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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ३६. भंते ( भंते ) : यह गुरु का सम्बोधन है। टीकाकार ने इसके संस्कृत रूप तीन दिए हैं- भदन्त भवान्त और भयान्त' । व्रत ग्रहण गुरुके साक्ष्य से होता है । इसलिए शिष्य गुरु को सम्बोधित कर अपनी भावना का निवेदन करता है । इस सम्बोधन की उत्पत्ति के विषय में घूर्णिकार कहते हैं : गणधरों ने भगवान से अर्थ सुन कर व्रत ग्रहण किये । उस समय उन्होंने 'भंते' शब्द का व्यवहार किया। तभी से इसका प्रयोग गुरु को आमन्त्रण करने के लिए होता आ रहा है । १३३ ३७. अतीत में किये ( तस्स) गत काल में दण्ड-समारम्भ किये हैं उनसे । सम्बन्ध या अवयव में षष्ठी का प्रयोग है । ३८. निवृत होता हूँ ( डिस्कमामि ) अकरणीय कार्य के परिहार की जैन प्रक्रिया इस प्रकार है- अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान का संवरण और अनागत का प्रत्याख्यान । प्रतिक्रमण का अर्थ है अतीतकालीन पाप कर्म से निवृत्त होना । अध्ययन ४ : सूत्र १० टि० ३६-३६ ३२. निन्दा करता है, ग करता हूँ (नियामि गरिहामि ) निन्दा का अर्थ आत्मालोचन है । वह अपने-आप किया जाता है। दूसरों के समक्ष जो निन्दा की जाती है । उसे गर्दा कहा जाता है । हरिभद्रसूरि ने निन्दा तथा गर्दा में यही भेद बताया है। पहले जो अज्ञान भाव से किया हो उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप से हृदय मैं दाह का अनुभव करना जैसे मैंने बुरा किया, बुरा कराया, बुरा अनुमोदन किया वह निन्दा है ग का अर्थ है-भूत, वर्तमान और आगामी काल में न करने के लिए उद्यत होना । १ – (क) जि० चू० पृ० १४३ : 'भंते ! 'त्ति भयवं भावान्त एवमादी भगवतो आमंतणं । (ख) हा० टी० प० १४४ : भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम्, भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा श्रुतिः । (ग) अ० चू० पृ० ७८ भंते ! इति भगवतो आमंतणं । (ख) २- हा० टी० प० १४४ : एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थम् । ३ - (क) अ० चू० पृ० ७८ : गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए एवमाहु-तस्स भंते० । जहा जे वि इमम्मि काले ते पिबताई पडिवज्जमाणा एवं भणति तस्स भंते ! जि० ० चू० पृ० १४३ : गणहरा भगवओ सगासे अत्थं सोऊण वताणि पडिवज्ज माणा एवमाह । ४ - हा० टी० प० १४४ : तस्येत्यधिकृतो दण्डः सम्बध्यते, सम्बन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी । ५ ( क ) ० ० १०७८ पडिस्कमामि प्रतीचं प्रमामि जियामि । - । (ख) जि० चू० पृ० १४३ : पडिक्कमामि नाम ताओ दंडाओ नियत्तामित्ति वुतं भवइ । (ग) हा० टी० प० १४४ : योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य संबंधिनमतीतमवयवं प्रतिक्रामामि न वर्तमानमनागतं वा, प्रतिक्रामामीति भूताद्दण्डान्निवर्तेऽह अतस्यैव प्रतिक्रमणात् प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति । मित्युक्तं भवति, तस्माच्च निमिविरमणमिति । ६ हा० टी० ५० १४४ शिन्दानि गहमी ति अत्रात्मसाक्षिकी निग्या परसाक्षिकी यह जुगुप्सोव्यते । ७ -- ( क ) अ० चू० पृ० ७८ : जं पुव्वमण्णाणेण कतं तस्स णिदामि " णिदि कुत्सायाम् इति कुत्सामि । गरहामि' 'गहुँ परिभाषणे' इति पगासीकरेमि । (ख) जि० Jain Education International [० चू० पृ० १४३ : जं पुण पुव्विं अन्नाणभावेण कयं तं विदामिना । हा 1 कप हा ! दुकारि अणुमयपि हा दृछु । अतो-तो उस हिप पच्छातवेग 'गरिहानि' नाम तिविहं सीतानागतवट्टमागे काले अकरणयाए अभुमि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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