए कणिपुडावगमे व चंदिमा ॥ 350 त्ति बेमि । ३८२ तपश्चेदं संयमयोगं च, स्वाध्यायोगं च सदाऽपिष्ठेत् । शूर इव सेनया समाप्तायुधः, अलमात्मने भवत्यलं परेभ्यः ॥ ६१ ॥ स्वाध्याय सद्ध्यानरतस्य त्रायिणः, अपापभावस्य तपसि रतस्य । विशुध्यते यत् तस्य मलं पुराकृतं, समीरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषा ।। ६२ ।। सासह ि श्रुतेन युक्तोऽममोsकिञ्चनः । विराजते कर्मधनेऽपगते, कृत्स्नाभ्रपुटावगमे इन्द्रमाः ॥ ६३॥ इति ब्रवीमि । अध्ययन इलोक ६१-६३ ६१ - जो मुनि इस तप, संयम - योग १७२ और स्वाध्याय योग में 13 सदा प्रवृत्त रहता है १४ वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर आयुधों से सुसज्जित १७५ वीर । ६२ - स्वाध्याय और सद्ध्यान में १७ लीन, त्राता, निष्पाप मन वाले और तप में रतमुनिका पूर्व संचित मल उसी प्रकार विशुद्ध होता है जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए सोने का मल । १८८१ १८२ - र ६३ - जो पूर्वोक्त गुणों से युक्त है, दुःखों को सहन करने वाला है, जितेन्द्रिय है, ता है, ममत्व और ञ्चन है, वह कर्म रूपी बादलों के दूर होने पर उसी प्रकार शोभित होता है जिस प्रकार सम्पूर्ण अभ्रपटल से वियुक्त चन्द्रमा । -95% ऐसा मैं कहता है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आचार-प्रणिधि को ( आवारप्पणिहि क ) : प्रणिधि का अर्थ समाधि या एकाग्रता है | आचार में सर्वात्मना जो अध्यवसाय ( एकाग्र चिन्तन या दृढ़ मानसिक संकल्प ) होता है, उसे 'आचार - प्रणिधि' कहा जाता है । २. पाकर ( लद्धं क ) : अगस्त्य ' और टीका के अनुसार यह पूर्व किया (त्या प्रत्यय) का और नाय का रूप है । 'तुम' प्रत्यय का रूप मानने पर 'आवार- पणिहि लद्दु' का अनुवाद 'आचार-प्रणिधि की प्राप्ति के लिए होगा । श्लोक २ : ३. श्लोक २ : तुलना कीजिए टिप्पण अध्ययन लोक १ : ४. ( सबीयगा ख ) : वीजा दो सत्ता उजवा तहागणी | बाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुवखा सबीयगा || अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया । एता जीवावरे कोड विश्वई । देखिए ४.८ की टिप्पण संख्या २० । इलोक ३ : ३- अ० चू० पृ० १८४ : 'लधुं' पाविऊण । ४- हा० टी० प० २२७ : 'लब्ध्वा' प्राप्य । ५-- जि० १० चू० पृ० २७१ : ( लब्धुं ) प्राप्तये । ६ - अ० चू० पू० पडियेथे ण ७- अ० चू० पू० १८५ : जोगो सम्बन्धो । १.१.७-८) ५. अहिंसक (अरणजोएक) : 'क्षण' का अर्थ हिंसा है । न क्षण - अक्षण अर्थात् अहिंसा । 'योग' का अर्थ सम्बन्ध" या व्यापार है। जिसका प्रयत्न १- अ० चि० ६.१४ : अवधानसमाधानप्रणिधानानि तु समाधौ स्युः । २- अ० च० पृ० १८४ : आयारप्पणिधी - आयारे सव्वधपणा अज्झवसातो । 2 के अनुसार यह ''प्रत्यय १८५ : छणणं छणः क्षणु हिंसायामिति एयस्स रूवं, क्षगारस्स य छगारता पाकते, जधा अक्षीणि अच्छीणि अकारो णः अद्यणः अहिराणमित्यर्थः । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलिय ( दशवकालिक ) अध्ययन ८ : श्लोक ४-५ टि०६-६ अहिंसक (हिंसा-रहित ) होता है, उसे 'अक्षण योग' कहा जाता है। श्लोक ४: ६. श्लोक ४। भेदन और लेखन करने से पृथ्वी आदि अचित्त हों तो उसके आथित जीवों की और सचित्त हों तो उसकी और उसके आश्रित जीव दोनों की हिंसा होती है, इसलिए इसका निषेध है। ७. भित्ति ( भित्ति क ): इसका अर्थ है-दरार। अनुसन्धान के लिए देखिए ४.१८ की टिप्पण संख्या ६६ । श्लोक ५: ८. शुद्ध पृथ्वी ( सुद्धपुढवी ए क ): __ 'शुद्ध पृथ्वी' के दो अर्थ हैं --शस्त्र से अनुपहत पृथ्वी अर्थात् सचित्त-पृथ्वी और शस्त्र से उपहत -- अचित्त होने पर भी जिस पर कंबल आदि बिछा हुआ न हो वह पृथ्वी । गात्र की उष्मा से पृथ्वी के जीवों की विराधना होती है, इसलिए सचित्त पृथ्वी पर नहीं बैठना चाहिए और कंबल आदि बिछाए बिना जो अचित्त पृथ्वी पर बैठता है उसका शरीर धूलि से लिप्त हो जाता है अथवा उसके निम्न भाग में रहे हए जीवों की गान की उष्मा से विराधना होती है, इसलिए अचित्त पृथ्वी पर भी आसन आदि बिछाए बिना नहीं बैठना चाहिए। ६. ( ससरक्खम्मि ख ) : सचित्त-रज से संसृष्ट। अनुसन्धान के लिए देखिए ४.१८ की टिप्पण संख्या ६६ । १- (क) अ० चू० १० १८५ : अहिंसणेण अच्छणे जोगो जस्स सो अच्छणजोगो। (ख) जि० चू० पृ० २७४ : अकारो पडिसेहे वट्टइ, छण्णसद्दो हिसाए वट्टइ, जोगो मणवयणकाइओ तिविधो, ण हृदणजोगा अच्छणजोगो तेण अच्छणजोएण निव्वग्धाएण । (ग) हा० टी०प० २२८ : 'अक्षणयोगेन' अहिंसाव्यापारेण । २- जि० चू० पृ० २७५ : तत्थ अचित्ताए तन्निस्सिया विराधिज्जति, सचित्ताए पुढवीजीवा तण्णिस्सिया य विराहिज्जति । ३- (क) अ० चू० पृ० १८५ : 'भित्ती' तडी। (ख) जि० चू० पृ० २७५ : भित्तिमादि णदितडीतो जवोवद्दलिया सा भित्ती भन्नति । (ग) हा टी०प० २२८ : 'भित्ति' तटीम् । ४--(क) अ० चू० ५० १८५ : असत्योबहता सुद्धपुढवी, सत्थोवहतावि कंबलिमातीहि अणंतरिया । (ख) जि० चू० पृ० २७५ : सुद्धपुढवी नाम न सत्थोवहता, असत्योबहयावि जा णो वत्थंतरिया सा सुद्धपढवी भण्णइ । (ग) हा० टो० प० २२८ : 'शुद्धपृथिव्याम्' अशस्त्रोपहतायामनन्तरितायाम् । ५ –जि० चू० पृ० २७५ : त थ सचित्तपुढवीए गायउण्हाए विराधिज्जइ, अच्चित्ताए एयाए पति (गायआ) सणायी गुंडिज्जंति, हेछिल्ला वा तण्णिस्सिता सत्ता उण्हाए विराधिज्जति । ६--(क) जि० चू० पृ० २७५ : सस रवखं नाम जंमि सच्चित्तरतो वाउ तो तमासणं ससरपखं भण्णइ । (ख) हा० टी० प० २२८ : 'सरजस्के वा' पृथ्वीरजोऽवगुण्ठिते वा। Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) अध्ययन ८ : श्लोक ६ टि० १०-१६ १०. न बैठे ( निसिए क): बैठने का स्पष्ट निषेध है । इसके उपलक्षण से खड़ा रहने, सोने आदि का भी निषेध समझ लेना चाहिए। ११. प्रमार्जन कर ( पमज्जित्तु ग): ___ सचित्त-पृथ्वी पर बैठने का सर्वथा निषेध है । अचित्त पृथ्वी पर सामान्यतः आसन बिछाए बिना बैठने का निषेध है, किन्तु धूलि का प्रमार्जन कर बैठने का विधान भी है । यह उस सामान्य विधि का अपवाद है। १२. लेकर (जाइत्ता घ): __ चूणि और टीका के अनुसार यह पाठ 'जाणित्त' रहा—ऐसा संभव है । उसके संस्कृत रूप 'ज्ञात्वा' और 'ज्ञपयित्वा' दोनों हो सकते हैं । ज्ञात्वा अर्थात् पृथ्वी को अचेतन जानकर, ज्ञपयित्वा अर्थात् वह जिसकी हो उसे जताकर- अनुमति लेकर या मांगकर । टीका में 'जाइत्ता' की भी व्याख्या है। श्लोक ६: १३. शीतोदक ( सीओदगंक): यहाँ इसका अर्थ है-भूम्याश्रित सचित्त जल। १४. ( वुटुंख): बरसात का पानी, अन्तरिक्ष का जल'। १५. हिम का (हिमाणि ख ): हिम-पात शीतकाल में होता है और वह प्रायः उत्तरापथ में होता है। १६. तप्त होने पर जो प्रासुक हो गया हो वैसा जल ( उसिणोदगं तत्तफासुयं ") : शिष्य ने पूछा-भगवन् ! जो उष्णोदक होता है वह तप्त भी होता है और प्रासुक भी होता है तब फिर उसके साथ तप्त-प्रासुक विशेषण क्यों लगाया गया ? १--हा० टी०प० २२८ : न निषीदेत्, निषीदन ग्रहणात् स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः । २-हा० टी०प० २२८ : अचेतनायां तु प्रमज्य तां रजोहरणेन निषोदेत् । ३-(क) अ० चू० पृ० १८५ : जाणित्तु सत्थोवहता इति लिंगतो पंचविहं वा ओग्गहं जाणित्तु तं जाइय अणुण्णवित । (ख) जि० चू० पृ० २७५ : जाणिऊण जहा एसा अचित्तजयणा, अगणिमाई उवहयस्स य जस्स सो परिग्गहो तस्स उग्गहं अणुजाणावेऊण निसीदणादीणि कुज्जा । (ग) हा० टी०प० २२८ : 'ज्ञात्वे' त्यचेतनां ज्ञात्वा 'याचयित्वाऽवग्रह' मिति यस्य संबन्धिनी पृथिवी तमवग्रहमनुज्ञाप्येति । ४-(क) अ० चू० पृ० १८५ : 'सीतोदगं' तलागादिसु भौम पाणितं । (ख) जि० चू० पृ० २७५ : सीतोदगगहणेण सचेतणस्स उदयस्स गहणं कयं । (ग) हा० टी० प० २२८ : 'शीतोदक' पृथिव्युद्भवं सच्चित्तोदकम् । ५—(क) अ० चू० पृ० १८५ : 'वुठें तक्कालवरिसोदगं । (ख) जि. चू० पृ० २७६ : वुठ्ठग्गहणण सेसअंतरिक्खोदगस्स गहणं कयं । ६–अ० चू० पृ० १८५ : हिमं हिमवति सीतकाले भवति । ७-(क) जि० चू० पृ० २७६ : हिमं पाउसे उत्तरापहे भवति । (ख) हा० टी०प० २२८ : हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति । Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ८: श्लोक ७-६ टि. १७-२२ आचार्य ने कहा----सारा उष्णोदक तप्त-प्रासुक नहीं होता, किन्तु पर्याप्त मात्रा में उबल जाने पर ही वह तप्त-प्रासुक होता है । इसलिए यह विशेषण सार्थक है । मुनि के लिए वही उष्णोदक ग्राह्य है, जो पूर्ण मात्रा में तप्त होने पर प्रासुक हो जाए। अनुसन्धान के लिए देखिए ५.२.२२ की टिप्पण संख्या ४०-४१ । श्लोक ७: १७. जल से भीगे अपने शरीर को ( उदउल्लं अप्पणो कायं क ) : मुनि के शरीर भीगने का प्रसंग तब आता है जब वे नदी पार करते हैं या भिक्षाटन में वर्षा आ जाती है। १८. पोंछे मले ( पुंछ संलिहे ख ) : वस्त्र तृण आदि से पोंछना 'प्रोञ्छन' और उंगली, हाथ आदि से पोछना 'संलेखन' कहलाता है। १६. तथाभूत ( तहाभूयं ग ) : 'तथाभूत' का अर्थ आर्द्र या स्निग्ध है। २०. देखकर ( समुप्पेह "): ___टीका में इसका अर्थ 'देखकर' किया है । चूणियों के अनुसार 'समुप्पेहे' पाठ है । इसका अर्थ है-सम्यक प्रकार से देखे। श्लोक २१. श्लोक ८: अङ्गार आदि शब्दों की विशेष जानकारी के लिए देखिए ४.२० की टिप्पण संख्या ८९-१०० । श्लोक : २२. बाहरी पुद्गलो पर ( बाहिरं..... पोग्गलं घ): बाह्य पुद्गल का अर्थ व्यतिरिक्त वस्तु'-उष्णोदक आदि पदार्थ हैं। १-(क) जि० चू० पृ० २७६ : तं पुण उण्होदगं जाहे तत्तं फासुगं भवति ताहे संजतो पडिग्गाहिज्जत्ति, आह-उण्होदगमेव वत्तव्वं तत्त फासुगगहणं न कायवं, जम्हा जं उण्होदगं तमवस्सं तत्तं फासुयं च भविस्सइ ?, आयरियो आह -न सव्वं उण्होदर्ग तत्तफासुयं भवति, जाहे सव्वत्ता डंडा ताहे फासुयं भवति, अतो तत्तफासुयगहणं कयं भवति । (ख) हा० टी०प० २२८ : 'उष्णोदकं क्वथितोदकं तप्तप्रासुक' तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदण्डोद्वत्तं, नोष्णोदकमात्रम् । २-हा० टी०प० २२८ : नदीमुत्तोर्गो भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतः 'उदकाम्' उदकबिन्दुचितमात्मन: 'कार्य' शरीरं स्निग्धं वा । ३- (क) अ० चू० पृ० १६६ : पुंछणं वत्थादीहि लूसणं संलेहणमंगुलिमादीहिं णिच्छोडणं । (ख) जि० चू० पृ० २७६ : तत्थ पुंछणं वत्थेहि तणादीहि वा भवइ, संलिहणं जं पाणिणा संलिहिऊण णिच्छोडेइ एवमादि । (ग) हा० टी० प० २२८ : 'पुञ्छयेद्' वस्त्रतृणादिभिः 'न संलिखेत' पाणिना । ४-(क) अ० चू० पृ० १८६ : तथाभूतमिति उदओल्लं सरिसं। (ख) जि० चू० पृ० २७६ : तहाभूअं णाम जं उदउल्लं ससनिद्ध । (ग) हा० टी०प० : 'तथाभूतम्' उदकार्दादिरूपम् । ५ हा० टी० प० २२८ : 'संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य । ६-(क) अ० चू० पृ० १८६ : समुप्पेहे उवेक्खेज्जा परिधारेज्जा । (ख) जि० चू०प० २७६ : समुप्पेहे नाम सम्म उवेहे. संमं णिरिक्खतित्ति वुत्तं भवइ । ७-अ० चू० पृ० १८६ : सरीरवतिरित्त वा बाहिरं पोग्गलं । ८--(क) जि० ०५० २७७ : बाहिरपोग्गलग्गहणणं उसिणोदयादीणं गहणं । (ख) हा० टी० प० २२६ : 'बाह्य वापि पुद्गलम् उष्णोदकादि । Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३८७ अध्ययन ८ : श्लोक १०-१२ टि० २३-२८ श्लोक १०: २३. तृण, वृक्ष ( तणरुक्खं क) : 'तृण' शब्द से सभी प्रकार की घासों और 'वृक्ष' शब्द से सभी प्रकार के वृक्षों एवं गुच्छ, गुल्म आदि का ग्रहण किया गया है । तृणद्रुम संयुक्त शब्द भी है। कोश में नालिकेर, खजूर और पूग आदि ताल जाति के वृक्षों को तृणद्रुम कहा है, संभवत: इसीलिए कि तृणों के समान इनके भी रेशे समानान्तर और कांटे नुकीले होते हैं । किन्तु यहाँ इनका वियुक्त अर्थ-ग्रहण ही अधिक संगत है। श्लोक ११: २४. वन-निकुञ्ज के बीच ( गहणेसु क ): - गहन का अर्थ है वृक्षाच्छन्न प्रदेश । गहन में हलन-चलन करने से वृक्ष की शाखा आदि का स्पर्श होने की संभावना रहती है इसलिए वहाँ ठहरने का निषेध है। २५. अनन्तकायिक वनस्पति ( उदगम्मिग ) : 'उदक' के दो अर्थ किए गए हैं --अनन्तकायिक वनस्पति और जल । किन्तु यह वनस्पति का प्रकरण है, इसलिए यहाँ इसका अर्थ वनस्पति-परक ही संगत है। प्रज्ञापना ब भगवती में अनन्तकायिक वनस्पति के प्रकरण में 'उदक' नामक वनस्पति का उल्लेख हुआ है। जहाँ जल होता है वहाँ वनस्पति होती है अर्थात् जल में वनस्पति होने का नियम है। इस वनस्पति-प्रधान दृष्टि से इसका अर्थ जल भी किया जा सकता है । २६. सर्पच्छत्र ( उत्तिग ध ) : इसका अर्थ सर्पच्छन ....कुकुरमुत्ता है । यह पौधा बरसात के दिनों में पेड़ों की जड़ो में या सील की जगह में उगा करता है। २७. खड़ा न रहे ( न चिट्ठज्जा क ): यह शब्द न बैठे, न सोए आदि का संग्राहक है। श्लोक १२ २८. सब जीवों के ( सव्वभूएसु " ) : यह बस का प्रकरण है इसलिए यहाँ 'सर्वभूत' का अर्थ 'सर्व बस जीव' हैं । १---(क) जि० चू० पृ० २७७ : तत्थ तणं दब्भादि, रुक्खगहणेण एगट्ठियाण बहुबीयाण य गहणं, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउ सेसावि गुच्छगुम्मादि गहिया । (ख) हा० टी०प० २२६ : तृणानि --दर्भादोनि, वृक्षा: ---कदम्बादयः । २---अमर० काण्ड २ वर्ग ४ श्लोक १७० : खजूरः केतकी ताली खजूरी च तृणद्रुमाः । ३--(क) जि० चू० पृ० २७७ : गहणं गुविलं भण्णइ, तत्थ उठवत्तमाणो परियत्तमाणो वा साहादीणि घट्ट'इ तं गहणं, तत्थ नो चिट्ठज्जा । (ख) हा० टी० प० २२६ : 'गहनेषु' वननिकुञ्जेषु' न तिष्ठेत्, संघटनादिदोषप्रसङ्गात् । ४-जि० चू० पृ० २७७ : तत्थ उदगं नाम अणंतवणप्फई, से भणियं च ...'उदए अवए पणए सेवाले' एवमादि, अहवा उदगगहणेण उदगस्स गहणं करेंति, कम्हा ?, जेण उदएण वणप्फइकाओ अस्थि । ५–पन्न १.४३ पृ० १०५ : जलरुहा अणेगविहा पन्नत्ता, जहा-उदए, अवए, पणए....। ६- हा० टी० प० २२६ : 'उत्तिङ्गः'...सर्पच्छत्रादिः । ७-अ० चू० पृ० १८७ : ण चिठे णिसीदणादि सब्बं ण चेएज्जा। ८-अ० चू० पृ० १८७ : सव्वभूताणि तसकायाधिकारोत्ति सव्वतसा । Jain Education Intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३८८ अध्ययन ८ : श्लोक १५ टि० २६-३१ २६. विभिन्न प्रकार वाले ( विविहं क ) : इसका अर्थ हीन, मध्य और उत्कृष्ट' अथवा कर्म की पराधीनता से नरक आदि गतियों में उत्पन्न है। श्लोक १५: ३०. श्लोक १५: आठ सूक्ष्मों की व्याख्या इस प्रकार है : १-स्नेहपुष्प के पांच प्रकार हैं-ओस, बरफ, कुहासा ओला और उभिद् जलबिन्दु। २-पुष्पसूक्ष्म .....बड़, उम्बर आदि के फूल या उन जैसे वर्ण वाले दुर्विभाव्य फूल । ३-प्राण सूक्ष्म---अरणुद्धरी-कुंथु, जो चलने पर जाना जाता है किन्तु स्थिरावस्था में दुज्ञय है। ४-उत्तिग सूक्ष्म-कीटिका-नगर, जहाँ प्राणी दुज्ञेय हों। ५--पनक सूक्ष्म--काई। यह पाँच वर्ण की होती है। वर्षा में भूमि, काठ और उपकरण (वस्त्र) आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली उत्पन्न होती है। ६ –बीज सूक्ष्म-सरसों और शाल के अग्रभाग पर होने वाली कणिका, जिसे लोग 'सुमधु' भी कहते हैं । स्थानाङ्ग वृत्तिकार के अनुसार इसे लोक-भाषा में 'तुषमुख' भी कहा जाता है । ७-हरित सूक्ष्म-जो तत्काल उत्पन्न, पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्जेय हो वह अंकुर । ८- अंड-सूक्ष्म के पाँच प्रकार हैं--मधुमक्खी, कीड़ी, मकड़ी (स्थानाङ्ग ८.२० में वृत्तिकार ने लूता-मकड़ी के स्थान में गृहकोकिला--गिलहरी का उदाहरण दिया है) ब्राह्मणी और गिरगिट के अंडे" । ३१. उत्तिङ्ग ( उत्तिग ख ) : स्थानाङ्ग में आठ सूक्ष्म बतलाए हैं। दशवकालिक और स्थानाङ्ग के सूक्ष्माष्टक में अर्थ-दृष्टि से अभेद है। जो क्रम-भेद है उसका कारण गद्य और पद्य रचना है। शब्द-दृष्टि से सात शब्द तुल्य हैं केवल एक शब्द में अन्तर है। स्थानाङ्ग में 'लेण' है वहाँ दशवकालिक में 'उत्तिग' है। स्थानाङ्ग वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने 'लेण' का अर्थ जीवों का आश्रय-स्थान किया है । दशवकालिक १--अ० चू०प० १८७ : विविधमणेगागारं हीणमझाधिकभावेण । २-हा० टी० प० २२६ : विविधं 'जगत्' कर्मपरतन्त्र नरकादि गतिरूपम् । ३-जि० चू०प० २७८ : सिणेहसुहुमं पंचपगारं, तं-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए। ४-जि० चू०प० २७८ : पुष्फसुहुमं नाम वडउम्बरादीनि संति पुप्फाणि, तेसि सरिवन्नाणि दुविभावणिज्जाणि ताणि सुहमाणि । ५- जि० चू० पृ० २७८ : पाणसुहुमं अणुद्धरी कुंथू जा चलमाणा विभाविज्जइ थिर। दुब्विभावा । ६-अ० चू० पृ० १८८ : उत्तिगसुहुमं कोडियाधरगं, जे वा जत्थ पाणिणो दुट्विभावणिज्जा। ७-जि० चू० पु० २७८ : पणगसुहुमं णाम पंचवन्नो पणगो वासासु भूमिकट्टउवगरणादिसु तहव्वसमवन्नो पणगसुहमं । ८-जि० चू०प० २७८ : बीयसहुमं नाम सरिसवादि सालिस्स वा मुहमूले जा कणिया सा बीयसुहमं, सा य लोगेण उ समह (धुम)ति भण्णइ। ६-ठा० ८.३५ वृ : लोके या तुषमुखमित्युच्यते । १०-जि० चू० पृ० २७८ : हरितसुहुमं णाम जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवणं दुन्विभावणिज्ज तं हरियसहमं । ११-अ० चू० पृ० १८८ : उद्दसंडं महुमच्छिगादीण। कोडियाअंडगं-पिपीलियाअंडं, उक्कलिअंडं लूयापडागस्स। हलियंडंबंभणि ___याअंडगं, सरडिअंडगं-हल्लोहल्लिअंडं। १२-ठा० ८.३५ : अट्ठ सुहुमा पं० त० पाणसुहुमे, पणगसुहुमे, बोयसुहुमे, हरियसुहुमे, पुप्फसुहुमे, अंडसुहुमे, लेणसुहुमे, सिणेहसुहमे । १३-ठा० ८.३५ ००:लयनम्-आश्रय: सत्वानाम्, तच्च कोटिकानगरादि, कोटिकाश्चान्ये च सूक्ष्मा: सत्वा भवन्तीति । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३८६ अध्ययन ८ : श्लोक १६-१७ टि० ३२-३५ के टीकाकार हरिभद्र सूरि ने 'उत्तिंग' का अर्थ 'कीटिका-नगर' किया है। इन दोनों सूत्रों के शाब्दिक-भेद और आर्थिक-अभेद से एक बड़ा लाभ हुआ है, वह है 'उत्तिग' शब्द के अर्थ का निश्चय । विभिन्न व्याख्याकारों ने 'उत्तिग' शब्द के विभिन्न अर्थ किए हैं, किन्तु प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'उत्तिग' का अर्थ वही होना चाहिए जो 'लयन' का है। इस प्रकार 'लयन' शब्द 'उत्तिग' के अर्थ को कस देता है। इसी अध्ययन के ग्यारहवें श्लोक में जो ‘उत्तिंग' शब्द आया है वह बनस्पति का वाचक है। प्रस्तुत प्रकरण त्रसकाय से संबन्धित है । प्रकरण-भेद से दोनों में अर्थ-भेद है। श्लोक १६: ३२. सब प्रकार से ( सव्वभावेण ख ): अगस्त्य धुणि में लिङ्ग, लक्षण, भेद, विकल्प -यह सर्वभाव की व्याख्या है। लिङ्ग आदि सर्व साधनों से जानना, सर्वभाव से जानना कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ 'सर्वस्वभाव' किया है। जिनदास पूणि में वर्ण, संस्थान आदि को 'सर्वभाव' माना गया है। वहाँ एक विशेष जानकारी दी गई है कि छद्मस्थ सब पर्यायों को नहीं जान सकता। इसलिए 'सर्वभाव' का अर्थ होगा जिसका जो विषय है उसे पूर्ण रूप से (जानकर)५ । टीकाकार ने इसका अर्थ 'अपनी शक्ति के अनुरूप स्वरूप-संरक्षण किया है । श्लोक १७: ३३. पात्र ( पाय ): यहाँ पात्र शब्द से काष्ठ, तुंबा और मिट्टी—ये तीनों प्रकार के पात्र ग्राह्य हैं । ३४. कम्बल ( कंबलं ख): यहाँ कम्बल शब्द से ऊन और सूत –दोनों प्रकार के वस्त्र ग्राह्य हैं। ३५. शय्या ( सेज्जंग): शय्या का अर्थ है वसति --उपाथय । उसका दिन में दो या तीन बार प्रतिलेखन करने की परम्परा का उल्लेख है। १-हा० टी० प० २३० : उत्तिगसूक्ष्मां -को टिका-नगरम् । तत्र कोटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति । २-अ० चू० पृ० १८८ : सम्वभावेणलिंगलक्खणभेदविकप्पेणं । ३ -अ० चू० पृ० १८८ : अहवा सब्वसभावेण । ४-जि० चू० पृ २७८ : सव्वप्पगारेहि वण्णसंठाणाईहिं णाऊणंति । ५-जि० चू० पृ० २७८-२७६ : अहवा ण सव्वपरियारहिं छउमत्थो सक्केइ उवलभिउं, कि पुण जो जस्स विसयो? तेण सम्वेण भावेण जाणिऊणंति। ६-हा० टी०प० २३० : 'सर्वभावेन' शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना । ७-(क) अ० चू० पृ० १८८ : पायं लाबुदारुमट्टियामयं । (ख) जि० चू० पृ० २७६ : पायग्गहणेण दारुअलाउयमट्टियपायाणं गहणं । (ग) हा० टी० ५० २३१ : पात्रग्रहणात् --अलाबुदारुमयादिपरिग्रहः । ८-(क) अ०० पृ० १८८ : कंबलोपदेसेण तज्जातीयं वत्थादि सव्वमुपविट्ठ। (ख) जि० चू०प० २७६ : कम्बलगहणण उन्नियसोत्तियाण सर्वसि गहणं । (ग) हा० टी०प० २३१ : कम्बलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः । ६-(क) जि० चू० पृ० २७६ : सेज्जाओ वसइओ भण्णइ, तमवि दुकालं तिकालं वा पडिलेहिज्जा । (ख) हा० टी०प० २३१ : 'शय्यां' वसति द्विकालं त्रिकालं च । Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ३६० अध्ययन ८: श्लोक १८ टि० ३६-४२ ३६. उच्चार-भूमि ( उच्चारभूमि " ) : जहाँ लोगों का अनापात और असं नोक हो अर्थात् लोगों का गमनागमन न हो और लोग न दीखते हों, वह उच्चार–मलोत्सर्ग करने योग्य भूमि है । साधु उसका प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उसमें प्रवेश करे। ३७. संस्तारक ( संथारं घ): संस्तारक-भूमि के लिए भी प्रतिलेखन और प्रमार्जन दोनों का विधान है। ३८. आसन का ( आसणं घ): बैठते समय आसन का प्रतिलेखन करने का विधान है। ४६. यथासमय (धुवं क ): इसका अर्थ नित्य-नियत समय या यथासमय है । ४०. प्रमाणोपेत ( जोगसा ख ) : इसका अर्थ अन्यूनातिरिक्त अर्थात् प्रमाणापित है। प्रतिलेखन न हीन करना चाहिए और न अतिरिक्त, किन्तु प्रमाणोपैत करना चाहिए । जैसे योग-रक्त साड़ी का अर्थ प्रमाण-रक्त साड़ी होता है, वैसे ही जोगसा का अर्थ प्रमाण-प्रतिलेखन होता है। व्याख्याओं में इसका मूल अर्थ - 'सामर्थ्य होने पर भी किया गया है। ४१. प्रतिलेखन करे ( पडिलेहेज्मा ) : प्रतिलेखन का अर्थ है देखना । मुनि के लिए दिन में दो बार (प्रात: और सायं) वस्त्र आदि का प्रतिलेखन करना विहित है। प्रतिलेखन-विधि की जानकारी के लिए उत्तराध्ययन (२६.२२-३१) और ओघनियुक्ति गाथा (२५६-२७५) द्रष्टव्य हैं। श्लोक १८: ४२. श्लोक १८. इस श्लोक में निर्दिष्ट उच्चार आदि की तरह अन्य शरीर के अवयव, आहार या उपकरण आदि का भी प्रासुक स्थान में उत्सर्ग करना चाहिए । यह उपाश्रय में उत्सर्ग करने की विधि का वर्णन है । १-(क) अ० चू० पृ० १८८ : उच्चारो सरीरमलो तस्स भूमी उच्चारभूमी, तमवि अणावातम संलोगादिविहिणा पडिलेहेज्जा, पडिले हितपमज्जिते वा आयारेज्ज । (ख) जि० चू०पू० २७६ : उच्चारभूमिमबि अणावायमसंलोयाधिगुणेहि जुत्तं गयमाणो। (ग) हा० टी०प० २३१ : उच्चारभुवं च-अनापातवदादि स्थण्डिलम् । २.---(क) जि० चू० पृ० २७६ : तहा संथारभूमिपवि परिलहिय पमज्जिय अत्थुरेज्जा। (ख) हा० टी०प० २३१ : 'संस्तारक' तृणमयादिरूपम् । ३--जि० चू० पृ० १७६ : तहा आसणमवि परिलहिऊण उवविसेज्ज । ४-(क) अ० चू० पृ० १८८ : धुवं णियतं । (ख) जि० चू० पृ० २७६ : धुवं णाम जो जस्स पच्चुवेयषणकालो तं संमि णिच्चं । (ग) हा० टी० ५० २३० : 'ध्र वं च' नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिभोगे च तस्मिन् । ५-जि० च०५०२७६ : जोगसा नाम सति सामत्थे, बहया जोगसः णाम जं पमाणं भणित ततो पमाणाओ ण होणमहित वा पडिले हिज्जा, जहा जोगरता साडिया पमाण रसित्ति वृत्त भवइतहर पमाणपहिलेहा जोगसा भण्णई। ६-(क) अ० चू० १० १८८ : जोगसा जोगसामत्थे सति । अहवा उपउज्जिऊण पुब्धि ति जोगेण जोगसा उणातिरित्तपडिलेहणा वज्जित वा। (ख) हा० टी० प० २३१ : 'योगे सति' सति सामर्थे अन्यूनातिरिक्तम् । ७--(क) जि० चू०प० २७६ : अन्नं वा सरीरावरवं आहारोबकरणादि वा, फासुयं ठाणं 'पडिले हऊण परिटवेज्ज संजए'त्ति, एस उवस्सए विधी भणिओ। (ख) हा० टी०प०२३१ : उपाश्रयस्थानविधिरुक्तः । Jain Education Intemational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) ३६१ अध्ययन ८: श्लोक १६ टि०४३-४७ ४३. शरीर के मैल का ( जल्लियं ख) : _ 'जल्लिय' का अर्थ है शरीर पर जमा हुआ मैल । चूणिद्वय के अनुसार मुनि के लिए उसका उद्वर्तन करना -मैल उतारना विहित नहीं है । पसीने से गलकर मैल उतरता है अथवा ग्लान साधु शरीर पर जमे हुए मैल को उतार सकता है । यहाँ मैल के उत्सर्ग का उल्लेख इन्हीं की अपेक्षा से है। - अगस्त्यसिंह ने 'जाव सरीरभेओ' इस बाश्य के द्वारा 'जल्ल परीपह' की ओर संकेत किया है। इसकी जानकारी के लिए देखिए उत्तराध्ययन (२.३७) । श्लोक १६: ४४. ( वा ख ): सामान्यत: गृहस्थ के घर जाने के भोजन और पानी- ये दो प्रयोजन बालाए हैं। रुग्ण साधु के लिए औषध लाने के लिए तथा इसी कोटि के अन्य कारणों से भी गृहस्थ के घर में प्रवेश करना होता है --यह 'वा' शब्द से सूचित किया गया है। ४५. उचित स्थान में खड़ा रहे ( जयं चिटु ) : इगका शाब्दिक अर्थ है -- यतनापूर्वक खड़ा रहे। इसका भावार्थ है --गृहस्थ के घर में गुनि झरोखा, राधि आदि स्थानों को देखता हुआ खड़ा न रहे अर्थात् उचित स्थान में खड़ा रहे । ४६. परिमित बोले (मियं भासे ग): गृहस्थ के पूछने पर मुनि यतना से एक बार या दो बार बोले अथवा प्रयोजन वश बोले । जो बिना प्रयोजन बोलता है वह भले थोड़ा ही बोले, मितभाषी नहीं होता और प्रयोजनवश अधिक बोलने वाला भी मितभापी है। आहार एषणीय न हो तो उसका प्रतिषेध करे यह भी 'मियं भासे' का एक अर्थ है । ४७. रूप में मन न करे ( ण य रूवेसु मणं करे घ): भिक्षाकाल में दान देने वाली या दूसरी स्त्रियों का रूप देखकर यह चिन्तन न करे- इसका आश्चर्यकारी रूप है, इसके साथ मेरा संयोग हो आदि । रूप की तरह शब्द, रस, गन्ध और सशं में भी मन न लगाए --आसक्त न बने । १---(क) अ० चू० १० १८६ : जल्लिया मलो, तस्त य जाव सरीरभेदाए नस्थि उत्खट्टणं जदा पुण पस्सेदेण गलति गिलाणाति कज्जे वा अवकरिसणं तदा। (ख) जि० चू०१० २७६ : जल्लियं नाम मलो, णो कप्पइ उवउ, जो पुण गिम्हकाले पस्सेयो भवति, अण्णमि गिलाणादि कारणे मलत्थे केरिसो कीरइ तस्स तं गहणं कयंति । २.--(क) जि० चू० पृ० २७६-२८० : अन्नेसु वा कारणेसु पविसिऊण । (ख) हा० टी० ५० २३१ : ग्लानादेरौषधार्थ वा । ३--(क) जि० चू० पु० २८० : तत्थ जयं चिट्ठ' नाम तमि बिहदुवारे चिटु', णो आलोयत्थिगलाईणि वज्जयति, अवखेवं सोहयतो चिट्ठज्जा। (ख) हा० टी०प० २३१ : यतं--गवाक्षकादोत्यनवलोकयन् तिष्ठेदुचितदेशे। ४.--जि० चू०प० २८० : मितं भासेज्जा णाम पुच्छिओ संजओ जयणाए एक्क वा दो वा वारे भासेज्जा। ५---जि० चू० पृ० २८० : कारणणिमित्तं वा भातइ । ६-जि० चू० पृ० २८० : अणेसणं वा पडिसेहवइ । ७–जि० चू० पृ० २८० : रूवं दायगस्स अण्णेसि वा दट्ठ णं तेसु मणं ण कुज्जा, जहा अहो रूवं, जति नाम एतेण सह संजोगो होज्जत्ति एवमादि । . Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३६२ अध्ययन ८ : श्लोक २०-२१ टि०४८-५१ श्लोक २०: ४८. श्लोक २० चूर्णिकार ने इस श्लोक के प्रतिपाद्य की पुष्टि के लिए एक उदाहरण दिया है : एक व्यक्ति पर-स्त्री के साथ मैथुन सेवन कर रहा था । किसी साधु ने उसे देख लिया । वह लज्जित हुआ और सोचने लगा कि साधु किसी दूसरे को कह देगा, इसलिए मैं उसे मार डालूं । उसने आगे जाकर मार्ग रोका और मौका देखकर साधु से पूछा---'आज तूने मार्ग में क्या देखा?' साधु ने कहा : बहुं सुणेइ कणेहिं, बहुं अच्छोहि पिच्छइ । न य दिळं सुयं सव्वं, भिक्खु अक्खाउमरिहइ ॥ यह सुनकर उसने मारने का विचार छोड़ दिया। इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि सत्य भी विवेकपूर्वक बोलना चाहिए। साधु को झूठ नहीं बोलना चाहिए, किन्तु जहाँ सत्य बोलने से हिंसा का प्रसंग हो वहाँ सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। वैसी स्थिति में मौन रखना ही अहिंसक का धर्म है। इसका सम्बन्ध आचाराङ्ग से भी है । वहाँ बताया गया है-पथिक ने साधु से पूछा : 'क्या तुमने मार्ग में मनुष्य, वृषभ, महिष, पशु, पक्षी, साँप, सिंह या जलचर को देखा ? यदि देखा हो तो बताओ।' वैसी स्थिति में साधु जानता हुआ भी 'जानता हूँ'-ऐसा न कहे । किन्तु मौन रहे । श्लोक २१: ४६. सुनी हुई ( सुयं ): किसी के बारे में दूसरों से सुनकर कहना कि 'तू चोर है'-यह सुना हुआ औपघातिक वचन है। ५०. देखी हई ( दिळं ग ): __ मैंने इसे लोगों का धन चुराते देखा है—यह देखा हुआ औपघातिक वचन है । ५१. गृहस्थोचित कर्म का ( गिहिजोगं घ) : गहियोग' का अर्थ है-गृहस्थ का संसर्ग या गृहस्थ का कर्म---व्यापार । 'इस लड़की का तूने वैवाहिक सम्बन्ध नहीं किया ?', 'इस लड़के को तूने काम में नहीं लगाया'-ऐसा प्रयत्न गृहियोग कहलाता है। १-(क) अ० चू० पृ० १६० । (ख) जि० चू० पृ० २८१ । २---आ० चू० ३१५५ : तुसिणीए उवेहिज्जा, जाणं वा नो जाणंति वइज्जा। ३-(क) जि० चू० पृ० २८१ : तत्थ सुतं जहा तुमं मए सुओ अट्ठाबद्धो चोरो एवमादि । (ख) हा० टी०प० २३१ : यथा----चौरस्त्वमित्यादि। ४.---- (क) जि० चू०प० २८१ : दिट्ठो-दिहोसि मए परदव्वं हरमाणो एवमादि । (ख) हा० टी०५० २३१ : यदि वा दृष्टं स्वयमेव । ५-(क) अ० चू०पृ० १६० : गिहिजोगं गिहिसंसरिंग गिहवाबारं वा गिहिजोग । (ख) जि. चू० पृ० २८१ : गिहीहि समं गोगं गिहिजोगं, संसग्गित्ति वुत्तं भवति, अहवा गिहिकम्मं जोगो भण्णइ, तस्स गिहि कम्माणं कयाणं अकयाणं च तत्थ उवेक्खणं सयं वाऽकरणं, जहा एस दारिया किं न दिज्जइ ? दारगो वा कि न निवे. सिज्जइ ?, एवमादि । (ग) हा० टी०प० २३१ : 'गहियोग' गृहिसंबन्धं तद्बालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापार वा। Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) ३६३ अध्ययन ८ : श्लोक २२-२३ टि० ५२-५६ श्लोक २२: ५२. सरस ( निट्ठाणं क ): ... जो भोजन सब गुणों से युक्त और वेषवारों से संस्कृत हो उसे निष्ठान कहा जाता है', जैसे -चटनी, मसाला, छौंक (तेमन) आदि । दाल, शाक आदि भोजन के उपकरण भी निष्ठान कहलाते हैं। निष्ठान का भावार्थ सरस है। ५३. नीरस ( रसनिज्जूढं क ) : रस-नियंढ । जिनका रस चला गया हो उसे 'नियूंढ रस' कहा जाता है। 'निए ढ रस' अर्थात् निकृष्ट या रस-रहित भोजन । श्लोक २३: ५४. भोजन में गद्ध होकर विशिष्ट घरों में न जाए ( न य भोयणम्मि गिद्धो कचरे ख ) : · भोजन से चारों प्रकार के आहार का ग्रहण होता है । भोजन की आसक्ति से मुनि नीच कुलों को छोड़कर उच्च कुलों में प्रवेश न करे और विशिष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए दाता की श्लाघा करता हुआ भिक्षाटन न करे। ५५. वाचालता से रहित होकर ( अयंपिरो ख): . चणि काल में इसका अर्थ अजल्पनशील रहा है । टीकाकार ने--'धर्म-लाभ' मात्र बोलने वाला-इतना और विस्तृत किया है। भिक्षा लेने से पूर्व 'धर्म-लाभ' कहने की परम्परा आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक सम्प्रदाय में प्रचलित है। ५६. उञ्छ ( उछ ख ) : 'उञ्छ' शब्द मूलतः कृषि से सम्बन्धित है । सिट्टों या भुट्टों को काटा जाता है उसे 'शिल' कहते हैं और नीचे गिरे हुए धान्यकणों को एकत्र करने को 'उञ्छ' कहते हैं। यह विस्तार पाते-पाते भिक्षा से जुड़ गया और खाने के बाद रहा हुआ शेष भोजन लेना, घर-घर से थोड़ा-थोड़ा भोजन लेना-इनका वाचक बन गया और सामान्यतः भिक्षा का पर्यायवाची जैसा बन गया । महाभारत में भिक्षा के लिए 'उञ्छ' और 'शिल' दोनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं । दशवकालिक में 'उञ्छ' शब्द का प्रयोग तीन स्थलों में 'अन्नाय' शब्द के साथ और दो स्थलों में स्वतन्त्र रूप से हुआ है। १-(क) जि. चू० पृ० २८१ : णिट्ठाणं णाम जं सव्वगुणोववेयं सव्वसंभारसंभियं तं णिट्ठाणं भण्णइ। (ख) हा. टी०प० २३१ : 'निष्ठान' सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नम् । २—(क) जि० चू० पृ० २८१ : रसणिज्जूढं णाम जं कदसणं वबगयरसं तं रसणिज्जूढं भण्णइ । (ख) हा० टी० प० २३१ : रसं नियूंढमेतद्विपरीतं कदशनम् । ३-जि० चू० पृ० २८१ : भोयणगहणेण चउब्विहस्सवि आहारस्स गहणं कयं, तस्स भोयणस्स गेहीए ण णीयकुलाणि अतिक्कममाणो उच्चकुलाणि पविसेज्जा। ४-हा० टी० प० २३१ : न च भोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तुलाभायेश्वरादिकुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत् । ५- (क) अ० चू० पृ० १६० : अजंपणसीलो अयंपुरो। (ख) जि० चू० पृ० २८१ : अयंपिरो नाम अजंपणसोलो। -६-हा० टी० प० २३१ : अजल्पनशीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत् । ७-महा० शान्ति० ३६३.४ : असङ्गतिरनाकाङ्क्षी नित्यभुञ्छशिलाशनः । सर्वभूतहिते युक्त एष विप्रो भुजङ्गम! ॥ ८-वश० ६.३.४; १०.१६, चू० २.५ । &-वश०८.२३, १०.१७ ॥ Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलिये (दशवैकालिक) ५७ सन्निधि ( सन्निहि ) इसका शाब्दिक अर्थ है पास में रखना, जमा करना, संग्रह करना। इसका भावार्थ है रातवासी रखना' । मुनि के लिए आगामी काल की चिन्ता से प्रेरित हो संग्रह करने का निषेध किया गया है। ग ) ३६४ श्लोक २४ : ५८. मुधाजीवी ( मुहाजीवी यहाँ अगस्त्य सिंह ने 'मुहाजीवी' का अर्थ मूल्य के बिना जीने वाला अर्थात् अपने जीवन के लिए धन आदि का प्रयोग न करने वाला किया है। अनुसन्धान के लिए देखिए ५.१ की टिप्पण संख्या १०० । ग ५१. असंबद्ध ( अलिप्त ) ( असंबद्ध " ) : अध्ययन ८ : श्लोक २४-२५ टि० ५७-६१ इसका एक अर्थ है - सरस आहार में आसक्त न हो-बद्ध न हो। दूसरा अर्थ है - जिस प्रकार कमल पत्र पानी में लिप्त नहीं होता उसी प्रकार गृहस्थों से निि ६०. जनपद के आश्रित ( जगनिस्सिए घ ) : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार मुनि एक कुल या ग्राम के निश्रित न रहे, किन्तु जनपद के निश्रित रहे। जिनदास णि के अनुसार 'जगन्निश्रित' की व्याख्या इस प्रकार है-मुनि गृहस्थ के निश्रित रहे अर्थात् गृहस्थों के घर से जो भिक्षा प्राप्त हो वह ले, किन्तु मंत्र-तन्त्र से जीविका न करे । टीका के अनुसार इसका अर्थ है - त्रस और स्थावर जीवों के संरक्षण में संलग्न" । स्थानाङ्ग में श्रमण के लिए पाँच निश्रा स्थान बतलाए गए हैं छहकाय, गण – गणराज्य, राजा, गृहपति और शरीर भिक्षु इनकी निश्रा में विहार करता है । चूर्णियों के अर्थ टीका की अपेक्षा अधिक मूल है। श्लोक २५ : ६१. रुक्षवृत्ति ( लहवित्ती) : , अगस्त्य पूर्ण के अनुसार 'इति' के दो अर्थ है-संयम के अप्रवृत्ति करने वाला अथवा भने निव्यय आदि क्ष द्रव्यों से जीविका करने वाला" । जिनदास चूर्णि और टीका को दूसरा अर्थ अभिमत है" । ८ १- जि० ० ० २०२ सन्निपतितादीनं दव्वाणं परियासति । २- अ० चू० पृ० १६० : सण्णिधाणं सणिधी उत्तरकालं भुंजीहामित्ति सण्णिचयकरणमणेगदेवसियं तं ण कुब्वेज्ज । ३-अ० चू० पृ० १९० : मुधा अमुल्लेण तथा जीवति मुधाजीवी जहा पढमपिडेसणाए । ४ अ० चू० पृ १६० : असंबद्धो रसादिपडिबंधेहि । ५- (क) जि० चू० पृ० २८२ : असंबद्धे णाम जहा पुक्खरपत्तं तोएणं न संबज्झइ एवं गिहोहिं समं असंबद्धण भवियव्वंति । (ख) हा० टी० प० २३१ : असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवद्गृहस्थः । ६- - अ० चू० पृ० १६० : जगणिस्सितो इति ण एक्कं कुलं गामं वा णिस्सितो जणपदमेव । ७-००० २०२ 'जयनिनिस्सिए' नाम तत्व पत्ताणि भिसामोतिकाऊण गित्थान निस्साए विहरेजा, न हि समं टाई करेगा। हा० टी० प० २३१ : 'जगन्निश्रितः' चराचरसंरक्षणप्रतिबद्धः । & -ठा० ५।१६२ : धम्मं चरमाणस्स पंच णिस्साथाणा पं० तं - छक्काया गणे राया गाहावती सरीरं । १० प्र० पू० पू० १९१ 1 संजय तस्स अवरोहेण वित्ति जस्स सो हवितो अहवा सुदन्वाणि चणनिष्पावोवादीणि वित्ती जस्स । ११ – (क) जि० चू० पृ० २८२ : णिष्फावको वातिलहदव्वे वित्ती जस्स सो लूदवित्ती भण्णइ, णिच्चं साहुणा लूहवित्तिणा भवियन्वं । (ख) हा० टी० प० २३१ : रूक्ष :- वल्लचणकादिभिर्वृत्तिरस्येति रूक्षदृत्तिः । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारपणही (आचार - प्रणिधि) अनुसन्धान के लिए देखिए ५.२.३४ की टिप्पण संख्या ५३ । ६२. अल्प इच्छा वाला ( अप्पिच्छे ख ) : जिसके आहार की जितनी मात्रा हो उससे कम खानेवाला 'अल्पेच्छ' अल्प इच्छा वाला कहलाता है' । ख ६३. अल्पाहार से तृप्त होने वाला ( सुहरे रूक्षवृत्ति, सुसंतुष्ट, अल्पेच्छ और सुभर इनमें कारण भाव - फल- भाव है। रूक्षवृत्ति का फल सुसंतोष, सुसंतोष का अल्पेच्छता और अल्पेच्छता का फल सुभरता है । घ ग ६५. फोध ( आसुरतं " ) ३६५ ): ) अध्ययन ८ : श्लोक २६ टि० ६२-६६ ६४. जिन शासन को ( जिणसासणं जिनशासन को सुनकर अकोष की शिक्षा के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयोग है विपाकों का वर्णन किया है। जीव चार प्रकार से नारकीय कर्मों का बन्धन करता है। उनमें पहला है उपस्थित होने पर क्रोध न किया जाए इसके लिए जिन शासन में अनेक आलम्बन बतलाए गए हैं, जैसे भिक्षु को गाली दे, मारे-पीटे तब वह सोचे कि यह मेरा अपराध नहीं कर रहा है। मुझे कष्ट दे रहे हैं मेरे किए हुए कर्म । इस प्रकार सोचकर जो गाली और मार-पीट को सहन करता है वह अपनी आत्मा का शोधन करता है । देखिए उत्तराध्ययन ( २.२४-२७) । अगस्त्यसिंह ने अक्रोध की आलम्बनभूत एक गाथा उद्धृत की है : अक्कोसहगणमारण-धम्मरसाण बालसुलभाण । लाभं मन्नति धीरो, जहुत्तराणं अभावंमि ॥ इसका अर्थ है देना, पीटना और मारना वे कार्यों के लिए मुलभ है कोई आदमी गाली दे तब भिक्षु यह सोचे कि खैर, गाली ही दी, पीटा तो नहीं। पीटे तो सोचे कि चलो पीटा, पर मारा तो नहीं। मारे तब सोचे कि ख़ैर, मेरा धर्म तो नहीं लूटा । इस प्रकार क्रोध पर विजय पाए । 'असुर' शब्द का सम्बन्ध असुर जाति से है । आसुर अर्थात् असुर-संबन्धी । असुर क्रोध प्रधान माने जाते हैं, इसलिए 'आसुर' शब्द कोष का पर्याय बन गया। आसुरत्व अर्थात् क्रोध भाव* । श्लोक २६ जिन-वचन में क्रोध के बहुत ही कटु क्रोध - शीलता । क्रोध का कारण कोई अज्ञानी - मिथ्यादृष्टि पुरुष ६६. श्लोक २६ श्लोक के प्रथम दो चरणों में श्रोत्र इन्द्रिय के श्रोर अन्तिम दो चरणों में स्पर्शन-इन्द्रिय के निग्रह का उपदेश है। इससे मध्यवर्ती शेष इन्द्रिय चक्षु, घ्राण और रसन के निग्रह का उपदेश स्वयं जान लेना चाहिए। जिस प्रकार मुनि मनोज्ञ शब्दों में राग न करे उसी १ (क) जि० ० ० २०२ अपिण्डो गाम जो जस्स आहारो ताओ आहारयमाणाओ ऊगमाहारेमाणो अग्यियो भवति । (ख) हा० टी० प० २३१ : अल्पेच्छो न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी । २- हा० टी० प० २३१ : सुभरः स्यात् अल्पेच्छत्वादेव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यात् । ३-४१०४.५६७ हि ठानेहि जीवा श्रमुरताते कम्मं पति, कोमसीलाते, तं पाहडसीलयाने संतोकम्येणं निमित्ता जीवयाते । ४ – (क) अ० चू० पृ० १६१ : असुराणं एस विसेसेणं ति आसुरो कोहो, तब्भावो आसुरतं । (ख) जि० चू० पृ० २८२ ॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) अध्ययन ८ : श्लोक २७ टि० ६७-७१ प्रकार अमनोज्ञ शब्दों में द्वेष न करे । इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के प्रिय और अप्रिय विषयों में राग और द्वेष न करे । जैसे वाहरी वस्तुओं से राग और द्वेष का निग्रह कर्म-क्षय के लिए किया जाता है, वैसे ही कर्म-क्षय के लिए आन्तरिक दुःख भी सहने चाहिए। ६७. कानों के लिए सुखकर ( कण्णसोहि क ) : वेणु, वीणा आदि के जो शब्द कानों के सुख के हेतु होते हैं, वे शब्द 'कर्णसौख्य' कहे जाते हैं । ६८. दारुण और कर्कश ( दारुणं कक्कसं ग ) : जिनदास पूणि के अनुसार 'दारुण' का अर्थ है विदारण करने वाला और कर्कश का अर्थ है शरीर को कृश करने वाले शीत, उष्ण आदि के स्पर्श । इन दोनों को एकार्थक भी माना है । तीव्रता बताने के लिए अनेक एकार्थक शब्दों का प्रयोग करना पुनरुक्त नहीं कहलाता। टीका के अनुसार 'दारुण' का अर्थ अनिष्ट और 'कर्कश' का अर्थ कठिन है । अगस्त्य 'चूणि के अनुसार शीत, उष्ण आदि दारुण स्पर्श हैं और कंकड़ आदि के स्पर्श कर्कश हैं । पहले का सम्बन्ध ऋतु-विशेष और दूसरे का सम्बन्ध मार्ग-गमन से है। ६६. स्पर्श ( फासं ग ): स्पर्श का अर्थ स्पर्शन-इन्द्रिय का विषय (कठोर आदि) है । इसका दूसरा अर्थ दु:ख या कष्ट भी है। यहाँ दोनों अर्थ किए जा सकते हैं। श्लोक २७ : ७०. दुःशय्या (विषम भूमि पर सोना) ( दुस्सेज्जं क ) : जिन पर सोने से कष्ट होता है उन्हें दुःशय्या कहा जाता है । विषमभूमि, फलक आदि दुःशय्या हैं । ७१. अरति ( अरई ख ): अरति भूख, प्यास आदि से उत्पन्न होती है । टीकाकार ने मोह जनित उद्वेग को 'अरति' माना है । १-जि० चू० पृ० २८३ : तत्थ कण्णसोक्खेहि सद्देहिंति एतेण आदिल्लस्स सोइंदियस्स गहणं कयं, दारुणं कक्कसं फासति-एतेण अंतिल्लस्स फासिदियस्स गहणं कयं, आदिल्ले अंतिल्ले य गहिए सेसावि तस्स मज्झपडिया चक्खूघाणजीहा गहिया, कन्नेहि विरूविहिं रागं ण गच्छेज्जा, एवं गरहा, सेसेसुवि रागं न गच्छेज्जत्ति, जहा एतेसु सद्दाइसु मणुण्णेसु रागं न गच्छेज्जा तहा अमणुण्णेसुवि दोसं न गच्छेज्जा, जहा बाहिरवत्थूसु रागदोसनिग्गहो कम्मखवणत्थं कीरइ तहा कम्मखवणत्यमेव अन्तवट्टियमवि दुक्खं सहियव्वं । २-जि० चू० पृ० २८३ : कन्नाणं सुहा कन्नसोक्खा तेसु कन्नसोक्खेस वंसीवीणाइसद्देसु । (ख) हा० टी० प० २३२ : कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा - वेणुवीणादिसंबन्धिनः । ३-जि. ०१० २८३ : दारुणं णाम दारणसोलं दारुणं, कक्कसं नास जो सीउण्हकोसादिफासो सो सरीरं किसं कुव्व ईति कक्कसं, तं कक्कसं फासं उदिणं काएण अहियासएत्ति, अहवा दारुणसद्दो कक्कससद्दोऽविय एगट्ठा, अच्चस्थनिमित्त पउजमाणा णो पुणरुत्त भवइ। ४-- हा० टी० प० २३२ : 'दारुणम्' अनिष्टं 'कर्कशं' कठिनम् । ५-अ० चू० पृ० १६१: दारुणः कष्टः तीवः, सीउण्हा तितंकक्कसो, वयस्थो वरात्थाए जो फासो सोवि वयस्थो, तं पण रच्छादि संकडेसु विपणिमग्गेस वा फरिसितो। ६-सू० १.५.२.२२ । ७-(क) अ० चू० पृ० १६१ : विसमादिभूमिसुदुःखसयणं दुस्सेज्जा । (ख) जि० चू० पृ० २८३ : दुसिज्जा नाम विसमभूमिफलगमादी । (ग) हा० टी० प० २३२ : 'दुःशय्यां' विषमभूम्यादिरूपाम् । -जि० चू० पृ० २८३ : अरती एतेहि खुप्पिवासादीहिं भवइ । E-हा० टी० प० २३२ : 'अति' मोहनीयोद्भवाम् । Jain Education Intemational Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) ३६७ अध्ययन ८ : श्लोक २८ टि०७२-७८ ७२. भय को ( भयं ख): सिंह, साँप आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाला उद्वेग 'भय' कहलाता है'। ७३. अव्यथित ( अव्वहिओ ग ) : __अव्यथित का अर्थ-अहीन, अक्लीव ओर असीदमान-विषाद न करता हुआ है। ७४. देह में उत्पन्न कष्ट को ( देहे दुक्खं घ ) : . कष्ट दो प्रकार के होते हैं-उदीर्ण-स्वतः उत्पन्न और उदीरित - जान-बूझ कर उत्पादित । यहाँ 'देह' शब्द में सप्तमी विभक्ति है। इसके आधार पर अगस्त्यसिंह ने 'देहे दुक्ख' का अर्थ देह में उत्पन्न दु:ख किया है । जिनदास इस विषय में मौन हैं । हरिभद्र इनका सम्बन्ध इस प्रकार बतलाते हैं - देह होने पर दुःख होता है। देह असार है--यह सोचकर दुःख को सहन करना महा फल का हेतु होता है। मुनि की अनेक भूमिकाएं हैं । जिन-कल्पी या विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनि कष्टों की उदीरणा करते हैं। स्थविर-कल्पी का मार्ग इनसे भिन्न है । वे उत्पन्न कष्टों को सहन करते हैं । अगस्त्यसिंह की व्याख्या इस भूमिका-भेद को 'उत्पन्न' शब्द के द्वारा स्पष्ट करती है। ७५. महाफल ( महाफलं घ): ___ आत्मवादी का चरम साध्य मोक्ष है, इसलिए वह उसीको सबसे महान् फल मानता है। उत्पन्न दुःख को सहन करने का अंतिम फल मोक्ष होता है, इसलिए उसे महाफल कहा गया है । श्लोक २८: ७६. सूर्यास्त से लेकर ( अत्थंगयम्मिक ): यहाँ 'अस्त' के दो अर्थ हो सकते हैं -सूर्य का डूबना-अदृश्य होना अथवा वह पर्वत जिसके पीछे सूर्य छिप जाता है। ७७. पूर्व में ( पुरत्या ख : अगस्त्य चूणि के अनुसार 'पुरस्तात्' का अर्थ पूर्व दिशा और टीका के अनुसार प्रात:काल है। ७८. ( आहारमइयं ग ): यहाँ 'मइय' मयट् प्रत्यय के स्थान में है। १-(क) अ० चू० पृ० १६१: भयं उम्वेगो सीह-सम्पातीतो। (ख) जि० चू० प० २८३ : 'भयं' सप्पसीहवाघ्रादि वा भवति । (ग) हा० टी० ५०२३२ : 'भयं' व्याघ्रादिसमुत्थम् । २---(क) जि० चू० पू०२८३ : अव्वहिओ नाम अहीणो अविक्कीवो असीयमाणोत्ति वृत्त भवति।। (ख) हा० टी०प०२३२ : 'अव्यथितः' अदीनमनाः सन् । ३- अ० चू० पृ० १९२ : देहो सरीरं तं मि उप्पण्णं दुक्खं । ४–जि० चू० पृ० २८३ : देहे दुक्खं महाफलं । ५- हा० टी० प० २३२ : देहे दुःख महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतद खं, शरीरं चासारं, सम्यगतिसामान च मोक्षफलमेवेदम् । ६-(क) अ० चू० पृ० १६२ : मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं । (ख) जि० चू० पृ० २८३ : महाफलं-महा मोक्खो भण्णइ, तं मोक्खपज्जवसाणं फल मिति। ७-(क) अ० चू०प० १६२ : आइच्चादितिरोभावकरण पच्चयो अत्थो, खेत्तविप्पकरिसभावेण वा अदरिसणमत्थो त गते । (ख) जि० चू० पृ० २८३ : अत्थोणाम पवओ, तमिगतो आदिच्चो अस्थगओ, अहवा अचक्खुविसयपत्थो, अत्थंगते आदिच्चे (ग) हा. टी० ५०२३५ : 'अस्त गत आदित्ये' अस्तपर्वत प्राप्ते अदर्शनीभूते वा । ८-(क) अ० चू० पृ० १६२: पुरत्था वा पुयाए दिसाए। (ख) हा० टी०प० २३२ : 'पुरस्ताच्चानुद् गते' प्रत्यूषस्यनुदिते । ६-पाइयसद्दमहण्णव पृ०८१८ । Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ३६८ ७६. मन से भी इच्छा न करे ( मणसा वि न पत्थए घ ) : मन से भी इच्छा न करे, तब वचन और शरीर के प्रयोग की कल्पना ही कैसे की जा सकती है - यह स्वयंगम्य है' । श्लोक २६ : ८० प्रलाप न करे ( अतितिणे क ) : तेन्दु आदि की लकड़ी को अग्नि में डालने पर जो तिण-तिण शब्द होता है उसे तितिण' कहते हैं । यह ध्वनि का अनुकरण है । जो व्यक्ति मनचाहा कार्य न होने पर बकवास करता है उसे भी 'तितिण' कहा जाता है। आहार न मिलने पर या मनचाहा न मिलने पर जो प्रलाप नहीं करता वह 'अतिति' होता है । ८१. अल्पभाषी ( अप्पभासी ख ) : अल्पभाषी का अर्थ है कार्य के लिए जितना बोलना आवश्यक हो उतना बोलने वाला । ख ८२. मितभोजी (मियासणे ) : जिनदास णि के अनुसार इसका समास दो तरह से होता है । १. मित + अशनमिताशन २. मिसनमितासन अध्ययन : श्लोक २६ मिताशन का अर्थ मितभोजी और मितासन का अर्थ थोड़े समय तक बैठने वाला है। इसका आशय है कि श्रमण भिक्षा के लिए जाए तब किसी कारण से बैठना पड़े तो अधिक समय तक न बैठे । ८३ उदर का दमन करने वाला ( उयरे दंते ग ) : जो जिस तिस प्रकार के प्राप्त भोजन से संतुष्ट हो जाता है, वह उदर का दमन करने वाला कहलाता है । घ ८४. थोड़ा आहार पाकर दाता की निन्दा न करे ( थोवं लधुन लिए थोड़ा आहार पाकर श्रमण देय अन्न, पानी आदि और दायक की खिसना न करे, निन्दा न करे । १ – (क) जि० चू० पृ० २८४ : किमंग पुण वायाए कम्मुणा इति । (ख) हा० डी० प० २३२ मनसापि न प्रार्थयेत् किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा देति । ३– (क) अ० चू० पृ० १६२ : अप्पवादी जो कारणमत्तं जायणाति भासति (ख) जि० टि०७९-८४ २ (क) अ० चू० पृ० १९२ : तंबुरु विकट्ठडहणमिव तिणित्तिणणं तितिणं, तहा अरसादि न होलिउमिच्छतिति अतितिणे । (ख) जि० चू० पृ० २०४ जहा बिरुवामं अर्गाणमि पक्षिस तडतडली ग साहना तहावित (ग) हा० टी० प० २३३ : अतिन्तिणो नामालाभेऽपि नेमद्यत्किंचनभाषी । [० चू० पृ० २८४ : अप्पवादी नाम कज्जमेत्तभासी । (ग) हा० टी० प० २३३ : 'अल्पभाषी' कारणे परिमितवक्ता । ४ – (क) जि० चू० पू० २८४ : मितासने नाम मियं असतीति मियासणे, परिमितमाहारतित्ति वृत्तं भवति, अहवा मियासणे frage fromओ कारणे उवट्ठात् मितं इच्छइ । (ख) हा० टी० प० २३३ : 'मिताशनो' मितभोक्ता । ५- (क) जि० चू० पृ० २८४ : 'उदरं पोट्ट' - तमि दंतेण होयव्वं, जेण तेणेव संतुसियव्वंति । (ख) हा० टी० प० २३३ : 'उदरे दान्तो येन वा तेन वा वृत्तिशीलः । (क) जि० चू० पृ० २८४ : तं वा अण्णं पाणं दायगं वा नो खिसेज्जा । (ख) हा० टी० प० २३३ : 'स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेत्' देयं दातारं वा न होलयेदिति । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३९६ अध्ययन ८ : श्लोक ३०-३१ टि० ८५-८६ श्लोक ३० ८५. श्लोक ३० ___ श्रुत मद की तरह मैं कुल-सम्पन्न हूँ, और बल-सम्पन्न हूँ और रूप-सम्पन्न हूँ-इस प्रकार मुनि कुल, बल और रूप का भी मद न करे। ८६. दूसरे का ( बाहिरं क ) : ___ बाह्य अर्थात् अपने से भिन्न व्यक्ति'। ८७. श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि का ( सुयलाभे ग .'बुद्धिए ) : श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि-ये आत्मोत्कर्ष के हेतु हैं । मैं बहुश्रुत हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है ? इस प्रकार श्रमण श्रुत का गर्व न करे । लाभ का अर्थ है-लब्धि, प्राप्ति । लब्धि में मेरे समान दूसरा कौन है ? इस प्रकार लाभ का गर्व न करे । मैं उत्तम जातीय हूँ, बारह प्रकार के तप करने में और बुद्धि में मेरे समान दूसरा कौन है ? इस प्रकार जाति, तप और बुद्धि का मद न करे । लाभ का वैकल्पिक पाठ लज्जा है। लज्जा अर्थात् संयम में मेरे समान दूसरा कौन है – इस प्रकार लज्जा का मद न करे। श्लोक ३१ ५८. श्लोक ३१-३३ : जान या अजान में लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधुओं के सामने निवेदन करना आलोचना है। अनाचार का सेवन कर गुरु के समीप उसकी आलोचना करे तब आलोचक को बालक की तरह सरल होकर सारी स्थिति स्पष्ट कर देनी चाहिए। जो ऋजु नहीं होता वह अपने अपराध की आलोचना नहीं कर सकता । जो मायावी होता है वह (आकंपयित्ता) गुरु को प्रसन्न कर आलोचना करता है। इसके पीछे भावना यह होती है कि गुरु प्रसन्न होंगे तो मुझे प्रायश्चित्त थोड़ा देंगे। जो मायावी होता है वह (अणुमाणइत्ता) छोटा अपराध बताने पर गुरु थोड़ा दण्ड देंगे, यह सोच अपने अपराध को बहुत छोटा बताता है । इस प्रकार वह भगवती (२५.७) और स्थानाङ्ग (१०.७०) में निरूपित आलोचना के दश दोषों का सेवन करता है । इसीलिए कहा है कि आलोचना करने वाले को विकट-भाव (बालक की तरह सरल और स्पष्ट भाव वाला) होना चाहिए। जिसका हृदय पवित्र नहीं होता, वह आलोचना नहीं कर सकता। आलोचना नहीं करने वाले विराधक होते हैं, यह सोचकर आलोचना की जाती है। १-हा० टी०प० २३३ : उपलक्षणं चतत्कुलबलरूपाणाम्, कुलसंपन्नोऽहं बलसंपन्नोऽहं रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न माद्य तेति । २-(क) अ० चू० पृ० १९२ : अप्पाणवतिरित्तो बाहिरो।। (ख) जि० चू० पृ० २८४ : बाहिरो नाम अत्ताणं मोत्तू ण जो सो लोगो सो बाहिरो भण्णइ । (ग) हा० टी० प० २३३ : 'बाह्यम्' आत्मनोऽन्यम् । ३ - (क) जि० चू० पृ० २८४ : सुएण उक्करिसं गच्छेज्जा, जहा बहुस्सुतोऽहं को मए समाणोत्ति, (पाटवेण) लाभेणऽवि को मए अण्णो ?, लद्धीएवि जहा को मए समाणोत्ति एवमादिएअहियत्ति लज्जा (द्धी) संजमो भण्णइ, तेणवि संजमेण उक्करिसं गच्छेज्जा, को मए संजमेण सरिसोत्ति ?, जातीएवि जहा उत्तमजातीओऽहं तवेण को अण्णो बारसविधे तवे समाणो मएत्ति?, बुद्धिएवि जहा को मए समाणोत्ति एवमादि, एतेहि सुयादीहि णो उक्करिसं गच्छेज्जा । (ख) हा० टी० ५० २३३ : श्रुतलाभाभ्यां न माद्यत पण्डितो लब्धिमानहमित्येवं, तथा जात्या--तापस्त्येन बुध्या वा, न माये तेति वर्तते, जातिसंपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानहमित्येवम् । ४-भग० २५.७.६८; ठा० १०.७१ । ५-ठा०८.१८ । ६-००० १९३ : सदा विगडभावो सब्वावत्थं जधा बालो जंपतो तहेव विगडभावो । ७-ठा० ८.१८ । Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही ( आचार - प्रणिधि ) अध्ययन आलोचना करने पर अपराधी भी पवित्र हो जाता है अथवा पवित्र वही है जो स्पष्ट (दोष से निर्लिप्त ) होता है'। आलोचना करने के पश्चात् आलोचक को असंसक्त और जितेन्द्रिय (फिर दोषपूर्ण कार्य न करने वाला) होना चाहिए। आलोचना करने योग्य साधु के दश गुण बतलाए हैं। उनमें आठवां गुण दान्त है । दान्त अर्थात् जितेन्द्रिय । जो जितेन्द्रिय और होता है वही आलोचना का अधिकारी है। आलोचना के पश्चात् शिष्य का यह कर्तव्य होता है कि गुरु जो प्रायश्चित्त दे, उसे स्वीकार करे और तदनुकूल प्रवृत्ति करे, उसका निर्वाह करें। अनाचार सेवन, उसकी आलोचना-विधि और प्रायश्चित्त का निर्वाह – ये तीनों तथ्य क्रमश: ३१,३२,३३ इन तीन श्लोकों में प्रतिपादित हुए हैं। ४०० ८६. (से) : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार 'से' का अर्थ वाक्य का उपन्यास हैं । जिनदास घुरिंग और टीका के अनुसार 'से' शब्द साधु का निर्देश करने वाला है । क १२. अनाचार ( अणावारं * ) : ६०. जान या अजान में ( जाणमजाणं वा ): अधर्म का आचरण केवल अजान में ही नहीं होता, किन्तु यदा-कदा ज्ञानपूर्वक भी होता है । इसका कारण मोह है। मोह का उदय होने पर राग और द्वेष से ग्रस्त मुनि जानता हुआ भी मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगा लेता है और कभी कल्प्य और अकल्प्य को न जानकर अकल्प्य का आचरण कर लेता है । १. दूसरी बार ( बीयं घ ) : प्राकृत में कहीं-कहीं एक पद में भी सन्धि हो जाती है। इसके अनुसार 'बिइओ' का 'बीओ' बना है"। श्लोक ३२ : अनाचार अर्थात् अकरणीय वस्तु उन्मानं" सायप्रस"। १ - जि० , 1 ० चू० पृ० २८५ : अहवा सो चेव सुई जो सदा वियडभावो । ८ : इलोक ३२ टि०८-२ २- ० ० ० १६३ असतो दोहित्यिकज्जेहिं वा जितसोतादिदिओ ण पुण तहाकारी । 1 ६ (क) जि० ० ० २०४ सेति साधुनिसे : । ३- भग० २५.७.६६; ठा० ८.१६ । ४- अ० चू० पृ० १६३ : एवं संदरिसित सब्बसम्भावो अणायारविसोधणत्थं जं आणवेंति गुरवो तं । ५- अ० चू० पृ० १६३ से इति वयणोवन्नासो । ८ है० ८.१.५ । ६- अ० चू० पृ० १९३ : अणायारं अकरणीयं वत्थं । १०जि० ० ० २८५ ११ हा० डी० १० २३३ (ख) हा० टी० प० २३३ : 'स' साधुः । ७ (क) जि० चू० पृ० २८४-८५ : तेण साहुणा जाहे जाणमाणेण रागद्दोसवसएण मूलगुणउत्तरगुणाण अण्णतरं आधम्मियं पयं डिसेवियं भवइ, अजाणमाणेण वा अकप्पिय बुद्धीए पडिसेवियं होज्जा । (ख) हा० टी० प० २३३ 'जानन्नजानन् वा' आभोगतोऽना भोगतश्चेत्यर्थः । जणावारो उम्मग्गोतियुत्तं भव । 'मनाचा' सावद्ययोगम् । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ४०१ अध्ययन ८ : श्लोक ३४-३७ टिं० ६३-६६ ९३. न छिपाए और न अस्वीकार करे ( नेव गृहे न निण्हवे ख): पूरी बात न कहना, थोड़ा कहना और थोड़ा छिपा लेना---यह 'गूहन' का अर्थ है'। 'निन्हव' का अर्थ है--सर्वथा अस्वीकार, इन्कार। ६४. पवित्र ( सुई ग ) : शुचि अर्थात् आलोचना के दोषों को वर्जने वाला अथवा अकलुषित मति । शुचि वह होता है जो सदा स्पष्ट रहता है। ६५. स्पष्ट ( वियडभावे ग ) : जिसका भाव-मन प्रकट होता है-स्पष्ट होता है, वह 'विकटभाव' कहलाता है। श्लोक ३४ः ६६. सिद्धि मार्ग का ( सिद्धिमग्गं ख ) : सिद्धि-मार्ग–सम्यग-ज्ञान, सम्यग-दर्शन और सम्यग्-चारित्रात्मक मोक्ष-मार्ग । विशेष जानकारी के लिए देखिए उत्तराध्ययन (अ० २८) । ९७. (भोगेसु"): यहाँ पंचमी के स्थान पर सप्तमी विभक्ति है। श्लोक ३७ः १८. श्लोक ३७ : क्रोधादि को वश में न करने पर केवल पारलौकिक हानि ही नहीं होती किन्तु इहलौकिक हानि भी होती है। इस श्लोक में यही बतलाया गया है। ६. लोभ सब "का विनाश करने वाला है ( लोहो सबविणासिणो घ) : लोभ से प्रीति आदि सब गुणों का नाश होता है। जिनदास चूणि में इसे सोदाहरण स्पष्ट किया है। लोभवश पुत्र मृदु-स्वभाव वाले पिता से भी रुष्ट हो जाता है ---यह प्रीति का नाश है। धन का भाग नहीं मिलता है तब वह उद्धत हो प्रतिज्ञा करता है कि धन का भाग अवश्य लंगा—यह विनय का नाश है। वह कपटपूर्वक धन लेता है और पूछने पर स्वीकार नहीं करता, इस प्रकार मित्र-भाव नष्ट हो जाता है । यह लोभ की सर्वगुण नाशक वृत्ति है। लोभ से वर्तमान और आगामी–दोनों जीवन नष्ट होते हैं। इस दष्टि से १-(क) अ० चू० पृ० १६३ : गृहणं पडिच्छायणं । (ख) जि० चू० पृ० २८५ : गृहणं किंचि कहणं भष्णइ । (ग) हा० टी०प० २३३ : गृहनं किंचित्कथनम् । २-(क) जि. चू०पृ० २८५ : णिण्हवो णाम पुच्छिओ संतो सवहा अवलवइ । (ख) हा० टी०प० २३३ : निह्नव एकान्तापलापः । ३- अ० चू० पृ० १९३ : सुती ण आकंपतित्ता अणुमाणतिता। ४-हा० टी०प० २३३ : 'शुचिः' अकलुषितमतिः । ५-जि० चू० पृ० २८५ : सो चेव सुई जो सदा वियडभावो। ६-हा० टी० प० २३३ : 'विकटभाव:' प्रकटभावः । ७-(क) जि. चू० पृ० २८५ : सिद्धिमग्गं च णाणदंसणचरित्तमइयं । (ख) हा० टी०प० २३३ : 'सिद्धिमार्ग' सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रलक्षणम् । ८-हा० टी०प० २३३ : भोगेभ्यो बन्धकहेतुभ्यः । है-जि० पू० पृ० २८६ : तेसिं कोहादीणमणिग्गहियाणं (च) इहलोइओ इमो दोसो भवइ । Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४०२ अध्ययन ८: श्लोक ३८-३९ टि० १००-१०४ भी यह सर्वनाश करने वाला है। श्लोक ३८ : १००. श्लोक ३८: इस श्लोक में क्रोधादि चार कषायों के विजय का उपदेश है : अनुदित क्रोध का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण-यह क्रोध-विजय है। अनुदित मान का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण—यह मान-विजय है । अनुदित माया का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण यह माया-विजय है । अनुदित लोभ का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण---यह लोभ-विजय है । १०१. उपशम से ( उवसमेण क): उपशम का अर्थ है क्षमा, शान्ति । १०२. ( उवसमेण हणे कोहं क ): तुलना कीजिए-- अकोधेन जिने कोध...... अर्थात् अक्रोध से क्रोध को जीतो । [धम्मपद -क्रोधवर्ग, श्लोक ३] १०३. मृदुता से ( मद्दवया ख ) : मृदुता का अर्थ है -उच्छ्रितता-उद्धतभाव न होना, न अकड़ना । श्लोक ३६ : १०४. संक्लिष्ट ( कसिणा ग ) : टीकाकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं--कृत्स्न और कृष्ण । कृत्स्न अर्थात् सम्पूर्ण', कृष्ण अर्थात् संक्लिष्ट । कृष्ण का १-(क) जि० चू० पृ० २८६ : लोभो पुण सव्वाणि एयाणि पोतिविणयमित्ताणि नासेइत्ति, तं०--मिउणोविय तायस्स पत्तो लोभेण रूसेइ, भागे य अदिज्जमाणेण पडिग्णमारुभेज्जा, जहा अवस्सं मए भागं दवावेमि, मायाए तमत्थं गिहिऊण अवलवेज्जा, अओ लोभो सम्वविणासणो, अहवा इमं लोगं परं वा लोग दोऽवि लोभेण जासयइति सम्वविणासणो य । (ख) हा० टी०प० २३४ : लोभः सर्वविनाशनः, तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावभावित्वादिति । २-जि० चू० पृ० २८६ : कोहस्स उदयनिरोधो कायव्वो, उदयपत्तस्स (वा) विफलीकरणं । ३- जि० चू०प० २८६ : माणोदयनिरोधो कायवो, उदयपत्तस्स (वा) विफलीकरणं । ४-हा० टी० ५० २३४ : मायां च ऋजुभावेन–अशठतया जयेत् उदयनिरोधादिनव । ५.जि० चू० पृ० २८६ : लोभोदयनिरोहो कायव्वो, उदयपत्तस्य विफलीकरणं । ६-(क) अ० चू० पृ० १६४ : खमा उवसमो तेण। (ख) जि० चू० पृ० २८६ : उवसमो खमा भण्णइ, तोए। (ग) हा० टी०प० २३४ : 'उपशमेन' शान्तिरूपेण । ७-हा० टी०प० २३४ : मार्दवेन–अनुच्छिततया । ८-हा० टी०प० २३४ : 'कृत्स्नाः ' सम्पूर्णाः 'कृष्णा वा' क्लिष्टाः। &-अ० चू० पृ० १६४ : कसिणा पडिपुण्णा। १०-जि० चू० पृ० २८६ : अहवा संकिलिट्टा कसिणा भवन्ति । Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारणि ही (आचार-णिधि) ४०३ अध्ययन ८ : श्लोक ४० टि० १०५-१०६ प्रधान अर्थ काले रंग से सम्बन्धित है किन्तु मन के बुरे या दुष्ट विचार आत्मा को अन्धकार में ले जाते हैं, इसलिए कृष्ण शब्द मानसिक संक्लेश के अर्थ में प्रयुक्त होता है। १०५. कषाय ( कसाया ग ): यह अनेकार्थक शब्द है। कुछ एक अर्थ, जो क्रोधादि की भावना से सम्बन्धित हैं, ये हैं---गेरुआ रंग, लेप, गोंद, भावावेश' । क्रोध, मान, माया और लोभ रंग है-इनसे आत्मा रंजित होता है। ये लेप हैं—इनके द्वारा आत्मा कर्म-रज से लिप्त होता है । ये गोंद हैं -इनके चेप से कर्म-परमाणु आत्मा पर चिपकते हैं। ये भावावेश हैं - इनके द्वारा मन का सहज सन्तुलन नष्ट होता है, इसलिए इन्हें 'कषाय' कहा गया है। प्राचीन व्याख्याओं के अनुसार 'कष' का अर्थ है संसार। जो आत्मा को संसारोन्मुख बनाता है, वह 'कषाय' है। कषाय-रस से भीगे हुए वस्त्र पर मजीठ का रंग लगता है और टिकाऊ होता है, वैसे ही क्रोधादि से भीगे हुए आत्मा पर कर्म-परमाणु चिपकते हैं और टिकते हैं, इसलिए ये कषाय कहलाते हैं। श्लोक ४० : १०६. पूजनीयों के प्रति ( राइणिएसु + ) : ____ अगस्त्य चूणि के अनुसार आचार्य, उपाध्याय आदि सर्व साधु, जो दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ हों, रानिक कहलाते हैं। जिनदास महत्तर ने रात्निक का अर्थ पूर्व-दीक्षित अथवा सद्भाव (पदार्थ) के उपदेशक किया है। टीकाकार के अनुसार चिर-दीक्षित अथवा जो ज्ञान आदि भाव-रत्नों से अधिक समृद्ध हों वे रात्निक कहलाते हैं। __ रत्न दो प्रकार के होते हैं -द्रव्य-रत्न और भाव-रत्न। पार्थिव-रत्न द्रव्य-रत्न हैं। कारण कि ये परमार्थ-दृष्टि से अकिंचित्कर है। परमार्थ-दृष्टि से भाव-रत्न हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। ये जिनके पास अधिक उन्नत हों उन्हें टीकाकार रत्नाधिक कहते हैं । अभयदेवसूरि ने 'रायणिय' का संस्कृत रूप 'रात्निक' दिया है। इसका सम्बन्ध रत्नी से है। रत्नी जयेष्ठ, सम्मानित या उच्चाधिकारी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। शतपथ ब्राह्मण (५.५.१.१) में ब्राह्मण अर्थात् पुरोहित, राजन्य, सेनानी, कोषाध्यक्ष, भागदुषु (राजग्राह्य कर संचित करने वाला) आदि के लिए 'रत्नी' का प्रयोग हुआ है। इसलिए रात्निक का प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ पूजनीय या विनयास्पद व्यक्ति होना चाहिए। स्थानाङ्ग में साधु-साध्वी, श्रावक और धाविका इन सभी के लिए 'राइणिते' और 'ओय रातिणिते तथा मूलाचार में साधुओं के लिए 'रादिणिय' और 'ऊणरादिणिब' शब्द प्रयुक्त हुए हैं । सूत्रकृताङ्ग में 'रातिणिय' और 'समन्वय' शब्द मिलते हैं। ये दीक्षा-पर्याय की दृष्टि से साधुओं को तीन श्रेणियों में विभक्त करते हैं : १-७० हि० पृ० २६६ । २--अ० चू० पृ० १६५ : रातिणिया पुवदिक्खिता आयरियोवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पणतो पढमपव्वतियेसु । ३-जि. चू० पृ० २८६ : रायाणिआ पुन्वदिक्खिया सब्भावोवदेसगा वा। ४-हा० टी० प० २३५ : 'रत्नाधिकेषु' चिरदीक्षितादिषु । ५-हा० टी० ५० २५२-२५३ : 'रत्नाधिकेषु' ज्ञानादिभावरत्नाभ्युन्छि,तेषु । ६-ठा० ५.४८ वृ० : रत्नानि द्विधा -द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः कर्केतनादीनि भावतो ज्ञानादीनि तत्र रत्न:-ज्ञानादिभि wवहरतीति रात्निकः-बृहत्पर्यायः । ७-ठा० ४.४२६-४२६ ० : रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि व्यवहरतीति रात्निक पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः । ८-मूला० अधि० ५. गा० १८७ पृ० ३०३ : रादिणिए ऊणरादिणिएसु अ, अज्जासु चेव गिहिवरगे। विणओ जहारिओ सो, कायव्वो अप्पमत्तेण ॥ ६–सू० १.१४.७ । Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ___४०४ अध्ययन ८ : श्लोक ४० टि० १०७ १. रात्निक-पूर्वदीक्षित २. समव्रत-सहदीक्षित ३. ऊनरात्निक–पश्चात्दीक्षित श्रमण वसुनन्दी ने मूलाचार की टीका में 'रादिणिय' और 'ऊन रादिणिय' के संस्कृत रूप रात्निक और ऊनरात्निक किए हैं। १०७. ध्रुवशीलता की ( धुवसीलयं ख): ध्रुवशीलता का अर्थ पूर्णिकार और टीकाकार ने अष्टादश-सहस्र-शीलान किया है । वह इस प्रकार है : जे णो करंति मणसा, णिज्जियआहारसन्ना सोइंदिये। पुढविकायारंभ, खंतिजुत्त ते मुणी वंदे ॥१॥ यह एक गाथा है। दूसरी गाथा में 'खंति' के स्थान पर मुत्ति' शब्द आएगा शेष ज्यों का त्यों रहेगा। तीसरे में 'अज्जव' आएगा । इस प्रकार १० गाथाओं में दश धर्मों के नाम क्रमश: आएंगे। फिर ग्यारहवीं गाथा में 'पुढवि' के स्थान पर 'आउ' शब्द आएगा। पुढवि के साथ १० धर्मों का परिवर्तन हुआ था उसी प्रकार 'आउ' शब्द के साथ भी होगा। फिर 'आउ' के स्थान पर क्रमशः 'तेउ', 'वाउ', 'वणस्सई', 'बेइंदिय', 'तेइंदिय', 'चतुरिंदिय', 'पंचेंदिय' और 'अजीव' ये दश शब्द आएंगे। प्रत्येक के साथ दश धर्मों का परिवर्तन होने से (१०x१०) एक सौ गाथाएँ हो जाएँगी। १०१ गाथा में 'सोइंदिय' के स्थान पर 'चक्खुरिदिय' शब्द आएगा। इस प्रकार पाँच इन्द्रियों की (१००४५) पांच सौ गाथाएं होंगी। फिर ५०१ में 'आहारसन्ना' के स्थान पर 'भयसन्ना' फिर 'मेहुणसन्ना' और 'परिग्गहसन्ना' शब्द आएँगे। एक संज्ञा के ५०० होने से ४ संज्ञा के (५००x४) २००० होंगे। फिर 'मणसा' शब्द का परिवर्तन होगा। 'मणसा' के स्थान पर 'वयसा' फिर 'कायसा आएगा। एक-एक का २००० होने से तीन कायों के (२०००४३) ६००० होंगे । फिर 'करंति' शब्द में परिवर्तन होगा। 'करंति' के स्थान पर 'कारयंति' और 'समणुजाणति' शब्द आएँगे । एक-एक के ६००० होने से तीनों के (६०००४३) १८,००० हो जाएँगे। संक्षेप में यों कह सकते हैं --दश धर्म क्रमश: बदलते रहेंगे। प्रत्येक धर्म १८०० बार आएगा। १० धर्मों के बाद 'पुढविकाय' में परिवर्तन आएगा। प्रत्येक दशक के बाद ये दश काय बदलते रहेंगे। प्रत्येक काय १८० बार आएगा । फिर 'सोइंदिय' शब्द बदल जाएगा। प्रत्येक सौ के बाद 'इंदिय' परिवर्तन होगा। प्रत्येक इंदिय ३६ बार आएगा। फिर 'आहारसन्ना' में परिवर्तन होगा। चारों संज्ञाएँ क्रमश: बदलती जाएंगी। प्रत्येक ५०० के बाद संज्ञा बदलेगी, प्रत्येक संज्ञा ६ बार आएगी। फिर 'मणसा' शब्द में परिवर्तन होगा। तीन काय क्रमश: बदलती रहेंगी। प्रत्येक दो हजार के बाद काय का परिवर्तन होगा। प्रत्येक काय ३ बार आएगा। फिर 'करंति' में परिवर्तन होगा। प्रत्येक ६००० के बाद तीनों करण का परिवर्तन होगा। प्रत्येक करण एक-एक बार आएगा। इस प्रकार एक गाथा के १८,००० गाथाएँ बन जाएँगी। ये अठारह हजार शील के अंग हैं। इन्हें रथ से निम्न प्रकार उपमित किया जाता है : १-(क) जि० चू० पृ० २८७ : धुवसीलयं णाम अट्टारससीलंगसहस्साणि । (ख) हा० टी०प० २३५ : 'ध्र वशीलताम्' अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपाम् । Jain Education Intemational Education International Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ४०५ ४०५ अध्ययन ८ : श्लोक ४० टि० १०८ जे णो जे णो जे णो करंति कारयंति समणुजाणति मणसा वयसा कायसा णिज्जिय | णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय आहारसन्ना भयसन्ना मेहुणसन्ना परिग्गहसन्ना ५०० ५०० ५०० श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय | घ्राणेन्द्रिय | रसनेन्द्रिय | स्पर्शनेन्द्रिय १०० | १०० १०० पृथिवी गयु वनस्पति | द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय | पंचेन्द्रिय १० क्षान्ति मुक्ति आर्जव मार्दव लाघव सत्य संयम तप ब्रह्मचर्य | अकिञ्चन २ १० श्रमण सूत्र (परिशिष्ट) १०८. कूर्म की तरह आलीन-गुप्त और प्रलीन-गुप्त ( कुम्मो व्व अल्लीणपलीणगुत्तो ग ) : ___अगस्त्य चूणि के अनुसार 'गुप्त' शब्द 'आलीन' और 'प्रलीन' दोनों से सम्बद्ध है अर्थात् आलीन-गुप्त और प्रलीन-गुप्त । कूर्म की तरह काय-चेष्टा का निरोध करे, वह 'आलीन-गुप्त' और कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक शारीरिक प्रवृत्ति करे, वह प्रलीन-गुप्त कहलाता है । जिनदास चूणि के अनुसार आलीन का अर्थ थोड़ा लीन और प्रलीन का अर्थ विशेष लीन होता है। जिस प्रकार कूर्म अपने' अङ्गों को गुप्त रखता है तथा आवश्यकता होने पर उन्हें धीमे से फैलाता है, उसी तरह श्रमण आलीन-प्रलीन-गुप्त रहे । १-अ० चू० पृ० १६५ : कुम्मो कच्छभो, जवा सो सजीवितपालणत्यमंगाणि कभल्ले संहरति, गमणातिकारणे य सणियं पसारेति; तहा साधू वि संजमकडाहे इंवियप्पयारं कायचेटू नि भिऊण अल्लोणगुतो। कारणे जतणाए ताणि चेव पवतयंतो पल्लीणगुत्तो। गुत्तसद्दो पत्तेयं परिसमप्पति । २-(क) जि० चू० पृ० २८७ : जहा कुम्मो सए सरीरे अंगाणि गोवेऊण चिट्टइ, कारणेवि सणियमेव पसारेइ, तहा साहवि अल्लीण पलीणगुत्तो परक्कमेज्जा तवसंजममित्ति, आह-आलीणाणं पलीणाणं को पइविसेसो ?, भण्णइ, ईसि लोणाणि आली. णाणि, अच्चत्थलीणाणि पलीणाणित्ति । (ख) हा० टी० प० २३५ : 'कूर्म इव' कच्छप इवालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक् संयम्येत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ८ : श्लोक ४१ टि० १०६-११२ ४०६ श्लोक ४१ : १०६. निद्रा को बहुमान न दे (निद्वं च न बहमन्नेज्जा २ ) : बहुमान न दे अर्थात् प्रकामशायी न बने --सोता ही न रहे'। सूत्रकृताङ्ग में बताया है कि सोने के समय में सोए "सयणं सयणकाले ।" वृत्तिकार के अनुसार अगीतार्थ दो प्रहर तक सोए और गीतार्थ एक प्रहर तक। ११०. अट्टहास ( संपहास ख ) : संप्रहास अर्थात् समुदित रूप में होने वाला सशब्द हास्य। जिनदास चणि और टीका में 'सप्पहासं' पाठ है। उसका अर्थ है अट्टहास। १११. मैथुन की कथा में (मिहोकहाहि म ) : ___अगस्त्यसिंह ने इसका अर्थ स्त्री-सम्बन्धी रहस्य-कथा किया है। जिनदास महत्तर के अनुसार इसका अर्थ स्त्री-सम्बन्धी या भक्त, देश आदि सम्बन्धी रहस्यमयी कथा है । टीकाकार ने इसे राहस्यिक-कथा कहा है । आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन और ओघनियुक्ति की टीका में भी इसका यही अर्थ मिलता है । ११२. स्वाध्याय में ( सज्झायम्मिघ): स्वाध्याय का अर्थ है-विधिपूर्वक अध्ययन । इसके पाँच प्रकार हैं : १. वाचना-पढ़ाना। २. प्रच्छना–संदिग्ध विषय को पूछना । ३. परिवर्तना-कण्ठस्थ किए हुए ज्ञान का पुनरावर्तन करना। ४. अनुप्रेक्षा-अर्थ-चिन्तन करना । ५. धर्मकथा-श्रुत आदि धर्म की व्याख्या करना । १-(क) जि० चू० पृ० २८७ : बहुमनिज्जा नाम नो पकामसायी भवेज्जा । (ख) हा० टी० प० २३५ : 'निद्रां च न बहुमन्येत', न प्रकामशायी स्यात् । २.-सू० २.१.१५ पृ० ३०१ ७० : शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं-संस्तारकः स च शयनकाले, तत्राप्यगीतार्थानां प्रहरद्वयं निद्राविमोक्षो ___ गीतार्थानां प्रहरमेकमिति । ३-अ० चू० पृ० १६५ : समेच्च समुदियाणं पहसणं सतिरालावपुव्वं संपहासो। ४- (क) जि० चू० पृ० २८७ : सप्पहासो नाम अतीव पहासो सप्पहासो, परवादिउद्धसणादिकारणे जइ हसेज्जा तहावि सप्पहासं विवज्जए। (ख) हा० टी०प० २३५ : 'सप्रहासं च' अतीवहासरूपम् । ५- अ० चू० पृ० १६५ : मिधुकहाओ रहस्सकधाओ इत्थी संबद्धाओ तथाभूताओ वा तायो । ६-जि० चू० पृ० २८७ : मिहोकहाओ रहसियकहाओ भण्णंति, ताओ इस्थिसंबद्धानो वा होज्जा अण्णाओ वा भत्तदेसकहादियायो तासु। ७-हा० टी० प० २३५ : 'मिथ: कथासु' राहस्यिकोषु । ८-(क) आ० ६।१।१० : गढिए मिहोकहासु, समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु । टोका-'ग्रथित:' अवबो 'मिथः' अन्योन्यं 'कथासु' स्वैरकथासु। (ख) उत्त० २६.२६ : पडिलेहणं कुणंतो, मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा । (बृहद्वृत्ति) 'मिथः कथां' परस्परसंभाषणात्मिकां .. ___ स्त्र्यादिकथोपलक्षणमेतत् । (ग) ओ० नि० वृ० २७२ : 'मिथः कथां' मैथुनसंबद्धाम् । है-औप० ३० : सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते तं जहा-वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा। Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ४०७ अध्ययन ८ : श्लोक ४२-४३ टि० ११३-११७ जिनदास धुणि में 'अज्झयणमि रओ सया' पाठ है और 'अध्ययन' का अर्थ स्वाध्याय किया है। हरिभद्रसूर ने स्वाध्याय का अर्थ वाचना आदि किया है। श्लोक ४२ ११३. श्रमण-धर्म में ( समणधम्मम्मिक): यहाँ अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय और प्रतिलेखन आदि श्रमण-चर्या को 'श्रमण-धर्म' कहा है । सूत्रकार का आशय यह है कि अनुप्रेक्षाकाल में मन को, स्वाध्याय-काल में वचन को और प्रति लेखन-काल में काया को श्रमण-धर्म में लगा देना चाहिए और भङ्ग-प्रधान (विकल्प-प्रधान) श्रुत में तीनों योगों का प्रयोग करना चाहिए। उसमें मन से चिन्तन, वचन से उच्चारण और काया से लेखन--ये तीनों होते हैं। ११४. यथोचित ( धुवं ख ) : ध्रुव का शब्दार्थ है निश्चित । यथोचित इसका भावार्थ है । जिस समय जो त्रिया निश्चित हो, जिसका समाचरण उचित हो उस समय वही क्रिया करनी चाहिए। ११५. लगा हुआ ( जुत्तो ग ) : युक्त का अर्थ हैं व्याप्त—लगा हुआ। ११६. फल (अठंग ) : यहाँ अर्थ शब्द फलवाची है । इसका दूसरा अर्थ है ज्ञानादि रूप वास्तविक अर्थ । श्लोक ४३ : ११७. श्लोक ४३ : पिछले श्लोक में कहा है-श्रमण-धर्म में लगा हुआ मुनि अनुत्तर फल को प्राप्त होता है, उसी को इस श्लोक के प्रथम दो चरणों में स्पष्ट किया है । श्रमण-धर्म में मन, वाणी और शरीर का प्रयोग करने वाला इहलोक में वन्दनीय होता है । श्रमण-धर्म में एक दिन के दीक्षित साधु को भी लोग विनयपूर्वक वन्दन करते हैं और वह परलोक में उत्तम स्थान में उत्पन्न होता है । आगामी दो चरणों में श्रमणधर्म की उपलब्धि के दो उपाय बतलाए हैं-(१) बहुश्रुत की उपासना और (२) अर्थ-विनिश्चय के लिए प्रश्न । १-जि० चू०प० २८७ : 'अज्झयणमि रओ सया' अज्झयणं सज्झाओ भण्णइ, तंमि सज्झाए सदा रतो भविज्जत्ति। २-हा० टी०प० २३५ : 'स्वाध्याये' वाचनादौ । ३- अ० चू० पृ० १६५ : जोगं मणोवयणकायमयं अणुप्पेहणसज्झायपडिलेहणादिसु पत्तेयं समुच्चयेण वा च सद्देण नियमेण भंगितसुते तिविधमवि। ४- (क) अ० चू० १० १६५ : अप्पणो काले अण्णोणमबाहंत धुवं । (ख) हा० टी०प० २३५ : 'ध्र वं' कालाद्यौचित्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जनभावेन वा, अनुप्रेक्षाकाले मनोयोगमध्ययन काले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति । ५-हा० टी०प० २३५ : 'युक्त' एवं व्यापृतः । ६-अ० चू० पृ० १६५ : अत्थो सद्दो इह फलवाची। ७-हा० टी०प० २३५ : भावार्थ ज्ञानादिरूपम् ।। ८-अ० चू० पृ० १६५-६६ : इहलोगे एगदिवसदिक्खितोवि विणएणं वंदिज्जते य पूतिज्जते य अवि रायरायोहिं । परलोए सुकुलसंभवादि । ९-अ० चू० पृ० १६६ : सव्वस्सेयस्स उवलंभणत्थं बहुसुतं पज्जुवासेज्ज पज्जुवासेज्जमाणो पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं । Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ४०८ अध्ययन ८ : श्लोक ४४-४५ टि० ११८-१२३ ११८. बहुश्रुत ( बहुस्सुयं" ) : जो आगम-वृद्ध हो—जिसने श्रुत का बहुत अध्ययन किया हो, वह बहुश्रुत कहलाता है। जिनदास पूणि ने आचार्य, उपाध्याय आदि को बहुश्रुत माना है । बहुश्रुत तीन प्रकार के होते हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । प्रकल्पाध्ययन (निशीथ) का अध्ययन करने वाला जघन्य, चतुर्दश पूर्वो का अध्ययन करने वाला उत्कृष्ट तथा प्रकल्पाध्ययन और चतुर्दश पूर्वो के बीच का अध्ययन करने वाला मध्यम बहुश्रुत कहलाता है। ११६. अर्थ-विनिश्चय ( अत्यविणिच्छयं घ ) : अर्थ-विनिश्चय-तत्त्व का निश्चय, तत्त्व की यथार्थता। श्लोक ४४: १२०. श्लोक ४४: पिछले श्लोक में कहा है-बहुश्रुत की पर्युपासना करे । इस श्लोक में उसकी विधि बतलाई गई है । १२१. संयमित कर' ( पणिहायख): इसका अर्थ है - हाथों को न नचाना, पैरों को न फैलाना और शरीर को न मोड़ना । १२२. आलीन.. और गुप्त होकर ( अल्लीणगुत्तो ग) : आलीन का शाब्दिक अर्थ है-थोड़ा लीन । तात्पर्य की भाषा में जो गुरु के न अति-दूर और न अति-निकट बैठता है, उसे 'आलीन' कहा जाता है। जो मन से गुरु के वचन में दत्तावधान और प्रयोजनवश बोलने वाला होता है, उसे 'गुप्त' कहा जाता है । शिष्य को गुरु के समीप आलीन-गुप्त हो बैठना चाहिए। श्लोक ४५: १२३. श्लोक ४५ पिछले श्लोक में कहा है—गुरु के समीप बैठे । इस श्लोक में गुरु के समीप कैसे बैठना चाहिए उसकी विधि बतलाई गई है। शिष्य के लिए गुरु के पाव-भाग में, आगे और पीछे बैठने का निषेध है। इसका तात्पर्य है कि पाश्र्व-भाग में, कानों की समश्रेणि में न बैठे। वहाँ बैठने पर शिष्य का शब्द सीधा गुरु के कान में जाता है। उससे गुरु की एकाग्रता का भंग होता है । इस आशय से कहा है कि १-हा० टी०प० २३५ : 'बहुश्रुतम्' आगमवृद्धम् । २-जि० चू० पृ० २८७ : बहुसुयगहणेणं आयरियउवझायादीयाण गहणं । ३--नि० पी० भा० (गाथा ४६५) : बहुस्सुयं जस्स सो बहुस्सुतो, सो तिविहो-जहण्णो मज्झिमो उक्कोसो । जहण्णो जेण पकप्पज्झयणं अधीत, उक्कोसो चोदस्सपब्वधरो, तम्मज्झे मज्झिमो। ४-(क) अ० चू० पृ० १९६ : अत्थविनिच्छयो तब्भावनिण्णयो त । (ख) जि० चू० पृ० २८७ : विणिच्छओ णाम विणिच्छओत्ति वा अवितहभावोत्ति वा एगट्ठ। (ग) हा० टी० प० २३५ : 'अर्थविनिश्चयम्' अपायरक्षक कल्याणावहं वार्थावितथभावमिति । ५–अ० चू० पु. १६६ : पज्जुवासणे अयं बिही-'हत्थं पायं च कायं च' सिलोगो। ६-हा० टी० ५० २३५ : 'प्रणिधाये ति संयम्य । -जि० चू० पृ० २८८ : पणिहाय णाम हत्थेहि हत्थनट्टगादीणि अकरं पाएहि पसारणादीणि अकुन्वंतो काएण सासणगादीणि अकुव्वंतो। ८--जि० चू० पृ० २८८ : अल्लीणो नाम ईसिलीणो अल्लोणो, णातिदूरत्थो ण वा अच्चासण्णो । ६-अ० चू० पृ० १९६ : मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो। १०-जि० चू० पृ० २८८ : वायाए कज्जमेत्तं भासंतो। ११-अ० चू० पृ० १९६ : तस्स थाणनियमणमिमं । Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ अध्ययन ८ : श्लोक ४६ टि १२४-१२६ आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि ) गुरु के पार्श्व-भाग में अर्थात् बराबर न बैठे' । आगे न बैठे अर्थात् गुरु के सम्मुख अत्यन्त निकट न बैठे। वैसा करने से अविनय होता है और गुरु को वन्दना करने वालों के लिए व्याघात होता है, इस आशय को 'आगे न बैठे' इन शब्दों में समाहित किया है। पीछे न बैठे-इसका आशय भी यही है कि गुरु से सटकर न बैठे अथवा पीछे बैठने पर गुरु के दर्शन नहीं होते। उनके इङ्गित और आकार को नहीं समझा जा सकता, इसलिए कहा है—'पीछे न बैठे' । 'गुरु के ऊरु से अपना ऊरु सटाकर बैठना' अविनय है। इसलिए इसका निषेध है । सारांश की भाषा में असभ्य और अविनयपूर्ण ढंग से बैठने का निषेध है। १२४. ऊरु से अपना ऊरु सटाकर ( ऊरुं समासेज्जा ) : ऊरु का अर्थ है-घुटने के ऊपर का भाग । 'समासेज्जा' का संस्कृत रूप टीका में 'समाश्रित्य' है। समाश्रित्य अर्थात् करके । 'समासेज्जा' का संस्कृत रूप 'समाश्रयेत्' होना चाहिए । समासि (समा+थि) घातु है । इसके आगे 'ज्जा' लगाने पर 'समासेज्जा' रूप बनता है । यदि 'समासाद्य' रूप माना जाए तो पाठ 'समास (सि) ज्ज' होना चाहिए। आयारो (८.८.१) में 'समासिज्ज' (या समासज्ज) शब्द मिलता है । उसका संस्कृत रूप समासाद्य' (प्राप्त करके) किया है। इन दोनों का शाब्दिक अर्थ है-ऊरु को कर या प्राप्त कर और उनका भावार्थ अगस्त्य चूणि के अनुसार 'अपने ऊरु से गुरु के ऊरु का स्पर्श कर'६ तथा जिनदास चरिण और टीका के अनुसार 'ऊरु रखकर इन शब्दों में है। उत्तराध्ययन (१.१८) में 'न मुंजे ऊरुणा ऊरुं' पाठ है । इसकी व्याख्या में चूणिकार ने अगस्त्य चूणि के शब्दों का ही अनुसरण किया है । शान्त्याचार्य ने भी इसका अर्थ — 'गुरु के ऊरु से अपना ऊरु न सटाए'-किया है। इनके द्वारा भी अगस्त्य चूणि के आशय की पुष्टि होती है। श्लोक ४६ : १२५. बिना पूछे न बोले ( अपुच्छिओ न भासेज्जा क ): यहाँ निष्प्रयोजन—बिना पूछे बोलने का वर्जन है, प्रयोजनवश नहीं । १२६. बीच में ( भासमाणस्स अंतरा ख ) : 'आपने यह कहा था, यह नहीं' इस प्रकार बीच में बोलना असभ्यता है, इसलिए इसका निषेध है। १-अ० चू० पृ० १६६ : समुप्पहप्पेरिया सद्दपोग्गला कण्णविलमणुपविसंतीति कण्णसमसेढी पक्खो, ततो ण चिठे गुरूण मंतिए तधा अणेगग्गता भवति । २-जि० चू० पृ० २८८ : पुरओ नाम अग्गओ, तत्थवि अविणओ वंदमाणाणं च वग्घाओ, एवमादि दोसा भवंतित्तिकाऊण पुरओ गुरूण नवि चिट्ठज्जत्ति। ३-हा० टी०प० २३५ : यथासंख्यमविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसङ्गात् । ४.--हा० टी० प० २३५ : समाश्रित्य ऊरोरुप'र कृत्वा । ५–आचा. वृ० १.८.८.१ : 'समासाद्य' प्राप्य । ६-अ० चू० पृ० १६६ : ऊरुगमूहगे संघट्टेऊण एवमवि ण चिठे। ७-(क) जि० चू० पृ० २८८ : ‘ण य ऊरुसमासिज्जा' णाम ऊरुगं ऊरुस्स उरि काऊण ण गुरुसगासं चिट्ठज्जत्ति । (ख) हा० टी० प० २३५ : न च 'ऊरु समाश्रित्य' ऊरोरुपर्युरुं कृत्वा तिष्ठेद्गुर्वन्तिके, अविनयादिदोषप्रसङ्गात् । ८-उत्त० चू० पृ० ३५ : ऊरुगमूरुगेण संगट्टेऊण एवमवि ण चिट्ठज्जा। ६-उत्त० बृ० वृ० १.१८ : 'न युज्यात्' न सङ्घट्टयेद् अत्यासन्नोपवेशादिभिः, 'ऊरुणा' आत्मीयेन 'ऊरु' कृत्य-संबन्धिनं, तथा करणेऽत्यन्ताविनयसम्भवात् । १० -(क) जि० चू० पृ० २८८ : 'अपुच्छिओ' णिक्कारणे ण भासेज्जा। (ख) हा० टी० प० २३५ : अपृष्टो निष्कारणं न भाषेत । ११- जि० चू० पृ० २८८ : भासमाणरस अंतरा ण कुज्जा, जहा जं एयं ते भणितं एयं न। Jain Education Intemational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४१० अध्ययन ८: श्लोक ४७-४८ टि. १२-१३३ १२७. चुगली न खाए ( पिट्टिमसं न खाएज्जा' ): परोक्ष में किसी का दोष कहना-'पृष्ठिमांसभक्षण' अर्थात् चुगली खाना कहलाता है'। १२८. कपटपूर्ण असत्य का ( मायामोसं घ ): ___ 'मायामृषा' यह संयुक्त शब्द है । 'माया' का अर्थ है कपट और 'मृषा' का अर्थ है असत्य । असत्य बोलने से पहले माया का प्रयोग अवश्य होता है। जो व्यक्ति असत्य बोलता है वह अयथार्थता को छिपाने के लिए अपने भावों पर भाषा का इस प्रकार से आवरण डालने का यत्न करता है जिससे सुनने वाले लोग उसकी बात को यथार्थ मान लें, इसलिए चिन्तनपूर्वक जो असत्य बोला जाता है उसके लिए 'मायामृषा' शब्द का प्रयोग किया जाता है । इसका दूसरा अर्थ कपट-सहित असत्य वचन भी किया जाता है।' श्लोक ४७: १२८. सर्वथा ( सव्वसो २ ): सर्वश: अर्थात् सब प्रकार से-सब काल और सब अवस्थाओं में । श्लोक ४८ : १३०. आत्मवान् ( अत्तवं घ): 'आत्मा' शब्द स्व, शरीर और आत्मा-इन तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है । सामान्यतः जिसमें आत्मा है उसे 'आत्मवान्' कहते हैं, किन्तु अध्यात्म-शास्त्र में यह कुछ विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय हो, उसे 'आत्मवान्' कहा जाता है। १३१. दृष्ट ( दि8 क ) : जिस भाषा का विषय अपनी आँखों से देखा हो, वह 'दृष्ट' कहलाती है। १३२. परिमित ( मियं क ) : उच्च स्वर से न बोलना और जितना आवश्यक हो उतना बोलना -यह मितभापा' का अर्थ है। १३३. प्रतिपूर्ण ( पडिपुन्नं ख ) : जो भाषा स्वर, व्यञ्जन, पद आदि सहित हो, वह 'प्रतिपूर्णभाषा' कहलाती है । १-(क) जि० चू० पृ० २८८ : जं परंमुहस्स अवबोलिज्जइ तं तस्स पिट्ठिमंसभक्खणं भवइ । (ख) हा०टी०प०२३५ : 'पृष्ठिमांसं' परोक्षदोषकीर्तनरूपम् । २-जि० चू० पृ० २८८ : मायाए सह मोसं मायामोसं, न मायामंतरेण मोसं भासई, कहं ?, पुटिंव भासं कुडिलीकरेइ पच्छा भासइ। ३--- (क) जि० चू० पृ०२८८ : अहवा जं मायासहियं मोसं । (ख) हा०टी०प० २३५ : मायाप्रधानां षावाचम् । ४...जि० चू० पू० २८६ : सव्वसो नाम सम्बकाल सव्वाबत्थासु । ५.-(क) हा०टी०प० २३६ : 'आत्मवान्' सचेतन इति । (ख) जि० चू० पृ० २८६ : अत्तवं नाम अतवंति वा विन्नवंति वा एगट्ठा। ६-अ० चू० १० १६७ : नाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अत्थि, सो अत्तवं । ७---(क) जि० चू० पृ० २८६ : ट्ठि नाम जं चक्षुणा सयं उवलद्ध। (ख) हा० टी० प० २३५ : 'दृष्टां' दृष्टार्थविषयाम् । ८.---(क) अ० चू० १० १६७ : अणुच्चं कज्जमेत्तं च मितं । (ख) जि० चू० ए० २८६ : मितं दुबिह-सद्दओ परिमाणओ य, सद्दओ अणउव्वं उच्चारिज्जमाणं मितं, परिमाणओ कज्ज मेत्तं उच्चारिज्जमाण मितं । (ग) हा० टी०प० २३५ : "मिता' स्वरूपप्रयोजनाभ्याम् । 8-(क) जि० चू०प० २८६ : पडुप्पन्न णाम सरवंजणपयादीहि उबवेअं। (ख) हा० टी०प० २३५ : 'प्रतिपूर्णा' स्वरादिभिः । Jain Education Intemational Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारपणही (प्रचार-प्रणिधि) १३४. (वियं जिये ) : ख ४११ अगस्त्य चूर्णि और टीका में 'वियं जियं' इन शब्दों को पृथक् मानकर व्याख्या की गई है । 'वियं' का अर्थ व्यक्त है' । अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'जिय' का अर्थ व्यामोह उत्पन्न करने वाली अर्थात् स्मृत भाषा और टीकाकार ने परिचित भाषा किया है । 'व्यक्त' का प्राकृत रूप 'वत्त' या 'वियत्त' बनता है। उसका 'विय' रूप बहुत प्राचीन होना चाहिए। यजुर्वेद में व्यक्त करने के अर्थ में 'विव' शब्द का प्रयोग हुआ हैं। संभव है यह 'विव' ही आगे चल कर 'विय' बन गया हो । अध्ययन श्लोक ४६ टि० १३४-१३५ अनुयोगद्वार के आधार पर 'वियंजिय' प्रयुक्त हुए हैं। जो पढ़ लिया जाता जिनदास महत्तर 'वियंजियं' को एक शब्द मानते हैं । उनके अनुसार इसका अर्थ तथ्य है । की एक कल्पना और हो सकती हैं। वहाँ 'सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं' ये पाँच शब्द एक साथ है उस पद को शिक्षित', जिस शिक्षित पद की विस्मृति नहीं होती उसे 'स्थित', जो पद परिवर्तन करते समय या किसी के पूछने पर शीघ्र याद आ जाए वह 'जित', जिसके श्लोक, पद और वर्ण आदि की संख्या जानी हुई हो वह 'मित' तथा परिवर्तन करते समय जिसे क्रम या उत्क्रम से किसी भी प्रकार से याद किया जा सके वह 'परिचित' कहलाता है । दशवैकालिक का प्रस्तुत प्रकरण भी भाषा से सम्बन्धित है, इसलिए कल्पना की जा सकती है कि लिपि भेद के कारण 'ठियं जियं' के स्थान पर 'वियं जियं' ऐसा पाठ हो गया हो, जिसका होना बहुत संभव है। घूर्णिकार और टीकाकार के सामने वह परिवर्तित पाठ रहा है और वही उनके व्याख्या भेद का हेतु बना है । इलोक ४६ : १३५. इलोक ४६: प्रस्तुत श्लोक में आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद – ये तीनों शब्द व्यर्थक हैं । द्वादशाङ्गी में पहला अङ्ग आचार, पाँचवाँ प्रज्ञप्ति और बारहवाँ दृष्टिवाद है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने आचारधर और प्रज्ञप्तिथर का अर्थ भाषा के विनयों-नियमों को धारण करने वाला किया है। जिनदास महत्तर के अनुसार 'आचारधर' शब्दों के लिङ्ग (स्त्री, पुरुष और नपुंसक) को जानता है। टीकाकार ने 'आचारधर' का अर्थ यही किया है का विशेष जानकार और दृष्टिवाद के अध्येता का प्रोपगम, वर्णविकार, काल, कारक आदि व्याकरण के अङ्गों को जानने वाला किया है। दीपिकाकार टीकाकार का अनुगमन करते हैं। अवधुरिकार ने आचारधर और प्रज्ञप्तिवर का अर्थ क्रमशः आचाराङ्गवर और भगवतीवर किया है। आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद - इनका सम्बन्ध भाषा कौशल से है, इसलिए कहा गया है कि आचार और प्रज्ञप्ति को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को पढ़ने वाला बोलने में चूक जाए तो उसका उपहास न किया जाए। १- (क) अ० चू० पृ० १६७ : वियं व्यक्तं । (स) हा० डी० प० २३५ ताम् अलाम् । २३००० १६७ जितं न वामोहकरणेकाकारं । ३ - हा० टी० प० २३५ : 'जितां' परिचिताम् । ४ - अध्याय १३.३ । ५- जि० चू० पृ० २८६ : 'वियंजितं' णाम वियंजितंति वा तत्थंति वा एगट्ठा । ६ - अनु० बृ० पृ० १४ । - अ० चू० पृ० १९७ : आयारधरो भासेज्जा तेसु विणीयभासाविणयो, विसेसेण पन्नति-धरो एवं वयणलिंगवण विवज्जासे ण अवधसे । 5-foto To चू० पृ० २८६ : आयारधरो इत्थिपुरिसणपुंसर्गांलंगाणि जाणइ । ६- हा० टी० प० २३६ स्त्रीङ्गादीनि जानाति प्रज्ञप्ति रस्ताम्बेव सविशेवाणीत्येवंभूतम् तथा दृष्टिवादमयीवानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवविकार कालकारका विवेदिनम् । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४१२ अध्ययन ८ : श्लोक ४६ टि० १३६ प्रस्तुत श्लोक में सैद्धान्तिक भूल का प्रसंग नहीं है किन्तु बोलते समय लिङ्ग, विभक्ति, कारक, काल आदि का विपर्यास हो जाए अर्थात् वाक्य-रचना में कोई त्रुटि आए, उसे सुनकर उपहास न करने का उपदेश है । प्रसंग के अनुसार दिद्विवाय (दृष्टिपात या दृष्टिवाद) का अर्थ नयवाद या विभज्यवाद होना चाहिए। जो बात विभाग करके कही जानी चाहिए वह प्रमादवश अन्यथा कही जाए तो उपहास का विषय बन सकता है । प्रस्तुत श्लोक में उसका निषेध है । नंदी [सू० ४१] में दृष्टिवाद का प्रयोग सम्यक्त्ववाद के अर्थ में हुआ है जो नयवाद के अधिक निकट है । आचाराङ्ग और प्रज्ञप्ति का वर्तमान रूप भापा के व्याकरणबद्ध प्रयोग की कोई विशेष जानकारी नहीं देता। दृष्टिवाद में व्याकरण का समावेश होता है । सम्भव है आचार और प्रज्ञप्ति भी व्याकरण ग्रन्थ रहे हों । दशवकालिक नियुक्ति में भी ये शब्द मिलते हैं। "आयारे ववहारे पन्नत्ती चेव दिद्विवाए य । एसा चउन्विहा खलु कहा उ अक्खेवणी होइ ॥" (१९४) टीकाकार ने आचार का अर्थ आचरण, प्रज्ञप्ति का अर्थ समझाना और दृष्टिवाद का अर्थ सूक्ष्म-तत्व का प्रतिपादन किया है। धूणिकारों ने यहाँ इन्हें द्वयर्थक नहीं माना है । टीकाकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए आचार आदि को शास्त्र-वाचक भी माना है। स्थानाङ्ग में आक्षेपणी कथा के वे ही चार प्रकार बतलाये हैं जिनका उल्लेख नियुक्ति की उक्त गाथा में हुआ है। इसकी व्याख्या के शब्द भी हरिभद्र सूरि की उक्त व्याख्या से भिन्न नहीं हैं। अभयदेव सूरि ने मतान्तर का उल्लेख भी हरिभद्र सूरि के शब्दों में ही किया है। व्यवहार (३) के 'पन्नत्ति कुसले' की व्याख्या में वृत्तिकार ने प्रज्ञप्ति का अर्थ कथा किया है। भाष्यकार यहाँ एक बहुत ही रोचक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । क्षुल्लकाचार्य प्रज्ञप्ति-कुशल (कथा-कुशल) थे। एक दिन मुरुण्डराज ने पूछा----भगवन् ! देवता गतकाल को कैसे नहीं जानते, इसे स्पष्ट कीजिए ? राजा ने प्रश्न पूछा कि आचार्य यकायक खड़े हो गए। आचार्य को खड़ा होते देख राजा भी तत्काल खड़ा हो गया। आचार्य के पास क्षीराश्रवलब्धि थी। उन्होंने उपदेश प्रारम्भ किया। उनकी वाणी में दूध की मिठास टपक रही थी। एक प्रहर बीत गया। आचार्य ने पूछा--राजन् ! तुझे खड़े हुए कितना समय हआ है ? राजा ने उत्तर दिया--भगवन् ! अभी-अभी खड़ा हुआ हूँ। आचार्य ने कहा --एक प्रहर बीत चुका है। तू उपदेश-वाणी में आनन्द-मग्न हो गतकाल को नहीं जान सका, वैसे ही देवता भी गीत और वाद्य में आनन्द-विभोर होकर गतकाल को नहीं जानते । राजा अब निरुत्तर था। १३६, पढ़ने वाला ( अहिज्जगं ख ) : ___ इसका संस्कृत रूप 'अधीयान' किया गया है। धुणि और टीका का आशय यह है कि जो सम्पूर्ण दृष्टिवाद को पढ़ लेता है, वह भाषा के सब प्रयोगों का अभिज्ञ हो जाता है, इसलिए उसके बोलने में लिङ्ग आदि की स्खलना नहीं होती और जो वाणी के सब प्रयोगों को जानता है उसके लिए कोई शब्द अशब्द नहीं होता । वह अशब्द को भी सिद्ध कर देता है। प्राय: स्खलना वही करता है, जो दृष्टिवाद का अध्ययन पूर्ण नहीं कर पाता । दृष्टिवाद को पढ़ने वाला बोलने में चूक सकता है और उसे पढ़ चुका वह नहीं चूकता ---इस आशय को ध्यान में रखकर घूर्णिकार और टीकाकार ने इसे 'अधीयान' के अर्थ में स्वीकृत किया है। १-हा० टी० ५० ११० : आचारो-लोचास्नानादिः प्यवहारः-कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः प्रज्ञप्तिश्चैव--- संशयापन्नस्य मधुरवचनः प्रज्ञापना दृष्टिवादश्च–श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादि भावकथनम् । २-हा० टी० ५० ११० : अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगान्ते, आचाराद्यभिधानादिति । - ठा० ४.२४७ : आयारअक्खेवणी ववहारअक्खेवणी पन्नत्तिअक्खेवणी दिट्ठिवातअक्खेवणी। ४-व्य० भा० ४.३ १४५-१४६ । ५-(क) अ० चू० पृ० १६७ : दिढिवादमधिज्जगं-दिठ्विादमझयणपरं। (ख) हा० टी० प० २३६ : दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारकालकारकदिवेदिनम् । ६-(क) अ० चू० पृ० १६७ : अधीतेसव्ववातो गतविसारदस्स नत्थि खलितं । (ख) जि० चू० पू० २८६ : अधिज्जयगहणेण अधिज्जमाणस्स वयणखलणा पायसो भवइ, अधिज्जिए पुण निरवसेसे दिद्विवाए सम्वपयोयजाणगत्तणेण अप्पमत्तणेण य वतिविक्खलियमेव नत्थि, सब्ववयोगतवियाणया असहमवि सह कुज्जा। Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारपणही ( आचार - प्रणिधि ) १३७. बोलने में लित हुआ है ( वविश्सलिये ) : बालिका अर्थ है बोलने में होना जिनदास पूर्णि में इसके दो उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं कोई व्यक्ति 'घड़ा ला' के स्थान में 'घड़ा लाता हूँ' और 'सोमशर्मा' के स्थान में 'शर्मसोम' कहता है यह वाणी की स्खलना है' । इलोक ५०: १३८. श्लोक ५० : कोई व्यक्ति नक्षत्र आदि के विषय में पूछे तो उससे इस प्रकार कहना चाहिए कि 'यह हमारा अधिकार क्षेत्र नहीं है' इससे अहिंसा की सुरक्षा भी हो जाती है और अप्रिय भी नहीं लगता । क क १३. नक्षत्र ( नक्खत ): कृत्तिका आदि जो नक्षत्र हैं उनके विषय में आज चन्द्रमा अमुक नक्षत्र युक्त है - इस प्रकार गृहस्थ को न बताए । १४० स्वप्नफल ( सुमि स्वप्न का शुभ-अशुभ फल बताना* । क १४१. वशीकरण ( जोगं * ) ) ख ) ४१३ यहाँ योग का अर्थ है --- औषध' या खाद्य आदि पदार्थों के संयोग की विधि अथवा वशीकरण । संयोग की विधि, जैसे- दो पल घी, एक पल मधु, एक आढक दही, बीस काली मिर्च और दो भाग चीनी या गुड़- ये सब चीजें मिलाने से राजा के खाने योग्य 'रसालू' नामक पदार्थ बनता है। वशीकरण अर्थात् मन्त्र, चूर्ण आदि प्रयोगों से दूसरों को अपने वश में करना । १४२. निमित्त ( निमि निमित्त का अर्थ है अतीत, वर्तमान और भविष्य संवन्धी शुभाशुभ फल बताने वाली विद्या अध्ययन : श्लोक ५० टि० १४३ मन्त्र ( मंत ) : मन्त्र का अर्थ है - देवता या अलौकिक शक्ति की प्राप्ति के लिए जपा जाने वाला शब्द या शब्द-समूह । मंत्र के साथ विद्या का ग्रहण स्वतः प्राप्त है । ये वृश्चिक मंत्र आदि अनेक प्रकार के होते हैं । १ - जि० चू० पृ० २८६ : वायविक्खलियं नाम विविधमने गप्पगारं वइणं खलियं भण्णइ, जहा घडं आणेहित्ति (भाणियव्वे घड आगमति) भणियं याभिहाणं वा गच्छा उच्चारपद, जहा सोमसम्मोति भणियन् सम्मतोमोति भणियं च एवमादि वायविक्खलियं । ५- ४० पू० पृ० ११७ जोमो ओसहरुमा ६ (०) जि० १० पृ० २९० तताच प्रीतिपरिहाराभिवादअनधिकारोऽत्र तपस्विनामिति । २० टी० ० २३६ ३-० ० ० २०९ गत्यान पुयमाणान णो णवतं कन्जा, जहा चंदिमा अन्ज अमुकेण णश्वतं उत्तोति । जि० ४ (क) जि० ० चू० पृ० २८६ : सुमिणे अव्वत्तदंसणे । (ख) हा० टी० प० २२६ स्वप्नं शुभाशुभफलमनुभूतादि। (ख) हा० टी० प० २३६ : 'योगं' वशीकरणादि । १३७-१४३ अहवा निश्णवसीकरणानि जोगो मण्ण ७- जि० चू० पृ० २८६-२६० : जोगो जहा -दो घयपला मधु पलं दहियस्स य आढयं मिरीय वीसा । खंडगुला दो भागा एस रसालू निवइजोगो । ८ (क) जि० ० पृ० २६० निमित्त तीतादो । (ख) हा० टी० प० २३६ : 'निमित्तं' अतीतादि । (क) जि० ० ० २६० मंतो असाहको एगगह गहणं सजातीयाण मितिका विशा महिला पृ० : । (ख) हा० टी० प० २३६ : 'मन्त्र' वृश्चिकमंत्रादि । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशवेकालिक) १४४. जीवों की हिंसा के ( भूयाहिगरणं प ) : एकेन्द्रिय आदि भूत कहलाते हैं । उन पर संघट्टन, परितापन आदि के द्वारा अधिकार करना उनका हनन करना, 'भूताधिकरण' कहलाता है'। ४१४ श्लोक ५१ अध्ययन ८ श्लोक ५१-५२ टि० १४४-१४८ १४५. दूसरों के लिए बने हुए ( अन्नट्ठे पगडं क ) : अन्यार्थ -- प्रकृत अर्थात् साधु के अतिरिक्त किसी दूसरे के लिए बनाया हुआ । यहाँ अन्यार्थ शब्द यह सूचित करता है कि जिस प्रकार गृहस्थों के लिए बने हुए घरों में साधु रहते हैं, उसी प्रकार अन्य तीर्थिकों के लिए निर्मित वसति में भी साधु रह सकते हैं । १४६. गृह ( लयणं ) : 'लयन' का अर्थ है पर्वतों में उत्खनित पाषाण- गृह । जिसमें लीन होते हैं, उसे लयन कहा जाता है । लयन और घर एक अवाले हैं। १४७. स्त्री और पशु से रहित ( इत्यपविज्जियं प ) यहाँ स्त्री, पशु के द्वारा नपुंसक का भी ग्रहण होता है । विवर्जित का तात्पर्य है जहां ये दीखते हों वैसे मकान में साधु को नहीं रहना चाहिए । श्लोक ५२ : ख ): १४८. केवल स्त्रियों के बीच व्याख्यान न दे ( नारीणं न लवे कहूं 'नारीणं' यह षष्ठी का बहुवचन है। इसके अनुसार इस चरण का अर्थ होता है— स्त्रियों की कथा न कहे अथवा स्त्रियों को कथा न कहे । अगस्त्य वर्ण के अनुसार इसका अर्थ है-मुनि जहाँ विविक्त शय्या में रहता है वहाँ अपनी इच्छा से आई हुई स्त्रियों को शृङ्गारसम्बन्धी कथा न कहे। जिनदास घूर्णि और टीका में इसका अर्थ है-मुनि स्त्रियों को कथा न कहे । हरिभद्र ने इस अर्थ का विचार १- (क) अ० चू० पृ० १९७ : भूताणि उपरोधक्रियाए अधिकयंते जम्मि तं भूताधिकरणं । (ख) जि० ० पृ० २६० भूतानि एडियाई लेसि संघट्टयरितारणादीनि अहियं कोरंति मि तं भूताधिकरणं । (ग) हा० टी० १० २३६ भूतानिएकेन्द्रियादीनि संघट्टनादिनाऽधिकरमन्निति । 'अर्थ' न सानिमित्तमेव नित्तितम् । २ हा० डी० १० २३६ २००० २६० अन्नग्रहण अन्नत्यागहिया, अडाए नाम अन्ननिमित्तं पगडं कवि भण ४ – (क) अ० चू० पृ० १६८ : लीयंते जम्मि तं लेणं णिलयणमाश्रयः । (ख) हा० टी० प० २३६ : 'लयनं' स्थानं वसतिरूपम् । ५- जि० चू० पृ० २६० : लयणं नाम लयणंति वा गिर्हति वा एगट्ठा । ६ (क) जि० ० ० २१० तहा इत्यहि पहिय महीयवादी एवम गहणं सजातीयाण मितिकाउं णपुंसगविवज्जियंपि, विवज्जियं नाम जत्थ तेसि आलोयमादीणि णत्थि तं विवज्जियं भण्णइ, तत्थ आतपर समुत्था दोसा भवंतित्तिकाउं ण ठाइयव्वं । (ख) हा० टी० १० २३७ स्त्रोत सावलोकन विरहितम् । ७- अ० चू० तत्थ जतिच्छोवगताण वि नारीणं सिंगारातिगं विसेसेणग कधे कहं । (क) जि० ० ० २२० तोए विविताए जाए गारीणं णो कह कहेगा कि कहा कि कारणं आतपरसमुत्या बंभचेरस्स दोसा भवंतित्तिकाउं । (ख) हा० टी० प० २३७ विविक्ता च तदन्यापुनी रहिता च चदारावाविवभुजगायेकपुरुषदुक्ता च भवेच्छय्याबतियंदितो 'नारीणां स्त्रीणां न चयेत्कचादोषप्रसङ्गात्। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारपणही ( आचार - प्रणिधि ] ४१५ अध्ययन ८ श्लोक ५३ टि० १४१-१५२ करते हुए लिखा है- औचित्य देखकर पुरुषों को कथा कहनी चाहिए और स्थान अविविक्त हो तो स्त्रियों को भी कथा कहनी चाहिए'। स्थानासूत्र के प्रतिकार अभयदेवसूरि ने ब्रह्मचर्य की नीतियों के वर्णन में जो कह कहेता भन के दो अर्थ किए है- (१) केवल स्त्रियों को कथा न कहे (२) स्त्रियों के रूपादि से सम्बन्ध रखने वाली कथा न कहे। समवायाङ्ग सूत्र की वृत्ति में उन्होंने 'स्त्रियों को कथा न कहे ऐसा एक ही अर्थ माना है । मूल आगम में इसका एक अर्थ और भी मिलता है नारीजनों के मध्य में शृंगार और करुणापूर्वक कथा नहीं करनी चाहिए। अगस्त्य सिंह स्थविर का अर्थ इसीका अनुगामी है और आगे चल कर उन्होंने 'स्त्रियों को कथा न कहे - यह अर्थ भी मान्य किया है । देखिए अगली का पाद-टिप्पण १४. गृहस्थों से परिचय न करे, साधुओं से करे (सिंघवं न कुज्जा ग. साहू संघ ) : संस्तव का अर्थ संसर्ग या परिचय है। स्नेह आदि दोषों की संभावना को ध्यान में रखकर गृहस्थ के साथ परिचय करने का निषेध किया है और कुशल पक्ष की वृद्धि के लिए साधुओं के साथ संसर्ग रखने का उपदेश दिया है। श्लोक ५३ : १५० लोक ५३ शिष्य ने पूछा भगवन् ! विविक्त स्थान में स्थित मुनि के लिए किसी प्रकार आई हुई स्त्रियों को कथा कहने का निषेध हैइसका क्या कारण है ? आचार्य ने कहा- वत्स ! तुम सही मानो, चरित्रवान् पुरुष के लिए स्त्री बहुत बड़ा खतरा है । शिष्य ने पूछा – कैसे ? इसके उत्तर में आचार्य ने जो कहा वही इस श्लोक में वर्णित है । १५१. बच्चे को ( पोयस्स क ) : पोत अर्थात् पक्षी का बच्चा, जिसके पंख न आएं हो" । १५२. स्त्री के शरीर से भय होता है ( इत्थोविग्गहओ भयं ): विग्रह का अर्थ शरीर है"। 'स्त्री से भय है' ऐसा न कहकर 'स्त्री के शरीर से भय है' ऐसा क्यों कहा? इस प्रश्न का उत्तर हैमहावारी को स्त्री के सजीव शरीर से ही नहीं, किन्तु मृत शरीर से भी है यह बताने के लिए 'स्त्री के शरीर से भय है' यह कहा है। १ हा० टो प० २३७ : औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति । २- ठा० ६.३ वृ० : नो स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते 'कथां' धर्मदेशना दिलक्षणवाक्यप्रतिबन्धरूपां यदि वा -' कर्णाटी सुरतोपचार कुशला, लाटी विदग्धप्रिया' इत्यादिकां प्रागुक्तां वा जात्या देचातूरूपां कथयिता तत्कथको भवति ब्रह्मचारीति । ३ - सम० वृ० प० १५ : नो स्त्रीणां कथा: कथयिता भवतीति । ४ -प्रश्न संवरद्वार ४ : 'वितियं नारीजणस्स मज्भे न कहेयब्बा कहा विचित्ता ५- हा० टी० प० २३७ : 'गृहिसंस्तव' गृहिपरिचयं न कुर्यात्, तत्स्नेहादिदोषसंभवात् । कुर्यात्साधुभिः सह 'संस्तवं' परिचयं, कल्याण मित्रयोगेन कुशलपक्षवृद्धिभावतः । ६ - अ० चू० पृ १९८ : को पुण निबंधों जं विवित्तलपणत्थितेणावि कहंचि उपगताण नारीण कहा ण कथणीया । भण्णति, वत्स ! नणु चरितवतो महाभयमिदं इत्थी णाम, कहं । ७- जि० ० चू० पृ० २६१ : पोतो णाम अपक्खजायओ । ८ (क) जि० चू० पृ० २६१ : विग्गहो सरीरं भण्णइ । (ख) हा० टी० प० २३७ : 'स्त्रीविग्रहात्' स्त्रीशरीरात् । ह - ( क ) (क) जि० चू० पृ० २९१ आह समवायो भयं किन्तु , (ख) हा० डी० प० २३७ इत्यीओ भयंति माणिपव्वेता किमत्थं विग्गहगहणं कथं ?, भण्णइ न केवलं सज्जीवईगतजीवाद सरीरं ततोऽनि भयं भव, अओ वह कांति । ग्रहणं मृतविग्रहादपि भत्यापनार्थमिति । I Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक ) ४१६ अध्ययन:श्लोक ५४-५६ टि०१५३-१५८ श्लोक ५४: १५३. चित्र-भित्ति ( चित्तभित्तिक): जिस भित्ति पर स्त्री अकित हो, उसे यहाँ 'चित्र-भित्ति' कहा है। १५४. आभूषणों से सुसज्जित ( सुअलंकियं ख ) : सु-अलंकृत अर्थात् हार, अर्ध हार आदि आभूषणों से सज्जित । श्लोक ५५ १५५. ( विगप्पियं ख): विकल्पित अर्थात्--कटा हुआ । टीका में 'कर्णनासाविकृत्ताम्' इति विकृत्त कर्ण नासाम्'--है । इसके आधार पर 'कण्णनास विकट्टियं' या 'विगत्तियं' पाठ की कल्पना की जा सकती है । विकट्टिय-विकृत कटा हुआ । १५६. ( अवि ग ): ___ यहाँ 'अपि' शब्द संभावना के अर्थ में है । संभावना —जैसे जिसे हाथ, पाँव कटी हुई सौ वर्ष की बुढ़िया से दूर रहने को कहा है, वह स्वस्थ अंग वाली तरुण स्त्री से दूर रहे.-इसकी कल्पना सहज ही हो जाती है । श्लोक ५६ : १५७. आत्मगवेषी ( अत्तगवेसिस्स ग ) : दुर्गति-गमन, मृत्यु आदि आत्मा के लिए अहित हैं। जो व्यक्ति इन अहितों से आत्मा को मुक्त करना चाहता है --आत्मा के अमर स्वरूप को प्राप्त होना चाहता है, उसे 'आत्मगवेषी' कहा जाता है । जिसने आत्मा के हित की खोज की उसने आत्मा को खोज लिया। आत्म-गवेषणा का यही मूल मंत्र है। १५८. विभूषा ( विभूसा क ) : स्नान, उद्वर्तन, उज्ज्वल-वेष आदि-ये सब विभूषा कहलाते हैं । १- (क) अ० चू० पृ० १९८ : जत्थ इत्थी लिहिता तहाविध चित्तभित्ति....। (ख) जि० चू० पृ० २६१ : जाए भित्तीए चित्तकया नारी तं चित्तभित्ति । २-(क) जि० चू० पृ० २६१ : जीवंति च जाहे सोभणेण पगारेण हारद्धहाराईहिं अलंकिया दिट्टा भवइ ताहे तं नारि सुयलकितं तं । (ख) हा० टी०प० २३७ : नारी वा सचेतनामेव स्वलङ्कृताम्, उपलक्षणमेतदनलकूतां च न निरीक्षेत । ३-जि० चू० पृ० २६१ : अणेगष्पगारं कप्पिया जीए सा कन्ननासाविकप्पिया। ४–हा० टी०प० २३७ ॥ ५- पाइयसद्दमहण्णव पृ० ६६० । ६ --जि. चू० पृ० २६१ : अविसद्दो संभावणे वट्टइ, कि संभावयति ?, जहा जइ हत्यादिछिन्नावि वाससयजीवी दूरओ परिवज्ज णिज्जा, कि पुण जा अपलिच्छिन्ना वयत्था वा ?, एयं संभावयति । ७-(क) जि० ० ० २६२ : अत्तगवे सिणो, अहवा मरणभयभीतस्स अत्तणो उवायगवेसित्तेण अता सुटठु वा गवेसियो जो एएहितो अप्पाणं विमोएइ। (ख) हा० टी०प० २३७ : 'आत्मगवेसिण' आत्महितान्वेषणपरस्य । ८-अ० चू० पृ० १६६ : अप्पहितगवेसणेण अप्पा गविट्ठो भवति । ६-(क) जि० चू० पृ० २६१ : विभूसा नाम ण्हाणुव्वलणउज्जलवेसादी । (ख) हा० टी०प० २३७ : 'विभूसा' वस्त्रादिराढा । Jain Education Intemational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ४१७ अध्ययन ८ : श्लोक ५६ टि० १५६ १५६. प्रणीत-रस (पणीयरस ख): इसका शब्दार्थ है--रूप, रस आदि युक्त अन्न', व्यञ्जन । पिण्डनियुक्ति में 'प्रणीत' का अर्थ गलत्स्नेह (जिससे घृत आदि टपक रहा हो वैसा भोजन) किया है। नेमिचन्द्राचार्य ने 'प्रणीत' का अर्थ अतिबृहक–अत्यन्त पुष्टिकर किया है। प्रश्नव्याकरण में प्रणीत और स्निग्ध भोजन का प्रयोग एक साथ मिलता है। इससे जान पड़ता है कि प्रणीत का अर्थ केवल स्निग्ध ही नहीं है, उसके अतिरिक्त भी है । स्थानाङ्ग में भोजन के छह प्रकार बतलाए हैं -मनोज्ञ, रसित, प्रीणनीय, बहणीय, दीपनीय और दर्पणीय'। इनमें बृहणीय (धातु का उपचय करने वाला या बलवर्द्धक) और दर्पणीय (उन्मादकर या मदनीय-कामोत्तेजक) जो हैं उन्हीं के अर्थ में प्रणीत शब्द का प्रयोग हुआ है। ऐसा हमारा अनुमान है। इसका समर्थन हमें उत्तराध्ययन (१६.७) के 'पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्ढणं' इस वाक्य से मिलता है । प्रणीत-भोजन का त्याग ब्रह्मचर्य की सातवीं गुप्ति है । एक ओर प्रस्तुत श्लोक में प्रणीतरस भोजन को ब्रह्मचारी के लिए ताल-पुट विष कहा है, दूसरी ओर मुनि के लिए विकृति-दूध, दही, घृत आदि का सर्वथा निषेध भी नहीं है। उसके लिए बार-बार विकृति को त्यागने का विधान मिलता है । मुनिजन प्रणीत-भोजन लेते थे, ऐसा वर्णन आगमों में मिलता है। भगवान महावीर ने भी प्रणीत-भोजन लिया था । आगम के कुछ स्थलों को देखने पर लगता है कि मुनि को प्रणीत-भोजन नहीं करना चाहिए और कुछ स्थलों को देखने पर लगता है कि प्रणीत-भोजन किया जा सकता है। यह विरोधाभास है। इसका समाधान पाने के लिए हमें प्रणीत-भोजन के निषेध के कारणों पर दृष्टि डालनी चाहिए। प्रणीत भोजन मद-वर्धक होता है, इसलिए ब्रह्मचारी उसे न खाए" । ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांचवीं भावना (प्रश्नव्याकरण के अनुसार) प्रणीत-स्निग्ध भोजन का विवर्जन है। वहाँ बताया है कि ब्रह्मचारी को दर्पकर-मदवर्धक आहार नहीं करना चाहिए, बार-बार नहीं खाना चाहिए, प्रतिदिन नहीं खाना चाहिए, शाक-सूप अधिक हो वैसा भोजन नहीं खाना चाहिए, डटकर नहीं खाना चाहिए। जिससे संयम-जीवन का निर्वाह हो सके और जिसे खाने पर विभ्रम (ब्रह्मचर्य के प्रति अस्थिर भाव) और ब्रह्मचर्य-धर्म का भ्रश न हो वैसा खाना चाहिए । उक्त निर्देश का पालन करने वाला प्रणीत-भोजन विरति की भावना से भावित होता है१२ प्रणीत की यह पूर्ण परिभाषा है । उक्त प्रकार का प्रणीत-भोजन उन्माद बढ़ाता है, इसलिए उसका निषेध किया गया है। किन्तु जीवन-निर्वाह के लिए स्निग्ध-पदार्थ आवश्यक हैं, इसलिए उनका भोजन विहित भी है । मुनि का भोजन संतुलित होना चाहिए । ब्रह्मचर्य की दृष्टि से प्रणीत-भोजन का त्याग और जीवन-निर्वाह की दृष्टि से उसका स्वीकार-ये दोनों सम्मत हैं । जो श्रमण प्रणीत-आहार और तपस्या का संतुलन नहीं रखता उसे भगवान् ने पाप-श्रमण कहा है और प्रणीत-रस के भोजन को तालपुट-विष कहने का आशय भी यही है । १-अ० चि० स्वोपज्ञ टीका ३.७७ पृ० १७० : 'प्रणीतमुपसंपन्नं'-प्रणीयतेस्म प्रणीतं रूपरसादिनिष्पन्नमन्नम् । २-हल० पृ० ४५२ : पाकेन रूपरसादिसंम्पन्नं व्यञ्जनादि । ३-पि० नि० गाथा ६४५ : जं पुण गलंतनेह, पणीयमिति तं बुहा बेंति, वृत्ति-यत् पुनर्गलत्स्नेह भोजनं तत्प्रणीत, 'बुधाः तीर्थकृदादयो ब्रुवते। ४–उत्त० ३०.२६ ने वृ० पृ० ३४१ : 'प्रणीतम्' अतिबृहकम् । ५-प्रश्न संवरद्वार ४ : आहारपणीयनिद्धभोयण विवज्जते । ६-ठा० ६.१०६ : छविहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा-मणुन्ने, रसिए, पीणणिज्जे, बिहणिज्जे, मयणिज्जे, दप्पणिज्जे । ७-उत्त० १६.७ : नो पणीयं आहारं आहरित्ता हवइ से निग्गन्थे। ८-दश० चू० २.७ : अभिक्खणं निविगई गया य । &-अन्त० ८.१। १०-भग० १५ । ११-उत्त० १६.७ । १२-प्रश्न संवरद्वार ४ : 'ण दप्पणं, न बहुसो, न नितिक, न सायसूपाहिक, न खद्ध', तहा भोत्तव्वं जहा से जायामायाए भवइ, न य भवइ विन्भमो न भंसणा य धम्मस्स । एवं पणीयाहारविरति समितिजोगेण भावितो भवति । १३-उत्स० १७.१५ : दुद्धबहीविगईओ, आहारेह अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४१८ अध्ययन ८ : श्लोक ५७-५८ टि० १६०-१६४ १६०. तालपुट-विष ( विसं तालउडं घ )। तालपुट अर्थात् ताल (हथेली) संपुटित हो उतने समय में भक्षण करने वाले को मार डालने वाला विष-तत्काल प्राणनाशक विष । जिस प्रकार जीविताकाङ्क्षी के लिए तालपुट विष का भक्षण हितकर नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मचारी के लिए विभूषा आदि हितकर नहीं होते। श्लोक ५७: १६१. अङ्ग, प्रत्यङ्ग, संस्थान ( अंगपच्चंगसंठाणं क): हाथ-पैर आदि शरीर के मुख्य अवयव 'अङ्ग' और आँख, दांत आदि शरीर के गौण अवयव 'प्रत्यङ्ग' कहलाते हैं । चूर्णिद्वय में संस्थान स्वतंत्र रूप में और अङ्ग-प्रत्यङ्गों से सम्बन्धित रूप में भी व्याख्यात हैं, जैसे-(१) अङ्ग, प्रत्यङ्ग और संस्थान, (२) अङ्ग और प्रत्यङ्गों के संस्थान । संस्थान अर्थात् शरीर की आकृति, शरीर का रूप । १६२ कटाक्ष (पेहियं ख): प्रेक्षित अर्थात् अपाङ्ग-दर्शन-कटाक्ष । श्लोक ५८: १६३ परिणमन को ( परिणाम घ): परिणाम का अर्थ है वर्तमान पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय में जाना, अवस्थान्तरित होना । शब्द आदि इन्द्रियों के विषय मनोज्ञ और अमनोज्ञ होते रहते हैं । जो मनोज्ञ होते हैं वे विशेष मनोज्ञ या अमनोज्ञ हो जाते हैं और जो अमनोज्ञ होते हैं वे विशेष अमनोज्ञ या मनोज्ञ हो जाते हैं। इसीलिए उनके अनित्य-स्वरूप के चिन्तन का उपदेश दिया गया है। १६४. राग-भाव न करे ( पेमं नाभिनिवेसएख): प्रेम और राग एकार्थक हैं। जिस प्रकार मुनि मनोज्ञ विषयों में राग न करे, उसी प्रकार अमनोज्ञ विषयों से द्वेष भी न करे। १-(क) जि० चू०प० २९२ : तालपुडं नाम जेणंतरेण ताला संपुडिज्जति तेणंतरेण मारयतीति तालपडं, जहा जीवियकंखिणो नो तालपुडविसभक्खणं सुहावहं भवति तहा धम्मकामिणो नो विभूसाईणि सुहावहाणि भवंतित्ति। (ख) हा० टी० प० २३७ : तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितम् । २-(क) अ० चू०१०१६६ : अंगाणि हत्थापीणं, पच्चंगाणि णयणदंसणादीणि, संठाणं समचतुरंसादिसरीररुवं । अहवा अंगपच्चंगाणि संठाणं अंगपच्चंगसंठाणं । (ख) जि० चू०प० २९२ : अंगाणि हत्थपायादीणि, पच्चंगाणि णयणदसणाईणि, संठाणं समचउरसाई. अहवा तेसि चेव अंगाणं पच्चंगाण य संठाणगहणं कयंति । (ग) हा० टी०प० २३७ : अङ्गानि-शिरः प्रभृतीनि प्रत्यङ्गानि-नयनादीनि एतेषां संस्थानं-विन्यासविशेषम् । ३–अ० चू० पृ० १९६ : पेहितं सावंग णिरिक्खणं । ४-(क) जि. चू०प० २६२-२६३ : ते चेव सुबिभसद्दा पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा पोग्गला सुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, ण पुण जे मणुन्ना ते मणुन्ना चेव भवंति, अमणुन्ना वा अच्चतमणुन्ना एव भवंति, एवं रूवादिसुवि भाणियन्वं । (ख) हा० टी०प० २३७ : 'परिणाम' पर्यायान्तरापत्तिलक्षणं, ते हि मनोज्ञा अपि सन्तो विषयाः क्षणादमनोज्ञतया परिणमन्ति अमनोज्ञा अपि मनोज्ञतया। ५-(क) जि० चू० पृ० २६२ : पेमं नाम पेमंति वा रागोत्ति वा एगठ्ठा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं अमणुन्नेसुवि दोसं न गच्छेज्जा। (ख) हा० टी०प०२३७ : 'प्रेम' रागम् । Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिही ( आचार - प्रणिधि) १६६. ( जाए क १६५. उपशान्त कर ( सीईभूएण ) शीत का अर्थ है उपशान्त' । क्रोध आदि कषाय को उपशान्त करने वाला 'शीतीभूत' कहलाता हैं । श्लोक ६० घ ): जिस अर्थात् प्रब्रजित होने के समय होने वाली (श्रद्धा) से । ** श्लोक ५६ : अध्ययन : इलोक ५९-६१ टि० १६५-१७० १६७. श्रद्धा से ( सद्धाए क ) : धर्म में आदर, मन का परिणाम और प्रधान गुण का स्वीकार श्रद्धा के ये विभिन्न अर्थ किए गए हैं। इन सबको मिलाकर निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है— जीवन विकास के प्रति जो आस्था होती है, तीव्र मनोभाव होता है वही 'श्रद्धा' है । ) १६८. उस श्रद्धा को ( तमेव अगस्त्य चूर्णि और टीका के अनुसार यह श्रद्धा का सर्वनाम है और जिनदास घूणि के अनुसार पर्याय स्थान का" । आचाराङ्ग वृत्ति में इसे श्रद्धा का सर्वनाम माना है । १६. आचार्य सम्मत ( आयरियसम्मए प ) : 1 आचार्य-सम्म अर्थात् तीर्थकर गणधर आदि द्वारा अनुमत" यह गुण का विशेषण है टीका में उल्लिखित मतान्तर के अनुसार यह श्रद्धा का विशेषण है | श्रद्धा का विशेषण मानने पर दो चरणों का अनुवाद इस प्रकार होगा - आचार्य सम्मत उसी श्रद्धा का अनुपालन करे" । श्लोक ६१: १७०. ( सूरे व सेणाए ) : जिस प्रकार शस्त्रों से सुसज्जित वीर चतुरङ्ग (घोड़ा, हाथी, रथ और पदाति) सेना से घिर जाने पर अपना और दूसरों का संरक्षण अ० पू० पृ० २०० सीतभूतेन सीतो उसंतो, जया निष्णो देवो, अतो सोतभूतेण उवसंतेन । २- हा० डी० प० २३८ 'शीतीभूतेन' फोपाययुपमात्प्रशान्तेन । ३ - अ० चू० पृ० २०० : जाएत्ति निक्खमणसमकालं भण्णति । ४ - अ० चू० पृ० २०० : सद्धा धम्मे आयरो । ५- जि० चू० पृ० २९३ : सद्धा परिणामो भण्णइ । ६ हा० टी० प० २३८ 'श्रद्धा' प्रधानगुणस्वीकरणरूपया । : सद्ध ं पव्वज्जासमकालिण अणुपालेज्जा । ७ - ( क ) अ० चू० : तं (ख) हा० टी० प० २३८ : तामेव श्रद्धामप्रतिपत्तितया प्रवर्द्धमानाम् । ८. जि० ० ० २९३ तमेव परिवाणं । -आ० ११३५ : ' जाए सद्धाए निक्खतो तमेव अणुपालिज्जा, वृ० यया श्रद्धया प्रवर्धमानसयमस्थानकण्डकरूपया 'निष्क्रान्तः ' गृहीतवान् तामेव श्रद्धानन्तरजीवम् 'अनुपालयेत्'– रक्षेत् । १० नि० ० ० २२३ - आवरिया नाम तित्मकरगणधराई तेसि संगए नाम संमजोति वा अनुमति बा एगट्ठा । ११ हा० टी० १० २३८ जन्ये तु द्वाविशेषणमेतदिति व्याचलते तामेव बडामनुपालये गुणेषु भूताम् ? आचार्यसंमतां न तु स्वाग्रहकलङ्कितामिति । 1 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलयं ( दशवकालक) ४२० अध्ययन ८:श्लोक ६२ टि०१७१-१७६ करने में समर्थ होता है उसी प्रकार जो मुनि तप, संयम आदि गुणों से सम्पन्न होता है, वह इन्द्रिय और कषाय रूप सेना से घिर जाने पर अपना और दूसरों का बचाव करने में समर्थ होता है'। १७१. ( अलं परेसिप): 'अलं' का एक अर्थ विधारण- रोकना भी है। इसके अनुसार अनुवाद होगा कि आयुधों से सुसज्जित वीर अपनी रक्षा करने में समर्थ और पर अर्थात् शत्र ओं को रोकने वाला होता है। १७२. संयम-योग ( संजमजोगयं क ): जीवकाय-संयम, इन्द्रिय-संयम, मन:-संयम आदि के समाचरण को संयम-योग कहा जाता है । इससे सतरह प्रकार के संयम का ग्रहण किया है। १७३. स्वाध्याय-योग में ( सज्झायजोगं ख ): _____ स्वाध्याय तप का एक प्रकार है । तप का ग्रहण करने से इसका ग्रहण सहज ही हो जाता है किन्तु इसकी मुख्यता बताने के लिए यहाँ पृथक् उल्लेख किया है । स्वाध्याय बारह प्रकार के तपों में सब से मुख्य तप है। इस अभिमत की पुष्टि के लिए अगस्त्यसिंह ने एक गाथा उद्धृत की है : बारसविहम्मि वि तवे, सभितरबाहिरे कुसलदिट्ठ। न वि अस्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ (कल्पभाष्य गा० ११६६) १७४. प्रवृत्त रहता है ( अहिट्ठए ख ) : ___टीका में 'अहिट्ठए' का संस्कृत रूप 'अधिष्ठाता' है। किन्तु 'तवं' आदि कर्म हैं, इसलिए यह 'अहिट्ठा' धातु का रूप होना चाहिए। १७५. आयुधों से सुसज्जित ( समत्तमाउहे ग ) : यहाँ मकार अलाक्षणिक है । जिसके पास पाँच प्रकार के आयुध होते हैं, उसे 'समाप्तायुध' (आयुधों से परिपूर्ण) कहा जाता है। श्लोक ६२ १७६. ( सि "): 'सि' शब्द के द्वारा साधु का निर्देश किया गया है। १--जि० चू० पृ० २६३ : जहा कोई पुरिसो चउरंगबलसमन्नागताए सेणाए अभिरुद्धो संपन्नाउहो असं (सूरो अ) सो अप्पाणं परं च ताओ संगामाओ नित्थारेउंति, अलं नाम समत्थो, तहा सो एवंगुणजुत्तो अलं अप्पाणं परं च इंदियकसायसेणाए अभिरुद्धं नित्थारेउंति । २–अ० चू०प० २०० : अहवा अलं परेसि, परसद्दो एत्थ सत्तू सु वट्टति, अलं सद्दो विधारणे । सो अलं परेसिं धारणसमत्थो सत्तूण। ३–(क) अ० चू० पृ० २०० : सत्तरसविधं संजमजोगं । (ख) हा० टी०प० २३८ : 'संयमयोग' पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं । ४.- (क) जि० चू० पृ० २६३ : णणु तवगहणेण सज्झाओ गहिओ ?, आयरिओ आह-सच्चमेयं, किंतु तबभेवोपरिसणत्थं सज्झायगहणं कयं । (ख) हा० टी०प० २३८ : इह च तपोऽभिधानात्तद्ग्रहणेऽगि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनाभिधानम् । ५-हा० टी०प० २३८ : 'अधिष्ठाता' तपः प्रभृतीनां कर्ता । ६-अ० चू० पृ० २०१ : पंचवि आउधाणि सुविहिताणि जस्स सो समत्तमायुधा। ७-जि० चू० पृ० २६४ : सित्ति साहुणो निद्देसो । Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवारपणही ( आचार - प्रणिधि ) क १७७. सद्ध्यान में ( सज्ज्ञान ): ध्यान के चार प्रकार हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । इनमें धर्म्य और शुक्ल ये दो सद्ध्यान हैं' । १७८. मल ( मलंग ) : 'मल' का अर्थ हूँ पाप' । अगस्त्य भ्रूण में 'मलं' के स्थान में 'रयं' पाठ है। अर्थ की दृष्टि से दोनों समानार्थक हैं । 3 इलोक ६३ : ४२१ १७६. ( विरायई कम्मघणम्मि अवगए अगस्त्य चूर्णि में इसके स्थान में 'विसुज्झती पुव्वकडेण कम्मुणा' और जिनदास भ्रूण में 'विमुच्चइ पुण्वकडेण कम्मुणा' पाठ है । इनका अनुवाद क्रमश: इस प्रकार होगा- पूर्वकृत कर्मों से विशुद्ध होता है, पूर्वकृत कर्मों से विमुक्त होता है । १८०. ( चंदिमा ध ) : व्याख्याओं में इसका अर्थ चन्द्रमा है, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से चन्द्रिका होता है । १८२. ममत्व-रहित ( अममे ) : १८१. दुःखों को सहन करने वाला ( दुक्खसहे क ) दुःखसह का अर्थ है शारीरिक और मानसिक दुःखों को सहन करने वाला या परीषहों को जीतने वाला । जिसके ममकार - मेरापन नहीं होता, वह 'अमम' कहलाता है" । अध्ययन श्लोक ६३ टि० १७७-१८४ ८ : १८३. अकिञ्चन ( अकिंचणे ख ) : जो हिरण्य आदि द्रव्य किचन और मिथ्यात्व आदि भाव-किचन से रहित होता है, वह 'अकिञ्चन' कहलाता है। १८४. अभ्रपटल से वियुक्त ( अम्भपुडायगमे ) : अभ्रपुट का अर्थ —‘बादल के परत' है । भावार्थ की दृष्टि से हिम, रज, तुषार, कुहासा – ये सब अभ्रपुट हैं। अभ्रपुट का अपग अर्थात् बादल आदि का दूर होना" शरद ऋतु में आकाश बादलों से वियुक्त होता है, इसलिए उस समय का चांद अधिक निर्मल होता है। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है - शरद ऋतु के चन्द्रमा की तरह शोभित होता है" । १ (क) उत्त० २०.३५ अहरुदाणि बज्जिता भाज्या मुसमाहिए। धम्मसुक्का झाणाई (ख) अ० चू० पृ० २०१ : सज्झाणे धम्मसुक्के । २ -- जि० ० चू० पृ० २६४ : मलंति वा पावंति वा एगट्ठा । ३- अ० ० पृ० २०१ : विसुज्झती जं से रयं पुरेकडं ४- अ० चू० पृ० २०१; जि० चू० पृ० २६४ : चंदिमा चन्द्रमाः । ५ - हैम० ८.१.१८५ चन्द्रिकायां मः । ६-० ० ० २०१ 'दुःसहः' परीषहजेता । וי दुष्यं सारीरमानसं राहतीत दुसहो। रयो मलो पावमुच्यते । ७- हा० टी० प० २३८ ८ - अ० चू० पृ० २०१ : णिम्ममते अममे । १ वि० ० ० २६४ दव्यकवणं हिरणादि भाषकच मिच्छत्तअविरतोमादि तं दचिणं नाव व जस्त गरिब सो अणि। १०-२० ० पृ० २०१ ११- अ० चू० पृ० २०१ अमरस बलाहादि अन्यडस अवगमोहिमरजोतुसारमिमायण व अवगम जधा सरदि विगतघणे णभसि संपुष्णमंडलो ससि सोभते तथा सो भगवं । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं विणसमाही ( पढमो उद्देसो ) नवम अध्ययन विनय-समाधि ( प्र० उद्देशक ) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इसलिए विनय का प्रयोग करना चाहिए'। अर्थ केवल नम्रता ही नहीं है । नम्र भाव धर्म का मूल है 'विनय' और उसका परम है 'मोक्ष'" । विनय तप है और तप धर्म है, जैन आगमों में 'विनय' का प्रयोग आचार व उसकी विविध धाराओं के अर्थ में हुआ है। विनय का आचार की एक धारा है। पर विनय को नम्रता में ही बाँध दिया जाए तो उसकी सारी व्यापकता नष्ट हो जाती है। जैन धर्म वैनयिक (नमस्कार, नम्रता को सर्वोपरि मानकर चलने वाला) नहीं है। वह प्राचार प्रधान है। सुदर्शन ने थावच्चापुत्त अणगार से पूछा- "भगवन् ! के धर्म का मूल क्या है ?" थावच्चापुत्त ने कहा- "सुदर्शन ! हमारे घर्म का मूल विनय है। वह विनय दो प्रकार का है- ( १ ) ग्रागार - विनय (२) अणगार - विनय । पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ यह श्रागार - विनय है। पांच महाव्रत, अठारह पाप-विरति रात्रिभोज - विरति, दशविध प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमाएँ यह अणगार विनय है।" प्रस्तुत अध्ययन का नाम विनय-समाधि है । उत्तराध्ययन के पहले अध्ययन का नाम भी यही है। इनमें विनय का व्यापक निरूपण है। फिर भी विनय की दो धाराएं अनुशासन और नम्रता अधिक प्रस्फुटित हैं। विनय अंतरंग तप है। गुरु के आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, ग्रासन देना, भक्ति और सुश्रूषा करना विनय है । प्रोपपातिक सूत्र में विनय के सात प्रकार बतलाए हैं। उनमें सातवां प्रकार उपचार - विनय है । उक्त श्लोक में उसी की व्याख्या है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वाणी और काय का विनय ये छह प्रकार शेष रहते हैं । इन सबके साथ विनय की संगति उद्धत भाव के त्याग के अर्थ में होती है । उद्धत भाव और अनुशासन का स्वीकार – ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते । श्राचार्य और साधना के प्रति जो नम्र होता है वही प्राचारवान् बन सकता है। इस अर्थ में नम्रता याचार का पूर्णरूप है । विनय के अर्थ की व्यापकता की पृष्ठभूमि में यह दृष्टिकोण अवश्य रहा है। ata साहित्य में भी विनय व्यवस्था, विधि व अनुशासन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध भिक्षुत्रों के विधि-ग्रन्थ का नाम इसी प्रर्थं में 'विनयपिटक' रखा गया है। प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं। आचार्य के साथ शिष्य का वर्तन कैसा होना चाहिए- - इसका निरूपण पहले में है । "अणंतनाणोवगयो वि संतो " - - शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाए तो भी वह प्राचार्य की आराधना वैसे ही करता रहे जैसे पहले करता था यह है विनय का उत्कर्ष । जिसके पास धर्म-पद सीखे उसके प्रति विनय का प्रयोग करे मन, वाणी और शरीर से नम्र रहे ( श्लोक १२ ) । जो गुरु मुझे अनुशासन 'देते हैं उनकी मैं पूजा करू (श्लोक १३ ) ऐसे मनोभाव विनय की परम्परा को सहज बना देते हैं शिष्य के मानस में ऐसे संस्कार बैठ जाएँ तभी आचार्य और शिष्य का एकात्मभाव हो सकता है और शिष्य श्राचार्य से इष्ट तत्व पा सकता है। दूसरे में विनय और विनय का भेद दिखलाया गया है। अविनीत विपदा को पाता है और विनीत सम्पदा का भागी होता है । जो इन दोनों को जान लेता है वही व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करता है (श्लोक २१) । यविनीत प्रसंविभागी होता है जो संविभागी नहीं होता वह मोक्ष नहीं पा सकता ( श्लोक २२ ) । जो श्राचार के लिए विनय का प्रयोग करे, वह पूज्य है (श्लोक २ ) । जो अप्रिय प्रसंग को धर्म - बुद्धि से सहन करता है, वह पूज्य है (श्लोक ८) पुज्य के लक्षणों का निरूपण यह तीसरे का विषय है। । १ - दश० ६.२.२ : एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो । २ - प्रश्न० संवरद्वार ३ पाँचवीं भावना : विणओ वि तवो तवो विधम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो । ३- ज्ञाता० ५। ४ उत्त० ३०.३२ अयनुद्वाणं अंजलिकरणं तवासगदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ६: आमुख चौथे में चार समाधियों का वर्णन है। समाधि का अर्थ है-हित, सुख या स्वास्थ्य । उसके चार हेतु हैं-विनय, श्रुत, तप और प्राचार । अनुशासन को सुनने की इच्छा, उसका सम्यक्-ग्रहण उसकी आराधना और सफलता पर गर्व न करना-विनय-समाधि के ये चार अङ्ग हैं । विनय का प्रारम्भ अनुशासन से होता है और अहंकार के परित्याग में उसकी निष्ठा होती है। मुझे ज्ञान होगा, मैं एकाग्र-चित्त होऊँगा, सन्मार्ग पर स्थित होऊँगा, दूसरों को भी वहाँ स्थित करूगा इसलिए मुझे पढ़ना चाहिए-यह श्रुत-समाधि है । तप क्यों तपा जाए? आचार क्यों पाला जाए ? इनके उद्देश्य की महत्वपूर्ण जानकारी यहाँ मिलती है । इस प्रकार यह अध्ययन विनय की सर्वांगीण परिभाषा प्रस्तुत करता है। इसका उद्धार नवें पूर्व की तीसरी वस्तु से हुआ है। १--दश नि०१७॥ Jain Education Intemational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही (पढमी उद्देसो) : विनय-समाधि ( प्रथम उद्देशक ) मूल १ - थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विजयं न सिक्खे' । सो चेव उ तस्स अभूइभावो फलं व कोयस्स वहाय होइ ॥ २- जे यावि मंदित्ति गुरुं विइत्ता डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा । होलंति मिं पडिवजमाणा करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ ३ – पगईए मंदा वि" भवंति एगे डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया । आवारमता गुणसुट्टप्पा जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा ॥ ४ - जे यावि नागं डहरं ति नच्चा आसाय से अहियाय होइ । एवायरियं पि हु हीलयंतो नियच्छई जाइपहं खु मंदे ॥ ५ - "आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो कि जीवनासाओ परं नु कुज्जा । आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अवोहिआसायण नत्थि मोक्यो । नवमं अज्झयणं : नवम अध्ययन संस्कृत छाया स्तम्भाद्वा क्रोधाद्वा मायाप्रमादात् गुरु-सका विनयं न शिक्षेत । स चैव तु तस्याभूतिभावः, फलमिव कीचकस्य वधाय भवति ॥ १॥ ये चापि " मन्द" इति गुरु विदित्वा "डहरो "sयं "अल्पश्रुत" इति ज्ञात्वा । हीलयन्ति मिथ्या प्रतिपद्यमानाः कुर्वन्प्राशातनां ते गुरूणाम् ||२|| प्रकृत्या मन्दा अपि भवन्ति एके, डहरा अपि च ये श्रुत-बुद्ध्युपेताः । आचारवन्तो गुणसुस्थितात्मानः, ये हीलिताः शिखीव भस्म कुर्युः || ३|| ये चापि नाग डहर इति ज्ञात्वा, आशातयेपुः तस्याहिताय भवति । एवमाचार्यमपि खलु होलयन्, निर्गच्छति जातिपथं खलु मन्दः || ४ | आशीविषश्चापि परं सुरुष्टः, कि जीवनाशात् परं न कुर्यात् । आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः ||५|| हिंदी अनुवाद १ - जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके विनाश के लिए होती है, जैसे कीचक (ate) का फल उसके यथके लिए होता है। २ - जो मुनि गुरु को ये मंद 'ये अल्पवयस्क और (अ) है, ये अल्प श्रुत हैं, ' - ऐसा जानकर उनके उपदेश को मिथ्या मानते हुए उनकी अवहेलना करते हैं, वे गुरु की आशातना करते हैं । ३- कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मन्द ( अल्प-प्रज्ञ ) होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न " होते हैं। आचारवान् और गुणों में मुस्थितात्मा आचार्य भने फिर वे मन्द हों या प्राज्ञ, अवज्ञा प्राप्त होने पर गुणराशि को उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं जिस प्रकार अग्नि ईंधन राशि को । ४ जो कोई यह वर्ष छोटा है ऐसा जानकर उसकी आशातना ( कदर्थना) करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है । इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्द संसार में" परिभ्रमण करता है । ५. - आशीविष सर्प १४ अत्यन्त क्रुद्ध होने पर भी 'जीवन-नाश' से अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु आचार्यपाद अप्रसन्न होने पर अबोधि के कारण बनते हैं । अतः आशातना से मोक्ष नहीं मिलता । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय समाही (विनय-समाधि ) ६- जो पाय जलियमकमेज्जा आसविसं वा विहु कोवएज्जा । जो वा विसं खाय जीविषट्ठी एसोवमासायण या गुरूणं ॥ ७- सियाह से पावय नो व्हेजा सीविसो वा कविओ न भक्ते । सिया विसं हालहलं न मारे न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥ ८- जो पचयं सिरसा नेतुमिच्छे सुत्तं व सीहं पडिबोहएज्जा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं एसोमासायणया गुरुणं ॥ २- सियाह सीसेण गिरि पिभि सियाह सीहो कुविओ न भक्ते । सिया न भिदेज्ज व सत्तिअग्गं न यावि सोक्लो गुरुहीलणाए ॥ १० - आयरियपाया पुण अप्पसन्ना अबोहियासायण नत्यि पोपलो तम्हा अणावाहमुहाभिकंखी गुरुसायाभिमु रमेज्जा | ११- जहाहिबग्गी जस नमसे नाणाहूईमंतपयाभिसि 1 एवायरियं उचिटुएन्जा अनंतनागोबगओ वि संतो ॥ १२ - जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्वे तस्संतिए वेणइयं पजे | सक्कारए सिरसा पंजलीओ कार्यग्गिरा भी मणसा य निपचं ॥ ४२८ यः पावकं तामेत कोपयेत्। आदि वाऽपि यो वा वि लावति जीता योगमाया गुरुणाम् ॥६॥ " स्याद् खलु स पावको नो दहेत्, आशीविषो वा कुपितो न भक्षेत् । पहिला न मारयेत् न चापि मोक्षो गुरुहीसमया ॥2॥ यः पर्वतं शिरसा भेतुमित् सुप्त वा सिंह प्रतिबोधयेत् । यो वा ददीत शक्त्य प्रहार, एषोपमाशातनया गुरूणाम् ||८|| स्वात् खलु शिण गिरिमि स्यात् सिंहः कुपितो स्यान्न भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रं, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ॥६॥ आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः । तस्मादनाबाधसुखाभिकांक्षी, गुरुप्रसादाभिमुखो रमेत ॥ १० ॥ यथाऽहनि नमस्वेद, नानाहृतिमन्त्रपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्थमुपतिष्ठेत अनजानोऽपि सन् ॥११॥ अध्ययन १ ( प्र० उ०) श्लोक ६-१२ : दिन शिक्षेत तस्थान्तिके वैनयिकं प्रयुञ्जीत । सत्कुर्वीत शिरसा प्राज्ञ्जलिकः, कायेन गिरा भो मनसा च नित्यम् ||१२|| ६कोई जलती अग्नि को लांघता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है और जीवित रहने की इच्छा से विष खाता है, गुरु की आशातना इनके समान है-ये जिस प्रकार हित के लिए नहीं होते, उसी प्रकार गुरु की आशातना हित के लिए नहीं होती । ७- सम्भव है कदाचित् अग्नि न जलाए, सम्भव है आशीविष सर्प कुपित होने पर भी न खाए और यह भी सम्भव है कि हलाहल विष भी न मारे, परन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष सम्भव नहीं है। ८- कोई शिर से पर्वत का भेदन करने की इच्छा करता है, सोए हुए सिंह को जगाता है और भाले की नोक पर प्रहार करता है, गुरु की आशातना इनके समान है। ९- सम्भव है शिर से पर्वत को भी भेद डाले, संभव है सिंह कुपित होने पर भी न खाए और यह भी संभव है कि भाले की नोक भी भेवन न करे, पर रुकी अवहेलना से मोक्ष संभव नहीं है । १० - आचार्यपाद के अप्रसन्न होने पर बोधि-लाभ नहीं होता । आशातना से मोक्ष नहीं मिलता। इसलिए मोक्षसुख चाहने वाला मुनि गुरु कृपा के अभिमुख रहे। ११ - जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण १५ विविध आहुति और मन्त्रपदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तज्ञान- सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की पूर्व सेवा करे। १२- जिसके समीप धर्मों की शिक्षा लेता है उसके समीप विनय का प्रयोग करे । शिर को झुकाकर हाथों को जोड़कर (पञ्चाङ्ग वन्दन कर) काया, वाणी और मन से सदा सत्कार करे । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ (प्र० उ०) : श्लोक १३-१७ पर विणयसमाही (विनय-समाधि) ४२६ १३-लज्जा दया संजम बंभचेरं लज्जा दया संयम ब्रह्मचर्य, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं। कल्याणभागिन: विशोधिस्थानम् । जे मे गुरू सययमणुसास्यति ॥ ये मां गुरवः सततमनुशासति, ते हं गुरू सययं पूययामि ॥ तानह गुरुन् सतत पूजयामि ॥१३॥ १३---लज्जा२०, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याणभागी साधु के लिए विशोधिस्थल हैं। जो गुरु मुके. उनकी सतत शिक्षा देते हैं उनकी मैं सतत पूजा करता हूँ। १४- जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केबलभारहं तु । एवायरिओ सुयसोलबुद्धिए विरायई सुरमझे व इंदो ॥ यथा निशान्ते तपन्नचर्माली, प्रभासते केवल भारत तु। एवमाचार्यः श्रुत-शील-बुद्ध्या, विराजते सुरमध्य इद इन्द्रः ॥१४॥ १४-जैसे दिन में प्रदीप्त होता हुआ मूर्य सम्पूर्ण भारत (भरत-क्षेत्र) को प्रकाशित करता है वैसे ही श्रुत, शील और बुद्धि से सम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करते हैं और जिस प्रकार देवताओं के बीच इन्द्र शोभित होता है, उसी प्रकार साधुओं के बीच आचार्य सुशोभित होते हैं। १५---जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो यथा शशी कौमुदीयोगयुक्तः, नवखत्ततारागणपरिवुडप्पा। नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा। खे सोहई विमले अब्भमुक्के खे शोभते विमले भ्रमुक्ते, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ एवं गणी शोभते भिक्षुमध्ये ॥१५॥ १५-जिस प्रकार बादलों से मुक्त विमल आकाश में नक्षत्र और तारागण से परित, कार्तिक पूर्णिमा२२ में उदित चन्द्रमा शोभित होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं के बीच गणी (आचार्य) शोभित होते है। १६-महागरा आयरिया महेसी समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए। संपाविउकामे अणुत्तराई आराहए तोसए धम्मकामी ॥ महाकरान् आचार्यान् मह षिणः, समाधियोगस्य श्रुतशीलबुद्ध याः । सम्प्राप्तुकामोऽनुत्तराणि, आराधयेत् तोषयेद्धर्मकामी ॥१६॥ १६-अनुत्तर ज्ञान आदि गुणों की सम्प्राप्ति की इच्छा रखने वाला मनि निर्जरा का अर्थ होकर समाधियोग, श्रुतशील और बुद्धि के २३ महान् आकर, मोक्ष की एषणा करने वाले आचार्य की आराधना करे और उन्हें प्रसन्न करे। १७-सोच्चाण मेहावी सुभासियाई सुस्सूसए आयरियप्पमतो। आराहइत्ताण गुणे अणेगे से पावई सिद्धिमणुत्तरं ॥ श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि, शुश्रूषयेत् आचार्यमप्रमत्तः। आराध्य गुणाननेकान्, स प्राप्नोति सिद्धिमनुत्तराम् ॥१७।। १७-मेधावी मुनि इन सुभाषितों को सुनकर अप्रमत्त रहता हआ आचार्य की शुश्रुषा करे । इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना कर अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है। ति बेमि । इति ब्रवीमि । ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. विषयं न सि ) I ख अगस्त्यसिंह स्थविर और जिनदास महत्तर ने 'विजयं न सिक्खे' के स्थान पर 'विणए न चिट्ठे' पाठ मानकर व्याख्या की है। टीकाकार ने इसे पाठान्तर माना है। इसका अर्थ-विनय में नहीं रहता - किया है । क २. माया ( मय ) : मूल शब्द 'माया' है । छन्द-रचना की दृष्टि से 'या' को 'य' किया गया है । टिप्पण अध्ययन १ ( प्रथम उद्देशक ) श्लोक १ : क ३. प्रमादवश ( प्पमाया ) : यहाँ प्रमाद का अर्थ इन्द्रियों की आसक्ति, नींद, मद्य का आसेवन, विकथा आदि है । ख ४. विनय की ( विणयं ): यहाँ विनय शब्द अनुशासन, नम्रता, संयम और आचार के अर्थ में प्रयुक्त है । इन विविध अर्थों की जानकारी के लिए देखिए दशाश्रुतस्कन्ध द० ४ । विनय दो प्रकार का होता है— ग्रहण-विनय और आसेवन-विनय ज्ञानात्मक विनय को ग्रहण विनय और क्रियात्मक विनय को आसेवन-विनय कहा जाता है । अगस्त्य चूर्णि और टीका में केवल आसेवन-विनय और शिक्षा-विनय – ये दो भेद माने हैं। आसेवन-विनय का अर्थ सामाचारी शिक्षण, प्रतिलेखनादि क्रिया का शिक्षण या अभ्यास होता है और शिक्षा-विनय का अर्थ है - इनका ज्ञान । (क) अ० चू० पृ० २०६ : विणए न चिट्ठे विणए ण ट्ठाति । (ख) जि० चू० पृ० ३०२ : विनयेन न तिष्ठति । २- हा० टी० प० २४३ : अन्ये तु पठन्ति - गुरोः सकाशे 'विनये न तिष्ठति' विनये न वर्त्तते, विनयं नासेवत इत्यर्थः । ३ - (क) अ० चू० पृ० २०६ : मय इति मायातो, एत्थ आयारस्स ह्रस्सता, सरहस्तता य लक्खणविज्जाए अस्थि जधाप्रातिपदिकस्य पागते विसेसेच, जया एत्वेव 'बा' सहस्त 'ह्रस्वो ४ (व) जि० ० ० ३०१ मधगहण मायागणं, मयकारहस्तसंबंधाणुसोमयं । (ग) हा० टी० प० २४२ मायातो निकृतिरूपायाः । (क) अ० चू० पृ० २०६ : इंदिय निद्दामज्जादिप्पमादेण । (ख) जि० ० ० २०१ प्रमाणमिणा गहिया । (ग) हा० टी० प० २४२ : प्रमादाद् - निद्रादेः सकाशात् । ५ जि० ० ५० १०१ विषये दुनिए आतेवाविगए। (क) अ० चू० पृ० २०६ : दुविहे आसेवण सिक्खा विणए । (च) ० ० ० २४२ विनयम् आसेवनाशिक्षामेदभिन्नम् । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४३१ अध्ययन ६ (प्र० उ०): श्लोक २ टि० ५-६ ५. विनाश ( अभूइभावो ग ): अभूति भाव-'भूति' का अर्थ है विभव या ऋद्धि। भूति के अभाव को 'अभूतिभाव' कहते हैं। यह अगस्त्य चणि और टीका की व्याख्या है। जिनदास चूर्णि में अभूतिभाव का पर्याय शब्द बिनाशभाव है। ६. कीचक (बांस) का ( कीयस्स घ): हवा से शब्द करते हुए बांस को कीचक कहते हैं । वह फल लगने पर सूख जाता है। इसकी जानकारी चूणि में उद्धृत एक प्राचीन श्लोक से मिलती है । जैसे कहा है-चींटियों के पर, ताड़, कदली और हरताल के फल तथा अविद्वान्- अविवेकशील व्यक्ति का ऐश्वर्य उन्हीं के विनाश के लिए होता है। तुलना-यो सासनं अपहतं अरियानं धम्मजीविनं। पटिक्कोसति दुम्मेधो दिद्धि निस्साय पापिकं ॥ फलानि कट्टकस्सेव अत्तहजाय फुल्लति ॥ ( धम्मपद १२.८ ) --जो दुईद्धि मनुष्य अरहन्तों तथा धर्म-निष्ठ आर्य-पुरुषों के शासन की, पापमयी दृष्टि का आश्रय लेकर, अवहेलना करता है, वह आत्मघात के लिए बांस के फल की तरह प्रफुल्लित होता है। श्लोक २: ७. ( होलंति "): संस्कृत में अवज्ञा के अर्थ में 'हील' धातु है । अगस्त्य धुणि में इसका समानार्थक प्रयोग 'ह्र पयंति' और 'अहियालेति' है। ८. मंद ( मंदि क ) : मन्द का अर्थ सत्प्रज्ञाविकल—अल्पबुद्धि है। प्राणियों में ज्ञानावरण के क्षयोपशम की विचित्रता होती है। उसके अनुसार कोई तीव्र बुद्धि वाला होता है --तन्त्र, युक्ति आदि की आलोचना में समर्थ होता है और कोई मन्द बुद्धि वाला होता है-उनकी आलोचना में समर्थ नहीं होता। ६. आशातना ( आसायण घ): आशातना का अर्थ विनाश करना या कदर्थना करना है। गुरु की लघुता करने का प्रयत्न या जिससे अपने सम्यग्दर्शन का ह्रास हो, उसे आशातना कहते हैं । भिन्न-भिन्न स्थलों में इसके प्रतिकूल वर्तन, विनय-भ्रंश, प्रतिषिद्धकरण, कदर्थना आदि ये भिन्न-भिन्न अर्थ भी मिलते है। १-(क) अ० चू० पृ० २०६ : भूतीभावो ऋद्धी भूतीए अभावो अभूतिभावो । (ख) हा० टी० ५० २४३ : 'अभूतिभाव' इति अभूते वोऽभूतिभावः, असंपद्भाव इत्यर्थः । २-जि० चू० पृ० ३०२ : अभूतिभावो नाम अभूतिभावोत्ति वा विणासभावोत्ति वा एगट्ठा। ३-अ० चि० ४.२१६ : स्वनन् वातात् स कीचकः । ४-अ० चू० पृ० २०६ : कोयो वंसो, सो य फलेण सुक्खति । उक्तं च पक्षा: पिपीलिकानां, फलानि तलकदलीवंशषत्राणाम् । ऐश्वर्यञ्चाऽविदुषामुत्पद्यन्ते विनाशाय ।। ५-अ० चू०पृ० २०७ । ६ हा० टी० प० २४३ : क्षयोपशमवैचित्र्यात्तन्त्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थ: सत्प्रज्ञाविकल इति । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४३२ अध्ययन ६ (प्र० उ०) : श्लोक ३-५ टि० १०-१४ श्लोक ३: १०. ( पगईए मंदा वि क ) : इसका अनुवाद 'वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मंद (प्रज्ञा-विकल)' किया है। इसका आधार टीका है । अगस्त्य चूणि के अनुसार इसका अनुवाद-स्वभाव से मंद होते हुए भी उपशान्त होते हैं-यह होता है। ११. श्रत और बुद्धि से सम्पन्न ( सुयबुद्धोववेया): अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसका अर्थ बहुश्रुत पण्डित किया है, परन्तु टीकाकार ने भविष्य में होने वाली बहुश्रुतता के आधार पर वर्तमान में उसको अल्पश्रुत' माना है। श्लोक ४: १२. संसार में ( जाइपहंघ ) : इसका अर्थ है 'संसार' । अगस्त्य पूणि में जातिवघ को मूल और जातिपथ को वैकल्पिक पाठ माना है । जातिवध का अर्थ-जन्ममरण और जातिपथ का अर्थ जातिमार्ग (ससार) है। जिनदास धूणि और टीका में इसका अर्थ द्वीन्द्रिय आदि की योनियों में भ्रमण करना किया है। श्लोक ५: १३. श्लोक ५ : इस श्लोक के तृतीय और चतुर्थ चरण और दसवें श्लोक के प्रथम और द्वितीय चरण तुल्य हैं। टीकाकार अबोधि को कम मानते हैं और 'कुर्वन्ति' क्रिया का अध्याहार करते हैं । इनमें प्रयुक्त 'आसायण' शब्द में कोई विभक्ति नहीं है । उसे तीन विभक्तियों में परिवर्तित किया जा सकता है : 'आशातनया, आशातनातः, सत्यामाशातनायाम्,'-आसातना से, आसातना के द्वारा, आसातना में। जिनदास चुणि (पृ. ३०६) में 'आसायणा दोसावहा' ऐसा किया है। १४. आशीविष सर्प ( आसीविसो २ ): इसका अर्थ सर्प है। अगस्त्य घुणि में 'आसो' का अर्थ सर्प की दाढा किया है। जिसकी दाढा में विष हो, उसे 'आसीविस' कहा जाता है। १--हा० टी० ५० २४४ : 'पगइत्ति सूत्र, 'प्रकृत्या' स्वभावेन कर्मवैचित्र्यात् 'मन्दा अपि' सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति 'एके' केचन वयोवृद्धा अपि। २-० चू० पृ० २०७ : स्वभावो पगती, तीए मंदा वि णातिवायाला उवसंता। ३-अ० चू० पृ० २०७ : सुतबुद्धोववेता....'बहसुता पंडिता। ४-हा० टी०प० २४४ : भाविनों वृत्तिमाश्रित्याल्पश्रुता इति । ५–अ० चू० पृ० २०७ : जाती-समुप्पत्ती, वधो-मरणं, जम्ममरणाणि, अधवा जातिपथं--जातिमग्गं संसारं । ६-(क) जि० चू० ५० ३०४ : बेइं दियाईसु जातीस । (ख) हा० टी० ५० २४४ : 'जातोपन्थानं' द्वीन्द्रियादिजातिमार्गम् । ७-(क) दश० ६.१.५ हा० टी०५० २४४ : कुर्वन्ति अबोधिम् । (ख) वही, ६.१.१० हा० टी० पृ० २४५ : पूर्वाध पूर्ववत् । ८-अ० चू०पृ०२०८ : सप्पस्स दाढा आसी, आसीए विसं जस्स सो आसीविसो। Jain Education Intemational Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसमाही (विनय- समाधि ) १५ आहिताग्निब्राह्मण (आहियोक) : वह ब्राह्मण जो अग्नि की पूजा करता है और उसकी सतत ज्वलित रखता है, आहिताग्नि कहलाता है' । १६. आहुति ( आई ख देवता के उद्देश्य से मन्त्र पढ़कर अग्नि में घी आदि डालना । ) १७. मन्त्रपदों से ( मंतपय ख ) : मन्त्रपद का अर्थ 'अग्नये स्वाहा' आदि मन्त्र वाक्य हैं। जिनदास णि में 'पद' का अर्थ 'क्षीर' किया है' । श्लोक १२ : १८] धर्म-पदों को धम्मपाइ ) वे धार्मिक वाक्य जिनका फल धर्म का बोध हो । ४३३ अध्ययन (प्र० उ०) श्लोक ११-१३ टि० १५-२० श्लोक ११: २०. लज्जा ( लज्जा इसका अर्थ है क ग १६. शिर को झुकाकर हाथों को जोडकर ( सिरसा पंजलीओ " ) ये शब्द 'पञ्चाङ्ग-वंदन' विधि की ओर संकेत करते हैं। अगस्त्य सिंह स्थविर और जिनदास महत्तर ने इसका स्पष्ट उल्लेख किय है । दोनों घुटनों को भूमि पर टिका कर, दोनों हाथों को भूमि पर रखकर उस पर अपना मस्तक रखे – यह पंचाङ्ग (दो पैर, दो हाथ और एक शिर) - वंदन की विधि है। टीकाकार ने इस विधि का कोई उल्लेख नहीं किया है। बंगाल में नमस्कार की यह विधि आज भी प्रचलित है। श्लोक १३ : क ): - अकरणीय का भय या अपवाद का भय । १- (क) अ० चू० : आहिअग्गी-एस वेदवादो जधा हव्ववाहो सव्वदेवाण हन्वं पावेति अतो ते तं परमादरेण हुणंति । (ख) जि० चू० पृ० ३०६ : आहियअग्गी- बंभणो । (ग) हा० टी० प० २४५ २ (क) जि० ० पृ० ३०६ (ख) हा० टी० प० २४५ ३ - हा० टी० प० २४५: मंत्रपदानि - अग्नये स्वाहेत्येवमादीनि । आहिताग्निः कृतवाह्मणः । वाणाविणणयादिणा मंत' उच्चारेण बल आहुतयो - घृतप्रक्षेपादिलक्षणा । ४ - जि० ० पृ० २०६ : पवं खोरं भण्णइ । ५ - हा० ० टी० प० २४५ : 'धर्मपदानि' धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि । ६ - ( क ) अ० ० : सिरसा पंजलितोत्ति - एतेन पंचं गितस्स वंदन गहणं जादुलपति सिर व भूमिए पिऊण (ख) जि० चू० पृ० २०६ : पंचंगीएण वंदणिएण, जहा जानुबुगं भूमीए निर्वाडएण हत्थदुएण भूमीए अवटू मिय ततो सिरं पंचमं निवाएगा। ७ - (क) अ० चु० : अकरणिज्जसंकणं लज्जा । (ख) जि० चू० पृ० ३०६ : लज्जा अववादभयं । (ग) हा० टी० प० २४६ : 'लज्जा' अपवादभयरूपा । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४३४ अध्ययन ६ (प्र० उ०) : श्लोक १४-१६ टि० २१.२३ श्लोक १४: २१. भारत ( भारहंख ): यहाँ भारत का अर्थ जम्बूद्वीप का दक्षिण भाग है। श्लोक १५: २२. कार्तिक पूर्णिमा ( कोमुइ ): दशवकालिक की व्याख्या में इसका अर्थ कार्तिक पूर्णिमा किया है। मोनियर विलियम्स ने इसके कार्तिक पूर्णिमा और आश्विन पूर्णिमा ये दोनों अर्थ किए हैं। 'खे सोहइ विमले अब्भमुक्के' इसके साथ आश्विन पूर्णिमा की कल्पना अधिक संगत है : शरद पूर्णिमा की विमलता अधिक प्रचलित है । श्लोक १६ : २३. समाधियोग · और बुद्धि के ( समाहिजोगे बुद्धिए ख ) : ___ धूणिद्वय में इनका अर्थ षष्ठी विभक्ति और टीका में तृतीया विभक्ति के द्वारा किया है तथा सप्तमी के द्वारा भी हो सकता है। चूणि के अनुसार समाधियोग,, श्रुत, शील और बुद्धि का सम्बन्ध 'महाकर' शब्द से होता है-जैसे समाधियोग, श्रुत, शील और बुद्धि के महान् आकर । टीका के अनुसार इनका सम्बन्ध 'महेसी' शब्द से है-जैसे समाधियोग, श्रुत, शील और बुद्धि के द्वारा महान् की एषणा करने वाले। १--अ० चू० : सव्वं दक्खिणं जंबूदीववरिसं । २-(क) अ० चू० : कुमुदाणि उप्पलविसेसो, कुमदेहि प्रहसणभूतेहि क्रीडणं जिए सा कोमुदी, कुमुयाणि वा सन्ति सा पुण कत्तिय पुणिमा। (ख) जि० चू० पृ० ३०७ । (ग) हा० टी०प० २४६ ।। ३ -A Sanskrit-English Dictionary, P. 316. ४ ---(क) अ० चू० : महागरा समाधिजोगाणां सुतस्स बारसंगस्स सीलस्स य बुद्धिए य अधवा सुतसीलबुद्धीए समाधिजोगाणं महागरा। (ख) जि० चू० पृ० ३०८ । ५ हा० टी०५० २४६ : 'महैषिणो' मोक्षषिणः, कथं महैषिण इत्याह --'समाधियोगच तशीलबुद्धिभि' समाधियोगः-ध्यान विशेषः श्र तेन - द्वादशाङ्गाभ्यासेन शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध या च औत्पत्तिवयादिरूपया। Jain Education Intemational Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं विणयास माही (बीओ उद्देसो) नवम अध्ययन विनय-समाधि ( द्वितीय उद्देशक ) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १- मूलाओ बंधप्पभवो दुमरस संघाओ पच्छा समुति साहा । साहत्यसाहा विरति पत्ता तओ से पुष्कं च फलं रसो व ॥ २ - एवं विणओ धम्मस्स मूलं परमो से मोक्खो । जेण किति सुर्य सिग्धं निस्सेस चाभिगच्छई ॥ नवमं अज्झयणं : नवम अध्ययन विणयस माही (बीओ उद्देसो) विनय-समाधि (द्वितीय उद्देशक ) ३- य चंडे दुबाई नियडी बुजाइ से कट्ठ सोयगयं ५- तहेव जहा ॥ ४- विषयं पि जो उवाएणं चोडओ कुपई नरो । दिव्वं सो सिरिमेज्जति दंडेण पहिए | मिए थद्धे सहे । अविणीयप्पा ६- तहेव उववज्झा दीसंति अभिया अविणीयप्पा हया गया । दुहमेहंता सुविणीयप्पा उववज्झा हया गया । दीसंति सुहमेहता इढि महायसा || पत्ता 11 : संस्कृत छाया मूलात् स्कन्धप्रभवो द्र मस्य, स्कन्धात्याचात्समुपयन्ति शाखाः । शाखाभ्यः प्रशाखा विरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं च रसश्च ॥१॥ एवं धर्मस्य विनयो, मूलं परमस्तस्य मोक्षः । येन कीर्ति श्रुतं श्लाध्यं, नियमिति ॥२॥ यश्च चण्डो मृगस्तब्ध:, दुर्वादी निकृतिः शठः । उते सोऽविनीतात्मा, काष्ठं स्रोतोगतं यथा ॥ ३ ॥ उपवेन चोदितः कुप्यति नरः । दिव्यां समायान्ती दण्डेन प्रतिषेधति ॥४॥ सचैवाऽविनीतात्मानः उपवाह्या या गजाः । दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, अभियोग्यमुपस्थिताः ॥५|| लव सुविनीतात्मानः उपवाह्या या गजा: । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्ता महायशसः || ६ || हिन्दी अनुवाद १ वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् शाखाएं आती हैं, और शाखाओं में से प्रशाखाएं निकलती हैं। उसके पश्चात् पत्र, पुष्प, फल और रस होता है । २ - इसी प्रकार धर्म का मूल है 'विनय' ( आचार) और उसका परम (अंतिम) फ' है मोक्ष विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, श्लाघनीय श्रत और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त होता है । 1 ३. जो चण्ड, मृग * - अज्ञ, स्तब्ध, अप्रियवादी, मायावी और शठ है, वह अविनीतात्या संवारो में से ही प्रवाहित होता रहता है जैसे नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काठ । ४ विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित होता है, वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडे से रोकता है। ५- जो औपवाह्य घोड़े और हाथी अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । ६--जो ओपवाड़े और हाथी सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ४३८ अध्ययन ६ (द्वि० उ०) : श्लोक ७-१३ ७-तहेव लोगंसि दीसंति छाया अविणीयप्पा नरनारिओ। दुहमेहता विगलितेंदिया ॥ तथवाऽविनीतात्मानः, लोके नरनार्यः। दृश्यन्ते दुःखमेधमाना:, 'छाता' विकलितेन्द्रियाः ॥७॥ ७-८-लोक में जो पुरुष और स्त्री अविनीत होते हैं, क्षत-विक्षत या दुर्बल', इन्द्रिय-विकल, दण्ड और शस्त्र से जर्जर, असभ्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत, करुण, परवश, भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। ८-दंडसत्यपरिजण्णा असम्भवयणेहि विवन्नछंदा खुप्पिवासाए परिगया ॥ दण्डशस्त्राभ्यां परिजीर्णाः, असभ्यवचनैश्च । करुणा विपन्नच्छन्दसः, क्षुत्पिपासया परिगताः ॥८॥ कलुणा ६-तहेव लोगसि दीसंति इडि ढ पत्ता सुविणीयप्पा नरनारिओ। सुहमेहता सहारामा महायसा ॥ तथैव सुविनीतात्मान:, लोके नरनार्यः । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्ता महायशस: ॥६ ---लोक में जो पुरुष या स्त्री सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। १०-तहेव अविणोयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति दुहमेहता आभिओगमुवट्रिया ॥ तथवाऽविनीतात्मान:, देवा यक्षाश्च गुह्यकाः। दृश्यन्ते दुःखमेधमाना:, आभियोग्यमुपस्थिताः ॥१०॥ १०--जो देव, यक्ष और गुह्यक (भवनबासी देव ) अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । ११-तहेव सुविणोयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति सुहमेहता इडिड पत्ता महायसा ॥ तथैव सुविनीतात्मानः, देवा यक्षाश्च गुह्यका:। दृश्यन्ते सुखमेधमाना: ऋद्धि प्राप्ता महायशसः ॥११॥ ११-जो देव, यक्ष और गुह्यक सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। १२-जे आयरियउवज्झायाण सुस्सूसावयणंकरा । तेसि सिक्खा पवड्ढंति जलसित्ता इव पायवा ॥ ये आचार्योपाध्याययोः, शुश्रूषावचनकरा:। तेषां शिक्षा: प्रवर्धन्ते, जलसिक्ता इव पादपाः ।।१२।। १२---जो मुनि आचार्य और उपाध्याय की शुश्रूषा और आज्ञा-पालन करते हैं, उनकी शिक्षा" उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से सींचे हुए वृक्ष । १३--अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा उणियाणि य। गिहिणो उवभोगट्ठा इहलोगस्स 'कारणा ॥ आत्मार्थं परार्थ वा, शिल्पानि नैपुण्यानि च । गहिण उपभोगार्थ, इहलोकस्य कारणाय ॥१३॥ १३-१४ - जो गही अपने या दूसरों के लिए, लौकिक उपभोग के निमित शिल्प" और नैपुण्य'२ सीखते हैं--- Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसमाही (विनय-समाधि ) १४ "जे बंध वहं घोरं परियावं च दारुणं । सिक्खमाणा नियच्छंति जुत्ता ते लिदिया ॥ १५ ते वितं गुरु पूयंति तस्स सिप्पस्स कारणा । सकारॅलि नमसति नियति ॥ तुट्ठा १६ – कि पुण जे सुयग्गाही अनंतकामए आयरिया जं वए भिक्खू तम्हा तं नाइवत्तए ॥ ठाणं नीयं च आसणाणि य शीय च पाए वंदेज्जा नीवं कुज्जा व अंजलि || १७ नीयं सेज्जं गई – १८- संघट्टा काएन ६.४. तहा वहिणामवि समे अवराहं मे वएज्ज न पुणो त्तिय ॥ १६- २६ दुग्गओ वा पओएणं चोइओ बहई रह एवं बुद्धि किचाणं" बुतो बुतो । पवई ॥ ** येन बन्धं वधं घोरं, परितापं च दारुणम् । शिक्षामा निपाति युक्तास्ते ललितेन्द्रियाः ॥ १४॥ चितं गुरुपूजयन्ति तस्य शिल्पस्य कारणाय । सत्कुर्वन्ति नमस्यन्ति तुष्टा निर्देशवर्तिनः ॥ १५॥ किं पुनः श्रुतग्राही अनन्तहितकामकः । आचार्या यद् वदेयुः भिक्षु, तस्मान्नाति ॥१६॥ नीचां शय्यां गतिं स्थानं, नीच चासनानि च । नीच च पादौ वन्देत, नीच कुर्यास्वाञ्जलिम् ॥ १७॥ संघय कान तथोपधिनापि । क्षमस्वापराधं मे, वदे रिति ॥ १ दुवा] प्रतोदेन चोदितो वहति रथम् । एवं दुर्बुद्धिः कृत्यानां उक्त उक्त प्रकरोति ।। १६ । अध्ययन ९ (द्वि० उ० ) इलोक १४-१९ पुरुषन्द्रिय होते हुए भी शिक्षा-काल में (शिक्षक के द्वारा बन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं। १५ फिर भी वे उस शिल्प के लिए उस गुरु को पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं ५, नमस्कार करते हैं और सन्तुष्ट होकर उसकी आशा का पालन करते हैं। १६- जी आगम-ज्ञान को पाने में तत्पर और अनन्तहित (मोक्ष) का इच्छुक है उसका फिर कहना ही क्या ? इसलिए आचार्य जो भिक्षु उसका उल्लंघन न करे । १७- मधु (आचार्य से ) नीची शय्या करेली तिहे नीचा आसन करे, नीचा होकर आचार्य के चरणों में बन्दना करे और नीचा होकर अञ्जलि करे हाथ जोड़े‍ । १८ -अपनी काया से तथा उपकरणों से एवं किसी दूसरे प्रकार से २५ आचार्य का स्पर्श हो जाने पर शिष्य इस प्रकार कहे"आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैं फिर ऐसा नहीं करूंगा।" १६ - जैसे दुष्ट बैल चावुक आदि से प्रेरित होने पर रथ को वहन करता है, वैसे ही दुर्बुद्धि शिष्य आचार्य के बार-बार कहने पर कार्य करता है । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४४० अध्ययन (द्वि० उ०): श्लोक २०-२३ * (आलवंते लवंते वा न निसेज्जाए पडिस्सुणे। मोत्त णं आसणं धीरो सुस्सूसाए पडिस्सुणे ॥) (आलपन्त लपन्त वा, न निषिद्यायां प्रतिशृणुयात् । मुक्त्वा आसनं धीर:, शुश्रूषया प्रतिशृणुयात् ॥) (बुद्धिमान् शिष्य गुरु के एक बार बुलाने पर या बार-बार बुलाने वर कभी भी बैठा न रहे, किन्तु आसन को छोड़कर शुश्रूषा के साथ उनके वचन को स्वीकार करे।) २०-काल छंदोवयारं च पडिलेहिताण हे उहि । तेण तेण उवाएण तं तं संपडिवायए॥ कालं छन्दोपचारं च, प्रतिलेख्य हेतुभिः । तेन तेनोपायेन, तत्तत्संप्रतिपादयेत् ॥२०॥ २०-काल२८, अभिप्राय और आराधन-विधि' को हेतुओं से जानकर, उस-उस (तदनुकूल) उपाय के द्वारा उस-उस प्रयोजन का सम्प्रतिपादन करे-पूरा करे । २१-विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणियस्स य । जस्सेयं दुहओ नाय सिक्खं से अभिगच्छइ॥ विपत्तिरविनीतस्य, सम्पत्ति (सम्प्राप्ति) विनीतस्य च । यस्पैतद् द्विधा ज्ञात, शिक्षां सोऽभिगच्छति ॥२१॥ २१-'अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है'--ये दोनों जिसे ज्ञात हैं, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। २२-जे यावि चंडे मइइ ढिगारवे यश्चापि चण्डो मतिऋद्धिगौरवः, पिसुणे नरे साहस होणपेसणे। पिशुनो नरः साहसो हीनप्रेषणः ॥ अदिधम्मे विणए अकोविए अदृष्टधर्मा विनयेऽकोविदः, असंविभागी न ह तस्स मोक्खो॥ असंविभागी न खलु तस्य मोक्षः ।।२२।।। २२ - जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन है, जो साहसिक है, जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, जो अदष्ट(अज्ञात) धर्मा है, जो विनय में निपुण नहीं है, जो असं विभागी है.५ उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता। २३- और जो गुरु के आज्ञाकारी हैं, जो गीतार्थ हैं३६, जो विनय में कोविद है, वे इस दुस्तर संसार-समुद्र को तर कर कर्मों का क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं । २३-निद्देसवत्ती पुण जे गुरूणं निर्देशतिनः पुनये गुरूणां, सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । श्रुतार्थधर्माणो विनये कोविदाः । तरित्त ते ओहमिण दुरुत्तरं तीर्वा ते ओमिमं दुरुत्तरं, खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गय ॥ क्षपयित्वा कर्म गतिमुत्तमांगताः ॥२३॥ त्ति बेमि। इति ब्रवीमि। ऐसा मैं कहता हूँ। * यह गाथा कुछ प्रतियों में मिलती है, कुछ में नहीं। Jain Education Intemational Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ६ ( द्वितीय उद्देशक ) श्लोक २: १. परम ( अंतिम ) फल ( परमो ख ) : उपमा में मूल और परम की मध्यवर्ती अपरम अवस्थाओं का उल्लेख है, परन्तु उपमेय में केवल मूल और परम का उल्लेख है। देवलोक-गमन, सुकुल में उत्पन्न होना, क्षीरास्रव, मध्वास्रव आदि यौगिक विभूतियों को प्राप्त होना विनय के अपरम तत्त्व हैं। २. श्लाघनीय ( सिग्धं ग ) : प्राकृत में श्लाघ्य के 'सग्छ' और 'सिग्छ' दोनों रूप बनते हैं। यह श्रुत का विशेषण है। अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'सग्धं' का प्रयोग किया है। सूत्रकृताङ्ग (१.३.२.१६) में भी 'सग्धं' रूप मिलता है-'मुंज भोगे इमे सग्घे'। ३. समस्त इष्ट तत्त्वों को (निस्सेसं घ ) : जिनदास चूणि में इसका प्रयोग 'कीर्ति, श्लाघनीय श्रुत इत्यादि समस्त' इस अर्थ में किया है । टीका के अनुसार यह श्रुत का विशेषण है । अगस्त्य घूरिण में इसे 'णिसेयसं' (निश्रेयस्-मोक्ष) शब्द माना है। श्लोक ३: ४. मृग ( मिए ) : मृग-पशु की तरह जो अज्ञानी होता है, उसे मृग कहा गया हैं । मृग शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । आरण्यक-पशु या सामान्य पशुओं को भी मृग कहा जाता है। ५ मायावी और शठ ( नियडी सढे ख ) : ___ अगस्त्य चूणि में इसका अर्थ 'माया के द्वारा शठ' किया है । टीका में इन दोनों को पृथक् मानकर 'नियडी' का अर्थ मायावी और 'सढे' का अर्थ संयम-योग में उदासीन किया है। १-(क) जि० चू० पृ० २०६ : अपरमाणि उ खंधो साहा पत्तपुप्फफलाणित्ति, एवं धम्मस्स परमो मोक्खो, अपरमाणि उ देवलोग सुकुलपच्चायायादीणि खोरासवमधुरासवादीणित्ति । (ख) हा० टी० प० २४७ । २-अ० चू० : सुतं च सग्घं साघणीयमविगच्छति । ३-जि० चू० पृ० ३०६ : एवमादि, निस्सेसं अभिगच्छतीति । ४–हा० टी०५० २४७ : 'श्रुतम्' अङ्गप्रविष्टादि 'इलाध्य' प्रशंसास्पदभूतं 'निःशेष' 'सम्पूर्णम्' 'अधिगच्छति'। ५- अ० चू० : णिसेयसं च मोक्खमधिगच्छति । ६-अ००: मंदबुद्धी मितो।। ७–सूत्र० १.१.२.६ वृ० : मृगा आरण्याः पशवः । 5-An animal in general (A Sanskrit English Dictionary). Page 689. -अ० चू० : नियडी मातातीए सढो नियडी सढो। १०-हा० टी० प० २४७ : 'निकृतिमान्' मायोपेतः 'शठः' संयमयोगेष्वनादृतः । Jain Education Intemational Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४४२ अध्ययन ६ (द्वि० उ०): श्लोक ५-७ टि० ६-८ श्लोक ५: ६. औपवाह्य ( उववज्झा ख): इसके संस्कृत रूप 'उपवाह्य' और 'औपवाह्य'-दोनों किए जा सकते हैं। इन दोनों का अर्थ-सवारी के काम में आने वाले अथवा राजा की सवारी में काम आने वाले वाहन-हाथी, रथ आदि है' । कारण या अकारण-सब अवस्थाओं में जिसे वाहन बनाया जाए, उसे औपवाह्य कहा जाता है। श्लोक ७: ७. क्षत-विक्षत या दुर्बल ( छाया घ): अगस्त्यसिंह स्थविर ने मूल पाठ 'छाया विलिदिया' और वैकल्पिक रूप से 'छाया विगलितिदिया' माना है। उनके अनुसार मूल पाठ का अर्थ है-शोभा-रहित या अपने विषय को ग्रहण करने में असमर्थ -इन्द्रिय वाले काने, अंध, बधिर आदि और वैकल्पिक पाठ का अर्थ है - भूख से अभिभूत विगलित-इन्द्रिय वाले । वैकल्पिक पाठ के 'छाया' का संस्कृत रूप 'छाता:' होता है और इसका अर्थ हैदुर्बल५ । यह बुभुक्षित और कृश के अर्थ में देशी शब्द भी है। जिनदास महत्तर और टीकाकार ने यह पाठ 'छायाविगलितेंदिया' माना है और छाया का अर्थ 'चाबुक के प्रहार से व्रणयुक्त शरीर वाला' किया है। ८. इन्द्रिय-विकल ( विगलितेंदिया घ): जिनकी इन्द्रियाँ विकल हों- अपूर्ण या नष्ट हों उन्हें विकलितेंदिय' (या विकलेन्द्रिय) कहा जाता है । काना, अन्धा, बहरा अथवा जिनकी नाक, हाथ, पैर आदि कटे हुए हों, वे विकलितेन्द्रिय होते हैं। १-- पाइयसहमहण्णव परिशिष्ट पृ० १२२४ । २-(क) हा० टी०प० २४८ : उपवाह्यानां-राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः । (ख) अ० चि०४.२८८ : राजवाह्यस्तूपवाह्यः । (ग) बृ० हि० पृ० २००,२२८ । ३- (क) अ० चू० : उप्पेध सव्वावत्थं वाहणीया उवज्झा। (ख) जि० चू० पृ० ३१० : कारणमकारणे वा उवेज्ज वाहिज्जति उववज्झा। ४-अ० चू० : छाया शोभा सा पुण सरूवता सविसयगहणसामत्थं वा । छायातो विगलेंदियाणि जेसि ते छायाविगलेंदिया, काणंध वधिरादयो भट्ठछायेदिया, अहवा छाया छुहाभिभूता विगलितिदिया विभंगतिदिया। ५-अ० चि० ३.११३....."दुर्बल: कृशः । क्षाम: क्षीणस्तनुश्छातस्तलिनाऽमांसपेलवाः ।। ६-(क) दे० ना० वर्ग ३.३३ पृ० १०४ : "छाओ बुभुक्षितः कृशश्च"। (ख) ओ० नि० भा० २६० । ७-(क) हा० टी०प० २४८ : 'छाताः' कसघातव्रणाङ्कितशरीराः । (ख) जि० चू० पृ० ३११।। ८-(क) अ० चू० : विलिदिया काणंधबधिरादयो। (ख) हा० टी०प० २४८ : 'विगलितेन्द्रिया' अपनीतनासिकादोन्द्रियाः पारदारिकादयः । (ग) जि० चू० पृ० ३११ : विगलितेंदिया णाम हत्थपायाईहिं छिन्ना, उद्धियणयणा य विलिदिया भन्नति । Jain Education Intemational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४४३ अध्ययन ६ (द्वि०प्र०) : श्लोक १२-१३ टि० ६-११ श्लोक १२: त ही महत्त्वपूण अर्थ को बाचन है। अगस्त ९. आचार्य और उपाध्याय की ( आयरियउवज्झायाणं क ) : जैन परम्परा में आचार्य और उपाध्याय का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परम्परा एक प्रवाह है । उसका स्रोत सूत्र है। उसकी आत्मा है अर्थ । अर्थ और सूत्र के अधिकारी आचार्य और उपाध्याय होते हैं । अर्थ की वाचना आचार्य देते हैं। उपाध्याय का कार्य है सूत्र की वाचना देना' । स्मृतिकार की भाषा में भी आचार्य और उपाध्याय की सही व्याख्या मिलती है। अगस्त्य चूणि के अनुसार सूत्र और अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा जो गुरु-पद पर स्थापित होता है, वह आचार्य कहलाता है। जिनदास पूणि के अनुसार सूत्र और अर्थ को जानने वाला आचार्य होता है और सूत्र तथा अर्थ का जानकार हो किन्तु गुरु-पद पर स्थापित न हो वह भी आचार्य कहलाता है । टीका के अनुसार सूत्रार्थ दाता अथवा गुरु स्थानीय ज्येष्ठ-आर्य 'आचार्य' कहलाता है । इन सबका तात्पर्य यही है कि गुरुपद पर स्थापित या अस्थापित जो सूत्र और अर्थ प्रदाता है, वह आचार्य है। इससे गुरु और आचार्य के तात्पर्यार्थ में जो अन्तर है, वह स्पष्ट होता है। १०. शिक्षा ( सिक्खा " ): शिक्षा दो प्रकार की होती है-(१) ग्रहण-शिक्षा और (२) आसेवन-शिक्षा । कर्तव्य का ज्ञान ग्रहण-शिक्षा और उसका आचरण का अभ्यास आसेवन-शिक्षा कहलाता है। श्लोक १३: ११. शिल्प ( सिप्पा ख ) : कारीगरी । स्वर्णकार, लोहकार, कुम्भकार आदि का कर्म । १-ओ० नि० वृ० : 'अत्थं वाएइ आयरिओ' 'सुत्तं बाएइ उवज्झाओ' वृत्ति--सूत्रप्रदा उपाध्यायाः, अर्थप्रदा आचार्याः । २-३० गौ० स्मृ० अ० १४.५६,६० : "इहोपनयनं वेदान् योऽध्यापयति नित्यशः । सुकल्पान् इतिहासांश्च स उपाध्याय उच्यते ॥ साङ्गान् वेदांश्च योऽध्याप्य शिक्षयित्वा व्रतानि च । विवणोति च मन्त्रार्थानाचार्यः सोऽभिधीयते।" ३-- अ० चू० ६.३.१ : सुत्तत्थतदुभयादि गुणसम्प:नो अप्पणो गुरुहिं गुरुपदे त्थावितो आयरिओ। ४-जि० चू० पृ० ३१८ : आयरिओ सुत्तत्थतदुभअविऊ, जो वा अन्नोऽवि सुत्तत्थतदुभयगुणेहि अ उववेओ गुरुपए ण ठाविओ सोऽवि आयरिओ चेव। ५---हा० टी०प० २५२ : 'आचार्य' सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठार्यम् । ६- (क) जि० चू० पृ० ३१३ : सिक्खा दुविहा--गहणसिक्खा आसेवणसिक्खा य । (ख) हा० टी० प० २४६ : 'शिक्षा' ग्रहणासेवनालक्षणा । ७-(क) अ० चू० : सिप्पाणि सुवण्णकारादीणि ।। (ख) जि० चू० पृ० ३१३ : सिप्पाणि-कुंभारलोहारादीणि । (ग) हा० टी०प० २४६ : 'शिल्पानि' कुम्भकारक्रियादीनि । Jain Education Intemational Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४४४ अध्ययन ६ (द्वि०उ०) : श्लोक १४-१५ टि० १२-१६ १२. नैपुण्य ( णेउणियाणि ख ) : कौशल, वाण-विद्या', लौकिक कला, चित्र-कला। श्लोक १४ : १३ श्लोक : १३.१४. इनमें बन्ध, वध और परिताप के द्वारा अध्यापन की उस स्थिति पर प्रकाश पड़ता है जिस युग में अध्यापक अपने विद्यार्थियों को सांकल से बाँधते थे, चाबुक आदि से पीटते थे और कठोर वाणी से भर्त्सना देते थे । १४. ललितेन्द्रिय ( ललिइंदिया घ): जिनकी इन्द्रियाँ ललित क्रीडाशील या रमणीय होती हैं, वे ललितेन्द्रिय कहलाते हैं। अगस्त्य धूणि में वैकल्पिक व्याख्या 'लालितेंदिय' शब्द की हुई है। जिनकी इन्द्रियाँ सुख के द्वारा लालित होती हैं, उन्हें लालितेन्द्रिय कहा जाता है। 'लकार' को ह्रस्वादेश करने पर ललितेन्द्रिय हो जाता है । श्लोक १५: १५. सत्कार करते हैं ( सक्कारंति ग): किसी को भोजन, वस्त्र आदि से सम्मानित करना ‘सत्कार' कहलाता है । १६. नमस्कार करते हैं ( नमसंति ग ): __गुरुजन के आने पर उठना, हाथ जोड़ना आदि 'नमस्कार' कहलाता है। अगस्त्यचूणि में इसके स्थान पर 'समाणेति' पाठ है और उसका अर्थ स्तुति-वचन, चरण-स्पर्श आदि किया है। १-अ० चू० : ईसत्थसिक्खाकोसलादीणि । २--जि० चू० पृ० ३१३ : उणिआणि लोइयाओ कलाओ। ३-हा० टी०प० २४६ : 'नैपुण्यानि च' आलेख्यादिकलालक्षणानि । ४-(क) अ० चू : बंधं णिगलादीहिं बधं लकुलादीहिं घोरं पासत्थिपाण भयाणट्ठां परितावणं अंगभंगादीहिं । (ख) जि० चू० पृ० ३१३, ३१४ : तत्थ निगलादीहिं बंध पार्वेति, वेत्तासयादिहिं य बंधं घोरं पावेंति, तओ तेहिं बंधेहि वधेहि य परितावो सुदारुणो भवइत्ति, अहवा परितावो निठुरचोयणतज्जियस्स जो मणि संतावो सो परितावो भण्णइ। (ग) हा० टी० प० २४६ : 'बन्ध' निगडादिभिः 'वधं' कषादिभिः 'घोरं' रौद्रं परितापं च 'दारुणम् एतज्जनितमनिष्टं निर्भर्स नादिवचनजनितम् । ५.--- (क) अ० चू० : ललिताणि नाङगातिसुक्खसमुदिताणि इंदियाणि जेसि रायपुत्तप्पभीतीण ते ललितेंदिया। (ख) जि० चू० पृ० ३१४ : ललिइंदिया णाम आगब्भाओ ललियाणि इंदियाणि जेसि ते ललिई दिया, अच्चन्तसहितत्ति वृत्तं भवति, ते य रायपुत्तादि । (ग) हा० टी०प० २४६ : 'ललितेन्द्रिया' गर्भेश्वरा राजपुत्रादयः । ६-अ० चू० : लालितें दिया वा सुहेहि, लकारस्स ह्रस्सादेसो । ७–(क) अ० चू० : भोयणच्छादण गंधमल्लेण य सक्कारंति । (ख) जि० चू० ० ३१४ : सक्कारो भोजणाच्छादणादिसंपादणओ भवइ । (ग) हा० टी०प० २५० : 'सत्कारयन्ति' वस्त्रादिना। ८-(क) जि० चू० पृ० ३१४ : णमंसणा अब्भुट्ठाणंजलिपग्गहादी। (ख) हा० टी० प० २५० : 'नमस्यन्ति' अञ्जलिप्रग्रहादिना । &-अ० चू० : युतिवयणपादोवफरिसं समयक्करणादीहि य समाणेति । Jain Education Intemational Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाहो (विनय-समाधि) ४४५ अध्ययन ६ (द्वि. उ०) : श्लोक १७ टि० १७-२२ श्लोक १७ : १७. नीची शय्या करे ( नीयं सेज्ज क ): आचार्य की शय्या (बिछौने) से अपनी शय्या नीचे स्थान में करना। १८. नोची गति करे ( गई क ) : नीची गति अर्थात् शिष्य आचार्य से आगे न चले, पीछे चले । अति समीप और अति दूर न चले। अति समीप चलने से रजें उड़ती हैं और अति दूर चलना प्रत्यनीकता तथा आशातना है। १६. नीचे खडा रहे ( ठाणं क ) : मुनि आचार्य खड़े हों उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे । आचार्य के आगे और पार्श्व भाग में खड़ा न हो। २०. नीचा आसन करे ( नीयं च आसणाणि ख ) : आचार्य के आसन पीठ, फलक आदि से अपना आसन नीचा करना । हरिभद्र ने इसका अर्थ-लघुतर आसन किया है। २१. नीचा होकर आचार्य के चरणों में वन्दना करे ( नीयं च पाए वंदेज्जा ग ) : ___ आचार्य आसन पर आसीन हों और शिष्य निम्न भूभाग में खड़ा हो फिर भी सीधा खड़ा-खड़ा वन्दना न करे, कुछ झुककर करे । शिर से चरण स्पर्श कर सके उतना झुककर वन्दना करे । २२. नीचा होकर अञ्जलि करे-हाथ जोड़े ( नीयं कुज्जा य अंजलि घ): वन्दना के लिए सीधा खड़ा-खड़ा हाथ न जोड़े, किन्तु कुछ झुककर वैसा करे । १-(क) अ० चू० : सेज्जा संथारओ तं णीयतरमायरियसंथारगाओ कुज्जा। (ख) जि. चू० पु० ३१४ : सेज्जा संथारओ भण्णइ, सो आयरियस्संतियाओ णीयतरी कायब्वो। (ग) हा० टी० ५० २५० : नीचां शय्या' संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः । २-(क) अ० चू० : न आयरियाण पुरतो गच्छेज्जा । (ख) जि० चू० पृ. ३१४-३१५ : 'णीया' नाम आयरियाण पिढओ गंतव्वं, तमवि णो अच्चासणं, न वा अतिदूरत्येण गंतव्वं, अच्चासन्ने ताव पादरेणुणा आयरियसंघट्टणदोसो भवइ, अइदूरे पडिणीय आसायणादि बहवे दोसा भवतीति, अतो णच्चासण्णे णातिदूरे य चंकमितव्वं । (ग) हा० टी० प० २५० : नीचां गतिमाचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद् तं यायादित्यर्थः। ३–(क) जि० चू० पृ० ३१५ : तहा जंमिवि ठाणे आयरिया उवचिट्ठा अच्छंति तत्थं जं नीययरं ठाणं तंमिठाइयव्वं । (ख) हा • टी०प० २५० : नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, यत्राचार्य आस्ते तस्मान्नोचतरे स्थाने स्थातव्यमितिभावः । ४- अ० चू० : ठाणमवि जंण पक्खतो ण पुरतो,एवमादि अविरुद्ध तं णोतं तहा कुज्जा। ५-(क) अ० चू० : एवं पीढ फलगादिमवि आसणं । (ख) जि० चू० पृ० ३१५ : तहा नीययरे पोढगाइमि आसणे आयरिअणुन्नाए उवविसेज्जा। (ग) हा० टी० ५० २५० : 'नीचानि' लघुतराणि कदाचित्कारणजाते 'आसयानि' पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञात: सेवेत । ६-(क) जि० चू० पृ० ३१५ : जइ आयरिओ आसणे इतरो भूमिए नीययरे भूमिप्पदेसे वंदमाणो उवढिओ न वंदेज्जा, किन्तु जाव सिरेण फुसे पादे ताव णीयं वदेज्जा । (ख) हा० टी० प० २५० : 'नीच' च सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्को वन्देत, नावज्ञया। ७-(क) जि० चू०प० ३१५ । तहा अंजलिमवि कुन्वमाणेण णो पहाणंमि उवविट्ठण अंजली कायव्वा, किंतु ईसिअवणएण कायव्या। (ख) हा० टी० ५० २५० : 'नीच' नम्रकायं 'कुर्यात्' संपादयेच्चाञ्जलि, न तु स्थाणुवस्तब्ध एवेति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४४६ अध्ययन ६ (द्वि०उ०) : श्लोक १८-२० टि० २३-२८ श्लोक १८ : २३. श्लोक १८: आसातना होने पर क्षमा-याचना करने की विधि इस प्रकार है--शिर झुकाकर गुरु से कहे-मेरा अपराध हुआ है उसके लिए मैं "मिच्छामि दुक्कड" का प्रायश्चित्त लेता हूँ। आप मुझे क्षमा करें। मैं फिर से इसे नहीं दोहराऊंगा'। २४. ( उवहिणामविख): यहाँ मकार अलाक्षणिक है। २५. किसी दूसरे प्रकार से ( अवि ख ) : यह अपि शब्द का भावानुवाद है। यहाँ 'अपि' संभावना के अर्थ में है। अगस्त्य घुणि के अनुसार 'गमन से उत्पन्न वायु से' और जिनदास चूणि के अनुसार 'काया और उपधि-दोनों से एक साथ स्पर्श हो जाने पर' यह 'अपि' का संभावित अर्थ है। श्लोक १६: २६. पाठान्तर: उन्नीसवें श्लोक के पश्चात् कुछ आदशों में 'आलवते.........' यह श्लोक है। किन्तु चूणि और टीका में यह व्याख्यात नहीं है। उत्तराध्ययन (१.२१) में यह श्लोक है। प्रकरण की दृष्टि से व्याख्या के रूप में उद्धृत होते-होते मूल में प्रक्षिप्त हो गया ऐसा संभव है। २७. ( किच्चाणं ग ) : कृत्य' का अर्थ वन्दनीय या पूजनीय है । आचार्य, उपाध्याय आदि वन्दनीय गुरुजन 'कृत्य' कहलाते हैं। चूणियों में और वैकल्पिक रूप में टीका में 'किच्चाई' पाठ माना है। उसका अर्थ है-आचार्य, उपाध्याय के द्वारा अभिलषित कार्य । श्लोक २०: २८. काल ( कालं क ) : काल को जानकर'- इसका आशय यह है कि शिष्य आचार्य के लिए शरद् आदि ऋतुओं के अनुरूप भोजन, शयन, आसन आदि १-जि०० पृ० ३१५ : सो य उवाओ इमो-सिरं भूमीए निवाडेऊण एवं वएज्जा, जहा–अवराहो मे, मिच्छामि दुक्कडं, खंतव्वमेयं, णाहं भुज्जो करिहामित्ति । २-० चू० : अविसद्देण अच्चासण्णं गमण वायुणा वा। ३–जि० चू० पृ० ३१५ : अविसद्दो संभावणे वट्टइ, कि संभावयति ?, जहा दोहिंवि कायोवहीहि जया जमगसमग घट्टिओ भवइ । ४- हा० टी० प० २५० : ‘कृत्यानाम्' आचार्यादीनाम । ५- (क) अ० चू० : आयरियकरणीयाणि । (ख) जि. चू० पृ० ३१५ : जाणि आवरियउवज्झायाईणं किच्चाई मणरुइयाणि ताणि । (ग) हा० टी० प० २५० : 'कृत्यानि वा' तदभिरुचितकार्याणि । Jain Education Intemational Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही ( विनय-समाधि ) ४४७ अध्ययन ६ (द्वि० उ०) : श्लोक २१-२२ टि० २६-३२ लाए। जैसे-शरद्-ऋतु में वात-पित्त हरने वाले द्रव्य, हेमन्त में उष्ण, बसन्त में श्लेष्म हरने वाले, ग्रीष्म में शीतकर और वर्षा में उष्ण आदि-आदि। २६. अभिप्राय ( छंदं क ) : शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्य की इच्छा को जाने । देश-काल के आधार पर इच्छाएं भी विभिन्न होती हैं, जैसे किसी को छाछ आदि, किसी को सत्तू आदि इष्ट होते हैं । क्षेत्र के आधार पर भी रुचि की भिन्नता होती है, जैसे-कोंकण देश वालों को पेया प्रिय होती है, उत्तरापथ वासियों को सत्तू आदि-आदि । ३०. आराधन-विधि ( उवयारं क ) : अगस्त्य घुणि में 'उबयार' का अर्थ आज्ञा, जिनदास चूणि में 'विधि'५ और टीका में 'आराधना का प्रकार किया है। श्लोक २१ : ३१. सम्पत्ति (संपत्ती ख ) : ___ इसका अर्थ है सम्पदा । अगस्त्य पूणि में इसका अर्थ कार्य-लाभ और टीका में सम्प्राप्ति किया है। श्लोक २२ : ३२. जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है ( मइइड्ढिगारवे क): जो मति द्वारा ऋद्धि का गर्व वहन करता है, जो जातीयता का गर्व करता है और जो ऋद्धि-गौरव में अभिनिविष्ट है१२-ये क्रमश: अगस्त्य पूर्णि, जिनदास धूणि और टीका के अर्थ हैं । मति अर्थात् श्रुत और ऋद्धि-ऐश्वर्य का गर्व-यह इसका सरल अर्थ प्रतीत होता है। १-अ० चू०: जधा कालं जोग्गं भोजणसयणासणादि उवणेयं । २-जि० चू० पृ० : ३१५-१६ : तत्थ सरदि वातपित्तहराणि दब्वाणि आहरति, हेमन्ते उण्हाणि, वसंते हिमहराणि (सिभहराणि), गिम्हे सीयकरणानि, वासासु उण्हवण्णाणि (उण्णवण), एवं ताव उडु उडु पप्प गुरूण अट्ठाए दव्वाणि आहरिज्जा, तहा उर्दू पप्प सेज्जमवि आणेज्जा। ३--जि० चू० पृ० ३१६ : छन्दो णाम इच्छा भण्णइ, कयाइ अणु दुप्पयोगवि दव्वं इच्छति, भणियं च- 'अण्णस्स पिया छासी मासी अण्णस्स आसुरी किसरा । अण्णस्स घारिया पूरिया य बहुडोहलो लोगो।' तहा कोई सत्तुए इच्छइ कोति एगरसं इच्छइ, देसं वा पप्प अण्णस्स पियं जहा कुदुक्काणं कोंकणयाण पेज्जा, उत्तरापहगाणं सत्तुया, एवमादि । ४-अ० चू० : उवयारो आणा कोति आणत्तिआए तूसति । ५ - जि० चू० पृ० ३१६ : 'उवयार' णाम विधी भण्णइ । ६-हा० टी०प० २५० : 'उपचारम्' आराधनाप्रकारम् । ७--जि० चू० पृ० ३१६ : अट्ठीहिं विणीयस्स संपदा भवति । ८-अ० चू० : संपत्ती कज्जलाभो। E-हा० टी०प० २५१ : संप्राप्तिविनीतस्य च ज्ञानादिगुणानाम् । १०-अ० चू० : जो मतीए इड्डिगारवमुवहति । ११-जि० चू० पृ० ३१६ : जातीए इड्डिगारवं वहति, जहाऽहं उत्तमजातीओ कहमेतस्स पादे लग्गिहामिति मति इदशी गारवो भण्णति । १२-हा० टी० ५० २५१ : 'ऋद्धिगौरवमतिः' ऋद्धिगौरवे अभिनिविष्टः । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४४८ अध्ययन ६ (द्वि० उ०) : श्लोक २३ टि० ३३-३६ ३३. जो साहसिक है ( साहस ख ) : ___ इसका अर्थ है-बिना सोचे-समझे आवेश में कार्य करने वाला अथवा 'अकृत्य कार्य करने में तत्पर"। इस शब्द के अर्थ का उत्कर्ष हुआ है । प्राचीन साहित्य में इसका प्रयोग चोर, हिंसक, शोषक आदि के अर्थ में होता था, परन्तु कालान्तर में इसका अर्थ शक्तिशाली, संकल्पवान् हुआ है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'साहस' को हिंसा का पर्यायवाची शब्द माना है। कोशकार होरेस हेमेन विल्सन ने 'साहस' के हिंसा और शक्ति दोनों अर्थ किए हैं परन्तु 'साहसिक' का हिंसापरक अर्थ ही किया है। ३४. जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता ( होणपेसणे ख ): 'पेसण' का अर्थ है नियोजन, कार्य में प्रवृत्त करना, आज्ञा आदि। जो शिष्य अपने गुरु की आज्ञा को हीन- लधु करता हैयथासमय उसका पालन नहीं करता, वह हीन-प्रेषण कहलाता है । ३५. जो असंविभागी है ( असंविभागी) : जो अपने लाए हुए आहार आदि का दूसरे समानधर्मी साधुओं को संविभाग नहीं देता, वह 'असंविभागो' कहलाता है। 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो' -यह धर्म-सूत्र आधुनिक समाजवाद की भावना का प्रतिनिधि-वाक्य है । श्लोक २३: ३६. जो गोतार्थ हैं ( सुयत्थधम्मा ख ) : अगस्त्य चूणि में इसका अर्थ गीतार्थ किया है और इसकी व्युत्पत्ति 'जिसने अर्थ और धर्म सुना है' की है। जिनदास घृणि में भी इसकी दो व्युत्पत्तियाँ ( जिसने अर्थ-धर्म सुना हैं अथवा धर्म का अर्थ सुना हैं ) मिलती हैं। टीकाकार दूसरे व्युत्पत्तिक अर्थ को मानते हैं। - १-(क) अ० चू० : रभसेण किच्चकारी साधसो। (ख) जि० चू० पृ० ३१७ : साहसो णाम जं किंचि तारिसं तं असंकिओ चेव पडिसेवतित्तिकाऊण साहस्सिओ भण्णइ । (ग) हा० टी० प० २५१ : ‘साहसिकः' अकृत्यकरणपरः । २--प्रश्न संवरद्वार १। ३.-A Sanskrit-English Dictionary. Page 986. : साहस oppression, cruelty, violence, strength. साहसिक ___violent, Brutal, etc. ४-(क) अ० चू० : पेसणं जधाकालं मुपपादयितुमसत्तो होणपेसणो। (ख) जि० चू० पृ० ३१७ : जो य पेसण तं आयरिएहि दिन्नं तं देसकालादीहिं हीणं करेतित्ति होणपेसणे । (ग) हा० टी० प० २५१ : 'हीनप्रेषणः' हीनगुर्वाज्ञापरः। ५--(क) अ० चू० : असंविभयणसीलो-असंविभागी। (ख) जि० चू० पृ० ३१७ : संविभायणासोलो संविभागी, ण संविभागी असंविभागी। (ग) हा० टी० प० २५१ : यत्र क्वचन लाभे न संविभागवान् । (घ) उत्त० १७.११ बृ० वृ० : संविभजति-गुरुग्लानबालादिभ्य उचितमशनादि यच्छतीत्येवंशीलः संविभागीन तथा य आत्म-पोषकत्वेनैव सोऽसंविभागी। ६--अ० चू० : सुतो अत्थो धम्मो जेहि ते सुतत्थधम्मा। ७-जि०चू०पृ०३१७ : सुयोऽत्थधम्मो जेहिं ते सुतत्थधम्मा, गीयस्थित्ति वुत्तं भवइ,अहवा सुओ अत्थो धम्मस्स जेहिं ते सुतत्थधम्मा। -हा० टी०प० २५१ : 'श्रुतार्थधर्मा' इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झणं विणयास माही ( तइओ उद्देसो ) नवम अध्ययन विनय-समाधि ( तृतीय उद्देशक ) Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं : नवम अध्ययन विणयसमाही (तइओ उद्देसो) : विनय-समाधि (तृतीय उद्देश क) संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १--आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी आचार्यमग्निमिवाहिताग्निः, सुस्सूसमाणो पडिजागरेज्जा। शुश्रूषमाणः प्रतिजागृयात् । आलोइयं इंगियमेव नच्चा आलोकितं इङ्गितमेव ज्ञात्वा, जो छन्दमाराहयइ स पुज्जो ॥ यश्छन्दमाराधयति स पूज्यः ॥११॥ १-जैसे आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहता है, वैसे ही जो आचार्य की शुश्रुषा करता हुआ जागरूक रहता है, जो आचार्य के आलोकित और इङ्गित को जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता है', वह पूज्य है। २-आयारमा विणयं पउंज आचारार्थ विनयं प्रयुजीत, सस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं । शुश्रूषमाणः परिगृह्य वाक्यम् । जहोवइट्ट अभिकंखमाणो यथोपदिष्टमभिकाङ्क्षन्, गुरु तु नासाययई स पुज्जो ॥ गुरु तु नाशातयति स पूज्य: ॥२॥ २-जो आचार के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो आचार्य को सुनने की इच्छा रखता हुआ उनके वाक्य को ग्रहण कर उपदेश के अनुकूल आचरण करता है, जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य है। ३-राइणिएसु विणयं पउजे रात्निकेषु विनयं प्रयुजीत, डहरा वि य जे परियायजेट्रा । डहरा अपि ये पर्यायज्येष्ठाः । नियत्तणे वट्टइ सच्चवाई नीचत्वे वर्तते सत्यवादी, ओवावयं वक्ककरेस पुज्जो ॥ अवपातवान् वाक्यकर: स पूज्यः ।।३।। ३-जो अल्पवयस्क होने पर भी दीक्षा-काल में ज्येष्ठ हैं-उन पूजनीय साधुओं के प्रति विनय का प्रयोग करता है, नम्र व्यवहार करता है, सत्यवादी है, गुरु के समीप रहने वाला है। और जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, वह पूज्य है। ४-- अन्नायउंछं चरई विसुद्ध। अज्ञातोच्छं चरति विशुद्ध, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं। यापनार्थ समुदानं च नित्यम् । अलद्ध यं नो परिदेवएज्जा अलब्ध्वा न परिदेवयेत्, लवुन विकत्थयई स पुज्जो ॥ लब्ध्वा न विकत्यते स पूज्यः ॥४॥ ४—जो जीवन-यापन के लिए विशुद्ध सामुदायिक अज्ञात-उञ्छ (भिक्षा) की सदा चर्या करता है, जो भिक्षा न मिलने पर खिन्न नहीं होता, मिलने पर श्लाघा नहीं करता, वह पूज्य है। ५–संथारसेज्जासणभत्तपाणे संस्तार-शय्यासन-भक्तपाने, अप्पिच्छया अइलाभे वि संते । अल्पेच्छताऽतिलाभेपि सति । जो एवमप्पाणभितोसएज्जा य एवमात्मानमभितोषयेत्, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ॥ सन्तोषप्राधान्यरत: स पूज्य: ॥५॥ ५---संस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पानी का अधिक लाभ होने पर भी जो अल्पेच्छ होता है, अपने-आप को सन्तुष्ट रखता है और जो संतोष-प्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है। Jain Education Intemational Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ (तृ०उ०) : श्लोक ६-११ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४५२ ६. ....१"सक्का सहउँ आसाए कंटया शक्या: सोढुमाशया कण्टकाः, अओमया उच्छहया नरेणं । अयोमया उत्सहमानेन नरेण । अणासए जो उ सहेज्ज कंटए अनाशया यस्तु सहेत कण्टकान्, वईमए कण्णसरे स पुज्जो ॥ वाङ्मयान् कर्णशरान् स पूज्य ॥६॥ ६-पुरुष धन आदि की आशा से लोहमय कांटों को सहन कर सकता है परन्तु जो किसी प्रकार की आशा रखे बिना कानों में पैठते हए१२ वचनरूपी कांटों को सहन करता है, वह पूज्य है। ७-मुहत्तदुक्खा हु हवंति कंटया अओमया ते वि तओ सुउद्धरा। वायादुरुत्ताणि दुरुद्ध राणि वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ मुहूर्त दुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, अयोमयास्तेऽपि तत: सूद्धराः । वाग्-दुरुक्तानि दुरुद्वराणि, वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥७॥ ७-लोहमय कांटे अल्पकाल तक दु:खदायी होते हैं और वे भी शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं किन्तु दुर्वचनरूपी कांटे सहजतया नहीं निकाले जा सकने वाले. वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले १४ और महाभयानक होते हैं। ८-समावयंता वयणाभिधाया समापतन्तो वचनाभिघाता:, कण्णंगया दुम्मणियं जणंति । कर्णगता दौर्मनस्यं जनयन्ति । धम्मो ति किच्चा परमग्गसरे धर्मति कृत्वा परमानशूरः, जिईदिए जो सहई स प्रज्जो जितेन्द्रियो य: सहते स पूज्यः ॥८॥ ८-सामने से आते हुए वचन के प्रहार कानों तक पहुंचकर दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं । जो शुर व्यक्तियों में अग्रणी५, जितेन्द्रिय पुरुष 'यह मेरा धर्म है'- ऐसा मानकर उन्हें सहन करता है, वह पूज्य है। &-अवण्णवायं च परम्मुहस्स अवर्णवादञ्च पराङ्मुखस्य, पच्चक्खओ पडिणीयच भासं। प्रत्यक्षत: प्रत्यनीकाञ्च भाषाम् । ओहारिणि अप्पियकारिणि च अबधारिणीमप्रियकारिणीञ्च, भाषां न भाषेत सदा स पूज्य: ॥६। भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ।। E-जो पीछे से अवर्णवाद नहीं बोलता, जो सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता, वह पूज्य है । १०-अलोलुए अक्कुहऐ६ अमाई अलोलुप: अकुहक: अमायी, अपितुणे यावि अदीणवित्ती। अपिशुनश्चापि अदीनवृत्तिः । नो भावए नो वि य भावियप्पा नो भावयेत् नो अपि च भावितात्मा अकोउहल्ले य सया स पुज्जो॥ अकौतूहलश्च सदा स पूज्य: ॥१०॥ १०—जो रसलोलुप नहीं होता, इन्द्रजाल आदि के चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, माया नहीं करता, हुगली नहीं करता दीनभाव से याचना नहीं करता, दूसरों से आत्मश्लाघा नहीं करवाता२२, स्वय भीआत्मश्लाघा नहीं करता और जो कुतुहल नहीं करता, वह पूज्य है। ११-गुणेहि साहू अगुणाहऽसाहू गुणः साधुरगुगैरसाधुः, गिण्हाहि साहूगुण मुचऽसाहू । गृहाण साधुगुणान् मञ्चाऽसाधून् । वियाणिया अप्पगमप्पएणं विज्ञाय आत्मकमात्मकेन, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो॥ यो राग-द्वषयो: सम: स पूज्य: ॥११॥ ११- गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु। इसलिए साधु-गुणोंसाधूता को ग्रहण कर और असाधू-गणोंअसाधुता को छोड़२४ | आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग और द्वेष में सम (मध्यस्थ) रहता है, वह पूज्य है। Jain Education Intemational cation Intemational Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ अध्ययन ६ : श्लोक १२-१५ विणयसमाही ( विनयसमाधि ) १२-तहेव डहरं व महल्लग वा इत्थीपुमं पव्वइयं गिहिवा। नो होलए नो वि य खिसएज्जा थंभं च कोहं च चए सपुज्जो ॥ तथैव डहरं च 'महान्तं' वा, प्रिय पुमांसं अजितं गृहिणं वा । को होलयेन्दो अपि च खिसयेत्, स्तम्भञ्च कोधञ्च त्यजेत् स पूज्य: ॥१२॥ १२---बालक या हद्ध, स्त्री या पुरुष, प्रद्रजित या गृहस्थ को दुश्चरित की याद दिलाकर जो लज्जित नहीं करता, उनकी निन्दा नहीं करता२५, जो गर्व और क्रोध का त्याग करता है, वह पूज्य है। १३- जे माणिया सययं माणयंति जत्तेण कन्नं व निवेसलि। ते माणए माणरिहे तवस्सी जिइंदिए सच्चरएस पुज्जो॥ ये नानिताः सततं मानपन्ति, यत्नेन कन्या म निवेशयन्ति । तान्मानयेन्मानास्तिपस्विनः, जितेन्द्रियान् सत्यरतान् स पूज्य: ॥१३॥ १६-- अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किए जाने पर जो शिष्यों को सतत सम्मानित करते हैं...श्रत ग्रहण के लिए प्रेरित करते हैं, पिता उसे अपनी कन्या को यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करता है, वैसे ही जो आचार्य अपने शिष्यों को योग्य मार्ग में स्थापित करते हैं, उन माननीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यरत आचार्य का जो सम्मान करता है, वह पूज्य है । १४-तेसि गुरूणं गुणसागराणं तेषो गुरूणां गुणसागराणां, सोच्चाण मेहावि सुभासियाई। श्रुत्वा मेवावी सुभाषितानि । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो। चरेन्मुनिः पञ्तरचस्त्रिगुप्तः, चउकसायावगए स पुज्जो॥ अपगत-चतुष्कषायः स पूज्यः ॥१४॥ १४-जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरओं के सुभाषित सुनकर उनका आचरण करता है, पाँच महाव्रतों में रत, मन, वाणी और शरीर से गुप्त तथा क्रोध, मान, माया और लोभ को दूर करता है, वह पूज्य है। १५-गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी जिणमयनिउणे अभिगमकसले। धुणिय रयमलं पुरेकर्ड भासुरमउलं गई गय॥ गुरुमिह सततं प्रतिवर्य निः, जिनमतनिषु णोऽभिगमदुशलः । धूत्वा रजोमलं पुरा कृत, भास्वरामतुलां गतिं गतः ॥१५॥ १५---इस लोक में गुरु की सतत सेवा कर", जिनमत-निपुण (आगम-निपुण) और अभिगम (विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल३२ मुनि पहले किए हुए रज और मल को33 कम्पित कर प्रकाशयुक्त अनुपम गति को प्राप्त होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। त्ति बेमि। इति ब्रवीमि । Jain Education Intemational Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ह ( तृतीय उद्देशक ) श्लोक १ : १. अभिप्राय की आराधना करता है ( छन्दमारायइप): छन्द का अर्थ है इच्छा । विनीत शिष्य केवल गुरु का कहा हुआ काम ही नहीं, जिनके निरीक्षण औरत को समझ कर स्वयं समयोचित कार्य कर लेता है । शीतकाल की तु है । आचार्य ने वस्त्र की ओर देवः । दिप्य सभा गया । आचार्य को ठंड लग रही है, वस्त्र की आवश्यकता है । उसने बस्व लिया और आचार्य को दे दिया यह मिलोमतको समान कार छन्द की आराधना का प्रकार है। आचार्य के कफ का प्रकोप हो रहा है। औपत्र की अपेक्षा है। उन्होंने कुछ भी नहीं पता फिर भी थिय उनका इङ्गित-मन का भाव बताने वाली अङ्ग-चेष्टा देखकर संठ ला देता है । यह इङ्गित के द्वारा छन्द की आराधना का प्रकार है । आलोकित और इङ्गित से जैसे अभिप्राय जाना जाता है. वैसे और और साधनों से भी जाना जा सकता है। कहा भी है : इगिताकारितैश्चैव, क्रियाभि रितेन च । नेवा विकाराभ्यां, गृहातेन्तर्गतं मनः ।। अ०यू०॥ इङ्गित, आकार, क्रिया, भाषण, नेत्र और मुंह का विकार -इनके द्वारा आन्त रक चेप्टाएँ जानी जाती हैं। श्लोक २: २. आचार के लिए ( आयारमट्ठा क ) : ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र और वीर्य-ये पांच आचार अहलाते हैं । विनय इन्हीं को प्राक्षि लिए करना चाहिए। यह परमार्थ का उपदेश है। ऐहिक या पारलौकिक पूजा, प्रतिष्ठा आदि के लिए विनय करना परमार्थ नहीं है। श्लोक ३ : ३. अल्पवयस्क (डहरा ख ): ____ 'डहर' और 'दहर' एक ही शब्द हैं । वेदान्तसूत्र में 'दहर' का प्रयोग हुआ है। उसका अर्थ ब्रह्म है ( इसके लिए १.३.१४ से १.३.२३ तक का प्रकरण द्रष्टव्य है)। छान्दोग्य उपनिषद् में भी 'दहर' शब्द प्रयुक्त हुआ है। शाङ्करभाष्य के अनुसार उसका अर्थ अल्प..... लघु है । १-हा० टी० प० २५२ : यथा शोते पतति प्रावरणावलोकने कानयने । २-हा० टी प० २५२ : इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुठ्याद्यानयनेन । ३-जि० चू० पृ० ३१८ : पंचविधस्स णाणाइआयारस्स अट्ठाए साधु आयारियस विषय पवेज्जा। ४-छान्दो० ८.१.१ : यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीक वेश्म दहरोऽ स्मन्नन्तराकाशस्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति । ५-वही, शा० भाष्य : दहरमल्पं पुण्डरीक पुण्डरीकसदृशं वेश्भेव वेश्म द्वारपालादिमत्त्वात् । 'दहर' अर्थात् छोटा-सा कमल-सदृश गृह है-द्वारपालादि से युक्त होने के कारण जो गृह के समान गृह है। Jain Education Intemational Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसमाही (विनय-समाधि ) ४. दीक्षा काल में उयेष्ट (परीयायजेठा ) ख ज्येष्ठ या स्थविर तीन प्रकार के होते हैं । ५. जो (१) जातिपर जो जन्म से ज्येष्ठ होते हैं। ज्ञान से होते हैं। (२) तस्वरि (३) पर्याय जो दीक्षा-काल से ज्येष्ठ होते है। यहाँ इन तीनों में से पर्याय ज्येष्ठ' की विशेषता बतलाई गई है? । जो जाति और श्रुत से ज्येष्ठ न होने पर भी पर्याय से ज्येष्ठ हो उसके प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए। गुरु के समीप रहने वाला है ( ओवायवं ) आगम-टीकाओं में 'वाय' के संस्कृत रूप 'उपपात और अवपात' दोनों दिये जाते हैं। उपपात का अर्थ है- समीप व आज्ञा और अवपात का अर्थ है ---वन्दन, सेवा आदि । अगस्त्य वृद्धि में 'ओवायव' का अर्थ 'आचार्य का आज्ञाकारी' किया है। जिनदास वर्णि में भी 'ओवाय' का अर्थ आज्ञा-निर्देश किया है। टीकाकार ने 'ओवायव' के दो अर्थ किए हैं—बन्दनशील या समीपवर्ती' । 'अव ' को 'ओ' होता है परन्तु 'उप' को प्राकृत व्याकरण में 'ओ' नहीं होता । आर्य प्रयोगों में 'उप' को 'ओ' किया जाता है, जैसे – उपवास == ओवास (पउमचरिय ४२ ८१ । ४५५ अध्ययन १ ( तु० उ० ) श्लोक ४ टि०४-६ वन्दनशील के अतिरिक्त समीपवर्ती या आज्ञाकारी' अर्थ 'उपपात' शब्द को ध्यान में रखकर ही किए गए हैं। 'ओवायव' से अगला शब्द 'बक्ककर' है । इसका अर्थ है- गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला। इसलिए 'ओवायवं' का अर्थ 'वन्दनशील' और 'समीपवर्ती' अधिक उपयुक्त है । जिनदास महत्तर ने 'आशायुक्त वचन करने वाला' - इस प्रकार संयुक्त अर्थ किया है । परन्तु 'ओवायवं' शब्द स्वतन्त्र है, इसलिए उसका अर्थ स्वतंत्र किया जाए यह अधिक संगत है । श्लोक ४ : ६. जीवन-यापन के लिए ( जट्टया) संयम भार को वहन करने वाले शरीर को धारण करने के लिए - यह अगस्त्य सिंह स्थविर और टीकाकार की व्याख्या है । जिनदास महत्तर इसी व्याख्या को कुछ और स्पष्ट करते हैं, जैसे-- यात्रा के लिए गाड़ी के पहिए में तेल चुपड़ा जाता है वैसे ही संयम-यात्रा को निभाने के लिए भोजन करना चाहिए । २- अ० चू० : आयरिअ आणाकारी ओवायवं । ३ जि० १० चू० पृ० ३१९ P १- अ० चू० : जातिसुतथेरभूमीहिंतो परियागथेरेभूमिमुक्करिस्संतहि विसेसिज्जति डहरावि जो वयसा परियायजेट्ठा पव्वज्जामहेल्ला । उवातो नाम आणानिद्देसो । 'अवपातवान्' वन्दनशीलो निकटवर्ती वा । 'वाक्यकरो' निर्देशकः । ४- हा० टी० प० २५३ ५० टी० १० २५३ ६- (क) अ० ० : संजयभाम्यह सरीरधारणत्वं यट्ठता । (ख) हा० टी०प०२५३ 'वापनार्थ संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय नायया । ७- वि० ० पृ० ३१६ 'जयगट्ठया' नाम जहा सटरस अभंगो जतत्वं कीरह, लहा संजमजत्ता निव्वणत्वं आहारयति । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ७. अपना परिचय न देते हुए उञ्छ ( भिक्षा ) की ( अन्नायउञ्छं 'अज्ञात और 'उच्छ' को व्याख्याएं भिन्न-भिन्न स्थलों में इस प्रकार की हैं जो मित्र स्वजन आदि न हो वह 'अज्ञात' कहलाता है' । पूर्व-संस्तव मातृ-पितृपक्षीय परिचय और पश्चात् संस्तव - ससुरपक्षीय परिचय के बिना प्राप्त भैक्ष्य 'अज्ञात उंछ' कहलाता है । उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित जो भैक्ष्य उपलब्ध हो वह 'अज्ञात उच्छ' है । 'अज्ञात - उञ्छ' की ८.२३ में भी यही व्याख्या है । उक्त व्याख्याओं के आधार पर 'अज्ञात उञ्छ' के फलितार्थं दो हैं : ४५६ अध्ययन ( तृ० उ० ) श्लोक ४ टि०७-६ १. अज्ञात घर का उञ्छ । २. अज्ञात - अपना परिचय दिए बिना प्राप्त उच्छ । क जिनदास महत्तर के अनुसार भी 'अज्ञात उञ्छ' के ये दोनों अर्थ फलित होते हैं। टीकाकार 'अज्ञात' को केवल मुनि का ही विशेषण मानते हैं । शीलाङ्काचार्य ने 'अज्ञातपिण्ड' का अर्थ अन्त प्रान्त और पूर्वापर अपरिचितों का पिण्ड किया है। उत्तराध्ययन की वृत्ति में 'अज्ञातैषी' का अर्थ अपने विशेष गुणों का परिचय न देकर गवेषणा करने वाला किया है। प्रश्नव्याकरण में शुद्ध उच्छ की गवेषणा के प्रकरण में 'अज्ञात' शब्द भिक्षु के विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ हैं । यहाँ 'अज्ञात' मुनि का विशेषण है । इसका अर्थ यह है कि मुनि अपना परिचय दिए बिना शुद्ध उच्छ की गवेषणा करे । अनुसन्धान के लिए देखिए कि ८.२३ । ) ८. खिन्न...... होता ( परिदेवएज्जा ग ) : भिक्षा न मिलने पर खिन्न होना- "मैं मन्दभाग्य हूँ, यह देश अच्छा नहीं है" - इस प्रकार विलाप या खेद करना" । ६. श्लाघा ...करता ( विकत्थयई ख ) : भिक्षा मिलने पर " मैं भाग्यशाली हूँ या यह देश अच्छा है" - इस प्रकार श्लाघा करना" । १० (क) जि० पू० पृ० ३१२ (च) हा० डी० प० २५३ १- अ० चू० १.३.४ अन्नातं जं न मित्तरायणादि । २- अ० चू० चूलिका २.५ तमेव समुदाणं पुरुवपच्छा संथवादीहिं ण उप्पादियमिति ३-२००] १०.१६ 'उममुपावशेवणामुड अन्नायमप्रातेव समुपयादितं ४० पू० भा अन्नातमेषणा सुद्धपपातियं' । ५- जि० चू० पृ० ३१६ : भावु ́छं अन्नायेण, तमन्नायं उछं चरति । ६-- हा० टी० प० २५३ : 'अज्ञातोञ्छं' परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्धरितादि । ७-०] १.०.२७० विज्ञातपिण्डः अन्तप्रान्त इत्यर्थ: अज्ञातेभ्यो वा पूर्वापरा संस्तुतेभ्यो वा पिण्डोडि ८ - उत्त० १५. बृ० वृ० : अज्ञातः तपस्वितादिभिर्गुणैरनवगत एषयते ग्रासादिकं गवेषयतीत्येवंशीलोऽज्ञातैषी । ६- प्रश्न० संवरद्वार १.४: चउत्थं आहारएषणाए सुद्धं उञ्छं गवेसियन्वं अण्णाए अगढिए अनुट्ठे अदोणे" परिवेइज्जा, जहा मंदभागो न सभारंभ, अहो पंतो एस जो एवमादि। परिदेवयेत् सेयं बापात् यथा मन्दभाग्योमोनो वाज्य देश इति । तत्वका गाम सलाद्या भण्यति, जह अहो एसो सुम्महिषणामो जनो, जहा या अहंभाव को अन्नातउंछ । अमाउ ं ११ (क) जि० पू० पृ० ३१९ अन्नो एवं लभिहिति । (ख) हा० टी० १० २५३ 'विकल्प' साघां करोतिस शोभनो वाऽयं देश इति । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४५७ अध्ययन ६ (तृ०उ०) : श्लोक ५-७ टि० १०-१४ श्लोक ५ः १०. जो अल्पेच्छ होता है ( अप्पिच्छया ख ) : अल्पेच्छता का तात्पर्य है-प्राप्त होने वाले पदार्थों में मूर्छा न करना और आवश्यकता से अधिक न लेना' । श्लोक ६: ११. श्लोक ६: पुरुष धन आदि की आशा से लोहमय कांटों को सहन कर लेता है-यहाँ सूत्रकार ने एक प्राचीन परम्परा का उल्लेख किया है। धूर्णिकार उसे इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं कई व्यक्ति तीर्थ-स्थान में धन की आशा से भाले की नोक या बबूल आदि के कांटों पर बैठ या सो जाते थे। उधर जाने वाले व्यक्ति उनकी दयनीय दशा से द्रवित हो कहते "उठो, उठो, जो तुम चाहोगे वही तुम्हें देंगे।" इतना कहने पर वे उठ खड़े होते। १२. कानों में पैठते हुए ( कण्णसरे ५ ) : अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसके दो अर्थ किए हैं—'कानों में प्रवेश करने वाले अथवा कानों के लिए वाण जैसे तीखे,। जिनदास और टीकाकार ने इसका केवल एक (प्रथम) अर्थ ही किया है। श्लोक ७: १३. सहजतया निकाले जा सकते हैं ( सुउद्धरा ख ): जो बिना कष्ट के निकाला जा सके और मरहमपट्टी कर व्रण को ठीक किया जा सके-यह 'सुउद्धर' को तात्पर्यार्थ है। १४. वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले ( वेराणुबंधीणि घ): अनुबन्ध का अर्थ सातत्य, निरन्तरता है। कटु वाणी से वर आगे से आगे बढ़ता जाता है, इसलिए उसे वैरानुबन्धी कहा है। १-जि० चू० पृ० ३२० : अप्पिच्छया णाम णो मुच्छं करेइ, ण वा अत्तिरित्ताण गिण्हइ । (ख) हा० टी० प० २५३ : 'अल्पेच्छता' अमूर्च्छया परिभोगोऽतिरिक्ताग्रहणं वा। २--(क) अ० चू० : सक्कणीया सक्का सहितुं मरिसेतूं, लाभो आसा, ताए कंटगा बब्बूलपभीतीणं जधा केति तित्थादित्थाणेसु लोभेण अवस्स मम्हे धम्ममुद्दिस्स कोति उत्थावेहितित्ति कंटकसयणं । (ख) जि० चू० पृ० ३२० : जहा कोयि लोहमयकंटया पत्थरेऊण सयमेव उच्छहमाणा ण पराभियोगेण तेसि लोहकंटगाणं उर्वार णुविज्जति, ते य अण्णे पासित्ता किवापरिगयचेतसा अहो वरागा एते अत्थहेउं इमं आवई पत्तत्ति भन्नंति जहा उठेह उठेहति, जं मग्गह तं भे पयच्छामो, तओ तिक्खकंटाणिभिन्नसरीरा उठेति । ३-अ० चू० : कण्णं सरंति पावंति कण्णसरा अधवा सरीरस्स दुस्सहमायुधं सरो तहा ते कण्णस्स एवं कण्णसरा। ४- (क) जि० चू० पृ ३१६ : कन्नं सरंतीति कन्नसरा, कन्नं पविसंतीति बुत्तं भवइ । (ख) हा० टी० प० २५३ : 'कर्णसरान्' कर्णगामिनः । ५-(क) जि० चू० पृ० ३२० : सुहं च उद्धरिज्जंति, बणपरिकम्मणादीहि य उवाएहि रुज्झविज्जंति । (ख) हा० टी०प० २५३ : 'सूद्धराः' सुखेनवोज्रियन्ते व्रणपरिकर्म च क्रियते । ६-हा० टी०प० २५३ : तथाश्रवणप्रद्वेषादिनेह परत्र च बैरानुबन्धीनि भवन्ति । Jain Education Intemational Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४५८ अध्ययन ६ : (तृ० उ०) श्लोक ८-१० टि० १५-२० श्लोक १५. जो शूर व्यक्तियों में अग्रणी ( परमग्गसूरे ग ) : स्थानाङ्ग सूत्र (४.३६७) में चार प्रकार के शूर बतलाए हैं : (१) युद्ध-शूर, (२) तपस्या-शूर, (३) दान-शूर और (४) धर्म-शूर । इन सब में धर्म-शूर (धार्मिक श्रद्धा से कष्टों को सहन करने वाला) परमान-शूर होता है । अग्र का एक अर्थ लक्ष्य भी है। परम (मोक्ष) के लक्ष्य में जो शूर होता है, वह 'परमाग्र-शूर' कहलाता है। श्लोक: १६. विरोधी ( पडिणीयं ) : प्रत्यनीक अर्थात् विरोधी, अपमानजनक या आपत्तिजनक । १७. निश्चयकारिणी ( ओहारिणि ग): देखिए ७.५४ का टिप्पण, संख्या ८३ । श्लोक १०: १८. जो रसलोलुप नहीं होता ( अलोलुए क): इसका अर्थ है-'आहार आदि में लुब्ध न होने वाला', स्वदेह में अप्रतिबद्ध रहने वाला। १६. ( अक्कुहए ): देखिए १०.२० का 'कुहक' शब्द का टिप्पण । २०. चुगली नहीं करता ( अपिसुणे ख ) : अपिशुन अर्थात् मिले हुए मनों को न फाड़ने वाला, 'तुगली न करने वाला। १- (क) जि० चू० पृ० ३२१ : परमग्गसूरे णाम जुद्धसूर-तवसूर दाणसूरादीणं सूराणं सो धम्मसद्धाए सहमाणो परमग्गसूरो भवइ, सव्व सूराणं पाहण्णयाए उबरि वट्टइत्ति वुत्तं भवति । (ख) हा० टी० प० २५४ : 'परमानशूरो' दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरः । २-A Sanskrit-English Dictionary, P. 6. ३-हा० टी०प० २५४ : 'प्रत्यनीकाम्' अपकारिणी चौरस्त्वमित्यादिरूपाम् । ४-(क) अ० चू० आहारदेहादिसु अपडिबी अलोलुए। (ख) जि० चू०प० ३२१ : उक्कोसेसु आहारादिसु अलुद्धो भवइ, अहवा जो अप्पणोवि देहे अप्पडिबद्धो सो अलोलुओ भण्णइ । (ग) हा० टी० प० २५४ : 'अलोलुप' आहारादिष्वलुब्धः । ५-(क) अ० चू० : अभेदकारए। (ख) जि० चू० पृ० ३२२ : 'अपिसुणे' णाम नो मनोपोतिभेदकारए। (ग) हा० दो० ५० २५४ ; 'अपिशुनश्चापि' नो छेदभेदकर्ता। Jain Education Intemational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणसमाही (विनय-समाधि ) *** २१. दीन-भाव से याचना नहीं करता ( अदीणवित्ती क ) : अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट की अप्राप्ति होने पर जो दीन न हो, जो दीन-भाव से याचना न करे, उसे अदीन-वृत्ति कहा जाता है । अध्ययन ( तृ० उ० ) श्लोक ११ टि० २१-२४ 8 : २२. दूसरों से आत्म- श्लाघा · करवाता ( भावए ग ) : 'भाव' धातु का अर्थ है-वासित करना, चिंतन करना, पर्यालोचन करना । 'नो भावए तो वि य भावियप्पा' - इसका शाब्दिक अर्थ है-न दूसरों को अकुशल भावना से भावित - - वासित करे और न स्वयं अकुशल भावना से भावित हो । 'जो दूसरों से आत्म - श्लाघा नहीं करवाता और जो स्वयं भी आत्म- श्लाघा नहीं करता' - यह इसका उदाहरणात्मक भावानुवाद है' । 'भावितात्मा' मुनि का एक विशेषण भी है। जिसकी आत्मा धर्म-भावना से भावित होती है, उसे 'भावितात्मा' कहा जाता है । यहाँ भावित का अभिप्राय दूसरा है । प्रकारान्तर से इस चरण का अर्थ - 'नो भापयेद् नो अपि च भावितात्मा न दूसरों को डराए और न स्वयं दूसरों से डरे भी किया जा सकता है । --- २३. जो कुतुहल नहीं करता ( अकोउहल्ले ): कुतूहल का अर्थ है - उत्सुकता, किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने की उत्कट इच्छा, क्रीड़ा । जो उत्सुकता नहीं रखता. क्रीड़ा नहीं करता अथवा नट-नर्तक आदि के करतबों को देखने की इच्छा नहीं करता, वह अकुतूहल होता है । श्लोक ११ : २४- असाधुओं के गुण को छोड़ ( साहू) : यहाँ 'असाहू' शब्द के अकार का लोप किया गया है। अगस्यसिह स्थविर ने यहाँ समान की दीर्घता न कर कितंत ( कृतान्त - कृत अन्तो न ) की तरह 'पररूप' ही रखा है । जिनदास महत्तर ने ग्रन्थ-लाघव के लिए आकार का लोप किया है - ऐसा माना है । टीकाकार ने 'प्राशैली' के अनुसार 'अकार' का होप माना है। यहाँ गुण शब्द का अध्याहार होता है मुंचासाधुगुणा अर्थात् असाधु के गुणों को छोड़" । १ – ( अ० चू० : आहारोव हिमादीस विरूवेसु लब्भमाणेसु अलब्भमाणेसु ण दीणं वत्तए अदोषवित्ती । (ख) जि० ० चू० पृ० ३२२ : अदीणवित्तो नाम आहारोव हिमाइसु अलब्भमाणेसु णो दीण मावं गच्छइ, तेसु लद्धे सुवि अदी - भायो भवति । २– (क) अ० ० : घरत्थेण अण्णतित्थियेण वा मए लोगमम्भे गुणमत्तं भावेज्जासित्ति एवं णो भावये देतेसि वा कंचि अप्पणा जो भावये । अहमेवं गुण इति अप्पणा विण भावितप्पा | (ख) जि० चू० पृ० ३२२ । (ग) हा० टी० प० २५४ । ३ - (क) जि० चू० पृ० ३२२ : तहा नडनट्टगादिसु णो कूउहलं करेइ । (ख) हा० टी० प० २५४ : अकौतुकश्च सदा नटनर्तकादिषु । ४- अ० चू० : एत्थ ण समाणदीर्घता किंतु पररूवं करांतवदिति । ५- जि० ० चू० पृ० ३२२ : गंथलाघवत्थमकारलोवं काऊण एवं पढिज्जइ जहा मुंचऽसाधुत्ति । ६- हा० टी० प० २५४ । ७ - अ० चू० : मुचासाधुगुणा इति वयणसेसो । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशर्वकालिक) श्लोक १२ : २५. जो लज्जित नहीं करता, उनकी निन्दा नहीं करता (होलए - सिएज्जा ) : अगस्यसह ने किसी को उसके दुश्चरित्र की स्मृति कराकर लज्जित करने को होलना और बार-बार लज्जित करने को सिना माना है ।" जिनदास महत्तर ने दूसरों को लज्जित करने के लिए अनीश्वर को ईश्वर और दुष्ट को भद्र कहना हीलना है - ऐसा माना है ओर खिसना के पाँच कारण माने हैं : (१) जाति से, यथा - तुम मलेच्छ जाति के हो । (२) कुल से, यथा -- तुम जार से उत्पन्न हुए हो । (३) कर्म से, यथा- तुम मूर्खों से सेवनीय हो । (४) शिल्प से, यथा- तुम चमार हो । ४६० अध्ययन (तृ०ड०) श्लोक १२-१३ टि० २५-२७ : (५) व्याधि सेवा तुम कोड़ी हो । आगे चलकर हीलना और खिसना का भेद स्पष्ट करते हुए कहते हैं : दुर्वचन से किसी व्यक्ति को एक बार लज्जित करना 'होलना' और बार-बार लज्जित करना 'खिसना' है, अथवा अतिपरुष वचन कहना 'हीलना' और सुनिष्ठुर वचन कहना 'खिसना' हैं ' । टीकाकार ने ईर्ष्या या अन ईर्ष्या से एक बार किसी को 'दुष्ट' कहना हीलना और बार-बार कहना खिसना - ऐसा माना है । श्लोक १३: २६. श्लोक १३: अगस्त्य 'घूर्ण और टीका' के अनुसार 'तवस्सी, जिईदिए, सच्चरए'-- ये 'पूज्य' के ये माना- आचार्य के विशेषण हैं । अनुवाद में हमने इस अभिमत का अनुसरण किया है। इस प्रकार होगा- 'जो तपस्वी है, जो जितेन्द्रिय है, जो सत्यरत हैं ।' २७. ( सच्चरए प ) : सत्यरत अर्थात् संयम में रत देखिए, पूर्वोक्त टिप्पणी के पादटिप्पण सं० ४-६ ॥ १- अ० ० : पुण्वदुच्चरितादि लज्जावणं होलणं, अंबाडणाति किलेसणं खिसणं । २- जि० ० ० ३२३ तत्थ होला जहा सूया अगीसरं ईसरं भण्ण, बुद्ध भगं भगद, एवमादि लिसी अनुवाद जाइतो कुलओ कम्यायो सियो बाहिओ वा भवति, जाओ जहा तुम तो कुलओ जहा तुम जारजाओ, कम्म जहां तुम जढेहि भयणीज्जो, सिप्पयो जहा तुमं सो चम्मगारो, वाहिओ जहा तुमं सो कोढिओ, अहवा हीलनाखिसणाण इमो विसेसोहोला नाम एकवारं वशियरस भवड, पुजो २ लिसा भव । विशेषण हैं और जिनदास चूर्णि के अनुसार पूर्वोक्त अभिमत के अनुसार इसका अनुवाद ३ - हा० टी० प० २५४ सूयया असूयया वा सकृद् दुष्टाभिधानं हीलनं, तदेवासकृत्खसनमिति । ४- अ० चू० : बारस बिहे तपोरते तबस्सी, जितसोतादिदिए, सच्चं संजमो तंमि जधा भणित विणयसक्चकरणे वा रते सच्चरते स एव पुज्जो भवति । ५- हा० टी० प० २५५ तपस्वी सन् जितेन्द्रियः सत्यरत इति, प्राधान्यख्यापनार्थं विशेषणद्वयम् । ६- जि० चू० पू० २२३ : तवस्सी णाम तवो वारसविधो सो जेसि आयरियाणं अत्थि ते तवस्सिणो, जिइदिए नाम जियाणि सोयाईणि दिपाणि जेहि ते हिंदिया, सच्चं पुण भणियं जहा बक्कमुद्धीए रिओ सध्वर । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४६१ अध्ययन ६ (तृ०उ०) : श्लोक १४-१५ टि० २८-३३ श्लोक १४: २८. मन, वाणी और शरीर से गुप्त ( तिगुत्तो ग ) : गुप्ति का अर्थ है--- गोपन, संवरण । वे तीन हैं : (१) मन-गुप्ति, (२) वचन-गुप्ति और (३) काय-गुप्ति' । इन तीनों से जो युक्त होता है, वह 'त्रिगुप्त' कहलाता हैं। २६. क्रोध, मान, माया और लोभ को दूर करता है ( चउक्कसायावगए घ): ___ कषाय की जानकारी के लिए देखिए ८.३६-३६ । श्लोक १५: ३०. सेवा कर (पडियरिय क ): प्रतिचर्य अर्थात् विधिपूर्वक आराधना करके, शुश्रूषा करके, भक्ति करके । ३१. जिनमत-निपुण ( जिणमयनिउणे ख ) जो आगम में प्रवीण होता है, उसे 'जिनमत-निपुरण' कहा जाता है। ३२. अभिगम ( विनय-प्रतिपत्ति ) में कुशल ( अभिगमकुसले ख ) : अभिगम का अर्थ है अतिथि–साधुओं का आदर-सम्मान व भक्ति करना । इस कार्य में जो दक्ष होता है, वह 'अभिगम-कुसल' कहलाता है। ३३. रज और मल को ( रयमलं ग ): आश्रव-काल में कर्म ‘रज' कहलाता है और बद्ध, स्पृष्ट तथा निकाचित काल में 'मल' कहलाता है । यह अगस्त्यसिंह स्थविर की व्याख्या है । कहीं-कहीं 'रज' का अर्थ आश्रव द्वारा आकृष्ट होने वाले 'कर्म' और 'मल' का अर्थ आश्रव किया है। १-उत्त० २४.१६-२५ । २- हा० टी० प० २५५ : 'त्रिगुप्तो' मनोगुप्त्यादिमान् । ३- (क) अ० चू० : जधा जोगं सुस्सूसिऊण पडियरिय । (ख) जि० चू० पृ० ३२४ : जिणोवइट्ठण विणएण आराहेऊण । (ग) हा० टी०प० २५५ : 'परिचर्य' विधिना आराध्य । ४-हा० टी० प० २५५ : 'जिनमतनिपुणः' आगमे प्रवीणः । ५- (क) जि० चू० ० ३२४ : अभिगमो नाम साधूणमायरियाणं जा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णइ, तमि कुसले । (ख) हा० टी० प० २५५ : 'अभिगमकुशलो' लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः । ६-अ० चू० : आश्रवकालेरयो बद्धपुट्ठनिकाइयं कम्म मलो। Jain Education Intemational Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं विणयसमाही ( च उत्थो उद्देसो) नवम अध्ययन विनय-समाधि ( चतुर्थ उद्देशक ) Jain Education Intemational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं नवम अध्ययन विषयसमाही (चउत्थो उद्देसो) विनय समाधि (चतुर्थ उद्देशक ) मूल सुयं मे आउ तेगं भगवया एवमक्याय इह खलु येरेहिं भगवंतेहि चत्तारि विषयसमाहिद्वाणां पन्नत्ता । सू० १ - कयरे खलु ते येरेहि भगवंतेहि चत्तारि विणयसमा हिट्ठाणा पन्नत्ता । सू० २ इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहि चत्तारि विणयसमाहिट्टाणा पन्नता तंजहा (१) विषयसमाही (२) सुवसमाही (३) तवसमाही (४) आयारसमाही १- विणए सुए अ आयारे नि अभिरामयंति जे भवति तवे पंडिया | अप्पाणं जिइंदिया ॥ सू० ३ चउव्विहा खलु विषयसमाही भवइ त जहा - ( १ ) अणुसासिज्जतो सुस्सूसइ (२) सम्मं संपडिवज्जइ ( ३ ) वेयमाराहय ( ४ ) न य भवइ अत्तसंपग्गहिए । चत्थं पयं भवइ । भवइ य इत्थ सिलोगो संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवर्तयाम् इह खलु स्थविरं भगवद्भिश्चत्वारि विनय-समाधि स्थानानि प्रज्ञप्तानि ॥१॥ कतराणि चतु तानि परिंग वश्चित्वारि विनय-समाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि ||२|| इमानि तु तानि स्थविरं भंगवद्भिश्चत्वारि विनय-समाधिस्थानानि प्रशप्तानि यथा (१) विनय-समाधिः, (२) भुत-समाधि (२) तयः समाधिः, ( ४ ) आचार - समाधिः । , विनये ते पस आचारे नित्यं पण्डिताः । अभिरामवात्मानं ये भवन्ति जितेन्द्रियाः ॥ १ ॥ चतुविधः खलु विनय-समाधिर्भवति । तद्यथा - ( १ ) अनुशास्यमानः शुश्रूषते (२) सम्यक् सम्प्रतिपद्यते, (३) वेदमाराय यति (४) न च भवति सम्प्रगृहीतात्माचतुर्थ पदं भवति । भवति चात्र श्लोक: - हिन्दी अनुवाद आयुष्मन् | मैंने सुना है उन भगवान् (प्रज्ञापक आचार्य प्रभवस्वामी) ने इस प्रकार कहा- इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में स्थविर भगवान् ने विनय-समाधि के चार स्थानों का प्रज्ञापन किया है। वे विनय-समाधि के चार स्थान कौन से हैं जिनका स्थविर भगवान् ने प्रज्ञापन किया हैं ? वे विनय-समाधि के चार प्रकार ये हैं, जिनका स्थविर भगवान् ने प्रज्ञापन किया है, जैसे बिनय-समाधि, श्रुत-समाधि तपसमाधि और आचार-समाधि | १ जो जितेन्द्रिय होते हैं वे पण्डित पुरुष अपनी आत्मा को सदा विनय, श्रुत, तप और आचार में लीन किए रहते हैं । विनय-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे(१) शिष्य आचार्य के अनुशासन को सुनना चाहता है" । ( २ ) अनुशासन को सम्यग् रूप से स्वीकार करता है । (३) वेद (ज्ञान) की आराधना करता है अथवा (अनुशासन के अनुकूल आचरण कर आचार्य की वाणी को सफल बनाता है) । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४६६ अध्ययनह: श्लोक २-३ (४) आत्मोत्कर्ष (गर्व) नहीं करता - यह चतुर्थ पद है और यहाँ (विनय-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक है२-पेहेइ हियाणुसासणं स्पृहयति हितानुशासनं, (१) मोक्षार्थी मुनि" हितानुशासन की अभिलाषा करता है"२- सुनना चाहता है । सुस्सूसइ त च पुणो अहिदए । शुश्रूषते तच्च पुनरधितिष्ठति । (२) शुश्रूषा करता है-अनुशासन को न य माणमएण मज्जइ न च मान-मदेन माद्यति, सम्यग् रूप से ग्रहण करता है। विणयसमाही आययदिए१५ ॥ विनयसमाधावायतार्थिकः ॥२॥ (३) अनुशासन के अनुकूल आचरण करता है। सू० ४ (४) मैं विनय-समाधि में कुशल हूँइस प्रकार गर्व के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। श्रुत-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे --- चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति । (१) 'मुझे श्रुत प्राप्त होगा', इसलिए तं जहा-(१) सुयं मे भविस्सइ त्ति तद्यथा--(१) श्रुत मे भविष्यतीत्यध्येतव्यं को अध्ययन करना चाहिए । ७ अज्झाइयव्वं भवइ (२) एगग्गचित्तो भवति, (२) एकाग्रचित्तो भविष्यामी (२) 'मैं एकाग्र-चित्त होऊँगा', इस भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ लिए अध्ययन करना चाहिए। त्यध्येतव्यं भवति,(३)आत्मानं स्थापयिष्यामी (३) 'मैं आत्मा को धर्म में स्थापित (३) अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति त्यध्येतव्यं भवति, (४) स्थितः परं स्थाप- करूंगा', इसलिए अध्ययन करना चाहिए। अज्झाइयव्व भवइ (४) ठिओ पर यिष्यामीत्यध्येतव्यं भवति,-चतुर्थ पदं। ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव भवइ। (४) 'मैं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भवति । उसमें स्थापित करूँगा', इसलिए अध्ययन चउत्थं पयं भवइ। करना चाहिए। यह चतुर्थ पद है और यहाँ भवइ य इत्थ सिलोगो भवति चाऽत्र श्लोक: - (श्रुत-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक है३-नाणमेगग्गचित्तो ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, अध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है, चित्त ठिओ ठावयई पर । स्थितः स्थापयति परम् । की एकाग्रता होती है, धर्म में स्थित होता है और दूसरों को स्थिर करता है तथा अनेक सुयाणि य अहिज्जित्ता श्रुतानि चाधीत्य, प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर श्रुत-समाधि सुयसमाहिए । रत: श्रुतसमाधौ ॥३॥ में रत हो जाता है। रओ चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ चतुर्विधः खलु तपः समाधिर्भवति । तप-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसेतजहा-(१) नो (१) इहलोक [वर्तमान जीवन की इहलोगट्टयाए तद्यथा (१) नो इहलोकार्थ तपोधितिष्ठेत्, भोगभिलाषा] के निमित्त तप नहीं करना तवमहिट्ठज्जा (२) नो परलोगट्टयाए (२) नो परलोकार्थ तपोधितिष्ठेत्, चाहिए। (२) परलोक पारलौकिक भोगाभिलाषा) तवमहिज्जा (३) नो कित्तिवण्णसद्द- (३) नो कीति वर्णज्ञब्दश्लोकायं तपोधि- के निमित्त १० तप नहीं करना चाहिए। सिलोगट्टयाए तवमहिट्ठज्जा, (४) (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक १८ तिष्ठेत्, (४) नान्यत्र निर्जरार्थात् तपोधि- केला के लिए तप नहीं करना चाहिए। नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिट्ठज्जा । तिष्ठेत् चतुर्थ पदं भवति । (४) निर्जरा के१९ अतिरिक्त अन्य चउत्थं पयं भवइ। किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए यह चतुर्थ पद है और यहाँ (तप-समाधि के भवइ य इत्थ प्तिलोगो भवति चाऽत्र श्लोकः - प्रकरण में) एर-लेक है Jain Education Intemational Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णियस माही (विनय-समाधि) ४ विविहगुणतवोरए व नि भवइ निरासए" निम्नरट्ठिए । तवसा धुण पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए ॥ सू० ६ चडव्विा खलु आयारसमाही भवइ तंजा - ( १ ) नो लोग ट्ट्याए आयारम हिट्ठेज्जा ( २ ) नो परलोगट्ट्याए आधारमहिठ्ठज्जा, (३) नो कित्तिवण्णसद्द सिलो गट्ठयाए आयामहिट्ठेज्जा (४) नग्नरब आरहतेहि ऊहि आधारमहिन्ना । चउत्थं पयं भवइ । भवद य इत्थ सिलोगो अतितिणे परिपुष्णा वयमाययट्ठिए आयारसमाहिसंबुडे भवइ य दंते भावसंघ" ॥ सू० ७ ५ - जिणवयणरए ६ - अभिगम चउरो समाहिओ सुविसुद्ध सुसमाहियप्यओ । पुणो विउलहियसहायहं कुन्द सो पयलेममप्पणी | ॥ ७- जाइमरणाच इत्थंथं च चयइ सिद्ध वा भवइ देवे वा अप्पर । मुम्बई सव्वसो । सासए महिष्टिए । त्ति बेमि । ४६७ विविधगुण तपोरतरच नित्यं, भवति निराशक: निर्जराधिकः । तपसा धुनोति पुराण-यापक, युक्तः सदा तपः समाधिना ॥ ४ ॥ चतुविध: खल्वाचारसमाधिर्भवति 1 तद्यथा-- ( १ ) नो इहलोकाचंमाचारमधितिष्ठेत्, (२) नो परलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत्, (३) नो कीविदालोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् (४) नान्यत्राभ्यो हेतुभ्य आचारमधितिष्ठेत् । चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक: जिनवचनरतोऽति न्तिणः, प्रतिपूर्ण आयतमापताविक: । आचारसमाधिसंवृतः, भवति च दान्तो भावसन्धकः ||५|| अभिगम्य चतुरः समाधी सुविशुद्धः सुसमाहितात्मकः । विहितखावहं पुनः करोति स पदं क्षेममात्मनः ||६|| जातिमरणात् मुच्यते, इत्थंस्थं च त्यजति सर्वशः । सिद्धो वा भवति शाश्वतः, देवो वाऽल्परजा महद्धिकः ॥७॥ अध्ययन ९ ( च० उ० ) इलोक ४-७ सदा विविध गुण वाले तप में रत रहने मुनि पौलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है । वह केवल निर्जरा का अर्थी होता है, तप के द्वारा पुराने कर्मों का विनाश करता है और तप समाधि में सदा युक्त हो जाता है । इति ब्रवीमि । आचार-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे : ( १ ) इहलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए। (२) परलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए । (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए । ४ - आहं त-हेतु के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से आचार का पालन नहीं करना चाहिए - यह चतुर्थ पद है और यहां ( आचार-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक है - ५ - जो जिनवचन १३ में रत होता है, जो प्रलाप नहीं करता, जो सूत्रार्थ से प्रतिपूर्ण होता है, जो अत्यन्त मोक्षार्थी होता है, वह आचार-समाधि के द्वारा संवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला तथा मोक्ष को निकट करने वाला होता है। ६ जो चारों समाधियों को जानकर ** सुविशुद्ध और सुसमाहित-चित्त वाला होता है, वह अपने लिए विपुल हितकर और सुखकर मोक्ष स्थान को प्राप्त करता है । ७ - वह जन्म मरण से मुक्त होता है, नरक आदि अवस्थाओं को पूर्णत: त्याग देता है । इस प्रकार वह या तो शाश्वत सिद्ध अथवा अल्प कर्म वाला" महद्धिक देव" होता है। ऐसा मैं कहता हूँ । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ६ ( चतुर्थ उद्देशक ) सूत्र १ १. इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में ( इह ) : ___ 'इह' शब्द के द्वारा दो अर्थ गृहीत किए गए हैं—(१) निर्ग्रन्थ-प्रवचन में और (२) इस लोक में इस क्षेत्र में । २. ( खलु ): यहाँ 'खलु' शब्द से अतीत और अनागत स्थविरों का ग्रहण किया गया है । ३. स्थविर ( थेरेहिं ): यहाँ स्थविर का अर्थ गणधर किया है। ४. समाधि ( समाहो) : समाधि शब्द अनेकार्थक है । टीकाकार ने यहां उसका अर्थ आत्मा का हित, सुख और स्वास्थ्य किया है। विनय, श्रुत, तप और आचार के द्वारा आत्मा का हित होता है, इसलिए समाधि के चार रूप बतलाए गए हैं। अगस्त्यसिंह ने समारोपण और गुणों के समाधान (स्थिरीकरण या स्थापन) को समाधि कहा है। उनके अनुसार विनय, श्रु त, तप और आचार के समारोपण या इनके द्वारा होने वाले गुणों के समाधान को विनय-समाधि, तप-समाधि और आचार-समाधि कहा जाता है। सूत्र ३: ५. (विणए सुए अ तवे .........): यहाँ यह शंका हो सकती है कि इस श्लोक से पूर्व गद्य-भाग में चार समाधियों का नामोल्लेख हो चुका है तो फिर उसकी पुनरावृत्ति क्यों की गई ? अगस्त्यसिंह स्थविर एवं जिनदास महत्तर इस शंका का निरसन करते हुए कहते हैं कि उद्दिष्ट अर्थ की स्फुट १-- (क) जि० चू० पृ० ३२५ : इहत्ति नाम इह सासणे । (ख) अ० चू० : इहेति इहलोगे सासणे वा। (ग) हा० टी०प० २५५ : इह क्षेत्रे प्रवचने वा। २---(क) अ० चू० : खलु सद्दो अतीताणागत थेराण वि एवं पण्णवणा विसेसणत्थं । (ख) जि० चू०पू० ३२५ : खलुसद्दो".""""""""विसेसयति । (ग) हा० टी०प० २५५ : खलुशब्दो विशेषणार्थ: न केवलमत्र कि त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि । ३—(क) अ० चू० : थेरा पुण गणधरा । (ख) जि० चू० पृ. ३२५ : थेरगहणेण गणहराणं गहणं कयं । (ग) हा० टी०५० २५५ : 'स्थविरः' गणधरः । ४–हा० टी०प० २५६ : समाधानं समाधिः-परमार्थत-आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम्। ५-अ० चू० : जं विणयसमारोवणं विणयेण वा जं गुणाण समाधाणं एस विणयसमाधी भवतीति । Jain Education Intemational Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही ( विनय-समाधि ) ___४६६ अध्ययन ६ (च० उ०) : सूत्र ४ टि० ६-१० अभिव्यक्ति के लिए इलोक दिया जाता है । इस अभिमत की पुष्टि के लिए वे पूर्वज आचार्यों के अभिमत का भी उल्लेख करते हैं । जो अर्थ गद्य में कहकर पुन: श्लोक में कहा जाता है, वह व्यक्ति के अर्थ-निश्चय (स्फुट अर्थ-निश्चय) में सहायक होता है और दुरूह स्थलों को सुगम बना देता है। ६. लीन किए रहते हैं ( अभिरामयंति ) : 'अभिराम' का यहाँ अर्थ है जोतना, योजित करना, विनय आदि गुणों में लगाना', लीन करना। सूत्र ४: ७. सुनना चाहता है ( सुस्सूसइ ) : _ 'शुश्रूष्' धातु का यहाँ अर्थ है-- सम्यक् रूप से ग्रहण करना । इसका दूसरा अर्थ है-- सुनने की इच्छा करना या सेवा करना । ८. ( ज्ञान ) को ( वेयं ) : वेद का अर्थ है ज्ञान । ९. आराधना करता है ( आरायइ ): आराधना का अर्थ है - ज्ञान के अनुकूल क्रिया करना । १०. आत्मोत्कर्ष... नहीं करता ( अत्तसंपग्गहिए ): जिसकी आत्मा गर्व से संप्रगृहीत (अभिमान से अवलिप्त) हो, उसे संप्रगृहीतात्मा (आत्मोत्कर्ष करने वाला) कहा जाता है । मैं विनीत हूँ, कार्यकारी हूँ-ऐसा सोचना आत्मोत्कर्ष है। १- (क) अ० चु० : उद्दिट्ठस्स अत्थस्स फुडीकरणत्थं सुभणणत्थं सिलोगबंधो। (ख) जि० चू० पृ० ३२५ : तेसि चेव अत्थाणं फुडीकरणणिमित्तं अविकप्पणानिमित्तं च । २-(क) अ० चू० : गद्येनोक्तः पुनः श्लोके, योऽर्थः समनुगीयते । ___स व्यक्तिव्यवसायार्थ, दुरुक्तग्रहणाय च ॥ (ख) जि० चू० पृ० ३२५ : “यदुक्तो यः (ऽत्र) पुनः श्लोकरर्थस्समनुगीयते । ३ -जि० चू० पृ० ३२५ : अप्पाणं जोतंति त्ति। ४-हा० टी० प० २५६ : 'अभिरमयन्ति' अनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जते। ५.--- (क) अ० चू० सुस्सूसतीय परमेणादरेण आयरिओवज्झाए। (ख) जि० चू० पृ० ३२७ : आयरियउवज्झायादओ य प्रादरेण हिओवदेसगत्तिकाऊण सुस्सूसइ । (ग) हा० टी०प० २५६ : 'शुश्रूषतो' त्यनेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते । ६-(क) अ० चू० : विदति जेण अस्थिविसेसे जंमि वा भणिते विदति सो वेदो तं पण नाणमेव । (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : वेदो-नाणं भण्णइ । (ग) हा० टी० प० २५५ : वेद्यतेऽनेनेति वेद:-श्रुतज्ञानम् । ७-(क) जि० चू० पृ० ३२६ : तत्थ जं जहा भणितं तहेव कुब्वमाणो तमायरइत्ति । (ख) हा० टी०प० २५६ : आराधयति ....'यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति । ८-(क) अ० चू० : संपग्गहितो गम्वेण जस्स अप्पा सो अत्तसंपग्गहितो। (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : अत्तुक्करिसं करेइत्ति, जहा विणीयो जहुत्तकारी य एवमादि । Jain Education Intemational Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( वशर्वकालिक ) ११. मोक्षार्थी मुनि (आययदिष्ए ) आयतार्थी - मोक्षार्थी' 1 इसका दूसरा अर्थ है भविष्यकालीन सुख का इच्छुक । १२. अभिलाषा करता है ( पेहेइ ) : इसके संस्कृत रूप तीन होते हैं १. प्र + ईक्ष प्रेक्षते — देखना । २. प्र + इह = प्रेहते । ३. स्मृति प्रार्थना करना, इच्छा करना, चाहना। १३. आचरण करता है ( अहिए ) अनुशासन के अनुकूल आचरण करना । = १४. गर्व के उन्माद से ( माणमएण ) : मान का अर्थ गर्व और मद का अर्थ उन्माद हैं। टीका में मद का अर्थ गर्व किया है। १६. भूत (सूर्य) गणिपिटक । ४७० १५. ( विषयसमाही आयट्ठिए ) इस चरण में विनय-समाधि और आयतार्थिक इन दोनों का समास । विनय-समाधि में आयतार्थिक है - इसका विग्रह इस प्रकार किया है" । ७ अध्ययन १ ( च० उ०) सूत्र ५ टि० ११ १६ & : (क) अ० चू० जधा भणितं करेति । (ख) जि० ० ० ३२७ (ग) हा० टी० प० २५६ १- ( क ) अ० चू० : विणयसमाधिमतेण विषयसमाधीए आयतमद्वाण विप्पकरिसतो मोक्खो तेण तंमि वा अत्थी सएक आययत्थिकः । (ख) जि० चू० पृ ३२७ : आयओ मोक्खो भण्णइ, तं आययं कखयतीति आययट्ठए । २- अ० चू० : अहवा आययी आगामीकालो तंमि सुहत्थी आययत्थी । ३ - ( क ) अ० चू० : पत्थयति वीहेति । (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : पेहतित्ति वा पेच्छतित्ति वा एगट्ठा । (ग) हा० टी० प० २५६ : 'प्रार्थयते हितानुशासनम्' इच्छति । सूत्र ५ : ५ - अ० चू० : अप्पाण असमाण मण्णमाणो माण एव मतो माणमतो । 1 ६- हा० टी० प० २५६ : मानगर्वेण । महिति नाम अहियतिति वा आपरइति वा एगा। अधितिष्ठति - यथावत् करोति । -(क) हा० टी० प० २५६ 'विनयसमाधी' विनयसमाधिविषये 'आयताथिको' मोक्षार्थी । (ख) अ० चू० : विजयसमाधीए वा सुट्टु आदरेण अत्यो विषयसमाधीआययट्ठिए । (क) जि० ० पू० ३२७ युवासंगं गणप (ख) हा० टी० प० २५७ : आचारादि द्वादशाङ्गम् । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४७१ अध्ययन ६ (च०उ०) : सूत्र ६ टि० १७-२० सूत्र ६: १७. इहलोक के निमित्त परलोक के निमित्त (इहलोगट्टयाए परलोगट्ठयाए): उत्तराध्ययन में कहा है-धर्म करने वाला इहलोक और परलोक दोनों की आराधना कर लेता है और यहाँ बतलाया है कि इहलोक और परलोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। इनमें कुछ विरोधाभास जैसा लगता है । पर इसी सूत्र के श्लोकगत 'निरासए' शब्द की ओर जब हम दृष्टि डालते हैं तो इनमें कोई विरोध नहीं दीखता। इहलोक और परलोक के लिए जो तप का निषेध है उसका सम्बन्ध पौद्गलिक सुख की आशा से है । तप करने वाले को निराश (पौद्गलिक सुखरूप प्रतिफल की कामना से रहित होकर) तप करना चाहिए । तपस्या का उद्देश्य ऐहिक या पारलौकिक भौतिक सुख-समृद्धि नहीं होना चाहिए । जो प्रतिफल की कामना किए बिना तप करता है उसका इहलोक भी पवित्र होता है और परलोक भी। इस तरह वह दोनों लोकों की आराधना कर लेता है। १८. कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक (कित्तिवण्णसद्दसिलोग): अगस्त्यसिंह स्थविर इन चार शब्दों के अलग-अलग अर्थ करते हैं : कीति-दूसरों के द्वारा गुण कीर्तन । वर्ण-लोकव्यापी यश। शब्द-लोक-प्रसिद्धि। श्लोक- ख्याति । हरिभद्र के अर्थ इनसे भिन्न हैं। सर्व दिग्व्यापी प्रशंसा कीति, एक दिग्व्यापी प्रशंसा वर्ण, अर्द्ध दिग्व्यापी प्रशंसा शब्द और स्थानीय प्रशंसा श्लोक' । जिनदास महत्तर ने चारों शब्दों को एकार्थक माना है । १. निर्जरा के (निजरठ्ठयाए): निर्जरा नव-तत्त्वों में एक तत्त्व है। मोक्ष के ये दो साधन हैं -संवर और निर्जरा । संवर के द्वारा अनागत कर्म-परमाणुओं का निरोध और निर्जरा के द्वारा पूर्व-संचित कर्म-परमाणुओं का विनाश होता है। कर्म-परमाणुओं के विनाश और उससे निष्पन्न आत्मशुद्धि-इन दोनों को निर्जरा कहा जाता है। भगवान् ने कहा- 'केवल आत्म-शुद्धि के लिए तप करना चाहिए।' यह वचन उन सब मतवादों के साथ अपनी असहमति प्रगट करता है जो स्वर्ग या ऐहिक एवं पारलौकिक सुख-सुविधा के लिए धर्म करने का विधान करते थे, जैसे-'स्व कामोग्नि यथा यजेत्' आदि । २०. अतिरिक्त (अन्नत्थ) : अतिरिक्त, छोड़कर, वर्जकर । देखिए अ०४ स०८ का टित्पण । २१. (निरासए): पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित । १-उत्त० ८.२० : इह एस धम्मे अक्खाए, कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं। तरिहिति जे उ काहिति, तेहि आराहिया दुवे लोग ।। २-अ० चू० : परेहि गुणसंसद्दणं कित्ती, लोकव्यापी जसो वण्णो, लोके विदितया सद्दे, परेहि पर (य) णं सिलोगो। ३–हा० टी० ५० २५७ : सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः, एकदिग्व्यापी वर्णः, अर्द्ध दिग्व्यापी शब्द, तत्स्थान एव श्लाघा । ४-जि० चू० पृ० ३२८ : कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठया एगट्ठा । ५.--जैन० सि० ५.१३.१५ । ६–जि. चू० पृ० ३२८ : अन्नत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टइ । ७-(क) जि० चू० पृ० ३२८ : निग्गता आसा अप्पसस्था जस्स सो निरासए। (ख) हा० टी०प० २५७ : 'निराशो' निष्प्रत्याश इहलोकादिषु । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ४७२ अध्ययन ६ (च० उ०) : सूत्र ७ टि० २२-२७. सूत्र ७: २२. आर्हत-हेतु के (आरहंतेहि हेऊहिं) : ___ आहेत-हेतु-अर्हन्तों के द्वारा मोक्ष-साधना के लिए उपदिष्ट या आचीर्ण हेतु । वे दो हैं--संवर और निर्जरा' । २२. जिनवचन (जिण वयण ) : इसका अर्थ जिनमत या आगम है। २४. जो सूत्रार्थ से प्रतिपूर्ण होता है (पडिपुण्णाययं) : अगस्त्यसिंह ने इसका अर्थ 'पूर्ण भविष्यत्काल' किया है। जिनदास और हरिभद्र ने 'पडिपुण्ण' का अर्थ सूत्रार्थ से प्रतिपूर्ण ओर 'आययं' का अर्थ 'अत्यन्त' किया है। २५. इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला (दंते) : इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय का दमन करने वाला 'दान्त' कहलाता है। २६. (भावसंधए): मोक्ष को निकट करने वाला। श्लोक ६: २७. जानकर (अभिगम) : टीका के अनुसार यह पूर्वकालिक क्रिया का रूप है । 'अभिगम्य' के 'य' का लोप होने पर 'अभिगम्म' ऐसा होना चाहिए। किन्तु प्राप्त सभी प्रतियों में 'अभिगम' ऐसा पाठ मिलता है। इसलिए लिखित आधार के अभाव में इसी को स्थान दिया गया है। १-(क) अ० चू० : जे अरहंतेहि अणासवत्तकमनिज्जरणादयो गुणा भणिता आयिण्णा वा ते आरहंतिया हेतवो कारणाणि । (ख) जि० चू० पृ०३२८ : जे आरहंतेहि अणासवत्तणकम्मणिज्जरणमादि मोक्खहेतवो भणिता आचिन्ना वा ते आरहतिए हेऊ । (ग) हा० टी० प० २५८ : 'आर्हते.' अर्हत्संबन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवत्वादिभिः । २-(क) अ० चू० : जिणाणं वयणं जिणवयण मत । (ख) हा० टी० ५० २५८ : 'जिनवचनरत' आगमे सक्तः । ३-अ० चू० : पडिपुण्ण आयत आगामिकालं सत्व आगामिणं कालं पडिपुण्णायतं । ४-(क) जि० चू० पृ० ३२६ : पडिपुन्नं नाम पडिपुन्नंति वा निरवसेसंति वा एगट्ठा, सुत्तत्थेहि पडिपुण्णो, आयया अच्चत्थं । (ख) हा० टी० प० २५८ : प्रतिपूर्णः सूत्रादिना, आयतम् -अत्यन्तम् । ५-(क) अ० चू० : इंदियं णोइ दियदमेण दंते। (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : दंते दुविहे-इदिएहि य नोइंदिएहि य । (ग) हा० टी०प० २५८ : दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्याम् । ६--(क) जि. चू० प० ३२६ : भावो मोक्खो तं दूरस्थमप्पणा सह संबंधए। (ख) हा० टी० ५० ३५८ : 'भावसंधकः' भावो-मोक्षस्तत्संधक आत्मनो मोक्षासन्नकारी। ७-हा० टी०प० २५८ : 'अभिगम्य' विज्ञायासेव्व च । Jain Education Intemational Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयसमाही ( विनय-समाधि) ४७३ अध्ययन ह (च०उ०) : श्लोक ७ टि० २८-३१ श्लोक ७: २८. जन्म-मरण से (जाइमरणाओ): अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसके दो अर्थ किए हैं-जन्म-मृत्यु और संसार' । जिनदास और हरिभद्र ने जाति-मरण का अर्थ संसार किया है। २६. नरक आदि अवस्थाओं को (इत्थंथं) : इत्थं का अर्थ है-इस प्रकार । जो इस प्रकार स्थित हो—जिसके लिए 'यह ऐसा है'-इस प्रकार का व्यपदेश किया जाए उसे 'इत्थंस्थ' कहा जाता है। नरक, तिर्यज, मनुष्य और देव-ये चार गतियाँ, शरीर, वर्ण, संस्थान आदि जीवों के व्यपदेश के हेतु हैं। इत्थंस्थ को त्याग देता है अर्थात् उक्त हेतुओं के द्वारा होने वाले अमुक-अमुक प्रकार के निश्चित रूपों को त्याग देता है । अगस्त्य चूणि में 'इत्थत्त' ऐसा पाठ है। उसका अर्थ है-इस प्रकार की अवस्था का भाव । ३०. अल्प कर्म वाला (अप्परए) : इसका संस्कृत रूप है- 'अल्परजाः' और इसका अर्थ है-थोड़े कर्म वाला। टीकाकार ने इसका संस्कृत रूप 'अल्परतः' देकर इसका अर्थ 'अल्प आसक्ति वाला' किया है। ३१. महद्धिक देव (महिड्ढिए) : महान् ऋद्धि वाला, अनुत्तर आदि विमानों में उत्पन्न । १-अ० चू० : जाती समुष्पत्ती, देहपरिच्चागो मरणं अहवा जातीमरणं संसारो। २-(क) जि. चू० पृ० ३२६ : जातीमरणं संसारो। (ख) हा० टी०प० २५८ : 'जातिमरणात्' संसारात् । ३-(क) हा० टी०प० २५८ : इदं प्रकारमापन्नमित्थम् इत्थं स्थितमित्थंस्थं नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि । (ख) जि० चू० पृ० ३२६ : 'इत्थत्यं' णाम जेण भण्णइ एस नरो वा तिरिओ मणुस्सो देवो वा एवमादि । ४-अ० चू० : अयं प्रकार इत्थं -- तस्स भावो इत्थंत्तं । ५- (क) अ० चू० : अप्परते अप्पकम्मावसेसे । (ख) जि० चू०१० ३२६ : थोवावसेसेसु कम्मत्तणेण । ६-हा० टी० प० २५८ : 'अल्परतः' कण्डूपरिगतकण्डूयनकल्परतरहितः । ७- हा० टी० प० २५८ : 'महद्धिकः'-अनुत्तरवैमानिकादि । Jain Education Intemational Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अज्झयणं स-भिक्खु दशम अध्ययन सभिक्षु Jain Education Intemational Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख सदृश वेष और रूप के कारण मूलतः भिन्न-भिन्न वस्तुओं की संज्ञा एक पड़ जाती है। जात्य-सोने और यौगिक-सोने-दोनों का रंग सदृश ( पीला ) होने से दोनों 'सुवर्ण' कहे जाते हैं। जिसकी आजीविका केवल भिक्षा हो वह 'भिक्षु' कहलाता है । सच्चा साधु भी भिक्षा कर खाता है और ढोंगी साधु भी भिक्षा कर खाता है, इससे दोनों की संज्ञा 'भिक्षु बन जाती है । पर असलो सोना जैसे अपने गुणों से कृत्रिम सोने से सदा पृथक् होता है, वैसे ही सद्-भिक्षु असद्-भिक्षु से अपने गुणों के कारण सदा पृथक् होता है। कसौटी पर कसे जाने पर जो खरा उतरता है, वह सुवर्ण होता है। जिसमें सोने की युक्ति-रंग आदि तो होते हैं पर जो कसौटी पर अन्य गुणों से खरा नहीं उतरता, वह सोना नहीं कहलाता । जैसे नाम और रूप से यौगिक-सोना सोना नहीं होता, वैसे ही केवल नाम और वेष से कोई सच्चा भिक्षु नहीं होता । गुणों से ही सोना होता है और गुणों से ही भिक्षु । विष की घात करने वाला, रसायन, मांगलिक, विनयी, लचीला, भारी, न जलने वाला, काट-रहित और दक्षिणा-वत-इन गुणों से उपेत सोना होता है। जो कष, छेद, ताप और ताडन-इन चार परीक्षाओं में विषघाती ग्रादि गुणों से संयुक्त ठहरता है, वह भाव-सुवर्ण-असली सुवर्ण है और अन्य द्रव्य-सुवर्ण-नाम मात्र का सुवर्ण । . संवेग, निर्वेद, विवेक (विषय-त्याग), सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शांति, मार्दव, प्रार्जव, अदीनता, तितिक्षा, आवश्यक-शुद्धि-ये सच्चे भिक्षु के लिंग हैं। ___ जो इनमें खरा ठहरता है, वही सच्चा भिक्षु है । जो केवल भिक्षा मांगकर खाता है पर अन्य गुणों से रहित है, वह सच्चा भिक्षु नहीं होता । वर्ण से जात्य-सुवर्ण के सदृश होने पर भी अन्य गुरण न होने से जैसे यौगिक-सोना सोना नहीं ठहरता। सोने का वर्ण होने पर भी जात्य-सुवर्ण वही है जो गुरण-संयुक्त हो । भिक्षाशील होने पर भी सच्चा भिक्षु वही है जो इस अध्ययन में वणित गुणों से संयुक्त हो। भिक्ष का एक निरुक्त है-जो भेदन करे वह 'भिक्षु' । इस अर्थ से जो कुल्हाड़ा ले वृक्ष का छेदन-भेदन करता है वह भी भिक्ष कहलाएगा, पर ऐसा भिक्षु द्रव्य-भिक्षु (नाम मात्र से भिक्षु) होगा। भाव-भिक्षु (वास्तविक भिक्षु) तो वह होगा जो तपरूपी कुल्हाड़े से संयुक्त हो । वैसे ही जो याचक तो है पर अविरत है-वह भाव-भिक्ष नहीं द्रव्य-भिक्षु है। जो भीख मांगकर तो खाता है पर स-दार और प्रारंभी है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है। जो मांगकर तो खाता है पर मिथ्या-दृष्टि है, स-स्थावर जीवों का नित्य वध करने में रत है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है। जो मांगकर तो खाता है पर संचय करने वाला है, परिग्रह में मन, वचन, काया और कृत, कारित, अनुमोदन रूप से निरत - ग्रासन है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्षु है। जो मांगकर तो खाता है पर सचित्त-भोजी है, स्वयं पकाने वाला है, उद्दिष्ट-भोजी है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है। जो मांगकर तो खाता है पर तीन करण तीन योग से प्रात्म, पर और उभय के लिए सावध प्रवृत्ति करता है तथा अर्थ-अनर्थ पाप में प्रवृत्त है वह भाव-भिक्ष नहीं, द्रव्य-भिक्ष है। प्रश्न है-फिर भाव-भिक्ष (सद्-भिक्ष ) कौन है ? उत्तर है-जो प्रागमतः उपयुक्त और भिक्ष के गुणों को जानकर उनका पालन करता है, वही भाव-भिक्ष है। Jain Education Intemational Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैका लिक) वे गुण 'कौन से हैं ? इस अध्ययन में इसी प्रश्न का उत्तर है । ४७८ इस अध्ययन का नाम 'स- भिक्षु' या 'सद्-भिक्ष' है'। यह प्रस्तुत सूत्र का उपसंहार है । पूर्ववर्ती अध्ययनों में वरिणत श्राचारनिधि का पालन करने के लिए जो भिक्षा करता है वही भिक्ष है, केवल उदर-पूर्ति करने वाला भिक्षु नहीं है - यह इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है । 'स' श्रीर 'भिक्खु' इन दोनों के योग से भिक्षु शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया है। इसके अनुसार भिक्षाशील व्यक्ति भिक्षु नहीं है, किन्तु जो कि जीवन के निर्वाह के लिए भिक्षा करता है वही भिक्षु है इससे भिखारी और भिक्ष के बीच को मेरे स्पष्ट हो जाती है । इस अध्ययन की २१ गाथाएं हैं। सबके अन्त में 'सभिक्ष' शब्द का प्रयोग है। उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन में भी ऐसा ही है । उसका नाम भी यही है । विषय और पदों की भी कुछ समता है। संभव है शय्यम्भवसूरि ने दसवें अध्ययन की रचना में उसे आधार माना हो । 1 भिक्षु वर्ग विश्व का एक प्रभावशाली संगठन रहा है। धर्म के उत्कर्ष के साथ धार्मिकों का उत्कर्ष होता है। धर्म का नेतृत्व भिक्ष वर्ग के हाथ में रहा । इसलिए सभी आचार्यों ने भिक्षु की परिभाषाएँ दीं और उसके लक्षण बताए । महात्मा बुद्ध ने भिक्ष, के अनेक लक्षण बतलाए हैं । 'धम्मपद' में 'भिक्खुवग्ग' के रूप में उनका संकलन भी है। उसकी एक गाथा 'स. भिक्खु' श्रध्ययन की १५ वें श्लोक से तुलनीय है : त्यो पातो वाचायत समो अन्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाड़ भिक्खू ।। (धम्म० २५.३) हत्थ - संजए पाय- संजए, वाय-संजए, संजई दिए । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भित्र ।। ( दश० १०.१५) भिक्ष ु चर्या की दृष्टि से इस अध्ययन की सामग्री बहुत ही अनुशीलन योग्य है । वोसट् ठचत्त देहे (श्लोक १३), अन्नाय उछं (श्लोक १६) पते पुण्यपावं (श्लोक १८) यादि-आदि वाक्यांश यहां प्रयुक्त हुए हैं, जिनके पीछे धमणों का त्याग और विचार मन्थन का इतिहास झलक रहा है । 1 यह नवें पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्भूत हुआ है। १ - हैम० ८.१.११ : सद्- भिक्षु का भी प्राकृत रूप सभिक्खू बनता है । अन्त्यव्यञ्जनस्य २ (क) दश० नि० ३३०: जे भावा दसवे आलिअम्मि, करणिञ्ज वण्णिअ जिणेहिं । (ख) दश० नि० ३४६ ३- दश० नि० गा० १७ । अध्ययन : आमुख सिरामायणमिति (मी) जो भिक्खू भन्न सक्ि जो भिर गुणरहिओ भिक्वं गिर न होइ सो भि "सद्भक्षु: - = सभिक्खू | Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अज्झयणं : दशम अध्ययन स-भिक्खु : सभिक्ष मूल १-निक्खम्ममाणाए' बुद्धवयणे निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा। इत्थीण वसं न यावि गच्छे वंतं नो पडियायई जे स भिक्खू ॥ संस्कृत छाया निष्क्रम्याज्ञया बुद्धवचने, नित्यं समाहितचितो भवेत् । स्त्रीणां वशं न चापि गच्छेत्, वान्तं न प्रत्यापिबति (प्रत्यादत्ते) __यः स भिक्षुः ॥१॥ हिन्दी अनुवाद १-जो तीर्थङ्कर के उपदेश से निष्क्रमण कर (प्रव्रज्या ले'), निग्रंथ-प्रवचन में" सदा समाहित-चित्त होता है, जो स्त्रियों के अधीन नहीं होता, जो वमे हए को वापस नहीं पीता (त्यक्त भोगों का पुन: सेवन नहीं करता)-वह भिक्षु है। २-पुढवि न खणे न खणावए सीओदगं न पिए न पियावए। अगणिसत्थं जहा सुनिसियं नजले न जाता पृथ्वी न खनेन्न खानयेत्, शीतोदकं न पिबेन्न पाययेत् । अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितं, तन्न ज्वलेन्न ज्वलयेद्यः स भिक्षः ॥२॥ २-जो पृथ्वी का खनन न करता है। और न कराता है, जो शीतोदक° न पीता है और न पिलाता है", शस्त्र के समान सूतीक्ष्ण१२ अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है13--वह भिक्षु है । ३-अनिलेण न वीए न वीयावए हरियाणि न छिदे न छिदावए। बीयाणि सया विवज्जयंतो। सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ अनिलेन न व्यजेन्न व्यजयेत्, हरितानि न छिन्द्यान्न छेदयेत् । बीजानि सदा विवर्जयन्, सचित्तं नाहरेत् यः स भिक्षुः ॥३॥ ३-जो पंखे आदि से१४ हवा न करता है और न कराता है१५, जो हरित का छेदन न करता है और न कराता है१६, जो बीजों का सदा विवर्जन करता है (उनके संस्पर्श से दूर रहता है), जो सचित्त का आहार नहीं करता-वह भिक्षु है। ४-वहणं तसथावराण होइ हननं त्रसस्थावराणां भवति, ४–भोजन बनाने में पृथ्वी, तृण और पुढवितणकट्टनिस्सियाणं । पृथ्वीतृणकाष्ठनिःश्रितानाम् । काष्ठ के आश्रय में रहे हए त्रस-स्थावर जीवों का वध होता है, अत: जो औद्देशिका तम्हा उद्देसियं न भुंजे तस्मादौद्देशिकं न भुञ्जीत, (अपने निमित्त बना हुआ) नहीं खाता तथा नो विपए नपयावए जेसभिक्ख ॥ नो अपि पच्चेन्न पाचयेत् । जो स्वयं न पकाता है और न दूसरों से यः स भिक्षुः ॥४॥ पकवाता है - वह भिक्षु है । ५-रोइय नायपुत्तवयणे अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥ रोचयित्वा ज्ञातपुत्रवचनम्, आत्मसमान्मन्येत षडपि कायान् । पञ्च च स्पृशेन्महाव्रतानि, पंचाश्रवान् संवृणुयात् यः स भिक्षुः ॥५॥ ५-जो ज्ञातपुत्र के वचन में श्रद्धा रखकर छहों कायों (सभी जीवों) को आत्मसम मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच आस्त्रवों का संवरण करता है-वह भिक्षु है। Jain Education Intemational Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेआलियं (दशवैकालिक) ४८० अध्ययन १० : श्लोक ६-११ ६-चत्तारि वमे सया कसाए धुवयोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे। अहणे निज्जायरूवरयए गिहिजोगं परिवज्जए जे सभिक्खू ॥ चतुरो वमेत् सदा कषायान्, ध्रुवयोगी च भवेद् बुद्धवचने। अधनो निर्जातरूपरजतः, गृहियोगं परिवर्जयेद् यः सः भिक्षुः ॥६॥ ६-जो चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का परित्याग करता है, जो निर्गन्थ-प्रवचन में ध्र वयोगी है जो अधन है, जो स्वर्ण और चाँदी से रहित है, जो गृही योग२४ (क्रय-विक्रय आदि) का वर्जन करता है - वह भिक्षु है। ७-सम्मट्टिी सया अमूढे सम्यग्दृष्टिः सदाऽमूढः. ७-जो सम्यक् दर्शी२५ है, जो सदा अस्थि ह नाणे तवे संजमे य। अस्ति खलु ज्ञानं तपः संयमश्च । अमूढ़ है२६, जो ज्ञान, तप और संयम के अस्तित्व में आस्थावान् है, जो तप के द्वारा तवसा धुणइ पुराणपावगं तपसा धुनोति पुराणपापक, पुराने पापों को प्रकम्पित कर देता है, जो मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्ख ॥ सुसंवृतमनोवाक्-कायः मन, वचन तथा काय से सुसंवृत८है-वह यः स भिक्षुः ॥७॥ भिक्षु है। ८-तहेव असणं पाणगं वा तथैवाशनं पानक वा, विविहं खाइमसाइमं लभिता। विविधं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा। होही अट्ठो सुए परे वा भविष्यत्यर्थः श्वः परस्मिन्वा, तं न निदध्यान्न निधापयेद् तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू । यः स भिक्षु ॥८॥ ८-पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर-यह कल या परसों काम आएगा-इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है-वह भिक्षु है । 8-तहेव असणं पाणगं या तथैवाशनं पानकं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। विविध खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा । छंदिय साहम्मियाण भुजे छन्दयित्वा सार्मिकान् भुञ्जीत, भोच्चा सज्झायरए य जे स भिक्खू॥ पवार भुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च यः स भिक्षुः ॥६॥ १-पूर्वोक्त प्रकार से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर जो सार्मिकों को निमंत्रित कर ३२ भोजन करता है, जो भोजन कर चुकने पर स्वाध्याय में रत रहता है-वह भिक्षु है। १०-न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते अविहेडए जे स भिक्खु ॥ न च वैग्रहिकी कथां कथयेत्, न च कुप्येन्निभृतेन्द्रियः प्रशान्तः । संयम-ध्रु वयोगयुक्तः उपशान्तोऽविहेठको यः स भिक्षुः॥१०॥ १०--जो कलहकारी कथा33 नहीं करता, जो कोप नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्र वयोगी है३६, जो उपशान्त है", जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता८-बह भिक्षु है। ११-जो सहइ हु गामकंटए । अक्कोसपहारतज्जणाओ य। भयभेरवसहसंपहासे समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु ॥ यः सहते खलु ग्रामकण्टकान्, आक्रोशप्रहारतर्जनाश्च । भयभैरवशब्दसंप्रहासान्, समसुखदुःखसहश्च यः स भिक्षुः ॥११॥ ११-जो कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को४१ सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है-वह भिक्षु है। Jain Education Intemational Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १०: श्लोक १२-१७ स-भिक्खु ( सभिक्षु ) ४८१ १२–पडिम पडिवज्जिया मसाणे प्रतिमा प्रतिपद्य श्मशाने, नो भायए भयभेरवाइंदिस्स। नो बिभेति भयभेरवानि दृष्ट्वा । विविहगुणतवोरए य निच्चं विविधगुणतपोरतश्च नित्यं, न सरीरं चाभिकंखई जेसभिक्खू ॥ न शरीर चाभिकांक्षति ___ यः स भिक्षुः ॥१२॥ १२–जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहण कर४३ अत्यन्त भयजनक दृश्यों को देखकर नहीं डरता, जो विविध गुणों और तपों में रत होता है, जो शरीर की आकांक्षा नहीं करता५--वह भिक्षु है। १३–असइं वोसट्टचत्तदेहे अक्कुट्ठ व हए व लूसिए वा। पुढवि समे मुणी हवेज्जा अनियाणे अकोउहल्ले य जेस भिक्खू॥ असकृद् व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः, आक्रुष्टो वा हतो वा लूषितो वा । पृथ्वीसमो मुनिर्भवेत्, अनिदानोऽकौतूहलो यः स भिक्षुः॥१३॥ १३- जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और त्याग करता है, जो आक्रोश देने, पीटने और काटने पर पृथ्वी के समान सर्वसह" होता है, जो निदान नहीं करता, जो कुतूहल नहीं करता-बह भिक्षु है। १४–अभिभूय काएण परीसहाइ अभिभूय कायेन परिषहान्, समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं। समुद्धरेज्जातिपथादात्मकम् । विइत्त जाइमरणं महब्भयं विदित्वा जातिमरणं महाभयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू॥ तपसि रतः श्रामण्ये यः स भिक्षुः ॥१४॥ १४-जो शरीर से परीषहों को५० जीतकर जाति-पथ (संसार)” से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभय जानकर श्रमण-सम्बन्धी तप में रत रहता है-वह भिक्षु है। १५-हत्थसंजए पायसंजए हस्तसंयतः पादसंयतः, वायसंजए संजइंदिए। वाक्संयत: संयतेन्द्रियः । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा अध्यात्मरतः सुसमाहितात्मा, सुत्तत्थं च वियाणईजेस भिक्खू। सूत्रार्थ च विजानाति यः स भिक्ष: ॥१५॥ १५-जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत५३ है, वाणी से संयत५४ है, इन्द्रियों से संयत५५ है, अध्यात्म ६ में रत है, भलीभाँति समाधिस्थ है और जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है-वह भिक्षु है । १६-उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध उपधौ अमूच्छितोऽगृद्धः, अन्नायउंछपुल निप्पुलाए। अज्ञातोञ्छपुलो निष्पलाकः । कयविक्कयसन्निहिओ विरए क्रयविक्रयसन्निधितो विरतः, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू ॥ सर्वसङ्गापगतो यः स भिक्षुः ॥१६॥ १६--जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करने वाला है, जो संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है५८, जो क्रय-विक्रय और सन्निधि से५६ विरत है, जो सब प्रकार के संगों से रहित है (निर्लेप है)-वह भिक्षु है। १७-अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्ध अलोलो भिक्षुर्न रसेषु गद्धः, उंछ चरे जीविय नामिकखे। उञ्छं चरेज्जीवितं नाभिकांक्षेत् । इडि च सक्कारण पूयणं च ऋद्धि च सत्कारणं पूजनञ्च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्ख ॥ त्यजति स्थितात्मा अनिभो य: स भिक्षुः ॥१७॥ १७---जो अलोलुप है६२, रसों में गृद्ध नहीं है, जो उञ्छचारी है (अज्ञात कुलों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेता है), जो असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा की स्पृहा को त्यागता है, जो स्थितात्मा५ है, जो अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता-वह भिक्षु है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४८२ अध्ययन १० : श्लोक १८-२१ १८-न परं वएज्जासि अयं कुसीले न परं वदेदयं कुशील:, जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा। येनान्यः कुप्येन्न तद् वदेत् । जाणिय पत्त यं पुण्णपावं ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं, अत्ताणं न समुक्कसेजेस भिक्खू॥ आत्मानं न समुत्कर्षयेद्यः स भिक्षुः ॥१८॥ १८-प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्पृथक् होते हैं६६—ऐसा जानकर जो दूसरे को६० 'यह कुशील (दुराचारी)६८ है" ऐसा नहीं कहता, जिससे दूसरा कुपित हो ऐसी बात नहीं कहता, जो अपनी विशेषता पर उत्कर्ष नहीं लाता-वह भिक्षु है । १९- न जाइमत्त न य रूवमत्त न जातिमत्तो न च रूपमत्तः, न लाभमत्त न सुएणमत्त। न लाभमतो न श्रुतेन मत्तः । मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता मदान् सर्वान् विवयं, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ धर्मध्यानरतो यः स भिक्षुः ॥१६॥ १९-जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो श्रुत का मद नहीं करता, जो सब मदों को६६ वर्जता हुआ धर्म-ध्यान में रत रहता है-वह भिक्षु है। २०--पवेयए अज्जपयं महामुणी प्रवेदयेदार्यपदं महामुनिः, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि । निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीलिंग निष्क्रम्य वर्जयेत् कुशीललिङ्ग, न यावि हस्सकहए जे स भिक्खू॥ न चापि हास्यकुहको यः स भिक्षुः ॥२०॥ २०-- जो महामुनि आर्यपद (धर्मपद) का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थित करता है, जो प्रवजित हो कुशील-लिङ्ग का१ वर्जन करता है, जो दूसरों को हँसाने के लिए कुतूहल पूर्ण चेष्टा नहीं करता---७२ वह भिक्षु है। २१-तं देहवासं असुइं असासयं त देहवासमशुचिमशाश्वतं, सया चए निच्च हियद्रियप्पा। सदा त्यजेन्नित्यहितः स्थितात्मा । छिदित्त जाईमरणस्स बंधणं छित्वा जातिमरणस्य बन्धनम्, उवेइ भिक्खू अपुणरागमं गई॥ उपैति भिक्षुरपुनरागमा गतिम् ॥२१॥ २१ -अपनी आत्मा को सदा शाश्वतहित में सुस्थित रखने वाला भिक्षु इस अशुचि और अशाश्वत देहवास को 3 सदा के लिए त्याग देता है और वह जन्म-मरण के बन्धन को छेदकर अपुनरागम-गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। त्ति बेमि॥ इति ब्रवीमि । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन १० श्लोक १: १. ( निक्खम्ममाणाए ) : यहाँ मकार अलाक्षणिक है । २. तीर्थंकर के उपदेश से ( आणाए क ): आज्ञा का अर्थ वचन, सन्देश', उपदेश' या आगम है । इसका पाठान्तर 'आदाय' है । उसका अर्थ है ग्रहणकर अर्थात् तीर्थङ्करों की वाणी को स्वीकार कर। ३. निष्क्रमण कर (प्रव्रज्या ले) ( निक्खम्म क ): निष्क्रम्य का भावार्थ--- अगस्त्य चूणि' में घर या आरम्भ-समारम्भ से दूर होकर, सर्वसंग का परित्याग कर किया है। जिनदास चूरिण में गृह से या गृहस्थभाव से दूर होकर द्विपद आदि को छोड़कर किया है। टीका में द्रव्य-गृह और भाव-गृह से निकल (प्रवज्या ग्रहण कर) किया है । द्रव्य-गृह का अर्थ है-घर । भाव-गृह का अर्थ है गृहस्थ-भाव ---गृहस्थ-सम्बन्धी प्रपंच और सम्बन्ध । इस तरह चूर्णिकार और टीकाकार के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है । टीकाकार ने चूणिकार के ही अर्थ को गूढ़ रूप में रखा है। ४. निर्ग्रन्थ-प्रवचन में ( बुद्धवयणे) : तत्त्वों को जानने वाला अथवा जिसे तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ हो, वह व्यक्ति बुद्ध कहलाता है। जिनदास महत्तर यहाँ एक प्रश्न उपस्थित करते हैं । शिष्य ने कहा कि 'बुद्ध' शब्द से शाक्य आदि का बोध होता है। आचार्य ने कहा-यहाँ द्रव्य-बुद्ध-पुरुष (और द्रव्यभिक्षु ) का नहीं, किन्तु भाव-बुद्ध-पुरुष (और भाव-भिक्षु) का ग्रहण किया है । जो ज्ञानी कहे जाते हैं पर सम्यक्-दर्शन के अभाव से जीवाजीव १-अ० चू० : आणा वयणं संदेसो वा। २-हा० टी०प० २६५ : 'आज्ञया' तीर्थकरगणधरोपदेशेन । ३-जि० चु०१० ३३८ : आणा वा आणत्ति नाम उववायोत्ति वा उवदेसोत्ति वा आग मोत्ति वा एगट्ठा । ४--जि. चू० पृ० ३३७ : अथवा आदाय, 'बुद्धवयणं' बुद्धाः---तीर्थकराः तेषां वचनमादाय गृहीत्वेत्यर्थः । ५-अ० चू० : निक्खम्म निक्खम्मिऊण निग्गच्छिऊण गिहातो आरंभातो वा। ६-जि० चू० पृ० ३३७ : निष्क्रम्य, तीर्थकरगणधराज्ञया निष्क्रम्य सर्वसंगपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः......"निक्खम्म नाम गिहाओ गिहत्थ भावाओ वा दुपदादीणि य चइऊण । ७-हा० टी० प० २६५ : 'निष्क्रम्य' द्रव्यभावगृहात प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ४८४ अध्ययन १० श्लोक २ टि० ५-६ के भेद को नहीं जानते और पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा करते हैं, वे इय्यद (और) नाममात्र के युद्ध और नाम मात्र द्रव्य-बुद्ध हैं भिक्षु ) हैं । जो पृथ्वी आदि जीवों को जानकर उनकी हिंसा का परिहार करते हैं, वे भाव बुद्ध ( और भाव - भिक्षु) कहलाते हैं अर्थात् ही वास्तव में बुद्ध हैं? ( और वे ही वास्तव में भिक्षु हैं ) । इसलिए यहाँ बुद्ध का अर्थ तीर्थङ्कर या गणधर है। बुर्णिकार ने इस आशंका में उत्तरकालीन प्रसिद्धि को प्रधानता दी है । महात्मा गौतम बुद्ध उत्तरकाल में बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हो गए। जैन साहित्य में प्राचीन काल से ही तीर्थंकर या आगम-निर्माता के अर्थ में बुद्ध शब्द का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता रहा है । युद्धप्रवचन का अर्थ द्वादशाङ्गी (गणिपिटक दशा और उसके आधारभूत पशासन के लिए 'स्थिशब्द मागम विद्युत है। इसलिए हमने 'बुद्धवय' का अनुवाद नहीं किया। ख ५. समाहित-चित्त ( चित्तसमाहिओ ): जिसका चित्त सम्-अच्छी तरह से आहित लीन होता है, उसे समाहित चित्त कहते हैं जो चित्त से अतिप्रसन्न होता है, उसे समाहित-चित्त कहते हैं । समाहित-चित्त अर्थात् चित्त की समाधि वाला - प्रसन्नता वाला । चित्त-समाधि का सबसे बड़ा विघ्न विषय की अभिलाषा है । स्पर्श, रस आदि विषयों में स्त्री-सम्बन्धी विषयेच्छा सर्वाधिक दुर्जेय है, इसलिए श्लोक के अगले दोनों चरणों में चित्त-समाधि की सबसे बड़ी व्याधि से बचने का मार्ग बताया गया है । ६. जो वमे हुए को वापस नहीं पीता ( वंतं नो पडियायई घ ) : इसके स्पष्टीकरण के लिए देखिए २.६७ का अर्थ और टिप्पण यह वहाँ प्रयुक्त इति वतयं भोलू कुले जाया । 'वंत इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे' - वाक्यों की याद दिलाता है । घ ७. भिक्षु ( भिक्खु ) : सूत्रकृताङ्ग के अनुसार भिक्षु की व्याख्या इस प्रकार है— जो निरभिमान, विनीत, पाप- मल को धोने वाला, दान्त, बन्धन मुक्त होने योग्य निर्मम नाना प्रकार के परीषद और उपसगों से अपराजित, अध्यात्मयोगी विशुद्ध चारित्र सम्पन्न, सावधान स्थितात्मा यशस्वी या विवेकशील और परदत्त भोजी हो, वह भिक्षु कहलाता है । इलोक २ : ८. श्लोक २-३ : 7 J पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की हिंसा के परिहार का उपदेश चौबे पांचवें छट्टे और आठवें अध्ययन में दिया गया है । उसी को यहाँ दोहराया है। प्रश्न होता है एक ही आगम में इस प्रकार की पुनरुक्तियाँ क्यों ? आचार्य ने उत्तर दिया- शिष्य को स्थिर मार्ग पर आरूढ़ करने के लिए ऐसा किया गया है, इसलिए यह पुनरुक्त दोष नहीं है । - १ - जि० चू० पृ० ३३९ : आह - णणु बुद्धगगहणेण य सक्काइणो गहणं पावइ, आयरिओ आह-न एत्थ दव्वबुद्धाणं दव्वभिक्खूण य गणं कर्म कहं ते दाभ? म्हाते सम्मणाभावेण जीवाजीव विसेस अजानमाणा पुढविमाई जीवेहिसमाचा दबुद्धा दव्वभिक्खु भवंति कहं तेहि चित्तसमाधियत्तं भविस्सइ जे जीवाजीव विसेसं ण उवलभंति ?, जे पुढविमादि जीवे माऊणं परिहरति ते भावयुद्धा भावभिन्य अन्नंति, छज्जीवनिकायानगो व रक्खणपरो व भावभिक्खु भवति । २- हा० टी० प० २६६ : 'बुद्धवचने' अवगततत्त्वतीर्थ करगणधरवचने । ३- अ० चू० : बुद्धा जाणणा तेसि वयणं - बुद्धवयणं दुवालसंगं गणिपिडगं । ४- जि० ० पृ० ३३८ : चित्तं पसिद्ध तं सम्म आहित जस्स सो चित्तसमाहिओ । ५० टी० ० २६५ 'चित्तसमाहित' खिलेनातिप्रसन्नो भवेत् प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः । ६- अ० चू : चित्तसमाधाणविग्धभूता विसया तत्थवि पाहण्णेण इत्थिगतत्ति भणति इत्यीणवसं । ७०] १.१६.३ एत्यवि भिक्खु अन्नए विणीए नामए दंते दबिए बोसकाए संविभुगीय विवस्वे परीसहवागसुद्धादाने एसिया संखाए परदत्त भोई भिति बच्चे 7 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स-भिक्खु ( सभिक्षु ) ४८५ अध्ययन १० : श्लोक ३ टि०६-१४ (१) पुत्र विदेश जाता है तब पिता उसे शिक्षा देता है । कर्तव्य की विस्मृति न हो जाए, इसलिए वह अपनी शिक्षा की कई पुनरावृत्तियाँ कर देता है। (२) संभ्रम या स्नेहवश पुनरक्ति की जाती है, जैसे---साँप है—आ, आ, आ। (३) रोगी को बार-बार औषधि दिया जाता है। (४) मंत्र का जप तब तक किया जाता है जब तक वेदना का उपशम नहीं होता। इन सबमें पुनरावर्तन है पर उनकी उपयोगिता है, इसलिए वे पुनरुक्त नहीं माने जाते। वही पुनरावर्तन या पुनरुक्ति दोष माना जाता है जिसकी कोई उपयोगिता न हो। ___ लौकिक और वैदिक-साहित्य में भी अनेक पुनरुक्तियाँ मिलती हैं। तात्पर्य यही है कि प्रकृत विषय की स्पष्टता, उसके समर्थन या उसे अधिक महत्त्व देने के लिए उसका उल्लेख किया जाता है, वह दोष नहीं है। ६. पृथ्वी का खनन न करता है (पुढवि न खणे क ): पृथ्वी जीव है । उसका खनन करना हिंसा है। जो पृथ्वी का खनन करता है, वह अन्य वस-स्थावर जीवों का भी वध करता है । खनन यहाँ सांकेतिक है। इसका भाव है-मन, वचन, काया से ऐसो कोई भी क्रिया न करना, न कराना और न अनुमोदन करना जिससे पृथ्वी-जीव की हिंसा हो। देखिए--४ सू० १८; ५.१.३; ६.२७, २८, २६; ८.४.५। १०. शीतोदक ( सीओदगं ख ) : जो जल शस्त्र-हत नहीं होता ( सजीव होता है ) उसे शीतोदक कहते हैं । इसी सूव के चौथे अध्ययन (सू०५ ) में कहा है'आऊ चित्तमंतमक्खाया. . . . . 'अन्नत्थ सत्थ परिणएणं ।' पाना ११. न पीता है और न पिलाता है ( न पिए न पियावए): पीना-पिलाना केवल सांकेतिक शब्द हैं। इनका भावार्थ है-ऐसी कोई क्रिया या कार्य नहीं करना चाहिए जिससे जल की हिंसा हो। देखिए-४ सू० १६; ६.२६, ३०, ३१; ७.३६; ८.६, ७,५१,६२ । १२. शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण ( सुनिसियं ग ) : जैसे शस्त्र की तेज धार घातक होती है, वैसे ही अग्नि छह जीवकाय की घातक है । इसलिए इसे 'सुनिशित' कहा जाता है। १३. न जलाता है और न जलवाता है ( न जले न जलावए घ): 'जलाना' केवल सांकेतिक शब्द है । भाव यह है कि ऐसी कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिए जिससे अग्नि का नाश हो। देखिए-४ सू० २०, ६.३२, ३३, ३४, ३५; ८.८ । श्लोक ३: १४. पंखे आदि से ( अनिलेण ): घृणिद्वय में 'अनिल' का अर्थ वायु और टीका में उसका अर्थ 'अनिल' के हेतुभूत बस्त्र-कोण आदि किया है। १–वश० ४ सू० ४ : पुढबी चित्तमंतमक्खाया........ अन्नत्थ सत्थपरिणएण । २-(क) अ० चू० : सीतोदगं अविगतजीवं । (ख) जि. चू० पृ० ३३६ : 'सिओदगं' नाम उदगं असत्थहयं सजीवं सीतोदगं भण्णइ । (ग) हा० टी०प० २६५ : 'शीतोदक' सचित्तं पानीयम् । ३-अ० चू० : जधा खग्गपरसुछुरिगादि सत्थमणुधारं छेदगं तधा समंततो दहणरूवं । ४-(क) अ० चू० : अणिलो वायू । (ख) जि० चू० पृ० ३४० : अनिलो वाऊ भण्णइ । ५-हा० टी० ५०२६५ : 'अनिलेन' अनिलहेतुना चेलकर्णादिना । Jain Education Intemational Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशर्वकालिक ) ४८६ क १५. हवा न करता है और न कराता है ( न वीए न बीयावए ) : हवा लेना केवल सांकेतिक है। ऐसी कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए जिससे वायु का हनन हो । देखिए – ४ सू० २१; ६.३६, ३७, ३८, ३६; ८.१ १६. छेदन न करता है और कराता है ( न छिदे न छिदावए ख ) : छेदन शब्द केवल सांकेतिक है । ऐसी कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए जिससे वनस्पतिकाय का हनन हो । देखिए - ४.२२; ६.४१, ४२, ४३ ८.१०. ११ । १७. सचित्त का आहार नहीं करता ( जैन दर्शन के अनुसार वनस्पतिकाय सजीव है । भगवान् ने कहा है- सुसमाहित संयमी मन, वचन, काय द्वारा तीन प्रकार से ( करने, कराने और अनुमोदन रूप से) वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते । जो साधु वनस्पतिकाय की हिंसा करता है, वह तदाश्रित देखे जाते हुए और नहीं देखे जाते हुए विविध त्रस प्राणियों की भी हिंसा करता है। साधु दुर्गति को बढ़ाने वाले इस वनस्पतिकाय के समारम्भ का यावज्जीवन के लिए त्याग करे ( दश० ६.४१, ४२ ) । दश० ४ सूत्र २२ में वनस्पति की तीन करण तीन योग से विराधना न करने की व्रत-प्रज्ञप्ति दी है । दश० ८.१०,११ में कहा है “साधु तृण घास- वृक्षादि तथा किसी वृक्षादि के फल और मूल को न काटे तथा नाना प्रकार के सचित्त बीजों के सेवन की मन से भी इच्छा न करे। वृक्षों के कुंज में एवं गहन वन में, बीजों पर अथवा दूब आदि हरितकाय पर, उदक पर, सर्पच्छत्रा पर, पनक पर एवं लीलन-फूलन पर साधु कभी भी खड़ा न हो । " सूत्रकृताङ्ग १.७, ८, ९ में कहा है- "हरित वनस्पति सजीव है। मूल शाखा और पत्रादि में पृथक्-पृथक् जीव हैं। जो अपने सुख के के लिए आहार और देह के लिए उसका छेदन करता है, वह प्रगल्भ बहुत प्राणियों का अतिपात करता है। जो बीज का नाश करता है, वह जाति-अंकुर और उसकी वृद्धि का विनाश करता है, वह अनार्यधर्मी है।" इसी तरह आचाराङ्ग १.१.५ में वनस्पतिकाय के आरम्भ-त्याग का उपदेश दिया है। इस श्लोक में मुनि के लिए सचित्त वनस्पति खाने का निषेध है'। जो वनस्पति सचित्त है - शस्त्रादि के प्रयोग से पूर्ण परिणत नहीं (अचित्त नहीं हुई ) है उसका भक्षण साधु न करे । उसका भक्षण करना अनाचीर्ण है। प्रश्न हो सकता है शस्त्र - परिणत अचित्त वनस्पति कहाँ मिलेगी ? इसका समाधान यह है – गृहस्थों के यहाँ नाना प्रयोजनों से कन्द, मूल, फल और बीज का स्वाभाविक रूप से छेदन - भेदन होता ही रहता है। खाने के लिए नाना प्रकार की वनस्पतियाँ छेड़ी-भेदी और पकाई जाती हैं। साधु ऐसी अवित्त ( प्रासुक निर्जीव) वनस्पतियां प्राप्त हों तो ले, अन्यथा नहीं । कहा है'भूख से पीड़ित होने पर भी संयम-बल वाले तपस्वी साधु को चाहिए कि वह फल आदि को स्वयं न तोड़े, न दूसरों से तुड़वाए, न स्वयं पकाए, न दूसरों से पकवाए ।' इस विषय में बौद्धों का नियम जान लेना भी आवश्यक है। विनयपिटक में कहा है – “जो भिक्षुणी कच्चे अनाज को माँगकर या मंगवाकर भूनकर या भुनवाकर कूटकर या कुटवाकर पकाकर या पकवाकर, खाए उसे 'पाचित्तिय' कहा हैं ।" इसी तरह वहाँ कहा है“जो भिक्षुणी पेशाब या पाखाने को, कूड़े या जूठे को हरियाली पर फेंके उसे 'पाचित्तिय' कहा हैं ।" इसी तरह वृक्ष काटने को 'पाचित्तिय' कहा है। अध्ययन १० टि० १५-१७ घ सचितं नाहारए ) : ५. एक बार बुद्ध राजगृह के वेणुवन कलन्दक निपाप में विहार करते थे । उनके पेट में वायु की पीड़ा उत्पन्न हुई । आनन्द ने स्वयं तिल, तन्दुल और मूंग को माँग, आराम के भीतर ला स्वयं पका यवागू ( खिचड़ी) बुद्ध के सामने उपस्थित की । बुद्ध ने यवागू कहाँ से आई, यह जाना। उसकी उत्पत्ति की बात जान फटकारते हुए बोले - " आनन्द ! अनुचित है, अकरणीय है । आनन्द ! जो कुछ भीतर रखा गया है वह भी निषिद्ध है, जो कुछ भीतर पकाया गया है वह भी निषिद्ध है, जो स्वयं पकाया गया है वह भी निषिद्ध है । जो भीतर I १ जि० ० चू० पृ० ३४१ : सचित्तग्गणेण सव्वस्स परोयसाहारणस्स सभेदस्स वणप्फइकायस्स गहणं कयं तं सचित्तं नो आहारेज्जा । २ – उत्त० २.२ । ३- भिक्खूनो पातिमोक्ल अ० ४.७ । 21 ४ ४.८ । ५.११ । 33 " " — Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भिक्खु (भिक्षु ) अध्ययन १० : श्लोक ४-५ टि० १८-२२ भीतर पकाए और स्वयं पकाए को खाए उसे दुक्कट का दोष हो और द्वार पर पकाए तो दोष नहीं, बाहर रखे, बाहर पकाए किन्तु -दूसरों द्वारा पकाए का भोजन करे तो दोष नहीं ।" रखे, एक बार राजगृह में दुर्भिक्ष पड़ा । बाहर रखने से दूसरे ले जाते थे । बुद्ध ने भीतर रखने की अनुमति दी । भीतर रखवाकर बाहर पकाने में भी ऐसी ही दिक्कत थी । बुद्ध ने भीतर पकाने की अनुमति दी । दूसरे पकाने वाले बहु भाग ले जाते थे । बुद्ध ने स्वयं पकाने की अनुमति दी नियम हो गया अनुमति देना भीतर रखे भीतर पकाए और हाथ से पकाए की "" 1 श्लोक ४ : १८. औदेशिक ( उद्देसियं ग ) : इसके अर्थ के लिए देखिए दश० ३.२ का अर्थ और टिप्पण । ११. न पकाता है और न पकवाता है ( नो वि पए न पयावए प ) : 'पकाते की अनुमोदना नहीं करता' इतना अर्थ यहाँ और जोड़ लेना चाहिए। पकाने और पकवाने में त्रस स्थावर दोनों प्रकार के प्राणियों की हिंसा होती है अतः मन, वचन, काया से तथा कृत, कारित, अनुमोदन से पाक का वर्जन किया गया है। श्लोक २ और ३ में स्थावर जीव (पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का खनन आदि क्रियाओं द्वारा वध करने का निषेध किया गया है। श्लोक ४ में ऐसे कार्यों का निषेध आ जाता है, जिसमें त्रस स्थावर जीवों का घात हो । त्रस जीवों के घात का वर्जन भी अनेक स्थलों पर आया है । देखिए -४ सू० २३; ६.४३,४४,४५ । इलोक ५ ) : २०. आत्म-सम मानता है ( अससमे मन्नेज्ज जैसे दुःख मुझे अप्रिय है वैसे ही छह ही प्रकार के जीव- निकायों को अप्रिय है जो ऐसी भावना रखता है तथा किसी जीव की हिंसा नहीं करता, वही सब जीवों को आत्मा के समान मानने वाला होता है । इसी आगम में साधु को बार-बार 'छसु संजए' - छह ही प्रकार के जीवों के प्रति संयमी रहने वाला कहा गया है। देखिए -४ सू० १०; ६.८,६,१०; ७.५६; ८.२,३ 1 ४८७ ख २१. पालन करता है ( फासे ग ) : 'स्पर्श' शब्द का व्यवहार साधारणतः 'छूने' के अर्थ में होता है । आगम- साहित्य में इसका प्रयोग पालन या आचरण के अर्थ में भी होता है। यहां 'स्पृश्' धातु पालन या सेवन के अर्थ में व्यवहृत है । ): २२. पाँच आस्रवों का संवरण करता है ( पंचासवसंवरे प ) पाँच आस्रवों की गिनती दो प्रकार से की जाती है : १. मियात्व अविरति प्रमाद, रूपाय और योग । २. स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । १ वि० पि० म० अ० ३.८ । २ - वि० पि० म० अ० ६ । ३ - उस० १०.२० । ४ - हा० टी० प० २६५ : सेवते महाव्रतानि । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवेकालिक ) ४८८ अध्ययन १० इलोक ६-७ टि० २३ २६ यहां पांच आस्रव से स्पर्शन आदि विवक्षित हैं । अगस्त्य पूर्णि में 'संवरे' पाठ है और जिनदास घूर्णि एवं टीका में वह 'संवर' के रूप में व्याख्यात है । इलोक ६ : २३. योगी ( ध्रुवजोगी) अगस्त्य पूर्ण के अनुसार जो वृद्ध (तीर) के वचनानुसार मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति करने वाला हो, प्रतिलेखन आदि आवश्यक कार्यों को नियमित रूप से करने वाला हो, वह 'ध्रुवयोगी' कहलाता है। कहा भी है- जिनशासन बुद्धों के वचनरूप द्वादशाङ्गीगणी पिक में जिसका योग ( मन, वचन और काया ) हो, जो पाँच प्रकार के स्वाध्याय में रत हो, जिसके धन (चत पद ) आदि न हों, यह 'योगी'। जिनदास महत्तर के अनुसार जो क्षण, लव और मुहूर्त में जागरूकता आदि गुणयुक्त हो, प्रतिलेखन आदि संयम के कार्य को नियमित रूप से करने वाला हो, सावधान होकर मन, वचन और काया से प्रवृत्ति करने वाला हो, बुद्ध वचन ( द्वादशाङ्गी ) में निश्चल योगवाला हो, सदा श्रुत में उपयुक्त हो, वह 'ध्रुवयोगी' कहलाता है* । २४. गृहियोग ( गिहिजोगं घ ) : धूर्णियों में गृहियोग का अर्थ पचन-पाचन, क्रय-विक्रय आदि किया है। हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ- मूर्च्छावश गृहस्थ-सम्बन्ध किया है। श्लोक ७: क २५. सम्यक दर्शी ( सम्मट्ठी जिसका जनप्रतिपादित जीव आदि पदार्थों में सम्य-विश्वास होता है, उसे सम्यदर्शी दृष्टि कहा जाता है । - सम्यक् २६. अमूढ़ है ( अमूढ़े क ) मिथ्या विश्वासों में रत व्यक्तियों का वैभव देखकर मूढ़ भाव लाने वाला अपने दृष्टिकोण को सम्यक् नहीं रख सकता। इसलिए १- अ० चू० : पंचासवदाराणि इंदियाणि ताणि आसवा चैव तानि संवरे । २ – (क) जि० चू० पृ० ३४१ : 'पंचासवसंवरे' नाम पंचिदियसंबुडे, जहा 'सद्देसु य भद्दयपावएसु सोयविसयं उबगएसु । तुट्ठ े व स्ट्रुम व समषेण समान होय ॥ एवं सभाप (ख) हा० टी० ० २६५ पञ्चायतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंताच -अ० चू० : बुद्धा जा तेसि वयणं बुद्धवयणं तम्मि जोगो कायवातमणेमतं कम्म सो धुवो जोगो जस्स सो धुवजोगीति जोगेण विमान पुर्ण कदापि करेति कदापि न करेति भणितं च- जहा करणीयमायुगपदि जो जोनो तर जोगो जोगो जिणसासणंमि दुक्खबुद्धवयणे । दुवालसंगे गणिपिड धुवजोगी पंचविध सज्झायवरो ॥ ४- जि० चू० पृ०३४१ धुवजोगी नाम जो खणलवमुहुत्तं पडिबुज्झमाणादिगुणजुत्तो सो धुवजोगी भवइ, अहवा जे पडिलेहणादि संजमजोगा तेसु धुवजोगी भवेज्जा, ण ते अण्णदा कुज्जा अहवा मणवयणकायए जोगे जुंजेमाणो आउत्तो जुंजेज्जा, अहवा बुद्धपालसंग भिजोगी भवेन्ना, सुञोवडतो सव्वकाल भ ५– (क) अ० ० गिहिजोगो-जो तेस वायारो पयणपयावणं तं । (ख) जि० चू० पृ० ३४२ : गिहिजोगो नाम पयणविक्कमादि । ६० डी० प० २६६हियोग' ७ गृहस्थसम्बन्धम् । -अ० चू० : सम्भावं सद्दहणा लक्खणा समादिट्ठी जस्स सो सम्मदिट्ठी । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स-भिक्खु ( सभिक्षु ) ४८४ अध्ययन १०: श्लोक ८ टि० २७-३० सम्यग्-दृष्टि बने रहने के लिए आवश्यक है कि वह अमूढ़ बना रहे। ज्ञान, तप और संयम हैं-यह श्रद्धा अमूढदृष्टि के ही होती है। मूढ़-दृष्टि को इस तत्व-त्रयी में विश्वास नहीं होता। इसलिए भिक्षु को अमूढ़ रहना चाहिए। २७. ( अस्थि हु ख ): 'ज्ञान, तप और संयम जिनशासन में ही हैं, कुप्रवचनों में नहीं हैं'- इस प्रकार भिक्षु को अमूढ़ दष्टि होना चाहिए। यह जिनदास चूणि में 'अत्थि हु' का अर्थ किया है और टीका में—'ज्ञान, तप और संयम है' भिक्षु अमूढ़ भाव से इस प्रकार मानता है यह किया है। २८. मन, वचन तथा काय से सुसंवृत ( मणवयकायसुसंबुडे घ): अकुशल मन का निरोध अथवा कुशल मन की उदीरणा करना मन से सुसंवृत होना है। अकुशल मन का निरोध और प्रशस्त वचन की उदीरणा अथवा मौन रहना वचन से सुसंवृत होना है। विहित नियमों के अनुसार आवश्यक शारीरिक क्रियाएँ करना—काया से अकरणीय क्रियाएँ नहीं करना—काय से सुसंवृत होना है। श्लोक ८: २८. परसों ( परे ग ): इसका मूल परे' है । टीका में इसका अर्थ 'परसों' किया है। और जिनदास धूणि में तीसरा, चौथा आदि दिन किया है। ३०. न सन्निधि (संचय) करता है ( न निहे ५ ) : जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ किया है -वासी नहीं रखता । टीका में इसका अर्थ है-- स्थापित कर नहीं रखता। भावार्थ है --संग्रह नहीं करता। इस श्लोक के साथ मिलाएं: अन्नामथो पानानं खादनीयानमथोऽपि वत्थानं । लद्धान सन्निधि कयिरा, न च परित्तसे तानि अलभमानो। सुत्तनिपात ५२-१० । १-(क) अ० चू० : परतिथिविभवादोहि अमूढे। (ख) जि० चू० पृ० ३४२ : अण्णतिथियाण सोऊण अणेसि रिद्धीओ दढ ण अमूढो भवेज्जा, अहवा सम्मद्दिट्ठिणा जो इदाणी अत्थो भण्णइ तंमि अत्थि सया अमूढा दिट्ठी कायव्वा । (ग) हा० टी०प० २६६ : 'अमूढः' अविप्लुतः। २-जि० चू० पृ० ३४२ : जहा अस्थि हु जोगे नाणे य, तस्स णाणस्स फलं संजमे य, संजमस्स फलं, ताणि य इमंमि चेव जिण. वयणे संपुष्णाणि, णो अण्णेसु कुप्पावयणेसुत्ति । ३-हा० टी०प० २६६ : 'अमूढ़ः' अविप्लुत : सन्नेवं मन्यते--अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्म मलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः । ४ -जि० चू० पृ० ३४२ : मणवयणकायजोगे सुठ्ठ संवुडेत्ति, कहं पुण संवुडे ?, तत्थ मगेणं ताव अकुसलमणणिरोध करेइ. कुसलमणो दीरणं च, वायाएवि पसत्थाणि वायणपरियट्टयाईणि कुब्वइ, मोणं वा आसेवई कारण सयणासणदागणवे पणट्ठाणचक्कम णा इसु कायचेद्वाणियमं कुब्वति, सेसाणि य अकरणिज्जाणि य ण कुब्वइ । ५-हा० टी० प० २६६ : परश्वः । ६—जि० चू० पृ० ३४२ : परग्गहणेण तइयचउत्थमादीण दिवसाण गहणं कयं । ७-जि० चू० पृ० ३४२ : 'न निहे न निहावए' णाम न परिवासिज्जत्ति वुत्तं भवति । ८-हा० टी० प० २६६ : 'न निघत्ते' न स्थापयति । Jain Education Intemational Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४६० अध्ययन १०: श्लोक-१० टि० ३१-३४ ग्लोक: ३१. सार्मिकों को ( साहम्मियाण ग): सार्मिक का अर्थ समान-धार्मिक साधु है' । साधु भोजन के लिए विषम-भोगी साधु तथा गृहस्थ को निमन्त्रित नहीं कर सकता। अपने संघ के साधुओं को–जो महाव्रत तथा अन्य नियमों की दृष्टि से समान-धर्मी हैं, उन्हें ही निमंत्रित कर सकता है। ३२. निमन्त्रित कर ( छंदिय ग) : छंद का अर्थ इच्छा है । इच्छापूर्वक निमन्त्रित कर---यह 'छंदिय' का अर्थ है । इसका भावार्थ है--जो आहार आदि प्राप्त किया हो उसमें समविभाग के लिए समान-धर्मा साधुओं का निमन्त्रित करना चाहिए और यदि कोई लेना चाहे तो बांटकर भोजन करना चाहिए । इस नियम के अर्थ को समझने के लिए देखिए-५.१.६४,६५,९६ का अर्थ और टिप्पण । श्लोक १०: ३३. कलहकारी कथा ( बुग्गहियं कहं क ) : विग्रह का अर्थ कलह, युद्ध या विवाद है। जिस कथा, चर्चा या वार्ता से विग्रह उत्पन्न हो, उसे वैग्रहिकी-कथा कहा जाता है। अगस्त्य चणि के अनुसार अमुक राजा, देश या और कोई ऐसा है-इस प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि एक व्यक्ति किसी के बारे में कुछ कहता है और दूसरा तत्काल उसका विरोध करने लग जाता है। बात ही बात में विवाद बढ़ जाता है, कलह हो जाता है। जिनदास चूणि और टीका में इसका अर्थ कलह-प्रतिबद्ध-कथा किया है। सारांश यह है कि युद्ध-सम्बन्धी और कलह या विपाद उत्पन्न करने वाली कथा नहीं करनी चाहिए। सुत्तनिपात (तुवटक-सुत्तं-५.२.१६) में भिक्षु को शिक्षा देते हुए प्रायः ऐसे ही शब्द कहे गये हैं : न च कत्थिता सिया भिक्खु, न च वाचं पयतं भासेय्य । 'पागभियं' न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य ।। भिक्षु धर्मरत्न ने चतुर्थ चरण का अर्थ किया है—कलह की बात न करे। गुजराती अनुवाद में (प्र० २०१) अ० धर्मानन्द कोसम्बी ने अर्थ किया है-'भिक्षु को वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए।' ३४. जो कोप नहीं करता ( न य कुप्पे ख): ___ इसका आशय है कि कोई विवाद बढ़ाने वाली चर्चा छेड़े तो उसे सुन मुनि क्रोध न करे अथवा चर्चा करते हुए कोई मतवादो कुतर्क उपस्थित करे तो उसे सुन क्रोध न करे । १-अ० चू० : साधम्मिया समाणधम्मिया साधुणो। २-(क) अ० चू० : छंदो इच्छा इच्छाकारेण जोयणं छंदणं । एवं छंदिय । (ख) हा० टी० ५० २६६ : 'छन्दित्वा' निमन्त्र्य । ३.---जि० चू०१० ३४३ : अणुग्गहमिति मन्नमाणो धम्मयाते साहम्मियाते छंदिया भुंजेज्जा छंदिया णाम निमंतिऊण, जइ पडिगाहता तओ तेसि दाऊण पच्छा सयं भुजेज्जा। ४.--अ० चू० : विग्गहो कलहो। तम्मि तस्स वा कारणं विग्गहिता जधा अमुगो, एरिसो रायादेसो वा । एत्थ सज्जं कलहो समुपज्जति। ५-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : बुग्गहिया नाम कुसुम (कलह) जुत्ता, तं वुग्गहियं कहं णो कहिज्जा । (ख) हा० टी० प० २६६ : न च 'वैग्रहिकों' कलहप्रतिबद्धां कथा कथयति । ६-(क) अ० चू० : जति वि परो कहेज्ज तधावि अम्हं रायाणं देसं वा जिंदसित्ति ण कुप्पेज्जा । वादादौ सयमवि कहेज्जा विग्गह कहं ण य पुण कुप्पेज्जा। (ख) जि० चू० ए० ३४३ : जयावि केणई कारणेण वादकहा जल्पक हादी कहा भवेज्जा, ताहे तं कुब्वमाणो नो कुप्पेज्जा। Jain Education Intemational Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स.भिक्खु (सभिक्षु) ४६१ अध्ययन १० : श्लोक ११ टि० ३५-३६ ३५. जिसको इन्द्रियाँ असुद्धत हैं ( निहुइंदिए ख ) : निभूत का अर्थ विनीत है । जिसकी इन्द्रियाँ विनीत हैं -उद्धत नहीं हैं, उसे निभृतेन्द्रिय कहा जाता है । ३६. जो संयम में ध्रुवयोगो है (संजमधुवजोगजुत्ते ग ) : ___'ध्रुव' का अर्थ अवश्यकरणीय और सर्वदा है। योग का अर्थ है-मन, वचन और काया। संयम में मन, वचन और काया-इन तीनों योगों से सदा संयुक्त रहने वाला ध्रुवयोगी कहलाता है। ३७. जो उपशान्त है ( उवसंते घ ) : इसक अर्थ अनाकुल, अव्याक्षिप्त और काया की चपलता आदि से रहित है। ३८. जो दूसरो को तिरस्कृत नहीं करता ( अविहेडए घ) : विग्रह, विकथा आदि के प्रसंगों में समर्थ होने पर भी जो ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता, उसे 'अविहेडक' कहा जाता है-यह चूणि की व्याख्या है । टीका के अनुसार जो उचित के प्रति अनादर नहीं करता, उसे 'अविहेडक' कहा जाता है। क्रोध आदि का परिहार करने वाला अविहेडक कहलाता है-यह टीका में व्याख्यान्तर का उल्लेख है । श्लोक ११: ३९. कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों ( गामकंटएक): विषय, शब्द, अस्त्र, इन्द्रिय, भूत और गुण के आगे समूह के अर्थ में ग्राम शब्द का प्रयोग होता है—यह शब्दकोश का अभिमत है" । आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में ग्राम का अर्थ इन्द्रिय किया है। जो इन्द्रियों को कांटों की भांति चुमें, उन्हें ग्राम-कण्टक कहा जाता है। जैसे शरीर में लगे हुए कांटे उसे पीड़ित करते हैं, उसी तरह अनिष्ट शब्द आदि श्रोत्र आदि इन्द्रियों में प्रविष्ट होने पर उन्हें १--अ० चि० ३.६५ : विनीतस्तु निभृतः प्रश्रितोऽपि च । २-हा० टी० प० २६६ : 'निभृतेन्द्रियः' अनुद्धतेन्द्रियः । ३-अ० चू० : संजमे धुवो जोगो तदवस्सकरणीयाण संजमं धुवजोगो कायवायमणोमत्तण जोगेण जुत्ते संजमधुवजोगजुत्ते । ४-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : 'धुवं' नाम सदवकालं । (ख) हा० टी० प० २६६ : 'ध्र वं' सर्वकालम् । ५-- जि० चू० पृ० ३४३ : संजमधुवजोगजुत्तो भवेज्जा, संजमो पुवभणिओ, 'धुवं' नाम सव्वकालं, जोगो मणसादि, तंमि संजमे सव्वकालं तिविहेण जोगेण जुत्तो भवेज्जा। ६.-जि० चू० पृ० ३४३ : ‘उवसंते' नाम अणाकुलो अव्वक्खित्तो भवेज्जत्ति । ७-हा० टी० प० २६६ : ‘उपशान्तः' अनाकुल: कायचापलादिरहितः । ८-(क) अ. चू० : परे विग्गहविस्थादिषसंगे सु सनत्यो वि ण तालणादिणा विहेढयति एवं स अविहेढए । (ख) जि० चू० पृ० ३४३ : 'अविहेडए' णाम जे परं अक्कोसतेप्पणादीहिं न विधेडयति से अविहेडए । ६-हा० टी० ५० २६६ : ‘अविहेठकः' न क्वचिदुचितेऽनादरवान्, क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । १०- अ० चि० ६.४६ : ग्रामो विषयशब्दाऽस्त्रभूतेन्द्रियगुणाद् व्रजे । ११-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : गामगहणेण इदियगहण कयं ।' (ख) हा० टी०प० २६७ : ग्रामा - इन्द्रियाणि । Jain Education Intemational Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४६२ अध्ययन १० : श्लोक १२ टि० ४०-४३ दुख:दायी होते हैं अत: कर्कश शब्द आदि ग्राम-कण्टक (इन्द्रिय-कण्टक) कहलाते है । जो व्यक्ति ग्राम में काँटे के समान चुभने वाले हों, उन्हें ग्राम-कण्टक कहा जा सकता है । संभव है ग्राम-कण्टक की भांति चुमन उत्पन्न करने वाली स्थितियों को ग्राम-कण्टक' कहा हो । यह शब्द उत्तराध्ययन (२.२५) में भी प्रयुक्त हुआ है : सोच्चाणं फरसा भासा, दारुणा गामकंटगा। तुसिणीउ उवेहेज्जा ण ताओ मणसीकरे ॥ ४०. आक्रोश वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं ( अक्कोसपहारतज्जणाओ ख ) : ___ आक्रोश का अर्थ गाली है । चाबुक आदि से पीटना, प्रहार' और 'कर्मों से डर साधु बना है'- इस प्रकार भर्त्सना करना तर्जना' कहलाता है । जिनदास चूणि और टीका में आक्रोश, प्रहार, तर्जना को ग्राम-कण्टक कहा है। ४१. वेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को ( भयभेरवस संपहासे ग ): भय-भैरव का अर्थ अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाला है। 'अत्यन्त भयोत्पादक शब्द से युक्त संप्रहास उत्पन्न होने पर'- इस अर्थ में 'भयभेरवसद्दसंपहासे' का प्रयोग हुआ है। टीका में 'संप्रहास' को शब्द का विशेषण मान कर व्याख्या की है-जिस स्थान में अत्यन्त रौद्र भयजनक प्रहास सहित शब्द हो, उस स्थान में । मिलाएँ सुत्तनिपात की निम्नलिखित गाथाओं से-- भिक्खुनो विजिगुच्छतो भजतो रित्तमातनं । रुक्खमूलं सुसानं वा पब्बतानं गुहासु वा ॥ उच्चावचेसु सयनेसु कोवन्तो तत्थ भेरवा । येहि भिक्खु न वेधेय्य निग्धोसे सयनासने । (५४.४-५) ४२. सहन करता है ( सहइ क ): आक्रोश, प्रहार, वध आदि परीषहों को साधु किस तरह सहन करे, इसके लिए देखिए. -- उत्तराध्ययन २.२४-२७ । श्लोक १२ : ४३. जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहणकर ( पडिमं पडिवज्जिया मसाणे क ) : __यहाँ प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग और आभग्रह (प्रतिज्ञा) दोनों संभव हैं। कुछ विशेष प्रतिज्ञाओं को स्वीकार कर कायोत्सर्ग की १--जि० चू० १० ३४३ : जहा कंटगा सरोरानुगता सरीरं पडियंति तथा अणिट्टा विषयकंटका सोताई दियगामे अणुप्पविठ्ठा तमेव ईदियं पीडयंति। २--हा० टी०प० २६७ : प्रहाराः कशादिभिः । ३-जि० चू० पृ० ३४३ : तज्जणाए जहा एते समणा किवणा कम्मभीता पन्वतिया एवमादि । ४-(क) जि० चू० पृ० ३४३ : ते य कंटगा इमे 'अक्कोसपहारतज्जणाओ। (ख) हा० टी०प० २६७ : 'ग्रामकण्टकान्' ग्रामा-इन्द्रियाणि तदुःखहेतवः कण्टकास्तान्, स्वरूपत एवाह-आक्रोशान् __ प्रहारान् तर्जनाश्चेति । ५-(क) अ० चू० : पच्चवायो भयं । रोइं भैरवं वेतालकालिवादीण सद्दो। भयभेरवसद्देहि समेच्च पहसणं भयभेरवसहसंपहासो । तम्मि समुवस्थिते। (ख) जि० चू० पृ० ३४३-३४४ : भयं पसिद्ध, भयं च भेरवं, न सव्वमेव भयं भेरबं, किन्तु ?, तत्थवि जं अतीवदारुणं भयं तं भेरवं भण्णइ, वेतालगणादयो भयभेरवकायेण महता सद्देण जत्थ ठाणे पहसति सप्पहासे, तं ठाणं भयभेरवसप्पहास भण्णइ । ६-हा० टी०प० २६७ : 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तत्तथा तस्मिन्, वैतालादिकृतार्तनादाट्टहास इत्यर्थः । ७-हा० टी०५० २६७ : 'प्रतिमां' मासादिरूपाम् । Jain Education Intemational Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स- ( सभिक्षु ) E मुद्रा में स्थित हो श्मशान में ध्यान करने की परम्परा जैन मुनियों में रही है। इसका सम्बन्ध उसी से है । मानिकाङ्ग बौद्ध भिक्षुओं का ग्यारहवाँ धुताङ्ग है । देखिए -- विशुद्धिमार्ग पृ० ७५, ७६ । अध्ययन १० श्लोक १३ टि० ४४-४६ ४४. जो विविध गुणों और तपों में रत होता है ( विविहगुण तवोरए ग ): अगस्त्य चूर्णि के अनुसार बौद्ध भिक्षुओं को इमशानिक होना चाहिए। उनके आचार्यों का ऐसा उपदेश है । जिनदास चूर्ण के अनुसार सब वस्त्रधारी संन्यासी श्मशान में रहते हैं वे भी नहीं डरते । केवल श्मशान में रहकर नहीं डरना ही कोई बड़ी बात नहीं है । उसके साथ-साथ विविध गुणों और तपों में नित्य रत भी रहना चाहिए। निर्ग्रन्थ भिक्षु के लिए यह विशिष्ट मार्ग है । ४५. जो शरीर की आकांक्षा नहीं करता ( न सरीरं चाभिकंखई घ ) : भिक्षु शरीर के प्रति निस्पृह होता है। उसे कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरा शरीर उपसर्गों से बच निकले, मेरे शरीर को दुःख न हो, वह विनाश को प्राप्त न हो । श्लोक १३ : क ४६. जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और त्याग करता है ( असई बोसत बेहे जिसने शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग किया हो, उसे व्युत्सृष्ट-त्यक्त देह कहा जाता है । व्युत्सर्ग और त्याग - ये दोनों लगभग समानार्थक हैं फिर भी आगमों में इनका प्रयोग विशेष अर्थ में रूढ़ है । अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार कर शारीरिक क्रिया का त्याग करने के अर्थ में व्युत्सर्ग का और शारीरिक परिकर्म (मर्दन, स्नान और विभूषा) के परित्याग के अर्थ में त्याग शब्द का प्रयोग होता है। जिनदास महत्तर ने वोस का केवल पर्याय शब्द दिया है। जो कायोत्सर्ग, मौन और ध्यान के द्वारा शारीरिक अस्थिरता से निवृत्त होना चाहता है, वह 'वोसिरइ' क्रिया का प्रयोग करता है । हरिभद्रसूरि ने प्रतिबन्ध के अभाव के साथ व्युत्सृष्ट का सम्बन्ध जोड़ा है" । व्यवहार भाष्य की टीका में भी यही अर्थ मिलता है" । न वा विणिस्सिज्जेज्जा । ): १- दशा० ७ । २- अ० चू० : जधा सक्कभिक्खुण एस उवदेसो मासाणिगेण भवितव्वं । ण य ते तम्मि विर्भेति तम्मतिणिसेधणत्थं विसेसिज्जति । ३ – जि० चू० पृ० ३४४ : जहा रत्तपडादीवि सुसाणेसु अच्छंति, ण य बीहिति, तप्पडिसेषणत्थमिदं भण्णइ । ४० टी० १० २६७ शरीरमभिकाङ्क्षते निस्पृहता वार्तमानिक भावि ५- जि० ० ० ३४४ ६०० बोसो सोय देहो नेग सो बोसो ७- अ० चू० : बोसट्ठी पडिमादिसु विनिवृत्तक्रियो । पहाणुमद्दणातिविभूषाविरहितो चत्तो । ८ ० चू० पृ० ३४४ : बोसट्ट ति वा वोसिरियति वा एगट्ठा । जि० व सरीरं तेहि उबसम्मोहि बाहिनमाणोऽवि अभिकंस, जहा जइ मम एवं सरीरं न दुषयाविज्जेजा, ६--आव० ४ : ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि । १०हा० डी० १० २६७ पृष्टभावप्रतिबन्धाभावेन त्यस्तो विभुवाकरः। ११- व्य० भा० टी० : व्युत्सृष्टः प्रतिबन्धाभावतः त्यक्तः परिकर्मकरणतो देहो येन स व्युत्सृष्टत्यक्त देहः । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) # अध्ययन १०: श्लोक १४ टि० ४७-४६ व्यवहार भाष्य में वोसट्ट, निसटू और चत्त- इन तीनों का भी एक साथ प्रयोग मिलता है' । तप के बारह प्रकारों में व्युत्सर्ग एक प्रकार का तप है । उसका संक्षिप्त अर्थ है - शरीर की चेष्टाओं का निरोध और विस्तृत अर्थ है - गण (सहयोग), शरीर, उपधि और भक्त-पान का त्याग तथा कषाय, संसार और कर्म के हेतुओं का परित्याग । शरीर, उपधि और भक्त पान के व्युत्सर्ग का अर्थ इस प्रकार है : शरीर की सार-सम्हाल को त्यागना या शरीर को स्थिर करना काय व्युत्सर्ग कहलाता है। एक वस्त्र और एक पात्र के उपरान्त उपधि न रखना अथवा पात्र न रखना तथा चुल्लुपट्ट और कटिबन्ध के सिवाय उपधि न रखना उपधि-व्युत्सगं है। अनशन करना भक्तपान व्युत्सर्ग है । निशीथ माध्य में संलेखना व्युत्सृष्टव्य और व्युत्सृष्ट के तीन-तीन प्रकार बतलाये हैं । वे आहार, शरीर और उपकरण हैं । भगवान् महावीर ने अभिग्रह स्वीकार किया तब शरीर के ममत्व और परिकर्म के परित्याग की संकल्प की भाषा में उन्होंने कहा— 'मैं सब प्रकार के उपसर्गों को सहन करूंगा।' यह उपसर्ग-सहन ही शरीर का वास्तविक स्थिरीकरण है और जो अपने शरीर को उपसगों के लिए समर्पित कर देता है, उसी को व्रसृष्ट-देह कहा जाता है भगवान् ने ऐसा किया था। भिक्षु को बार-बार देह का व्युत्सर्गं करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि उसे काया स्थिरीकरण या कायोत्सर्ग और उपसर्ग ह का अभिग्रह करते रहना चाहिए। ४७. पृथ्वी के समान सर्वसह ( पुढवि समे ) : पृथ्वी आोश, हनन और भक्षण करने पर भी द्वेष नहीं करती, सबको सह लेती है उसी प्रकार भिक्षु आकोश आदि को निर सहन करे" | भाव से ४८. जो निदान नहीं करता ( अनियाणे प ) : जो ऋद्धि आदि के निमित्त तप-संयम नहीं करता जो भावी फलाशंसा से रहित होता है, जो किए हुए तप के बदले में ऐहिक प की कामना नहीं करता, उसे अनिदान कहते हैं । श्लोक १४: क ४६. शरीर ( कारण ) : अधिकांश परीष काया से सहे जाते हैं, इसलिए यहां काया से परीपों को जीतकर ऐसा कहा है बौद्ध आदि मन को ही सद १-व्य० भा० बोसटुनिसबतदेहाओ । २-- उत्त० ३०.३६ : सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खु न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो छट्टो सो परिकित्तिओ || ३- भग० २५.७ : औप० तपोधिकार । ४ - भग० जोड़ २५.७ । : याचा १७२० लिहितं पिवतिविधं योसिरियध्वं चतिवियो ६-- नि० चू० : आहारो सरीरं उवकरणं च । । ७--आ० चू० १५.३४ : तओ णं समजे भगवं महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिव्हइ-- वारसवासाई वोसट्टकाए चित्तदेहे जे केइ उवसग्गा समुपज्जेति, तंजहा - दिग्वा वा मागुस्सा वा तेरिच्छिया वा ते सव्वे उवसग्गे समुत्पन्ने समापे सम्म तहिस्सामि मिस्सामि असइस्लामि ८ - जि० ० पृ० ३४४ : जहा पुढवी अक्कुस्समाणी हम्ममाणी भक्खिज्जपाणी च न य किचि पओसं वहइ, तहा भिक्खुणावि सव्वकास - विसघेण होयव्वं । ६ - जि० चू० पृ० ३४५ : माणुस रिद्धिनिमित्तं तवसंजमं न कुव्वाइ, से अनियागे । १० - हा० टी० प० २६७ : 'अनिदानो' भाविफलाशंसारहितः । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स- भिक्खु (सभिक्षु ) ४६५ अध्ययन १० श्लोक १५ टि० ५०-५२ कुछ मानते हैं | उनसे मतभेद दिखाने के लिए भी 'काय' का प्रयोग हो सकता है'। जैन दृष्टि यह है कि जैसे मन का नियन्त्रण आवश्यक है, वैसे काया का नियंत्रण भी आवश्यक है और सच तो यह है कि काया को समुचित प्रकार से नियंत्रित किए बिना मन को नियंत्रित करना हर एक के लिए संभव भी नहीं है । ५०. परीबहों को ( परीसहाई क ) निर्जरा ( आत्म-शुद्धि) के लिए और मार्ग से न होने के लिए जो अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियां और मनोभाव सहे जाते हैं, वे परीषह कहलाते हैं । वे क्षुधा, प्यास आदि बाईस हैं । ५१. जाति-पव (संसार) से ( जाइपहाओ दोनों घूर्णियों में 'जातिवह' और टीका में 'जातिपह' - ऐसा पाठ है । 'जातिवह' का अर्थ जन्म और मृत्यु' तथा 'जातिपथ' का अर्थ संसार किया है' । 'जातिपथ' शब्द अधिक प्रचलित एवं गम्भीर अर्थवाला है, इसलिए मूल में यही स्वीकृत किया है । ख ५२. (ये) 'णिद्वय में 'भवे' और टीका में 'तवे' पाठ है । यह सम्भवतः लिपिदोष के कारण वर्ण-विपर्यय हुआ है। श्रामण्य में रत रहता है। यह सहज अर्थ है । किन्तु 'तवे' पाठ के अनुसार — श्रमण-सम्बन्धी तप में रत रहता है - यह अर्थ करना पड़ा । श्रामण्य को तप का विशेषण माना है, पर वह विशेष अयान नहीं है। - ) क १३. हाथों से संवत, पैरो से संयत ( हत्यसंजर पायसंजए ) १ जो प्रयोजन न होने पर हाथ-पैरों को कूर्म की तरह गुप्त रखता है और प्रयोजन पर प्रतिलेखन, प्रमार्जन कर सम्यक् रूप से व्यवहार करता है, उसे हाथों से संयत, पैरों से संयत कहते हैं । देखिए 'संजईदिए' का टिप्पण ५५ । श्लोक १५: (क) अ० चू० : परीसहा पायेण कायेण सहणीया अतो कायेणेति भण्णति । जे बोद्धादयो चित्तमेवणियंतव्यमिति तप्पडिसेधणत्थं कायवयणं । (ख) जि० पू० पू० ३४५ सस्थाणं चेत्तवेतसिगा धन्मा इति ले गिरोहणत्वमिदमुच्यते । २ ० ० ० २६७ 'कान' शरीरेणापि न सिद्धान्तनीत्या मनोवाग्यामेन कायेनानभिभवे तस्वतस्तदनभिभवात् । ७ ३ - तत्त्वा० ६.८ : मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः । ४-- उत्त० २ । ५ (४) अ० ०: जातिगत (ख) जि० ० ० ३४५ जातिगण जम्यणस्स ग्रहणं कयं वधग्रहणं मरणस्स ग्रहणं कथं । ६- हा० टी० १० २६७ 'जातियत्' संसारमात् । (क) अ० ० भरते सामलिए समणभावो सामणियं तम्मि रतो भवे । (ख) जि० चू० पृ० ३४५ : सामणिए रते भवेज्जा, सामणभावो सामणियं भन्नइ । (ग) हा० टी० प० २६७ : 'तपसि रतः तपसि सक्तः, किंभूत इत्याह- 'श्रमध्ये' श्रमणानां संबन्धिनि, शुद्ध इति भावः । - (क) जि० चू० पृ० ३४५ : हत्थपाहिं कुम्मो इव णिक्कारणे जो गुत्तो अच्छर, कारणे पडिलेहिय पमज्जिय वावारं कुव्वाइ, एवं कुव्यमाणो हत्थसंजओ पायसंजओ भवइ । (ब) हा टी० ० २६७ हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कुर्मवत्सोन आस्ते कारणे च सम्यग्गति । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४६६ अध्ययन १० : श्लोक १६ टि० ५४-५८ ५४. वाणी से संयत ( वायसंजए ख ): - जो अकुशल वचन का निरोध करता है और कार्य होने पर कुशल वचन की उदीरणा करता है, उसे वाणी से संयत कहते हैं। देखिए- 'संजइंदिए' का टिप्पण ५५ । ५५. इन्द्रिय से संयत ( संजइंदिए ख ): जो धोत्र आदि इन्द्रियों को विषयों में प्रविष्ट नहीं होने देता तथा विषय प्राप्त होने पर जो उन में राग-द्वेष नहीं करता, उसे इन्द्रियों से संयत कहते हैं । मिलाएँ चक्खुना संवरो साधु साधु सोतेन संवरो। घाणेन संवरो साधु साधु जिह्वाय संवरो॥ कायेन संवरो साधु साधु वाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु साधु सब्बत्थ संवरो। सब्बत्थ संवुतो भिक्खू सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥ धम्मपद २५.१-२ । ५६. अध्यात्म ( अज्झप्पग): अध्यात्म का अर्थ शुभ ध्यान है। श्लोक १६: ५७. जो मुनि वस्त्रादि उपधि (उपकरणों) में मूच्छित नहीं है, जो अगृद्ध है ( उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धक): जिनदास महत्तर के अनुसार मूर्छा और गृद्धि एकार्थक भी हैं । जहाँ बलपूर्वक कहना हो या आदर प्रदर्शित करना हो वहाँ एकार्थक शब्दों का प्रयोग पुनरुक्त नहीं कहलाता और उन्होंने इनमें अन्तर बताते हुए लिखा है कि-' मूर्छा' का अर्थ मोह और 'गृद्धि' का अर्थ प्रतिबन्ध है । उपधि में मूच्छित रहने वाला करणीय और अकरणीय को नहीं जानता और गृद्ध रहने वाला उसमें बंध जाता है। इसलिए मुनि को अमूच्छित और अगृद्ध रहना चाहिए। ५८. जो अज्ञात कुलों से भिक्षा को एषणा करने वाला है, जो संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है ( अन्नायउंछंपुल निप्पुलाए): अगस्त्य घृणि के अनुसार 'अज्ञातोच्छपुल' का अर्थ है-अज्ञात-कुल की एषणा करने वाला और 'निष्पुलाक' का अर्थ है-मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगाकर संयम को निस्सार न करने वाला। १- (क) जि० चू० पृ० ३४५ : वायाएवि संजओ, कहं ?, अकुसलवइनिरोधं कुब्वइ, कुसलवइउदीरणं च कज्जे कुब्वइ । (ख) हा० टी०प० २६७ : वाक्संयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलवागुदी रुणेन । २-(क) जि० चू० पृ० ३४५ : 'संजइंदिए' नाम इदिय विसयपयारणिरोधं कुब्वइ, विसयपत्त सु इंदियत्थेसु रागहोसविणिग्गहं च कुतित्ति । (ख) हा० टी०प० २६७ : 'संयतेन्द्रियो' निवृत्तविषयप्रसरः । ३-(क) जि० चू० पृ० ३४५ : 'अझप्परए' नाम सोषणज्माणरए । (ख) हा० टी० प० २६७ : 'अध्यात्मरतः' प्रशस्तध्यानासक्तः । ४-जि० चू० पृ० ३४५-३४६ : मुच्छासहो य गिद्धिसद्दो य दोऽवि एगदा, अच्चस्थणिमित्त आयरणिमित्तं च पउंजमाणा ण पुणरुत्तं भवति, अहवा मुच्छियगहियाणं इमो विसेसो भण्णइ, तत्थ मुच्छासद्दो मोहे दट्ठव्वो, गेहियसद्दो पडिबंधे दट्ठवो, जहा कोइ मुच्छिओ तेण मोहकारणेण कज्जाकज्जन याणइ, तहा सोऽवि भिक्खू उहिमि अज्झोववण्णो मुच्छिओ किर कज्जाकज्जन याणइ, तम्हा न मुच्छिओ अमुच्छिओ, अगिद्धिओ अबद्धो भण्णइ, कहं ?, सो तमि उहिमि निच्चमेव आसन्नभव्वत्तणेण अबद्धो इव दट्टवो, णो गिद्धिए अगिद्धिए। ५-१० चू० : तं पुलएति तमेसति एस अण्णाउञ्छपुलाए । ६-अ० चू० : मूलुत्तरगुणपडिसेवणाए निस्सारं संजमं करेंति एस भावपुलाए तथा णिपुलाए। Jain Education Intemational Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स भिक्खु (सभ) ૪૨૭ अध्ययन १० : इलोक १७ टि० ५६-६४ जिनदास महत्तर ने 'पुल' को 'पुलाक' शब्द मानकर 'पुलाक निष्पुलाक' की व्याख्या इस प्रकार की है - मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगाने से संयम निस्सार बनता है, वह भावला है। उससे रहित 'पुलाक निष्युला' कहलाता है अर्थात् जिससे संयम पुलाक (सार रहित बनता हो, सा अनुष्ठान न करने वाला। टीकाकार ने भी 'पुल' को 'पुलाक' शब्द मानकर 'पुलाक निष्पुलाक' का अर्थ संयम को निस्सार बनाने वाले दोषों का सेवन न करने वाला किया है । हलायुध 'कोश में 'पुलक' और 'पुलाक' का अर्थ तुच्छ धान्य किया है। मनुस्मृति में इसी अर्थ में 'पुलाक' शब्द का प्रयोग हुआ है । ५६. सन्निधि से (सन्निहिओ " ) : अशन आदि को रातवासी रखना सन्निधि कहलाता है । ग ६०. जो क्रय-विक्रय से विरत ( कयविश्कप विरए ) : क्रय-विक्रय को भिक्षु के लिए अनेक जगह वर्जित बताया है। बुद्ध ने भी अपने भिक्षुओं को यही शिक्षा दी थी। ६१. जो सब प्रकार के संरंगों से रहित है ( निर्लेप है ) ( सव्वसंगावगए घ ) : संग का अर्थ है इन्द्रियों के विषय लीन हो । ६२. जो अलोलुप है ( अलोलक ) : जो अप्राप्त रसों की अभिलाषा नहीं करता, उसे 'अलोल' कहा जाता है" । दश० ९.३.१० में भी यह शब्द आया है । यह शब्द बौद्ध-पिटकों में भी अनेक जगह प्रयुक्त हुआ है । मिलाएँ ६३. ( उछं ख ) : पिछले लोक में सर्वसंगापगत वही हो सकता है जो बारह प्रकारके तप और सतरह प्रकार के संयम में श्लोक १७ : चक्लूहि नैव लोलस्स, गामकथाय आवरये सोतं । रसे च नानुमिज्झेय्य न च ममायेय किञ्चि लोकस्मि । सुत्तनिपात ५२.८ का प्रयोग उपधि के लिए हुआ और इस पद में बहार के लिए हुआ है। इसलिए नहीं है। ६४. ऋद्धि ( इड्ढि ग ) : यहाँ इऋिद्धि का अर्थ योगजन्य विभूति है। इसे लम्बि भी कहा जाता है ये अनेक प्रकार की होती है। १-- जि० खू० पृ० ३४६ : जेण मूलगुणउत्तरगुणपवेण पडिसेविएण णिस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाओ, एत्थ भावपुलाएण अहिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परूविया, तेण भावपुलाएण निपुलाए भवेज्जा, णो तं कुब्वेज्जा जेण पुलागो भवेज्जति । २० टी० प० २६८ पुलाला' इति संघमासारतापाददोषरहितः । ३ - १०.१२५ : पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः । ४ - जि० चू० पृ० ३४६ : सष्णिही' असणादीणं परिवासणं भण्णइ । ५- सु० नि० ५२.१५ : 'कयविक्कये' न तिट्ठेय्य । ६- जि० १० चू० पृ० ३४६ : संगोत्ति वा इदियत्योति वा एगठ्ठा ७- (क) लि० ० पृ० ३४६किलाबाई रसे अप्पले यो पत्चे से लो (ख) हा० टी० प० २६८ : अलोलो नाम नाप्राप्त प्रार्थनपरः । - हा० टी० प० २६८ : तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह त्वाहारमित्यपौनरुक्त्यम् । - ० ० ० ३४७ - विउयणमादि। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक) ४६८ अध्ययन १० : श्लोक १८-१६ टि० ६५-६६ ६५. स्थितात्मा ( ठियप्पा घ): जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित होती है, उसे स्थितात्मा कहते हैं। श्लोक १८: ६६. प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक् होते हैं ( पत्तेयं पुण्णपावं "): सबके पुण्य-पाप अपने-अपने हैं और सब अपने-अपने कृत्यों का फल भोग रहे हैं...यह जानकर न दूसरे की अवहेलना करनी चाहिए और न अपनी बड़ाई। हाथ उसीका जलता है जो अग्नि हाथ में लेता है। उसी तरह कृत्य उसी को फल देते हैं जो उन्हें करता है । जब ऐसा नियम है तब यह समझना चाहिए कि मैं क्यों दूसरे की निन्दा करूं और क्यों अपनी बड़ाई। पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा --ये दोनों महान् दोष हैं। मुनि को मध्यस्थ होना चाहिए, इन दोनों से वचक र रहना चाहिए । इस श्लोक में इसी मर्म का उपदेश है और उस मर्म का आलम्बन सूत्र 'पनेयं पुण्णपाव' है। जो इस मर्म को समझ लेता है, वह पर निन्दा और आत्म-इलाघा नहीं करता। ६७. दूसरे को ( परं क): प्रव्रजित के लिए अप्रवजित 'पर' होता है। जिनदास महत्तर पर' का प्रयोग गृहस्थ और वेषधारी के अर्थ में बतलाते हैं। टीकाकार ने इसका अर्थ- अपनी परम्परा से अतिरिक्त दूसरी परम्परा का शिष्य - ऐसा किया है। ६८. कुशील ( दुराचारी ) ( कुसीले २): गृहस्थ या वेषधारी साध अव्यवस्थित आचार वाला हो फिर भी यह कुसील है'-ऐसा नहीं कहना चाहिए। दूसरे के चोट लगे. अप्रीति उत्पन्न हो, वैसा व्यक्तिगत आरोप करना अहिंसक मुनि के लिए उचित नहीं होता। श्लोक १६: ६६. सब मदों को ( मयाणि सव्वाणि क): मद के आठ प्रकार बतलाए हैं : १. जाति-मद, २. कुल-मद, ३. रूप-मद, ४. तप-मद, ५. श्रुत-मद, ६. लाभ-मद, ७. ऐश्वर्य मद, ८. प्रज्ञा-मद । इस श्लोक में जाति, रूप, लाभ और श्रुत के मद का उल्लेख किया है और मद के शेष प्रकारों का 'मयाणि सब्याणि' के द्वारा निर्देश किया है। १-जि० चू० पृ० ३४७ : णाणदसणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा । २--(क) जि० चु० १० ३४७ : आह --किं कारणं परो न वत्तव्यो ?, जहा जो चेव अगणि गिण्हई सो चेव उज्झइ, एवं नाऊण पत्तेयं पत्तेयं पुण्णपावं अत्ताणं ण समुक्कसइ, जहाऽहं सोभणो एस अप्सोभणोत्ति एवमादि । (ख) हा० टी० प० २६८ : प्रत्येक पुण्यपापं, नान्यसंबन्ध्यन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत् । ३–० चू० : परो पव्वतियस्स अपवतियो । ४-जि० चू० पृ० ३४७ : परो णाम गिहत्थो लिंगी वा। ५-हा० टी०प० २६८ : 'पर' स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तम् । ६-(क) जि० चू० पृ० ३४७ : जइवि सो अप्पणो कम्मेसु अव्ववत्थिओ तहावि न बत्तव्बो जहाऽयं कुत्थियसीलोत्ति, कि कारणं?, __ तत्थ अपत्तियमादि बहवे दोसा भवंति ।। (ख) हा० टी० प० २६८ : न वदति --अयं कुशीलः, तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् । ७–हा. टी०प० २६६ : न जातिमत्तो यथाऽहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा, न च रूपमत्तो यथाऽहं रूपवानादेयः, न लाभमत्तो यथाऽहं लाभान्, न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, अनेन कुलमदादिपरिग्रहः, अत एवाह-मदान् सर्वान् कुलादिविषयानपि । Jain Education Intemational Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स- भिक्खु (सभिक्षु ) अध्ययन १० दलोक २०-२१ टि० ७०-७३ ४६६ श्लोक २०: ७०. आर्यपद ( धर्मपद ) ( अज्जपर्य) : चूर्णयों में इसके स्थान पर 'अज्जवयं' पाठ है और इसका अर्थ ऋजुभाव है' । 'अज्जवयं' की अपेक्षा 'अज्जपयं' अधिक अर्थसंग्राहक है, इसलिए मूल में वही स्वीकृत किया है। ७१. कुशील-लिङ्ग का ( कुसीलिंग) : इसका अभिप्राय यह है कि परतीर्थिक या आचार- रहित स्वतीर्थिक साधुओं का वेष धारण न करे । इसका दूसरा अर्थ है जिस आचरण से कुशील है, ऐसी प्रतीति हो, वैसे आचरण का वर्जन करे । टीका के अनुसार कुशीलों द्वारा चेष्टित आरम्भ आदि का वर्जन करें । ७२. जो दूसरों को हँसाने के लिए कुतुहलपूर्ण चेष्टा नहीं करता ( न यावि हरसकुहए व ) कुहक शब्द 'कुह' धातु से बना है। इसका प्रयोग विस्मय उत्पन्न करने वाला, ऐन्द्रजालिक, वञ्चक यहाँ पर विस्मित करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है हास्यपूर्ण कुतुहल न करे अथवा दूसरों को हंसाने के लिए दोनों अर्थ अस्वस्थ करते है जिनदास महतर और हरिभद्रसूरि केवल पहला । दश० ६.३.१० में 'अक्कुहए' शब्द प्रयुक्त हुआ है । वहाँ इसका अर्थ इन्द्रजाल आदि न करने वाला तथा वादित्र न बजाने वाला किया है श्लोक २१ : ७३. अनुचि और शाश्वत देहवास को ( देह्यास असुई असासयं क ) : अशुचि अर्थात् अशुचिपूर्ण और अशुचि से उत्पन्न । शरीर की अशुचिता के सम्बन्ध में सुत्तनिपात अ० ११ में निम्न अर्थ की गाथाएँ मिलती हैं : "हड्डी और नस से संयुक्त, त्वचा और मांस का लेप चढ़ा तथा चाम से ढँका यह शरीर जैसा है वैसा दिखाई नहीं देता । १ (क) अ० चू० : ऋजुभावं दरिसिज्जति । (ख) जि० ० ० ३४८ साधूण य पवेदेज्जा । २६० टी० प० २६६ 'आर्यपदम्' शुद्धधर्मपदम् । हा० ३-अ० चू० : पंडुरंगादीण कुसीलालंग वज्जेज्जा । अणायरादिवा कुसौललिंगं न रक्खए । कुसीला बंडुरंगाई लिगं अथवा वेण आवरिएण कुसीलो संभाविज्जति तं । कुशीतलिङ्गम्' आरम्भादिवेष्टितम् । ४ (क) जि०० पृ० ३४० (ख) हा० टी० १० २६६ : ५-२० ० हस्तमेव मुन्नति । एवं आदि अर्थों में होता है । पूर्ण चेष्टा न करे ये जण हसाइणस्त्र एवारिता धम्मस्स गहर्ष कथं तं परियं धम्मपदं विही ६ - ( क ) जि० चू० पृ० ३४८ : हासकहए णाम ण ताणि कुहगाणि कुज्जा जेण अन्ने हसंतीति । (ख) हा० टी० प० २६६ : न हास्यकारिकुहकयुक्तः । । तं जरस अस्थि सो हस्तो तथा न भवे हस्तनिमितं वा कुह तथाकरेति जथा परस्त हस्त याचि हसाए । (क) अ० चू० : इंद-जाल-कुहेडगादीहिं ण कुहावेति णति कुहाविज्जति अकुहए । fuo (स) जि० ० ० ३२९ कुह 'बजासादीयं न करेइति अति (ग) हा० डी० प० २५४ इन्द्रादिरहितः। वि०० ०३२२ वा बाइलादि कुन्दनकरे अकुहति । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ५०० अध्ययन १० : श्लोक २१ टि०७३ "इस शरीर के भीतर हैं-आंत, उदर, यकृत, वस्ति, हृदय, फुप्फुस, वक्क-तिल्ली, नासा-मल, लार, पसीना, मेद, लोहू, लसिका, पित्त और चर्बी। "उसके नौ द्वारों से हमेशा गन्दगी निकलती रहती है । आँख से आँख की गन्दगी निकलती है और कान से कान की गन्दगी। "नाक से नासिका-मल, मुख से पित्त और कफ, शरीर से पसीना और मल निकलते हैं। "इसके सिर की खोपड़ी गुदा से भरी है । अविद्या के कारण मूर्ख इसे शुभ मानता है। "मृत्यु के बाद जब यह शरीर सूजकर नीला हो श्मशान में पड़ा रहता है तो उसे बन्धु-बांधव भी छोड़ देते हैं।" ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में शरीर की अशाश्वता के बारे में कहा गया है कि 'यह देह जल के फेन की तरह अध्र व है; बिजली के झपकारे की तरह अशाश्वत है; दर्भ की नोक पर ठहरे हुए जल-बिन्दु की तरह अनित्य है।" देह जीवरूपी-पक्षी का अस्थिरवास कहा गया है क्योंकि जल्दी या देर से उसे छोड़ना ही पड़ता है। Jain Education Intemational Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमा पुलिया रइवक्का प्रथम चूलिका रतिवाक्या Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस चूलिका का नाम 'रतिवाक्या-अध्ययन' है। असंयम में सहज ही रति और संयम में प्रति होती है। भोग में जो सहज अाकर्षण होता है वह त्याग में नहीं होता । इन्द्रियों को परितृप्ति में जो सुखानुभूति होती है वह उनके विषय-निरोध में नहीं होती। सिद्ध योगी कहते हैं- 'भोग सहज नहीं है, सुख नहीं है।' साधना से दूर जो हैं वे कहते हैं -'यह सहज है, सुख है।' पर वस्तुतः सहज क्या है ? सुख क्या है ? यह चिन्तनीय रहता है । खुजली के कीटाणु शरीर में होते हैं तब खुजलाने में सहज आकर्षण होता है और वह सुख भी देता है । स्वस्थ प्रादमी खुजलाने को न सहज मानता है और न सुखकर भी । यहाँ स्थिति-भेद है और उसके आधार पर अनुभूति-भेद होता है । यही स्थिति साधक और असाधक की है। मोह के परमाणु सक्रिय होते हैं तब भोग सहज लगता है और वह सुख की अनुभूति भी देता है। किन्तु अल्ल-मोह या निर्मोह व्यक्ति को भोग न सहज लगता है और न सुखकर भी। इस प्रकार स्थिति-भेद से दोनों मान्यताओं का अपना-अपना प्राधार है। आत्मा की स्वस्थ दशा मोहशून्य स्थिति या वीतराग भाव है। इसे पाने का प्रयत्न ही संयम या साधना है। मोह अनादिकालीन रोग है । वह एक बार के प्रयत्न से ही मिट नहीं जाता। इसको चिकित्सा जो करने चलता है वह सावधानी से चलता है किन्तु कहीं-कहीं बीच में वह रोग उभर जाता है और साधक को फिर एक बार पूर्व स्थिति में जाने को विवश कर देता है। चिकित्सक कुशल होता है तो उसे सम्हाल लेता है और उभार का उपशमन कर रोगी को प्रारोग्य की ओर ले चलता है। चिकित्सक कुशल न हो तो रोगी की डावाँडोल मनोदशा उसे पीछे ढकेल देती है। साधक मोह के उभार मे न डगमगाए, पीछे न खिसके-इस दृष्टि से इस अध्ययन की रचना हुई है। यह वह चिकित्सक है जो संयम से डिगते चरण को फिर से स्थिर बना सकता है और भटकते मन पर अंकुश लगा सकता है । इसीलिए कहा है-हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूयाई इमाइं अट्ठारसठाणाई"---इस अध्ययन में वर्णित ये अठारह स्थान-घोड़े के लिए वल्गा, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका जैसे हैं। इसके वाक्य संयम में रति उत्पन्न करने वाले हैं, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'रतिवाक्या' रखा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में स्थिरीकरण के अठारह सूत्र हैं। उनमें गृहस्थ-जीवन की अनेक दृष्टियों से अनुपादेयता बतलाई है। जैन और वैदिक परम्परा में यह बहुत बड़ा अन्तर है। वैदिक व्यवस्था में चार आश्रम हैं। उनमें गृहस्थाश्रम सब का मूल है और सर्वाधिक महत्त्पूर्ण माना गया है। स्मृतिकारों ने उसे अति महत्व दिया है। गृहस्थाश्रम उत्तरवर्ती विकास का मूल है। यह जैन-सम्मत भी है। किन्तु वह मूल है, इसलिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यह अभिमत जैनों का नहीं है। समाज-व्यवस्था में इसका जो स्थान है, वह निर्विवाद है। आध्यात्मिक चिन्तन में इसकी उत्कर्षपूर्ण स्थिति नहीं है । इसलिए 'ग हवास बन्धन है और संयम मोक्ष, यह विचार स्थिर रूप पा सका। "पुण्य-पाप का कर्तृत्व और भोक्तृत्व अपना-अपना है।" "किए हुए पाप-कर्मों को भोगे बिना अथवा तपस्या के द्वारा उनको निर्वीर्य किए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती'_' ये दोनों विचार अध्यात्म व नैतिक परम्परा के मूल हैं। जर्मन-दार्शनिक काण्ट ने जैसे प्रात्मा, उसका अमरत्व और ईश्वर को नैतिकता का आधार माना है वैसे ही जैन-दर्शन सम्यक्-दर्शन को अध्यात्म का प्राधार मानता है। आत्मा है, वह ध्रुव है, कर्म (पुण्य-पाप) की कर्ता है, भोक्ता है, सुचीर्ण और दुश्चीर्ण कर्म का फल है, मोक्ष का उपाय है और मोक्ष है --ये सम्यक्-दर्शन के अंग हैं। इनमें से दो-एक अंगों को यहाँ वस्तु-स्थिति के सम्यक् निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किया गया है। संयम का बीज वैराग्य है। पौद्गलिक पदार्थों से राग हटता है तब प्रात्मा में लीनता होती है, वही विराग है । “काम-भोग १-हा० टी०प० २७० : 'धर्मे' चारित्ररूपे 'रतिकारकाणि' 'रतिजनकानि तानि च वाक्यानि येन कारणेन 'अस्यां' चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्या । २-चू० १, सूत्र १, स्था० १२ : बंधे गिहवासे मोक्खे परियाए। ३- चू० १, सूत्र १, स्था० १८ : पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुब्धि दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोखो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। Jain Education Intemational Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ५०४ रतिवाक्या ( प्रथम चूलिका ) : आमुख जन-साधारण के लिए सुप्राप्य हैं। किन्तु संयम वैसा सुलभ नहीं है। मनुष्य का जीवन अनित्य है।" ये वाक्य वैराग्य की धारा को वेग देने के लिए हैं । इस प्रकार ये अठारह स्थान बहुत ही अर्थवान् और स्थिरीकरण के अमोघ आलम्बन हैं। इनके बाद संयम-धर्म से भ्रष्ट होने वाले मुनि की अनुतापपूर्ण मनोदशा का चित्रण मिलता है । भोग अतृप्ति का हेतु है या अतृप्ति ही है। तृप्ति संयम में है। भोग का आकर्षण साधक को संयम से भोग में घसीट लेता है । वह चला जाता है । जाना है एक आकांक्षा के लिए। किन्तु भोग में अतृप्ति बढ़ती है, संयम का सहज आनन्द नहीं मिलता तब पूर्व दशा से हटने का अनुपात होता है । उस स्थिति में ही सयम और भोग का यथार्थ मूल्य समझ में आता है। "प्राकांक्षा-हीन व्यक्ति के लिए संयम देवलोक सम है और आकांक्षावान् व्यक्ति के लिए वह नरकोपम है।" इस स्याद्वादात्मक-पद्धति से संयम की उभयरूपता दिखा संयम में रमण करने का उपदेश जो दिया है, वह सहसा मन को खींच लेता है । आकांक्षा का उन्मूलन करने के लिए अनेक पालम्बन बताए हैं। उनका उत्कर्ष "चइज्ज देहं न हु धम्मसासरणं"-शरीर को त्याग दे पर धर्म-शासन को न छोड़े-इस वाक्य में प्रस्फुटित हुआ है । समग्र-दृष्टि से यह अध्ययन अध्यात्म-ग्रारोह का अनुपम सोपान है । Jain Education Intemational Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमा चूलिया : प्रथम चूलिका र इवक्का : रतिवाक्या मूल संस्कृत छाया . इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्न- इह खलु भोः ! प्रव्रजितेन उत्पन्नदुःखेन दुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तणं, संयमेऽरतिसमापन्नचित्तन अवधाओहाण पहिणा अणोहाइएणं चेव, वनोत्प्रेक्षिणा अनवधावितेन चैव हयरस्सि - गयंकस - पोयपडागाभूयाई हयरश्मिगजांशकुशपोतपताकाभूतानि । इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडि. इमा न्यष्टादशस्थानानि सम्यक् संप्रतिलेहियव्वाई भवंति । तंजहा लेखितव्यानि भवन्ति । तद्यथा :-- हिन्दी अनुवाद मुमुक्षुओ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रवजित हैं किन्तु उसे मोहवश दु:ख उत्पन्न हो गया', संयम में उसका चित्त अरति-युक्त हो गया, वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए । अस्थितात्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का है । अठारह स्थान इस प्रकार हैं: (१) ओह ! इस दुष्षमा (दुःख-बहुल पांचवें आरे) में लोग बड़ी कठिनाई में जीविका चलाते हैं। (२) गृहस्थों के काम-भोग स्वल्प-सारसहित (तुच्छ) और अल्पकालिक हैं । (३) मनुष्य प्राय: माया बहुल होते हैं । १-ह भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी। (१) हं हो ! दुष्षमायां दुष्प्रजीविनः । २ लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं (२) लघुस्वका इत्वरिका गृहिणां कामभोगा॥ कामभोगाः। ३-भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा ॥ (३) भूयश्च साचि( ति ) बहुला मनुष्याः । ४- इमे य मे दुक्खे न चिरकालो- (४) इदं च मे दुःखं न चिरकालो वटाई भविस्सइ॥ पस्थायि भविष्यति । ५-ओमजणपुरक्कारे॥ (५) अवमजनपुरस्कारः। ६-वंतस्स य पडियाइयणं । (६) वान्तस्य च प्रत्यापानम् (दानम्)। (४) यह मेरा परीषह-जनित दुःख चिरकाल स्थायी नहीं होगा। (५) गृहवासी को नीच जनों का पुरस्कार करना होता है-सत्कार करना होता है। (६) संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है वमन को वापस पीना । (७) संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है नारकीय-जीवन का अङ्गीकार । (८) ओह ! गृहवास में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है। (६) वहां आतंक वध के लिए होता ७-अहरगइवासोवसंपया। (७) अधरगतिवासोपसंपदा। ८-दुल्लभे खलु भो ! गिहीणं धम्मे (८) दुर्लभः खलु भो ! गृहिणां धर्मो गिहिवासमझे वसंताणं ॥ गृहवासमध्ये वसताम् । -आयंके से वहाय होइ॥ (९) आतङ्कस्तस्य वधाय भवति । १०--संकप्पे से वहाय होइ॥ (१०) संकल्पस्तस्य वधाय भवति । (१०) वहाँ संकल्प वध के लिए होता Jain Education Intemational Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ५०६ प्रथम चूलिका : स्थान ११-१८ श्लोक १-२ ११-सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए॥ गृहवासः । (११) सोपक्लेशो निरुपक्लेशः पर्यायः । (११) गृहवास क्लेश सहित है१२ और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित । गहवासः । मोक्ष: १२-बंधे गिहवासे । मोक्खे परियाए॥ (१२) बन्धो पर्यायः। (१२) गृहवास बन्धन है और मुनिपर्याय मोक्ष। १३-सावज्जे गिहवासे। अणवज्जे परियाए॥ (१३) सावद्यो गृहवासः । अनवद्यः पर्यायः। (१३) गृहवास सावध है और मुनिपर्याय अनवद्य। १४-बहसाहारणा गिहोणं कामभोगा॥ (१४) बहुसाधारणा गृहिणां काम भोगाः । (१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुजन सामान्य हैं-सर्व सुलभ हैं। १५-पत्त यं पुण्णपावं ॥ (१५) प्रत्येकं पुण्यपापम् । (१५) पुण्य और पाप अपना-अपना होता है। १६-अणिच्चे खलु भो ! मणुयाण (१६) अनित्यं खलु भो ! मनुजानां (१६) ओह ! मनुष्यों का जीवन जीविए कुसग्गजलबिदुचंचले ॥ जीवितं कुशाग्रजलविन्दुचञ्चलम्,' अनित्य है, कुश के अग्र भाग पर स्थित जल बिन्दु के समान चंचल है। १७-बहुच खलु पावं कम्मं पगडं ॥ (१७) बहु च खलु भो पाप- (१७) ओह ! मैंने इससे पूर्व बहुत ही ___ कर्म प्रकृतम् । पाप-कर्म किए हैं। १८-पावाणं च खल भो ! कडाणं (१८) पापानां च खलु भो ! कृतानां (१८) ओह ! दुश्चरित्र और दुष्टकरमाणं पूटिव दुच्चिण्णाणं दुप्प- कर्मणां पूर्व दुश्चीर्णानां दुष्प्रतिक्रान्तानां पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अजित किए हुए पाप-कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा वा शोषयित्वा । अष्टादशं पदं भवति । के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष झोस इत्ता।अद्वारसमं पयं भवइ । होता है ---उनसे छुटकारा होता है। उन्हें सू०१ भोगे बिना (अथवा तप के द्वारा उनका क्षय किए बिना) मोक्ष नहीं होता-उनसे छुट कारा नहीं होता। यह अठारहवाँ पद है। भवइ य इत्थ सिलोगो५भवति चाऽत्र श्लोक: अब यहाँ श्लोक है। १-जया य चयई धम्मं यदा च त्यजति धर्म, अणज्जो भोगकारणा। अनार्यो भोगकारणात् । से तत्थ मुच्छिए बाले स तत्र मूच्छितो बालः, आयइं नावबुज्झइ॥ आति नावबुध्यते ॥१॥ १-अनार्य जब भोग के लिए धर्म को छोड़ता है तब वह भोग में मूच्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता। २-जया ओहाविओ होइ यदाऽवधावितो भवति, इंदो वा पडिओ छमं। इन्द्रो वा पतितः क्षमाम् । सव्वधम्मपरिब्भट्ठो सर्वधर्मपरिभ्रष्टः, स पच्छा परितप्पइ॥ सः पश्चात्परितप्यते ॥२॥ २-जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहवास में प्रवेश करता है तब वह धर्मों से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र । Jain Education Intemational Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ प्रथम चूलिका : श्लोक ३-६ रइवक्का (रतिवाक्या) ३--जया य वंदिमो होइ पच्छा होइ अव दिमो। देवया व चुया ठाणा स पच्छा परितप्पइ ॥ यदा च वन्द्यो भवति, पश्चाद् भवत्यवन्धः। देवतेव च्युता स्थानात्, स पश्चात् परितप्यते ॥३॥ ३–प्रव्रजित काल में साधु वंदनीय होता है, वही जब उत्प्रव्रजित होकर अवन्दनीय हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे अपने स्थान से च्युत देवता । ४--जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अयूइमो। राया व रज्जपन्भट्टो स पच्छा परितप्पइ॥ यदा च पूज्यो भवति, पश्चाद् भवत्यपूज्यः । राजेव राज्यप्रभ्रष्टः, स पश्चात्परितप्यते ॥४॥ ४–प्रवजित काल में साधु पूज्य होता है, वही जब उत्प्रव्रजित होकर अपूज्य हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे राज्य-भ्रष्ट राजा। ५-जया य माणिमो होइ पच्छा होइ अमाणिमो। सेट्टि व्व कब्बडे छूढो स पच्छा परितप्पड़॥ यदा च मान्यो भवति, पश्चाद् भवत्यमान्यः। श्रेष्ठीव कर्बटे क्षिप्तः, स पश्चात्परितप्यते ॥५॥ ५----प्रव्रजित काल में साधु मान्य होता है, वही जब उत्प्रवजित होकर अमान्य हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे कर्बट (छोटे से गाँव) में८ अवरुद्ध किया हुआ श्रेष्ठी। ६-- जया य थेरओ होइ समइक्कंतजोव्वणो । मच्छो व्व गलं गिलित्ता स पच्छा परितप्पइ॥ यदा च स्थविरो भवति, समतिकान्तयौवनः । मत्स्य इव गलं गिलित्वा, स पश्चात्परितप्यते ॥६॥ ६-यौवन के बीत जाने पर जब वह उत्प्रव्रजित साधु बूढ़ा होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे काट को निगलने वाला मत्स्य । ७-जया य कुकुडंबस्स कुतत्तीहि विहम्मइ । हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पइ॥ यदा च कुकुटुम्बस्य, कुतप्तिभिविन्यते । हस्तीव बन्धने बद्धः, स पश्चात्परितप्यते ॥७॥ ७-वह उत्प्रजित साधु जब कुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से प्रतिहत होता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे बन्धन में बंधा हुआ हाथी। पुत्रदारपरिकोणः, ८-पुत्तदारपरिकिण्णो मोहसंताणसंतओ पंकोसन्नो जहा नागो स पच्छा परितप्पई ॥ मोहसन्तानसन्ततः। पङ्कावसन्नो यथा नागः, स पश्चात्परितप्यते ॥८॥ ८-पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से परिव्याप्त वह वैसे ही परिताप करता है जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसवेआलियं (दशवकालिक) ५०८ प्रथम चूलिका : श्लोक ६-१४ ह-अज्ज आहं गणी हुतो भावियप्पा बहुस्सुओ। जइ हं रमतो परियाए सामण्ण जिणदेसिए॥ अद्य तावदहं गणी अभविष्यं, भावितात्मा बहुश्रुतः। यद्यहमरंस्ये पर्याये, धामण्ये जिनदेशिते ॥६॥ ६-आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत२२ गणी होता यदि जिनोपदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता। मिण्ण १०-देवलोगसमाणो परियाओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो ॥ देवलोकसमानस्तु, पर्यायो महर्षीणाम् । रतानामरतानां तु, महानरकसदृशः ॥१०॥ १०-संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही (मुनि-पर्याय) महानरक के समान दुःखद होता है। ११- अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं रयाण परियाए तहारयाणं। निरओवमं जाणिय दुक्खमत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए॥ अमरोपमं ज्ञात्वा सौख्यमुत्तमं, रतानां पर्याये तथाऽरतानाम् । निरयोपमं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं, रमेत तस्मात्पर्याय पण्डितः ॥११॥ ११–संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्तम (उत्कृष्ट )जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख नरक के समान उत्तम (उत्कृष्ट) जानकर पण्डित मुनि संयम में ही रमण करे । १२-धम्माउ भट्ट सिरिओ ववेयं जन्नग्गि विज्झायमिव पतेयं। हीलंति णं दुविहियं कुसीला दादुद्धियं घोरविसं व नागं ॥ धर्माभ्रष्टं श्रियो व्यपेतं, यज्ञाग्नि विध्यातमिवाल्पतेजसम् । होलयन्ति एनं दुविहितं कुशीलाः, उद्ध तदंष्ट्र घोरविषमिव नागम् ॥१२॥ १२-जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों उस घोर विषधर सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं वैसे ही धर्म-भ्रष्ट, चारित्र रूपी श्री से२४ रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि की भांति निस्तेज२५ और दुविहित साधु की२६ कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं। १३-इहेवधम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेज्जं च पिहुज्जणम्मि। चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेटुओ गई। इहव अधर्मोऽयशोऽकीति:, दुर्नामधेयं च पृथग्जने। च्युतस्य धर्मादधर्मसेविनः, .. संभिन्नवृत्तस्य चाधस्ताद् गतिः ॥१३॥ १३.-धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र का खण्डन करने वाला साधुप इसी मनुष्य-जीवन में अधर्म का आचरण करता है, उसका अयश° और अकीर्ति होती है । साधारण लोगों में भी उसका दुर्नाम होता है तथा उसकी अधोगति होती है। १४-भुजित्त भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कटु असंजमं बहु।। गईच गच्छे अणभिज्झियं दुहं । बोहोय से नो सुलभा पुणो पुणो॥ भुक्त्वा भोगान् प्रसह्य चेतसा, तथाविधं कृत्वाऽसंयम बहुम् । गति च गच्छेदनभिध्यातां दुखां, बोधिश्च तस्य नो सुलभा पुनः पुनः ॥१४॥ १४--वह संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से३१ भोगों को भोगकर और तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर अनिष्ट एवं दुःखपूर्ण गति में जाता है और बार-बार जन्म-मरण करने पर भी उसे बोधि सुलभ नहीं होती। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम चूलिका : श्लोक १५-१५ रइवक्का (रतिवाक्या) ५०६ १५ इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो अस्य तावन्नारकस्य जन्तोः, दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो। उपनीतदुःखस्य क्लेशवत्तेः । पलिओवमं झिज्जइ सागरोवमं पल्योपमं क्षीयते सागरोपम, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं?॥ किमङ्ग पुनर्ममेदं मनोदुःखम् ।।१५।। १५-दु:ख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारकीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है तो फिर यह मेरा मनोदुःख कितने काल का है? १६... न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई न मे चिरं दुःखमिदं भविष्यति. असासया भोगपिवास जंतुणो। अशाश्वती भोगपिपासा जन्तोः। न चे सरीरेण इमेणवेस्सई न चेच्छरीरेणानेनापैष्यति, अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ अपैष्यति जीवित-पर्यवेण मे ॥१६॥ १६--यह मेरा दुःख चिर काल तक नहीं रहेगा । जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो वह अवश्य मिट ही जाएगी। १७ जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ यस्येवमात्मा तु भवेन्निश्चित:, चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं । त्यजेहं न खलु धर्मशासनम् । तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया तं तादृशं न प्रचालयन्तीन्द्रियाणि, उतवाया व सुदंसण गिरि ॥ उपयद्वाता इव सुदर्शनं गिरिम् ॥१७॥ १७-जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चित होती है (दृढ़ संकल्पयुक्त होती है)'देह को त्याग देना चाहिए पर धर्म-शासन को नहीं छोड़ना चाहिए"-उस दृढ़-प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियाँ उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। १८-इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो इत्येवं संदृश्य बुद्धिमान्नरः: आयं उवायं विविहं वियाणिया। आयमुपायं विविध विज्ञाय । काएण वाया अदु माणसेणं कायेन वाचाऽथ मानसेन, तिगृत्तिगुत्तोजिणवयणमहिट्ठिजासि ॥ त्रिगृप्तिगुप्तो जिनवचनमधितिष्ठेत् ॥१८॥ त्ति बेमि॥ इति ब्रवीमि। १८-बुद्धिमान् मनुष्य इस प्रकार सम्यक् आलोचना कर तथा विविध प्रकार के लाभ और उनके साधनों को३५ जानकर तीन गुप्तियों (काय, वाणी और मन) से गुप्त होकर जिनवाणी का आश्रय ले। ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education Intemational Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिवाक्या : प्रथम चूलिका सूत्र १: १. किन्तु उसे मोहवश दुःख उत्पन्न हो गया (उप्पन्नदुक्खेणं) दुःख दो प्रकार के होते है : १. शारीरिक और २. मानसिक। शीत, उष्ण आदि परीषह शारीरिक दुःख हैं और काम, भोग, सत्कार, पुरस्कार आदि मानसिक । संयम में ये दोनों प्रकार के दुःख उत्पन्न हो सकते हैं।' २. (ओहाण) : अवधावन का अर्थं पीछे हटना है । यहाँ इसका आशय है संयम को छोड़ वापस गृहस्थवास में जाना । ३. पोत के लिए पताका (पोयपडागा): पताका का अर्थ पतवार होना चाहिए। पतवार नौका के नियन्त्रण का एक साधन है। जिनदास महत्तर और टीकाकार ने 'पताका' तथा अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'पटागार' का अर्थ नौका का पाल किया है। वस्त्र के बने इस पाल के कारण नौका लहरों से क्षुब्ध नहीं होती और उसे इच्छित स्थान की ओर ले जाया जा सकता है। ४. ओह ! (हं भो): 'हं' और 'भो'—ये दोनों आदर-सूचक सम्बोधन हैं । घुणिकार इन दोनों को भिन्न मानते हैं और टीकाकार अभिन्न ।' ५. लोग बड़ी कठिनाई से जीविका चलाते हैं (दुप्पजीवी) : अगस्त्य धूणि में 'दुःपजीवं' पाठ है। इसका अर्थ है-जीविका के साधनों को जुटाना बड़ा दुष्कर है। पूर्णिकार ने आगे १-(क) जि० चू० पृ० ३५२ : दुक्खं दुविधं --सारीरं माणसं वा, तत्थ सारोरं सीउण्हदंसमसगाइ, माणसं इत्थीनितीहियक्कारपरी सहादीणं एवं दुविहं दुक्खं उत्पन्नं जस्स तेण उप्पण्णदुक्खेण । (ख) हा० टी० प० २७२ : 'उत्पन्नदुःखेन' संजातशीतादिशारीरस्त्रीनिषद्याबिमानसदःखेन । २-(क) जि० चू० पु० ३५२, ३५३ : अवहावणं अवसप्पणं अतिक्कमणं, संजमातो अवक्कमणमवहावणं । (ख) हा० टी०प० २७२ : अवधावनम् -अपसरणं संयमात् । ३-(क) जि० चू० पु० ३५३ : जाणवत्त-पोतो तस्स पडागा सीतपडो, पोतोऽवि सीयपडेण विततेण वीयोहि न खोहिज्जइ, इच्छियं च देसं पाविज्जई। (ख) हा० टी० प० २७२ : अश्वखलिनगजाकुशबोहित्यसितपटलुल्यानि । (ग) अ० चू० : जाणवत्तं पोतो तस्स पडागारोसीतपडो। पोतो वि सीतपडेण विततेण वीचिहि ण खोभिज्जति, इच्छितं च देसं पाविज्जति । ४-जि० चू० पृ० ३५३ : हंति भोति संबोधनद्वयमादराय । ५-हा० टी०प० २७२ : हंभो-शिष्यामन्त्रणे । Jain Education Intemational Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ रइवक्का (रतिवाक्या) प्रथम चूलिका : टि० ६-७ बताया है कि समर्थ व्यक्तियों के लिए भी जीविका का निर्वाह कठिन है तब औरों की बात ही क्या ? राज्याधिकारी, व्यापारी और नौकर-ये सब अपने-अपने प्रकार की कठिनाइयों में फंसे हुए हैं। ६. स्वल्प-सार-रहित (तुच्छ) (लहुस्सगा) : जिन वस्तुओं का स्व (आत्म-तत्त्व) लघु (तुच्छ या असार) होता है, उन्हें 'लघुस्वक' कहा जाता है । पूणि और टीका के अनुसार काम-भोग कदलीगर्भ की तरह और टीका के शब्दों में तुषमुष्टि की तरह असार हैं। ७. माया-बहुल होते हैं ( साइबहुला ) : 'साचि' का अर्थ कुटिल है । 'बहुल' का प्रयोग धूणियों के अनुसार प्रायः५ और टीका के अनुसार प्रचुर के अर्थ में है। 'साई' असत्य-वचन का तेरहवाँ नाम है । प्रश्न व्याकरण की वृत्ति में उसका अर्थ अविश्वास किया है । असत्य-बचन अविश्वास का हेतु है, इस लिए 'साइ' को भी उसका नाम माना गया । टीका में इसका संस्कृत रूप 'स्वाति' किया है । डा. वाल्टर शुदिंग ने 'स्वाति' को त्रुटिपूर्ण माना है। 'स्वाद' का एक अर्थ कलुषता है" । 'चूरिंग और टीका में यही अर्थ है ।। 'साय' (सं-स्वाद) का अर्थ भी माया हो सकता है। हमने इसका संस्कृत रूप ‘साची' किया है। ‘साची' तिर्यक् का पर्यायवाची नाम है। 'साइब्रहला' का आशय यह है कि जो पारिवारिक लोग हैं, वे एक दूसरे के प्रति विश्वस्त नहीं होते, बैसी स्थिति में जाकर मैं क्या सुख पाऊँगा--ऐसा सोच धर्म में रति करनी चाहिए । संयम को नहीं छोड़ना चाहिए । १- (क) अ० चू० : दुक्खं एत्य पजीव साधगाणि संपातिज्जतीति ईसरेहि कि पुण सेसेहि ? रायादियाण चिताभरेहि, वणियाण भंडविणएहि, सेसाण पेसणेहि य जीवणसंपादणं दुक्खं । (ख) जि० चू० पृ० ३५३ : दुप्पजीवी नाम दुक्खेण प्रजीवणं, आजीविआ। (ग) हा० टी०प० २७२ : दुःखेन कृच्छे ण प्रकर्षेणोदारभोगापेक्षया जीवितु शीला दुष्प्रजीविनः । २--- अ० चू० : लहुसगाइत्तरकाला कदलीगम्भवदसारगा जम्हा गिहत्थ भोगे चतिऊण रति कुणइ धम्मे । ३–हा० टी०१० २७२ : सन्तोऽपि 'लघवः' तुच्छाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसाराः । ४-० चू० : साति कुडिलं। ५.-- (क) अ० चू० : बहुलमिति पायो वृत्ति। (ख) जि० चू० पू० ३५४ : बहुला इति पायसो। ६-हा० टी० ५० २७२ : "स्वातिबहुला' मायाप्रचुरा । ७-प्रश्न आस्रवद्वार २। । ८-प्रश्न आस्रवद्वार २: साति-अविश्रम्भः । ६-दसवेआलिय सुत्त पृ० १२६ : साय-बहुल =स्वाति (wrong for स्वात्ति) बहुल, मायाप्रचुर H. I think that the sense of this phrase is as translatad. १०-A Dictionary of Urdu, Classical Hindi and English, Page 691 : Blackness, The black or inner part of the heart. ११-अ० चि० ६.१५१ : तिर्यक् साचिः । १२---(क) अ० चू० : पुणो २ कुडिल हियया प्रायेण भुज्जो सातिबहुला मणुस्सा । (ख) जि० चू० पृ० ३५४ : सः तिकुडिला, बहुला इति पायसो, कुडिलहियओ पाएण भुज्जो य साइबहुल्ला मणुस्सा। (ग) हा० टी०प० २७२ : न कदाचिद्विश्रम्भहेतवोऽमी, तद्रहितानां च कीदृक्सुखम् ? तथा मायाबंधहेतुत्वेन दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति । Jain Education Intemational Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ५१२ प्रथम चूलिका : टि० ८-१२ ८. गृहवाल ( गिहिवास ): धुणियों में 'गिहिवास' का अर्थ गृहवास' और टीका में गृहपाश किया है। धूणि के अनुसार गृहवास प्रमाद-बहुल होता है और टीका के अनुसार 'गृह' पाश है । उस में पुत्र-पुत्री आदि का बन्धन है। ६. आतंक ( आयंके ) : हैजा आदि रोग जो शीघ्र ही मार डालते हैं, वे आतङ्क कहलाते हैं । १०. संकल्प ( संकप्पे ) : आतंक शारीरिक रोग है और संकल्प मानसिक । इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से जो मानसिक आतंक होता है, उसे यहाँ संकल्प कहा गया है। ११. ( सोवक्केसे... ) : टीकाकार ने वृद्धाभिप्राय का उल्लेख किया है । उसके अनुसार प्रतिपक्ष सहित 'सोवक्केसे, निरुबक्केसे' आदि छह स्थान होते हैं और पत्तेयं पुण्णपाव' से लेकर 'झोसइत्ता' तक एक ही स्थान है । दूसरा मत यह है कि 'सोवक्केसे' आदि प्रतिपक्ष सहित तीन स्थान हैं और 'पत्तेयं पुण्णपाव' आदि स्वतन्त्र हैं५ । वृद्ध शब्द का प्रयोग चूर्णिकारों के लिए किया गया है । दूसरा मत किनका है.----यह स्पष्ट नहीं होता। टीकाकार ने वृद्धाभिप्राय को ही मान्य किया है । १२. क्लेश सहित है ( सोवक्केसे ): कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, सेवा, घृत-लवण आदि की चिन्ता—ये गृहि-जीवन के उपक्लेश हैं, इसलिए उसे सोपक्लेश कहा गया है। १-(क) अ० चू० : ........गिहत्थवासे। (ख) जि० चू० पृ० ३५५ : ........"गिही (ण) वासे । २-हा० टी० ५० २७३ : 'गृहपाशमध्ये वसता' मित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते । ३-हा० टी० ५० २७३ : 'आतङ्कः' सद्योघाती विषूचिकादिरोगः । ४-(क) जि० चू० पृ० ३५६ : आयको सारीरं दुक्खं, संकप्पो माणसं, तं च पियविप्पोगमयं संवाससोगभयविसादादिकमणेगहा संभवति । (ख) हा० टी० प० २७३ : 'संकल्प' इष्टानिष्टवियोगप्राप्तिजो मानसआतङ्कः। ५-हा० टी० प० २७३ : एतदन्तर्गतो वृद्धाभिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव, अन्ये तु व्याचक्षते-सोपक्लेशो गृहिवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशं स्थानम् । ६-जि० चू०प० ३५६-५७ : मिलाइए-'सोवक्केसे गिहवासे'..... एकारसमं पदं गयं । 'निरुवक्केसे परियाए'.........'बारसमं पदं गतं । 'बंधे गिहवासे...............'तेरसमं पदं गतं । 'मोक्खे परियाए'............ 'चोद्दसमं पदं गतं । 'सावज्जे गिहवासे'....... ." पण्णरसमं पदं गतं । 'अणवज्जे परियाए'........."सोलसमं पदं गतं । ७-हा० टी०१० २७३ : 'प्रत्येकं पुण्यपाप' मिति"एवमष्टावशं स्थानम् । ८-हा० टी०५० २३७ : उपक्लेशा:-कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजनहिताः शीतोष्णश्रमादयो धृतलवणचिन्ता दयश्चेति। Jain Education Intemational Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रइवक्का ( रतिवाक्या) ५१३ प्रथम चूलिका : श्लोक १-५ टि० १३-१८ १३. मुनि-पर्याय ( परियाए सू० स्था० ११ ) : पर्याय का अर्थ प्रव्रज्याकालीन-दशा या मुनि-व्रत है । प्रव्रज्या में चारों ओर से (परित:) पुण्य का आगमन होता है, इसलिए इसे पर्याय कहा जाता है। अगस्त्य चूणि के अनुसार यह प्रव्रज्या शब्द का अपभ्रश है। १४. भोग लेने पर अथवा तप के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है । वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता सू०१ स्था० १८ ) : किया हुआ कर्म भुगते बिना उससे मुक्ति नहीं होती यह कर्मवाद का ध्रुव सिद्धान्त है। बद्ध कर्म को मुक्ति के दो उपाय हैंस्थिति परिपाक होने पर उसे भोगकर अथवा तपस्या के द्वारा उसे क्षीण-बीर्य कर नष्ट कर देना । सामान्य स्थिति यह है कि कर्म अपनी स्थिति पकने पर फल देता है, किन्तु तपस्या के द्वारा स्थिति पकने से पहले ही कर्म को भागा जा सकता है। इससे फल-शक्ति मन्द हो जाती है और वह फलोदय के बिना ही नष्ट हो जाता है । १५. श्लोक ( सिलोगो सू० १ स्था० १८ ) : श्लोक शब्द जातिवाचक है, इसलिए इसमें अनेक श्लोक होने पर भी विरोध नहीं आता। श्लोक १: १६. अनार्य ( अणज्जो ख ): अनार्य का अर्थ म्लेच्छ है । जिसकी चेष्टाएँ म्लेच्छ की तरह होती हैं, वह अनार्य कहलाता है । १७. भविष्य को ( आयइंघ ) : आयति का अर्थ भविष्यकाल है । चूणि में इसका वैकल्पिक अर्थ 'गौरव' व 'आत्महित भी किया है । श्लोक ५: १८. कर्बट ( छोटे से गाँव ) में ( कब्बडे ग ) : कर्बट के अनेक अर्थ हैं : १. कुनगर जहाँ क्रय-विक्रय न होता हो । २. बहुत छोटा सन्निवेश। ३. वह नगर जहाँ बाजार हो। १-हा० टी० प० २७३ : प्रव्रज्या पर्यायः । २-अ०० : परियातो समंततो पुन्नागमणं, पब्वज्जासहस्सेव अवन्भंसो परियातो। ३-हा० टी०प० २७४ : श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततः श्लोकजातिरनेकभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः । ४-(क) जि० चू० पृ० ३५६ : अणज्जा मेच्छादयो, जो तहाठिओ अणज्ज इव अणज्जो। (ख) हा० टी०प० २७४, २७५ : 'अनार्य' इत्यनार्य इवाना> --म्लेच्छचेष्टितः। ५-हा० टी० प० २७५ : 'आयतिम्' आगामिकालम् । ६-अ० चू० : आतती आगामीकालं तं आततिहित आयति क्षममित्यर्थ... - व्येयी भण्णति-आयती गौरवं त। ७-जि० चू० पृ० ३५६ : 'आवती' आगामिको कालो त .... अथवा आयतीहित आत्मनो हितमित्यर्थः । ८-जि० चू० पृ० ३६० : कब्बडं कुनगरं, जत्थ जलत्थलसमुभवविचित्तभंडविणियोगो णत्थि । ६-हा० टी० ५० २७५ : 'कर्बटे' महाक्षुद्रसंनिवेशे । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशर्वकालिक) ४. जिले का प्रमुख नगर' । वर्णियों के कबंट का मूल अर्थ माया, कूटसाक्षी आदि अप्रामाणिक या अनैतिक व्यवसाय का आरम्भ किया है । १२. श्रेष्ठी (सेटिड ) : ग ५१४ जिसमें लक्ष्मी देवी का चित्र अंकित हो वैसा वेष्टन बाँधने की जिसे राजा के द्वारा अनुज्ञा मिली हो, वह श्रेष्ठी कहलाता है । 'हिन्दू राज्यतन्त्र' में लिखा हैं कि इस सभा ( पौर सभा ) का प्रधान या सभापति एक प्रमुख नगर निवासी हुआ करता था जो साधारणतः कोई व्यापारी या महाजन होता था । आजकल जिसे मेयर कहते हैं, हिन्दुओं के काल में वह 'श्रेष्ठिन् ' या प्रधान कहलाता था । ख २०. परम्परा से परिव्याप्त ( संताणांतओ ) : प्रथम चूलिका : श्लोक ८-६ दि० १६-२१ अगस्त्य सिंह स्थविर ने वहाँ 'श्रेष्ठी' को वणिक्-ग्राम का महत्तर कहा है । इसलिए यह पौराध्यक्ष नहीं, नैगमाध्यक्ष होना चाहिए। वह पौराध्यक्ष से भिन्न होता है। संभवतः नैगम के समान ही पीर संस्था का भी अध्यक्ष होता होगा जिसे नैगमाध्यक्ष के समान ही श्रेष्ठी कहा जाता होगा, किन्तु श्रेणी तथा पूग के साधारण श्रेष्ठी से इसके अन्तर को स्पष्ट करने के लिए पौराध्यक्ष के रूप में श्रेष्ठी के साथ राजनगरी का नाम भी जोड़ दिया जाता होगा, जैसे- राजगृह श्रेष्ठी तथा श्रावस्ती श्रेष्ठी ( निग्रोध जातक ४४५ ) में राजगृह सेट्ठी तथा एक अन्य साधारण सेट्ठी में स्पष्ट अन्तर किया गया है। श्लोक : 'संताण' का अर्थ अव्यवच्छित्ति या प्रवाह है और संतत का अर्थ है व्याप्त। श्लोक : २१. भावितात्मा (भावियप्पा ) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विविध प्रकार की अनित्य आदि भावनाओं से जिसकी आत्मा भावित होती है, उसे भावितात्मा कहा जाता है । t - A Sanskrit-English Dictionary, P. 259. By Sir Monier Williams Market-Town, the Capital of a district (of two or four hundred Villages.) २ (क) अ० ० : चाडचोवगकूडस क्खिसमुब्भावित दुव्यवहारारंभो कथ्वडं । (ख) जि० ० ० ३६० वाडयोषम पाडचोग) कृडसक्तिसमुभाविय : व्यवहारतं । ३- नि० भा० ९.२५०३ भूमि जन्मिय पट्टे सिरियादेवी कम्जति तट्टणमंत जस्स रणा अगुम्नात सो सेट्ठी भण्णति । ४- दूसरा खण्ड पृ० १३२ । ५ (क) अ० ० राजकुलसदृद्धसम्माणो समाविद्धवेगो वणिग्गाममहसरो य सेठी। (ख) जि० ० ० ३६० ॥ ६ - धर्म-निरपेक्ष प्राचीन भारत की प्रजातन्त्रात्मक परंपराएं पृ० १०६ । ७- अ० चू० : संतानो अवोच्छिती । ८ ६ हा० टी० प० २७५ 'संततः दर्शनादिमोहनीय कर्मप्रवाहेण व्याप्तः । ९ - अ० ० : सम्मद्दंसणेण बहुविहेहिय तवोजोगेहि अणिच्चयादिभावणाहि य भावितप्पा | Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रइवक्का (रतिवाक्या) ५१५ प्रथम चूलिका : श्लोक १२-१३ टि० २१-२८ २२. बहुश्रुत (बहुस्सुओ ख): बहुश्रुत का अर्थ है--द्वादशाङ्गी (गणिपिटक) का जानकार' या बहुआगमवेत्ता । २३. होता ( हुँतों क ): _ 'अभविष्यत्' और 'भवन' इन दोनों के स्थान में 'हुंतो' रूप बनता है। अनुवाद में 'अभविष्यत्' का अर्थ ग्रहण किया है । 'भवन' के अनुसार इसका अनुवाद इस प्रकार होगा-आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी होऊँ, यदि जिनोपदिष्ट श्रमण पर्याय –चरित्र में रमण करूँ। श्लोक १२: २४. चारित्र-रूपी श्री से ( सिरिओ क ): जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ श्रामण्यरूपी लक्ष्मी या शोभा और हरिभद्रसूरि ने तप रूपी लक्ष्मी किया है। २५. निस्तेज ( अप्पतेयं ख ): इसमें अल्प शब्द अभाववाची है । अल्पतेज अर्थात् निस्तेज । समिधा, चर्बी, रुधिर, मधु, घृत आदि से हुत अग्नि जैसे दीप्त होती है और हवन के अन्त में बुझकर वह निस्तेज हो जाती है, वैसे ही श्रमण-धर्म की श्री को त्यागने वाला मुनि निस्तेज हो जाता है । २६. दुविहित साधु की (दुविहियंग ): जिसका आचरण या विधि-विधान दुष्ट होता है, उसे दुविहित कहा जाता है। सामाचारी का विधिवत् पालन करने वाले भिक्षुओं के लिए सुविहित और उसका विधिवत् पालन न करने वालों के लिए दुविहित शब्द का प्रयोग होता है । २७. निन्दा करते हैं (हीलंति"): चूर्णिद्वय के अनुसार 'होल्' धातु का अर्थ लज्जित करना है और यह नामधातु है । टीका में इसका अर्थ कदर्थना करना किया है। श्लोक १३: २८. चरित्र को खण्डित करने वाला साधु ( संभिन्नवित्तस्स घ ) : वत्त का अर्थ शील या चारित्र है । जिसका शील संभिन्न-खण्डित हो जाता है, उसे संभिन्न-वृत्त कहा जाता है। १-जि० चू०प०३६१ : 'बहुस्सुओ'त्ति जइ ण ओहावंतो तो दुवालसंगगणिपिडगाहिज्जणेण अज्ज बहस्सुओ। २-हा० टी० प० २७६ : 'बहुश्रुत' उभयलोकहितबह्वागमयुक्तः । ३-हैम० ८.३.१८०,१८१ । ४-(क) जि० चू०प० ३६३ : सिरी लच्छी सोभा वा, सा पुण जा समणभावाणुरूवा सामण्णसिरी। (ख) हा. टी. प० २७६ : 'श्रियोऽपेतं' तपोलक्ष्म्या अपगतम् । ५-हा० टी० ५० २७६ : अल्पशब्दोभावे, तेजःशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः । -अ०० : जधामघमहेसुसमिधासमुदायवसारुहिरमहुघतादीहि हूयमाणो अग्गी सभावदित्तीओ अधिगं दिप्पति हवणावसाणे परि विज्झाण मुम्मुरंगारावत्थो भवति । ७.-(क) अ० चू० : विहितो उप्पादितो, दुठ्ठ विधितो-दुविहितो। (ख) हा० टी० प० २७६ : 'दुविहितम' उन्निष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनम् । -(क) अ० चू० : ह्री इति लज्जा, मुपणयंति होलेति, यदुक्तम्-हपयंति । (ख) जि० चू० पृ० ३६३ : ही इति लज्जा, लज्ज वयंति हीलंति-ह पयंति । -हा०टी०प०२७६ : 'हीलयन्ति' कवर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पङ्क्त्यपसारणादिना । १०-(क) अ० चू० : वृत्तं शीलं । (ख) हा० टी० प० २७७ : 'संभिन्नवृत्तस्य च' अखण्डनीयखण्डितचारित्रस्य च । Jain Education Intemational Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेलियं (दशवैकालिक ) २६. अधर्म ( अधम्मक ) श्रमण जीवन को छोड़ने वाला व्यक्ति छह काय के जीवों को हिंसा करता है, श्रमण- गुण की हानि करता है, इसलिए श्रमण- जीवन के परित्याग को अधर्म कहा है। ३०. अपक्ष (असो) : 'यह भूतपूर्व श्रमण है' – इस प्रकार दोष-कीर्तन अयश कहलाता है' । टीकाकार ने इसका अर्थ 'अपराक्रम से उत्पन्न न्यूनता' किया है। श्लोक १४ : ३१. आवेगपूर्ण चित्त से (पस वेवसा क प्रसका अर्थ हा 1 या प्रकट है विषयों के भोग के लिए हिंसा, असत्य आदि में मन का अभिनिवेश करना होता है । वस्तु एक होती है पर जब उसकी चाह अनेकों में होती है तब उसकी प्राप्ति और संरक्षण के लिए बलात्कार का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार भोगों में चित्त की हठधर्मिता होती है" । ३२. अनिष्ट अभियं" ) इसका अर्थ अनभिति अभिप्रेत वा अनिष्ट है। ३३. बोधि ( बोही प ) : ५१६ प्रथम चूलिका श्लोक १४-१८ टि० २६-३५ 1 अर्हत धर्म की उपलब्धि को बोधि कहा जाता है । लोक १६: ३४. जीवन की समाप्ति के समय ( जीवियपज्जवेण घ ) : पर्यय और पर्याय एकार्थक हैं । यहाँ पर्यय का अर्थ अन्त है । जीवित का पर्याय अर्थात् मरण" । इलोक १८: ३५. लाभ और उनके साधनों को ( आयं उवायं ख ) : आय अर्थात् विज्ञान, सम्यग् - ज्ञान आदि की प्राप्ति और उपाय अर्थात् आय के साधन । १ (क) अ० ० समणयम्मपरिया छकायारने अपुण्यमाचरति एस अचम्मो सामण्णागुणपरिहाणी | (ख) जि० चू० पृ० ३६३ : समणधम्मपरिच्चत्तो छक्कायारंभेण अपुन्नमायइ रयए, अधम्मो सामण्णपरिच्चागो । २ - (क) अ० चू० : अयसो एस समणगभूतपुव्व इति दोसकित्तणं । (ख) जि० पू० पृ० ३६३ अवसो व से जहा समणभूतपुग्यो इति दोसविणं । : ३ - हा० टी० प० २७६ : 'अयश:' अपराक्रमकृतं न्यूनत्वम् । ४ - ( क ) अ० ० : वरिदायादतक्करादीण एग दव्वाभिणिविद्वाण वलक्कारेण एवं पसज्झ विसयसंरक्खणेय हिंसामोसादि निविट्ठचेतसा । (ख) हा० टी० प० २७७ : 'प्रसह्यचेतसा' धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्त ेन । ५ - (क) अ० चू० : अभिलासो अभिज्जा, सा जत्थ समुप्पण्णा तं अभिज्झितं तव्विवरीयं अणभिज्झितमर्णाभिलसितमभिप्रेतं । (ख) हा० टी० प० २७७ 'अनमिध्याताम्' अभिध्याता इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः । ६- जि० ० चू० पृ० ३६४: अरहंतस्स धम्मस्स उवलद्धी बोधी । ७- अ० ० : परिगमणं पज्जायो अण्णगमणं तं पुण जीवितस्स पज्जायो मरणमेव । ८ – (क) जि० चू० पृ० ३६६ : आओ विन्नाणादीण आगमो, उवायो तस्स साहणं अणुब्वा । (ख) हा० टी० प० २७८ : आयः सम्यग्ज्ञानादेरुपायः -- तत्साधनप्रकारः काल विनयादिः । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइया चूलिया विवित्तचरिया द्वितीय चूलिका विविक्तचर्या Jain Education Intemational Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन में थपण की वर्षा, गुणों और नियमों का निरूपण है, इसलिए इसका नाम विविक्त-चर्या है। 'रतिवाक्या' से इसका रचना-क्रम भिन्न है । उसका प्रारम्भ वर्णनीय विषय से होता है - "इह खलु भो ! पब्वइएणं उपन्नदुक्खेणं ....।" इसके प्रादि-वाक्य में चूलिकाकार विविक्त-चर्या के निर्माण की प्रतिज्ञा करते हैं और उसके केवली-भाषित होने का उल्लेख करते हैं "चूलियं तु पवक्खामि, सुर्य केवलिभासियं ।" हरिभद्रसूरि ने इस दूसरे चरण की पापा में प्रना अध्ययन को सीमंधर स्वामी से प्राप्त कहा है। इसमें अनुकरण की अन्ध-प्रवृत्ति पर तीव्र प्रहार किया गया है। जनता का बहुमत अनुस्रोतगामी होता है। इंद्रिय और मन के मनोज्ञ विषयों के प्रासेवन में रत रहता है, परन्तु साधक ऐसा न करे। वह प्रतिस्रोतगामी बने। उसका लक्ष्य अनुस्रोतगामियों से भिन्न है। साधना के क्षेत्र में बहुमत और अल्पमत का प्रश्न व्यर्थ है। यहाँ सत्य की एषणा और उपलब्धि का ही महत्व है। उसके साधन चर्या, गुण और नियम हैं । नियतवास न करना, सामूहिक भिक्षा करना, एकान्तवास करना, यह चर्या है। प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य चर्या है। बीच-बीच में गुणों और नियमों की अोर मी संकेत किया गया है। गुण मूल और उत्तर इन दो भागों में विभक्त हैं। पांच महाव्रत मूल गुण हैं और नमस्कार, पौरुषी आदि प्रत्याख्यान उत्तर-गुण हैं । स्वाध्याय, कायोत्सर्ग प्रादि नियम हैं । इनका जागरूक-भाव से पालन करने वाला श्रमण ही 'प्रतिबुद्धजीवी' हो सकता है। चर्या का स्वतः प्रमाणभूत नियामक व्यक्ति (पागम-विहारी) वर्तमान में नहीं है । इस समय चर्या का नियमन प्रागम सूत्रों से हो रहा है। इसलिए कहा गया है "सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू"--भिक्षु को सूत्रोक्त मार्ग से चलना चाहिए। सूत्र का अर्थ है विशाल भावों को संक्षेप में कहना। इसमें अर्थ अधिक होता है और शब्द कम। इस स्थिति में शब्दों की खींच-तान होती है। इसलिए कहा गया है "सुत्तस्स प्रत्थो जहाणवेइ" सूत्र का अर्थ जैसे आज्ञा दे वैसे चलना चाहिए। चूर्णिकार ने बताया है कि गुरु उत्सर्ग (सामान्य-विधि) और अपवाद (विशेष विधि) से जो मार्गदर्शन दे उसके अनुसार चलना चाहिए। पहले सूत्र होता है फिर अर्थ । सूत्रकर्ता एक व्यक्ति होता है किन्तु अर्थकार अनेक व्यक्ति हो सकते हैं। सूत्र की प्रामाणिकता के लिए विशेष मर्यादा है। केवली, अवधि-ज्ञानी, मनः-पर्यवज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर और अभिन्न-दशपूर्वधर द्वारा रचित शास्त्र ही सूत्रपागम होते हैं । किन्तु अर्थ की प्रामाणिकता के लिए कोई निश्चित मर्यादा नहीं है। साधारण ज्ञानी की व्याख्या को भी अर्थ कहा जाता है। प्रागमविहारी का किया हुअा अर्थ भी सूत्रवत् प्रमाण होता है । वे अर्थ-पागम अभी अनुपलब्ध हैं। इसलिए सूत्रकार ने निर्दिष्ट मार्ग से चलने की अनुमति दी है । निर्दिष्ट मार्ग कोई है ही नहीं । मार्ग सूत्र का ही है । अर्थ तो उसीका स्पष्टीकरण मात्र है । उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वह सूत्र-सूचित मार्ग से प्रवृत्त होता है । यह विचार व्याख्याकार की व्याख्या-पद्धति के अाधार पर किया गया है। सूत्र-रचना की दृष्टि से विचार किया जाए तो सूत्र और अर्थ परस्पर संबद्ध हैं। उनमें कोई विरोध नहीं होता। विरोध का प्रश्न व्याख्याकार के लिए है। वह सुत्रकार की संक्षिप्त भाषा द्वारा उसके प्रतिपाद्य को यथार्थतया पकड़ नहीं पाता वहाँ सूत्र और अर्थ परस्पर विरुद्ध हो जाते हैं। यहीं सतर्क रहने की आवश्यकता है। १-श्लोक ४ : "चरिया गुणा य नियमा, य होंति साहूण दट्ठव्वा ।" २-देखिए श्लोक १, टिप्पण २। ३----अ० चु० : सूयणामेत्तेण सव्वं ण बुज्झति त्ति विसेसो विकीरति-सुत्तस्स अत्थो जह आणवेति-तस्स सुत्तस्स मासकप्पादि सउस्सग्गापवाया गुरुहि निरूविज्जंति अत्थो जहा आणवेति, जधा सो करणीय-मग्गं निरूवेति ।" ४--अ० चू० : "सुत्तसूइएण मग्गेण अत्थो पवत्तइ।" Jain Education Intemational Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० द्वितीय चूलिका आमुख सूत्र का आशय समझने के लिए उसके उत्सर्ग-वाद यादि सारी दृष्टियों को ध्यान में रखना धावश्यक है। ऐसा करने पर ही यथार्थ अर्थ का ग्रहण हो सकता है। सूत्र के कोरे एक शब्द या वाक्य को पकड़ कर चले, वह उसका हृदय नहीं समझ सकता । - छट्ठे अध्ययन ( इलोक ६, ७) में कहा है- -अठारह स्थानों का वर्जन बाल, वृद्ध और रोगी सभी निर्ग्रन्थों के लिए अनिवार्य है । इसका अखण्ड और अस्फुटित रूप से पालन होना चाहिए। अठारह में से किसी एक स्थान की विराधना करने वाला निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है । इस शब्दावली में जो हृदय है, वह पूर्ण अध्ययन को पढ़े बिना नहीं पकड़ा जा सकता । पर्यङ्क (पन्द्रहवें स्थान ) और गृहान्तरनिषद्या (सोलहवें स्थान ) के अपवाद भी हैं। विशेष स्थिति में अवलोकनपूर्वक पर्यङ्क यादि पर बैठने की अनुमति भी दी है (देखो ६.५४ ) । वृद्ध, रोगी और तपस्वी के लिए गृहान्तर- निषद्या की भी अनुमति है (देखो ६.५९) । दसवेलियं (दशवेकालिक) इन सामान्य और विशेष विधियों को विधिवत् जाने बिना सूत्र का श्राशय ग्राह्य नहीं बनता । छठे और सातवें श्लोक की भाषा में मूल दोष का निषेध भी है। उसके लिए भाषा की रचना यही होनी चाहिए। किन्तु पर्यङ्क और निषद्या उत्तर दोष हैं। इनके निषेध की भाषा इतनी कठोर नहीं हो सकती। इनमें अपवाद का भी अवकाश है । परन्तु सबका निषेध एक साथ है इसीलिए सामान्य विधि से निषेध की भाषा भी सम है । विशेष विधि का अवसर थाने पर जिनके लिए अपवाद का स्थान था उनके लिए अपवाद बतला दिया गया है। इस प्रकार उत्सर्ग-अपवाद आदि अनेकान्त दृष्टि से सूत्र के आशय का निरूपण ही अर्थ है । यह सूत्र के मार्ग का आलोक है। इसे जानकर ही साधक सूत्रोक्त मार्ग पर चल सकता है। अध्ययन के उपसंहार में श्रात्म-रक्षा का उपदेश है । आत्मा को रखते हुए देह की रक्षा की जाए, वह देह-रक्षा भी संयम है । ग्रात्मा को गँवाकर देह-रक्षा करना साधक के लिए इष्ट नहीं होता । श्रात्मा की अरक्षा व सुरक्षा ही दुःख और दुःख-मुक्ति का हेतु है । इसलिए सर्व यत्न से आत्मा की ही रक्षा करनी चाहिए। समग्र दशवेकालिक के उपदेश का फल यही है। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइया चूलिया : द्वितीय चूलिका विवित्तचरिया : विविक्तचर्या मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १-- मैं उस घुलिका को कहूँगा जो सुनी हई है, केवली-भाषित है, जिसे सुन भाग्यशाली जीवों की धर्म में मति उत्पन्न होती १-चूलियं तु पवक्खामि चूलिकां तु प्रवक्ष्यामि, सयं केलिभासियं। श्रतां केवलिभाषिताम् । जं सुणित्त सपुन्नाणं यां श्रुत्वा सपुण्यानां, धम्मे उप्पज्जए मई॥ धर्मे उत्पद्यते मतिः ॥१॥ २-अणुसोयपट्टिएबहुजणम्मि अनुस्रोतः प्रस्थिते बहुजने, पडिसोयलद्धलक्खेणं । प्रतिस्रोतो लब्धलक्ष्येण । पडिसोयमेव अप्पा प्रतिस्रोत एवात्मा, दायव्वो होउकामेणं ॥ दातव्यो भवितुकामेन ॥२॥ २-अधिकांश लोग अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे हैं ---भोग-मार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत५ में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, जो विषय-भोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिए --विषयानुरक्ति में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए। ३-अणुसोयसुहोलोगो अनुस्रोतः सुखो लोकः, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । प्रतिस्रोत आश्रवः सुविहितानाम् : अणुसोओ संसारो अनुस्रोतः संसारः, पडिसोओ तस्स उत्तारो॥ प्रतिस्रोतस्तस्योत्तारः ॥३॥ ३-जन-साधारण को स्रोत के अनुकुल चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु जो सुविहित साधु हैं उसका आश्रव (इन्द्रिय-विजय)प्रतिस्रोत होता है । अनुस्रोत संसार है। (जन्म-मरण की परम्परा है) और प्रतिस्रोत उसका उतार है" (जन्म-मरण का पार पाना है)। ४--इसलिए आचार में पराक्रम करने वाले", संवर में प्रभूत समाघि रखने वाले१२ साधुओं को चर्या, गुणों४ तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। ४-तम्हा आयारपरक्कमेण तस्मादाचारपराक्रमेण, संवरसमाहिबहुलेणं । संवरसमाधिबहुलेन। चरिया गुणा य नियमा य चर्या गुणाश्च नियमाश्च, होति साहूण दट्टव्वा ॥ भवन्ति साधूनां द्रष्टव्याः ॥४॥ ५-अणिएयवासो समुयाणचरिया अनिकेतवासः समुदानचर्या, अन्नायउंछं पइरिक्कया य। अज्ञातोञ्छ प्रतिरिक्तता च । अप्पोवही कलहविवज्जणा य अल्पोपधिः कलहविवर्जना च, विहारचरिया इसिणं पसत्था॥ विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ताः ॥५॥ ५-अनिकेतवास१६ (गहवास का त्याग), समुदान चर्या (अनेक कुलों से भिक्षा लेना), अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना७ एकान्तवास, उपकरणों की अल्पता और कलह का वर्जन -यह विहार-चर्या (जावन-चर्या) ऋषियों के लिए प्रशस्त है। Jain Education Intemational Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय चूलिका : श्लोक ६-११ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ५२२ ६-आइण्णओमाणविवज्जणा य आकीर्णावमानविवर्जना च, ओसन्नदिट्ठाहडभत्तपाणे । उत्सन्नदृष्टाहृतभक्तपानं । संसटकप्पेण चरेज्ज भिक्खू संसृष्टकल्पेन चरेद् भिक्षुः, तज्जायसंस? जई जएज्जा॥ तज्जातसंसृष्टे यतिर्यतेत ॥६॥ ६-आकीर्ण२१ और अवमान नामक भोज२२ का विवर्जन, प्रायः दृष्ट-स्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण ऋषियों के लिए प्रशस्त है । भिक्षु संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा ले ! दाता जो वस्तु दे रहा है उसीसे संसष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का यत्न करे२४ । ७-अमज्जमंसासि अमच्छरीया अमद्यमांसाशी अमत्सरी च, अभिक्खणं निविगई गओ य। अभीक्ष्णं निविकृति गतश्च । अभिवखणं काउस्सग्गकारी अभीक्ष्णं कायोत्सर्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हवेज्जा॥ स्वाध्याययोगे प्रयतो भवेत् ।।७।। ७...-साधु मद्य और मांस का अभोजी२५ अमत्सरी, बार-बार विकृतियों को न खाने वाला२६, बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला२७ और स्वाध्याय के लिए विहित तपस्या में२८ प्रयत्नशील हो । ८-न पडिन्नवेज्जा सयणासणाई न प्रतिज्ञापयेत् शयनासनानि, सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं। शय्यां निषधां तथा भक्तपानम् । गामे कले वा नगरे व देसे ग्रामे कुले वा नगरे वा देशे, ममत्तभावं न कहिं चि कज्जा॥ ममत्वभावं न क्वचित् कुर्यात् ॥८॥ ८-साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलाए कि यह शयन, आसन, उपाश्रय, स्वाध्याय-भूमि जब मैं लौटकर आऊँ तब मुझे ही देना । इसी प्रकार भक्तपान मुझे ही देना—यह प्रतिज्ञा भी न कराए। गाँव, कुल, नगर या देश में-कहीं भी ममत्व भाव न करे। ६-गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा गृहिणो वैयापृत्यं न कुर्यात्, अभिवायणं वंदण पूयणं च। अभिवादनं वन्दनं पूजनं च। असंकिलिहि समं बसेज्जा असंक्लिष्टैः समं वसेत्, मणी चरित्तस्स जओ न हाणी॥ मुनिश्चरित्रस्य यतो न हानिः ॥६॥ ___६–साधु गृहस्थ का वैयापृत्य न करे२६, अभिवादन, वन्दन और पूजन न करे । मुनि संक्लेश-रहित साधुओं के साथ रहे जिससे कि चरित्र की हानि न हो। १०न या लभेज्जा निउणं सहायं न वा लभेत निपुणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा। गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एक्को वि पावाई विवज्जयंतो एकोऽपि पापानि विवर्जयन्, विहरेज्ज कामेस असज्जमाणो॥ विहरेत् कामेष्वसज्जन ॥१०॥ १०---यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुण वाला निपुण साथी न मिले तो पाप-कर्मों का वर्जन करता हुआ काम-भोगों में अनासक्त रह अकेला ही (संघ-स्थित) विहार करे । ११-संवच्छरं चावि परं पमाणं संवत्सरं चाऽपि परं प्रमाणं, बीयं च वासं न तहि वसेज्जा। द्वितीय च वर्ष न तत्र वसेत् । सत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू सूत्रस्य मार्गेण चरेद् भिक्षुः, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ॥ सूत्रस्यार्थो यथाज्ञापयति ॥११॥ ११-जिस गांव में मुनि काल३२ के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चूका हो (अर्थात वर्षाकाल में चातुर्मास और शेष काल में एक मास रह चुका हो) वहाँ दो वर्ष (दो चातुर्मास और दो मास) का अन्तर किए बिना न रहे । भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग से चले, सूत्र का अर्थ जिस प्रकार आज्ञा दे वैसे चले। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवितचरिया (विविक्तचर्या) १२- जो पुव्वरसावररत्तकाले संपिक्स अप्पगमप्पए । कि मे कई कि च मे किच्च से कि सक्कणिज् न समायरामि ॥ १३- किं मे परो पासइ किं व अप्पा किं वाहं खलियं न विवज्जयामि। इजे सम्म अणुपासमानो अणागयं नो परिबंध कृज्जा ॥ १४ जत्थेव पारो कई दुप्पउत काण वाया अ माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहज्जा आइओ खिप्यमिय क्लीणं ॥ १५ जरिता जोग जिद्द दिवस्स धिमओ सप्पुरिसल्स निच्वं । तमाहू लोए पडिवुद्धजीवी सो जीवइ संजमजीविएणं ॥ १६ - अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो सब्बिविएहि सुसमाहिएहि । अरक्लिओ जाइप उबेह सुरक्विज सम्यहाण बुवइ ॥ ति बेमि ५२३ यः पूर्वराजाप, संप्रेक्षते आत्मकमात्मकेन । किमया कृतं कि मेहत्यशेष कि शकनीयं न समाचरामि ॥१२॥ कि मम परः पश्यति किं वारमा, किवा स्वलितं न विवर्जयामि। इत्येवं सम्यगनुपश्यन्, अनागतं नो प्रतिबन्धं कुर्यात् ॥१३॥ यत्रेव पक्तिं कायेन वाचाऽथ मानसेन । तव धीर: प्रतिसंहरेत् आकीर्णकः क्षिप्रमिव खलिनम् ॥ १४ ॥ यस्येदृशा योगा जितेन्द्रियस्य, धृतिमतः सत्स्यस्य नित्यम् । तमाहुलके प्रतिबुद्धजीविनं, स जीवति संयमजीवितेन ॥ १५ ॥ आत्मा खलु सततं रक्षितव्यः, सर्वः सुसमाहितः । अरक्षितो जातिपचति सुरतः सर्वमुच्यते ॥ १६॥ इति ब्रवोमि । द्वितीय चूलिका श्लोक १२-१६ १२- जो रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपने-आप अपना आलोचन करता है - मैंने क्या किया ? मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है ? वह कौन सा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ पर प्रमादवश नहीं कर रहा हूँ? १३ - क्या मेरे प्रमाद को कोई दूसरा देखता है अथवा अपनी भूल को मैं स्वयं देख लेता हूँ ? वह कौन सी स्खलना है जिसे मैं नहीं छोड़ रहा हूँ ? इस प्रकार सम्यक् प्रकार से आत्म-निरीक्षण करता हुआ मुनि अनागत का प्रतिबन्ध न करे असंयम में न बंधे, निदान न करे । १४- जहाँ कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे तो धीर साधु वहीं सम्हल जाए। जैसे जातिमान् अश्व लगाम को खींचते ही सम्हल जाता है । १५ - जिस जितेन्द्रिय, धृतिमान् सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार के होते हैं उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है जो ऐसा होता है, वही संपभी जीवन जीता है। १६ - सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए । अरक्षित आत्मा जातिय (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । ऐसा मैं कहता हूँ । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविक्तचर्या : द्वितीय चूलिका श्लोक १: १. (तु क): इसे भावचुला का विशेषण माना गया है । इसके तीसरे चरण में आया हुआ 'ज' सर्वनाम सहज ही 'धूलियं तं' पाठ की कल्पना करा देता है। २. जो सुनी हुई है, केवली-भाषित है ( सुयं केवलिभासियं ख ): श्रुत और केवली-भाषित—ये दो शब्द उस वृद्धवाद की ओर संकेत करते हैं जिसमें इस धूलिका को सीमंधर केवली के द्वारा भाषित और एक साध्वी के द्वारा श्रुत' कहा गया है। चूणियों के अनुसार शास्त्र के गौरव-समुत्पादन के लिए इसे केवली कृत कहा है। तात्पर्य यह है कि यह केवली की वाणी है, जिस किसी का निरूपण नहीं है। कालक्रम की दृष्टि से विचार किया जाए तो यह श्रुत-केवली की रचना है--ऐसी संभावना की जा सकती है । 'सुयं केवलिभासियं' इस पाठ को 'सुयफेवलिभासियं' माना जाए तो इसका आधार भी मिलता है। 'सुयं' का अर्थ 'श्रुत-ज्ञान' किया है । यह अर्थ यहाँ कोई विशेष अर्थ नहीं रखता । टीकाकार 'केवली-भाषित' के लिए वृद्धवाद का उल्लेख करते हैं, उसकी चर्चा चुणियों में नहीं है। इसलिए 'श्रुतकेवलि भापित' इसकी संभावना और अधिक प्रबल हो जाती है। ३. भाग्यशाली जीवों की ( सपुन्नाणं ग ) : और सुपुण्य का अर्थ उत्तम पुण्य वाला धुणियों में यह 'सपुण्य' है जब कि टीका में यह 'सुपुण्य' है। सपुण्य का अर्थ पुण्य-सहित होता है। श्लोक २: ४. अनुस्रोत में प्रस्थान कर रहे हैं ( अणुसोयपट्टिए घ): अनुस्रोत अर्थात् स्रोत के पीछे, स्रोत के अनुकूल । जब जल की निम्न प्रदेश की ओर गति होती है तब उसमें पड़ने वाली वस्तुएँ बह जाती हैं। इसलिए उन्हें अनुस्रोत-प्रस्थित कहा जाता है। यह उपमा है । यहां 'इव' शब्द का लोप माना गया है। अनुस्रोत १-हा० टी० ५०२७८ : तुशब्दविशेषितां भावचूडाम् । २---अ० चू० : श्रुयते इति श्रुतं तं पुण सुतनाणं । ३-हा० टी० प० २७८,२७६ । ४-(क) अ० चू०: केवलिय भासितमिति सत्थगोरव मुप्पायणत्यं भगवता केवलिणा भणितं न जेण केण ति। (ख) जि० चू० पृ० ३६८। ५-(क) अ० चू० : सहपुणेण सपुण्णो। (ख) जि० चू० पृ० ३६८ । ६-हा० टी०प० २७६ : 'सुपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनाम् । Jain Education Intemational dain Education Intermational Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवित्तचरया ( विविक्तचर्या ) ५२५ प्रस्थित काठ आदि की भाँति जो लोग इन्द्रिय-विषयों के स्रोत में बहे जाते हैं, वे भी अनुस्रोत प्रस्थित कहलाते है' । ५. प्रतिस्रोत ( पडिसोय ख ) : प्रतिस्रोत का अर्थ है -- जल का स्थल की ओर गमन । शब्दादि विषयों से निवृत्त होना प्रतिस्रोत है । ६. गति करने का लक्ष्य प्राप्त है ( लढलक्खेणं ख ) : जिस प्रकार धनुर्वेद या याग-विद्या में निपुण व्यक्ति बालाय जैसे सूक्ष्मतम लक्ष्य को बींच देता है (प्राप्त कर देता है उसी प्रकार विषय-भोगों को त्यागने वाला संयम के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । ७. जो विषय-भोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है ( होऊकामेणं ): यहाँ ‘होउकाम' का अर्थ है - निर्वाण पाने योग्य व्यक्ति । यह शब्द परिस्थितिवाद के विजय की ओर संकेत करता है । आध्यात्मिक यही हो सकता है जो असदाचारी व्यक्तियों के जीवन को अपने लिए उदाहरण न बनाए, किन्तु आगमोक्त विधि के अनुसार ही रहे। कहा भी है मूर्ख लोग परिस्थिति के अधीन हो स्वधर्म को त्याग देते हैं किन्तु तपस्वी और ज्ञानी साधुपुरुष घोर कष्ट पडने पर भी स्वधर्म को नहीं छोड़ते, विकृत नहीं बनते । इलोक ३: द्वितीय चूलिका : श्लोक ३ टि० ५-६ ८. आयव ( आसयो) जिनदास भ्रूणि में 'आसव' (सं० आश्रव) पाठ है । इसका अर्थ इन्द्रिय-जय किया गया है । टीका में 'आसमो' को पाठान्तर माना है | अगस्त्य ण में वह मूल है। उसका अर्थ तपोवन या व्रतग्रहण, दीक्षा या विश्राम स्थल है । ६. अनुस्रोत संसार है ( अणुसोओ संसारो " ) : अनुगमन संसार (जन्म-मरण की परम्परा) का कारण है। अभेद-दृष्टि से कारण को कार्य मान उसे संसार कहा है"। १- ( क ) अ० ० : अणुसद्दो पच्छाभावे । सोयमिति पाणियस्स निण्णप्पदेसाभिसप्पणं । सोतेण पाणियस्स गमणेपवत्ते जं जत्थ पडितं कट्ठाति वुज्झति, तं सोतमणुजातीति अणुसोतपडितं । एवं अणुसोतपट्ठित इव । इव सद्द लोवो एत्थ दट्ठव्वो । (ख) जि० चू० पृ० ३६८ । २ (क) अ० चू० : प्रतीपसोतं पडिसोतं, जं पाणियस्स थलं प्रतिगमणं । सद्दादि विसयपडिलोमा प्रवृत्ती दुक्करा । (ख) जि०० पृ० ३६ प्रतीपं धोतं प्रतियोतं जं पाणिपस्स व प्रति गमनं तं पुणन साभावित देवतादिनियोगे होगा जहा त असवर्क एवं सद्दादीन विसयाग पडिलोमा प्रवृत्तिः दुक्करा (क) अ० ० जया ईसत्वं सुसिति सुमुहमवि वालादिगतं लभते तथा कामभावनाभाविते तप्परिण्याण संजयजो समते सो पडिलो तेण पडिसोतललखेण । (ख) चि० ० ० ३६६ । ४ - जि० च० पृ० ३६६ : निव्वाणगमणारुहो 'भविउकामो' होउकामो तेण होउकामेण । ५ हा० टी० प० २७६'' सारसमुद्र परिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साना नारितादाहरणीकृत्या सम्मायंप्रवण वेतोऽपि कर्तव्यम अपित्वागमं प्रवर्णनंव भवितव्यमिति उक्त निमित्तमासाद्य यदेव किञ्चन स्वधर्मा विसृजन्ति बालिशाः । तपः श्रुतज्ञानधनास्तु साधवो, न यान्ति कृच्छ्र परमेऽपि विक्रियाम् ।” ६- (क) जि० चू० पृ० ३६६ : आसवो नाम इंदियजओ । (ब) हा० टी० १० २७१'' इन्द्रियादिरूपः परमार्थदेशनः कायवाह मनोव्यापार 'आम वा व्रतमादिरूपः । लोगो पयमाणो संसारे निवड संसारकारणं सा ७ (क) जि० ० ० १६० अणुसोओ संसारो सहा अणुसोलह दयो असोता इति कारणे कारणोवारो। (ख) हा० डी० १० २७१ 'अनुमतः संसारः सादिनु संसार एवं कारणे कार्योपचारात् यथाविधे मृत्यु दधि पुषी प्रत्यक्षो ज्वरः । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) द्वितीय चूलिका : श्लोक ४ टि० १०-१५ १०. प्रतिस्रोत उसका उतार है ( पडिसोयो तस्स उत्तारो घ ) : प्रतिस्रोत-गमन संसार-मुक्ति का कारण है । अभेद-दृष्टि से कारण को कार्य मान उसे संसार से उत्तरण या मुक्ति कहा है। चूणि में 'उत्तारो' के स्थान में 'निग्घाडो' पाठ है। इसका भावार्थ यही है'। श्लोक ४: ११. आचार में पराक्रम करने वाले ( आयारपरक्कमेण क ) : आचार में पराक्रम का अर्थ है- आचार को धारण करने का सामर्थ्य । आचार में जिनका पराक्रम होता है, उन्हें आचारपराक्रम कहा जाता है। यह साधु का विशेषण है । टीकाकार ने इसका अर्थ 'ज्ञानादि में प्रवर्तमान शक्ति वाला' किया है। १२. संवर में प्रभूत समाधि रखने वाले ( संवरसमाहिबहलेणं ख ) : संबर का अर्थ इन्द्रिय और मन का संवर है । समाधि का अर्थ समाधान, संवर-धर्म में अप्रकम्प या अनाकुल रहना है। बहुल अर्थात् प्रभूत । संवर में जिनकी समाधि बहुत होती है, वे संवर-समाधि-बहुल कहलाते हैं । १३. चर्या ( चरिया " ): चर्या का अर्थ मूल व उत्तरगुण रूप चरित्र है। १४. गुणों ( गुणा ): चरित्र की रक्षा के लिए जो भावनाएँ हैं, उन्हें गुण कहा जाता है। १५. नियमों की ( नियमा ग ): प्रतिमा आदि अभिग्रह नियम कहलाते हैं । आगमों में भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाओं का निरूपण मिलता है। १-(क) जि० ० ० ३६६ : तबिवरीयकारण य पृण पडिसोओ, तस्स निग्बाडो, जहा पडिलोमं गच्छतो ण पाडिज्जह पायाले णदीसोएण तहेव सद्दादिसु अमच्छिओ संसारपायाले ण पडइ । (ख) हा० टी० प० २७६ : 'उत्तारः' उत्तरणमुत्तारः, हेतौ फलोपचारात् यथाऽऽयुधूतं तन्दुलान्वति पर्जन्यः । २-(क) अ० चू० : आयारोमूलगुणा परक्कम बलं आयारधारणे सामत्थं आयारपरक्कमो जस्स अत्थि सो आयारपरक्कमवान नन लोवे कते आयारपरक्कमो साधुरेव । (ख) जि. चू० पृ० ३६९-७० : आयारपरक्कमेणं, आयारो-मूलगुणो परक्कमो-बलं, आयारधारणे समत्थं, आधारे परक्कमो जस्स अस्थि सो आयारपरक्कमवान्, ननु लोए कए आयारपरिक्कमो साधुरेव । ३- हा० टी०प० २७६ : 'आचारपराक्रमेणे' त्याचारे -ज्ञानादौ पराक्रमः--प्रवृत्ति बलं यस्य स तथाविध इति । ४-जि० चू० पृ. ३७० : संवरो इंदियसंवरो णोइंदियसंवरो य । ५-जि० चू०प० ३७० : संवरे समाहाणं तओ अवकप्पण बहु लाति-बहुं गिण्हइ, संवरे समाहि बहुं पडिवज्जइ, संवरसमाधिबहले, तेण संवरसमाधिबहुलेण । ६-हा० टी०प० २७६ : संवरे---इन्द्रियादिविषये समाधिः अनाकुलत्वं बहुलं—प्रभूतं यस्य सः । ७-जि० चू० पृ० ३७० : चरिया चरित्रामेव, मूलुत्तरगुणसमुदायो। -जि० चू० पृ० ३७० : गुणा तेसि सारक्खणनिमित्तं भावणाओ। &-जि० चू०१० ३७० : नियमा–पडिमादयो अभिग्गहविसेसा। १०-दशा० ७वी दशा। Jain Education Intemational Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवित्तचरिया (विविक्तचर्या) ५२७ द्वितीय चूलिका : श्लोक ५ टि० १६-२० श्लोक ५: १६. अनिकेतवास (अणिएयवासो): निकेत का अर्थ घर है । व्याख्याकारों के अनुसार भिशु को घर में नहीं, किन्तु उद्यान आदि एकान्त स्थान में रहना चाहिए। आगम-साहित्य में सामान्तः भिक्षुओं के उद्यान, शुन्य गृह आदि में रहने का वर्णन मिलता है। यह शब्द उसी स्थिति की ओर संकेत करता है । इसका तात्पर्य विविक्त-शय्या' से है। मनुस्मृति में मुनि को अनिकेत कहा है । 'अनिकेतवास' का अर्थ गृह-त्याग भी हो सकता है। चूणि और टीका में इसका अर्थ अनियतवास---सदा एक स्थान में न रहना भी किया है। १७. अज्ञात कुलों से भिक्षा लेना (अन्नायउछ ख ): पूर्व परिचित पित-पक्ष और पश्चात् परिचित श्वसुर-पक्ष से गृहीत न हो किन्तु अपरिचित कुलों से प्राप्त हो, उस भिक्षा को अज्ञातोञ्छ कहा जाता है । टीकाकार ने इसका अर्थ विशुद्ध अकरणों का ग्रहण किया है। १८. एकान्तवास (पइरिक्कया ख ) : इसका अर्थ है - एकान्त स्थान, जहाँ स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदि रहते हों वहाँ भिक्षु-भिक्षुणियों की साधना में विघ्न उपस्थित हो सकता है, इसलिए उन्हें विजन-स्थान में रहने की शिक्षा दी गई है। १६. उपकरणों की अल्पता ( अप्पोवही " ): अल्पोपधि का अर्थ उपकरणों की अल्पता या अक्रोध-भाव-ये दोनों हो सकते हैं । २०. विहार-चर्या ( विहारचरिया घ ) : विहार-चर्या का अर्थ वर्तन या जीवन-चर्या है । जिनदास चूणि और टीका में इसका अर्थ विहार—पाद-यात्रा की चर्या किया है । पर यह विहार-चर्या शब्द इस इलोक में उक्त समस्त चर्या का संग्राहक है, इसलिए अगस्त्य चूणि का अर्थ ही अधिक संगत लगता है। कुल विवरण में भी विहार का यही अर्थ मिलता है। १-जि० चू० पृ० ३७० : अणिएयवासोत्ति निकेतं---घरं तंमि ण वसियन्वं, उज्जाणाइवासिणा होयध्वं । २- म० स्मृ० अ० ६.४३ : अनग्निरनिकेत: स्यात् । ३–(क) अ० चू० : अणिययवासो वा जतो ण निच्चमेगस्थ वसियव्वं किन्तु विहरितव्वं । (ख) जि० चू० पृ० ३७० : अणियवासो वा अनिययवासो, निच्च एगते न वसियव्वं । (1) हा० टी०प० २८० : अनियतवासो मासकल्पादिना 'अनिकेतवासो वा' अगृहे उद्यानादी वासः । ४-- जि० चू० पृ० ३७० : पुवपच्छासंथवादीहिं ण उप्पाइयमिति भावओ, अन्नायं उछ । ५-हा० टी०प० २८० : 'अज्ञातोच्छं' विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम् । ६-(क) जि० चू० पृ०३७०: पइरिक्क विवित्तं भण्णइ, दवे जं विजणं भावे रागाइ विरहितं, सपक्खपरपक्खे माणवज्जियं वा, तभावा पइरिक्कयाओ। (ख) हा० टी०प० २८० : 'पइरिक्कया य' विजनकान्तसेविता च । ७--(क) अ० चू० : उपधाणमुपधि । तत्थ दव्व अप्पोपधी जं एगेण वत्थेण परिसित एवमादि । भावतो अप्पकोधादी धारणं सपक्खपरपक्खगतं । (ख) जि० चू० पृ० ३७० : पहाणमुवही जं एगवत्थपरिच्चाए एवमादि, भावओ अप्पं कोहादिवारणं सपक्खपरपक्खे गत। ८--अ० चू० : सव्वा वि एसा विहारचरिया इसिणं पसत्था-विहरण विहारो जं एव पवत्तियव्वं । एतस्स विहारस्स आचरणं विहारचरिया। E-(क) जि० चू० पृ० ३७१ : विहरणं विहारो, सो य मासकप्पाइ, तस्स विहारस्स चरणं विहारचरिया। (ख) हा० टी०५० २८० : 'विहारचर्या' विहरणस्थितिविहरणमर्यादा। १०-द्वा० कु० चतुर्थ विवरण : विहरणं विहारः---- सम्यक्समस्तयतिक्रियाकरणम् । Jain Education Intemational Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) द्वितीय चूलिका : श्लोक ६ टि० २१-२४ ५२८ श्लोक ६: २१. आकीर्ण (आइण्ण* ): वह भोज जहाँ बहुत भीड़ हो, आकीर्ण कहलाता है। भिक्षु आकीर्ण में भिक्षा लेने जाए तो वहाँ हाथ, पैर आदि के चोट आने की संभावना रहती है, इसलिए इसका निषेध है'। तुलना करिए ---आयारखुला १.३४ । २२. अवमान नामक भोज ( ओमाण क ): वह भोज, जहाँ गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति होने के कारण खाद्य कम हो जाये, अवमान कहलाता है । जहाँ परिगणित' लोगों के लिए भोजन बने वहाँ से भिक्षा लेने पर भोज कार अपने निमन्त्रित अतिथियों के लिए फिर से दूसरा भोजन बनाता है या भिक्षु के लिए दूसरा भोजन बनाता है या देता ही नहीं, इस प्रकार अनेक दोषों की संभावना से इसका निषेध है। तुलना करिए आयार 'धूला १.३ । २३. प्रायः दृष्ट-स्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण ( ओसन्नदीहाहडभत्तपाणे ख ): इसका अर्थ है प्रायः दृष्ट-स्थान से भक्त-पान लेना। इसकी मर्यादा यह है कि तीन धरों के अन्तर से लाया हुआ भक्त-पान हो, वह ले, उससे आगे का न ले । २४. भिक्षु संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा ले । दाता जो वस्तु दे रहा है उसोसे संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का यत्न करे ( संसट्ठकप्पेण चरेज्ज भिक्खू ग, तज्जायसंसट्ठ जई जएज्जा ५ ) : लिप्त हाथ या भाजन से आहार लेना 'संसृष्ट कल्प' कहलाता है । सचित्त वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना मुनि के लिए निषिद्ध है अतः वह तज्जात संसृष्ट' होना चाहिए । जात का अर्थ प्रकार है । जो एक ही प्रकार के होते हैं वे 'तज्जात' कहलाते हैं। स्थानाङ्ग वृत्ति के अनुसार 'तज्जात संसृष्ट' का अर्थ है--देय वस्तु के समान-जातीय वस्तु से लिप्त । सजीव वस्त से संमृष्ट हाथ और भाजन से लेना निषिद्ध है और पश्चात् कर्म-दोष टालने के लिए तज्जातीय वस्तु से असंसृष्ट हाथ और भाजन से लेना भी निषिद्ध है। इसके लिए देखिए दशवकालिक ५.१.३५ । १-जि० चू० पृ० ३७१ : 'आइण्ण' मिति अच्चत्थं आइन्नं, तं पुण रायकुलसंखडिमाइ, तत्थ महाजणविमद्दो पविसमाणस्स हत्थपादादिलूसणभाणभेदाई दोसा, उक्कट्ठगमणा इविये दायगस्स सोहेइत्ति। २ -- (क) जि० चू०पू० ३७१ : ओमाणविवज्जणं नाम अवम-ऊणं अवमाणं ओमो वा मोणा जत्थ संभवइ तं ओमाणं । (ख) हा० टी०प० २८०-१ : अवमानं --स्वपक्षपरपक्षप्राभृत्यजं लोकाबहुमानादि अवमाने अलाभाधाकर्मादिदोषात् । ३-(क) जि० चू० पृ० ३७१ : उस्सण्णसद्दो पायोवित्तीए वट्टइ, जहा -'देवा ओसण्णं सात वेवणं वेदेति । (ख) हा० टी० प० २८१। ४-(क) जि० चू०प० ३७१ : दिद्वाहडं जं जत्थ उवयोगो कीरइ, तिआइघरंतराओ परतो, णाणिसि (दि) द्वाभिहडकरणं, एयं ओसणं दिट्ठाहडभत्तपाणं गेण्हिज्जत्ति । (ख) हा० टी०प० २८१ : इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्धयति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः, 'भिक्खग्गाही एगस्थ कुणइ बीओ अ दोसुमुवओग' मिति वचनात् । ५–० चू० : तज्जाय संसट्ठमिति जात सद्दो प्रकारवाची, तज्जातं तधा प्रकारं जधा आमगोरसो आमस्स न गोरसस्स तज्जातो कुसणादि पुण अतज्जातं। ६-स्था० ५.१ ००: तज्जातेन देयद्रव्याविरोधिना यत्संसृष्टं हस्तादि। Jain Education Intemational Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवित्तचरिया ( विविक्तचर्या ) ५२६ द्वितीय चूलिका : श्लोक ७ टि० २५-२७ श्लोक ७: २५. मद्य और मांस का अभोजी (प्रमज्जमंसासि ) *: धूणिकारों ने यहाँ एक प्रश्न उपस्थित किया है -"पिण्डै षणा–अध्ययन (५.१.७३) में केवल बहु-अस्थि वाले मांस लेने का निषेध किया है और यहाँ मांस-भोजन का सर्वथा वर्जन किया है यह विरोध है ?" और इसका समाधान ऐसा किया है-"यह उत्सर्ग सूत्र है तथा वह कारणिक --- अपवाद सूत्र है। तात्पर्य यह है कि मुनि मांस न ले सामान्य विधि यही है किन्तु विशेष कारण की दशा में लेने को बाध्य हो तो परिशाटन-दोषयुक्त (देखें ५.१.७४) न ले'।" यह चूर्णिकारों का अभिमत है । टीकाकार ने यहाँ उसकी चर्चा नहीं की है । चूणिगत उल्लेखों से भी इतना स्पष्ट है कि बौद्धभिक्षुओं की भांति जैन-भिक्षुओं के लिए मांस भोजन सामान्यत: विहित नहीं किन्तु अत्यन्त निषिद्ध है । अपवाद विधि कब से हुई–यह अन्वेषणीय विषय है । आज क जैन-समाज का बहुमत इस अपवाद को मान्य करने के लिए प्रस्तुत नहीं है। २६. बार-बार विकृतियों को न खाने वाला ( अभिक्खणं निविगइं गया ख ): मद्य और मांस भी विकृति हैं। कुछ विकृति-पदार्थ भक्ष्य हैं और कुछ अभक्ष्य । पूर्णियों के अनुसार भिक्षु के लिए मद्य-मांस का जैसे अत्यन्त निषेध है वैसे दूध-दही आदि विकृतियों का अत्यन्त निषेध नहीं है। फिर भी प्रतिदिन विकृति खाना उचित नहीं होता, इसलिए भिक्षु बार-बार निर्विकृतिक (विकृति रहित रूखा) भोजन करने वाले होते हैं। घुणियों में पाठान्तर का उल्लेख हैं – 'केयिपढंति'-अभिक्खणिब्वितिय जोगया य (अ० पू०) इसका अर्थ यही है कि भिक्षु को बार-बार निर्विकृतिक-योग स्वीकार करना चाहिए। २७. बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला ( अभिक्खणं काउस्सग्गकारी ग ) : गमनागमन के पश्चात् मुनि ईर्यापथिक ( प्रतिक्रमण-कायोत्सर्ग)५ किए बिना कुछ भी न करे—यह टीका का आशय है । पणियों के अनुसार कायोत्सर्ग में स्थित मुनि के कर्म-क्षय होता है, इसलिए उसे गमनागमन, विहार आदि के पश्चात् बार-बार कायोत्सर्ग करना चाहिए। मिलाएं-१०.१३ । १-(क) अ० चू० : ननुपिडेसणाए भणितं-वहुअट्ठितं पोग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटगं (५.१) इति तत्थ बहुअद्वितं निसिद्धमिह सव्वहा । विरुद्धमिह परिहरणं, सेइमं उस्सग्ग सुत्तं । तं कारणीयं जताकारणे गहणं तदा परिसाडी परिहरणत्थं सुद्ध घेतव्वं - ण बहुट्टितमिति । (ख) जि० चू० पृ० ३७२ : अमज्जमंसासी भवेज्जा एवमादि, आह-णणु पिडेसणाए भणियं 'बहुअठ्ठियं पोग्गल अणिमिसं वा बहकंटक', आयरिओ आह-तत्थ बहुअट्ठियं णिसिद्धमितिऽत्थ सव्वं णिसिद्ध, इमं उस्सगं सुत्त, तं तु कारणोयं, जदा कारणे गहणं तदा पडिसाडिपरिहरणत्थं सुत्त घेत्तव्वं न बहुपडि (अट्ठि) यमिति । २- प्रश्न संवरद्वार ४ भावना ५ । ३---(क) अ०० : अभिक्खण मिति पुणो पुणो निम्विइयं करणीयं । ण जधामज्जमंसाणं अच्चंत पडिसेधो तथा विगतीणं । (ख) जि० चू०प्र० ३७२ : 'अभिक्खणं निविगतं गया ये' ति अप्पो कालविसेसो अभिक्खणमिति, अभिक्खणणिब्विययं करणीयं-जहा मज्जमंसाणं अच्चंतपडिसेधो (न) तहा बीयाणं । ४.. जि. ० ५० ३७२ : केई पढंति -- 'अभिक्खणं णिवितीया जोगो पडिवज्जियम्वो' इति । ५-देखिए ५.१.८८ में 'इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे' का टिप्पण । ६ हा० टी०प० २८१ : 'कायोत्सर्गकारी भवेत्' ईर्यापथप्रतिक्रमणकृत्वा न किञ्चिदन्यत् कुर्याद, तदशुद्धतापत्तेः । ७-(क) अ० चू० : काउसग्गेसुतिस्स कम्मनिज्जराभवतीति गमणागमणविहारादिसु अभिक्खणं काउसग्गकारिणा भवितव्वं । (ख) जि. चु०प० ३७२ : काउसग्गे ठियस्स कम्मनिज्जरा भवइ, गमणागमणविहाराईसु अभिक्खणं काउसग्गे 'सऊसियं नीससियं' पढियव्वा वाया। Jain Education Intemational Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ५३० द्वितीय चूलिका : श्लोक ६-११ टि० २८-३२ २८. स्वाध्याय के लिए विहित तपस्या में ( सज्झायजोगे ५ ): स्वाध्याय के लिए योग-वहन (आचामाम्ल आदि तपोनुष्ठान) करने की एक विशेष विधि है । आगम अध्ययन के समय मुनि इस तपोयोग को वहन करते हैं। इसकी विशेष जानकारी के लिए देखिए-विधिप्रपा । श्लोक ६: २६. साधु गृहस्थ का वैयापृत्य न करे ( गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा क ): गाह-वयापत्य--गृहस्थ का आदर करना, प्रीतिजनक उपकार करना—ये असंयम का अनुमोदन करने वाले हैं, इसलिए मुनि इनका आचरण न करे। देखिए-३.६ का टिप्पण ३४ । ३०. संक्लेश रहित ( असंकिलि?हिंग ) : गृहि-वयापृत्य आदि राग-द्वेष के द्वारा जिसका मन बाधित होता है, उसे संक्लिष्ट कहा जाता है। असं क्लिष्ट इसका प्रतिपक्ष है। श्लोक १०: ३१. श्लोक १०: एकाकी-विहार प्रत्येक मुनि के लिए विहित नहीं है । जिसका ज्ञान समृद्ध होता है, शारीरिक संहनन सुदृढ़ होता है, वह आचार्य की अनुमति पाकर ही एकल-विहार प्रतिमा स्वीकार कर सकता है। इस श्लोक में आपवादिक स्थिति की चर्चा है। इसका आशय है कि क्वचित् संयम-निष्ठ साधुओं का योग प्राप्त न हो तो संयमहीन के साथ न रहे, भले कदाचित् अकेला रहने की स्थिति आ जाए। जो मुनि रस-लोलुप हो आचार्य के अनुशासन की अवहेलना कर, संयम-विमुख बन अकेले हो जाते हैं और इस सूत्र के आशय को प्रमाण रूप में उपस्थित करते हैं, वह अभीष्ट नहीं है। श्लोक ११: ३२. काल ( संवच्छरंक): मुनि कारण के बिना एक स्थान में नहीं रह सकता। उसके लिए अनियतवास को प्रशस्त कहा गया है। विहार को दृष्टि से वर्षाकाल को दो भागों में बाँटा गया है-वर्षाकाल और ऋतुबद्ध-काल । वर्षाकाल में मुनि एक स्थान में चार मास रह सकता है और ऋतुबद्ध-काल में एक मास । चातुर्मास का काल मुनि के एक स्थान में रहने का उत्कृष्ट काल है, इसलिए यहाँ उसे संवत्सर कहा १-(क) जि. चू० पृ० ३७२ : वायणादि बन्झो सज्जाओ तस्स जं विहाणं आयंबिलाइजोगो तंमि । (ख) हा० टी०५० २८१ : 'स्वाध्याययोगे' वाचनाद्य पचारव्यापार आचामाम्लादौ। २-जि० चू० पृ० ३७३ : वेयावडियं नाम तथाऽऽदरकरणं, तेसि वा पोलिजणणं, उपकारक असंजमाणुमोदणं ण कुज्जा । ३-(क) जि० चू० पृ. ३७३ : गिहिवयावडियादिरागदोसविबाहितपरिणामा संकिलिट्ठा, तहा भूते परिहरिऊण असंकिलिटेहि वसेज्जा, संपरिहारी संवसेज्जा। (ख) हा० टी०प० २८२ : 'असंक्लिप्टः' गहिवंयावत्यकरणसंक्लेशरहितः । ४.-- बृहत् भा० १.३६ : कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंत गिम्हासु चारए । ५-दश० चू० २.५ अ० चू० : जतो ण णिच्चमेगत्थ वसियव्वं किंतु विहरितव्वं । Jain Education Intemational Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवित्तचरिया (विविक्तचर्या) ५३१ द्वितीय चूलिका : श्लोक १२-१६ टि० ३३-३४ गया है । जिनदास महत्त र और हरिभद्रसूरि का अभिमत भी यही है। बुणिकार 'अवि' को सम्भावनार्थक मानते हैं। इनके अनुसार कारण विशेष की स्थिति में उत्कृष्ट-वास मर्यादा से अधिक भी रहा जा सकता है ---'अपि' शब्द का यह अर्थ है । हरिभद्र सूरि 'अपि' शब्द के द्वारा एक मास का सूचन करते हैं। आचाराङ्ग में ऋतु-बद्ध और वर्षाकाल के कल्प का उल्लेख है। किन्तु वर्षाकाल और शेषकाल में एक जगह रहने का उत्कृष्ट कल्प (मर्यादा) कितना है, इसका उल्लेख वहाँ नहीं है। वर्षावास का परम-प्रमाण चार मास का काल है और शेषकाल का परम-प्रमाण एक मास का है। यहाँ बतलाया गया है कि जहां उत्कृष्ट काल का वास किया हो वहाँ दूसरी बार वास नहीं करना चाहिए और तीसरी बार भी । तीसरी बार का यहाँ स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं किन्तु यहाँ चकार के द्वारा वह प्रतिपादित हुआ है, ऐमा चूर्णिकार का अभिमत है । तात्पर्य यह है कि जहाँ मुनि एक मास रहे वहाँ दो मास अन्यत्र बिताए बिना न रहे । इसी प्रकार जहाँ चातुर्मास करे वहाँ दो चातुर्मास अन्यत्र किए बिना चातुर्मास न करे । श्लोक १२: ३३. ( कि मे क ) : यहाँ 'मे' पद में तृतीया के स्थान में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग है। श्लोक १६: ३४. आत्मा की सातत रक्षा करनी चाहिए ( अप्पा खलु सययं रक्खियम्वो क): इस चरण में कहा गया है कि आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। कुछ लोग देह-रक्षा को मुख्य मानते हैं। उनकी धारणा ह कि आत्मा को गँवाकर भी शरीर की रक्षा करनी चाहिए । शरीर आत्म-साधना करने का साधन है। किन्तु यहाँ इस मत का खण्डन किया गया है और आत्म-रक्षा को सर्वोपरि माना गया है। महाव्रत के ग्रहण काल से मृत्यु-पर्यन्त आत्म-रक्षा में लगे रहना चाहिए। आत्मा मरती नहीं, अमर है फिर उसकी रक्षा का विधान क्यों ? यह प्रश्न हो सकता है, किन्तु इसका उत्तर भी स्पष्ट है । यहाँ आत्मा से संयमात्मा [संयम-जीवन] का ग्रहण अभिप्रेत है । संयमात्मा की रक्षा करनी चाहिए । श्रमण के लिए कहा भी गया है कि वह संयम से जीता है। संयमात्मा की रक्षा कैसे हो? इस प्रश्न के सम्बन्ध में बताया गया है-इन्द्रियों को सुसमाहित करने से उनकी विषयोन्पुखी या बहिर्मुखी वृत्ति को रोकने से आत्म-रक्षा होती है। १--अ० चू० : संवच्छर इति कालपरिमाणं । तं पुण णेह वारसमासिगंसंवज्झति किंतु वरिसारत चातुमासितं । स एव जेटोग्गहो। २-(क) अ० चू० : अपि सद्दो कारण विसेसं दरिसयति । (ख) जि० चू० पृ० ३७४ : अविसद्दो संभावणे, कारणे अच्छितव्वंति एवं संभावयति । ३-हा० टी०प० २८३ : अपिशब्दान्मासमपि । ४--बृहत् ० भा० १.३६ । ५-बृहत् भा०१.६.७८ । ६-अ० चू० : बितियं च वास–बितियं ततो अणंतरं च सद्देण ततियमवि जतो भणितं तदुगुण, दुगणेणं अपरिहरित्ता ण वट्टति । बितियं ततियं च परिहरिऊण चउत्थे होज्जा। ७ - हा० टी० प० २८३ : किं मे कृत' मिति छांदसत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी। ८-दश० चू० २.१५ : सो जीवइ संजमजीविएण । Jain Education Intemational Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. टिप्पण-अनुक्रमणिका २. पदानुक्रमणिका ३. सूक्त और सुभाषित ४. प्रयुक्त ग्रंथ एवं संकेत-सूची Jain Education Intemational Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत शब्दादि अइभूमि न गच्छेज्जा (५।१।२४) अवज्जा (४०सू०११) अंगपच्चंग संठारणं (८।५७) अंडया (४)सू०६) अविलं (५।१।१७) अकवियं कप्पियं (५।१।२७) अकप्पियं न इच्छेज्जा (६।४७ ) अकालं च विवज्जेत्ता (५।२।४) अकिंचणे (८।६३) अको उहल्ले ( |३|१०) अक्कुहए (६।३।१०) अक्कोपहार तज्जणाओ (१०/११) अक्खोडेज्जा' ''पक्खोडेज्जा ( ४ | सू०१६ ) अखंड फुडिया (६।६ ) अर्गाणि (४०२०) अगुणाणं (५।२।४४) अती भरस्स (६५८ ) अग्गबीया (४०सू०८) अचक्कियं ( ७१४३) अचित्तं (५1१1८१) अचितं (७।४३) अचित्कुलं (५।१।१७) अच्चविलं (५।१।७८) अच्च (४० सू०२०) अच्छण जोपण (८३) अच्छन्दा (२/२) अज्जपयं (१०।२०) अज्झप्प (१०/१५) अज्भोयर (५।१।५५) अट्ठ (८४२) अट्ठावए ( ३/४ ) अट्ठियं कंटओ (५।१।८४) पृष्ठ संख्या २२१ १३८ ४१८ १२८ २५५ २२४ ३२२ २७४ ४२१ ४५६ ४५८ ४६२ १५२ ३०७ १५२ २८८ ३२६ १२६ ३६३ २४८ ३६४ २१५ २४७ १५२ ३८३ २४ ४६६ ४६६ २३७ १. टिप्पण-अनुक्रमणिका २५० टिप्पणी संख्या १०१ ४७ १६१ २२ २१८ ११५ ६८ ८ १८३ २३ १६ ४० ८७ १२ ८६ ६७ ८५ १६ ७० १६६ ७१ ७७ १६५ ६२ ५ ६ ७० ५६ १५५ ४०७. ११६ ६४. २३ २०५ आधारभूत शब्दादि अयप्पा भविस्ससि ( २राह ) अणज्जो ( वृ०१ | श्लो०१) ari (३१) अणाउले (५।१।१३) अणा (५।१।१०) अणायारं (८/३२) अणिएवासो (०२।५) अणिभिज्झियं (चू०१।१४) अणिडे, सचिते आमए ( ३।७) अणसिया (१1७) अणुं वा थूलं वा ( ४ सू० १३ ) अदिसां (६।३३) अन्न (५|१|१३) अन्नवेत्त (५।१।८३) अगुफासो (६।१८) अग्गो (५/१२) अणुसोओ संसारो (०२/३ ) असोपट्टिए (०२२) अरणेगजीवा पुढोसत्ता (४०४) अग साहु ( ५/२०४३) अगे बहवे तसा पाणा ( ४ासू०६) अतितिणे (८।२९) अत्तगवेसिस्स ( ८ ५६ ) अत्तवं (८४८) अत्तसंपग्ाहिए (६/४/०४ ) अत्तसमे मन्तेज्ज (१०१५ ) अत्तट्टयाए (४०सू०१७) अत्थंग मि (२८) अत्थविणिच्छयं (८।४३) अत्थियं (५।१।७३) अत्थहु (१०/७) अदिन्नादाणाओ (४/०१३ ) पृष्ठ संख्या ३५ ५१३ ५० २०६ २०६ ४०० ५२७ ५१६ ८५ १३ १४२ ३२० २०८ २४६ ३१२ १९८ ५.२५ ५२४ १२५ २८८ १२७ ३६८ ४१६ ४१० ४६६ ४८७ १४६ ३६७ ४०८ २४५ ४८६ १४२ टिप्पणी संख्या ३८ १६ ७ ५८ ४३ ६२ १६ ३२ ३८ २१ ५५ ५६ ५५ २०२ ३३ १३ ६ ४ १५ ६४ २१ ८० १५७ १३० १० २० ६१ ७६ ११६ १८६ - २७ 22/185 ५२ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) पृष्ठ टिप्पणी संख्या पृष्ठ टिप्पणी संख्या संख्या संख्या ४५६ २१ ५२६ ४६४ ४८ ५२६ ४८५ ४७२ ४६१ ३४७ ४१४ २५४ ३५४ १४५ २१४ २० ४६६ १२४ ४३१ ३२२ १२० પૂર્વ १५७ ३१३ १६४ ४२१ १४२ 6 UK ४५६ ५२७ ४६५ MY W urd X २५४ ४५८ आधारभूत शब्दादि अदीणवित्ति (।३।१०) अधम्मो (चू०१।श्लो०१३) अनियाणे (१०।१३) अनिलेण (१०१३) अन्नं (७।४) अन्नट्ठ-पगडं (८।५१) अन्नट्ठ-पउत्तं (५।१।६७) अन्नत्थ (३।४६) अन्नत्थ सत्थपरिणएणं (४सू०४) अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए (४।सू०२३) अन्नयरामवि (६।१८) अन्नाणी किं काही (४।१०) अन्नायउञ्छ (6।३।४) 3 (चू०२।५) अन्नायउञ्छं पुलनिप्पुलाए (१०।१६) अपरिसाडयं (५।१४९६) अपिसुणे (३।३।१०) अपुच्छिओ न भासेज्जा (८।४६) अप्पं पि बहु फासुयं (५।१।६६) अप्पं ... ''बहु (६।१३) अप्पं वा बहु वा (४।सू०१३) अप्पणा नावपंगुरे (५११।१८) अप्पणो वा कार्य बाहिरं वा वि पुग्गलं (४।सू०२१) अप्पतेयं (चू०१।श्लो०१२) अप्पभासी (८।२६) अप्परए (8।४७) अप्पहिठे (५:१०१३) अप्पा खलु सययं रक्खियब्वो (चू०२।१६) अप्पारणं (६।६७) अप्पाणं वोसिरामि (४सू०१०) अप्पिच्छया (६।३।५) अप्पिच्छे (८।२५) अप्पोवही (चू०२१५) अबोहियं (६।५६) अब्भपुड,बगमे (८।६३) २१३ २० १२५ २३० आधारभूत शब्दादि अभिक्खणं काउस्सग्गकारी (चू०२१७) अभिक्खणं निविगई गया (चू०२१७) अभिगम (६।४।६) अभिगमकुसले (६।३।१५) अभिगिज्झ (७.१७) अभिरामयंति (६।४:सू०३) अभिहडाणि (३२) अभूइभावो (६।१।१) अभोज्जाइं (६।४६) अमज्जमंसासि (चू०२१७) अममे (८.६३) अमुच्छिओ (५।१।१) अमूढे (१०७) अमोहदं सिणो (६।६७) अयंपिरो (८।२३) अयतनापूर्वक चलनेवाला... (४श्लो०१ से६) अयसो (चू०१॥श्लो०१३) अयावयट्ठा (५।२।२) अरई (८।२७) अरसं (५।११६८) अलं परेसिं (८।६१) अलायं (४ सू०२०) अलोल (१०।१७) अलोलुए (६।३।१०) अल्लीणगुत्तो (८।४४) अवि (८।५५) . (।२।१८) अविहेडए (१०।१०) अव्वक्खित्तेण चेयसा (५।१।२) अव्वहिरो (८।२७) असंकिलिजेंहिं (चू०२।६) असंजमकरि नच्चा (५।१।२६) असंबद्ध (८।२४) असंभंतो (५।१।१) असंसत्तं पलोएज्जा (५।१।२३) असं विभागी (६।२।२२) ४०६ २५८ ५१६ २७४ XMMMM WWWWWXW Wxxc0WGG . NROMG G M ३१० २१ १४२ २५६ २१६ ४२० १०८ 9 s २५ १५५ ५१५ ३६८ ४७३ २०६ < ४६१ ३६७ १०४ ४० Www WWmm ४५७ ३६५ ३६४ ५२७ १६ १६६ ३२५ २२० ४४८ ४२१ Jain Education Intemational Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ : टिप्पण-अनुक्रमणिका ५३७ पष्ठ टिप्पणी संख्या आधारभूत शब्दादि पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या संख्या १३६ ४७२ २५४ ४१२ १७४ २१६ २०६ ३१८ ५२८ आधारभूत शब्दादि असंसट्टेण संसट्टेण (५।११३५-३६) २३१ असंसठे संसठे चेव बोधव्वे (११॥३४) २३० असई वोसट्टचत्तदेहे (१०११३) ४६३ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा (४ासू०१६) १४४ असिणाणमहिट्ठगा (६।६२) अहं च भोयरायस्स (२१८) अहागडेसु (१।४) १२ अहिंसा (११) अहिज्जगं (८:४६) अहिज्जिउं (४ासू०१) १२२ अहिट्ठए (८।६१) ४२० " (६४.सू०४) ४७० अहुणाधोयं (५।१७५) अहुणोवलित्तं उल्लं (५।१।२१) अहो (५।१।६२) २५४ अहो निच्चं तवोकम्मं (६।२२) आइण्ण (चू० २।६) आउरस्सरणाणि (३६) आउस (४.सू०१) आगमसंपन्नं (६१) ३०५ आजीववित्तिया (३६) आगाए (१०।१) ४८३ आमुसेज्जा "संफुसेज्जा (४।सू०१६) १५१ आयई (चू०१।श्लो०१) ५१३ आयं उवायं (चू०१:श्लो०१८) आयंके (चू०१।सू०१) आययट्ठिए (६।४ सू०४) ४७० आययट्ठी (५।२।३४) २८५ आयरियउ वझायाणं (६।२।१२) ४४३ आयरियसम्मए (८।६०) ४१६ आयाणं (५।१।२६) २२३ आयारगोयरो (६।२) आयारपरक्कमेण (च०२।४), आयारप्परिणहि (८।१) ३८३ आयारभावदोसन्न (७।१३) ३५२ आयारमट्ठा (३३।२) ४५४ आयारो (६।६०) ३२७ •३२२ ११६ आयावयंति'पडिसंलीणा (३।१२) आयावयाहि (२१५) आयावेज्जा""पयावेज्जा (४ासू०१६) आरह तेहि हेऊ हि (३।४।सू०७) आरायइ (४ासू०४) ४६८ आलिहेज्जा (४।सू०१८) १४६ आलोए भायणे (५।१।६६) आलोयं (५।१।१५) आवियइ (१२) आवीलेज्जा पवीलेज्जा (४ासू०१६) १५१ आसंदी (३.५) आसणं (८।१७) आसवो (चू०२।३) असायण (६।११२) आसालएसु (६।५३) आसीविसो (६।११५) ३३२ आसुरत्तं (८।२५) ३६५ आहारमइयं (८।२८) ३९७ आहारमाईणि ( ६।४६) आहियग्गी (६।१।११) आहुई (६।१।११) इंगालं (४सू०२०) १५१ इंगालं"रासिं (५।१७) इंदियाणि जहाभागं (५।१।१३) इच्चेव (२।४) इच्चेसि (४।सू०१०) इट्टालं (५।१।६५) इड्डि (१०११७) इत्थंथं (।४।७) इत्थीओ यावि संकरण (६५।८) ३२६ इत्थीपसुविवज्जियं (८1५१) ४१४ इत्थीविग्गहओ (८।५३) इसिरणा (६।४६) इह (६।४।सू०१) इहलोगट्ठयाए परलोगट्ठयाए (६४ासू०६) ४७१ उईरन्ति (६।३८) उउप्पसन्ने (६।६८) उंछ (८।२३) ३६३ ४३३ २०४ १७ ५१२ १६६ ११२ ४१५ ३२२ ३०७ ५२६ ३२१ ८८ Jain Education Intemational Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) पृष्ठ संख्या ४६७ टिप्पणी संख्या ६३ आधारभूत शब्दादि पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या .४४२ १५१ २२६ ४६१ २४६ १६० cी GoI WG PM ३७६ ३५९ १७३ ३०५ ४६६ २४० १५३ १६० ४०. ९०1995 0 ३८६ १७ आधारभूत शब्दादि उंछ (१०.१७) उजेज्जा (४ासू०२०) उक्क (४ सू०२०) उक्कटं (५।१:३४) उच्चारभूमि (८।१७) उच्चावयं पाणं (५११७५) उच्छूखंडं ।५।२।१८) उच्छुखंडे (३१७) उच्छोलणापहोइस्स (४।२६) उज्जागम्मि (६१) उज्जालिया (५१.६३) उज्जालेज्जा (४.सू०२०) उज्जुदंसिणो (३।११) उज्जुमइ (४।२७) उत्तिंग (५।११५६) उत्तिग (८.११) उत्तिंग (८।१५) उदउल्लं अप्पणो कार्य (८७) उदउल्लं बीयसंसत्त (६।२४) उदओल्लं (४सू०१६) उदओल्ले ससिगिद्ध (५।१।३३) उदगं (४।सू०१६) उदगदोरिगणं (७१२७) उदगम्मि (८.११) उद्देसियं (३।२) उद्देसियं (१०।४) उप्पन्नदुक्खेणं (चूसू०१) उप्पल (५।२।१४) उप्पिलोदगा (७१२६) उप्फुल्ल न विणिज्झाए (५।१।२३) उब्भिया (४।०६) उन्भेइम (६।१७) उ भयं (४।११) उम्मीसं (५२११५५) उयरे दंते (८।२६) उरु समासे ज्जा (८।४५) उल्लं (५।१।६८) उवचिए (७२३) उवयारं (६।२।२०) orrm mmm wrom m Mxxxx HGm GG ० ० GK ३४७ उववज्झा (६।२।५) उववाइया (४.सू०६) १२६ उवसंते (१०।१०) उवसंपज्जित्ताणं विहरामि (४।सू०१७) १४६ उसमेण (८१३८) ४०२ उवसमेण हणे कोह (८।३८) ४०२ . उवस्सए (७।२६) उवहिणामवि (६।२।१८) उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध (१०।१६) उसिणोदगं तत्तफासुयं (८६) उस्सक्किया (५।१।६३) उस्सिचिया (५।१।६३) ऊसे (सू०३३) एगंत (४।सू०२३) एर्गतं (५।१।११) एगभत्तं च भोयणं (६।२२) एमए (१।३) एयं (७४) एयमट्ठ (६१५२) ३२४ एलगं (५।२२) २१६ एलमूययं (५।२।१४८) २८६ एवं चिट्ठइ सव्वसंजए (४.१०) १६४ एसणे रया (१३) एसमाधाओ (६।३४) ३२० ओग्गहं सि अजाइया (५।१।१८) २१६ ओमाण (चू० २१६) ओयारिया (५।११६३) ओवत्तिया(५।१।६३) ओवायं (५।१।४) ओवायवं (६।३३३) ओसं (४।सू०१६) ओसक्किया (५।१।६३) ओसन्नदिहाहडभत्तपारणे (चु० २१६) ओसहीओ (७:३४) ओहाण (चु० ११) ओहारिणि (६:३।६) ओहारिणी (७१५४) कते पिए (२।३) २५ . २२८ ७६ १८ ४८७ ५१० २७७ २४१ ३६२ १४१ २२१ १२६ १४७ 20xxx www ३२८ ४०६ २५७ १२४ २२६ ३० ३० ३५५ ४४७ Jain Education Intemational Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ : टिप्पण-अनुक्रमणिका ५३६ संख्या पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या संख्या ८५ ४० ३८६ ३४ ४३१ ३२३ ३२६ २२६ २१६ १२ ४५७ ३६६ ܗܘܐ ५१३ ३६३ ४६६ १७४ ४६७ १५१ २०८ ८० १४५ २४३ २१७ २८३ ४३ २१७ आधारभूत शब्दादि केदेमूले (३७) कंबलं (८।१६) कंसेसु (६।५०) कक्कं (६।६३) कडुयं (५।१।६७) कण्णसरे (६।३१६) कण्णसोक्खेहिं (८।२६) कब्बडे (चू०१५) कम्महेउयं (७।४२) कम्मुणा (४।२६) कयविक्कय .. विरए (१०।१६) करगं (४सू०१६) कलह (५।१।१२) कल्लाणं (४।११) कवाडं नो पणोल्लज्जा (५।१।१८) कविट्ठ (५।२।२३) कसायं (५।१।९७) कसाया (८।३६) कसिणा (८।३६) कहं च न पबंधेज्जा (५।२।८) कहं नु कुज्जा सामण्णं (२।१) कारण (१०।१४) कामे (२१) कायतिज्ज (७।३८) कारणमुप्पन्ने (५।२।३) काल (६।२।२०) कालमासिणी (५।११४०) काले कालं समायरे (५।२।४) कासवनालियं (५।२।२१) कासवेणं (४ासू०१) कि मे (चू०२।१३) किं वा नाहिइ छेय पावगं (४।१०) किच्चं कज्ज (७।३६) किच्चा (श२।४७) किच्चारणं (६।२।१६) कित्तिवण्णसद्दसिलोग (३।४सू०६) किलिंचेण (४।सू०१८) किविणं (५।२।१०) २५५ ४०३ ३०६ आधारभूत शब्दादि संख्या कीयगडं (३।२) कीयस्स (३१) कुक्कुस (५।१।३३) कुण्डमोएसु (६।५०) ३२३ कुमुयं वा (५।२।१४) २७७ कुम्मास (५।१।६८) २५८ कुम्मो व्व अल्लीरणपलीणगुत्तो (८-४०) ४०५ कुलं उच्चावयं (५।१।१४) कुलस्स भूमि जाणित्ता (५।१०२४) २२१ कुले जाया अगन्धणे (२।६) कुसीललिंग (१०।२०) कुसीले (१०।१८) ४९८ कोमुइ (६।१।१५) ४३४ कोलचुण्णाई (५।१७१) कोहा (६।११) ३०६ कोहा वा लोहा वा (४ासू०१२) १४१ खत्तिया (६२) खलु (३।४सू०१) ४६८ खवित्ता पुवकम्माइं संजमेण तवेण य (३।१५) १७ खाणु (५।१।४) खेमं (७।५१) गई ६।२।१७) गंडिया (७।२८) गंभीरविजया (६।५५) गच्छामो (७६) गन्धमल्ले (३२) गहरणेसु (८।११) गामकंटए (१०।११) गामे वा नगरे वा रण्णे वा (४।सू०१३) गायस्सुवट्टणाणि (३५) गायाभंग (३६) गिहतरनिसेज्जा (३।६) ७६ गिहवईणं (५।१।१६) २१२ गिहिजोगं (८।२१) ३६२ गिहिजोगं (१०१६) ४८८ गिहिणो वेयावडियं (३६) ७८ गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा (चू०२।६) ५३० ४०२ १०४ २७६ 9 २१ ४६४ ४६ २२ ४ ४ . mmmmm ४ . . . ३६२ २७४ ४४६ २३३ २७५ २८० १२० 5 X ur mr 5 6 १४३ 7 १६५ ३६२ २८६ ४४६ ४७१ १४६ २७६ Jain Education Intemational Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत शब्दादि गिमित्ते ( ३३ ) गिहिवास ( १ | सू० १ ) गिहिसंथवं न कुज्जा साहूहि संथवं (५२) गुणा (०२१४ ) गुरुओवघाइणी (७।११) गेरु (५।१।३४) गोच्छसि (४।०२३) गोरग्गगओ ( ५।११२ ) गोरहग (७/२४) घट्टेज्जा (४|०१८ ) घट्टेज्जा (४)सू०२०) घसासु (६०६१) घोरं (६।१५) च (६३६) चक्कायावगए ( |३ | १४ ) चंगवेरे (७/२८ ) चंदिमा (६६८ ) चंदिमा (८६३) चरिया (०२१४ ) समरधम्मम्मि (८|४२ ) चालं पिट्ठ (५२२२) चित्तभित्ति (८।५४) चित्तमंत (४०४) चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा (४/०१३) चित्तमंतमचित्तं ( ६।१३) चित्तसमाहिओ (१०११ ) चित्तं (५।१।१७ ) चेलकण्णेण (४|सू०२२) छंद (धारा२०) छंदमाराहय ( 1३1९ ) छंदिय (१०१९) छत्तस्य धारणाए (३४) छन्नंति ( ६ ५१ ) छवी इ ( ७१३४) छ संजया (३।११) Jain Education Intemational पृष्ठ संख्या ६० ५१२ ४१५ ५२६ ३५१ २२८ १५७ १६७ ३५६ १४६ १५३ ३२८ ३१० ३२१ ४६१ ३५८ ३३१ ४२१ ५२६ ४०७ २८१ ४१६ १२४ १४२ ३१० ४८४ २१५ १५.५ ४४७ ४५४ ४६० ६६ ३२३ ३६० ६४ ५४० टिप्पणी संख्या १७ ८ १४६ १४ १६ १३० ११६ ७ ३४ ७४ हैद ६१ २३ ६२ २६ ४५ १०७ १८० १३ ११३ ३६ १५३ १४ ५६ २० ५ ७८ १०७ २६ १ ३२ २५ ७३ ५६ ५२ आधारभूत शब्दादि छाया (२७) छिन्नेसु (४०२२) छिवाड (५।२।२० ) जगनिस्सिए (८।२४) जढो (६६०) जयं ( ५1१1८१ ) जयं चरे (४८) जयं चिट्ठे (४८) जयं चिट्ठे ( ८1१९ ) जयं भासतो (४८) जयं भुजतो (४८) जयं सए (४८) जयमासे (४८) जयमेव परक्कमे (५।१।६ ) जराउया ( ४ सू० ) जल्लियं ( ८1१८) जवण्या (६|३|४) जसं (५।२।३६) जसोकामी (२७) जाइत्ता (८५) जाइप (६१४ ) जाइपहाओ (१०।१४) जाइमरगाओ (६२४/७ ) जाए ( ८1६०) जासु (४/०२२) जाणमजा वा ( ८1३१) जाय (६।२२) दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) पृष्ठ टिप्पणी संख्या संख्या बुद्ध हाइना (७२) जायतेयं (६॥३२) जालं (४/०२०) जावज्जीवाए (४|०१०) जिणमयनिउ ( |३|१५ ) जिरवण (६|४|७) जिणसास (८।२५) जीवियपज्जवेण (चू०१।१६ ) जुगमाय (ए... महिं (५।१।३ ) ४४२ १५५ २८० ३६४ ३२७ २४८ १६१ १६१ ३६१ १६२ १६२ १६२ १६१ २०३ १२८ ३६१ ४५५ २८६ ३२ ३८५ ४३२ ४६५ ४७३ ४१६ १५५ ४०० ३१७ ३४६ ३१६ १५१ १३१ ४६१ ४७२ ३६५ ५१६ १६६ ७ १११ ३४ ६० ८६ १६७ १३२ १३३ ४५ १३७ १३६ १३५ १३४ २८ २४ ४३ ६ ५६ ३२ १२ १२ ५१ २८ १६६ ११० ६० ४५ ३ ५२ 1 ६३ ३३ ३१ २३ ६४ ३४ १५. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ : टिप्पण-अनुक्रमणिका पृष्ठ आधारभूत शब्दादि टिप्पणी संख्या शाधारभूत शब्दादि पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या संख्या २०४ ४०७ २०८ ११५ ५२ ___३८ ३७ २८१ १३२ जुतो (८।४२) जुद्ध (५।१।१२) जुवं गवे (७।२५) जोग (८।५०) जोगसा (८।१७) जो तं जीवियकारणा (२१७) जो सब जीवों को आत्मवान् मानता है ३५७ ४१३ ३४ १४१ २६० ५२४ ३६० ___३२ M (४६) १३८ १६२ ३५९ ४४५ ४६८ ४५४ १२७ २७६ ३८७ १५७ ११७ ४० २८२ ८२ टालाई (७।३२) ठाणं (६।२।१७) ठियप्पा (१०।१७) डहरा (६३३) रण य रूवेसु मणं करे (८।१६) रणे उणियाणि (३।२।१३) तण (सू०८) तणगस्स (५।२०१६) तणरुक्खं (८।१०) तत्तनिव्वुडं (श२।२२) तत्तानिव्वुडभोइत्त (३६) तत्थेव (५।१।२५) तमेव (८।६०) तम्हा (७६) तरुणियं (५।२।२०) तवतेणे "भावतेणे (५।२।४६) तवे (१०।१४) तवो (११) तसं वा थावरं वा (४ासू०११) तस्स (४।सू०१०) तहाभूयं (८७) ताइणं (३६१) तारिसं (५।१।२६) तिरिच्छसंपाइमेसु (५।११८) तिलपप्पडगं (५।२।२१) तिविहं तिविहेणं (४ासू०१०) तिव्वलज्ज (५।२।५०) तु (चू० २१) तुंबागं (५।११७०) तुय? ज्जा (४।सू०२२) तेगिच्छं (३।४) ते जाणमजाणं वा (६९) तेणं भगवया (४।सू०१) तेरण वुच्चंति साहुणो (११५) तेसि (३।१) थिग्गलं (५॥१३१४) थेरेहि (३।४।सू०१) थोवं लद्धन खिसए (८।२६) दंडं समारंभेज्जा (४।सू०१०) दंडगंसि (४१३।२३) दंतपहोयणा (३३) दंतवणे (३६) दंतसोहण (६।१३) दंता (११५) दंते (।४।सू०७) दसणं (६।१) दगभवरणाणि (५।१।१५) दगमट्टियं (५॥१॥३) दमइत्ता (५।१।१३) दम्मा (७।२४) दवदवस्स न गच्छेज्जा (११।१४) दस अट्ठ य ठाणाई (६७) दाणट्ठा पगडं (५२११४७) दाणभत (११३) दारुणं कक्कसं (२६) दि8 (८।२१) दि8 (८।४८) दिट्ठा तत्य असंजमो (६।५१) दिया वा राओ वा (४।सू०१८) दीहरोमनहंसिणो (६।६४) दीहवट्टा महालया (७॥३१) ror 0 ० 0 0 " x or or oramxur or or9०० x war ~ 50 90do m x ० ० ० x ~ २२२ ४१६ ३४६ २७६ २८८ ४६५ १३७ १३३ ३६६ ४७ २२५ ३२१ १५४ २४५ ३१६ ६३ ४६१ ६० १०३ १८७ तालियंटेगा (४।सू०३१) तिदुयं (५।११७३) तिक्खमन्नयरं सत्थं (६।३२) तिगुत्ता (३।११) तिगुत्तो (8।३।१४) तित्तगं (५।१६७) १३१ mor wrm १०२ २८ २१५ २५५ Jain Education Intemational Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत शब्दादि दुक्कराई ( ३।१४) दुक्खसहे (८६३) दुवा]]] (२०१) दुज्झाओ ( ७।२४) दुप्पजीवी ( चू० १ सू० १ ) दुरहिट्टियं (६।१५) दुरास्यं (२६) दुव्विहियं (चू० ११२ ) दुस्सहाई (३|१४) दुस्सेज्जं (८२७) दूरओ परिवज्जए (५१११२) देतियं (५२११२८ ) देवकिब्बिसं ( |२|४६ ) देवा वि (१1१ ) देहपलोमा (३३) देहवासं असुई असासयं (१०/२१ ) देहे दुक्ख (८/२७) दो (२१५) धत्यकामा (९१४) धम्मपन्नती (४)सू० १ ) धम्मपाइ ( 8|१|१२) धम्मो (१।१) घा (७५१) धारति परिहरति (६।१९ ) धीरा (३।११) धुन्नमलं (७।५७) धुयमोहा (३|१३ ) धुवं (८।१७ ) ध्रुवं (८४२) धुवजोगी (१०१६) पुवसीय (GIYO ) धूमके (२६) ya-üfer (312) नक्खत्तं ( ८1५० ) (६६४) न चिट्ठेज्जा ( ८1११) न छिदे न छिदावए (१०1३) न जले न जलावए (१०१२) पृष्ठ संख्या ६६ ४२१ २७३ ३५६ ५१० ३११ ३१ ५१५ ६७ ३६६ २०८ २२५ २८६ ह ६४ ४६६ ३६७ २६ ३०७ १२२ ४३३ ६ ३६५ ३१४ ६४ ३६८ ६५ ३६० ४०७ ४८८ ४०४ ३१ ८६ ४१३ ३३० ३०७ ४८६ ४८५ ५४२ टिप्पणी संख्या ६१ १८१ १ ३३ ५ २५ २८ २६ ६२ ७० ५३ ११७ ६६ ८ २२ ७३ ७४ २४ १० ८ १८ २ ७७ ३६ ५४ ८७ ५८ ३६ ११४ २३ १०७ २६ ४३ १३६ १०१ २७ १६ १३ आधारभूत शब्दादि न निसीएज्ज (५।२८ ) न निहे (१०1८) दसवेलियं ( दशवेकालिक ) टिप्पणी संख्या पविते (५।१।२२) न पिएन पियावए (१०/२) न भुजंति (२) नमंत (२२१५ न य... किलामेइ (११२) न कुप्पे (१०।१०) न य भोयणम्मि गिद्धो, चरे (८२३) नाव (१०/२० ) न बीएनपीए (१०।३) न संथरे (५२२) नगरीरं नाभिकंबई (१०११२) नया मनोवि अहं पिती (२४) न से चाइ त्ति वुच्चइ (२।२) न सो परिग्गहो कुत्तो ( ६।२० ) नहं ( ७१५२) नाइए (२।१।२३) नाग ( ६ १ ) नासपिण्डरा (१५) नामधिज्जेण.... गोण ( ७।१७ ) नावपुरोग (६२० ) नारीणं न लवे कहं (८५२) नालीय (३४) नाव (५|१|१३) frami (15) निंदामि गरिहामि (४ | सू० १० ) सम्म (१०१ निक्खम्ममाणा (१०1१ ) निक्खित्तं (५|१|५६ ) निविशेष (५२१४४२) निगमसाइस (४२६) निग्गंथाण (३|१) निरडुबाए (२०४०६) fagre (IRR) निद्द च न बहुमन्तेज्जा ( ८।४१) निमित्तं ( ८1५० ) निज्ज अयं पिरो (५१/२३) पृष्ठ सुख्या २७६ ४८६ २१ε ४८५ २४ ४४४ ε ४६० ३६३ ४६६ ४८६ २७४ ४६३ २८ २४ ३१४ ३६५ २२० ३०५ १२ ३५३ २१४ ४१४ ६५ २०६ ३०६ १३३ ४८ ३ ४८३ २३६ २३३ १७३ ४८ ४०१ ३६३ ४०६ ४१३ २२१ १३ ३० ९४ ११ ७ १६ ११ ३४ ५४ ७२ १५ ६ ४५ १८ ८ ४१ ८० ६७ १ २२ २१ ४० १४८ २४ ५६ १५ ३६ ३ १ १६२ १४७ १६३ ५२ १०६ १४२ ६६ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणी संख्या पृष्ठ टिप्पणी संख्या संख्या २४८ १६६ २०३ २४६ ४५८ ૪૭ર ४१० १५३ ४६१ २३२ १७१ ७ ४६१ ३५ .० २८१ १३५ ४४५ २३८ १६१ ४४५ ३६२ १२१ २१८ ४०८ २७६ ४१७ १५६ आधारभूत पृष्ठ शब्दादि संख्या नियडी सढे (६।२२३) नियमा (चू०२१४) चू०५२६ नियागं (३२) निरासए (३।४।६) निव्वाविया (५।११६३) २४० निव्वावेज्जा (४।सू०२०) निसीहियाए (५।२।२) २७३ निसेज्जा (६।५४) ३२५ निस्सिचिया (५।१।६३) २४१ निस्से सं (२।२) ४४१ निहुइंदिए (१०।१०) नीम (५।२।२१) नीयं कुज्जा य अंजलि (६।२०१७) ४४५ नीयं च आसणाणि (२०१७) नीयं च पाए वंदेज्जा (8२।१७) नीयं सेज्ज (६।२।१७) नीयदुवार (५।१।१६) नीरया (३।१४) १६७ नीलियाओ (७।३४) नेच्छंति वतयं भोत्त (२६) ३२ नेव गृहे न निण्हवे (८।३२) ४०१ नेव सयं पाणे अइवाएज्जा...न समणु जाणेज्जा (४.११) १३६ नो वि पए न पयावए (१०।४) ४२७ पइरिक्कया (चू०२।५) ५६६ पईवपयावट्ठा (६।३४) पउम (५।२।१४) २७७ पउमगाणि (६:६३) पए पए विसीयंतो (२।१) पंचनिग्गहरणा (३।११) पंचासवपरिन्नाया (३।१०) पंचासवसंवरे (१०५) पक्कमति महेसिणो (३।१३) पगईए मंदा वि (६।१३) पच्छाकम्मं जहिं भवे (५।११३५) पज्जालिया (५॥१॥६३) पडिकुट्टकुलं (५।१।१७) पडिक्कमामि (४।सू०१०) आधारभूत शब्दादि पडिक्कमे (५।१८१) पडिच्छन्नम्मि संवुडे (५।१।८३) पडिणीयं (६।३।६) पडिपुण्णाययं (३।४सू०७) पडिपुन्न (८।४८) पडिम पडिवज्जिया मसाणे (१०।१२) पडियरिय (३।३।१५) पडिलेहए (५।१।३७) पडिलेहेज्जा (८।१७) पडिसोओ तस्स उत्तारो (चू०२।३) पडिसोय (चू०२।२) पढम नारण तओ दया (४११०) पढमे (४।सू०११) पणगेसु (५।११५६) परिणयट्ठ (७१३७) परिणहाय (1४४) पणीयं (५।२।४२) पणीयरस (८।५६) पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा (४।सू०२१) पत्तेयं पुण्ण पावं (१०।१८) प्पमाया (६३१३१) पमज्जित्त, (१५) पमायं (६।१५) पर (१०।१८) परमग्गसूरे (६।३८) परमो (हा२।२) परिक्खभासी (७।५७) परिग्गहाओ (४।सू०१५) परिवेज्जा (५३११८१) परिणाम (८५८) परिदेवऐज्जा (३४) परिनिव्वुडा (३।१५) परियाए (चू०१।सू०१) परियायजेट्ठा (९।३।३) परिवुड्ढे (७:२३) परिव्वयंतो (२४) परीसह (३३१३) ३६१ PN л ३८५ ४८-४६ १६ ३११ ४६८ * ism & २० १०० ४Mr our r9 mrd dium » US US x २२ 15 ५१३ ० १३८ १४८ ७५ Mmr Jain Education Intemational Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) पृष्ठ टिप्पणी संख्या संख्या टिप्पणी संख्या १५२ ४६५ १७४ ४८६ २६ १५८ ३१ १६६ १४ २७७ १२१ ४१ १२३ १४३ १८३ २८६ ३५५ २३६ १५४ १६४ २३४ १५८ २७ १५० १२४ ४७० १२८ १५६ आधारभूत शब्दादि परिसहाई (१०।१४) परीसहे (४१२७) परे (१०८) पलियंकए (३.५) पवयणस्स (५।२।१२) पवेइया (४.सू०१) पसज्झ चेयसा (चू०१।१४) पसढं (५।१९७२) पस्सह (५।२।४३) पाइमे (७।२२) पाणगं (५।११४७) पाणभूयाई (४:१) पाणहा (३।४) पाणाइवायाओ वेरमणं (४सू०११) पाणे (५।११३) पामिच्चं (५।१।५५) पाय (८।१७) प यखज्जाइं (७:३२) पावगं (४।११) पावगं (६।३२) पावार (५।१।१८) पासाय (७।२७) पिट्ठ (५।१।३४) पिट्ठिमंसं न खाएज्जा (८।४६) पियाल (५।२।२४) पिहुखज्ज (७।३४) पिहुणहत्थेण (४.सू०२१) पिहुणेण (४सू०२१) पीढए (६१५४) पीढगंसि वा फलगंसि वा (४सू०२३) पीणिए (७।२३) पुछे...संलिहे (८७) पुग्गलं अणिमिसं (५।१।७३) पुढवि (४.सू०१८) पुढवि न खणे (१०१२) पुढविकाइया...तसकाइया (४।सू०३) पुढवि समे (१०।१३) पुणो (६।५०) १३६ २०० २३७ ३८६ ३५६ १६७ ३५१ आधारभूत शब्दादि संख्या पुण्णट्ठा पगडं (५।१।४६) २३५ पुप्फ (१२) पुप्फेसु...बीएसु हरिएसु वा (५।१५७) २३८ पुरओ (५॥१॥३) पुरत्या (८।२८) पुरिसोत्तमो (२०११) ३५ पुरेकम्मेण (५।१।३२) पूइ पिन्नागं (५।२।२२) पूईकम्म (५।१।५५) पेम नाभिनिवेसए (८।५८) ४१८ पेहियं (८।५७) पेहेइ (६।४।०४) पोयपडागा (चू०१॥सू०१) ५१० पोयया (४।०६) पोयस्स (८।५३) फरुसा (७.११) फलमंथूणि बीयम)णि (५।२।२४) २८३ फलिहं (५।२।६) फलिहग्गल (७१२७) ३५७ फणियं (६।१६) फासं (८।२६) फासुयं (५।१।१६) फासे (१०१५) बंधइ पावयं कम्मं (४१) बंभचेरवसारणुए (५।१६) बहुनिवट्टिमा (७।३३) बहुस्सुओ (१६) बहुस्सुयं (चू०८।४३) बाहिर (८।३०) बाहिरं . पोग्गलं (८1) विडं (६।१७) बिहेलगं (५।२।२४) बीए (३७) बीयं (३१) बीयहरियाई (५।११३) बुद्धवयणे (१०।१) बुद्धवृत्तमहिट्ठगा (६।५४) बोही (चू०१।१४) २७६ १४६ ३१६ rrowor rrrrrrrrr" m mm rrror x mWWarr sr wor9 or x9x dowN० ur ० ० X ० ० २१६ ३५६ ४२ G10 २२६ १२७ ४१० ३८४ १०५ mix ११८ १५५ १५४ ३२५ १५७ ३५६ ३८६ २४४ १४८ ४८५ १८ १८५ १२३ ४६४ ३२३ Jain Education Intemational Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ : टिप्पण-अनुक्रमणिका ५४५ पृष्ठ टिप्पणी संख्या आधारभूत शब्दादि पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या संख्या १३३ २७६ 9 G ३६० २५७ ३१३ ४३० ४६८ ४६२ २२७ ४३४ १२४ or ४७२ ३५७ २१ १२६ ३६७ ४०६ १४६ ४८४ १४८ ३१८ ४७३ ३८४ २०१ २५६ २४६ ३२८ २३२ २५६ २३२ १४१ २५५ २३२ आधारभूत शब्दादि भंते (४।सू०१०) भज्जियं सई (शश२०) भत्तपारणं (५।११) भयं (८।२७) भयभेरवसहसंपहासे (१०।११) भायरगेण (५।१।३२) भारह (81१1१४) भावसंधए (३।४।७) भावियप्पा (चू० १६) भासमाणस्स अंतरा (८।४६) भिदेज्जा (४।सू०१८) भिक्खू (१०।१) भित्ति (४।सू०१८) भित्ति (८।४) भित्तिमूलं (१८२) भिलगासु (६।६१) भुजमाणाणं (५।१।३७) भुजेज्जास दोवज्जियं (५११६६) भुज्जमाणं विवज्जेज्जा (५२११३६) भूयाहिगरणं (८।५०) भेयाययणवज्जिणो (६।१५) भोए (२१३) भोगेसु (८३४) मइइड्ढिगारवे (६।२।२२) मइयं (७२८) मईए (५२१७६) मंगलमुक्किट्ठ (११) मंच (५।१।६७) मंत (८१५०) मंतपय (६३१११) मंदं (५।१।२) मंदि (२.११२) मगदंतियं (२०१२) मज्जप्पमाय (५।२।४२) मट्टिय (५।१।३६) मट्टिया (५२११३३) मणवयकायसुसंबुडे (१०७) मणसा वि न पत्थए (८।२८) मणेणं वायाए काएणं (४।सू०१०) ४६ १४४ ४१४ मणो निस्सरई बहिद्धा (२१४) मद्दवया (८।३८) मन्थु (१९८) __मन्ने (६।१८) मय (११) मयाणि सव्वाणि (१०।१६) मलं (८।६२) महल्लए (७।२५) महब्वए (४।सू०११) महाफलं (८।२७) महावाये व वायंते (५।११८) महिं (६।२४) महिड्डिए (३।४७) महियं (४ासू०१६) महियाए व पडंतिए (५।११८) महु-घयं (५।११९७) महुरं (५।१।६७) महेसिणं (३१) महेसिणा (६।२०) माउलिंगं (५।२।२३) मा कुले गंधणा होमो (२८) माणवो (७:५४) माणमएण (81४ासू०४) माणवं (७१५२) माणसम्माणकामए (५।२।३५) मामगं (५।१।११) मायामोसं (८।४६) मायासल्लं (५।२।३५) मालोहडं (५।११६६) मिए (8।।३) मियं (८।४८) मियं भासे (८१६) मियं भूमि परक्कमे (५।१।२४) मियासणे (८।२६) मिहोकहाहि (८१४१) मीसजायं (५।११५५) मुंचऽसाहू (९।३११) मुणालिर्य (०२।२८) ३११ २८३ ३३ २६ ४१४ ४४७ ३५८ २४७ १६४ २४१ १७६ mr mro r m 9० ४० १r Morww oomrror ४१३ १४३ Là १७ २४२ ४४१ | ४३३ १९८ ४३१ २७७ २८७ ३६१ २२ २२२ HG WWW Gc २२३ ४०६ २२८ १२८ ४८६ २३७ ४५० ७६ ३९८ १३२ २७८ २८ Jain Education Intemational Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) संख्या संख्या शब्दादि शब्दादि संख्या संख्या संख्या संख्या शब्दादि शब्दादि संख्या संख्या १८८ २११ १५१ १४१ २५६ २२२ ३६४ १४८ ३२६ ३६४ २६० २३३ २३१ २५८ m ३११ २७ २८३ १२२ २८७ १०७ ५७ १४२ २४४ ४६१ १८४ २२६ ~ ११५ २०६ मुणी (१२) मुत्ता (१॥३) मुम्मुरं (४१सू०२०) मुसावायाओ (४ासू०१२) मुहाजीवी (५।१।६८) मुहाजीवी (८।२४) मुहादाई (२१११००) मुहालद्ध (५।१।६६) मूलं (६।१६) मूलगं मूलगत्तियं (श२१२३) मे (४।सू०१) मेहावी (५।२।४२) मेहुणं....दिव्वं वा...तिरिक्खजोरिण्यं वा (४सू०१४) रए (५२११७२) रयमलं (६।३।१५) रयहरणंसि ४(1सू०२३) रसनिज्जूढं (८।२२) रसया (४ासू०६) रहजोग (७१२४) रहस्सारक्खियाण (५।१।१६) राइणिए सु (८।४०) राइभत्ते (३२) राईभोयणाओ (४।सू० १६) रागं (२१५) रायपिडे किमिच्छए (३३) रायमच्चा (६।२) रासि (५२११७) रूढेसु (४।सू०२२) लज्जा (६।१।१३) लज्जासमावित्ती (६।२२) लद्धलक्खेफ (चू०२।२) लद्ध (८।१) लयणं (८।५१) लया (४।सू०८) ललिइंदिथा (8२।१४) लवणं (५॥१९७) लहुभूयविहारिण (३३१०) लहुस्सगा (चूसू०१०) ३६३ १२८ ३५६ २१२ ४०३ लक्षण हैं लाभमट्ठि) (२११६४) २५४ लूहवित्ती (५२॥३४) २८५ लूहवित्ती (२५) लेखें (४सू०१८) लोद्ध (६३६३) लोहो सव्वविणासणो (८।३७) ४०१ वइविवखलियं (८।४६) ४१३ वत नो पडियायई (१०१) ४८४ वंदमारणो न जाएज्जा (५।२।२९) २८४ वच्चमुतं न धारए (५।१।१६) २१७ वच्चस्स (५।१।२५) २२२ वज्के (७।२२) ३५५ वणिमट्ठा पगड (५२११५१) वण्णिय (५।१।३४) वमणे य...बत्थीकम्मविरेयणे (३१६) वयं (२४) वयाणं पीला (५३११०) वा (८।१६) वायसंजए (१०।४५) वारधोयणं (५।११७५) वासे वासंते (५।३।८) २०४ वाहिमा (२४) विउलं अत्थसंजुतं (५।२।४३) २८८ विकत्थयई (६।३।४) ४५६ विगप्पिय (८1५५) ४१६ विगलितेंदिया (२७) ४४२ विज्जमाणे परक्कमे (५।१४) बिज्जल (२११४) विडिमा (७३१) ३५६ विणएज्ज राग (२।४) विणएण (५।११८८) २५३ विणए सुए अ तवे (हासू०३) ४६८ विण्य (७।१) ३४६ विरणय (।१११) विरणयं न सिक्खे (११) विणयसमाही आययट्ठिए (३।४।सू०४) विणिगृहई (५।२।३१) २४६ ३५ ५७ १२ ३५६ Wo MKWWWG २५ १५५ ३०६ २०४ . १०६ २०२ २०१ २३ ४३३ ३१६ २८ ५२५ ३८३ ४१४ १२७ ४४४ २५५ 1 GK mrUyr ० ० ०४ १४ २२० ६२ dur ५११ Jain Education Intemational Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ : टिप्पण-अनुक्रमणिका ५४७ टिप्पणी संख्या संख्या पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या १२ २४ १४८ १५८ ३६२ २३६ ४११ Mrrr imur 9. or. Mr9 १५७ १०५ ४६६ २८२ ४०१ ३२६ ४२० ४६१ ६२ २२४ २५७ २७८ १७० १७४ १४६ १५७ ३८८ २९ ३५६ आधारभूत शब्दादि विपिट्टिकुम्बई (२३३) विप्पमुक्काण (३।१) विभूसणे (३।६) विभूसा (८५६) विमाणाइ (६।६८) वियं जियं (८।४८) वियक्खणो( ५२११२५) विषडं (५।२।२२) वियडभावे (३२) वियडेण (६।६१) विरस (५।१।६८) बिरालियं (श२०१८) विराहेज्जासि (४।२८) विलिहेज्जा (४१सू०१८) विविहं (१२) विविहगुणतवोरए (१०।१२) विसं तालउडं (८1५६) विसमं (५।१।४) विसोत्तिया (५।१६) विहारचरिया (चू०२।५) विहुयणेण (४:सू०२१) वीयणे (३३२) वीसमेज्ज खरणं मुणी (५२११६३) वुग्गहियं कहं (१०११०) वुट्ठ (८१६) वेयं (३।४सू०४) वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता (चु०१।सू०१) वेराणुबंधीणि (६।३७) वेलुयं (५।२।२१) वेलोइयाई (७३२) वेससामते (५।१६) वेहिमाई (७३२) सइ अन्नेण मग्गेण (५।११६) सइ-काले (श६) संकट्ठाणं (५।१।१५) संक पस्स वसं गओ (२१) संकप्पे (चू० १॥ सू० १) ४१८ २०१ २०५ ५२७ २१ ४२ आधारभूत शब्दादि संकमेण (५।१४) संकियं (५।११४४) संकिलेसकरं (५१।१६) संखडि (७।३६) संघट्टिया (५।१।६१) संघायं (४सू०२३) संजइंदिए (१०११५) संजमजोगयं (८।६१) संजमधुवजोगजुत्ते (१०।१०) संजमम्मि य जुत्तारणं (३।१०) संजमो (१११) संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे (४सू०१८) संजयामेव (४सू०२३) संजाए (७।२३) संडिब्भ (५११:१२) संताणसंतओ (चू०१८) संति साहुणो (१३) संथारं (८।१७) संधि (५।१।१५) संपत्ती (हारा२१) संपत्ते भिक्खकालम्मि (२०११) संपयाईम8 (७७) संपहासं (८।४१) संपुच्छरणा (३३) संबाहणा (३३) संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा (२०११) संभिन्नवित्तस्स (चू० ११३) संलोगं (५।१।२५) संवच्छरं (चू०२।११) संवरं (५।२।३६) संवरसमाहिबहुलेग (चू०२१४) संवहरणे (७।२५) संसग्गीए अभिक्खणं (५।१।१०) संसट्ठकप्पेण चरेज्ज भिक्खू तज्जाय ___संसट्ठ जई जएज्जा (चू०१६) संसे इमं (५।११७५) संसइमा (४।सू ०६) ३६० १५४ १०२ ४४७ १६५ २१० ४०६ ४६६ mm" 1864-2460x0rrm ormsrx . xxx mr.ru ५१३ २८० ३५६ ५२ २०५ ३६० २०२ २७५ २११ له २३ २४ » ५१२ Jain Education Intemational Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या आधारभूत शब्दादि पृष्ठ टिप्पणी संख्या संख्या २४३ १८२ २७६ १२७ २४ १७ ३०७ ११ १२६ २७ ४८६ १५६ ११२ १४६ ७१ १०५ ४६० ३४६ ३२० १७७ ४२१ ४२० mum room mu KU MMMG OMG G० ०MGM & ५३० २८ ३६६ ३९७ ४०६ २४३ १८० No-9 ") 9xxm Wor 00०० ov ror ur rrrrr १२४ ४६७ ४१६ १६७ २४२ १७८ mr mar ३१२ १२६ आधारभूत शब्बादि सक्कारंति (३।२।१५) सक्कुलि (५।११७१) सखुड्डगविय ताणं (६।६) सचित्तं नाहारए (१०१३) सचितकोलपडिनिस्सिएसु (४।सू०२२) सच्च रए (३३१३) सच्चा अवतव्वा (१२) सज्झाण (८.६२) सज्झायजोग (८१६१) सज्झायजोगे (कू०२१७) सज्झायम्मि (८.४१) सतुचुगणाई (५।१७१) सत्थ (४।सू ०४) सद्धाए (६०) सन्निरं (श१७०) सन्निहिं (६।१७) सन्निहिं (८।२४) सन्निहिओ (१०१६) सन्निही (३१३) सन्निहीकामे (६३१८) सपुन्नाणं (चु० २६१) सबीयगा (८२) सबीया (४ासू०८) स भासं सच्चमोसं पि, तं पि (११) समणा (११३) समणेणं.. महावीरेणं (४।स० १) समत्तमाउहे (८६१) समाए पेहाए (२।४) समारंभं (६।२८) समारंभ य जोइणो (३।४) समावन्नो थ गोयरे (५।२।२) समाहिजोगे... बुद्धिए (१०१६) समाही (३।४।सू०१) समुप्पेह (८७) समुयाणं (शरा२५) सम्मदिट्ठी (४।२८) सम्मदिट्ठी (१०१७) ३६४ २६६ सम्मद्दिया (५।२।१६) सम्मुच्छिमा (४।सू०८) सम्मुच्छिमा (४।सू०६) सलागहत्थेरण (४।सू०१८) सविज्जविज्जाणुगया (६।६८) सव्वओ वि दुरासयं (६।३२) सव्वं (४।सू०११) सव्वदुवख (३।१३) सव्वभावेण (१६) सबभूएसु (८।१२) सव्वसाहूहि गरहिओ (६।१२) सव्वसो (८।४७) सव्व संगावगए (१०।१६) सविदियसमाहिए (५।१।२६) सव्वे पाणा परमाहम्मिया (सू०६) ससक्खं (०२३६) सस रक्खं (४।सु०१८) ससरक्खम्मि (८५) ससरक्खे (५।११३३) सस रक्खेहि पायेहिं (५।१७) ससिरिणद्ध (४।सू ०१६) सहइ (१०।११) साइबहुला (चू।सू०१) साणी (५११८) सामण्णम्मि य संसओ (५।१।१०) सायाउलगस्स (४१२६) सालुयं (श२।१८) सावज्जबहुलं (६।३६) सासयं (७४) सासवनालियं (५।२।१८) साहटु (५१।३०) साहम्मियाण (१०१६) साहस (हा२।२२) साहीणे चयइ भोए (२।३) साहुणो (११३) साहूं साहु त्ति आलवे (७/४८) ४६७ १४६६६ ३६४ २२६ २०३ m x rom 60 ४६२ १० २१६ १२१ GO ४२० १४ २७६ ३१६ ३२१ ३४६ २७६ २२४ २७४ r rrrrr mor" Morror oraru me mm or mr जर ३८६ २८४ ४६ ur १७४ ३६४ २५ ४८८ Jain Education Intemational Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ : टिप्पण-अनुक्रमणिका ५४६ पृष्ठ टिप्पणी संख्या आधारभूत शब्दादि पृष्ठ संख्या टिप्पणी संख्या संख्या ४२० १७६ ५२४ १२२ १८८ २४५ ४४३ ४४८ ४४१ " x or-m 9 Wwri www mm ३६६ ___ur rur ur or 9 9 9 m auxux २५३ २०७ m ३२४ ४१६ ० mm G ४३३ ४०० ५५५ १४८ आधारभूत शब्दादि सि (८१६२) सिएण (४।२०२१) सिंबलिं (५।११७३) सिक्खा (६।२।१२) सिक्खाए (६।३) सिग्धं (२२) सिणाणं (६:६३) सिणाणे (३।२) सिद्धिमग (३४) सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता (३।१५) सिप्पा (२०१३) सिया (२१४) सिया (५।११८७) सिया (६।१८) सिया (६१५२) सिरसा पंजलीओ (३।१।१२) सिरिओ (चू० १।१२) सिलं (४।सू०१८) सिलोगो (चू० १।सू०१) सीईभूएण (८।५६) सीएगा उसिणेण वा (६।६२) सीओदगं!८६) सीओदगं (१०१२) सीओदग (६.५१) सीसंसि (४।सू०२३) सुअलंकियं (८।५४) सुई (८।३२) सुउद्धरा (६।३७) सुक्कं (५।१९८) सुकडे त्ति (७४१) सुट्ठि अप्पारणं (३३१) सुद्ध पुढवीए (५) सुद्धागरिंण (४।०२०) सुद्धोदगं (४सू०१६) सुनिसियं (१०१२) सुपन्नत्ता (४:सू०१) सुभासियं (२।१०) सुमिरणं (८।५०) सुयं (८।२१) सुयं (३।४सू०५) सुयं केवलिभासियं (चू०२।१) सुयक्खाया (४।सू०१) सुयत्थधम्मा (३।२।२३) सुयबुद्धोववेया (६।११३) सुयलाभे - बुद्धिए (८।३०) सुरं वा मेरगं वा (५।२।३६) सुस्सूसइ (९४ सू०४) सुहरे (८।२५) सुहसायगस्स (४।२६) सुही होहिसि संपराए (२५) सुहुमं वा बायरं वा (४।सू०११) सूइयं गावि (५।१।१२) सूइयं वा असूइयं वा (५।१६८) सूरे व सेरणाए (८।६१) से (५।११२) से (८।३१) से चाइ (२।२) सेज्ज (८।१७) सेज्जं सि वा संथारगंसि वा (४।२०२३) सेज्जा (५।२।२) सेज्जायरपिंडं (३१५) सेट्टि (चू० ११५) सेडिय (५।१।३४) सेयं ते मरणं भवे (२७) सोउमल्ल (२१५) सोच्चा (४।११) सोंडिया (५।२।३८) सोरठ्ठिय (५।१।३४) सोवक्केसे (चू०।१सू०१) सोवच्चले (३८) हंदि (६।४) हं भो (चू०१।सू०१) हडो (२।६) हत्थगं (५।११८३) हत्थसंजए पायसंजए (५१५) हरतणुगं (४।सू०१६) हरियाणि (२०२६) हव्ववाहो (६।३४) ३८६ १५७ ४१६ ३२७ ३८५ ४८५ ३२३ १५६ २७३ a rx Urd r". ५१४ १६ १३२ १ ३२ २६ १४४ २८७ Wwr or २२६ ५१२ १३३ १२ ४२ ८५ . ३०७ १५१ १५८ १५१ ३७ २५० ४८५ १२२ ४६५ १५१ ५३ १४० ४६ २२४ ३२० ३९२ Jain Education Intemational Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० दसवेआलियं ( दशवकालिक) पृष्ठ टिप्पणी संख्या संख्या १५८ पाठ टिप्पणी संख्या संख्या ५१५ २७ ३०६ आधारभूत शब्दादि हिंसई (४।१) हिंसगं न मुसं बूया (६।११) हिम (४।सू०१६) हिमाणि (८६) हीगपेसणे (६।२।२२) होलए ...खिसएज्जा (३३१२) आधारभूत शब्दादि हीलंति (चू०।१२) हीलंति (२०१२) हुतो (चू०१६) होइ कडुयं (४।१) होउकामेणं (५०२।२) ४३१ १५० ३८४ ४४८ Jain Education Intemational Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ पदानुक्रमणिका Jain Education Intemational Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदानुक्रमणिका पद स्थल - पद अ अजयं चिट्ठमाणो उ अइभूमि न गच्छेज्जा ५।११२४ अजयं भासमारणो उ अइयम्मि य कालम्मि रा८,९,१० अजयं भुंजमाणो उ अइयारं जहवकर्म ५:१८६ अजयं सयमाणो उ अउलं नथि एरिसं ७।४३ अजीवं परिणयं नच्चा अओमया उच्छहया नरेणं है।३.६ अजीवे वि न यारणई अओमया ते वि तओ सु-उद्धरा है।३७ अजीवे वि वियागई अंकुसेण जहा नागो २।१० अज्ज आहं गणी हुतो अंग-पच्चंग-सठाणं ८।५७ ___ अज्जए पज्जए वा वि अंजणे दंतवणे य ___३६ अज्जिए पज्जिए वा वि अंड-सुहुमं च अट्ठमं ८।११५ अज्झप्प-रए सुसमाहियप्पा अंतलिक्खे त्ति णं वूया ७।५३ अज्झोयर पामिच्चं अकप्पियं न इच्छेज्जा ५१२७; ६।४८ अट्ठ लहइ अणुत्रं अकालं च विवज्जेत्ता ५।।४ अट्ठ सुहुमाई पेहाए अकाले चरसि भिक्खू ५।२।५ अट्ठावए य नालीय अकुठे व हए व लूसिए वा १०११३ अट्टिअप्पा भविस्ससि अकेज्ज केज्जमेव वा ७१४५ अट्ठियं कंटओ सिया अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ३१० अणंतनागोवगओ वि संतो अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य १०.११ अणंतहियकामए अखंड-फुडिया कायव्वा ६६ अणज्जो भोग-कारणा अगणिसत्थं जहा सुनिसियं १०२ अग्णवज्ज वियागरे अगुणाणं विवज्जओ अण्वज्जमकक्कसं अगुत्ती बंभचेरस्स ६५८ आरणगयं नो पडिबंध कुज्जा अग्गलं फलिहं दारं राह अगाययणे चरंतस्स अचक्कियमवत्तव्यं अणायरियमज्जाणं अचक्खु-विसओ जत्थ ५।१२२० अगायारं परक्कम्म अचित्तं पडिलेहिया ५।१५१,८६ अणासए जो उ सहेज्ज कंटए अचियत्तं चेव नो वए ७४३ अणिएय-वासो समुयारण-चरिया अचियत्तकुलं न पविसे ५।१।१७ अरिगच्च तेसिं विन्नाय अच्छंदा जे न भुजंति २१२ अरिणमिसं वा बहु-कंटयं अजयं आसमाणो उ ४१३ अणुन्नए नावणए अजयं चरमागो उ अणुन्नविय वोसिरे स्थल स्थल ४६ अणुन्नवेत्तु मेहावी ५।११८३ ४१६ अणुमायं पि मेहावी ५।२।४६ ४५ अणुमायं पि संजए ८।२४ ४१४ अणुवीइ सव्वं सब्वत्थ ७१४४ ५।११७७ अणुसोओ समारो चू०।२।३ ४।१२ अणुसोय-पट्ठिए बहु-जणम्मि चू०।२२ ४११३ अणुसोय-सुहो लोगो चू०।२३ चू०१६ अरणेग-साहु-पूइयं ५।२।४३ ७१८ अतितिणे अचवले का२६ ७.१५ अत्त-कम्मेहि दुम्मई ५।२।३६ १०।१५ अत्तट्ठ-गुरुओ लुद्धो ५।२।३२ ५।११५५ अत्त-समे मन्नेज्ज छप्पि काए १०५ ८।४२ अत्तारणं न समुक्कसे ८६० ८.१३ अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू १०१८ ३४ अत्थंगयम्मि आइच्चे ८।२८ २६ अत्थियं तिंदुयं बिल्लं ५।१७३ ५।१।८४ अत्थि हु नाणे तवे संजमे य १०७ ६।१।११ अदिट्ठ-धम्मे विणए अकोविए ६।२।२२ ६।२।१६ अदीणो वित्तिमेसेज्जा ५।२।२६ चू०।१।१ अदुवा वार-धोयरणं ५।११७५ ७१४६ अर्दैतस्स न कुप्पेज्जा शरा२८ ७३ अधुवं जीवियं नच्चा ८।३४ चू।२।१३ अनियाणे अकोउहल्ले य जे स ५।१११ भिक्खू १०।१३ ६१५३ अनिलस्स-समारंभ ६३६ ८.३२ अनिलेण न वीए न वीयावए १०१३ ३६ अन्नं वा गेण्हमाण्णं पि ६।१४ चू०२।५ अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं ५।२।१४,१६ ८५८ अन्नं वा मज्जगं रसं ५२।३६ ५।११७३ अन्नं वा वि तहाविहं ५।११७१,८४ ५।१।१३ अन्लट्ठ पगडं लयणं ८५१ ५।१।१६ अन्नाणी किं काही ४।१० ४११ Jain Education Intemational Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) पद ७।२७ ८।६१ ६८ ५।१७५ ८।४४ ६।२१ स्थल स्थल स्थल अन्नाय उंछ चरई विसुद्ध ६।३।४ अयसो य अनिवारणं शरा३८ अह संकियं भवेज्जा ५१७७ अन्नाय-उंछ पइरिक्कया य चू०२।५ अयावयट्ठा भोच्चा रणं शरा२ अहागडेसु रीयंति ११४ अन्नाय-उंछ पुल-निप्पुलाए १०।१६ अरक्खिओ जाइपहं उवेइ चू०२।१६ अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए ... ४।सू०१४ अपाव-भावस्स तवे रयस्स ८.६२ अरसं विरसं वा वि ५॥शहद अहावर छट्ठ भते ! महब्वए... ४सु०१६ अपिसुणे यावि अदीण-वित्ती ६।३।१० अलं उदगदोरिणगणं सा२७ अहावरे तच्चे भंते ! महत्वए... ४।सू०१३ अपुच्छिओ न भासेज्जा ८.४६ अलं प.सायखंभाणं अहावरे दोच्चे भंते ! महत्वए .. ४१सू०१२ अप्प पि बहु फासुयं ५।१।६६ अलद्ध यं नो परिदेवएज्जा ६।३।४ अहावरे पंचमे भंते ! महव्वए... ४१सू०१५ अप्पं वा जइ वा बहु ६।१३ अलमप्पणो होइ अलं परेसि अहिंसा निउरणं दिवा अप्पग्वे वा महग्धे वा ७।४६ अलाभो त्ति न सोएज्जा शश६ अहिंसा संजमो तवो ११ अप्परगट्ठा परट्ठा वा ६।११, ६।२।१३ अलायं व सजोइयं ८८ अहियासे अव्वहिओ ८।२७ अप्पणा नावपंगुरे ५।१।१८ अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्ध अहुणा-धोयं विवज्जए अप्पत्तियं जेण सिया ८।४७ अलोलुए अक्कुहए अमाइ ।३.१० अहुगोवलित्तं उल्लं श१२१ अप्पत्तियं सिया होज्जा ५।२।१२ अल्लीण-गुत्तो निसिए अहे दाहिणओ वा वि ६।३३ अप्प-भासी मियासणे ८।२६ अवण्ण-वायं च परम्मुहस्स ९३९ अहो जिणेहि असावज्जा ५।११६२ अप्पमत्तो जए निच्चं ६।१६ अवलंबिया न चिट्ठज्जा शरा आइक्खइ वियक्खणे अप्पहिछे अरगाउले ५।१।१३ अवि अप्पणो वि देहम्मि आइक्खेज्ज वियक्खणे अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो चू०२।१६ अवि वाससई नारि ८१५५ ८।१४ अप्पाणं च किलामेसि ५।२।५ अविस्सई जीविय-पज्जवेणं मे आइण्ण-ओमारण-विवज्जणा य चू०१।१६ चू०२।६ आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं अप्पिच्छया अइलाभे वि संते ६।३।५ अविस्सासो य भूयारणं ६।१२ चू०२।१४ अप्पिच्छे सुहरे सिया ८।२५ अव्वक्खित्तेण चेथसा आउं परिमियमप्पणो ५।१२।१० ८।३४ अप्पे सिया भोयण-जाए श१७४ असई वोसट्ठ-चत्त-देहे आउकायं न हिंसंति १०.१३ ६।२६ आउकायं विहिसंतो अप्पोवही कलहविवज्जरणा य चू०२।५ असंकिलिछेहि समं वसेज्जा चू० २९ ६.३० अफासुयं न भुजेज्जा ८।२३ असंजमकरि नच्चा आउकाय समारंभं ५११:२६ ६।३१ अबंभचरियं घोरं ६।१५ असंथडा इमे अंबा ७३३ आउरस्सरणाणि य अबोहि-आसायण नत्थि मोक्खो ६।११५,१० असंभंतो अमुच्छिओ आऊ चित्तमंतमक्खाया... ५।११ ४॥सू०५ अबोहिकलुसं कडं ४१२०,२१ असंविभागी न हु तस्स मोक्खो। प्रागओ य पडिक्कमे ६।२।२२ ५।१८८ अभिक्खणं काउस्सग्गकारी चू०२७ असंसद्रुण हत्थे ५२११३५ आगाहइत्ता चलइत्ता ५।२।३१ अभिक्खणं निविगइंगओ य चू०२७ असंसत्ते जिइंदिए आणुपुचि सुरोह मे ८।३२ ८.१ अभिगम चउरो समाहिओ ९।४।६ असंसत्तं पल्लोएज्जा आभिओगमुवट्ठिया ५२११२३ हा२।५,१० अभिभूय काएण परीसहाई १०।१४ असच्चमोसं सच्चं च आभोए तारण नीसेसं ७।३ ५११८६ अभिरामयंति अप्पारणं है।४१ असणं पारणगं वा विश१४७,४६,५१, आमं छिन्नं व सन्निरं ५।१७० अभिवायणं वंदण पूयणं च चू०२६ - ५३,५७,५६,६१ आमगं परिवज्जए ५।११७०।५।२।१६, अमज्ज-मसासि अमच्छरीया चू०२।२७ असम्भवयणेहि य २१,२२,२४ ६।२।८ आमगं विविहं बीयं ८।१० अमरोवमं जारिणय सोक्खमुत्तमं चू०१।११ असासया भोग-पिवास जंतुणो चू०१।१६ आमियं भज्जियं सई शरा२० अमुगं वा णे भविस्सई ७६ असिणाणम हिटगा ६।६२ प्रायई नावबुज्झइ अमुयाणं जओ होउ ७।५० अहं च भोयरायस्स आयं उवायं विविहं वियाणिया चू०११८ अमोहं वयणं कुज्जा ८।३३ अहं वा णं करिस्सामि ७।६ आययट्ठी अयं मुणी ५।२।३४ अम्मो माउस्सिय त्तिय ७।१५ अह कोइ न इच्छेज्जा आयरिए आराहेइ ५२।४५ अयंपिरमणुविरगं ८८४८ अहणे निज्जाप-रूव-रयए १०१६ आयरिए नाराहेइ श२।४० २१८ Jain Education Intemational Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ : पदानुक्रमणिका स्थल स्थल ६।४६ ४१२६ १०११७ पद स्थल आयरियं अग्गिमिवाहियग्गी ३१ आसु कुपेज्ज वा परो इमेरिसमणायारं ६५६ आयरिय-पाया पुण अप्पसन्ना ६।११५,१० आसुरत्तं न गच्छेज्जा ८२५ इरियावहियमायाय ५।१२८८ आयरियस्स महप्परगो ८.३३ आहती सिया तत्थ ५।१२८ इसिणाहार-माईणि आयरिया ज वए भिक्खू ६।२०१६ आहरे पारण-भोयरणं ५।१।२७,३१,४२ इह खलु भो!पव्वइएणं .. चू०१।सू०१ आयार-गोयर भीम ६४ आहारमइ सवं ८.२८ इहलोग-पारत्तहियं ८।४३ आयार-पन्नत्ति-धरं ८। ४६इ इहलोग्गस्स कारणा ६।२।१३ आयार प्पणिहि लर्बु ८.१ इइ वुत्त महेसिणा ६।२०,४८,८२ इहेवधम्मो अयसो अकित्ती चू०१।१३ आयार-भाव-तेणे य ५।२।४६ इंगालं अगरिंग अच्चि ८८ आया रमन्ता गुणसुट्ठियप्पा ६।११३ इंगालं छारियं रासि ५१७ उउ-प्पसन्ने विमले व चंदिमा ६।६८ आयारमट्ठा विणयं पउंजे ६।३।२० इंदियाणि जहा-भागं ५।१।१३ उक्कट्ठमसंस? ५।१२३४ आयारसमाहिसंबुडे ६।४।०७ इंदो वा पडिओ छमं चु०।१।२ उग्गमं से पुच्छेज्जा ५।११६५ आयारापरिभस्सइ ६:५० इच्चेइयाइं पंच महत्वयाई...... ४।सू०१७ उच्चारं पासवणं ८.१८ आयारे निच्च पंडिया ६।४।१सू०३ इच्चेयं छज्जीवणीयं... ४ानू०२६ उच्चार-भूमिसंपन्नं ८.५१ आयावयंति गिम्हेसु ३।१२ इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं १४ उच्छु-खंडं अनिव्वुडं ५।२।१८ आयावयाही चय सोउमल्लं २१५ इन्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो चू०११८ उच्छु-खंडं व सिबलि ५११७३ आराहइत्ताण गुण अणेगे ६।१।१७ इच्चेसि छहं जीवनिकायाणं... ४१०१० उच्छु-खंडे अनिब्बुडे ३७ आराहए तोसए धम्मकामी ६.१६१६ इच्छंतो हियमप्पणो ८३६ उच्छोलणापहोइस्स आराहए लोगमिणं तहा परं ७५७ इच्छा देज्ज परो न वा श२२७ उछ चरे जीविय नाभिकखे आराहेइ संवरं ५।२४४ इच्छेज्जा परिभोत्तुयं श१८२ उज्जाणम्मि समोसढं आलवेज्ज लवेज्ज वा ७।१७।२० इट्टालं वा वि एगया ५.११४६ उज्जालिया पज्जालिया निव्वाविया ॥१॥६३ आलोइयं इंगियमेव नचा ६।३१ इट्टि पत्ता महायता २।२।६,६,११ उज्जुप्पन्नो अणुव्विग्गो ५।१।९० आलोए गुरु-सगासे ५।१।६० इत्थंथं च चयइ सव्वसो ६।४१७ उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स ४२७ आलोए भायणे साहू ५।१।१६ इत्थियं नेवमालवे ७१६ उठ्ठिया वा निसीएज्जा श१६४० आलोयं थिग्गलं दारं ५।१।१५ इत्थियं पुरिस वा वि ५।२।२६ उडुयं पडिलेहिया ५।११८७ आवगाणं वियागरे ७।३७ इत्थीओ यावि संकणं ६।५८ उड्ड अणुदिसामवि ६।३३ आवज्जइ अबोहियं ६।५६ इत्थीओ सयणाणि य २२ उत्तिंग-पणगेसु वा २११५६८,११ आसइत्तु सइत्तु वा ६१५३ इत्थी-गोत्तेण वा पुणो ७.१७ उदउल्लं अप्पणो कार्य ८७ आसएण न छड्डए ५।१८५ इत्थीरणं तं न निज्झाए ८।५७ उदउल्लं बीय-संसत्तं ६।२४ आस एहि करेहि वा ७।४७ इत्थीण वसं न यावि गच्चे १०११ उदगं संपणोल्लिया ५।१।३० आसंदी पलियंकए ३५ इत्थी पसु-विवज्जियं ८।५१ उदगम्मि तहा निच्चं आसंदी पलियंका य ६।५५ इत्थी पुमं पव्वइयं गिहि वा ६।३।१२ उदगम्मि होज्ज निक्खित्तं ५११५६ आसंदी पलियंकेसु ६।५३ इत्थी विग्गहओ भयं ८१५३ उद्देसियं कीयगडं ३१२; ५१९५५ आस चिट्ठ सएहि वा ८।१३ इमं गेण्ह इमं मुंच ७।४५ उप्पण्णं नाइहीलेज्जा शश६६ आसणं सयणं जाणं ७२६ इमसं ता नेरइयस्स जंतूणो चू०१।१५ उप्पलं पउमं वा वि ५।२।१४,१६ आसाइत्ताण रोयए ५।११७७ इमाई ताई मेहावी ८.१४ उप्फुल्लं न विणिज्झाए ५२११२३ आसायए से अहियाय होइ ६।११४ इमा खलु सः छज्जीवणिया... ४।पू०३ उभयं पि जाणई सोच्चा ४११ आसीविसं वा वि हु कोवएज्जा १६ इमे खलु थेरेहिं भगवतेहि... ।४सू०३ उल्लंघिया न पविसे श११२२ आसीविसो यावि परं सुरुट्ठो ।१५ इमेणं उत्तरेण य ५।२।३ उल्लं वा जइ वा सुक्क शश आसीविसो व कुविओ न भक्खे १७ इमेण कम-जोगेण ५।११ उवरओ सवभूएसु ८।१२ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद उववज्झा हया गया उववन्नो देव- किब्बिसे उसमे हणे कोहं उवसंकमंत भट्टा उपसंकज भा उवसंते अविड जे स भिक्खू उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध े उभि अपुणागमं गई उत-वाया व सुदंसणं गिरि उसोदनं तत्त उसवितागमार उतिचिया तिरिंगनिया कम नाभिधारण एएणन्तेण वट्टेण एक्को वि पावाई विवज्जयंतो एतमबमित्ता एवमेता भोप एनोनिमंत एमेए समणा मुसा एयं च अमन्नं वा एवं दो एयमट्ठन भुंजंति एवमविवरिया ए एय लक्ष्मन्नट्ट-पतं एवारिसे महादांसे एलदार सा एवं उदयसिद्धिं एवं उस्सक्किया ओसक्किया एवं करेंति संबुद्धा एवं खु बंभयारिस्स एवं गरी सोहइ भिक्खु मज्भे एवं गुण-समाउ एवं चिट्ठर संव्वसंजए एवं तु गुणही एवं तु गुण- पेही एवं दुर्गा एवं धम्मस्स विओ एवं भवइ संजए एवं भासेज्ज पन्नवं एवं सही होहिसि संपराए स्थल १२४६ ५७ ४६ ८३८ ५२ १० २२२१११ १०।१० १०।१५ १०।२१ चू० १।१७ ७।१३ ० २०१० ५०१०१.०६ ५२०११ ५।१८५ ६।२२ ५।१।३७ ८६ ५।१।६७ ५११२६३ ५।२।२५ एसइत्थी अयं मं एस- कालम्मि संकिया एसोवमासायणया गुरूणं एसो वा गं करिस्सई ओ ओगासं फासूयं नच्चा ओगाहइत्ता चलत्ता ओग्गसि भाइया ओलिया जारिया दए ओवायं विसमं खा ओरेस पुज्जो ओसन्न-वाह भत्ताले ओहारिणि अपियकारिणि च ओहारिणी जा य परोवधाइणी क कए वा विक्कए विवा कंदं मूलं पलं वा कंदे मूले य सच्चित्ते ५।१।६६ कंबलं पाय-पुंछ ५१२२ सेकंस पाए ५।१।३३ कट्ट आम्मियं पर्य ५।१६३ २।११ १३ ७१४ ५।२४६; ६।२५ ६।५२ ६ ५५ ५११६७ ५५६ पद एवमन्नेस माणस एवमाइ उ जा भासा एवमेयं ति निद्दिसे एवमेयं ति नो वए एवमेवाणि जाणता ५।२।४४ २१ हा२२ ८३ ७३०,३२,४४ २५ एवायरियं उवचिट्ठएज्जा एवायरियं पि हु हीलयंतो एवारिओ गुप-सीत बुदिए ८५३ ६०१२१५ कण-सोह ७१४६ ४/१० ५।२।४१ कम्मुणा उववायए सोय-यं जहा कणं गया दुम्मणियं जगति कण्ण-नास - विगप्पियं कप्पा कप्पम्मि संकियं कम्मं वद चिक्कणं २०१०१६ ५।१।३१ ५११६,६१३ कम्मुणा न विराहेज्जासि कराई अटु सुहुमाई कयरा खलु सा छज्जीवणिया करे खलु थेरेहिं भगवंतेहि कय-हरिए क्या होज्ज एवारिण स्थल ५।२।३० ७/७ ७।१० ७८, ६ ८१९६ ६।१।११ ६११४ कविदु माउलिंगं च |१|१४ कसिणभपुडावगमे व चंदिमा ७/१२ ७/७ ६६८ ७१ ५११६३ १।५।४ ६।३।३ ०२१६ ६।३।७ ७५४ ७।४६ २०७ ६।७० ८।३१ हा२३ દાકા ८१५५ २६ ५।१४४ ६ ६५ ८। ३३ ४।२८ दसवेलियं ( दशकालिक ) स्थल हा १२ ५:१।६३ हीराद ६१।१३ ५।१।१८ ५|२६| ५२२३ १४ ४|५०२ ६।४०२ १०११३ ७१५१ पद करेंति प्रसारणा ते गुरूणं करेता सिंध कलुरगा विवन्न-छंदा कल्याण- भावस्य विसोहि ठा कवाडं नो परंगुल्लेज्जा कवाडं वा वि संजए कस्सट्ठा करण वा कर्ड कहं चरे कहूं चिट्ठ कहं नु कुज्जा सामण्णं कहूं तो भा कह मे आवारगीयरो को नाही सं कमाते कहं सए कहमेस णियं चरे ५।७० काभ ६।११।३५ काले य पडिक्कमे कास अहिया काएण वाया अदु माणसे कामरागविवणं कामे कमाही कमियंखु दुबखं कायगिरा भो मरणसा य निच्च कायतिज्जत्ति तो नए दोवयाच कालं पहि कि जीवनायाओं परं मुकु किं पुरण जे सुग्गाही किं पुरा जो मुसं वए किं मे कडं किं च मे किच्चसे सं किं मे किच्चा इमं फलं कि मे परो पासइ किं व अप्पा कि वा नाहिङ छेय पावगं कि सक्करिणज्जं न समायरामि किच्च कज्जं त्ति नो दए ८६३ ५।१।५६ ४/७ २१ ४/७ ६२ ४/७ ६।२३ ६।२३ ८२६ ०१।१० चू० २।१४ ८५७ २१५ ११२ ७/३८ हारा२० ५।२२४, ५ ३८ ५।२।४ ५|२|४ ६११५ हारा१६ ७५ चू० २।१२ ५१२/४७ चू० २।१३ ४।१० ०२।१२ ७/३६ ५।२।४३ फित्तइस्तं गुणे मे गिग इमं मो०१।१५ किं वाहं खलियं न विवज्जयामि चू०२/१३ किविरणं वा वरणीमगं कीयमुद्दे सिपाह ५।२।१० ६१४८, ४६; ८ २३ ७१४० कीरमारणं ति वा नच्चा Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ पदानुक्रमणिका पद कुंडमोसु वा पु कृपया पूरिसकारिय कुजासाहि संच कुततीहि विहम्मद कुमुदुप्पलना लिय ५२ २३ कुमुयं वा मगदंतियं ५।२।१४; १६ कुम्मो व्व अल्ली पलीण गुत्तो ८|४० |४|१| १४:५०२३२५ कुलं उच्चावयं सया कुलस्स भूमि जाणित्ता कुले जाया अगंध कुमार देवकिपि ५।१।२४ २२६ कुव्वइ सो पयखेमप्परणो केइत्थ देवलोएस के सिजति नीरवा कोदुगं परिवज्जए कोट्टगं भित्तिमूर्ण वा कोलाई आव कोहं मारणं च मायं च कोहा वा जइ व भया कोहो पीहं परणासेड कोहोय मारतो व अहिया ख पासमति साहा खन्ती य बम्भचेरं च मेह भवराहं मे सविता पुष्वकम्मा वित्त कम्यं गल गय सर्वेति अप्पाराममोहदंगिणी खाइमं साइमं तहा स्थल ६।५० ५।२६ ८५२ Zotra ५१२४६ ६४६ ३|१४ ३।१४ ५।१।२० ५।११८२ ५१००१ ८।३६ ६।११ २७ ३२ २२२२२२ ६।६७ ५।१४४७, ४९, ५१ ५३,५७,५६,६१ ४।२८ लिप्यं गति अमरभवणाई खुप्पिवासाए परिगया खुहं पिवासं दुस्सेज्जं खेमं धायं सिवं ति वा बेनं सिपारण जल्लियं खे सोहई विमले अभमुक्के ग गई च गच्छे अणभिज्भियं दुहं चू० ११३४ गंडिया व अलं सिया ७/२८ ३।२ गंधमय बी गंभीर सिरं व ५।१।६६ पद गंभीर विजया एए गणिमागम संपन्न गाओ पाओ गमणागमले चैव गणेसु न चिट्ठज्जा गामे कुले वा नगरे व देसे गायस्सुव्वट्टरणट्टाए गावस्तुस्वट्टणाणि य गायाभंग विभूसणे हाहि साहूगुण सा गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया गिरं भासेज्ज पन्नवं गिहत्था विगं गरहंति गहत्था विणं पूयंति गिहिजोगं परिवज्जए जेस भिक्खु गिहिजोगं समायरे मिहिरो उपभोगा गिहिरो तं न आइक्खे गिहिरणो वेयावडियं गिहिरो देवाडियं न कुजा मिहिन फुज्या गिही पव्वइएन से नितरनिसे गुरमारचरित य २१ ४०२७ २२११० मुखा ३५१५ गुणाहियं वा गुणओ समं वा ५५७ मुणे आवरियसम्मए गुणेहि साहू अगुणेहि साहू गुरु तु नासाययई स पुज्जो गुरु पसायाभिमुहो रमेज्जा गुरुभूओवघाइणी २०२८ गुरुमिव परियमुखी ८।२७ ७५१ गुम्बिसीए उवन्तत्वं १८ गुवि कालमासिणी ६।११५ गेरुय वणिय सेडिय गोग्गगओ मुणी गोवरमपवित गोरापविद्धो उ गुरुस्सगासे विरणयं न सिक्खे सासु भिलुगाय घ स्थल ६।५५ ६।१ ७/३५ ५१२८६ ८। ११ ०२८ ६।४५ ३.५ ३६ ३११ ७३ ५।२।४० ५।२४५ १०/६ ८।२१ ६।२।१३ ८।५० ३।६ चू०२१६ ८५२ ६।१८ ३५ ७५३ ५।१।३६ ५।१६४० ५।१।३४ ५११२,२४५ २६ ६।५७ ५|१|१६; ५२२८ पद च यायावगए अरिस्सिए चउकसायावगए स पृज्जो चं खलु भासारखं उत्थं पायमेव य विहाल आधारमाही ५।२।४१ ०२/१० विद्वत्ता व संज ८/६० ६६३।११ ६३२ हा१1१० ७।११ २०३०१५ ११ चरिया गुणाय नियमा चरंतो न विणिज्भाए चरे उंछं अयंपिरो चरे मंदमविरो चरेणी पंचतत चारुवियपेयिं चविवहा खलु तवसमाही चव्विा खलु विरयसमाही विवहा खलु सुयसमाही भवइ... ६।४।०५ चएज्ज देहं न उ धम्मसासरणं चू०१।१७ च ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खु १०।१७ ६।२७, ३०,४२,४५ अ चत्तारि एए कसिरगा कसाया चत्तारि वमे सया कसाए चिट्ठज्जा गुरुतिए चिन निभाए चित्तमंतमचित्तं वा छंद से पडिले हए छंदिय साहम्मियाण भुंजे छत्तस्स य धारणट्ठाए स्थल भवइ... ६६४/०७ ७५७ ६।३।१४ ७१ ६।४७ चियत्तं पविसे कुलं नृयस्स धम्माउ अहम्मदियो भूलिये तु पक्षस्यामि चओ कुपई नरो चोइओ वहई रह भवइ... ६४/०६ संजय सामणिए गया जए छाया ते विगलितेंदिया ६९१ वाहिदो विराज रागं भवइ.. ६|४|सू०४ ८३६ १०१६ चू० २/४ ५।१।१५ ८२३ श१२ |३|१४ ८५७ शरा ८।४५ ८।५४ ६।१३ २०१।१७ चू० २।१ हा२1४ हारा१६ ५।१।३७ १०१६ ३४ ७५६ ६६२७ २५ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद छिंदितु जाइमरणस्स बंधणं ज जसं काहि भा जइ तत्थ केइ इच्छेज्जा जइ तेरण न संथ पाइ मे अामा ज्या जह है रमतो परिवाए जओ पावस्स आगमो जं गिरं भासए नरो जं च निस्संकियं भवे जं देवं तं समायरे जं तत्थेसरिणयं भवे जंतु नामेइ सास जं पि वत्थं व पायं वा जंभवे भक्तपातु लोए परम- दुम्बरं मुना बुद्धिए जहा गहियं भवे जं जान चिराधी नं जागेज्ज सुरगेज्जा वा ५।१४४७,४६,५१,५३ ती व नाभी वा बच्चा जढो हवइ संजमो जत्ते कन्नं व निवेसयति जय गुफाई दीपाई जत्थ संका भवे जंतु जत्थेव पाले कइ दुप्पउत्तं जन्नग्गि विज्झायमिवप्पतेयं जनजा जयं अपरिसाडयं जयं चरे जयं चिट्ठ जयं चि मियं भासे जयं परिवा जयं परिहरति य जय भुजतो भागतो जयमासे जयं सए जयमेव परकमे जया ओहाविभो होइ जया कम्मं खवित्तारणं जया गई बहुवि स्थल १०।२१ २६ ५।१२६५ ५।२२ ५१११६४ पृ० ११२ ७।११ ७५ ५।१४७६ ४६६ ५।१६० ५।१४७६ ७२८ ५।११३६,३८ ७७४ ६ १६,३८ ५११४४४,५० ६५. ०२११ ८१३० ६ ६० |३|१३ ५।१।२१ ७६ चू० २।१४ ०१।१२ ७15 ५५८ पद जया चयइ संजोगं जया जीवे अजीवे य जया जोगे निरु भित्ता जया धुराइ कम्मरयं जया निदिए भोए जया पुणं च पावं च जया मुंडे भवित्तारगं जया वस् जयाय चयई धम्मं जया य थेरओ होइ जयाय मी होइ जयाय मारिणमो होइ जया य बंदिमो होइ जया लोगमलोगं च जया सव्वतगं नाणं जया संवरमुक्किट्ठ जराए अभिभूयस्स जरा जाव न पीलेइ जलसित्ता इव पायवा जवणवा समुपाखं च निय जसे सामो जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे जस्स धम्मे सया मणी जस्सेयं दुहओ नायं जस्सेरिसा जोन दिवस स्वमप्याहवेज नि जहा काय मा जहा कुक्कुडपोयस्स जहा दुमस्स पुष्फे वहान चियानी ५११४६ जहारिहमभिगिज्झ ४।८ जहा ससी कोमइजोगजुत्तो ८१६ ५१२८१,८६ ६।३८ ४८ जहा से पुरिसोत्तमो जहाहियग्गी जलगं नमसे होवइट्ठ अभिकखमाणो जाई चत्तारि भोज्जाई ४८ जाई धन्नति भुवाई ५११६,५१२७ जाई जाणित्त, संजए ०१२ संज ४१२५ जाई बालोऽवरज्भई ४११५ जाई राओ अपासंतो स्थल ४|१८ ४१४ १२४ ४:२१ ४/१७ ४।१६ ४१६ चू० १1७ च० ११ चु०११६ चू० ११४ २०१५ च०१३ ४११३ ४२२ ४२० ६५६ ८1३५ ५।२।३५ ६।१।१२ ११ हा२२१ ०२११५ ०२१७ 512 ८५३ १२ १।१४ ७|१७| २० हा१।१५ २।११ ६।१।११ ६।३।२ ६।४६ ६१५१ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) पद जाइत्ता जस्स ओग्गहं जाइमंता इमे खखा जाइमर मुबई जाए सद्धाए निक्वंत्तो जा जा दच्छसि नारिओ जाणंतु ता इमे समणा जाणिऊण महेसिणो जाणिय पत्तेयं पुष्णपावं हा२।१२ ६२३१४ जिइदिए जो सहई स पुज्जो जाय आजीववित्तिया जायतेयं न इच्छति जाय बुद्ध हिणाइन्ना जा य लज्जासमा वित्ती जा य सच्चा अवक्तव्वा जावंति लोए पाणा जावज्जीवं वयं घोरं जावज्जीवाए वज्जए जाव णं न विजापेज्जा जाविदिया न हायंति जिदिएसम्म स पुनी निगमयनिउ अभिगम जिणवयणरए अतितिखे जिणो जाणइ केवली जीवाजीवे अयातो जीवाजीवे वियागतो जीवन रिजिड दु जुत्ता ते ललिइंदिया जुत्तोय समणधम्मम्म जुत्तो सया तवसमाहिए जुवं गवेत्ति गंबूया जे आयरिय उवज्झ याणं जेसि सो जे परे जेण कित्ति सुयं सिग् ८।१३ जेण जाति तारि १४ जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा ६४७ जेण वंध वहं घोरं ६।२३ जे दिव्वे जे य माणुसे स्थल ८६५ ७।३१ ६४७ ८/६० २राह ५।२।३४ ५११६८ १०1१८ ३६ ६१३२ ७२ ६।२२ ७२ ६ ह ६।२५ ६।२८,३१,३५, ३६,४२,४५ ७।२१ ८१३५ ३३३८ ६।३।१३ ६।३।३५ हा४५ ४२२/२३ ४:१२ ४/१३ ६।१० ८.४२ हा२१४ ८४२ ६/४/४ ७।२५ हा२।१२ ६६१ ८१४३ ६/६५ हीरार ५।२।४०, ४५ १०।१८ ६/२/१४ ४।१६ १७ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ पदानुक्रमणिका ५५६ पद ८.४२ स्थल स्थल स्थल जे न वंदे न से कुणे ५।२।३० तणरुक्खसबीयगा ८२ जे नियागं ममायंति ६१५१ तत्तानिव्वुडभोइत जे भवंति अणिस्सिया ___ण य रूवेसु मणं करे ८.१६ ततो वि से चइत्ताणं ।।४८ जे भवति जिइंदिया हा४१ तत्थ अन्नयरे ठाणे जे माणिया सवयं माणति ४।३।१३ तउज्जुयं न गच्छेज्जा ५१२७ तत्थ चिट्ठज्ज संजए |११ जे मे गुरुसययमणसासयति ६१.१३ तओ कारणमुप्पन्ले श६३ तत्थ भिक्खू सुप्पणिहिदए ५।२।५० जे य की पिए भोए १३ तओ तम्मि नियत्तिए ५।२।१३ तत्थ भू जेज्ज संजए जे य चंडे पिए थद्ध ६।२।३ तो भुजेज्ज एक्कओ ५१६६ तत्थ से चिट्ठमाणस्स ५.११२७ जे य तनिस्सिया जगा ५।११६८ तओ से पुष्पं च फलं रसोय ६।२।१ तत्थ से भुजमारणस्स ५॥११८४ जे यावि चंडे माइढ़िगारवे हा२।२२ तं अइनकमित्त न पविसे ५२।११ तत्था वि से न याणाइ ५२४७ जे यावि नागं डहरं ति नचा १४ तं अप्पणा द गेण्हति तत्थिमं पढमं ठाणं जे यावि मंदि ति गुरविदत्ता २ तं अपणा न पिये ५।११८० तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा चू०२।१४ जे लोए राति साहुणो ११३ तं उविसबित्त न निपिखवे ५।१८५ तत्येव पडिलेहेज्जा ५११२५ जेसि पिओ तवो संजमो य ४॥२८ तं च अचंबिलं पूर्व ५।१७६ तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी चू०२।१५ जे सिया सन्निहीकामे ६।१८ तं च उभिदिया देज्जा ३।१।३६ तमेव अणुपालज्जा ८६० जे हीलिया सिहिरिव भाग कुज्जा हाश३ तं च संघट्टिया दए तम्हा अणावाहसुहाभिकंखी १११० जो एवमप्पाणभित्तोसएज्जा १।३।५ त च रालु चिया दए ५।२।१४ तम्हा असणपाणाई ६।४६ जो कामे न निवारए २२१ तं च सम्मद्दिया दए ५२१६ तम्हा आयारपरक्कमेण च०२।४ जोगं च समणधम्मम्मि तं च होज्ज अकामेणं ५।१८० सम्हा उद्देसियं न भुजे १०१४ जोगसा पायकंबल 4120 तं च होज्ज चलाचलं ५११५ तम्हा एयं वियाणिता ॥११११६।२६.३२ जो छन्दमारायइ स पुज्जो ३१ त चासि अंधगवण्हिणो ३६,४०,४३,४६ जो जीव विन याणा ૪ : ૨ तं तं संपडिवायए. हा२२० । तम्हा गच्छामो वक्खामो હા जो जीवे वि वियाणाइ ४१३ तं तारिसं नो पयलेति इंदिया च०१११७ तम्हा तं नाइवत्तए २।१६ जो तं जीवियकारणा तं देहवासं असुई असासयं १०।२१ तम्हः तेण न गच्छेज्जा १११६ जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे तं न जले न जलावए जे स भिक्खू १०१२ तम्हा ते न सिणायंति ६१६२ जो पावा जलियमवक्कमेज्जा तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू १०८ तम्हा पाणवहं घोरं ६।१० जो पुचरतावर रत्तकाले च०।१२ तं निविखवित्तु रोयंत ५।१।४२ तम्हा मालोहडं भिक्खं ५।११६६ जो रागदोसेहि समो स पुज्जो ।३।११ तं पईवपयावट्ठा ६।३४ तम्हा मेहुणसंसगि जो वा दए सतिअग्गे पहारं । तं परिरगिज्म बायाए ८।३३ तम्हा मोसं विवज्जए ६।१२ जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी ६।११६ तं पि धीरो विवज्जए ७.४,७ तम्हा सो पुट्ठो पावणं ७.५ जो सहइ हु गामकंटए १०१११ तं पि संजमलजट्टा ६।१६ तया कम्म खवित्ताणं तं भवे भत्तपाणं तु ५।१।४१,४३,४८ तया गयं बहुविहं ४।१४ ५०,५२,५४,५८, तया चयइ संजोग ४।१७ ठवियं संकमट्ठाए ५॥श६५ तया जोगेनिरु भित्ता ४१२३ ठिओ ठावयई परं श२।१५, २०१७ तया धुणइ कम्मरयं १।४।५ तं भे उदाहरिस्सामि तया निविदएभोए ४।१६ तं तुणेह जहा तहा तया पुण्णं च पावं च ४/१५ . डहरं वा महल्लग ५।२।२६ तसे होई कडुयं फलं ४.१,२,३,४,५,६ तया मुडे भवित्ता डहरा वि य जे परियायशेट्ठा ६।३।३ तज्जायसंसट्ठ जई जएज्जा तया लोग मत्थयत्थो ४।२५ डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया ६।११३ तणकट्ठसक्करं वा वि शश८४ तथा लोगमलोगं च ४॥२२ डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा ६।१२ तणरुक्खं न छिदेज्जा ८।१० ६.१६ ४।२४ ४२० ८१ ४११८ चू०२।६ Jain Education Intemational Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० दसवेआलियं (दशवकालिक) स्थल पद ३३१ ८.३५ स्थल स्थल तया संवरमुक्किट्ठ ४।१६ तहेव मेहं व नहं व माणवं ७।५२ ते जाणमजाणं वा ६६ तया सव्वत्तगं नाणं ४।२१ तहेव संखडि नच्चा ७३६ तेणं चोरे त्ति नो वए ७.१२ तरित्त ते ओहमिणं दुरुत्तरं हा२।२३ तहेव संजयं धीरो ७१४७ तेणगं वा वि वज्मे त्ति ७।३६ तरुणगं वा पवालं ५।२।१६ तहेब सत्तुचण्णाई ५।१।७१ तेण तेण उवाएण ६।२० तरुणियं व छिवाडि ५।२।२० तहेव समणट्ठाए ५।११३० तेण वुच्चंति साहुणो तवं कुव्वइ मेहावी ५।२।४२ तहेव सावज्जं जोगं ७१४० ते माणए माणरिहे तवस्सी ६।३।१३ तवं चिमं संजमजोगयं च ८.६१ तहेव सावज्जणुमोयणी गिरा ७५४ तेल्लं सपि च फाणियं ६।१७ तवतेणे वयतेणे ५.२।४६ तहेव सुविणीयप्पा ६।२।६,६,११ ते वितं गुरु पूयंति ९।२।१५ तवसा धुणइ पुराणपावर्ग ६।४।४।१०।६ तहेव होले गोले ति ७.१४ तेसिं अच्छणजोएण ८३ तवस्सी अइउक्कसो ५।२।४२ तहेवुच्चावयं पाणं ५।११७५ तेसिं गुरूणं गुणसागराणं तवे रए सामणिए जे स भिक्खू १०।१४ तहेवुच्चावया पाणा शरा७ तेसि नच्चा जहा तहा ८५६ तवे रया संजम अज्जने गुणे ६।६७ तहेवोसहीओ पक्काओ ७१३४ तेनि सिक्खा पवड्डति ६।२१२ तववोगुजपहाणस्स ४।२७ ताई तु विवज्जतो ६।४६ तेसिं सो निहुओ दंतो तवो ति अहियासए ५।२।६ ताइपो परिनिव्वुडा ३।१५ तेसियमणाइण्णं तसकायं न हिंसंति ६।४३ तारिसं परिवज्जए शश२६ ते हं गुरू सययं पूययामि ।११३ तसकायं विहिंसंतो ६।४४ तारिसो मरणते वि ५।२।३६,४१,४४ तेहि सद्धि तु भुंजए ५११४९५ तसकायसमारंभ ६।४५ तालियंटेण पत्तेण ६:३७,८ तोरणाणं गिहाण य ७२७ तसा अदुव थावरा ६।६।२३ ताव जाइ त्ति आलवे ७।२६ तसा य पारणा जीव त्ति ८२ ताव धम्म समायरे तसे अदुव थावरे ६।३।१२ ५।१।५ तिक्खमन्नयरं सत्थं थभं च कोहं च चए स पुज्जो ६।३२ थणगं पिज्जेमाणी ५।११४२ तसे पारणे न हिसेज्जा ८।१२ तिगुता छसु संजया ३।११ थंभा व कोहा व मयप्पमाया ६।११ तसे य विविहे पारणे ६२७,३०,४१,४४ तिगुत्तिगुतो थिरा ऊसढा विय ७.३५ तस्संतिए वेणइयं पउजे ६।१।१२ जिण-वयणमहिट्ठिज्जासि चू० १११८ धूले पमेइले वज्झे ७१२२ तस्स पस्सह क ग्लाणं ।२।४३ तिहमन्नय रागस्स ६।५६ थोवं लद्धन खिसए ८।२६ तस्स पस्सह दोसाई ५।२।३७ तित्तगं व कडुयं व कसायं ५।१९९७ थोवमासायणट्ठाए ५११७८ तस्स सिप्पस्स कारणा ६।२।१५ तिरिच्छसंपाइमेसु वा तहा उवहिणामवि ६।२।१८ तिरियारणं च वुग्गहे ७.५० तहा कोलमणुस्सिन्न ५।२।२१ तिलपप्पडगं नीम ५।२।२१ दंड सत्थ परिज्जुण्णा हा। तहा नईओ पुण्णाओ ७३८ तिलपितृ पूइपिन्नागं ५।२।२२ दंडेण पडिसेहए है।२।४ तहा फलाई पक्काई ७।३२ तिविहेण करणजोएण ६।२६,२६,४०,४३; दंतसोहणमेत्तं पि ६।१३ तहाविहं कटु असंजमं बहुं चू०१।१४ ८४ दसणं चाभिगच्छई ४।२१।२२ तहेव अविणीयप्पा ६।२.५,७,१० तिव्वलज्ज गुणवं विहरेज्जासि ५।२।५० दगमट्टियआयाणं ५।१२६ तहेव असणं पाणगं वा .. १०८,६ तीसे य दुटु परिवज्जए सया ७।५६ दगवारएण पिहियं ५।१।४५ तहेव काणं कारणे ति ७।१२ तीसे सो वयणं सोच्चा २०१० दट्ठरणं परिवज्जए ५॥१२१ तहेव गंतुमुज्जाणं ७/२६,३० तुट्टा निद्दे सवत्तिणो हा२।१५ दट्टणं सयमायए ५।२।३१ तहेव गाओ दुज्झाओ ७१२४ तुंबाग सिंगबेरं च ५११७० दमइत्ता मुणी चरे ५।१।१३ तहेव चाउर्ल पिट्ठ ५।२।२२ तुसरासिं च गोमयं ५।११७ दमए दुहए वा वि ७।१४ तहेव डहरं व महल्लगं वा ६।३।१२ तेउकाय समारंभ दम्मा गोरहग ति य ७२४ तहेव फरुसा भासा ७.११ तेउम्मि होज्ज निक्खित्तं ५।११६१ दयाहिगारी भूएस ८।१३ तहेव फलमंयूणि ५।२।२४ तेऊ चित्तमंतमक्खाया.. ४ासू०१६ दवदवस्स न गच्छेज्जा ५११११४ तहेव मणुस्सं पसुं ७।२२ तेगिच्छं पाणहा पाए ३१४ दवीए भायणेण वा ५।१।३२,३५,३६ Jain Education Intemational Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ : पदानुक्रमणिका ८.५४ ६।३८ ६।२४ स्थल पद स्थल पद स्थल दस अट्ठ य ठाणाई ६७ देवलोगसमाणो उ चू०१।१० नक्खत्तं सुमिरणं जोगं ८.५० दहे उत्तरओ वि य ६।३३ देवा जक्खा य गुज्झगा हा२।१०,११ नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा हाश१५ दाहुड्डियं घोरविसं न नाग चू०१।१२ देवाणं मणुयाणं च ७।५ नगिणस्स वा वि मुंडस्स दाणट्ठा पगडं इम ५।१६४७ देवा वितं नमसंति ११ न चरेज्ज वासे बासंते ५।११८ दाणभत्तेसणे रया ११३ देवे वा अप्परए महिड्डिए ६।४७ न चरेज्ज वेससामंते शाह दायगस्सुभयस्स वा ५।२।१२ देहे दुवखं महाफलं ८।२७ न चिठे चक्खुगोयरे ५।११११ दायव्वो होउकामेणं ०२२२ दोण्हं तु भुजमाणाणं ५।११३७।३८ न चे सरीरेण इमेण वेस्सई चू०२१६ दारगं वा कुमारियं ५।२।४२ दोण्हं तु विरणयं सिक्खे ७।१ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते १०1१६ दारूणं कक्कसं फासं ८.२६ दो न भासेज्ज सव्वसो ७१ न तं उवहसे मुणी. ८.४१ दिज्जमारणं न इच्छेज्जा ५।१।३५,३७ दो वि एए वियागई। ४।१४ नतं भासेज्ज पन्न ७।२,१३ दिज्जमाण पडिच्छेज्जा ५।१।३७,३८ दो वि गच्छति सोग्गई ५।१।१०० न तत्थ पडिओ कुप्पे ५।२।२७ दिट्टमियं असंसिद्ध ८.४० दो वि तत्थ निमंतए ५।११३८ न तेण भिक्खू गच्छेज्जा ५।१६६ दिट्ठि पडिसमाहरे दोस दुग्गइवड्डणं ५।१।१,६।२८,३१, न ते वायमुईरंति दिट्ठिवायमहिज्जगं ८।४६ ३५,३६,४२,४५ न ते वीइउमिच्छन्ति ६।३७ दिट्ठो तत्थ असंजमो ६.५० न ते सन्निहिमिच्छन्ति ६.१७ दित्तं गोणं हय गयं ५।१।१२ न देव देव ति गिरं वएज्जा ७।५२ दिया ताई विवज्जेज्जा धम्म फासे अणुत्तरं ४।१६,२० न निसीएज्ज कत्थई ५।२१८ दिव्वं सो सिरिमेज्जति हा२।४ धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू १०१६ न निसेज्जा न पीढए ६:५४ दोसंति दुहमेहता ६।२।५,७,१० धम्माउ भट्ठे सिरिओववेयं चू०१।१२ नन्नत्थ एरिसं वुत्तं दीसंति सुह मेहता ६।२।६,९,११ धम्मे उप्पज्जए मई चू०२।१ ६४ धम्मे ठिओ ठावयई परं पि न पाखओ न पुरओ दीहरोमनहसियो धम्मे संपडिवाइओ दीहवट्टा महालया न पडिगेण्हति संजया २०१० ५।११६६ न पडिन्नवेज्जा सयणासणाई धम्मो ति किच्चा परमग्गसूरे दुक्कराई करेत्ताणं ३।१४ "वू०२८ ६।३८ न परं वएज्जासि अयं कुसीले दुगंधं वा सुगंध वा धम्मो मंगलमुक्किट्ठ ___१०१८ ५।२।१ न बाहिरं परिभवे दुग्गओ वा पओएणं धारंति परिहरंति य ८.३० हा२।१६ दुतसओ य से होइ धिइमओ सप्पुरिसस निच्चं न भूयं न भविस्सई ५।२१३२ चू०२।१५ __ धिरत्थु ते जसोकामी न मे कप्पइ तारिसं दुलामगोत्तं च पिहुज्जणम्मि ५।११२८,३१,३२,४१, ४३,४४,४६,४८,५०,५२ दुरूहमाणी पवडेज्जा ५।१६८ धुणंति पावाइं पुरेकडाई ६।६७ दुलहा सुग्गई तारिसगस्स ५४,५८,६०,६२,६४,९२ धुणियं रयमलं पुरेकर्ड ४।२६,२७ दुल्लहं लभित्तु सामण्णं ७४,७६,५,२११५,१७,२० धुयमोहा जिइंदिया ४।२६ १११३ न मे कोइ वियाणई धुवं च पडिलेहेज्जा ५।२।३७ दुल्लहा उ मुहादाई ५११११०० धुबजोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई दुव्वाई नियडी सद धू०१११६ धुवसीलय सययं न हावएज्जा नमोक्कारेण पारेत्ता ५।१६३ दुस्सहाई सहेत्तु य न य ऊरू समासेज्जा ८.४५ दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो चू०१११५ धूए नतुणिएत्ति य न य कुप्पे निहुइदिए व संते धूमकेउ दुरासय दूरओ परिवज्जए १०।१० ५।११२,१६,६।५८ य केणइ उवाएणं धूवणेत्ति वमणे य ८।२१ दंतियं पडियाइवखे ५।१।२८,३१,३२, घेणुं रस दय त्ति य य कोइ उवहम्मई ११४ ४१५०,५२,५४,५८, य दि8 सुयं सव्वं ८/२० ६०,६२,६४,७२,७४ न य पुष्फ किलामेइ ७६५।२।१५,१७,२० न य भोयणम्मि गिद्धो ८.२३ न उजेज्जा न घट्ट ज्जा ८८ न य माणमएण मज्जइ ६।४।२ देवया व चुया ठाणा चू०१३ नंगले मइयं सिया ७।२८ न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा १०।१० १०।२० ८.४५ ७.३१ २२७ ६।३१५ ८.१७ ७२५ १२ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) पद स्थल ३।११ ८७ ६।५२ ३२१,१० स्थल नेव पुंछे न संलिहे नेवं भासेज्ज पन्नवं ७।१४,२४,२६,२६,४७ नेव भिदे न संलिहे नो णं निम्बावए मुणो ८८ नो सां संघट्टए मुणी ८ नो भायए भय-भेरवाई दिस्स १०।१२ नो भावए नो वि य भावियप्पा है।३।१० नोय णं फरुसं वए ५।२।२६ नो वि अन्नं वयावए ६।११ नो वि अन्नस्स दावए ५३११८० नो वि गेण्हावए परं ६।१४ नो वि पए न पयावए जे स भिक्खू १०१४ मोहीलए नो वि य खिसएज्जा ६।३।१२ ६.२५ ६।१०,१६ 632 ५।।३६ ६.२० स्थल पद न वा लभेज्जा निउणं सहायं चु०२।१० निगंथा उज्जुदंसिणो न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ।१।७,८,९ निगंथा गिहिभायणे न यावि हस्सकुहए जे स भिक्खू १०।२० निग्गंथाण महेसिणं नरयं तिरिक्खजोणि वा ५।२।४८ निग्गंथाणं सुमेह मे नरस्सत्तगवेसिस ८१५६ निग्गंथा धम्मजीविणो न लवे असाहुं साहु ति ७१४८ निग्गंथा पडिलेहाए न लवेज्जोवघाइयं ८।२१ निग्गंथा राइ भोयणं न लाभमत्ते न सुएणमत्ते १०।१६ निग्गंथा वज्जयंति णं नवाइ पावाइं न ते करेंति. ६।६७ निच्च कुललओ भयं न विसीएज्ज पंडिए ५।२।२६ निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा न वीएज्ज अप्पणो कार्य निच्च होयव्वयं सिया न सम्ममालोइयं होज्जा ५।११६१ निच्चुब्विग्गो जहा तेणो न सरीरं चाभिकखई जे स भिक्ख १०।१२ निट्ठाणं रसनिज्जूढं न सा महं नो वि अहं पि तीसे २१४ निद्द च न बहुमन्नेज्जा न से चाइ ति बुच्चई २१२ निद्द सवती पुण जे गुरूण न सो परिग्गहो वुत्तो निमतेज्ज जहक्कम न हरणे णो वि घायए ६।४ निमित्तं मंत भेसज न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ७१५४ नियच्छई जाइपहं खु मंदे नाइदूरावलोयए ५।११२३ नियटेज्ज अयंपिरो नाणदंसणसंपन्न ६।१७।४६ नियडि च सुरणेह मे नाणमेगग्गचित्तोग य ६।४।३ नियत्तणे वट्टड सच्चवाई नाणापिंडरया दंता ११५ नियागमभिह्डाणि य नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं ६।१११ निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं नाणुजारणति संजया ६.१४ निवारणं च न गच्छई नामधिज्जेण रणं बूया ७.१७ निसन्ना वा पुणुट्टए नामधेज्जेण णं बूया ७२० निसेज्जा जस्स कप्पई नायपुत्तवओरया ६।१७ निस्संकियं भवे जंतु नायपुत्तेण ताइणा ६।२० निस्सेणि फलगं पीढं नायपुत्तेण भासियं ५।२।४६;६।२५ निस्सेस चाभिगच्छई नायरंति कयाइ वि ६।४५ नी कुज्जा य अंजलि नायरंति ममाइयं ६।२१ नीयं कुलमइक्कम्म नायरंति मुणी लोए ६.१५ नीयं च आसणाणि य नाराहेइ संवरं ५।२।३६,४१ नीयं च पाए वंदेज्जा नारि वा सुअलंकियं ८।५४ नीयं सेज्जं गई ठाणे नारीणं न लवे कहं ५१५२ नीयवारं तमसं नालं तण्हं विणित्तए ५।११७८,७६ नीलियाओ छवि इ य नावाहिं तारिमाओ त्ति ७।३८ नीसाए पीढएण वा नासंदीपलियंकेसु ६।५४. नेच्छन्ति वंतयं भोत्त निकायम्ममाणाय बुद्धवयणे १०१ नेयं ताईहिं सेवियं निक्खम्म बज्जेज्ज कुसीलिंग १०१२० नेव किच्चाण पिडओ निग्गंथत्ताओ भस्सई ६।५ नेव गूहे न निण्हवे ७.२१ ३१२ ७१२ २।११ ८.४१ पए पए विसीयंतो ६।२।२३ पंकोसन्नो जहा नागो चू०१८ ५।१६५ पंचनिग्गहणा धीरा ८1५० पंच य फासे महत्वयाई १०१५ पंचासव परिन्नाया ३।११ ५।११२३ पंचासवसंवरे जे स भिक्खु १०।५ ५।२।३७ पंनिदियाण पाणार ६।३।३ पंडगं पंडगे त्ति वा पंडिया पवियनखणा चू०१।११ पक्कमति महेमिणो ३२१२ ५२.३२ पक्खंदे जलिय जोई ५।११४० पक्खलते संजए ५१५ ६:५६,५६ पविख वा वि सरीसिवं ७।२२ ७१० पगईए मंदा वि भवंति एगे ५।११६७ पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं ६३६ हा२।२ पच्चरखे वि य दीसओ शरा२८ ५।२।१७ पच्चुप्पन्न-मणागए ७८,९,१० ५।२।२५ पच्छाकम्म जहिं भवे ५।१।३५ ६।२।१७ पच्छाकम्म पूरेकम्म ६:५२ ६।२।१७ पच्छा होइ अपूइमो चु०११४ ६।२।१७ पच्छा होइ अवंदिमो चू०१३ ५।१।२० पडिकुटु-कुलं न पविसे शश१७ पडिकोहो अगारिणं ६५७ ५।११४५ पडिगाहेज्ज कप्पियं ५।१२७,६।४७ पडिगाहेज्ज संजए ५।११६५.७७,८६ पडिग्गहं संलिहिताणं शरा१ ८१४५ पडिच्छन्नम्मि संवुडे ५।११८३ ८।३२ पडिपुच्छिऊण सोच्चा वा ५।१७६ २१६ Jain Education Intemational Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थल ४।सू०४ १०।१३ ५।११६१ ५।११४६ चू०१८ ७१८ १२४ ५११४५७ ५.११३ ८.२८ परिशिष्ट-२ : पदानुक्रमणिका पद स्थल पद . स्थल पद पडिपुण्णाययमाययट्ठिए ६।४५ परीसहे जिणंतस्स ४।२७ पुढवी चित्तमंतमक्खाया... पडिपुन्नं वियं जिय ८।४८ परोजेणुवहम्मई ७।१३ पुढवी समे मुणी हवेज्जा पडिमं पडिवज्जिया मसाणे १०॥१२ पलिओवमं झिज्जइ सागरोवमं चू०१।१५ पुणो पडिक्कमे तस्स पडिले हित्ताण फासुयं ५।११८२ पवडते व से तत्थ ५।१।५ पुण्णट्ठा पगडं इम पडिलेहिताण हेउहि हारा२० पविसित्तु परागारं ८.१६ पुत्तदारपरिकिण्णो पडिसेहिए व दिन्ने वा ५।२११३ पवेयए अज्जपयं महामुणी १०२० पुत्ते नत्तुणिय त्ति य पडिसोओ आसमो सुविहियाणं चु०१३ पव्वइए अणगारियं ४।१८।१६ पूप्फेसु भमरा जहा परिसोओ तस्स उत्तारो चू.२।३ पव्वयाणि वणाणि य ७।२६।३० पुःफेसु होज्ज उम्मीसं पडिसोयमेव अप्पा चू०२।२ पहारगाढ़ ति व गाढमालवे ७४२ पुरओ जुग-मायाए पडिसोयलद्धलक्खेरणं चु०२।२ पाइणं पडिणं वा वि ६।३३ पुरत्था य अणुगए पढम नाणं तओ दया ४।१० पाणट्टाए व संजए ५।२।१०,१३ परिसं नेवमालवे पढमे भंते महत्वए . ४।११ पाणट्ठा भोयणस्स वा ८.१६ पुरिस गोत्तेण वा पुणो पणगं बीय हरियं च ८।१५ पाणभूयाई हिंसई ४।१,२,३,४,५,६ पुरेकम्मेण हत्थेरण पणियं नो वियागरे ७।४५ पाणाणं अवहे वहो ६६५७ पुब्धि पच्छा व जं कडं पणियट्ट ति तेणगं ७।३७ पाणा दुप्पडिलेहगा ५।१।२०।६।५५ पूई-कम्मं च आहडं पणियट्ट समुपन्ने ७०४६ पाणा निवडिया महिं ६२४ पूयणट्ठी जसोकामी ८।४४ पाणिज्ज ति नो वए पणिहाय जिइंदिए पेमं नाभिनिवेसए पणीयं वज्जए रसं श२।४२ पारनिगं तहेव य ८.१५ पेहमाणो महिं चरे पणीयरसभोयगं E५६ पारणे य दगमटियं ५॥१॥३ पभासई केवल भारहंतु पेहेइ हियाणुसासणं पायषज्जाइं नो बए ६।१।१४ ७.३२ पमज्जित्तु निसीएज्जा पावं कम्मन बंधई पोग्गलाण परिणाम ८.५ ४७/८, पमायं दुरहिटियं ६।१५ पावगं जलइत्तए ६।३२ पयत्तछिन्नति व छिन्नमालवे ७.४२ पासेज्ज विविहं जगं फलं मूलं व कस्सई पयत्तपक्के त्ति व पक्कमालवे ७१४२ पिउस्सिए भाइरोज्ज ति ७.१५ फलं व कीयस्स वहाय होइ पयतल? त्ति व कम्महेउयं ७।४२ पिट्टिमंसं न खाएज्जा ८।४६ फलिहागलनावाणं पयायसाला विडिमा ७.३१ पिंडं सेज्जं च वत्थं च ६.४७ फले बीए य आमए परकामेज्जा तव संजमम्मि ८.४० पिया एगइओ तेणो ५।२।३७ पिसुरणे नरे साहस हीणपेसणे फासुयं पडिले हित्ता परस्सट्टाए निट्ठियं हारा२२ परिक्खभासी सुसमाहिई दिए ७५७ पिहियासवस्स दंतस्स ४४ परिदृप्प पडिक्कमे ५।११८१ पिहुखज्ज त्ति नो वए ७।३४ बंधई पावयं कम्म परिटुप्प परक्कमे पीढए चंगबेरे य ७।२८ बंधं मोक्खं च जाण ई परिट्ठावेज्ज संजए ८१८ पुच्छंति निहुअप्पाणो ६२ बंभचेर वसागणुए परिणाम पोग्गलाण उ पुच्छेज्जत्थविणिच्छयं ८/५८ ८.४३ बंभयारिस्स दंतस्स परियाओ महेसिणं १०१।१० पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा ८।२२ बंभयारी विवज्जए परियायट्ठाणमुत्तम ८६. पुढवि न खणे न खणावए १०१२ बप्पो चुल्लपिउ त्ति य परियावं च दारुणं ३।२।१४ पुढवि भित्ति सिल लेलं बहवे इमे असाहू परिवज्जतो चिट्ठज्जा ५१२६ पुढविकायं न हिंसंति बहुअट्ठियं पुग्गलं परिवुड्ढे ति णं बूया ७।२३ पुढविकायं विहिंसंतो बहुउज्झियधम्मिए परिसंखाय पन्नवं पुढविकायसमारंभं ७१ ६।२८ बहुं अच्छिहिं पेच्छइ परिसाडेज्ज भोयणं पुढवि-जीवे वि हिंसेज्जा ५।१।२८ ५।११६८ बहुं परघरे अस्थि पुढवि-तण-निस्सियाणं परीसहरिऊदंता ३३१३ पुढवि दग अगणि मारुय बहुं पसवई पावं बहुं पावं पकुम्वई ७।१६ ७।२० ५।१।३२ ५।११११ ५।११५५ ५।२।३५ ८।२६.५८ ५११३ ६।४।२ ८.५६ ८।१२ ८.१० ३।१११ ७।२७ ३७ ८१८ ५॥१६ ५१ ८.५५ ७१८ ७१४८ ५।१७३ ५२११७४ ८२० ५।२।२७ ५।२।३५ ५।२।३२ ६।२७ १०१४ ८२ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) لا لا لی ५।३७ पद स्थल स्थल पद स्थल बहुं सुणेड कण्णेहिं ८२० भासमाणस्स अंतरा ८।४६ महियाए व पडतीए ५।१८ बहुनिवट्टिमा फला ७१३३ भासमाणो य गोयरे ५।१।१४ महुकारसमा बुद्धा ११५ बहुवाहडा अगाहा ७१३९ भासाए दोसे य गुणे य जाणिया ७१५६ महुघयं व भूजेज्ज संजए ५।११६७ बहुवित्थडोदगा या वि भासुरमउलं गई गय है।३।१५ माउला भाइणज्ज त्ति ७११८ बहुसमाणि तित्थाणि भिक्खू अक्खाउमरिहइ ८/२० मा कुले गंधणा होमो बहुसलिलुप्पिलोदगा भुंजतो असणपाणाई ६।५० माणं मद्दवया जिणे ३।३८ बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा दा४३ जित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा वृ०१।१४ माणसम्माणकामए ५।२।३५ बाहिरं वा वि पोग्गलं ER मुंजेज्जा दोसवज्जियं ५१९ माणो विणयनासणो बिडमुब्भेइमं लोणं ६।१७ भुज्जमाणं विवज्जेज्जा ५२११३३ मामगं परिवज्जए ५।१।१७ बिहेलगं पियालं च ५।२।२४ भुत्तसेसं पडिच्छए ५।११३६ मा मे अच्च बिलं पूई ५.१७५ बीएसु हरिएसु वा १११५७८।११ भूओवघाइणि भासं ७।२६ मा मेयं दाइयं संतं श।३१ बीयं च वासं न तहि वसेज्जा ०२।११ भूमिभाग वियक्खणो ५।१।२५ मायं चज्जवभावेण ८.३८ बीयं तं न समायरे ८३१ भूयरूव त्ति वा पूणो ७।३३ मायन्ने एसणारए ५२।२६ बीयमथूणी जाणिया ५।२।२४ भूयाण मेसमाधाओ ६॥३४ माया मित्ताणि नासेइ ८।३७ बीयाणि सया विवज्जयंतो भूयाहिगरणं पयं ८.५० मायामोसं च भिक्खुणो ५२।३८ बीयाणि हरियाणि य ५।१।२६,२६ भेयाययणवज्जिणो ६.१५ मायामोसं विवज्जए ।।४६,८।४६ बुद्धवृत्तमहिट्ठगा ६५४ भोच्चा सज्झायरए जे स भिवख समिक्खू १०६ माया य लोभो य पवड्डमाणा ८।३८ बुद्धा मन्नं ति तारिस मायासल्लं च कुव्वई ५।२।३५ बूया उबचिए त्ति य ७.२३ मा वा होउ त्ति नो वए ७.५०,५१ ५।२।४८ बोही जत्थ सुदुल्लहा मईए दंसणेण वा ५३११७५ माहुणा अदुव खत्तिया ६।२ बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो पू०१।१४ मंच कीलं च पासायं ५।११६७ मियं अदुट्ठ अणुवीइ भासए ७५५ मंचमासालएसु वा ६।५३ मियं भूमि परक्कमे ५०२४ मच्छो व्व गलं गिलित्ता घू०११६ मिहोकहाहिं न रमे ८.४१ भएज्ज सयणासणं ८.५१ मज्जप्पमाय विरओ मीसजायं च वज्जए ५।११५५ भक्खरं पिव दट्टणं ८५४ मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू मुच्छा परिग्गहो वुत्तो ६.२० भट्टा सामिय गोमिए ७.१६ मणसा काय वक्केण मुणालियं सासवनालियं ५।२।१८ भट्ट सामिणि गोमिणि ७.१५ मुणी एगंतमस्सिए मणसा वयसा कायसा ६,२६,२६,४०,४३ भत्तद्वाए समागया ५२।७ मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी भत्तपाणं गवेसए मणसा वि न पत्थए ५।१।१५।२।३ चू०२६ ५२।२३,८८,२८ मुसावाओ य लोगम्मि मणोसिला अंजणे लोणे भत्तपाणं व संजए ६.१२ ५।२।२८ ५।११३३ मुहत्तदुक्खा हु हवंति कंटया ८।३१७ मत्तधोयणछड्डणे भत्तपाणे व संजए ५।१८६ मुहाजीवी असंबद्ध ८।२४ भद्दगं पावगं ति वा ८।२२ मन्थुकुम्मासभोयणं ५।१।६५ मुहाजीवी वि दुल्लहा ५।१।१०० भगं भद्दगं भोच्चा ५।२।३३ मन्ने अन्नयरामवि मुहादाई मुहाजीवी ५।१११०० भमरो आवियइ रसं १२ ममत्तभावं न कहिंचि कुज्जा चू०२८ मुहालद्ध मुहाजीवी शश भयभेरवसद्दसंपहासे १०१११ मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता मूलए सिंगबेरे य ३१७ भवइ निरासए निज्जरहिए ६।४।४ महाकाए त्ति आलवे ७.२३ मूलं परमो से मोक्खो हा२।२ भवइ य दंते भावसंधए ६।८।५ महागरा आयरिया महेसी मूलगं मूलगत्तियं ५।२।२३ भावियप्पा बहुस्सुओ घू०१६ महादोससमुस्सयं ६।१५ मूलमेयमहम्मस्स ३।१५ भासं अहियगामिणि ८।४७ महानिरयसारिसो घु०१।१० मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स हा२।१ भासं न भासेज्ज सया स पुज्जो ६।३९ महावाए व वायंते ५।१।८ मेहुणा उवसंतस्स ६०६४ भासं निसिर अत्तवं ८।४७ महावीरेण देसियं ६।८ मोक्खसाहणहेउस्स ५।११६२ xx स भिक्खू १०७ ६५१ ६.१५ १०।१६ ६।१११५ Jain Education Intemational Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ : पदानुक्रमाणिका ५६५ पद पद स्थल ७१५१ १०.१५ ८.१२ २२६ हा३७ ३।१२ ६।६० ७।२४ ७/१२ ६५६ ६।२।१८ ७।५६ ८।३५ १०।१४ ५।२।४३ स्थल मोहसंताणसंतओ चू० श८ लोद्धं पउमगाणि य वाओ वुटुं व सीउण्हं लोमं च पाववड्ढणं ८।६३ वायसंजए संजइंदिए लोभं संतोसओ जिणे ८।३८ वाया अदुव कम्मुणा रएण परिफासियं ५।१७२ लोभस्सेसो अणुफासो ६।१८ वायाइद्धो व्व हडो रओ सुयसमाहिए है।४।३ लोभेण विणिगुहई ५।२।३१ वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि रन्नो गिहवईणं च ५२१११६ लोहो सबविणासणो ८१३७ वासासु पडिसंलीणा रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए चू० १११ वाहिओ वा अरोगी वा रयाणं अरयाणं तु चू० १।१० वाहिमा रहजोग त्ति रयाण परियाए तहारयाणं चू०११११ बइविक्ख लियं नच्चा ८।४६ वाहियं वा वि रोगि त्ति रहस्सार क्खियाण य ५।१११६ वईमए कण्णसरे स पुज्जो ६।३६ वाहियस्स तवस्सिणो रहस्से महल्लए वा वि ७।२५ वएज्ज न पूणो ति य वाहियाणं च जे गुणा राइणिएसु विणयं पउंजे ८।४०९।३।३ वएज्ज बहुसंभूया ७।३३ वाही जाव न वड्ढई राइभत्ते सिणाणे य ३।२ वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं विइत्त जाईमरणं महब्भयं राओ तत्थ कह चरे ६।२ वएज्ज वा बुट्ठ बलाहए त्ति ७.५२ विउलं अत्थसंजुत्त रायपिंडे किमिच्छए ३।३ वए दरिस णि त्तिय ७।३१ विउलट्ठाण भाइस्स रायाणो रायमच्चा य ६।२ वए संवहरणे त्ति य ७।२५ विउलहियसूहावह पुणो राया व रज्जपब्भट्रो चू०२४ वंतं इच्छसि आवेउं २७ विऊहित्ताण व संजए रिद्धिमंतं ति आलवे ७५३ वंतं नो पडियायई जे स भिक्खू १०.१ विक्कायमाणं पसदं रिद्धिमंतं नरं दिस्स ७।५३ वंदमाणो न जाएज्जा ५।२।२६ विज्जमाणे परक्कमे रुक्खस्स तणगस्स वा ५।२।१६ वंदिओ न समुक्कसे ५२।३० विज्जलं परिवज्जए रुक्खा महल्ल पेहाए ७.२६,३० वच्चमुत्तं न धारए ५।१।१६ विणएण पविसित्ता रूढ़ा बहुसंभूया ७३५ वच्छगं वावि कोट्ठए ५।१।२२ विणए सुए अ तवे रूवतेणे य जे नरे ५।२।४६ वज्जए वेससामंत ५।१।११ विणयं पि जो उवाएणं रोइयनायपुत्तवयणे १०१५ __ वजंतो बीयहरियाई ५।११३ विणयसमाही आययट्ठिए रोमालोणे य आमए वज्जयंति ठियप्पाणो ६१४६ विणियन्ति भोगेसु वड्ढई सोंडिया तस्स ५।२।३८ विणिय?ज्ज भोगेसु वणस्सई न हिंसंति लज्जा दया संजमबंभचेरं ४।१।१३ विणीयतण्हो विहरे लढुं न विकत्थय ई स पुज्जो है।३।४ वणस्त इसमारंभ ६।४२ वितहं पि तहामुत्ति वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेग ४ासू०८ लद्धण वि देवत्तं ५।२।४७ वित्ती साहूण देसिया लद्धे विपिढिकुम्बई २।३ जीवा पुढोसत्ता.... विप्पइण्णाई कोट्ठए लब्भिही एलमूययं शरा४८ वणिमट्ठा पगडं इमं ५।११५१ विप्पमुक्काण ताइणं लहुत्तं पवयणस्स वा ५।२।१२ वणीमगपडिग्घाओ विभूसा इत्थिसंसग्गी लहुभूयविहारिणं ३।१० वणीमगरस वा तस्स ५।२।१२ विभूसावत्तियं चेयं लाइमा भज्जिमाओ त्ति ७।३४ वत्थगंधमलंकार २।२ विभूसावत्तियं भिक्खू लाभालाभं न निद्दिसे ८।२२ वत्थीकम्म विरेयणे ३६ विमणेण पडिच्छियं लहवित्ती सुतोसओ ५।२।३४ बमे चत्तारि दोसे उ ८।३६ वियर्ड वा तत्तनिव्वुडं लूहवित्ती सुसंतुट्ठ ८।२५ वयं च वित्ति लब्भामो १४ वियडेणुप्पिलावए लेवमायाए संजए ५।२।१ वहं ते समणुजाणंति ६।४८ वियाणिया अप्पगमप्पएणं लोए बुच्चंति साहुणो ७।४८ वणं तसथावराण होइ १०४ विरायई कम्म-घणम्मि अवगए लोगंसि नरनारिओ हा२१७,६ वाउकायसमारंभ ६।६ विरायई सुरमझे व इंदो लोढेण वा वि लेवेण ५११४५ वाऊ चित्तमंतमवखाया....... ४।सू०७ विवण्णं विरसमाहरे ६।४।६ ५।१।२२ ५।११७२ ५।१४ ५।१४ ५।११८८ है।४।१ हा२।४ હાજર २।११ ८।३४ ८.५६ ७।५ ५।१।१२ ५१२१ ३३१ ८।५६ ६।४० ५।१८० ५।२।२२ ६।६१ ६।३।११ ८८६३ ६।१।१४ ५२२३३ Jain Education Intemational Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ पद ६।३४ ८.५८ 15 चू०२।१० - 05 स्थल स्थल संजमेण तवेण य १११५ विवत्ती अविणीयस्स &ारा२१ संजमे य तवे रयं ६।१७।४६ विवत्ती बंभचेरस्स ६१५७ विवित्ता य भवे सेज्जा संजमे सुठ्ठिअप्पाणं ३११ ८.५२ संजय साहुमालवे ७।४६ विविहं खाइमं साइम ५।२।२ संजयाए सुभासियं २।१० विविहं खाइमं साइमं लभित्ता १०८,६ संजया किंचि नारभे विविहं पाणभोयण' ५।११३६,५।२।३३ संजयाण अकप्पियं ५।१।४१,४३,४८,५०,५२ विविहगुणतवो रए य निच्चं ६।४।४;१०।१२ ५४,५८,६०,६२,६४,५।२।१५,१७ विसएसु मरगुन्नेसु संजयाण बुद्धाण सगासे ५२.५० विसं तालउडं जहा ८.५६ संजया सुसमाहिया ३।१२,६।२६,२६,४०,४३ विसुज्झई जं सि मलं पुरेकर्ड संजाए पीणिए वा वि विहंगमा व पुप्फेसु संडिब्भं कलहं जुद्धं ५२१११२ विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो बिहारचरिया इसिणं पसत्था संतिमे सुहमा पाणा ६।२३.६१ चू०२६५ विहिणा पुव्व उत्तण ५।२।३ संतुट्ठो सेवई पतं २२१३४ वीयावेऊग वा परं संतोसपाहन्न रए स पुज्जो ६।३० ६।३।५ संथारं अदुवासणं ८.१७ वीसमतो इमं चित्ते ५२१६४ वीसमेज्ज खणं मुणी संथारसेज्जासणभत्तपाणे १३३५ ५।११६३ वुज्झइ से अविणीयप्पा संधि दगभवणाणि य ५।१११५ ६।२।३ संपत्ती विणियस्स य हारा२१ वुत्तो वुत्तो पकुव्बई हा२।१६ संपत्ते भिक्खकालम्मि ५।११ वेराणुबंधी णि महब्भयाणि ६।३१७ संपयाईय मठे वा ७७ वेलुयं कासवनालियं ५।२।२१ संपहासं विवज्जए ८.४१ वेलोइयाइं टालाई ७१३२ संपाविउकामे अगुत्तराई वेहिमाइ त्ति नो वए ७.३२ संपिक्खई अप्पगमप्पएणं वोक्कतो होइ आयारो चू०२।१२ ६।६० संपुच्छणा देहपलोयणाय संबाहणा दंतपहोयणा य ३।३ संभिन्न वित्तस्स य हेट्ठओ गई चू०१।१३ सइ अन्नेण मग्गैण संरक्षणपरिग्गहे सइ काले चरे भिक्खू ५।६ संलोगं परिवज्जए ५२२२५ सओवसंता अममा अकिंचणा ६।६८ संबच्छरं चावि परं पमाणं चू०२।११ संकट्ठाणं विवज्जए ५२१११५ संवरसमाहिबहुलेणं संकप्पस्स वसं गओ संवरे खिप्पमप्पाणं ३।३१ संकमेण न गच्छेज्जा ५।१४ संसग्गीए अभिक्खणं ५११११० संकिलेसकरं ठाणं ५।१।१६ संसट्ठकप्पेण चरेज्ज भिक्खू संखडि संखडि बूया संसठे चेव बोधव्वे ५॥१३४ संघट्टइत्ता काएणं ६।२।१८ संसद्रुण हत्थेण ५२११३६ संजए सुसमाहिए ५।११६८।४ संसारसायरे घोरे संजओ तं न अक्कमे ५।१७ संसेइमं चाउलोदगं ५२११७५ संजमं अणुपालए ६।४६ सक्कारए सिरसा पंजलीओ हा१११२ संजमं निहुओ चर २।८ सक्कारेंति नमसंति हा२।१५ संजमधुवजोगजुत्ते १०१० सक्का सहेउं आसाए कंटया ६।३।६ संजमम्मि य जुत्ताणं ३।१५ सक्कुलि फाणियं पूर्य ५११७१ बसवेआलियं ( दशवकालिक ) स्थल सखुड्डगवियत्ताणं सगासे गुरुणो मुणी ५११८८८।४४ सच्चामोसा य जा मुसा ७।२ सच्चा वि सा न वत्तव्वा ७।११ सच्चित्तं घट्टियारण य ५।११३० सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू १०३ सज्झायं पट्ठवेत्ताणं ५।१६३ सज्झाय जोगं च सया अहिट्टए सज्झायजोगे पयओ हवेज्जा चू०२१७ सज्झायम्मि रओ सया ८१४१ सज्झाय-सज्झाण-रयस्स ताइणो ८.६२ सनिद्धणे धुन्नमलं पुरेकर्ड ७१५७ सन्निवेसं च गरिहसि ५।२१५ सन्निहिं च न कुब्वे जा ८२४ सन्निही गिहिमत्त य स पच्छा परितप्पइ चू०१।२,३,४,५,६,७,८ सपिंडगायमागम्म ५११८७ सभित र बाहिर ४।१७,१८ स भासं सच्चमोसं पि ७।४ समइक्कंतजोब्बणो समणं माहणं वा वि ५।२।१० समणलाए व दावए ५।१।४६,६७ समणठा पगडं इमं ५।११५३ समणे यावि तारिसोश ।४०,४५ समसुहदुक्ख सहे य जे स भिक्खू १०१११ समाए पहाए परिव्वयंतो २१४ समारंभं च जोइणो समावन्नो व गोयरे ५ ।२ समाहिजोगे सुयसीलबुद्धिए ३।१।१६ समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ८१६२ समुच्छिए उन्नए वा पओए ७१५२ समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं १०।१४ समुप्पेह तहाभूयं समुप्पेहमसंदिद्धं ७३ समुयाणं चरे भिवखू ५।२।२५ सम्मं भूयाइ पासओ सम्मद्दिट्ठी सया जए ४।२८ सम्म दमाणी पाणाणि ५।१।२६ सम्मद्दिट्ठी सया अमूढ़े १०७ सय चिट्ठ वयाहि त्ति ७.४७ सयणासणं वत्थं वा ५।२।२८ mr m ur ६।२१ चू०२।४ २१ ८७ ४18 Jain Education Intemational Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ पदानुक्रमणिका पद सययं च असाहुया सयलं दुरहिट्ठियं सया च निच्च मिट्टियप्पा सयाण मज्झे लहई पसंसणं सवक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी सविज्जविजा गया जसं सिणो सम्बनि राजेन सव्वजीवाण जाणइ वहाबुद्धा सध्या हट्टा सव्वधम्म परिभट्ठो यह यं सत्यभावेण संज जमी सत्यभूषण्यनृपस्य सव्वभूय सुहाव हो सव्वमेयं ति नो वए सव्वमेयं वइस्सामि सव्वमेयमणा इण्णं गाव भि सव्वसाहूहि गरहिओ सव्वसो तं न भासेज्जा साहात सनिदिए सुसमाहिहि सव्यमाह न्यु पर या सव्वे जीवा वि इच्छंति वन पि सरक्यम्मि व आस सरखे मट्टिया ऊसे सरकखेहि पाएहि साराओ ति आलबे सासूइयं गावि साणीपावारपहिय साने या बगुले सिय साममचिट्ठ सामण्णम्मिय संसओ सामण्णेजिण देसिए सामू पंखारे साया उलगस्स निगामसाइस्स स्थल २०३० ४६ १०।२१ ७।५५ ७।५५ ६।६८ ३।३२ साहप्पसाहा विरुति पत्ता साहवो तो चित्ते २२२०१ माहाविषेण वा ४०१४०१५साही यह भोए व० १/२ ६।२२ ८११६ ६।२१ साहु साहु तआल ३।१३ ६८ ४६ ६।३ ७१४४ ७।४४ ३।१० १०।१६ ६।१२ ८।४७ ६।२५ ० २।१६ ५।१।२६,६६,०१६ पद सासु वा विलिय सावज्जं न लवे मुणी सावज्जं वज्जए मुणी ७१४३ ६।१० ५।२।३६ ८५ ५।१।३३ ५।१।७ ७/३५ ५।१।१२ ५।१।१८ ७१४ ५।२।३० ५।१।१० चू० १४६ ३८ ४।२६ ५६७ सावज्ज बहुलं चेयं साहट्टु निक्खिवित्ताणं साहुदेहस्स धारणा साहु होण्यामि तारिखो सितापुवस्स सिवखं से अभिगच्छइ यच्छति सिखाए सु-समाउत्तो भिमोहि सिगाणं अदुवा उनके सिणाणं जो उ पत्थए सिणाणस्स य वच्चस्स सिहं पुप्फसुमं च सिद्धि गच्छइ नीरओ सिद्धि विमाणाइ उवेंति ताइणो सिद्धिमग्गं वियाणिया सिद्धिममष्पत्ता सिद्धे वा भवइ सासए सिद्ध साद सिप्पा ने उणियाणि य सिया एमबी सिया तत्थ न कप्पई सिया न भिदेज्ज व सत्ति अग्गं या मगो निस्सरई बहिवा सिया य गोयरग्गगओ सिया य भिक्खू इच्छेज्जा सियासमाए सिया दि हाललं न मारे सियासी गिरिपि भि सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे सियाहु से पावय नो डहेज्जा सिलावु हिमाणि य सिलेसे व केइ सीईएण अपणा स्थल पद २२१८ सीउन्हं अरई भयं ७१४० सीएम उससेग वा ७१४१ सीओदगं न पिए न पियावए ६।३६,६६ सीओदगं न सेवेज्जा सीओदगसमारंभ ५।१।३० २१ सुई सया वियडभावे सुरण जुत्ते अममे शकिचणे कति पक्के ति ५।१।६५ ६३०० २३ ७१४८ ५४१६२ २१६६४ ६।६३ ६/६० ५।१।२५ 디 ४२४, २५ ६।६८ ६।३४ ३।१५ ६६४।७ ४/२५ हा२१३ ५/२/३१,३३ ६।५२ हा २४ ५।११८२ ५१०७ ५|१|४० ६१८७ ८३६ ६।२।२१ २१३ सुद्धपुढवीए न निसिए ६३ सुनिट्ठिएति ५।२।५० १ ६१८७ ८६ ५।१।४५ ८५ सुक्कीयं वा सुविक्कीयं सुखिन्ने म सुतित्थ त्तिय आवगा सुखी पडोहा सुन्तर अत्यो यह आवेद सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू सुयं केवलभासिय सुयं मे आउसं तेणं भगवया... सुयं वा जइ वा दिट्ठ सुरमा विषयम्म फोविया लाभेन मा सुयाणि य अहिज्जित्ता सुरं वा मेरगं वा वि सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स सुविसुद्ध सुसमाहियप्पओ सुस्सूसइ तं च पुणो अहिट्ठए मुस्सए आरियप्पमतो मागी पडियारेजा सुस्समाणो परिगिया बक् सुस्सूसावयणकरा सुहसायगस्स समणस्स सूइयं वा असूइयं सूरे व सेणाए समत्तमाउहे से कोह लोह भयसा व माणवो मेगामे वा नगरे वा से जारणमजाणं वा से युग इमे अगेगे बह सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं सेज्जमानम्म भो स्थल ८२७ ६।६२ १०/२ ८६ ६।५१ ८३२ ८६३ ७४१ ७१४५ ७१४१ ७।३६ हा चू०२।११ ०२११ ८५ ७।४१ चू०२।१ ४०१, २४०१ बा२१ ६२ २३ ८३० हा४३ ५।२।३६ चू० २।१६ ४।२७ ६४५६ ४२ ११७ हा३|१ हा३।२ हा२१२ ४।२६ ५११६८ ८६१ ७५४ ५।१।२ ८।३१ ४ सू०६ ०२१६ ५१२८७ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) पद स्थल स्थल सेज्जमुच्चारभूमिद ८।१७ सो जीवइ संजमजीविएणं चू०२।१५ हवेज्ज उयरे दंते ८.२६ सेज्जा निसीहियाए ५।२।२ सो य पीणे इ अप्पयं १२ हवेज्ज जगनिस्सिए सेज्जायरपिंडं च ८।२४ ३५ सोरठ्ठिय पिट्ठ कुक्कुस कए य ५।११३४ हव्ववाहो न संसओ ६।३४ सेठ्ठि व्व कब्बडे छुढो घु०१५ सोवच्चले सिंधवे लोणे हसंतो नाभिगच्छेज्जा ५।१-१४ से तत्थ मुच्छिए बाले चु०११ सोहु नाहीइ संजमं ४।१३ हिंसइ उ तयस्सिए ६।२७,३०,४१,४४ से तारिसे दुक्ख सहे जिइंदिए हिंसगं न मुसं बूया ६।११ से पावई सिद्धिमणुत्तरं हा२१७ हंदि धम्मत्थकामाणं ६४ हिसेज्ज पाणभूयाई ५।११५ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा... ४८० १८,१६ हत्थं पायं च कायं च हियमट्ठ लाभमट्ठिओ ५।१६४ २०,२१,२२,२३ सेयं ते मरणं भवे हत्थं पायं व लूसए ५।११६८ हीलंति णं दुविहियं कुसीला चू०१।१२ सेलेसि पडिवज्जई ४।२३,२४ हत्थगं संपमज्जिता ५।११८३ हीलं ति मिच्छं पडिवज्जमाणा ६२ से हु चाइ त्ति वुच्चई २।३ हत्थगम्मि दलाहि मे ५११७८ हेमंतेसु अवाउडा सो चेव उ तस्स अभुइभावो ९।११ हत्थपायपडिच्छिन्नं ८५५ हे हो हल्ले त्ति अन्ने त्ति ७।१६ सोच्चा जाणइ कल्लाण ४।११ हत्थसंजए पायसंजए ११५ होति साहूण दवा चू०२४ सोच्चा जाणइ पावगं ४।११ हत्थी व बंधणे बद्धो च०१७ होज्ज कट्ठ सिलं वा वि ५।११६५ सोच्चाणं जिणसासणं ८/२५ हत्थेरण तं गहेऊणं १८५ होज्ज वयाणं पीला ५११० सोच्चाण मेहावी सुभासियाई हरियाणि न छिदे न छिदावए १०।३ होज्जा तत्थ विसोत्तिया है।३।१४ हरियाले हिंगुलए ।१।३३ होज्जा वा किंचुवस्सए ७.२९ सोच्चा निस्संकियं सुद्ध ५।११६५ हले हले ति अन्ने त्ति ७१६ होल गोल वसुले त्ति ७.१६ २७ ३।१२ ५॥१ 81१1१७: एमाणपछि नछिदावए Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ सूक्त और सुभाषित Jain Education Intemational Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्त और सुभाषित धम्मो मंगलमुक्किट्ठ । (११) धर्म सबसे बड़ा मंगल है। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो। (१११) उसे देवता भी वन्दना करते हैं, जिसका मन धर्म में रमता है। कहं न कुज्जा सामण्ण जो कामे न निवारए । (२११) वह क्या श्रमण होगा जो कामनाओं को नहीं छोड़ता ? वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजन्ति न से चाइ त्ति वुच्चइ ।। (२।२) जो वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्रियों और पलंगों का परवश होने से (या उनके अभाव में) सेवन नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता । जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिढिकुव्वई । साहीणे चयइ भोए से हु चाइ ति वुच्चइ ।। (२१३) त्यागी वह कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है। न सा महं नोवि अहं पि तीसे । इच्चेव ताओ विणएज्ज राग ।।२।४) __'वह मेरी नहीं है, मैं उसका नहीं हूं'-- इसका आलम्बन ले राग का निवारण करे। आयावयाही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं । एवं सुही होहिसि संपराए ।। (२१५) अपने को तपा । सुकुमारता का त्याग कर। काम-विषयवासना का अतिकम कर। इससे दुःख अपने-आप कान्त होगा। (संयम के प्रति) द्वेग-भाव को छिन्न कर। (विषयों के प्रति) राग-भाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में सुखी होगा। वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे । (२७) वमन पीने की अपेक्षा मरना अच्छा है। कहं चरे कहं चिट्ठे कहमासे कहं सए। कई भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ ॥ (४७) कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए ? कैसे बोले ? जिससे पाप-कर्म का बन्ध न हो। जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्म न बंधई ॥ (४८) यतनापूर्वक चलने, यतनापूर्वक खड़ा होने, यतनापूर्वक बैठने, यतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक खाने और यतनापूर्वक बोलने वाला पाप-कर्म का बन्धन नहीं करता। सव्व भूय पभूयस्स सम्म भूयाइ पासओ। विहिपासबस्स दंतस्स पावं कम्मं न बधई (॥४६) जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक्-दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है, उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। पढमं नाणं तओ दया। (४।१०) आचरण से पहले जानो। पहले ज्ञान है फिर दया। अन्नाणी कि काही किं वा नाहिइ छेय पावगं । (४।१०) अज्ञानी क्या करेगा जो श्रेय और पाप को भी नहीं जानता? सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणई सोच्चा जं छेयं तं समायरे ।। (४।११) जीव सुन कर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं। वह उनमें जो श्रेय है, उसी का आचरण करे। जो जीवे विन याणाइ अजीवे बिन याणई। जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहिद संजमं ।। (४।१२) जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, वह जीव और अजीब को न जानने वाला, संयम को कैसे जानेगा? जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई । जीवाजीवे बियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥ (४।१३) ___जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है, वही जीव और अजीव दोनों को जानने वाला, संयम को जान सकेगा। वच्चमुत्तं न धारए । (५।१।१६) मल-मूत्र का वेग मत रोको। Jain Education Intemational Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ दसवेआलियं (दशवकालिक) अहो जिणेहि असावज्जा वित्ती साहूण देसिया । अवि अप्पणो वि देहम्मि मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥ (३१०९२) नायरंति ममाइयं । (६।२१) कितना आश्चर्य है-जिनेश्वर भगवान ने साधुओं को मोक्ष- अपने शरीर के प्रति भी ममत्व मत रखो। साधना के हेतु-भूत संयमी शरीर की धारणा के लिये निरवद्य- सच्चा वि सा न वत्तवा वृत्ति का उपदेश किया है। जओ पावस्स आगमो (७.११) दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजीवी वि दुल्लहा । वैसा सत्य भी मत बोलो, जिससे पाप लगे, दूसरों का दिल दुःखे। मुहादाई मुहाजीबी दो वि गच्छंति सोग्गई। (५३१११००) बहवे इमे असाहू लोए वुच्चन्ति साहुणो। मुधादायी दुर्लभ है और मुधाजीवी भी दुर्लभ है । मुधादायी न लबे असाहु साहु त्ति साहं साहु त्ति आलवे ॥ (७.४८) और मुधाजीवी दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं । ये बहुत सारे असाधु लोक में साधु कहलाते हैं। असाधु को काले कालं समायरे। (५।२।४) साधु न कहे, जो साधु हो उसी को साधु कहे। हर काम ठीक समय पर करो। नाणदसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं । अलाभो त्ति न सोएज्जा एवंगुणसमाउत्तं संजयं साहुमालवे । (७१४६) तवो त्ति अहियासए । (५।२।६) ज्ञान और दर्शन से संम्पन्न-संयम और तप में रत-इस न मिलने पर चिन्ता मत करो, उसे सहज तप मानो। प्रकार गुण-समायुक्त संयमी को ही साधु कहे। अदीणो वित्तिमेसेज्जा। (५।२।२६) भासाए दोसे य गुणे य जाणिया। मुहताज मत बनो। तीसे य दुर्दु परिवज्जए सया। (७१५६) जे न बंदे न से कुप्पे वाणी के दोष और गुण को जानो। जो दोपपूर्ण हो, उसका वंदिओ न समुपकसे । (५।२।३०) प्रयोग मत करो। सम्मान न मिलने पर क्रोध और मिलने पर गर्व मत करो। वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं । (७१५६) पृयणट्टी जसोकामी माणसम्माणकामए । हित और अनुकुल वचन बोलो। बह पसई पावं मायासल्लं च कुवई ।। (श२०३५) धुवं च पडिलेहेज्जा । (८।१७) पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना शाश्वत की ओर देखो। ण य रूबेशु मणं करे। (८।१६) करने वाला गुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया-शल्य रूप में भंगा मत लो। का आचरण करता है। मियं भासे । (८.१६) पणीयं वजए रख । (५।२।४२) कम बोलो। विकार बढ़ाने वाली वस्तु मत खाओ। बहुं सुणेइ कण्णेहिं बहुं अच्छोहिं पेच्छइ। मायामोसं दिवज्जए। (५१२१४६) न य दिटुसुयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ (८।२०) भूट-कपट से दूर रहो। वह कानों से बहुत सुनता है, आँखों से बहुत देखता है। अहिंसा निउणं दिट्ठा किन्तु सब देखे और सुने को कहना भिक्षु के लिये उचित नहीं। सव्वभूएसु संजमो । (६८) न य भोयणम्मि गिद्धो । (८१२३) सब जीवों के प्रति जो संयम है, वही अहिंसा है। --- जिह्वा-लोलुप मत बनो । सत्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं । आसुरत्तं न गच्छेज्जा। (८।२५) तम्हा पाणवई घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं॥ (६।१०) क्रोध मत करो। ___सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिये प्राण-वध देहे दुक्खं महाफलं । (८।२७) को भयानक जान कर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं। जो कष्ट आ पड़े, उसे सहन करो। न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्तवओरया। (६।१७) मियासणे। (८।२६) भगवान महावीर को माननेवाले संचय करना नहीं चाहते। कम खाओ। जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से । (६।१८) सुयलाभे न मज्जेज्ना । (८।३०) जो संग्रह करता है वह गृही है, साधक नहीं। ज्ञान का गर्व मत करो। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। (६।२०) से जाणमजाणं वा कट्ट, आहम्मियं पयं । मूर्छा ही परिग्रह है। संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे। (८।३१) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ : सूक्त और सुभाषित ५७३ जान या अजान में कोई अधर्म-कार्य कर बैठो तो अपनी चित, बाचालता-रहित और भय रहित भाषा बोले । आत्मा को उससे तुरन्त हटा लो, फिर दूसरी बार वह कार्य मत आयारपन्नत्तिधरं दिट्ठिवायमहिज्जगं। करो। वइविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी ।। (८।४६) अणायारं परक्कम्म । ____ आचारांग और प्रज्ञप्ति को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद नेव गूहे न निण्हवे । (८।३२) को पढ़ने वाला मुनि बोलने में स्खलित हुआ है (उसने वचन, अपने पाप को मत छिपाओ। लिंग और वर्ण का विपर्यास किया है) यह जानकर भी मुनि जरा जाव न पीलेइ वाही जाव न वड्डई। उसका उपहास न करे। जाविदिया न हायंति ताद धम्मं समायरे ॥ (८।३५) गिहिसंथवं न कुज्जा । (८१५२) जब तक जरा पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ गृहस्थ से परिचय मत करो। क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करे । कुज्जा साहू हि संथवं । (८।५२) कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववडणं । भलों की संगत करो। वमे सारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो । (८।३६) हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णनास विगप्पियं । क्रोध, मान, माया और लोभ --ये पाप को बढ़ाने वाले हैं। अवि वाससई नारि बंभयारी विवज्जए।। (८।५५) आत्मा का हित चाहने वाला इन चारों दोषों को छोड़े। जिसके ह.थ-पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हो कोहो पीई पणासेइ माणो विणयनासणो । वैसी सौ वर्ष की बूढ़ी नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। माया मित्ताणि नासेइ लोहो सध्वविणासणो॥ (८।३७) न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए। (६।१६) क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने बड़ों की अवज्ञा करने वाला मुक्ति नहीं पाता। वाला है, माया मित्रों का विनाश करती है और लोभ सब जस्संतए धम्मपयाइ सिक्खे (प्रीति, बिनय और मंत्री) का नाश करने वाला है। तस्संतिए वेण इयं पउंजे । उबसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे ॥ (३८) कायग्गिरा भो मणसा य निच्च ॥ (३।१।१२) ___ उपशम से क्रोध का हनन करो, मृदुता से मान को जीतो, जिसके समीप धर्मपदों की शिक्षा लेता है उसके समीप ऋजुभाव से माया को जीतो और सन्तोष से लोभ को जीतो। विनय का प्रयोग करे। शिर को झुकाकर, हाथों को जोड़कर, राइणिएसु विणयं पउंजे। (८१४०) (पंचांग वन्दन कर) काया, वाणी और मन से सदा सत्कार बड़ों का सम्मान करो। करे। निदं च न बहुमन्नेज्जा । (८।४१) लज्जा दया संयम बंभचेरं । नींद को बहुमान मत दो। कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं ।। (३।१।१३) बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा । (८१४३) विशोधी के चार स्थान हैं-लज्जा, दया, संयम और बहुश्रुत की उपासना करो। ब्रह्मचर्य । अपुच्छिओ न भासेज्जा सुस्सूसए आयरियप्पमत्तो। (६।१।१७) भासमाणस्स अंतरा ।। (८।४६) आचार्य की सुश्रूषा करो। बिना पूछे मत बोलो, बीच में मत बोलो। धम्मस्स विणओ मूलं । (६।२।२) पिट्ठिमंसं न खाएज्जा । (८।४६) धर्म का मूल विनय है। चुगली मत करो। विवत्ती अविणीयस्त संपत्ती विणियस्स य । अप्पत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज्ज वा परो। जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ।।(९।२।२१) सव्वसो तं न भासेज्जा भास अहियगामिणि ॥ (८।४७) अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है-ये ___ जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा शीघ्र कुपित हो ऐसी दोनों जिसे ज्ञात हैं, वही शिक्षा को प्राप्त होता है । अहितकर भाषा सर्वथा न बोलो। असंविभागी नहुतस्स मोक्खो। (६।२।२२) विटु मियं असंदिद्ध पडिपुन्नं वियं जियं । संविभाग के बिना मुक्ति नहीं। अयंपिरमणुविग्गं भासं निसिर अत्तवं ॥ (१४८) आयारमट्ठा विणयं पउंजे । (९।३।२) आत्मवान् दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, व्यक्त, परि- चरित्र-विकास के लिये अनुशासित बनो। Jain Education Intemational Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ दसवेआलिय ( दशवकालिक ) नियत्तणे वट्टइ सच्चवाई । (६।३।३) सत्य का शोधक नम्र होता है। वक्ककरे स पुज्जो। (६।३।३) अनुशासन मानने वाला ही पूज्य होता है। मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ (६।३७) लोहमय कांटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे भी शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं, किन्तु दुर्वचन रूपी कांटे सहजतया नहीं निकाले जा सकने वाले, वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले और महाभयानक होते हैं। गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू । (३।३।११) साधु और असाधु गुण से होता है, जन्म से नहीं। गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । (६।३।११) साधु बनो असाधु नहीं। सुयं मे भविस्सइ ति अज्झाइयव्वं भवइ । (६४सू०५) मुझे श्रुत प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । (६४सू०५) मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए । अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । (३।४।सू०५) मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। ठिओ परं ठावइस्सामि ति अज्झाइयव्वं भवइ । (३।४।सू०५) मैं धर्म में स्थिर होकर दूसरों को उसमें स्थापित करूँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। नो इहलोगट्ट्याए तवमहिढेज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिठेज्जा, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्ठयाए तवमहिछेज्जा, नन्नत्थ निज्जरठ्याए तवमहिट्ठज्जा। (६।४।सू०६) (१) इहलोक के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। (२) परलोक के निमित्त तप नहीं करना चाहिए । (३ ) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। ( ४ ) निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए। निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा । (१०११) ___ सदा प्रसन्न (आत्म-लीन) रहो । वंतं नो पडियायई। (१०११) वमन को मत पीओ। अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पि काए। (१०५) सबको आत्म-तुल्य मानो। न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा। (१०१०) कलह को बढ़ाने वाली चर्चा मत करो। समसुहदुक्खसहे । (१०।११) सुख-दुःख में समभाव रखो । न सरीरं चाभिकखई। (१०।१२) शरीर में आसक्त मत बनो। पुढवि समे मुणी हवेज्जा (१०।१०) ____ पृथ्वी के समान सहिष्णु बनो । न रसेसु गिद्धे। (१०।१७) स्वाद-लोलु मा बनो। न परं बएज्जासि अयं कुसीले। (१०।१७) दूसरों को बुरा-भला मन कहो। अत्ताणं न समुक्कसे । (१०।१८) अहंकार मत करो। न जाइमत्ते न य रूवमत्त, न लाभमत्त न सुएणमत्त । (१०।१६) जाति, रूप, लाभ और श्रुत का गर्व मत करो। पत्त यं पुण्णपावं । (चू०१।सू०१ स्था०५१) पुण्य और पाप अपना-अपना है। मणुयाण जीविए कुसग्गजलबिदुचंचले । (चू०१।सू०१ स्था०१६) यह मनुष्य-जीवन कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की तरह चंचल है। देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो॥ (चू०१।१०) संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान ही सुखद होता है। और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही महानरक के समान दुःखद होता है। संभिन्न वित्तस्स य हेट्ठओ गई। (चू० १।१३) आचार-भ्रष्ट की दुर्गति होती है । न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई असासया भोगपिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेण वेस्सई अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ (चू० १११६) यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीवों की भोगपिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य ही मिट जाएगी। चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं (चू० १३१७) शरीर को छोड़ दो पर धर्म को मत छोड़ो। अणुसोओ संसारो। (चू० २।३) Jain Education Intemational Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ सूक्त और सुभाषित जो भावना है, वह संसार है। पटिसोओ तस्स उत्तारो (०२२) प्रतित्रोत मोक्ष का पथ है-प्रवाह के प्रतिकूल चलना मुक्ति का मार्ग है । असं किलि ट्ठेहि समं वसेज्जा । ( चू०२/६) क्लेश न करने वालों के साथ रहो । संधि अपगमपर्ण (०२।१२) आत्मा से आत्मा को देखो । तमाह लोए पीवी सो जीव संजमजीवि (०२।१५) वही प्रतिबुद्धजीवी है, जो संयम से जीता है। ५७५ अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो । सन्विदिएहि सुसमाहिएहि । अरक्सिओ जाइप उद सुरखिओ सहाण मुख । ( ० २०१६) सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए । अरक्षित आत्मा जातिय (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ एवं संकेत-सूची ग्रन्थ संकेत ग्रन्थ संकेत प्रयुक्त ग्रन्थ नाम ऋग्वेद अंग० चू० अंत० अ० चू० अ० वे अनु० अनु० ० अन्त० ओ० नि० ओघ० नि० ओ० नि० भा० ओ० नि० वृ० औप० औप० टी० कल्प० अ० चि. अमर० अ० प्र० कौटि० अर्थ को० अ० प्रयुक्त ग्रन्थ नाम अंगविज्जा अंगपण्णत्ति चूलिका अंतगडदशा अगस्त्यसिंह चूणि (दशवकालिक) अथर्ववेद अनुयोगद्वार अनुयोगद्वार वृत्ति अन्तकृतदशा अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका अभिधान चिन्तामणि अमरकोष हारिभद्रीय अष्टक प्रकरण अष्टाध्यायी (पाणिनि) आगम अठोत्तरी आयारो आचारचूला आचाराङ्ग नियुक्ति आचाराङ्ग नियुक्ति वृत्ति आचाराङ्ग वृत्ति आवश्यक आवश्यक नियुक्ति आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति आह्निक प्रकाश उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन चूणि उत्तराध्ययन नियुक्ति उत्तराध्ययन नेमिचंद्रीय वृत्ति ओघनियुक्ति ओघनियुक्ति भाष्य ओघनियुक्ति वृत्ति औपपातिक औपपातिक टीका कठोपनिषद् (शाङ्कर भाष्य) कल्पसूत्र कात्यायनकृत पाणिनि का वार्तिक कालीदास का भारत कौटिल्य अर्थशास्त्र कौटलीय अर्थशास्त्र गच्छाचार गीता (शाङ्करभाष्य) गोभिल स्मृति चरक चरक सिद्धिस्थान चरक सूत्रस्थान चूलिका (दशवकालिक) छान्दोग्योपनिषद् छान्दोग्योपनिषद् (शांकरभाष्य) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आ० अ० आ० आ० चू० आचा०नि० आचा०नि०१० आचा०३० आव० आ०नि० आ० हा० वृ०॥ आव० हा०व०" गीता० शा० भा० गोभिल स्मृ० च० चरक सिद्धि च० सू० चू० (दश०) छान्दो छान्दो० शा०भा० जय धवला ज० ध० घवला जा० प्र० ख० जि० चू० जीवा० ३० जी० वृ० जै० भा० उत्त० उत्त० चू० उत्त० नि. उत्त० ने० वृ० उत्त० बृ० उत्त०६०व० बृ० वृ० उत्त० स० उपा० उपा०टी० । जातक प्रथम खण्ड जिनदास चूणि (दशवकालिक) जीवाभिगम वृत्ति जैन भारती (साप्ताहिक पत्रिका) जैन सत्य प्रकाश (पत्रिका) जैन सिद्धान्त दीपिका उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति उत्तराध्ययन सर्वार्थसिद्धि टीका उपासकदशा उपासक दशा टीका जै० सिं० दी० । जै०सि० ज्ञात ज्ञाताधर्मकथा Jain Education Intemational Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ घसवेआलियं (दशवकालिक) ग्रन्थ-संकेत गन्थ-संकेत ठा० प्रयुक्त ग्रन्थ-नाम ठाणं तत्त्वार्थाधिगम सूत्र तत्त्वा० त० भा० । तत्त्वा भा० ) तत्त्वा० भा०टी० दशव० दश० तत्त्वार्थ भाष्य प्रयुक्त ग्रन्थ-नाम पाइयसहमहण्णव पाणिनिकालीन भारत पाणिनि व्याकरण पिण्ड नियुक्ति पिण्ड नियुक्ति टीका पा० भा० पा० व्या० पि०नि० पि० नि० वृ०॥ पि०नि०टी० प्रज्ञा० तत्त्वार्थ भाप्य टीका दसवेआलियं सत्तं दशवकालिक (के० वी० अभ्यङ्कर) (मनसुख लाल) (जी० घेलाभाई) (तिलकाचार्य वृत्ति) दशवकालिक धूलिका प्रज्ञापना प्रबन्ध पर्यालोचन प्रभावक चरित्र प्रवचन परीक्षा विश्राम दशव० ० । दश०० दशवै० दी० दी० दश०नि० दशा० दे० ना. द्वा० कु० घना धन० नाम० । धम्म० दशवकालिक दीपिका दशवकालिक नियुकि दशाश्रुतस्कन्ध देशी नाममाला द्वादश कुलक प्रव० सारो०। प्र० सा० प्रव० टी० प्रव० प्र० प्र० अव० प्र०प्र० प्रशम० प्र० उ० प्रश्न (आस्रव०) प्रश्न प्र०व० प्रश्न० सं० प्रवचन सारोद्धार प्रवचन सारोद्धार टीका प्रवराध्याय प्रशमरति प्रकरण अवचूरि प्रशमरति प्रकरण प्रश्न उपनिषद् प्रश्न व्याकरण आस्रवद्वार प्रश्नव्याकरण प्रश्नव्याकरण वृत्ति प्रश्नव्याकरण संवरद्वार प्राचीन भारत प्राचीन भारतीय मनोरंजन बृहद हिन्दीकोष ब्रह्मचर्य भगवती जोड़ भगवती धनञ्जय नाममाला धम्मपद धर्म निरपेक्ष भारत की प्रजातन्त्रात्मक परम्पराएं नं० बृ० हि. नं० सू० नन्दी सू० नन्दी सूत्र नं० सू० गा० नाया० भग० जो० भग० भग० टी० भग० वृ० भगवती टीका नि० भा० गा० भिक्षु ग्रंथ. भिक्षु० नि० ० उ० नि० चू० नि० पी० नि० भा० नि. भा० गा० नि० पी० भा० पू० नि० पी० भा० नि० गा० नन्दी सूत्र गाथा नायाधम्मकहा नालन्दा विशाल शब्द-सागर निशीथ निशीथ चूणि उद्देशक निशीथ चूणि निशीथ पीठिका निशीथ भाष्य निशीथ भाष्य गाथा निशीथ पीठिका भाष्य चुणि निशीथ पीठिका भाष्य नियुक्ति गाथा (दशवकालिक) नृसिंह पुराण पन्नवणा पन्नवणा भाष्य पाइय नाममाला भाष्य गाथा भिक्षुग्रंथ रत्नाकर भिक्षुशब्दानुशासन भिक्खुनो पात्तिमोख मज्झिम निकाय मनुस्मृति म०नि० म० स्मृ० म० भा० महा० महा० शा० महाभारत पन्न पन्न० भा० पाइ० ना० मूला मेघ० उ० महाभारत शान्तिपर्व महावग्गो (विनय पिटक) मूलाचार मेघदूत उत्तरार्द्ध मोहत्यागाष्टकम् Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ एवं संकेत-सूची ५७६ ग्रंथ संकेत प्रयुक्त नथ नाम ग्रन्थ संकेत प्रयुक्त ग्रन्थ-नाम यजुर्वेद सु० नि० सुत्त निपात रत्नकरण्ड श्रावकाचार सु० नि० (गुज.) सुत्त निपात (गुजराती) रसतरंगिणी लघुहारीत सुश्रुत चिकित्सा स्थान व० ० वनस्पति चन्द्रोदय सुश्रुत सूत्र स्थान व० स्मृ० सूत्रकृताङ्ग वशिष्ठ वशिष्ठ स्मृति सूत्रकृताङ्ग चूणि वि०पि० विनय पिटक सू० टी० सूत्रकृताङ्ग टीका विनय पिटक महावग्ग स्कन्द पुराण " " चुल्लवग्ग स्था०टी०॥ स्थानाङ्ग टीका स्था०१० " भिक्खुनी पातिमोक्ष छत्तवग्ग स्मृ० अ० स्मृति अर्थशास्त्र " भिक्षु पातिमोक्ष हल० । ७० पातिमोक्ष हलायुध कोष विशुद्धि मार्ग भूमिका हा० टी० हारिभद्रीय टीका (दशवकालिक) वि० पु० विष्णु पुराण हिन्दु राज्यतन्त्र (दूसरा खण्ड) वृ० गौ० स्मृ० वृद्ध गौतम स्मृति हैमश० हैम शब्दानुशासन व्य० व्यवहार A Dictionery of Urdu, Classical Hindi & English व्य० भा० व्यवहार भाष्य A Sanskrit English Dictionery व्य० मा० टी० व्यवहार भाष्य टीका Dasavealiya Sutra शा०नि० भ०) By K. V.Abhyankar, M.A. शा. नि. शालिग्राम निघंटु भूषण Dasvaikalika Sutra: A Study शालि०नि० By M. V. Patwardhan. History of Dharmashastra शुक्रनीति शुक्र० नी० ___By P. V.Kane, M. A. LL.M. श्रमण श्रमण सूत्र Journal of the Bihar & Orissa श्री महावीर कथा Research Society षड्भाषाचन्द्रिका The Book or Gradual Sayings सं० नि० संयुक्त निकाय Translated by E. M. Hare संदेह विपौषधि The Book of the Discipline (Sacred Books of the Buddhists) सम० समवायाङ्ग सम० टी० (Vol. XI) समवायाङ्ग टीका सम० वृ० The Uttaradhyayan Sutra सामाचारी शतक By J. Charpentier, Ph. D. समी साँझनो उपदेश(गो.जी.पटेल) सिद्ध चक्र (पत्रिका) व्यव० - शु० Jain Education Intemational Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- _